गर्माती धरती पर पक्षियों के पैर लंबे होने की संभावना

क्षियों के रोएंदार पंख उनके शरीर की ऊष्मा बिखरने नहीं देते और उन्हें गर्म बनाए रखते हैं। दूसरी ओर, चोंच उन्हें ठंडा रखती है, जब शरीर बहुत अधिक गर्म हो जाता है तो चोंच से ही ऊष्मा बाहर निकालती है। लेकिन जब ज़्यादा संवेदी ताप नियंत्रक (thermostat) की ज़रूरत होती है, तो वे अपनी टांगों से काम लेते हैं।

ऑस्ट्रेलिया में चौदह पक्षी प्रजातियों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि पक्षी अपने पैरों में रक्त प्रवाह को कम-ज़्यादा करके शरीर की गर्मी को कम-ज़्यादा बिखेर सकते हैं।

पक्षियों के शीतलक यानी उनकी चोंच और पैर में बेशुमार रक्तवाहिकाएं होती हैं और ये कुचालक पंखों से ढंकी नहीं होती हैं। इससे उन्हें गर्मी बढ़ने पर शरीर का तापमान कम करने में मदद मिलती है। इसलिए तोतों और उष्णकटिबंधीय जलवायु में रहने वाले अन्य पक्षियों की चोंच बड़ी और टांगें लंबी होती हैं।

लेकिन पक्षियों में ताप नियंत्रण से जुड़ी अधिकतर जानकारी प्रयोगशाला अध्ययनों पर आधारित थीं। सवाल था कि क्या प्राकृतिक परिस्थिति में यही बात लागू होती है? इसे जानने के लिए डीकिन विश्वविद्यालय की वैकासिक पारिस्थितिकीविद एलेक्ज़ेंड्रा मैकक्वीन ने प्राकृतिक आवासों में पक्षियों की ऊष्मीय तस्वीरें लीं।

ऊष्मा (अवरक्त) कैमरे की मदद से उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई वुड डक (Chenonetta jubata), बनफ्शी कीचमुर्गी (Porphyrio porphyrio), और बेमिसाल परी-पिद्दी (Malurus cyaneus) सहित कई पक्षी प्रजातियों की तस्वीरें लीं। तुलना के लिए उन्होंने हवा की गति, तापमान, आर्द्रता और सौर विकिरण भी मापा ताकि पक्षियों के शरीर की बाहरी सतह के तापमान की गणना कर सकें।

गर्मियों में, जब बाहर का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक होता है तो पक्षी शरीर की अतिरिक्त गर्मी को निकालने के लिए अपनी चोंच और टांगों दोनों का उपयोग करते हैं। सर्दियों में, जब बाहर का तापमान कम होता है, कभी-कभी 2.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो पक्षियों की चोंच तो गर्मी छोड़ती रहती है लेकिन उनकी टांगें ऊष्मा बिखेरना बंद कर देती हैं – उनके पैर ठंडे थे यानी उन्होंने पैरों में रक्त प्रवाह रोक (या बहुत कम कर) दिया था ताकि ऊष्मा का ह्रास कम रहे।

बायोलॉजी लैटर्स में प्रकाशित ये निष्कर्ष ठीक ही लगते हैं, क्योंकि पक्षियों का अपनी चोंच की रक्त वाहिकाओं पर नियंत्रण कम होता है क्योंकि चोंच उनके मस्तिष्क के करीब होती है जहां निरंतर रक्त प्रवाह ज़रूरी है।

बहरहाल इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिलती है कि ठंडी जलवायु में रहने वाले पक्षियों की चोंच छोटी क्यों होती है। साथ ही अनुमान है कि जैसे-जैसे वैश्विक तापमान बढ़ता जाएगा और पृथ्वी गर्म होती जाएगी तो संभव है कि वर्ष में बहुत अलग-अलग तापमान झेल रही पक्षी प्रजातियों की टांगें लंबी होती जाएंगी, जिनके रक्त प्रवाह और ऊष्मा के संतुलन पर पक्षी का अधिक नियंत्रण होता है।

फिलहाल उम्मीद है कि इस तरह के और भी अध्ययनों से यह बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी कि दुनिया भर के पक्षी जलवायु परिवर्तन से कैसे निपटेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गार्टर सांप दोस्तियां करते हैं

सांपों के बारे में प्राय: माना जाता है कि वे समूह में नहीं रहते वरन अकेले यहां-वहां सरसराते रहते हैं। लेकिन हाल ही में बिहेवियोरल इकॉलॉजी में प्रकाशित अध्ययन इस मान्यता का खण्डन करता है और बताता है कि गार्टर सांप (Thamnophis butleri) समूह बनाते हैं। इस समूह में वे ‘लोग’ शामिल होते हैं जिनके साथ उनकी मित्रता होती है या जिनका साहचर्य वे पसंद करते हैं। समूह की मुखिया कोई बुज़ुर्ग मादा होती है जो उस समूह के युवा सांपों का मार्गदर्शन करती है।

आम लोगों के अलावा पारिस्थितिकी विज्ञानियों को भी काफी समय तक यही लगता था कि सांप असामाजिक और एकाकी जंतु होते हैं और केवल संभोग और शीतनिद्रा के समय ही साथ आते हैं। इसका एक कारण यह हो सकता है कि उन पर अध्ययन ही बहुत कम हुए हैं क्योंकि वे बिलों में या छिपे हुए रहते हैं और उन्हें ढूंढना मुश्किल होता है। लेकिन वर्ष 2020 में, विल्फ्रिड लॉरियर विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिकीविद मॉर्गन स्किनर और उनके दल ने प्रयोगशाला अध्ययनों में देखा कि कृत्रिम आवासों में रखे गए गार्टर सांप ‘मित्र’ बनाते हैं – उनके ऐसे साथी होते हैं जिनका साहचर्य वे अन्य की तुलना में अधिक पसंद करते हैं।

इसके पहले 2009 में, कनाडा के ओंटारियो परिवहन मंत्रालय ने गार्टर सांपों की सुरक्षा के लिए एक अध्ययन करवाया था। इसमें वैज्ञानिकों ने उनके बिलों पर नज़र रखी और उन्हें सड़क निर्माण से सुरक्षित रखने के लिए अन्यत्र स्थानांतरित किया। उन्होंने 250 हैक्टर में फैले अध्ययन क्षेत्र में सांपों को पकड़ा, उन पर पहचान चिह्न लगाए और 3000 से अधिक सांपों पर 12 साल तक नज़र रखी। सांप की पूरी उम्र लगभग इतनी ही होती है। लेकिन निगरानी का मुख्य फोकस यह सुनिश्चित करना था कि स्थानांतरण के बाद गार्टर सांप ठीक से फल-फूल रहे हैं या नहीं।

