गोदने की सुई से प्रेरित टीकाकरण

रीर पर टैटू बनवाने का चलन काफी पुराना है। प्रागैतिहासिक काल में शरीर पर विभिन्न आकृतियां गुदवाना एक आम बात थी। शुरुआत में गोदना यानी टैटू बनाने के लिए धातु के औज़ारों और वनस्पति रंजकों का उपयोग किया जाता था जो काफी कष्टदायी होता था। आधुनिक तकनीक से गोदना बनाना भी आसान हो गया और गुदवाने वाले को उतना कष्ट भी नहीं होता।     

टैटू बनाने में एक कुशल कलाकार टैटू की सुई को त्वचा में प्रति सेकंड 200 बार चुभोता है। लेकिन रोचक बात यह है कि इस तकनीक में इंजेक्शन के समान स्याही को दबाव डालकर मांस में नहीं भेजा जाता बल्कि जब सुई बाहर निकाली जाती है तब वहां बने खाली स्थान में स्याही खींची जाती है। टेक्सास टेक युनिवर्सिटी के रसायन इंजीनियर इडेरा लावल की रुचि इस तकनीक को टीकाकरण में आज़माने में है।

आम तौर पर टीकाकरण के लिए उपयोग की जाने वाली खोखली सुई ऊपर से पिस्टन को दबाकर डाले गए दबाव पर निर्भर करती है। इसमें सुई मांसपेशियों तक पहुंचती है और फिर सिरिंज के पिस्टन पर दबाव बनाया जाता है जिससे तरल दवा शरीर में प्रवेश कर जाती है।

लावल का ख्याल है कि यह तकनीक हर प्रकार के टीके के लिए उपयुक्त नहीं है। जैसे, आजकल विकसित हो रहे डीएनए आधारित टीके आम तौर पर काफी गाढ़े होते हैं जिनको इंजेक्शन की सुई से दे पाना संभव नहीं होता। यह काम टैटू तकनीक से किया जा सकता है क्योंकि टैटू की सुई का विज्ञान काफी अलग है।

टैटू की स्याही-लेपित सुई त्वचा में प्रवेश करने पर वहां 2 मिलीमीटर गहरा छेद बना देती है। जब सुई त्वचा से बाहर निकलती है, तब इस छोटे छेद में निर्मित निर्वात स्याही को अंदर खींच लेता है। लावल ने इसे एक मांस-नुमा जेल में प्रयोग करके भी दर्शाया है।

कई अन्य विशेषज्ञ लावल के इस प्रयोग को काफी प्रभावी मानते हैं। डैटा पर गौर करें तो आधी स्याही 50 में से 10 टोंचनों से ही पहुंच गई थी। इष्टतम संख्या पर अध्ययन जारी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लासगो जलवायु सम्मेलन पर एक दृष्टि – सोमेश केलकर

ग्रीनहाउस ऐसी इमारत को कहते हैं जिसका उपयोग पौधे उगाने के लिए किया जाता है। आम तौर पर ग्रीनहाउस कांच का बना होता है जिससे सूरज की किरणों की गर्मी अंदर ही कैद हो जाती है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि सर्द मौसम में भी इस इमारत में पौधों को वृद्धि के लिए ठीक-ठाक तापमान मिल जाता है।

देखा जाए तो ग्रीनहाउस प्रभाव पृथ्वी पर भी इसी तरह काम करता है। कांच के बजाय कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, ओज़ोन, नाइट्रस ऑक्साइड, जल वाष्प और क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसी गैसें वायुमंडल में उपस्थित हैं। ये गैसें ग्रीनहाउस की पारंपरिक कांच की दीवारों की तरह काम करती हैं। ये सूरज के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने देती हैं लेकिन जब धरती से ऊष्मा निकलती है तो उसे अंतरिक्ष में वापस जाने से रोक लेती हैं। इसलिए इन्हें ग्रीनहाउस गैसें कहा जाता है और ये जीवन के लिए इष्टतम तापमान बनाए रखती हैं।

