बुज़ुर्गों में नींद उचटने का कारण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भी की इच्छा होती है कि एक बच्चे जैसी (भरपूर) नींद सोएं। लेकिन वास्तव में, वयस्कों में नींद के कुल घंटे कम होते जाते हैं, और उम्र बढ़ने के साथ नींद की गुणवत्ता भी कम होने लगती है। खासकर वृद्ध लोगों में हल्की और उचटती नींद होने की प्रवृत्ति दिखती है। वर्ष 2017 में न्यूरॉन पत्रिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के ब्रायस मैंडर और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन बताता है कि नींद की गुणवत्ता और नींद के घंटों में लगातार कमी से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ सकता है, और जीवनकाल छोटा हो सकता है।
अनुसंधान ने इस बात के कई सुराग दिए हैं कि मनुष्यों में कौन-से कारक नींद को प्रेरित करते हैं। रात में पीनियल ग्रंथि मेलेटोनिन हार्मोन का स्राव करती है, जो सोने-जागने के चक्र के नियंत्रण में भूमिका निभाता है। इसलिए मेलेटोनिन अनिद्रा पर काबू पाने की एक प्रचलित दवा बन गया है, हालांकि लंबे समय तक उपयोग में इसकी प्रभावशीलता को लेकर सवाल हैं।
वैसे, हमारी ‘जागृत’ अवस्था कहीं अधिक पेचीदा है क्योंकि इसमें लगभग पूरा मस्तिष्क शामिल होता है। शायद यही कारण है कि बुज़ुर्गों की अक्सर लगती-टूटती नींद हमें चक्कर में डाल देती है।
हमें पता है कि नींद की समस्या से पीड़ित वृद्ध लोगों में मस्तिष्क के उन केंद्रों में तंत्रिका कोशिकाओं में विकार देखा गया है, जो स्वैच्छिक हरकत के समन्वय में भूमिका निभाते हैं। हाल ही में साइंस पत्रिका में एस. बी. ली और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन ने इसमें एक नया आयाम जोड़ा है। यह अध्ययन हायपोथैलेमस ग्रंथि के बारे में बताता है। बादाम के आकार की हाइपोथैलेमस ग्रंथि हमारे मस्तिष्क के केंद्र में होती है। मस्तिष्क के इस हिस्से का एक क्षेत्र, पार्श्व हायपोथैलेमस, जागने, खाने के व्यवहार, सीखने और सोने में अहम भूमिका निभाता है। यहां से तंत्रिका कोशिकाओं का एक झुंड निकलता है और इनके सिरे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की जागृत स्थिति से जुड़े सभी हिस्सों में पहुंचते हैं। इन तंत्रिकाओं से रासायनिक संदेश छोटे-छोटे प्रोटीन्स (न्यूरोपेप्टाइड्स) के रूप में जारी होते हैं जिन्हें हाइपोक्रेटिन (Hcrt) या ऑरेक्सिन (OX) कहा जाता है।
सभी तंत्रिकाओं की तरह, Hcrt/OX तंत्रिकाओं के भी अंतिम सिरे होते हैं जिन्हे सायनेप्स कहा जाता है। ये सायनेप्स किसी अन्य तंत्रिका के सायनेप्स के नज़दीक हो सकते हैं या किसी मांसपेशीय कोशिका के निकट। विद्युत संकेत पूरी तंत्रिका से होते हुए सायनेप्स तक आते हैं, जहां ये तत्काल रासायनिक संकेत में बदल जाते हैं, और सिरे से निकल कर बाजू वाली तंत्रिका में चले जाते हैं और वहां प्रतिक्रिया शुरू करते हैं। तंत्रिका विज्ञान की भाषा में, एक उद्दीपन संकेत बाजू वाली तंत्रिका में पहुंचकर उसे संकेत भेजने को प्रेरित करता है – जो उस तंत्रिका के दूसरे सिरे पर स्थित सायनेप्स तक विद्युत संकेत के रूप में पहुंचता है। अवरोधी संकेत तंत्रिका की इस सक्रियता को रोक सकते हैं। हाइपोक्रेटिन उद्दीपक की तरह काम करता है, और जिस तंत्रिका में पहुंचता है उसे सक्रिय कर देता है।
हाइपोक्रेटिन जागृत रहने को उकसाता है, और साथ ही यह कुछ खाने या साथी की तलाश के लिए भी उकसाता है। इसके अलावा यह ठंड, मितली या दर्द के प्रति प्रतिक्रिया भी देता है। मानव मस्तिष्क में मौजूद 86 अरब तंत्रिकाओं में से 20,000 से भी कम तंत्रिकाएं हाइपोक्रेटिन बनाती हैं, लेकिन इनका प्रभाव काफी गहरा होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हाइपोक्रेटिन लंबे समय तक जागने के लिए ज़रूरी है। हाइपोक्रेटिन को सीधे मस्तिष्क-मेरु द्रव में प्रवेश कराने से (ताकि यह तुरंत मस्तिष्क में पहुंच जाए) यह आपको कई घंटों तक जगाए रखता है। जब आप सो रहे होते हैं तो हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाएं सक्रिय नहीं रहती हैं।
प्रयोगों में देखा गया है कि भोजन से वंचित चूहे भोजन की तलाश में बहुत लंबे समय तक जागते हैं और भोजन तलाशने में व्यस्त रहते थे। और हाइपोक्रेटिन की कमी वाले चूहे, जिनमें हाइपोक्रेटिन जीन को ठप कर दिया गया था, अपनी तलाश में कम उत्सुकता दिखाते थे।
नींद उचटना
सवाल है कि बुज़ुर्गों की नींद को क्या हो जाता है? ली और उनके साथियों ने दर्शाया है कि उम्र के साथ हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाओं में परिवर्तन हो जाते हैं। और ज़रा से उकसावे से ही वे अति-उत्तेजित हो जाती हैं, संकेत प्रेषित करने लगती हैं और बहुत कम उकसावे पर ही न्यूरोपेप्टाइड्स स्रावित करती हैं। अन्यथा निष्क्रिय हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स की अवांछित सक्रियता नींद तोड़ने का काम करती है। उम्र बढ़ने के साथ तंत्रिकाओं में हुए परिवर्तन उनकी सक्रियता को रोकना और मुश्किल कर देते हैं।
Hcrt/OX तंत्रिका की क्षति के कारण या उनकी अनुपस्थिति के कारण एक बिरला तंत्रिका तंत्र विकार पैदा होता है – नार्कोलेप्सी। नार्कोलेप्सी के लक्षण विचित्र हैं – इसमें दिन में सोने की तीव्र इच्छा होती है जबकि नींद के कुल घंटे नहीं बदलते; सोने-जागने की अवस्था में स्पष्ट अंतर न होने के कारण मतिभ्रम की स्थिति रहती है; मांसपेशियों का तनाव कम हो जाता है, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं (कैटाप्लेक्सी)।
वर्ष 2018 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में अनिमेश रे द्वारा प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भारत में इसके कुछ ही मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें से अधिकतर मामले तीस वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों में मिले हैं। इस स्थिति वाले मरीज़ों के मस्तिष्क-मेरु द्रव में न के बराबर हाइपोक्रेटिन होता है।
अंत में, क्या टूटी-फूटी नींद लेने वाले लोग बेहतर और एकमुश्त नींद देने वाले उपायों का सपना देख सकते हैं? वृद्ध चूहों में देखा गया है कि फ्लुपरटीन नामक दर्दनिवारक उस स्तर को बहाल कर देता है जहां हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स उत्तेजित होते हैं और इस प्रकार यह नींद के टाइम टेबल को बहाल करता है हालांकि यह दर्दनिवारक स्वयं विषाक्तता की दिक्कतों से पीड़ित है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नए शोधों से मिले रोगों के नए समाधान – मनीष श्रीवास्तव

ई बीमारियां लाइलाज हैं तो कई की इलाज की प्रक्रिया बेहद जटिल है। इसलिए दुनिया भर में वैज्ञानिक सतत रूप से शोध कार्य कर रहे हैं ताकि बीमारियों के बेहतर और सरल इलाज खोजे जा सकें। हाल के समय में एचआईवी, लकवा, तंत्रिका विकारों के इलाज में वैज्ञानिकों को नई सफलताएं प्राप्त हुई हैं। इसी के साथ स्वच्छ ऊर्जा एक अहम क्षेत्र है, जिसका विकल्प वैज्ञानिकों द्वारा खोजा गया है। आइए जानते हैं इन क्षेत्रों में कुछ हालिया उपलब्धियों के बारे में…