हालिया अध्ययन में स्किनर इन वैज्ञानिकों के साथ जुड़े और 12 वर्षों में उनके द्वारा जुटाए गए डैटा से सांपों की सामाजिक संरचना या जुड़ाव समझने की कोशिश की। सामाजिक जुड़ाव उन्होंने मनुष्यों की नज़र से ही देखा। उन्होंने प्रत्येक सांप को एक बिन्दु या नोड कहा। और जब दो सांपों को एक ही दिन, एक ही स्थान पर देखा गया तो उन्होंने उन दो बिंदुओं को एक रेखा से जोड़ दिया। डैटा का निष्कर्ष है कि सांप स्वतंत्र रूप से और बेतरतीब ढंग से यहां-वहां भटकने की बजाय ‘समूह’ बनाते हैं। इस समूह में वे सदस्य होते हैं जिनका साथ वे पसंद करते हैं और इस तरह के एक समूह में औसतन तीन से चार सांप होते हैं। लेकिन कुछ मामलों में सदस्यों की संख्या 46 तक भी हो सकती है।

यह भी देखा गया कि मादा सांप नर की तुलना में अधिक मिलनसार होती हैं, और सबसे अधिक बुज़ुर्ग मादा सांप दोस्तों के साथ दिखती हैं। इसके अलावा वे ही समूह की मुखिया भी होती हैं, और समूह के युवा सदस्य उनका अनुसरण करते हैं। यह भी देखा गया कि उम्र बढ़ने के साथ नर सांप अधिक असामाजिक होते जाते हैं।

यह भी पता चला है कि सांप समान लिंग और हम-उम्र सांपों के साथ भी मेल-जोल रखते हैं। यानी यह मेलजोल सिर्फ संभोग के उद्देश्य से नहीं होता। इसके अलावा, नर और मादा दोनों में ही यह देखा गया है कि जो भी सांप अधिक सामाजिक था वह अधिक स्वस्थ था; लगता है कि दोस्तियां करने से उन्हें फायदा होता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि समूह में होने से शिकारियों से बचा जा सकता है, या भोजन और शीतनिद्रा के लिए अच्छे स्थान ढूंढने में मदद मिल सकती है। या यह भी हो सकता है कि दोस्तों के करीब घूमने से उन्हें गर्माहट मिलती हो।

अब तक सांप-समाजों में मादाओं का महत्व उपेक्षित था। माना जाता है कि नर संभोग के लिए मादाओं की तलाश में रहते हैं, लेकिन मादाएं बच्चे पैदा करने के अलावा कुछ नहीं करतीं। अध्ययन इसे स्पष्ट रूप से गलत सिद्ध करता है, और बच्चों और युवा सांपों के मार्गदर्शन और सुरक्षा में मादाओं की भूमिका उजागर करता है।

यह अध्ययन यह समझने कि दिशा में एक महत्वपूर्ण पहला कदम है कि प्राकृतिक परिस्थितियों में सांपों का समूह कैसे बनता है। स्किनर का मत है कि यदि पारिस्थितिकीविद अपने पूर्व फील्ड नोट्स या अध्ययनों पर दोबारा गौर करेंगे तो सांपों पर ऐसे और भी अध्ययन संभव हो सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शनि के चंद्रमा पर जीवन की संभावना के प्रमाण

हाल ही में शनि के बर्फीले उपग्रह एन्सेलेडस के बारे में वैज्ञानिकों ने जीवन की उपस्थिति के संकेत दिए हैं। नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन में एन्सेलेडस पर उपस्थित ऐसे रसायनों की उपस्थित का खुलासा किया गया है जो जीवन के लिए आवश्यक हैं। 

गौरतलब है कि बर्फीली परत से घिरे इस उपग्रह की सतह पर उपस्थित दरारों से पानी के फव्वारे छूटते रहते हैं। इसलिए लंबे समय से यह वैज्ञानिक आकर्षण का केंद्र रहा है। उपग्रह का अध्ययन करने के लिए भेजे गए अंतरिक्ष यान कैसिनी ने 2000 के दशक के मध्य में इन फव्वारों के पानी में कार्बन डाईऑक्साइड तथा अमोनिया जैसे अणुओं की पहचान की जो पृथ्वी पर जीवन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

इस दिशा में बढ़ते हुए हारवर्ड विश्वविद्यालय और नासा की जेट प्रपल्शन प्रयोगशाला के जोनाह पीटर के नेतृत्व में एक टीम ने कैसिनी के डैटा का गहन विश्लेषण शुरू किया। जटिल सांख्यिकीय तरीकों की मदद से उन्होंने एन्सेलेडस से निकलने वाले फव्वारों के भीतर कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, अमोनिया और आणविक हाइड्रोजन के अलावा हाइड्रोजन सायनाइड, ईथेन तथा मिथेनॉल जैसे आंशिक रूप से ऑक्सीकृत पदार्थ पाए। और इन सबकी खोज सांख्यिकीय विधियों से हो पाई है। कैसिनी मिशन में शामिल ग्रह वैज्ञानिक मिशेल ब्लैंक ने इस खोज को अभूतपूर्व बताया है और शनि के छोटे उपग्रहों की रासायनिक गतिविधियों का अधिक अध्ययन करने का सुझाव दिया है।

गौरतलब है कि नए खोजे गए यौगिक सूक्ष्मजीवी जीवन के बिल्डिंग ब्लॉक्स और संभावित जीवन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं। विशेष रूप से हाइड्रोजन सायनाइड है, जो नाभिकीय क्षारों और अमीनो एसिड का एक महत्वपूर्ण घटक है। शोधकर्ताओं की विशेष रुचि जीवन-क्षम अणुओं के निर्माण की दृष्टि से एन्सेलेडस के पर्यावरण को समझने की है। सिमुलेशन से पता चला है कि जीवन की उत्पत्ति के लिए महत्वपूर्ण कई अणु एन्सेलेडस पर बन सकते थे और आज भी बन रहे होंगे।

इसके अलावा, एन्सेलेडस से निकलते फव्वारों का विविध रासायनिक संघटन ऑक्सीकरण-अवकरण अभिक्रिया की संभावना दर्शाता है जो जीवन के बुनियादी घटकों के संश्लेषण की एक निर्णायक प्रक्रिया है। यह पृथ्वी पर ऑक्सी-श्वसन और प्रकाश संश्लेषण जैसी प्रक्रियाओं को बनाए रखने का काम करती है।