आप ज़रूर पूछेंगे कि जब ग्रीनहाउस गैसें जीवन के लिए इतनी आवश्यक हैं तो इन गैसों के उत्सर्जन से इतनी परेशानी क्यों? क्या अधिक मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उपस्थित होना हमारे लिए बेहतर नहीं होगा? वास्तव में औद्योगीकरण की शुरुआत से ही मानव जाति ऐसी गतिविधियों में लिप्त रही है जिससे वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का निरंतर उत्सर्जन होता रहा है। चूंकि ग्रीनहाउस गैसों की प्रचुरता के कारण वातावरण में पहले की तुलना में और अधिक ऊष्मा रुकने लगी इसलिए पृथ्वी के तापमान में और अधिक वृद्धि होने लगी।

वनों की कटाई, जीवाश्म ईंधन के दहन जैसी गतिविधियों और जनसंख्या वृद्धि से ग्रीनहाउस के प्रभाव में काफी तेज़ी होने लगी। उदाहरण के लिए, पेड़ भोजन तैयार करने में कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग करते हैं। वनों की कटाई से पेड़ों की संख्या कम होती है जो अन्यथा वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित कर धरती के तापमान को नियंत्रण में रख सकते थे। इसी तरह, कोयला, पेट्रोल-डीज़ल जैसे जीवाश्म ईंधनों के जलने से वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।

ग्रीनहाउस गैसों से ग्रह के तापमान में हो रही वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, यह धरती के नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्रों को प्रभावित करना शुरू कर देती है जो अब तक संतुलन की स्थिति में रहे हैं। जैसे, महासागर वायुममंडल से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं जो पानी के नीचे उगने वाले पौधों को प्रकाश संश्लेषण में काम आ जाती है। जब वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बहुत अधिक होती है तब समुद्र भी बहुत अधिक मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने लगते हैं। इस अवशोषण की प्रक्रिया से समुद्र के पानी की अम्लीयता में परिवर्तन होता है जिसे महासागरीय अम्लीकरण कहा जाता है। महासागरों का अम्लीकरण नाज़ुक लेकिन जटिल पारिस्थितिकी तंत्र और उनमें रहने वाले जीवों को प्रभावित करता है।

ग्लासगो सम्मेलन

31 अक्टूबर से 13 नवंबर 2021 तक ग्लासगो में 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP-26) का आयोजन किया गया।

साल दर साल विश्व भर के राजनेता अपने देशों की ज़मीनी हकीकत से दूर इन सम्मेलनों में शामिल होते हैं। इन सम्मेलनों में बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं और शोरगुल थम जाता है – अगले वर्ष इन्हीं वादों को दोहराने के लिए।

कई बार जलवायु सम्मेलन असफल भी हो जाते हैं। 2009 के कोपनहेगन शिखर सम्मेलन की विफलता का सबसे बड़ा कारण रहा देशों की खुदगर्ज़ी। युरोपीय राष्ट्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन की सीमा को कम नहीं करना चाहते थे। अमेरिका ऐसे समझौते नहीं करना चाहता था जिसे वह निभा न सके। अफ्रीका जैसे गरीब देश यह स्पष्ट किए बगैर अधिक धनराशि की मांग कर रहे थे कि उसे खर्च कहां किया जाएगा। चीन की इच्छा केवल द्विपक्षीय समझौते करने की रही। सबसे अधिक आबादी और सबसे बड़ा निर्माता होने के बाद भी वह अपनी लालची, विस्तारवादी और अलगाववादी प्रवृत्ति से बाज़ नहीं आया। कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन की विफलता में शक्तिशाली कॉर्पोरेट जगत का भी बड़ा योगदान रहा जो अपने मुनाफे के सामने पर्यावरण और जलवायु की परवाह नहीं करता। आखिर में इसमें कुछ ऐसे देश भी थे जो ग्लोबल वार्मिंग को एक प्राकृतिक घटना बताते रहे, जिसमें इंसानी क्रियाकलापों की कोई भूमिका नहीं है। सौभाग्य से, ग्लासगो जलवायु वार्ता को किसी भी पक्ष ने अपने स्वयं के एजेंडे के लिए अगवा नहीं किया। ग्लासगो सम्मेलन के बाद हमारी सबसे बड़ी चुनौती ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और उसमें कटौती है।