चलने लगे लकवाग्रस्त मरीज

स्विटज़रलैंड के लोज़ान युनिवर्सिटी हॉस्पिटल और स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी ने एक ऐसी डिवाइस बनाने में सफलता हासिल की है, जिसकी मदद से कमर के नीचे के हिस्से में लकवे का शिकार हुए तीन मरीज़ चल पाए हैं। इस ऐतिहासिक सफलता सम्बंधी रिपोर्ट जर्नल नेचर मेडिसिन में प्रकाशित हुई है। यह प्रयोग 29 से 41 वर्ष की उम्र के तीन ऐसे लोगों पर किया गया था, जो लंबे समय से व्हील चेयर पर थे। इनमें से एक व्यक्ति मिशेल रोकंति की रीढ़ की हड्डी में इलेक्ट्रोडयुक्त डिवाइस लगाया गया। इसकी मदद से जल्द ही मिशेल ने अपने पैरों पर खड़े होना तथा बाकी दो ने तैरना तथा साइकिल चलाना तक शुरू कर दिया है।

इस तरह तीन व्यक्तियों के एपिड्यूरल स्पेस में कुल 16 इलेक्ट्रोड डिवाइस लगाए गए। ये इलेक्ट्रोड, पेट की त्वचा के नीचे प्रत्यारोपित एक पेसमेकर से दिमाग को संदेश पहुंचाने के साथ शरीर के विभिन्न अंगों तक उन्हें प्रेषित करने का काम करते हैं। जब इलेक्ट्रोड की मदद से दिमाग की तंत्रिकाओं को कोई संदेश मिलता है तो शरीर की मांसपेशियां फिर से सक्रिय होकर कार्य करना शुरू कर देती हैं। इस डिवाइस को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सॉफ्टवेयर द्वारा नियंत्रित भी किया जा सकता है।

स्टेम सेल से एचआईवी का इलाज

हाल ही में एचआईवी के इलाज में एक महत्वपूर्ण सफलता हासिल हुई है। वैज्ञानिकों ने पहली बार गर्भनाल की स्टेम कोशिका से एचआईवी का सफल इलाज करने में सफलता पाई है। प्रयोग अमेरिका की एक महिला पर किया गया जिसे 2013 में एड्स रोग की पुष्टि हुई थी। इससे पहले तमाम तकनीकों से महिला का इलाज किया जा चुका था। गर्भनाल की स्टेम कोशिका से किए गए उपचार से महिला को वायरस-मुक्त करने में सफलता प्राप्त हुई है। कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के डॉ. स्टीवन डीक्स के अनुसार गर्भनाल से स्टेम सेल प्राप्त करना आसान होता है और ये अधिक प्रभावी होती हैं। अत: यह तकनीक काफी मददगार होगी क्योंकि इस तरह के डोनर सरलता से मिल जाते हैं। पहले अस्थि मज्जा कोशिका की सहायता से इलाज किया जाता था किंतु अस्थि मज्जा दानदाता खोजना और मरीज़ के साथ मैचिंग करना मुश्किल होता था।

तंत्रिका विकार का निदान

मनुष्य में होने वाले तंत्रिका विकारों को जानने के लिए पहले जीनोम सीक्वेंसिंग ज़रूरी होता था। यह प्रक्रिया बेहद जटिल और समय लेने वाली होती है। हाल ही में जीनोमिक इंग्लैंड और क्वीन मैरी युनिवर्सिटी शोध टीम ने इस विकार का पता लगाने के लिए एक सरल विधि खोज निकाली है। इस शोध से जुड़े डॉ. एरियाना टुचि ने बताया है कि इस विधि से तंत्रिका विकार का पता डीएनए टेस्ट की विधि से सरलता से लगाया जा सकेगा। इस विधि में बीमारी वाले जीन की पहचान की जाती है और फिर उसका इलाज शुरू कर दिया जाता है। जीनोम सीक्वेंसिंग में तंत्रिका विकार के कारणों की पहचान मुश्किल से हो पाती थी।

कृत्रिम सूरज की रोशनी

हाल ही में ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा रिएक्टर बना लिया है जो सूरज की तरह परमाणु संलयन की क्रिया को संपन्न कर सकता है। इस रिएक्टर से इतनी मात्रा में ऊर्जा निकलती है कि वैज्ञानिक इसे कृत्रिम सूर्य कह रहे हैं। वैज्ञानिक जगत में इस उपलब्धि को मील का पत्थर कहा जा रहा है। अब वैज्ञानिकों ने आशा जताई है कि भविष्य में इस मशीन के द्वारा पृथ्वी पर सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध हो सकेगी। वैज्ञानिकों का प्रयास है कि धरती पर इस तरह के कई छोटे सूरज बनाए जाएं।

कम कार्बन, स्वच्छ ऊर्जा 

यूके परमाणु ऊर्जा प्राधिकरण ने बताया है कि कल्हम सेंटर फॉर फ्यूज़न एनर्जी में जेट प्रयोगशाला है, जिसमें एक डोनट आकार की मशीन लगी हुई है। इसे टोकामैक नाम से पुकारा जाता है। इसमें कम मात्रा में ड्यूटीरियम व ट्रीशियम जैसे तत्व भरे गए हैं। इस मशीन के केंद्र को सूरज के केंद्र की तुलना में 10 गुना ज़्यादा गर्म जाता है ताकि इसमें प्लाज़्मा बन सके। प्लाज़्मा को सुपरकंडक्टर विद्युत-चुंबक की मदद से एक जगह बांधकर रखा जाता है। विद्युत-चुंबक की मदद से जब इसने घूमना शुरू किया तो इससे अपार मात्रा में ऊर्जा निकलने लगी, जो पूरी तरह सुरक्षित और स्वच्छ ऊर्जा रही। गौरतलब है कि इस ऊर्जा की मात्रा 1 किलो कोयला या 1 लीटर तेल से पैदा हुई ऊर्जा की तुलना में 40 लाख गुना ज़्यादा रही। और तो और, यह ऊर्जा बेहद कम कार्बन उत्सर्जन वाली रही, जो पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभदायक सिद्ध होगी। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री ध्वनियों की लाइब्रेरी की तैयारी

मुद्रों में अठखेलियां करने वालों ने हम्पबैक व्हेल का दर्दभरा गीत सुना है, किलर व्हेल के समूह का कोलाहल सुना है। लेकिन कांटेदार किना समुद्री साही जैसे शांत जीवों की ध्वनि अनसुनी रह जाती है; यह एक खोखले गोले के पानी में गिरने जैसी आवाज़ करता है। अब, कुछ वैज्ञानिक शांत समुद्री जीवों की ध्वनियां लोगों के ध्यान में लाना चाहते हैं। इसलिए इस महीने फ्रंटियर्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में नौ देशों के 17 शोधकर्ताओं ने समुद्री जीवों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों को सूचीबद्ध करने, उनका अध्ययन करने और मानचित्रण के लिए एक वैश्विक लाइब्रेरी का प्रस्ताव रखा है। इस लाइब्रेरी को ग्लब्स (GLUBS) नाम दिया है, जिसमें ध्वनि विशेषज्ञों और नागरिक-वैज्ञानिकों से समुद्र के नीचे की ध्वनियां एकत्र की जाएंगी ताकि शोधकर्ताओं को यह ट्रैक करने में मदद मिले कि समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं।

इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन साइंस के समुद्री जीव विज्ञानी माइल्स पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि इस तरह की लाइब्रेरी का सुझाव नया नहीं हैं। समुद्री जीवों की कुछ लाइब्रेरी पहले से मौजूद हैं। लेकिन वे किसी क्षेत्र या कुछ चुनिंदा जंतुओं पर केंद्रित हैं। नया विचार समुद्र के भीतर के ध्वनि के स्रोतों को समझने और उनके दस्तावेज़ीकरण में मदद करेगा।