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या वास्तव में ऐसा होता होगा, लेकिन इसके निहितार्थ काफी महत्वपूर्ण हैं। बहरहाल यह खोज न केवल एन्सेलेडस के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न करती है, बल्कि बृहस्पति ग्रह के चंद्रमा युरोपा जैसे समान समुद्री दुनिया की छानबीन के लिए भी प्रेरित करती है। आगामी युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का जूपिटर आइसी मून्स एक्सप्लोरर (जूस) मिशन यही करने जा रहा है।

बड़े अणुओं का अध्ययन करने में सक्षम उपकरणों से लैस वैज्ञानिक एन्सेलेडस की रासायनिक विविधता को उजागर करके देख पाएंगे कि वहां जीवन के योग्य परिस्थितियां हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

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ओज़ोन-अनुकूल शीतलक इतने भी सुरक्षित नहीं

र्यावरण अनुकूल रेफ्रिजरेंट की खोज में हाइड्रोफ्लोरोओलीफिन्स (एचएफओ) एक बेहतरीन विकल्प माना जाता है। इसे ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने तथा ओज़ोन परत ह्रास के समाधान के रूप में भी काफी प्रोत्साहन मिला था। लेकिन अब, अध्ययनों में इस विकल्प के कुछ चिंताजनक पहलू सामने आए हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एचएफओ के कुछ प्रकारों को फ्लोरोफॉर्म गैस बनाने का दोषी पाया है। यह गैस ग्लोबल वार्मिंग के लिहाज़ से कार्बन डाईऑक्साइड से 14,800 गुना अधिक खतरनाक है। गौरतलब है कि एचएफओ को वायुमंडल में तेज़ी से नष्ट होने और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए बनाया गया था।

शोधकर्ताओं ने नियंत्रित वातावरण में पांच अलग-अलग एचएफओ का परीक्षण किया। चैम्बर में दो दिनों तक ओज़ोन से इनकी क्रिया कराने के बाद टीम ने परिणामी गैसों का विश्लेषण किया। मालूम हुआ कि ओज़ोन से क्रिया करके पांच में से तीन एचएफओ ने अल्प मात्रा में फ्लोरोफॉर्म बनाया था।

इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं ने एक वायुमंडलीय मॉडल निर्मित किया। संभवत: अधिकांश एचएफओ अणु ऑक्सीडेंट यौगिकों के साथ प्रतिक्रिया करके नष्ट हो जाएंगे। अलबत्ता, इनका कुछ हिस्सा ओज़ोन के साथ जुड़ जाता है (लगभग 0.13 से 2.96 प्रतिशत)जिसके अवांछित पर्यावरणीय परिणाम होंगे। इतनी कम अभिक्रिया का कारण यह है कि समताप मंडल में ओज़ोन की सांद्रता ही कम है।

यह शोध बताता है कि पर्यावरण में किसी भी पदार्थ को छोड़ने से पहले व्यापक आकलन की आवश्यकता है।

इसके अलावा, कुछ एचएफओ वातावरण में ट्राइफ्लोरोएसिटिक एसिड जैसे हानिकारक पदार्थों में परिवर्तित हो सकते हैं। इसके चलते जल प्रदूषण की चिंता पैदा होती है। वैसे भी आने वाले दशक में युरोपीय संघ ने अधिकांश एचएफओ को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की योजना बनाई है। देखा जाए तो तकनीकी प्रगति और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच एक नाज़ुक संतुलन बनाने के लिए सावधानीपूर्वक जांच और सक्रिय उपायों की आवश्यकता होगी। ‘ओज़ोन-हितैषी’ रेफ्रिजरेंट की खोज नवाचार और पर्यावरणीय प्रबंधन के बीच पर्याप्त संतुलन की मांग करता है। (स्रोत फीचर्स)

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बिल्लियों के चेहरे पर लगभग 300 भाव होते हैं

सा माना जाता है कि बिल्लियां सामाजिक जंतु नहीं हैं। लेकिन हाल ही में हुए अध्ययन में बिल्लियों में दोस्ती से लेकर गुस्से तक के 276 चेहरे के भाव देखे गए हैं। बिहेवियरल प्रोसेसेस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बिल्लियों में इन भावों के विकसित होने में 10,000 सालों से मनुष्य की संगत का हाथ है।

हो सकता है कि बिल्लियां एकान्तप्रिय और एकाकी प्राणि हों, लेकिन वे अक्सर घरों में या सड़क पर अन्य बिल्लियों के साथ खेलते भी देखी जाती हैं। कुछ जंगली बिल्लियां तो बड़ी-बड़ी कॉलोनियों में रहती हैं जिनकी आबादी हज़ारों में होती है।

बिल्लियों पर हुए अधिकतर अध्ययन उनके बीच के झगड़ों पर केंद्रित रहे हैं, लेकिन बिल्ली प्रेमी लॉरेन स्कॉट का ऐसा विचार था कि बिल्लियों में आक्रामकता के अलावा प्रेम और कूटनीति जैसे और भी भाव होंगे। वे जानना चाहती थीं कि बिल्लियां आपस में संवाद कैसे करती हैं।

तो, स्कॉट ने एक कैटकैफे का रुख किया। उन्होंने कैफे बंद होने के बाद बिल्लियों के चेहरे के भावों को वीडियो रिकॉर्ड किया; खास कर जब बिल्लियां अन्य बिल्लियों से किसी रूप में जुड़ रही होती थीं। फिर उन्होंने वैकासिक मनोवैज्ञानिक ब्रिटनी फ्लोर्कीविक्ज़ के साथ मिलकर बिल्लियों के चेहरे की मांसपेशियों की सभी हरकतों को कोड किया। कोडिंग में उन्होंने सांस लेने, चबाने, जम्हाई और ऐसी ही अन्य हरकतों को छोड़ दिया।