1990 में जब पहली बार जलवायु वार्ता की शुरुआत हुई थी, तब वायुमंडल में प्रति वर्ष लगभग 35 अरब टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा था। अब आप यह सोच रहे होंगे कि पिछले तीन दशकों से चली आ रही इन वार्ताओं के नतीजे में उत्सर्जन कम न सही, स्थिर तो ज़रूर हुआ होगा। लेकिन आपका यह विचार बिलकुल गलत है। आज वैश्विक स्तर पर वायुमंडल में 50 अरब टन प्रति वर्ष से अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा है।

यदि सारी योजनाओं और वादों का पालन किया गया तो उत्सर्जन को कम करके 46 अरब टन तक सीमित जा सकता है। वैसे, विज्ञान का मत साफ है – ग्रह को बचाने के लिए उत्सर्जन को 25 अरब टन यानी आधे से भी कम करना ज़रूरी है। और तो और, पिछले तीन दशकों का रुझान देखते हुए उत्सर्जन को 46 अरब टन तक सीमित करना भी अवास्तविक प्रतीत होता है।  

सम्मेलन का सार

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट (एआर6) ने वैश्विक तापमान में वृद्धि और इससे जुड़े जोखिमों के बारे में सभी देशों के कान खड़े कर दिए। इस रिपोर्ट के अनुसार सूखा, बाढ़, अत्यधिक वर्षा, समुद्र का बढ़ता स्तर और ग्रीष्म लहरों का बारंबार आना मानवीय गतिविधियों के परिणाम हैं। इससे यह तो स्पष्ट है पिछली जलवायु वार्ताओं में पारित संकल्प जलवायु संकट को कम करने में अपर्याप्त साबित हुए हैं। 

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने हाल ही में उत्सर्जन गैप रिपोर्ट, 2021 जारी की है। इस रिपोर्ट में देशों द्वारा 2030 तक उत्सर्जन में कमी के वादों और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री से 2 डिग्री सेल्सियस के बीच रखने के लिए आवश्यक प्रयासों में एक बड़े अंतर को उजागर किया गया है। इस रिपोर्ट के अंत में चेतावनी के तौर बताया गया है कि हमारे पास कार्रवाई करने के रास्ते काफी तेज़ी से कम होते जा रहे हैं।       

सम्मेलन शुरू होने से पहले चार लक्ष्य निर्धारित किए गए थे:

1.   इस सदी के मध्य तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना और वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना।

2.   जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील क्षेत्रों के समुदायों के साथ-साथ प्राकृतवासों की भी रक्षा करना। 

3.   तय किए गए लक्ष्यों के लिए धन जुटाना। 

4.   सभी देशों को एक साथ काम करने को तैयार करना ताकि नियमों को विस्तार से सूचीबद्ध करके पेरिस समझौते को पूरा करने में मदद मिल सके।    

महत्वपूर्ण घोषणाएं 

1. निर्वनीकरण पर रोक लगाना

इस सम्मेलन की सबसे बड़ी घोषणा 2030 तक वनों की कटाई पर पूरी तरह से रोक लगाना है। ग्लोबल फारेस्ट वॉच के अनुसार वर्ष 2020 में हमने 2,58,000 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र नष्ट किया है।

ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से निपटने के लिए 100 से अधिक देशों ने इस दशक के अंत तक निर्वनीकरण और भूमि क्षरण को रोकने का संकल्प लिया है। इन देशों में ब्राज़ील भी शामिल है जहां अमेज़न वर्षा वनों के विशाल भाग को पहले ही नष्ट किया जा चुका है।  

100 से अधिक देशों द्वारा लिए गए इस संकल्प में लगभग 19.2 अरब डॉलर की निधि भी शामिल है। वन क्षेत्रों के संरक्षण और नवीकरण के लिए, सार्वजनिक और निजी, दोनों स्रोतों से निधि जुटाई जाएगी। इस निधि का कुछ हिस्सा विकासशील देशों में क्षतिग्रस्त भूमि की बहाली, दावानलों से निपटने और आवश्यक होने पर देशज जनजातियों की सहायता के लिए दिया जाएगा। वैसे, इस कार्य के लिए 19.2 अरब डॉलर बहुत छोटी राशि है। ग्लासगो सम्मेलन में 28 ऐसे देश भी शामिल थे जिन्होंने वैश्विक खाद्य व्यापार से निर्वनीकरण को हटाने का संकल्प लिया है। इनमें पशुपालन और ताड़ का तेल, सोया तथा कोको जैसे अन्य कृषि उत्पाद शामिल हैं। ये उद्योग पशुओं को चराने या फसल उगाने के लिए पेड़ों को काटने और निर्वनीकरण को बढ़ावा देते हैं। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन संकल्पों पर कितना अमल किया जाता है। 2014 की संधि में निर्वनीकरण की गति को कम करने का संकल्प तो पूरी तरह विफल रहा है।     