उन्होंने आगे बताया कि लाइब्रेरी में ज्ञात ध्वनियां और उनके स्रोत होंगे। इसके साथ-साथ इसमें अज्ञात ध्वनियां भी होंगी जिन्हें पहचानने की आवश्यकता होगी। इसमें शोधकर्ता अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई किसी एक जंतु की ध्वनि या किसी एक स्थान पर होने वाली सभी आवाज़ों की सम्मिलित रिकॉर्डिंग अपलोड कर सकते हैं। ध्वनि रिकॉर्डिंग के आधार पर विभिन्न प्रजातियों के वितरण पर नज़र रखने वाले नक्शे होंगे। और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रशिक्षण के लिए एक डैटाबेस होगा।

लाइब्रेरी में ध्वनियों को सहेजने का उद्देश्य आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को प्रशिक्षित करने का भी है ताकि वे अज्ञात ध्वनियों के (अज्ञात) स्रोतों को पता लगाने और पहचानने में सक्षम हो। आदर्श रूप से हम यह बताने में सक्षम होंगे कि हमने जो ध्वनि रिकॉर्ड की है वह किस प्राणि की है। लेकिन ऐसा करने के लिए प्रत्येक ध्वनि के हज़ारों नमूनों की आवश्यकता होगी।

इस प्रयास में लोगों को जोड़ने के लिए एक ऐसा नागरिक-विज्ञान ऐप बना सकते हैं जिसके ज़रिए वे अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई ध्वनियों को अपलोड कर सकें और पहचान सकें। उम्मीद है कि एक दिन एक विशाल डैटाबेस तैयार हो पाएगा जिसको कोई ध्वनि सुनाते ही वह सम्बंधित प्रजाति और उसके व्यवहार को पहचान सकेगा।

समुद्री जीवन की ध्वनियां रिकॉर्ड करने के लिए बैटरी वाले हाइड्रोफोन का उपयोग किया जाता है। खास तौर से गहराई में दबाव से निपटना काफी मुश्किल हो जाता है। हाइड्रोफोन को या तो लगातार रिकॉर्डिंग के लिए या हर 15 मिनट में 5 मिनट की रिकॉर्डिंग करने के लिए प्रोग्राम किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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भारी-भरकम डायनासौर की चाल

सौरोपोड्स अब तक के ज्ञात सबसे बड़े डायनासौर में से हैं। ये आज से लगभग 20 करोड़ से 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर चहलकदमी करते थे। लेकिन सवाल यह था कि लगभग 70 टन वज़नी विशाल सौरोपोड्स की चाल कैसी रही होगी? क्या वे जिराफ की तरह चलते होंगे, अपने दोनों दाएं या दोनों बाएं पैर एक साथ उठाकर रखते हुए? या फिर हाथी की तरह चलते होंगे, पहले आगे वाला बस एक पैर उठाकर आगे रखा फिर उसके विपरीत पीछे वाला पैर?

लेकिन हालिया अध्ययन में पता चला है कि वे इनमें से किसी भी तरह से नहीं चलते थे बल्कि वे अपने आगे-पीछे के विपरीत पैरों को एक साथ उठाते हुए चलते थे, जिस तरह बीवर या हेजहॉग चलते हैं।

पूर्व अध्ययनों का निष्कर्ष था कि सौरोपोड्स जिराफ की चाल से चलते थे यानी दोनों दाएं या दोनों बाएं पैर एक साथ उठाकर चलते थे। लेकिन लिवरपूल जॉन मूर्स युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानी जेन्स लेलेंसैक को यह बात कुछ हजम नहीं हुई क्योंकि यदि इतना भारी-भरकम जीव अपना सारा वज़न एक तरफ डालते हुए चलेगा तो उसके गिरने की आशंका होगी जो जानलेवा होगा।

इसलिए लेलेंसैक और उनके साथियों ने सौरोपोड के अश्मीभूत पदचिंहों का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने 1989 और 2018 में दक्षिण-पश्चिमी अर्कांसस में जिप्सम खदानों के पास मिले तीन पदमार्गों (पैरों के निशान से बने रास्ते) चुने, जिन पर से अकेला सौरोपोड गुज़रा था।

सबसे पहले उन्होंने प्रत्येक पदचिंह के बीच की दूरी को मापा और देखा कि ये निशान अगले पैर के हैं या पिछले के, दाएं पैर के हैं या बाएं पैर के। फिर शोधकर्ताओं ने गणना की कि पदमार्ग में पैरों की कौन-सी स्थितियां (लिंब फेज़) फिट होती हैं – यानी अगले और पिछले पैरों के ज़मीन पर पड़ने वाले समय के अंतराल नापे जो इस पदमार्ग में फिट बैठते हों। इस माप से प्रत्येक जानवर की चाल पता की जा सकती है: उदाहरण के लिए, 0 प्रतिशत लिंब फेज़ वाली चाल का अर्थ है कि वह जंतु एक ओर के आगे और पीछे के पैर एक साथ उठाता-रखता है।

सौरोपोड के धड़ की लंबाई या उसके कंधों से कूल्हों की बीच की दूरी को मापकर सौरोपोड के मॉडल शरीर पर लिंब फेज़ को दर्शाया जा सकता है। चलते समय किसी जानवर का धड़ बड़ा-छोटा तो नहीं होता।

शोधकर्ताओं ने गणना की कि सभी संभावित लिंब फेज़ में से कौन सा लिंब फेज़ धड़ की लंबाई से मेल खाता है। हरेक पदमार्ग के लिए उन्होंने पाया कि सौरोपोड पैरों की ‘विकर्ण जोड़ी’ पैटर्न में चलता था: हमेशा आगे का दायां और पीछे का बायां या आगे का बायां और पीछे दायां पैर ज़मीन पर रहता है और दूसरी जोड़ी के पैर एक साथ उठते हैं। शोधकर्ताओं ने ये निष्कर्ष करंट बायोलॉजी में प्रकाशित किए हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने वर्तमान जानवरों जैसे कुत्तों, घोड़ों, ऊंटों, हाथियों और यहां तक कि रैकून द्वारा छोड़े पदचिन्हों पर अपने तरीके को जांचा। उनके सारे अनुमान सही निकले।

लगता है, पदमार्गों की मदद से बाकी डायनासौर की चाल पर भी पुनर्विचार किया जा सकता है। इसके अलावा, सौरोपोड विविध तरह के थे उनके आकार भिन्न थे तो संभव है कि उनकी चाल भी अलग-अलग रही हो। शोधकर्ता इस बात सहमत हैं और अन्य सौरोपोड्स और डायनासौर की चाल का विश्लेषण करने की योजना बना रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन: बांग्लादेश से सबक

ह तो स्पष्ट है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन ने वैश्विक तापमान बढ़ा दिया है, जिससे पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र और मानव समाज पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। इस सिलसिले में, 28 फरवरी को आई एक रिपोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि ये प्रतिकूल प्रभाव और बदतर होंगे और इनके साथ अनुकूलन की तत्काल आवश्यकता है।

यह बात बांग्लादेश, या दक्षिणी विश्व के अन्य गरीब और असुरक्षित देशों और समुदायों, के लिए कोई नई बात नहीं है। ये इलाके एक दशक से अधिक समय से बदलती जलवायु के प्रभावों जैसे बाढ़ों, चक्रवातों और सूखों को झेल रहे हैं। नई बात यह है कि वैश्विक तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के बाद जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और अधिक गंभीर हो गए हैं। यानी 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के तहत किए जा रहे प्रयासों के बावजूद जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, नुकसान और तबाही का युग शुरू हो गया है, जिसे टाला नहीं जा सकता।

 अब विश्व के हर हिस्से में हर दिन रिकॉर्ड तोड़ जलवायु प्रभाव दिख रहे हैं, और निकट भविष्य में ये और भयावह होंगे। हाल ही में जर्मनी में आई बाढ़, जिसमें लगभग 200 लोग मारे गए थे और न्यू जर्सी में ईदा तूफान के बाद आई बाढ़, जिसमें 30 से अधिक लोग मारे गए थे, कुछ उदाहरण हैं।

संदेश यह है कि वर्तमान नुकसान और तबाही से निपटने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन के प्रयास तेज़ करना होंगे। गरीब देश अपने दम पर ऐसा करने में असमर्थ हो सकते हैं। ऐसे में अमीर देशों को, भले ही प्रदूषण फैलाने के हर्जाने के तौर पर न सही, कम से कम एकजुटता की भावना से ही गरीब देशों की मदद करनी चाहिए।