इस तरह उन्होंने बिल्लियों द्वारा प्रस्तुत चेहरे के कुल 276 अलग-अलग भावों को पहचाना। अब तक चेहरे के सर्वाधिक भाव (357) चिम्पैंज़ी में देखे गए हैं। देखा गया कि बिल्लियों का प्रत्येक भाव उनके चेहरे पर देखी गई 26 अद्वितीय हरकतों में से चार हरकतों का संयोजन था, ये हरकतें हैं – खुले होंठ, चौड़े या फैले जबड़े, फैली या संकुचित पुतलियां, पूरी या आधी झुकी पलकें, होंठों के कोने चढ़े (मंद मुस्कान जैसे), नाक चाटना, तनी हुईं या पीछे की ओर मुड़ी हुई मूंछें, और/या कानों की विभिन्न स्थितियां। तुलना के लिए देखें तो मनुष्यों के चेहरे की ऐसी 44 अद्वितीय हरकतें होती हैं, और कुत्तों के चेहरे की 27। वैसे ये अध्ययन जारी हैं कि हम भाव प्रदर्शन में कितनी अलग-अलग हरकतों का एक साथ इस्तेमाल करते हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि बिल्लियों की अधिकांश अभिव्यक्तियां स्पष्टत: या तो मैत्रीपूर्ण (45 प्रतिशत) थीं या आक्रामक (37 प्रतिशत)। शेष 18 प्रतिशत इतनी अस्पष्ट थीं कि वे दोनों श्रेणियों में आ सकती थीं।

यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि इन भंगिमाओं के ज़रिए बिल्लियां वास्तव में एक-दूसरे से क्या ‘कह’ रही थीं। इतना ज़रूर समझ आया कि दोस्ताना संवाद के दौरान बिल्लियां अपने कान और मूंछें दूसरी बिल्ली की ओर ले जाती हैं, और अमैत्रीपूर्ण संवाद के दौरान उन्हें उनसे दूर ले जाती हैं। सिकुड़ी हुई पुतलियां और होठों को चाटना भी मुकाबले  का संकेत है।

दिलचस्प बात यह है कि बिल्लियों की कुछ मित्रतापूर्ण भंगिमाएं मनुष्यों, कुत्तों, बंदरों और अन्य जानवरों की तरह होती हैं। यह इस बात का संकेत है कि शायद ये प्रजातियां ‘एक उभयनिष्ठ भावयुक्त चेहरा’ साझा कर रही हों।

बहरहाल शोधकर्ता जंगली बिल्ली कुल के अन्य सदस्यों के साथ अपने परिणामों की तुलना नहीं कर पाए हैं लेकिन वे जानते हैं कि घरेलू बिल्ली के सभी करीबी रिश्तेदार आक्रामक एकाकी जानवर हैं। इसलिए अनुमान तो यही है कि घरेलू बिल्लियों ने इस आक्रामक व्यवहार में से कुछ तो बरकरार रखा है, लेकिन मनुष्यों के बचे-खुचे खाने के इंतज़ार में मित्रवत अभिव्यक्ति शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

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नेपाल में आंखों की रहस्यमयी बीमारी

नेपाल में, मानसून के मौसम की समाप्ति अक्सर नेत्र चिकित्सकों के लिए परेशानी का सबब बन जाती है। इस दौरान एक विचित्र नेत्र संक्रमण – सीज़नल हाइपरएक्यूट पैनुवाइटिस (शापू) – की शुरुआत होती है। यह मुख्य रूप से बच्चों को प्रभावित करती है। इसमें आम तौर पर बिना किसी दर्द के एक आंख लाल हो जाती है और नेत्रगोलक में दबाव कम हो जाता है। 24-48 घंटों के भीतर इलाज न किया जाए तो दृष्टि जा सकती है।

नेपाली शोधकर्ता इस रहस्यमय रोग की उत्पत्ति को समझने के प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए पर्यावरण सर्वेक्षण, जीनोमिक अनुक्रमण और विशिष्ट रिपोर्टिंग प्रणाली स्थापित की गई है। लेकिन फंडिंग एक चुनौती बनी हुई है। और इस वर्ष शापू नए क्षेत्रों में सामने आई है। और लक्षणों की गंभीरता का पूर्वानुमान भी मुश्किल हो गया है।

शापू की जानकारी सबसे पहले 1979 में मिली थी और नेत्र रोग विशेषज्ञ मदन पी. उपाध्याय ने इसे यह नाम दिया था। उपाध्याय के अनुसार इस समस्या के मामले हर दो साल में ज़्यादा होते हैं। इसमें अक्सर नेत्रगोलक सिकुड़ जाता है और दृष्टि क्षीण हो जाती है। इसके इलाज में एंटीबायोटिक्स, स्टेरॉयड और अन्य औषधियों की नाकामी के चलते चिकित्सक एक प्रभावी समाधान खोजने में भिड़े हैं।

वर्ष 2021 तक हर साल शापू के केवल कुछ ही मामले दर्ज होते थे। लेकिन 2021 में 150 से अधिक मामले सामने आने से 2023 में बेहतर तैयारी की गई। एक समर्पित रिपोर्टिंग तंत्र ने देश भर में शापू के प्रसार को ट्रैक करने में मदद की। पता चला कि शापू काफी विस्तृत क्षेत्र में फैल चुकी है।

प्रयोगशाला में कल्चर के माध्यम से संक्रमण को पहचानने के परिणाम अनिर्णायक रहे हैं। कई रोगियों ने लक्षणों का अनुभव करने से पहले ‘सफेद पतंगे’ से संपर्क में आने का उल्लेख किया। पूर्व में किए गए एक सर्वेक्षण में भी शापू और तितलियों/सफेद पतंगों के संपर्क के बीच उल्लेखनीय सम्बंध पाया गया था।

इसके मद्देनज़र कीटविज्ञानी शापूग्रस्त ज़िलों का सर्वेक्षण कर रहे हैं और उन क्षेत्रों से डैटा एकत्र कर रहे हैं जहां पतंगों की विशेष उपस्थिति दर्ज की गई है। इन क्षेत्रों के तापमान, आर्द्रता, वनस्पति और ऊंचाई जैसे कारकों का भी अध्ययन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त, जैव रासायनिक विश्लेषण की योजना है ताकि यह पता चल सके कि क्या कोई विशिष्ट कीट-विष आंख में समस्या पैदा कर रहा है।

शोधकर्ता संदिग्ध सूक्ष्मजीव की पहचान के लिए बैक्टीरिया और वायरस से आनुवंशिक सामग्री की जांच करने की योजना बना रहे हैं। इसमें प्रभावित और अप्रभावित आंखों के साथ-साथ परिवार के सदस्यों से नमूने एकत्र किए जा रहे हैं। इन प्रयासों से शापू को समझने में प्रगति तो हुई है लेकिन धन की कमी एक बड़ी चुनौती है।

चिंताजनक बात यह भी है इस वर्ष कुछ ऐसे रोगी भी सामने आए हैं जिनका सफेद पतंगों से कोई संपर्क नहीं रहा है। उम्मीद है कि जल्द ही रहस्यमयी बीमारी के स्रोत का पता लगाकर बच्चों की आंखों की रोशनी की रक्षा की जा सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