2. मीथेन उत्सर्जन में कमी

ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के प्रयासों का मुख्य केंद्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को कम करना रहा है, लेकिन विशेषज्ञों ने अल्पकालिक ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए मीथेन उत्सर्जन में कटौती को अधिक प्रभावी बताया है। हालांकि, कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा वातावरण में अधिक है और यह काफी समय के लिए मौजूद भी रहती है, लेकिन इसकी तुलना में मीथेन अणुओं का वातावरण पर वार्मिंग प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है।

हाल ही में अमेरिका और युरोपीय संघ ने 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में कटौती के लिए वैश्विक साझेदारी की घोषणा की है। इसके तहत 2020 के स्तर की तुलना में 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 30% कटौती का संकल्प लिया गया है। वर्तमान में लगभग 90 देशों ने अमेरिका और युरोपीय संघ के इन प्रयासों को समर्थन देने का संकल्प लिया है। इस प्रयास को वैश्विक मीथेन संकल्प कहा गया है जिसकी घोषणा पिछले वर्ष सितम्बर में की गई। मीथेन गैस के सबसे बड़े उत्सर्जक ब्राज़ील ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं लेकिन चीन, भारत और रूस जैसे तीन बड़े उत्सर्जक इस समझौते में शामिल नहीं हैं।        

विफलताएं

हालांकि, COP-26 सम्मेलन में वैश्विक जलवायु में सुधार और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी की दिशा में कई प्रस्ताव, समझौते और संकल्प लिए गए हैं लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि कितने देश इन वादों पर खरे उतरते हैं। पिछले संकल्पों, समझौतों और घोषणाओं का रिकॉर्ड देखते हुए अभी भी संशय की स्थिति बनी हुई है।

यह तो स्पष्ट है कि ग्लासगो सम्मेलन में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन प्राप्त करने का जो लक्ष्य रखा गया है वह काफी दूर का है – 2050। यह 2030 के लिए निर्धारित कई महत्वपूर्ण लक्ष्यों से ध्यान हटा सकता है जिन पर सम्मेलन में ध्यान केंद्रित किया गया था।     

नेट-ज़ीरो लक्ष्य युनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) के मूलभूत सिद्धांतों का विरोधाभासी भी प्रतीत होता है जो ‘समान परन्तु विभेदित उत्तरदायित्वों’ (सीबीडीआर) पर आधारित है। यूएनएफसीसी का तर्क है कि सभी देशों के पास नेट-ज़ीरो के लिए एक सामान्य लक्ष्य वर्ष के बजाय अलग-अलग लक्ष्य होना चाहिए। क्योंकि विकसित देश तो अपना लक्ष्य जल्दी हासिल कर सकते हैं लेकिन विकासशील देशों को इसमें थोड़ा अधिक समय लगेगा। यूएनएफसीसी ने विकसित देशों द्वारा अतीत में किए गए अत्यधिक उत्सर्जनों को देखते हुए जलवायु सम्बंधी कार्रवाई की अधिक ज़िम्मेदारी उठाने का आह्वान किया है। विकासशील देशों को भी विकसित देशों से प्राप्त तकनीकी और वित्तीय सहायता प्राप्त करते हुए दिशा में भरसक प्रयास करना चाहिए । यह तर्क ग्लासगो सम्मेलन में सभी देशों के लिए प्रस्तावित 2030 और 2050 के एक-समान लक्ष्यों के विपरीत प्रतीत होता है।              

भारत की भूमिका

भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक है। यदि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारत की भागीदारी की गणना की जाए तो यह 7% से कुछ ही कम होगा। वैसे भारत विश्व के सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जकों में से एक तो है लेकिन इसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से बहुत कम है। यह देश में आर्थिक असमानता की स्थिति का संकेत देता है।