रिपोर्ट में अनुकूलन को देश और दुनिया के स्तर पर संपूर्ण-समाज प्रयास बनाने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला गया है। इस संदर्भ में बांग्लादेश से काफी कुछ सीखा जा सकता है, जो इन प्रभावों का सामना करने के लिए संपूर्ण-समाज प्रयास का तरीका अपना रहा है। बांग्लादेश ने अपने 16 करोड़ नागरिकों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया है।

उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के धान वैज्ञानिकों ने धान की लवण-सहिष्णु किस्में विकसित की हैं। ये किस्में निजी कृषि व्यावसायियों द्वारा किसानों को बेची जा रही हैं। पारंपरिक किस्मों से महंगी होने के बावजूद निचले तटीय क्षेत्रों, जहां समुद्र का खारा पानी आ जाता है, के किसान इन्हें खरीद रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिकों के प्रयास तटीय इलाकों में लवणता बढ़ने के सामने धीमे साबित हो रहे हैं। इसलिए अनुकूलन में तेज़ी लाने के लिए वैश्विक वैज्ञानिकों के सहयोग की आवश्यकता है।

बांग्लादेश ने सभी समस्याओं का समाधान नहीं किया है, लेकिन बाढ़ और चक्रवात से लोगों की जान बचाने में काफी प्रगति की है। एक दशक पूर्व बांग्लादेश में भीषण चक्रवात के कारण सैकड़ों-हज़ारों जानें जाती थीं लेकिन अब बांग्लादेश के पास संभवत: दुनिया का बेहतरीन चक्रवात चेतावनी और लोगों को स्थानांतरित करने के कार्यक्रम है। उपग्रह द्वारा चक्रवात की स्थिति पर नज़र रखने का तंत्र बेहतर हुआ है। साथ ही रेडियो, मोबाइल फोन और यहां तक कि स्वयंसेवकों द्वारा मेगाफोन के माध्यम से लोगों को पूर्व चेतावनी दी जाती है। हाई स्कूल के छात्रों को चक्रवात से मुस्तैदी से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। संवेदनशील क्षेत्रों के निकट आश्रय स्थल बनाए गए हैं और लोगों को इनकी जानकारी दी जाती है।

इन उपायों की प्रभावशीलता मई 2020 में दिखी जब यहां अम्फान नामक चक्रवात ने कहर बरपाया था। अम्फान चक्रवात में 30 से कम लोगों की जान गई थी और जिनकी जान गईं उनमें ज़्यादातर वे मछुआरे थे जो समुद्र से समय पर लौट नहीं पाए थे। बांग्लादेश के ऐसे प्रयास अन्य देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने में मदद कर सकते हैं; साथ ही कई मामलों में उसे अन्य देशों की मदद की ज़रूरत है। मामला व्यापक सहयोग का है। (स्रोत फीचर्स)

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रेडियोधर्मी कचरे का एक लाख वर्ष तक भंडारण!

कोयला संयंत्रों की तुलना में परमाणु उर्जा को स्वच्छ उर्जा माना जाता है। परमाणु उर्जा संयंत्रों की दक्षता भी अधिक होती है – समान मात्रा में कोयले की तुलना में 20,000 गुना अधिक उर्जा प्राप्त होती है। लेकिन इन संयंत्रों से निकलने वाला रेडियोधर्मी कचरा एक बड़ी समस्या है। यह कचरा सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक सक्रिय रहता है और पर्यावरण व स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता रहता है। वर्तमान में, परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले अधिकांश रेडियोधर्मी कचरे को बिजली संयंत्रों में ही संग्रहित किया जाता है लेकिन स्थान की कमी के कारण इस कचरे को स्थानांतरित करना आवश्यक हो जाता है।     

इस कचरे को धरती में दफनाने में भी कई समस्याएं हैं। यह धीरे-धीरे मिट्टी को संदूषित कर पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता रहता है। ऐसे में तेज़ी से विकसित हो रहे परमाणु उर्जा संयंत्रों से भविष्य में रेडियोधर्मी अपशिष्ट का निष्पादन एक बड़ी समस्या बन सकता है। वर्तमान में नेवादा स्थित प्रसिद्ध युक्का माउंटेन पर परमाणु कचरे के स्थायी भंडारण से फ्रांस, स्वीडन और अमेरिका जैसे देशों को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। हाल में फिनलैंड एक दीर्घकालिक परमाणु अपशिष्ट भंडार के लिए अनुमोदन प्राप्त करने में सफल रहा है जिसे आने वाले कुछ वर्षों में शुरू करने की तैयारी है।

इस भंडारण सुविधा को फिनिश भाषा में ऑनकालो नाम दिया गया है जिसका मतलब गहरा गड्ढा है। यूराजोकी शहर के बाहरी क्षेत्र में पृथ्वी की सतह से लगभग आधा किलोमीटर नीचे युरेनियम ईंधन अपशिष्ट का भंडारण किया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि तांबे के पुख्ता कवच, जल-अवशोषक बेंटोनाइट मिट्टी और जलरोधी क्रिस्टलीय चट्टानों की मोटी-मोटी परतें हानिकारक रेडियोधर्मी तत्वों को इस स्थल से बाहर रिसने और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाने से रोक लेंगी। लेकिन यहां की अछिद्रित चट्टानों में भी दरारें तो होती ही हैं। अत: इस परियोजना पर काम करने वाली कंपनी पोसिवा को इन दरारों का मानचित्रण करके उनसे बचने के काफी प्रयास करना पड़े हैं।

यह परियोजना फिनलैंड के परमाणु उर्जा क्षेत्र के जोखिम को कम करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इस वर्ष पांचवें परमाणु उर्जा संयंत्र के शुरू होने के बाद परमाणु ऊर्जा देश की ऊर्जा की 40 प्रतिशत मांग को पूरा करेगी। यदि यह परियोजना सफल होती है तो ऑनकालो के विशाल तांबा कवच रेडियोधर्मी युरेनियम को तब तक सुरक्षित और सुखाकर रखेंगे जब तक कि यह पर्याप्त सुरक्षित स्तर तक विघटित नहीं हो जाता यानी लगभग एक लाख वर्षों तक। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 की उत्पत्ति पर बहस जारी

हाल में जारी किए गए तीन नए अध्ययनों ने सार्स-कोव-2 की उत्पत्ति पर निर्विवादित निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। हालांकि तीनों विश्लेषण कोविड-19 की उत्पत्ति तक तो नहीं पहुंचते हैं लेकिन वायरस के वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरॉलॉजी से लीक होने के सिद्धांत को खारिज करते हैं।

इन अध्ययनों में वुहान स्थित हुआनान सीफूड बाज़ार में वायरस के विभिन्न पहलुओं की जांच की गई है, जहां संक्रमण के सबसे पहले मामले देख गए थे। दो अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार वर्ष 2019 के अंत में सार्स-कोव-2 वायरस ने संक्रमित जंतुओं से मनुष्यों में संभवतः दो बार प्रवेश किया। तीसरा अध्ययन कमोबेश चीन के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया था जो सीफूड बाज़ार के पर्यावरण और जंतुओं के नमूनों में कोरोनावायरस के शुरुआती उपस्थिति का विवरण देता है। इस अध्ययन में वायरस के किसी अन्य देश से प्रवेश करने की बात भी कही गई है।

हालांकि इन अध्ययनों की समकक्ष समीक्षा नहीं हुई है, फिर भी वैज्ञानिक, जैव-सुरक्षा विशेषज्ञ, पत्रकार और अन्य जांचकर्ता इन अध्ययनों की जांच में जुट गए हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ये अध्ययन प्रयोगशाला उत्पत्ति की परिकल्पना को ध्वस्त करते हैं और सीफूड बाज़ार से वायरस के प्रसार की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं।

इस संदर्भ में प्राकृतिक उत्पत्ति सिद्धांत के आलोचकों का कहना है कि सीफूड बाज़ार मात्र एक सुपरस्प्रेडर स्थल रहा होगा जहां वायरस प्रयोगशाला से किसी संक्रमित व्यक्ति के माध्यम से पहुंचा होगा। लेकिन कई शोधकर्ताओं का मानना है कि और जानकारी मिलने पर प्रयोगशाला उत्पत्ति का दावा कमज़ोर हो जाएगा। जेनेटिक सैंपलिंग डैटा के विश्लेषण से यह पता लगाया जा सकता है कि बाज़ार की किन प्रजातियों में मुख्य रूप से वायरस था।

एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में सार्स-कोव-2 के दो अलग-अलग वंशों का विवरण दिया है। जबकि दूसरे अध्ययन में शुरुआती मामलों का एक भू-स्थानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है जो वुहान के बाज़ार को सार्स-कोव-2 के प्रसार केंद्र के रूप में इंगित करता है। इस अध्ययन में वायरस के दोनों वंशों द्वारा बाज़ार से सम्बंधित या उसके पास रहने वाले लोगों को संक्रमित करने के संकेत मिले हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार यह विश्लेषण जीवित वन्यजीवों के व्यापार के माध्यम से वायरस के उद्भव के साक्ष्य प्रदान करता है।  

गौरतलब है कि पूर्व में चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के जॉर्ज गाओ और 37 अन्य वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में 1 जनवरी से 2 मार्च 2020 के दौरान हुआनान सीफूड बाज़ार के पर्यावरण से लिए गए नमूनों का विस्तार से विवरण दिया था। लेकिन यह अध्ययन आधिकारिक तौर पर प्रकाशित नहीं हुआ। गाओ और उनके सहयोगियों ने बाज़ार के पर्यावरण और 188 जीवों के 1380 नमूनों का विश्लेषण किया था। ये नमूने सीवर, ज़मीन, पंख हटाने वाली मशीन और कंटेनरों से भी लिए गए। टीम को इनमें से 73 नमूनों में सार्स-कोव-2 प्राप्त हुआ। और ये सारे नमूने बाज़ार के पर्यावरण से प्राप्त हुए थे। चूंकि जिन 73 नमूनों में वायरस पाया गया, वे जंतुओं से नहीं बल्कि बाज़ार के पर्यावरण से लिए गए थे, इसलिए स्पष्ट होता है कि वायरस वहां मनुष्यों के माध्यम से पहुंचा था न कि किसी जंतु से। यानी बाज़ार सार्स-कोव-2 वायरस का एम्पलीफायर रहा, स्रोत नहीं।            

कोविड-19 की उत्पत्ति से सम्बंधित सरकारी दावों को ध्यान में रखते हुए गाओ और उनके सहयोगियों ने अपने प्रीप्रिंट में वुहान के मामले सामने आने से पहले अन्य देशों में सार्स-कोव-2 की उपस्थिति दर्शाने वाले अध्ययनों का विवरण दिया है। लेकिन उन आलोचनाओं का कोई उल्लेख नहीं किया गया जिनमें कहा गया है कि ऐसा संदूषण की वजह से हो सकता है।    

अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में कोरोनावायरस वंश के विश्लेषण ने पिछले वर्ष वायरोलॉजिस्ट रॉबर्ट गैरी द्वारा प्रस्तुत तर्क को और परिष्कृत किया है। गैरी ने दिसंबर 2019 में मनुष्यों के प्रारंभिक मामलों में वुहान बाज़ार से सार्स-कोव-2 के दो अलग-अलग रूपों की पहचान की थी जिनमें केवल दो उत्परिवर्तन का ही फर्क था। इस नए अध्ययन ने सोच में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि ए और बी नामक दोनों वंश हुआनान सीफूड बाज़ार से उत्पन्न हुए और जल्द ही आसपास के क्षेत्रों में फैल गए। नवंबर 2019 के अंत में बी संभावित रूप से जंतुओं से मनुष्यों में प्रवेश कर गया जिसका पहला मामला 10 दिसंबर को सामने आया जबकि ए इसके कुछ सप्ताह बाद सामने आया। देखा जाए तो वायरस के दो वंशों का लगभग एक साथ उद्भव प्रयोगशाला-लीक के सिद्धांत को कमज़ोर कर देता है।

अंतर्राष्ट्रीय टीम का दूसरा प्रीप्रिंट जून 2021 के चीनी नेतृत्व वाले अध्ययन पर आधारित है जिसने बाज़ार में एक विशिष्ट स्टाल पर दो वर्षों तक बेचे गए स्तनधारियों में टिक बुखार का दस्तावेज़ीकरण किया है। इस नए अध्ययन में उन स्थानों को इंगित किया गया जहां पहली बार सार्स-कोव-2 के प्रति संवेदनशील जंतुओं, जैसे रैकून, हेजहॉग, बैजर, लाल लोमड़ी और बैम्बू रैट बेचे गए और उन स्थलों से प्राप्त पर्यावरणीय नमूनों के पॉज़िटिव परिणाम सामने आए। ये सभी निष्कर्ष वायरस के वुहान बाज़ार से उत्पन्न होने के संकेत देते हैं।

कुछ अन्य विशेषज्ञ इस अध्ययन को महत्वपूर्ण तो मानते हैं लेकिन इनके निष्कर्षों से पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट के जीव विज्ञानी जेसी ब्लूम के अनुसार सार्स-कोव-2 के लगभग 10 प्रतिशत मानव संक्रमण में वायरस के दो उत्परिवर्तन देखे गए हैं। इसका मतलब यह है कि दूसरा वायरस जंतुओं से दो बार मनुष्यों में नहीं आया बल्कि पहले संक्रमण के बाद उभरा हो। अलबत्ता, कंप्यूटर सिमुलेशन दर्शाता है कि एक वंश के दूसरे में उत्परिवर्तित होने की संभावना केवल 3.6 प्रतिशत है।       

हालांकि ये अध्ययन प्रयोगशाला उत्पत्ति के दावों पर सवाल उठाने के लिए कुछ हद तक तो पर्याप्त हैं लेकिन इस बहस को विराम देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी और मानवता को बचाने के लिए आहार – ज़ुबैर सिद्दिकी

लवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द अब हमारे लिए अनजाने नहीं हैं। बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से निकट भविष्य में होने वाली समस्याओं के संकेत दिखने लगे हैं। इनको सीमित करने के लिए समय-समय पर सम्मेलन आयोजित होते रहे हैं। हाल ही में ग्लासगो में ऐसा सम्मेलन हुआ था। आम तौर पर इन सम्मेलनों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, वनों की कटाई, पारिस्थितिक तंत्र आदि मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं। लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर चर्चा नहीं होती है। हाल ही में कुछ शोधकर्ताओं ने हमारे खानपान के तरीकों से पृथ्वी पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है।    

तथ्य यह है कि विश्व में लगभग दो अरब लोग (अधिकांश पश्चिमी देशो में) अधिक वज़न या मोटापे से ग्रस्त हैं। इसके विपरीत करीब 80 करोड़ ऐसे लोग (अधिकांश निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में) भी हैं जिनको पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा है। 2017 में अस्वस्थ आहार से विश्व स्तर पर सबसे अधिक मौतें हुई थीं। राष्ट्र संघ खाद्य व कृषि संगठन के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि और पश्चिमी देशों के समान अधिक से अधिक भोजन का सेवन करने के रुझान को देखते हुए अनुमान है कि वर्ष 2050 तक मांस, डेयरी और अंडे के उत्पादन में लगभग 44 प्रतिशत वृद्धि ज़रूरी होगी।

यह स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण की भी समस्या है। गौरतलब है कि वर्तमान औद्योगीकृत खाद्य प्रणाली वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लगभग एक-चौथाई के लिए ज़िम्मेदार है। इसके लिए विश्व भर के 70 प्रतिशत मीठे पानी और 40 प्रतिशत भूमि का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस चक्र को बाधित करते हैं और नदियों तथा तटों को भी प्रदूषित करते हैं।

वर्ष 2019 में 16 देशों के 37 पोषण विशेषज्ञों, पारिस्थितिकीविदों और अन्य विशेषज्ञों के एक समूह – लैंसेट कमीशन ऑन फूड, प्लेनेट एंड हेल्थ – ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें पोषण और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए व्यापक आहार परिवर्तन का आह्वान किया गया है। लैंसेट समूह द्वारा निर्धारित आहार का पालन करने वाले व्यक्ति को लचीलाहारी कहा जाता है जो अधिकांश दिनों में तो पौधों से प्राप्त आहार लेता है और कभी-कभी थोड़ी मात्रा में मांस या मछली का सेवन करता है।

इस रिपोर्ट ने निर्वहनीय आहार पर ध्यान तो आकर्षित किया है लेकिन यह सवाल भी उठा है कि क्या यह सभी के लिए व्यावहारिक है। इस संदर्भ में कुछ वैज्ञानिक पोषण और आजीविका को नुकसान पहुंचाए बिना स्थानीय माहौल के हिसाब से पर्यावरणीय रूप से निर्वहनीय आहार का परीक्षण करने का प्रयास कर रहे हैं।