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शहदखोजी पक्षी स्थानीय लोगों की पुकार पहचानते हैं – अर्पिता व्यास

ब अफ्रीका के उत्तरी मोज़ाम्बिक के नियासा स्पेशल रिज़र्व में रहने वाले लोग मीठा खाने के लिए लालायित होते हैं तो वे स्विगी या ज़ोमाटो को नहीं बल्कि एक को पक्षी बुलाते हैं। ये शहद-मार्गदर्शक पक्षी उन्हें मधुमक्खी के छत्ते तक लेकर जाते हैं जहां से उन्हें शहद मिल जाता है और लगे हाथ पक्षी की भी दावत हो जाती है – स्वादिष्ट मोम और मधुमक्खी की इल्लियों की।

एक नए अध्ययन से पता चला है कि यह साझेदारी वैज्ञानिकों की सोच से कहीं अधिक जटिल है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि स्थानीय लोग इन पक्षियों को बुलाने के लिए अनोखी आवाज़ें निकालते हैं जो हर क्षेत्र में अलग-अलग होती हैं, और पक्षी अपने क्षेत्र की आवाज़ पहचान कर प्रतिक्रिया देते हैं। इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का मत है कि पक्षी और ये जनजातीय लोग एक-दूसरे की सांस्कृतिक परंपराओं को आकार देते हैं।

न्यू जर्सी टेक्नॉलॉजी की इथॉलॉजिस्ट जूलिया हाइलैंड ब्रुनो का कहना है कि यह अध्ययन बहुत सुंदर है, परिणाम स्पष्ट हैं और प्रयोग की डिज़ाइन भी सरल है। ऐसे केवल कुछ ही मामले दर्ज हैं जिनमें मनुष्य जंगली जीवों के साथ सहयोग करते हैं। उदाहरण के लिए भारत, म्यांमार और ब्राज़ील में लोग डॉल्फिन्स के साथ मिलकर मछली पकड़ते हैं। लेकिन अफ्रीका में शहद निकालने वाले लोगों और शहदखोजी पक्षियों के बीच यह रिश्ता उच्च स्तर का लगता है। यह छोटी चिड़िया (Indicator) मधुमक्खी के छत्ते ढूंढने और जगहों को पहचानने में माहिर है। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिकी वैज्ञानिक क्लाइर स्पॉटिसवुड और उनके सहलेखकों का कहना है कि ये पक्षी छत्तों की जगह पहचानते हैं। मनुष्य पेड़ों के उन हिस्सों को काटकर खोल देते हैं और वहां धुआं कर देते है जिसके परिणामस्वरूप मधुमक्खियां छत्ता छोड़कर भाग जाती हैं। कई बार लोग पक्षियों के साथ छल करते हुए छत्ते के मोम को नष्ट कर देते हैं ताकि पक्षी नया घोंसला ढूंढने निकल पड़ें। ये पक्षी भी कभी-कभी लोगों को छत्ता ढूंढने के लिए उनका पीछा करने का आग्रह करते है और कभी-कभी लोग इन पक्षियों को छत्ता ढूंढने को उकसाते हैं। उदाहरण के लिए नियासा स्पेशल रिज़र्व में रहने वाले याओ लोग एक विशेष आवाज़ निकालते हैं।

इन पक्षियों को बुलाने के लिए जो आवाज़ निकाली जाती है, वह अलग-अलग स्थानों पर अलग होती है। सवाल यह था कि क्या पक्षी ये अंतर पहचान पाते हैं? यह जानने के लिए स्पॉटिसवुड और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मानवविज्ञानी ब्रायन वुड ने मिलकर प्रयास किया। ब्रायन वुड उत्तरी तंज़ानिया के हदजा समुदाय का 20 सालों से अध्ययन कर रहे हैं। वुड के अनुसार हदजा समुदाय के लोग जटिल प्रकार से सीटियों की आवाज़ निकालते हैं – ऑर्केस्ट्रा की धुन जैसी। इससे वे पक्षियों को यह बताते हैं कि वे शहद ढूंढने के लिए तैयार हैं।

तंज़ानिया और मोज़ाम्बिक की कई जगहों पर शोधकर्ताओं ने हदजा लोगों की सीटियों और याओ लोगों की पुकार की रिकॉर्डिंग्स बजाई, तुलना के तौर पर उन्होंने मनुष्य की चीख-पुकार की रिकॉर्डिग भी बजाई। तंज़ानिया में हदजा सीटियों की अपेक्षा याओ पुकारों पर पक्षी तीन गुना ज़्यादा आए। दूसरी ओर मोज़ाम्बिक में याओ पुकारें दो गुना ज़्यादा प्रभावी थीं। शोधकर्ताओं ने इस बात का ख्याल रखा था कि सभी आवाज़ें बराबर दूरी तक और बराबर समय तक सुनाई दें। यह जानी-मानी बात है कि इतने कम फासले पर रहने वाले पक्षियों के डीएनए अलग-अलग नहीं हो सकते। अर्थात आवाज़ों को लेकर पसंद आनुवंशिक नहीं है। स्पॉटिसवुड के अनुसार एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि पक्षी अपने स्थानीय मनुष्य सहयोगियों की आवाज़ पर प्रतिक्रिया करना सीखते हैं।

मनुष्यों की तरह ही पक्षियों की भी संस्कृति हो सकती है जो वे पक्षी-गीतों के माध्यम से एक-दूसरे को सौंपते हैं। इससे लगता है कि शहदखोजी पक्षी और मनुष्य एक दूसरे की परम्पराओं को सुदृढ़ करते हैं। याओ और हदजा शहद निकालने वालों ने बताया कि वे पक्षियों को बुलाने के लिए अपने पूर्वजों द्वारा बताई हुई पुकारों का ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि पुकार बदलने से पक्षियों के आने की संभावना कम हो जाती है। पक्षियों को स्पष्ट रूप से पता होता है कि उनके क्षेत्र की पुकार मतलब खाना मिलने की संभावना है और वे इस पुकार से चले आते हैं। हालांकि यह जानना बाकी है कि पक्षी एक-दूसरे से इन पुकारों का अर्थ सीखते हैं या खुद ही निष्कर्ष निकालते हैं।

ओरेगॉन स्टेट विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद मौरिसियो कैन्टर कहते हैं कि शहदखोजी पक्षियों द्वारा सीखने की संभावना नज़र आती है। ड्यूक विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिक वैज्ञानिक स्टीफन नौविकी कहते हैं कि मनुष्य हमेशा पालतू जानवरों के साथ सहयोग और संवाद करते देखे गए हैं, लेकिन यह अध्ययन जंगली जीवों से सम्बंधित है। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रोशनी पक्षियों के जीवन में अंधकार लाती है – एस. अनंतनारायणन

स बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि भारत और दुनिया भर में पक्षियों की प्रजातियां और पक्षियों की संख्या तेज़ी से कम हो रही है। मानव गतिविधि जनित जलवायु परिवर्तन के अलावा, प्रदूषण, कीटनाशकों का उपयोग, सिमटते प्राकृतवास और शिकार इनकी विलुप्ति का कारण है। और अब इस बारे में भी जागरूकता काफी बढ़ रही है कि रात के समय किया जाने वाला कृत्रिम उजाला पक्षियों की कई प्रजातियों का बड़ा हत्यारा है।

साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित अपने एक लेख में नॉर्थ कैरोलिना के जोशुआ सोकोल ने इस नाटकीय प्रभाव का वर्णन किया है। 2001 में हुए 9/11 हमले की याद में न्यूयॉर्क शहर में दो गगनचुंबी प्रकाश स्तम्भ, ट्रायब्यूट इन लाइट, स्थापित किए गए हैं और पक्षियों की आबादी पर इनका प्रभाव पड़ रहा है। 11 सितंबर की रात में जब ये दो प्रकाश स्तम्भ ऊपर आकाश तक जगमगाते हैं तो ये फुदकी (warbler), समुद्री पक्षी (seabird), कस्तूर (thrush) जैसे हज़ारों प्रवासी पक्षियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसके साथ ही शाहीन बाज़ (peregrine falcons) जैसे शिकारी पक्षी प्रवासी पक्षियों के इस भ्रम का फायदा उठाने और उन्हें चट करने को तत्पर होते हैं।

लेख के अनुसार, 20 मिनट के भीतर ट्रायब्यूट इन लाइट प्रकाश स्तम्भ के आधे किलोमीटर के दायरे में करीब 16,000 पक्षी इकट्ठे हो जाते हैं; साल में एक बार होने वाला यह आयोजन दस लाख से अधिक पक्षियों को एक जगह इकट्ठा कर देता है।

और जब चिंतित पर्यवेक्षक देखते हैं कि इसके चलते वहां बहुत सारे पक्षी जमा हो रहे हैं, तो आयोजक रोशनी कम कर देते हैं। और अब, यहां मौसम विज्ञानियों द्वारा कुल वर्षा का अनुमान लगाने के लिए उपयोग की जाने वाली एक रडार-आधारित प्रणाली स्थापित है जिसका उपयोग 11 सितंबर को पक्षियों की गिनती करने के लिए भी किया जाता है। साथ ही, पूरे साल के दौरान पूरे महाद्वीप में प्रवासी पक्षियों की आवाजाही का अनुमान लगाने के लिए भी। लेख के अनुसार, 11 सितंबर का अध्ययन बताता है कि रात में शहरों की जगमगाती रोशनी का प्रवासी पक्षियों के उड़ान पथ पर क्या प्रभाव हो सकता है। “समय के साथ ट्रायब्यूट इन लाइट की रोशनी से भटककर मंडराते हुए पक्षियों की ऊर्जा (शरीर की चर्बी) चुक जाती है, जिस कारण वे शिकारियों के आसान लक्ष्य बन जाते हैं। और सबसे बुरी बात यह है कि वे पास की इमारतों की खिड़कियों से टकराकर गंभीर रूप से घायल हो सकते हैं या मर सकते हैं।”

लेख कहता है कि यह अच्छी बात है कि ये अध्ययन जारी हैं, क्योंकि पक्षियों की घटती संख्या चिंताजनक है। अकेले उत्तरी अमेरिका में, 1970 के बाद से 2019 तक पक्षियों की संख्या में 3 अरब से अधिक की कमी आई है।

भारत की बात करें तो वेदर चैनल (Weather Channel) नामक एक पोर्टल की रिपोर्ट है कि भारत की 867 पक्षी प्रजातियों में से 80 प्रतिशत प्रजातियों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई है, और इनमें से 101 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। ये नतीजे देश भर के 15,500 पक्षी निरीक्षकों द्वारा किए गए एक करोड़ से अधिक अवलोकनों के आधार पर दिए गए हैं।

दुनिया भर में पक्षियों की कम होती संख्या और विविधता का गंभीर प्रभाव खाद्य सुरक्षा पर पड़ रहा है। पक्षियों से हमें मिलने वाला पहला लाभ (या यू कहें कि सेवा) है कीट नियंत्रण। अनुमान है कि पक्षीगण एक साल में तकरीबन 40-50 करोड़ टन कीट खा जाते हैं। शिकारियों के कुनबे में भी पक्षी महत्वपूर्ण हैं; वे शिकार कर चूहों जैसे कुतरने वाले जीवों की आबादी को नियंत्रित रखते हैं। लेकिन पक्षियों के लिए खेती में उपयोग किए जाने वाले कीटनाशकों का असर बाकी किसी भी कारक से अधिक नुकसानदायक होगा।

कृषि के इतर भी पक्षी पौधों और शाकाहारियों, शिकार और शिकारियों का संतुलन बनाए रखते हैं, जिससे दलदल और घास के मैदान पनपते हैं। और ये दलदल और घास के मैदान वे प्राकृतिक एजेंट हैं जो कार्बन भंडारण करते हैं, जलवायु को स्थिर रखते हैं, ऑक्सीजन देते हैं और प्रदूषकों को पोषक तत्वों में बदलते हैं। यदि पक्षी न होते तो इनमें से कई पारिस्थितिक तंत्र अस्तित्व में ही नहीं होते।

और हालांकि हम तितलियों और मधुमक्खियों को सबसे महत्वपूर्ण परागणकर्ता मानते हैं, लेकिन कई ऐसे पौधे हैं जिनका परागण पक्षियों द्वारा होता है। जिन फूलों में गंध नहीं होती, और हमारे द्वारा भोजन या औषधि के रूप में उपयोग किए जाने वाले 5 प्रतिशत पौधों का परागण पक्षियों द्वारा होता है। इसके अलावा पक्षियों की बीज फैलाने में भी भूमिका होती है। जब पक्षी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, तो उनके द्वारा खाए गए बीज भी उनके साथ वहां पहुंच जाते हैं, जो मल त्याग से बाहर निकल वहां फैल जाते हैं। पक्षी नष्ट हो चुके पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से जिलाते हैं (बीजों के माध्यम से), पौधों को समुद्र के पार भी ले जाते हैं और वहां के भूदृश्य को बदल सकते हैं। न्यूज़ीलैंड के एक करोड़ हैक्टर में फैले जंगल में से 70 प्रतिशत जंगल पक्षियों द्वारा फैलाए गए बीजों से उगा है।