भारत ने मीथेन संकल्प पर हस्ताक्षर नहीं किए क्योंकि हम विश्व के सबसे बड़े बीफ और अन्य प्रकार के मांस के निर्यातक हैं और इस समझौते पर हस्ताक्षर करने का मतलब मीथेन उत्सर्जन में कटौती है जिसका प्रतिकूल असर मांस व्यापार पर होगा।

विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 1.8 टन है जो 2015 के पेरिस समझौते के दायित्वों के अनुसार 2030 में 2.4 टन होने की संभावना है। भारत के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के क्षेत्रवार विश्लेषण से पता चलता है कि इसमें सबसे अधिक हिस्सा बिजली और ऊष्मा का है और इसके बाद क्रमशः कृषि, विनिर्माण एवं परिवहन, उद्योग तथा भूमि उपयोग में परिवर्तन और वानिकी क्षेत्र हैं।

आने वाले वर्षों में भारत के प्रति व्यक्ति जीडीपी में वृद्धि होने की संभावना है जिसके नतीजे में कार्बन उत्सर्जन में भी वृद्धि होगी। चूंकि भारत ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधनों पर अधिक निर्भर है इसलिए उत्सर्जन में मुख्य भागीदारी ऊर्जा क्षेत्र की रहेगी।

भारत के जीडीपी में सेवाओं का बड़ा हिस्सा संकेत देता है कि आने वाले समय में विकास कम कार्बन उत्सर्जन आधारित रहेगा।

हालांकि, भारत की जनसंख्या वृद्धि भले ही धीमी हो रही है लेकिन जनसंख्या के बदलते चाल-ढाल के परिणामस्वरूप आने वाले वर्षों में कार्बन उत्सर्जन पर दबाव पड़ सकता है।     

भारत का प्रदर्शन

भारत ने 2005 की तुलना में 2030 तक अपनी उत्सर्जन तीव्रता में 33% से 35% तक कमी करने का संकल्प लिया है। (उत्सर्जन तीव्रता का अर्थ होता है प्रति इकाई जीडीपी के लिए ऊर्जा की खपत) और कहा है कि वह अब तक 24% कमी हासिल कर चुका है। भारत ने सम्मेलन में घोषणा की है कि वह 2030 के अंत तक अपने नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन को 450 गीगावाट तक बढ़ा देगा। यह लक्ष्य पेरिस जलवायु समझौते के तहत भारत द्वारा व्यक्त 40% ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से के लक्ष्य से अलग है। भारत ने 2.5 से 3 अरब टन कार्बन सिंक (अवशोषक) बनाने के लिए वन क्षेत्र बढ़ाने की घोषणा भी की है।

भारत ने हाल ही में हरित विधियों के माध्यम से हाइड्रोजन उत्पादन के लिए राष्ट्रीय हाइड्रोजन नीति की भी घोषणा की है। हाइड्रोजन को औद्योगिक और परिवहन के क्षेत्र में इस्तेमाल करना है। इससे भारत को अपने ऊर्जा क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने में मदद मिलेगी। फरवरी 2022 में इंदौर ऐसा पहला भारतीय शहर बन गया है जहां गोबर गैस प्लांट शहर के सभी सरकारी सार्वजनिक वाहनों को ऊर्जा प्रदान करेंगे।   

भावी चुनौतियां

2070 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करने का मतलब होगा कि 2040 तक उत्सर्जन सर्वोच्च स्तर तक पहुंचकर कम होने लगे। अब तक के अध्ययन से पता चलता है कि 2070 तक नेट-ज़ीरो हासिल करने के लिए भारत को उत्सर्जन की तीव्रता (यानी उत्सर्जन प्रति इकाई जीडीपी) में 85% की कमी करना होगी। तुलना के लिए देखें कि भारत 2005 से लेकर अब तक उत्सर्जन में केवल 24% की कमी कर पाया है।   