खानपान से होने वाला उत्सर्जन

खाद्य उत्पादन से होने वाला ग्रीनहाउस उत्सर्जन इतना अधिक है कि वर्तमान दर पर सभी राष्ट्र गैर-खाद्य उत्सर्जन को पूरी तरह खत्म भी कर देते हैं तब भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं किया जा सकता है। खाद्य प्रणाली उत्सर्जन का 30 से 50 प्रतिशत हिस्सा तो केवल जंतु सप्लाई चेन से आता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेषज्ञों के अनुसार 2050 तक शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के कारण भोजन सम्बंधी उत्सर्जन में 80 प्रतिशत तक वृद्धि होने की सम्भावना है।

यदि सभी लोग अधिक वनस्पति-आधारित आहार का सेवन करने लगें और अन्य सभी क्षेत्रों से उत्सर्जन को रोक दिया जाए तो वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य को पूरा करने की 50 प्रतिशत उम्मीद होगी। यदि भोजन प्रणाली में व्यापक बदलाव के साथ आहार में भी सुधार किया जाता है तो यह संभावना बढ़कर 67 प्रतिशत हो जाएगी।

अलबत्ता, ये निष्कर्ष मांस उद्योग को नहीं सुहाते। 2015 में यूएस कृषि विभाग की सलाहकार समिति ने आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों में संशोधन करते समय शोधकर्ताओं के हस्तक्षेप के चलते पर्यावरणीय पहलू को भी शामिल करने पर विचार किया था। लेकिन उद्योगों के दबाव के कारण इस विचार को खारिज कर दिया गया। फिर भी इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान तो गया।

यूके-आधारित वेलकम संस्थान द्वारा वित्तपोषित EAT-लैंसेट कमीशन ने एक मज़बूत केस प्रस्तुत किया। पोषण विशेषज्ञों ने संपूर्ण खाद्य पदार्थों से बना एक बुनियादी स्वस्थ आहार तैयार किया जिसमें कार्बन उत्सर्जन, जैव-विविधता हानि और मीठे पानी, भूमि, नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस के उपयोग को शामिल किया गया। इस प्रकार से टीम ने आहार की पर्यावरणीय सीमाएं निर्धारित की। टीम के अनुसार इन पर्यावरणीय सीमाओं का उल्लंघन करने का मतलब इस ग्रह को मानव जाति के लिए जीवन-अयोग्य बनाना होगा।

इस आधार पर उन्होंने एक विविध और मुख्यतः वनस्पति आधारित भोजन योजना तैयार की है। इस योजना के तहत औसत वज़न वाले 30 वर्षीय व्यक्ति के लिए 2500 कैलोरी प्रतिदिन के आहार के हिसाब से एक सप्ताह में 100 ग्राम लाल मांस खाने की अनुमति है। यह एक आम अमेरिकी की खपत से एक-चौथाई से भी कम है। यह भी कहा गया है कि अत्यधिक परिष्कृत खाद्य पदार्थ (शीतल पेय, फ्रोज़न फूड और पुनर्गठित मांस, शर्करा और वसा) के सेवन से भी बचना चाहिए।

आयोग का अनुमान है कि इस प्रकार के आहार के ज़रिए पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुंचाए बिना 10 अरब लोगों को अधिक स्वस्थ भोजन दिया जा सकता है। कई वैज्ञानिकों ने EAT-लैंसेट द्वारा तैयार किए गए आहार प्लान की सराहना की है। लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या यह आहार कम संसाधन वाले लोगों के लिए भी पर्याप्त पोषण प्रदान करेगा। जैसे वाशिंगटन स्थित ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रिशन के टाय बील का निष्कर्ष है कि यह आहार 25 वर्ष से ऊपर की आयु के व्यक्ति के लिए आवश्यक जिंक का 78 प्रतिशत और कैल्शियम का 86 प्रतिशत ही प्रदान करता है और प्रजनन आयु की महिलाओं को आवश्यक लौह का केवल 55 प्रतिशत प्रदान करता है।

इन आलोचनाओं के बावजूद, यह आहार पर्यावरण सम्बंधी चिंताओं को केंद्र में रखता है। रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद विश्व भर के जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक इस आहार को सभी तरह के लोगों के लिए व्यावहारिक बनाने पर अध्ययन कर रहे हैं।

समृद्ध आहार

कई पोषण शोधकर्ता जानते हैं कि अधिकांश उपभोक्ता आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों का पालन नहीं करते। कई वैज्ञानिक लोगों को यह संदेश देने के कारगर तरीके तलाश रहे हैं। कुछ पोषण वैज्ञानिक स्कूलों में बगैर हो-हल्ले के एक निर्वहनीय आहार का परीक्षण कर रहे हैं, जिसमें मौसमी सब्ज़ियों और फ्री-रेंज मांस (जिन जंतुओं को दड़बों में नहीं रखा जाता) जैसे पारंपरिक और निर्वहनीय खाद्य की खपत को बढ़ावा दिया जाता है।

इस कार्यक्रम में प्राथमिक विद्यालय के 2000 छात्रों के स्कूल लंच का विश्लेषण करने के लिए कंप्यूटर एल्गोरिदम का उपयोग किया गया है। जिससे उन्हें आहार को अधिक पौष्टिक और जलवायु के अनुकूल बनाने के तरीकों के सुझाव मिले, जैसे मांस की मात्रा को कम करके फलियों और सब्ज़ियों की मात्रा में वृद्धि। शोधकर्ताओं ने बच्चों और उनके अभिभावकों को लंच में सुधार की सूचना दी लेकिन उनको इसका विवरण नहीं दिया गया। इसकी ओर बच्चों ने भी ध्यान नहीं दिया और पहले के समान भोजन की बर्बादी भी नहीं हुई। इस कवायद के माध्यम से शोधकर्ता बच्चों में टिकाऊ आहार सम्बंधी आदतें विकसित करना चाहते हैं जो आगे भी जारी रहें। वैसे यह आहार EAT-लैंसेट से काफी अलग है। यह EAT-लैंसेट आहार को स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर तैयार करने के महत्व को रेखांकित करता है।

इसी तरह से कुछ शिक्षाविद और रेस्तरां भी कम आय वाली परिस्थिति में मुफ्त आहार का परीक्षण कर रहे हैं। इस संदर्भ में जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इस तरह का आहार लेने वाले 500 लोगों का सर्वेक्षण किया और पाया कि 93 प्रतिशत लोगों ने इस आहार को काफी पसंद किया। देखा गया कि प्रत्येक मुफ्त आहार की कीमत 10 अमेरिकी डॉलर है जो वर्तमान में यूएस फूड स्टैम्प द्वारा प्रदान की जाने वाली राशि का पांच गुना है। इससे पता चलता है कि यदि आप आहार में व्यापक बदलाव करें तो पर्यावरण पर एक बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं लेकिन इसमें सांस्कृतिक और आर्थिक बाधाएं रहेंगी।

पेट पर भारी

फिलहाल शोधकर्ता कम या मध्यम आय वाले देशों में भविष्य का आहार खोजने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बाधा यह पता लगाना है कि इन देशों के लोग वर्तमान में कैसे भोजन ले रहे हैं। देखा जाए तो भारत के लिए यह जानकारी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि वैश्विक भूख सूचकांक में 116 देशों में भारत का स्थान 101 है। और तो और, यहां अधिकांश बच्चे ऐसे हैं जो अपनी काफी दुबले हैं।

इस मामले में उपलब्ध डैटा का उपयोग करते हुए आई.आई.टी. कानपुर के फूड सिस्टम्स वैज्ञानिक अभिषेक चौधरी, जो EAT-लैंसेट टीम का हिस्सा भी रहे हैं, और उनके सहयोगी स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैभव कृष्णा ने भारत के सभी राज्यों के लिए आहार डिज़ाइन तैयार करने के लिए स्थानीय पानी, उत्सर्जन, भूमि उपयोग और फॉस्फोरस एवं नाइट्रोजन उपयोग के पर्यावरणीय डैटा का इस्तेमाल किया। इस विश्लेषण ने एक ऐसे आहार का सुझाव दिया जो पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा करता है, खाद्य-सम्बंधी उत्सर्जन को 35 प्रतिशत तक कम करता है और अन्य पर्यावरणीय संसाधनों पर दबाव भी नहीं डालता है। लेकिन आवश्यक मात्रा में ऐसा भोजन उगाने के लिए 35 प्रतिशत अधिक भूमि की आवश्यकता होगी या उपज बढ़ानी होगी। इसके अलावा भोजन की लागत 50 प्रतिशत अधिक होगी।