दुनिया भर में संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था एनडेन्जर्ड स्पीशीज़ इंटरनेशनल का कहना है कि “कुछ पक्षियों को मुख्य (कीस्टोन) प्रजाति माना जाता है क्योंकि पारिस्थितिकी तंत्र में उनकी उपस्थिति (या अनुपस्थिति) अन्य प्रजातियों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।” उदाहरण के लिए, कठफोड़वा पेड़ों में कोटर बनाते हैं जिनका उपयोग बाद में कई अन्य प्रजातियों द्वारा किया जाता है। डोडो के विलुप्त होने के बाद यह पता चला कि एक पेड़, जिसके फल डोडो का प्रमुख भोजन थे, के बीज डोडो के पाचन तंत्र से गुज़रे बिना अंकुरित होने में असमर्थ थे – डोडो का पाचन तंत्र बीज के आवरण को गला देता था और अंकुरण को संभव बनाता था।

पक्षी जो दूसरी भूमिका निभाते हैं वह है सफाई का काम। यह तो हम जानते हैं कि गिद्ध एक घंटे के भीतर मृत जानवर तक पहुंच जाते हैं, और फिर उसके पूरे शरीर और सभी अवशेषों का निपटान कर देते हैं। यही कार्य यदि जंगली कुत्तों या चूहों पर छोड़ दिया जाए तो शव (या अवशेष) के निपटान में कई दिन लग सकते हैं, जिससे सड़न और बीमारी फैल सकती है। बर्डलाइफ इंटरनेशनल पोर्टल का अनुमान है कि भारत में गिद्धों की संख्या में गिरावट के कारण जंगली कुत्तों की आबादी 55 लाख तक बढ़ गई है, जिसके कारण रेबीज़ के मामले बढ़ गए हैं, और 47,300 लोगों की मौत हो गई है।

पारिस्थितिकी को बनाए रखने में इतनी सारी भूमिकाएं होने के साथ ही पक्षी इस तरह अनुकूलित हैं कि वे लंबा प्रवास कर अपने माकूल स्थानों पर जाते हैं। इस तरह, ठंडे उत्तरी ध्रुव के अरबों पक्षी सर्दियों के लिए दक्षिण की ओर प्रवास करते हैं, और फिर मौसम बदलने पर वापस घर की ओर उड़ जाते हैं। और हालांकि इस प्रवासन की अपनी कीमत (जोखिम) और मृत्यु की आशंका होती है, लेकिन ये पैटर्न प्रजनन मौसम में फिट बैठता है और संख्या बरकरार रहती है।

लेकिन रात के समय पक्षियों के उड़ान पथ पर चमकीली रोशनियां और जगमगाते शहर पक्षियों के दिशाज्ञान को प्रभावित करते हैं और भ्रम पैदा करते हैं। इसके चलते ऊर्जा की बर्बादी होती है, भिड़ंत होती है और समूह टूटता है – और शिकारियों के मज़े होते हैं। रात के समय दूर के शहर से आने वाली रोशनी भी आकाशगंगा की रोशनी का भ्रम दे सकती है और पक्षियों के दिशा बोध को बिगाड़ सकती है। पक्षियों में चमकदार रोशनी के प्रति जो रहस्यमयी आकर्षण होता है, वह पक्षियों को तेज़ रोशनी वाली खिड़की के शीशों की ओर जाने को उकसाता है!

यह कोई हालिया घटना नहीं है। वर्ष 1880 में, साइंटफिक अमेरिकन ने अपने एक लेख में बताया था कि रात की रोशनी में पक्षी उलझ जाते थे। लाइटहाउस के प्रकाश का पक्षियों पर प्रभाव जानने के उद्देश्य से हुए एक अध्ययन में सामने आया था कि इससे दस लाख से अधिक पक्षी प्रभावित हुए और इसके चलते ढेरों पक्षी मारे गए।

न्यूयॉर्क में ट्रायब्यूट इन लाइट का अनुभव नाटकीय रूप से उस क्षति की विकरालता को सामने लाता है जो रात की प्रकाश व्यवस्था से पक्षियों की आबादी को होती है। साइंटिफिक अमेरिकन का एक लेख बताता है कि अब रात के समय अत्यधिक तीव्र प्रकाश वाले क्षेत्रों के मानचित्र बनाने के लिए उपग्रह इमेजिंग का, और पक्षियों व उनकी संख्या को ट्रैक करने के लिए रडार का उपयोग नियमित रूप से किया जाता है। इस तरह, अमेरिका में उन शहरों की पहचान की जा रही है जिनकी रोशनी का स्तर प्रवासी पक्षियों को प्रभावित करने की सबसे अधिक संभावना रखता है। इसके अलावा बर्डकास्ट नामक एक कार्यक्रम महाद्वीप-स्तर पर मौसम और रडार डैटा को एक साथ रखता है और मशीन लर्निंग का उपयोग करके ठीक उन रातों का पूर्वानुमान लगाता है जब लाखों प्रवासी पक्षी अमेरिकी शहरों के ऊपर से उड़ेंगे।

यह जानकारी पक्षियों के संरक्षण के प्रति जागरूक समूहों को उनके उड़ान पथ में पड़ने वाले शहरों से प्रकाश तीव्रता नियंत्रित करने वगैरह की पैरवी करने में सक्षम बनाती है। उनके ये प्रयास प्रभावी भी रहे हैं – न्यूयॉर्क शहर ने एक अध्यादेश पारित किया है जिसके तहत प्रवासन के मौसम में इमारतों को रोशनी बंद करनी होती है। इस जागरूकता का प्रचार दर्जनों अन्य शहरों में भी जारी है।

यह एक ऐसा आंदोलन है जिसे दुनिया भर में जड़ें फैलाने की ज़रूरत है, ताकि एक ऐसे महत्वपूर्ण अभिकर्ता को संरक्षित किया जा सके जो पारिस्थितिकी को व्यवस्थित रखता है और एक ऐसी त्रासदी से बचा जा सके जो पृथ्वी को टिकाऊ बनाए रखने के अन्य प्रयासों पर पानी फेर सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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अलग-अलग रफ्तार से बढ़ती अंगों की उम्र

म उम्र को जीवन के वर्षों की संख्या से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन, नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन ने इस धारणा को गलत साबित किया है। इस अध्ययन के अनुसार हमारे शरीर के भीतर के अंगों की उम्र में अलग-अलग दर से बढ़ती है जो हमारी कैलेंडर उम्र से काफी अलग होती है। इस निष्कर्ष से हमारे स्वास्थ्य आकलन और प्रबंधन के तरीके में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता है।

इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने 50 वर्ष और उससे अधिक आयु के 5500 से अधिक व्यक्तियों की जांच की जो किसी सक्रिय बीमारी या असामान्य जैविक संकेतक से ग्रसित नहीं थे। जांच में विशिष्ट अंगों से जुड़े प्रोटीन्स के आधार पर हर अंग की उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया गया। शोधकर्ताओं ने रक्त में लगभग 900 ऐसे प्रोटीन्स पाए जो किसी विशिष्ट अंग से सम्बंधित हैं। इस तरह एक निश्चित उम्र के लिए अपेक्षित स्तर की तुलना में इन प्रोटीनों के स्तर में परिवर्तन सम्बंधित अंग की तेज़ी से बढ़ती उम्र के संकेत देता है। किसी अंग की जैविक उम्र और उसकी कैलेंडर उम्र के बीच विसंगतियों के आधार पर भविष्य के स्वास्थ्य जोखिमों का पता लगाया जा सकता है।

इस अध्ययन के हिसाब से विचार करें तो जिन व्यक्तियों का हृदय तेज़ी से बूढ़ा हो रहा है, उनमें उन लोगों की तुलना में हृदयाघात का खतरा दुगना पाया गया है, जिनका हृदय सामान्य दर से बूढ़ा हो रहा है। इसी तरह, मस्तिष्क में बढ़ती उम्र का ठोस सम्बंध संज्ञानात्मक गिरावट और अल्ज़ाइमर रोग की उच्च संभावना के साथ पाया गया। इसके अलावा, जब गुर्दे समय से पहले बूढ़े हो जाते हैं तो यह भविष्य में उच्च रक्तचाप और मधुमेह का एक मज़बूत संकेत देते हैं।

हालांकि, इस अध्ययन की काफी सराहना की जा रही है लेकिन कुछ विशेषज्ञ ज़्यादा साफ समझ के लिए और अधिक शोध पर ज़ोर देते हैं। इसका एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इस अध्ययन से व्यक्ति-आधारित निदान का रास्ता मिलता है जिसमें एक संभावित रक्त परीक्षण की मदद से आसन्न स्वास्थ्य समस्याओं का अनुमान लगाया जा सकता है। यह दृष्टिकोण व्यक्ति-आधारित चिकित्सा के बढ़ते क्षेत्र के अनुरूप है।

वाइस-कोरे मानते हैं कि यह खोज भविष्य में तेज़ी से बढ़ती उम्र को उलटने या धीमा करने में काफी सहायक होगी। हालांकि, उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि उम्र बढ़ना केवल एक अंग की कहानी नहीं है। यह तो जीवनशैली, पर्यावरण, आहार और समग्र स्वास्थ्य सहित कई परस्पर जुड़े कारकों द्वारा निर्मित एक जटिल संरचना है। यह शोध एक ऐसे भविष्य का मार्ग प्रदान करता है जहां कोई भी हस्तक्षेप व्यक्ति-आधारित है और बीमारियों की जड़ें जमने से पहले ही अपना काम शुरू कर देता है। यह एक ऐसी शुरुआत है जो आने वाले वर्षों में स्वास्थ्य के प्रति हमारी धारणा और प्रबंधन को नया आकार दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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छोटी झपकियों के बड़े फायदे

म तौर पर झपकी को विलासिता या आलस्य का पर्याय माना जाता है। लेकिन निद्रा से सम्बंधित एक हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दिन में झपकी के लाभों और इसकी आदर्श अवधि के बारे में कुछ दिलचस्प पहलू उजागर किए हैं।

इसमें 20-30 मिनट की छोटी झपकियों को संज्ञानात्मक विकास के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। ये छोटी झपकियां मूड सुधारती हैं, याददाश्त मज़बूत करती हैं, सूचना प्रोसेसिंग तेज़ करती हैं और चौकन्नापन बढ़ाती हैं। इनसे अप्रत्याशित घटनाओं की स्थिति में त्वरित प्रतिक्रिया की क्षमता भी बढ़ती है। दिलचस्प बात यह है कि 10 मिनट की गहरी झपकी भी, क्षण भर के लिए ही सही, दिमाग को तरोताज़ा कर सकती है, जबकि थोड़ी लंबी झपकी इन संज्ञानात्मक लाभों को कुछ देर तक बनाए रखती है।

गौरतलब है कि झपकी की इच्छा दो महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं द्वारा नियंत्रित होती है: एक समस्थापन निद्रा दबाव (एचएसपी) और दैनिक शारीरिक लय। दबाव तब पैदा होता है जब हम अधिक देर तक जागते हैं। ऐसे में हमारे शरीर की प्राकृतिक लय अक्सर दोपहर के दौरान सतर्कता में कमी लाती है। नतीजतन कुछ लोगों को थोड़ी राहत के लिए झपकी लेना पड़ता है। इस मामले में जेनेटिक कारक लोगों की झपकी लेने की प्रवृत्ति को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ लोग आदतन झपकी लेते हैं और अन्य तब जब वे गंभीर रूप से नींद से वंचित हो जाते हैं।

3000 लोगों पर किए गए अध्ययन का निष्कर्ष है कि दिन के समय 30 मिनट से अधिक सोने में सावधानी बरतनी चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि झपकी संज्ञानात्मक लाभ प्रदान करती है लेकिन यह गहन निद्रा के चरणों की शुरुआत भी करती है जिससे आलस आता है। इसके अलावा, लंबी झपकी को स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतों से भी जोड़ा गया है, जिनमें मोटापा, उच्च रक्तचाप और वसा कम करने की बाधित क्षमता शामिल हैं। कई मामलों में इसे अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियों से भी जोड़कर देखा गया है।

इस स्थिति में झपकी के पैटर्न की पहचान करना महत्वपूर्ण हो जाता है। बार-बार और लंबे समय तक (एक घंटे से अधिक) झपकी लेना कई स्वास्थ्य समस्याओं या मस्तिष्क की सूजन में वृद्धि का संकेत हो सकता है। इसके लिए चिकित्सीय परामर्श लेना चाहिए। वैसे संक्षिप्त निद्रा रात की नींद को नुकसान पहुंचाए बिना आवश्यक स्फूर्ति प्रदान कर सकती है। छोटी झपकी लेना सतर्कता, एकाग्रता बढ़ाकर खुश रहने की कुंजी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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