इस प्रकार की भारी कमी को संभव बनाने के लिए पनबिजली से इतर नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी को वर्तमान 11% से बढ़ाकर 65% करना होगा और इलेक्ट्रिक कारों की हिस्सेदारी को 2040 तक 0.1% से 75% तक ले जाना होगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकार द्वारा नागरिकों को सौर पैनल जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। सब्सिडी प्रदान कर सौर पैनल सस्ते भी किए जा सकते हैं। विकल्प के रूप में सरकारों को घरों में उत्पादित अधिशेष सौर ऊर्जा को खरीदना चाहिए जिससे नागरिकों को सौर पैनल में निवेश करने का प्रोत्साहन भी मिलेगा।

देश में इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या को बढ़ाने के लिए राज्य को सरकार द्वारा संचालित सार्वजनिक परिवहन को पूरी तरह इलेक्ट्रिक वाहनों में परिवर्तित करना चाहिए। इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने के लिए दिए जाने वाले ऋण पर कर में राहत प्रदान करना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इलेक्ट्रिक वाहनों में बैटरी बदलने की प्रक्रिया आसान रहे। ऐसी व्यवस्था भी ज़रूरी है कि पेट्रोल पंप चार्जिंग स्टेशन भी स्थापित कर सकें।     

इस अवधि में जीवाश्म ऊर्जा का हिस्सा 73% से घटाकर 40% करना होगा। भारत के वर्तमान वित्तीय और तकनीकी संसाधनों को देखते हुए इस लक्ष्य को पूरा कर पाना काफी कठिन लगता है।                

विकास पर प्रभाव

काउंसिल फॉर एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) का अध्ययन बताता है कि भारत को 2070 तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य हासिल करने के लिए कोयले का उपयोग 2040 तक चरम पर पहुंचने के बाद 2040 से 2060 के बीच 99% तक कम करना होगा। ऐसा होने की संभावना कम ही है क्योंकि इससे भारत की विकास संभावनाओं को नुकसान पहुंचेगा और संभव है कि भारत विकास की कीमत पर पर्यावरण को तरजीह नहीं देगा।       

धन की कमी

भारतीय अर्थव्यवस्था को कार्बन-मुक्त करने और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ने के लिए पूंजी की आवश्यकता होगी। अभी तक भारत के पास इतनी पूंजी तो नहीं है इसलिए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसे बाहरी फंडिंग पर निर्भर रहना पड़ेगा। विकसित देशों ने जलवायु कोश में 2020 से प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर की व्यवस्था करने का वादा किया था जिसे अभी तक पूरा नहीं किया गया है।      

आगे का रास्ता

COP-26 के मद्देनज़र भारत भविष्य में निम्नलिखित कार्य कर सकता है;

1.  नेतृत्व की भूमिका निभाना और पहल करना

यह तो स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है। इससे निपटने के लिए भारत को वैश्विक प्रयासों में भाग लेना चाहिए और 1.5 डिग्री के लक्ष्य के प्रति गंभीरता प्रदर्शित करने के लिए तकनीकी, सामाजिक-आर्थिक और वित्तीय नीतियों एवं शर्तों का प्रस्ताव देने में पहल करना चाहिए भले वे जोखिम भरे क्यों न हों।    

2. सशर्त लक्ष्य

कुछ विशेषज्ञों ने भारत द्वारा 2070 तक नेट-ज़ीरो के लक्ष्य को लेकर चिंता व्यक्त की है। उनके मुताबिक यह सही है कि भारत के लिए नेट-ज़ीरो वर्ष की घोषणा करने के दबाव की अवहेलना करना संभव नहीं था लेकिन भारत को यह स्पष्ट कर देना चाहिए था कि वह 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने की घोषणा तभी करेगा जब विकसित देश 2050 से पहले नेट-ज़ीरो तक पहुंचने और भारत जैसे विकासशील देशों को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध होंगे। भारत ने सशर्त लक्ष्य निर्धारित न करके गलती की है।

जलवायु सम्मेलन में अनुकूलन के उपायों पर भी ज़ोर देना चाहिए था। इसके साथ ही भारत को वैश्विक कार्बन बजट के पर्याप्त हिस्से पर अपना दावा पेश करना था और विश्व के बड़े उत्सर्जकों के विशिष्ट वैश्विक कार्बन बजट के आधार पर संचयी उत्सर्जन पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान करना चाहिए था। भारत विकसित देशों द्वारा अतीत में किए गए उत्सर्जन की भरपाई की मांग भी कर सकता है।        