भारत ही नहीं स्वस्थ और टिकाऊ आहार अन्य स्थानों पर भी महंगा है। EAT-लैंसेट द्वारा प्रस्तावित विविध आहार जैसे नट, मछली, अंडे, डेयरी उत्पाद आदि को लाखों लोगों तक पहुंचाना असंभव है। यदि खाद्य कीमतों के हालिया आंकड़ों (2011) को देखा जाए तो इस आहार की लागत एक सामान्य पौष्टिक भोजन की लागत से 1.6 गुना अधिक है।

कई अन्य व्यावहारिक दिक्कतों के चलते फिलहाल वैज्ञानिकों को कम और मध्यम आय वाले देशों में पर्यावरण संरक्षण से अधिक ध्यान पोषण प्रदान करने पर देना चाहिए। वर्तमान में एक समिति के माध्यम से EAT-लैंसेट के विश्लेषण पर एक बार फिर विचार किया जा रहा है।

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि गरीब देशों में वहनीय आहार की खोज समुदायों और किसानों के साथ मिलकर काम करने से ही संभव है। खाद्य प्रणाली से जुड़े वैज्ञानिकों को लोगों को बेहतर आहार प्रदान करने के लिए स्थानीय परिस्थितियों से तालमेल बनाने के तरीके खोजने की भी आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कम खाएं, स्वस्थ रहें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

धुनिक मनुष्यों के लिए स्वस्थ और बुद्धिमान रहने के लिए दिन में तीन बार भोजन करना आदर्श नुस्खा लगता है। फिर भी जैव विकास के नज़रिए से देखें तो हमारा शरीर कभी-कभी उपवास के लिए या कुछ समय भूखा रहने के लिए अनुकूलित हुआ है क्योंकि मनुष्यों के लिए लगातार भोजन उपलब्ध रहेगा इसकी गारंटी नहीं थी ।

निस्संदेह उपवास हमारी पंरपरा का एक हिस्सा है; यह कई संस्कृतियों में प्रचलित है – हिंदुओं में एकादशी से लेकर करवा चौथ तक के व्रत; यहूदियों के योम किप्पुर, जैनियों का पर्युषण पर्व, मुसलमानों के रमज़ान के रोज़े, ईसाइयों में लेंट अवधि वगैरह। तो सवाल है कि क्या व्यापक स्तर पर उपवास का चलन यह संकेत देता है कि यह मन को संयमित रखने के अलावा स्वास्थ्य लाभ देता है।

वर्ष 2016 में दी लैसेंट पत्रिका में प्रकाशित 186 देशों के आंकड़ों के विश्लेषण में पता चला है कि अब मोटापे से ग्रसित लोगों की संख्या कम-वज़न वाले लोगों की संख्या से अधिक है। दो पीढ़ी पहले की तुलना में हमारा जीवनकाल भी काफी लंबा है। इन दोनों कारकों ने मिलकर समाज पर बीमारी का बोझ काफी बढ़ाया है। और व्यायाम के अलावा, सिर्फ उपवास और कैलोरी कटौती या प्रतिबंध (CR) यानी कैलोरी को सीमित करके स्वस्थ जीवन काल में विस्तार देखा गया है।

उपवास बनाम कैलोरी कटौती

उपवास और कैलोरी कटौती दोनों एक बात नहीं है। कैलोरी कटौती का मतलब है कुपोषण की स्थिति लाए बिना कैलोरी सेवन की मात्रा में 15 से 40 प्रतिशत तक की कमी करना। दूसरी ओर, उपवास कई तरीकों से किए जाते हैं। रुक-रुककर उपवास यानी इंटरमिटेंट फास्टिंग (IF) में आप बारी-बारी 24 घंटे बिना भोजन के (या अपनी खुराक का 25 प्रतिशत तक भोजन ग्रहण करके) बिताते हैं और फिर अगले 24 घंटे सामान्य भोजन करके बिताते हैं। सावधिक उपवास (पीरियॉडिक फास्टिंग) में आप हफ्ते में एक या दो दिन का उपवास करते हैं और हफ्ते के अगले पांच दिन सामान्य तरह से भोजन करते हैं। समय-प्रतिबंधित आहार (TRF) में पूरे दिन का भोजन 4 से 12 घंटे के भीतर कर लिया जाता है। और उपवासनुमा आहार यानी फास्टिंग-मिमिकिंग डाइट (FMD) में महीने में एक बार लगातार पांच दिनों के लिए अपनी आवश्यकता से 30 प्रतिशत तक कम भोजन किया जाता है। इसके अलावा, भोजन की मात्रा घटाने के दौरान लिए जाने वाले वसा, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट के अनुपात को कम-ज़्यादा किया जा सकता है ताकि पर्याप्त वसा मिलती रहे।

जापान में ओकिनावा द्वीप में स्वस्थ शतायु लोगों की संख्या काफी अधिक है, क्योंकि वहां के वयस्क हारा हाची बू का पालन करते हैं – जब पेट 80 प्रतिशत भर गया होता है तो वे खाना बंद कर देते हैं। कुछ संप्रदायों के बौद्ध भिक्षु दोपहर में अपना अंतिम भोजन (TRF) कर लेते हैं।

कई अध्ययनों में कृन्तकों और मनुष्यों पर व्रत के ये विभिन्न तरीके जांचे गए हैं – हम मनुष्यों को अक्सर प्रतिबंधित आहार लेने के नियम का पालन करना मुश्किल होता है! लेकिन जब भी इनका ठीक से पालन किया गया है तो देखा गया है कि इन तरीकों ने मोटापे को रोकने, ऑक्सीकारक तनाव और उच्च रक्तचाप से सुरक्षा दी है। साथ ही इन्होंने कई उम्र सम्बंधी बीमारियों को कम किया है और इनकी शुरुआत को टाला है।

उम्र वगैरह जैसी व्यक्तिगत परिस्थितियों को देखते हुए व्रत का उपयुक्त तरीका चुनने के लिए सावधानीपूर्वक जांच और विशेषज्ञ की सलाह आवश्यक है।

ग्लायकोजन भंडार

हम ग्लूकोज़ को लीवर में ग्लायकोजन के रूप में जमा रखते हैं; शरीर की ऊर्जा की मांग इसी भंडार से पूरी होती है। एक दिन के उपवास से रक्त शर्करा के स्तर में 20 प्रतिशत की कमी होती है और ग्लायकोजन का भंडार घट जाता है। हमारा शरीर चयापचय की ऐसी शैली में आ जाता है जिसमें ऊर्जा की प्राप्ति वसा-व्युत्पन्न कीटोन्स और लीवर के बाहर मौजूद ग्लूकोज़ से होती है। इंसुलिन का स्तर कम हो जाता है और वसा कोशिकाओं में वसा अपघटन के द्वारा लिपिड ट्राइग्लिसराइड्स को नष्ट किया जाता है।

मेटाबोलिक सिंड्रोम जोखिम कारकों का एक समूह है जो हृदय रोग और मधुमेह की संभावना दर्शाते हैं। साल्क इंस्टीट्यूट के सच्चिदानंद पंडा ने अपने अध्ययन में रोगियों में 10 घंटे TRF के लाभों पर प्रकाश डाला है, और रक्तचाप, हृदय की अनियमितता और शारीरिक सहनशक्ति में उल्लेखनीय सुधार देखा है। उनका यह अध्ययन सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित हुआ है।

देखा गया है कि रुक-रुककर उपवास आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को भी बदलता है। इससे बैक्टीरिया की विविधता बढ़ती है। लघु-शृंखला वाले फैटी एसिड बनाने वाले बैक्टीरिया में वृद्धि होती है जो शोथ के ज़रिए होने वाली तकलीफों (जैसे अल्सरेटिव कोलाइटिस) को रोकने के लिए जाने जाते हैं।

वर्ष 2021 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित परिणाम दर्शाते हैं कि फलमक्खियों में काफी दिनों तक रात में कुछ न खाने से कोशिकाओं में पुनर्चक्रण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है। इसे ऑटोफेगी या स्व-भक्षण कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके जीवन काल में 15 से 20 प्रतिशत तक का इजाफा होता है।

स्वभक्षण अधिकतर रात में होता है और यह शरीर की आंतरिक घड़ी द्वारा नियंत्रित होता है। तंत्रिकाओं की तंदुरुस्ती के लिए स्वभक्षण आवश्यक है; इस प्रक्रिया में त्रुटि से पार्किंसंस रोग की संभावना बढ़ाती हैं।

पोषक तत्वों की भरपूर आपूर्ति स्वभक्षण को रोकती है और प्रोटीन के जैव-संश्लेषण को बढ़ावा देने वाले मार्गों को सक्रिय करती है और इस प्रकार नवीनीकरण को बढ़ावा मिलता है। अपघटन और नवीनीकरण का यह गतिशील नियंत्रण बताता है कि लंबे समय तक कैलोरी प्रतिबंध की तुलना में इंटरमिटेंट फास्टिंग, टाइम-रेस्ट्रिक्टेड फीडिंग, फास्टिंग-मिमिकिंग डाइट और पीरियॉडिक उपवास शरीर के लिए बेहतर हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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सूरजमुखी के पराबैंगनी रंगों की दोहरी भूमिका

र्मियों के अंत में खेतों में सूरजमुखी खिले दिखते हैं। लंबे तने के शीर्ष पर लगे सूरजमुखी के फूल लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं – चटख पीले रंग की पंखुड़ियां और बीच में कत्थई रंग का गोला। लेकिन पराबैंगनी प्रकाश को देखने में सक्षम मधुमक्खियों व अन्य  परागणकर्ताओं को सूरजमुखी का फूल बीच में गहरे रंग का और किनारों पर हल्के रंग का दिखता है जैसे चांदमारी का निशाना (बुल्स आई) हो।

हाल ही में ईलाइफ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक इस बुल्स आई में पाए जाने वाले यौगिक न सिर्फ परागणकर्ताओं को आकर्षित करते हैं, बल्कि पानी के ह्रास को भी नियंत्रित करते हैं और सूरजमुखी को अपने वातावरण में अनुकूलित होने में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं को बुल्स आई के आकार के लिए ज़िम्मेदार एक एकल परिवर्तित जीन क्षेत्र भी मिला है।

ये निष्कर्ष शोधकर्ताओं को यह समझने में मदद कर सकते हैं कि सूरजमुखी और कुछ अन्य फूल बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के कारण अक्सर पड़ने वाले सूखे से कैसे निपटते हैं।

सूरजमुखी (हेलिएंथस प्रजातियां) कठिन आवास स्थानों के प्रति अनुकूलित होने में माहिर हैं। इस वंश के पौधे अत्यधिक दुर्गम परिस्थितियों, जैसे गर्म, शुष्क रेगिस्तान और खारे दलदल में रह सकते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के पादप आनुवंशिकीविद मार्को टोडेस्को जैव विकास और जेनेटिक्स की दृष्टि से समझना चाहते थे कि ये ऐसा कैसे करते हैं।

शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका के दूरस्थ स्थानों से लाकर युनिवर्सिटी में उगाए गए 1900 से अधिक सूरजमुखी पौधों का अध्ययन किया। अध्ययन का उद्देश्य फूलों के रंग जैसे विभिन्न लक्षणों को देखना था ताकि उनका आनुवंशिक आधार खोजा जा सके।

शोधकर्ताओं द्वारा सूरजमुखी की पराबैंगनी तस्वीरें लेने पर पता चला कि हरेक सूरजमुखी के फूल के लिए बुल्स आई का आकार बहुत अलग था – फूल के बीच में छोटे से घेरे से लेकर पूरी पंखुड़ियों पर बड़े घेरे तक बने थे। ये भिन्नता न केवल अलग-अलग प्रजातियों में थी बल्कि एक ही प्रजाति के फूलों के बीच भी थी, जिससे लगता है कि इसका कोई वैकासिक महत्व होगा।

अन्य प्रजातियों के फूल परागणकर्ताओं को आकर्षित करने के लिए इसी तरह के पैटर्न का उपयोग करते हैं, इसलिए शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या सूरजमुखी के मामले में भी ऐसा ही है। जैसी कि उम्मीद थी, परागणकर्ता छोटे या बड़े बुल्स आई वाले फूलों की तुलना में मध्यम आकार की बुल्स आई वाले फूलों पर 20-30 प्रतिशत बार अधिक आए। सवाल उठा कि यदि मध्यम आकार परागणकर्ताओं के लिए सबसे आकर्षक है तो फिर इन फूलों में बुल्स आई के इतने भिन्न आकार क्यों दिखते हैं? शोधकर्ताओं का अनुमान था कि बुल्स आई का कोई अन्य कार्य भी होगा जिसके चलते आकार में इतनी विविधता है।

इस संभावना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका वाले सूरजमुखी (हेलिएन्थस एन्नस) के विभिन्न आकार की बुल्स आई का भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से मानचित्र बनाया। जैसी कि उम्मीद थी उन्हें विविधता में एक स्पष्ट भौगोलिक पैटर्न दिखाई दिया।

पहले तो शोधकर्ताओं को लगा था कि बुल्स आई, जिसमें पराबैंगनी सोखने वाले रंजक होते हैं, सूरजमुखी को अतिरिक्त सौर विकिरण से बचाती होगी। लेकिन सूरजमुखी के मूल भौगोलिक क्षेत्र में पराबैंगनी किरणों की तीव्रता और बुल्स आई के औसत आकार के बीच कोई सम्बंध नहीं दिखा।

फिर शोधकर्ताओं को लगा कि शायद तापमान का इससे सम्बंध होगा। पूर्व अध्ययनों ने बताया गया था कि सूरजमुखी के फूल ऊष्मा को अवशोषित करने के लिए सूरज की तरफ रुख करते हैं, जो उन्हें तेज़ी से बढ़ने और परागणकर्ताओं को आकर्षित करने में मदद करता है। इसलिए शोधकर्ताओं का विचार था कि बड़ी बुल्स आई फूलों को ऊष्मा देने में मदद करती होगी ताकि परागणकर्ता भी आकर्षित हों और वृद्धि भी तेज़ी से हो। लेकिन जब शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकार के बुल्स आई वाले फूलों से आने वाली गर्मी की मात्रा की तुलना की तो उन्हें इसमें दिन में किसी भी समय कोई अंतर नहीं दिखा।

अंत में, उन्होंने देखा कि बड़े बुल्स आई वाले सूरजमुखी शुष्क इलाकों से लाए गए थे, जबकि छोटी बुल्स आई वाले सूरजमुखी नम इलाकों से लाए गए थे। इस आधार पर शोधकर्ताओं का विचार था कि बुल्सआई के आकार का सम्बंध नमी रोधन से होगा। इस परिकल्पना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने फूलों से पंखुड़ियों को अलग किया और अलग-अलग आकार की बुल्स आई वाले फूलों को सूखने में लगने वाला समय का मापन किया।

उन्होंने पाया कि बहुत शुष्क स्थानों से लाए गए फूलों की बहुत बड़ी बुल्स आई थी, और बड़ी बुल्स आई वाले पौधों ने बहुत धीमी दर से पानी खोया। और यदि स्थानीय जलवायु नम और गर्म दोनों है तो छोटे पैटर्न अधिक वाष्पोत्सर्जन होने देते हैं जो फूलों को बहुत गर्म होने से बचाता है। यानी ये पैटर्न दोहरी भूमिका निभाते हैं – परागणकर्ताओं को आकर्षित करना और सही मात्रा में नमी बनाए रखना।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने देखा कि इस विविधता के लिए कौन-से जीन ज़िम्मेदार हैं। सूरजमुखी की दो प्रजातियों एच. एन्नस और एच. पेटियोलारिस के जीनोम का अध्ययन किया गया। अकेले एच. एन्नस में एक जीन में बहुरूपता मिली जो फूलों के पैटर्न में 62 प्रतिशत विविधता के लिए ज़िम्मेदार थी। एच. पेटियोलारिस में स्पष्ट परिणाम नहीं दिखे।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि ये निष्कर्ष अन्य फूलों पर भी लागू हो सकते हैं। और इस तरह के अध्ययन यह समझने में मदद कर सकते हैं कि पौधे जलवायु परिवर्तन के प्रति किस तरह की प्रतिक्रिया दे सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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