3. हरित विकास पथ पर चलना

इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्सर्जन का पूरे विश्व पर प्रभाव होगा, लेकिन यह प्रभाव सभी देशों पर समान नहीं होगा। भारत एक जलवायु-संवेदनशील राष्ट्र है और सरकार को हरित विकास के रास्तों को अपनाना चाहिए। अर्थव्यवस्था को ऐसे तरीकों से विकसित करना चाहिए जो न केवल विकास को सुनिश्चित करें बल्कि लम्बे समय तक संधारणीय भी रहे। 

हरित विकास पथ का एक उदाहरण नवीकरणीय ऊर्जा को व्यापक रूप से अपनाने के साथ जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करना हो सकता है। इसके लिए भारत एक बहु-क्षेत्रीय योजना पर काम कर सकता है। आज देश में पेट्रोल और डीज़ल आधारित वाहन बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक हैं; सरकार वाहन निर्माताओं और ईंधन पर अप्रत्यक्ष टैक्स लगा सकती है और इससे मिलने वाले फंड का उपयोग नवीकरणीय ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहन को सब्सिडी देने में कर सकती है।           

एक मिथक यह फैलाया गया है कि विश्व में अधिकांश प्रदूषण के लिए आम नागरिक ज़िम्मेदार हैं। इसके विपरीत, सच तो यह कि यदि विश्व भर के परिवार अपने जीवनयापन के लिए पर्यावरण अनुकूल तरीकों को अपना लें तो भी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में मात्र 22% की ही कमी होगी। इसका मतलब यह है कि अधिकांश उत्सर्जन उद्योगों के कारण होता है; सरकार पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाली कंपनियों पर कर लगा सकती है और उत्पादन के लिए पर्यावरण अनुकूल तथा संधारणीय तरीकों को अपनाने वाली कंपनियों को कर मुक्त कर सकती हैं। इससे निजी क्षेत्र की कंपनियों को ऊर्जा सम्बंधी परिवर्तन के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।

4. नेटज़ीरो की दिशा में

यदि भारत को 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो स्वच्छ ऊर्जा नवाचार और प्रौद्योगिकियों के लिए व्यापक समर्थन तथा निवेश के साथ वर्तमान में उपलब्ध हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाने की आवश्यकता होगी। निम्नलिखित हस्तक्षेप भारत को नेट-ज़ीरो लक्ष्य प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं:

क. एक कानूनी ढांचा बनाया जाना चाहिए जिसके तहत सभी गतिविधियों के जलवायु प्रभाव का मूल्यांकन सुनिश्चित किया जा सके। हाल ही में पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रोटोकॉल के कमज़ोर होने के साथ ही हम विपरीत दिशा में जा रहे हैं।

ख. ऐसी ऊर्जा कुशल वस्तुओं के लिए कानूनी आदेश जारी किया जाना चाहिए जिनका जीवन लम्बा है। बाज़ार में कई तरह की विकृतियां नज़र आती हैं – उत्पादों को ऐसे बनाना जो जल्दी कंडम हो जाएं, मालिकाना मानकों का अनावश्यक उपयोग, स्पेयर पार्ट्स का उत्पादन न करना, स्पेयर पार्ट्स बाज़ार पर एकाधिकार रखना और जानबूझकर मरम्मत के लिए कठिन उत्पाद बनाना। ऐसे कदाचरण को कानून के माध्यम से हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

ग. एक समर्पित हरित कोश बनाना और विभिन्न पर्यावरण संरक्षण योजनाओं के वित्तपोषण के लिए इसका उपयोग करना।

घ. ऐसे जंगल लगाना जो कार्बन सिंक का काम करें।       

च. केंद्रीकृत और विकेंद्रीकृत बिजली उत्पादन दोनों पर समान रूप से ज़ोर देते हुए नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि करना।

छ. कार्बन आधारित ईंधन के एक उत्कृष्ट विकल्प, ग्रीन हाइड्रोजन, को मुख्यधारा में लाकर बिजली, औद्योगिक और परिवहन क्षेत्रों के उत्सर्जन में कटौती की जा सकती है।           

ज. मीथेन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कचरे का बेहतर प्रबंधन।

झ. पैदल चलने और साइकिल चलाने को बढ़ावा देने के साथ-साथ शहर भर में साइक्लिंग मार्ग का निर्माण कर साइकिल चालन के बुनियादी ढांचे में निवेश करना और इन मार्गों में गाड़ियों की पार्किंग या कोई अन्य दुरूपयोग करने वालों पर जुर्माना।     

निष्कर्ष

पर्यावरण और विकास हमेशा से ही एक सिक्के के दो पहलू रहे हैं। एक अच्छा नीति निर्माता हमेशा ऐसी नीतियां तैयार करता है जिससे विकास और निर्वहनीयता के बीच एक अच्छा संतुलन बना रहे। आज की परिस्थितियों में लगता है कि नीतिकारों की दिलचस्पी विकास में अधिक है। यदि संतुलन बिगड़ा तो सबसे कमज़ोर और पिछड़े वर्ग को इन गलतियों और असफलताओं का सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)   

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202109/Glasgow.jpeg?.s2tWO5.a.vscZi1Ep5iQXpvPoYrGQau&size=770:433

धूम्रपान से सालाना सत्तर लाख जानें जाती हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

भारत में करीब 12 करोड़ लोग धूम्रपान करते हैं। जन स्वास्थ्य के लिहाज़ से इसे कम किया जाना चाहिए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) तथा यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन के अनुमान के मुताबिक दुनिया की 7.9 अरब की आबादी में से 1.3 अरब लोग धूम्रपान करते हैं और इनमें से 80 प्रतिशत निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों के निवासी हैं। अर्थात धूम्रपान एक महामारी है जो जन स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है। साल भर में यह 80 लाख लोगों से ज़्यादा की जान लेता है। इनमें से 70 लाख लोग तो खुद तंबाकू के इस्तेमाल से मरते हैं जबकि 12 लाख अन्य लोग सेकंड-हैंड धुएं के संपर्क के कारण जान गंवाते हैं। अमेरिकन जर्नल ऑफ प्रिवेंटिव मेडिसिन के मुताबिक लंबे समय से धूम्रपान करने वालों में टाइप-2 डायबिटीज़ की संभावना गैर-धूम्रपानियों की तुलना में 30 से 40 प्रतिशत तक ज़्यादा होती है। डॉ. स्मीलिएनिक स्टेशा के एक हालिया लेख में बताया गया है कि

1.  धूम्रपान प्रति वर्ष 70 लाख से अधिक अधिक लोगों की मृत्यु का कारण बनता है;

2.  56 लाख युवा अमरीकी धूम्रपान के कारण जान गंवा सकते हैं;

3.  सेकंड-हैंड धुआं दुनिया में 12 लाख लोगों की जान लेता है;

4.  धूम्रपान दुनिया में निर्धनीकरण का प्रमुख कारण है; और

5.  2015 में 10 में से 7 धूम्रपानियों (68 प्रतिशत) ने कहा था कि वे छोड़ना चाहते हैं।

नेचर मेडिसिन के हालिया अंक में बताया गया है कि 2003 में डब्लूएचओ द्वारा तंबाकू नियंत्रण संधि पारित किए जाने के बाद इसे 2030 के टिकाऊ विकास अजेंडा में वैश्विक विकास लक्ष्य माना गया है। यदि संधि पर हस्ताक्षर करने वाले समस्त 155 देश धूम्रपान पर प्रतिबंध, स्वास्थ्य सम्बंधी चेतावनी, विज्ञापनों पर प्रतिबंध के साथ-साथ सिगरेटों की कीमतें बढ़ाने जैसे उपाय लागू करें तो यह लक्ष्य वाकई संभव है।

भारत की स्थिति

भारत निम्न-आमदनी वाले देश की श्रेणी से उबरकर विकसित देश बन चुका है, और अनुमानत: यहां 12 करोड़ धूम्रपानी हैं (कुल 138 करोड़ में से 9 प्रतिशत)। एक समय पर भारत व पड़ोसी देशों में गांजा-भांग काफी प्रचलित थे। इनका सेवन करने के बाद व्यक्ति को नशा चढ़ता है। इसे कैनेबिस के नाम से भी जानते हैं। कैनेबिस में सक्रिय पदार्थ टेट्राहायड्रोकेनेबिऑल होता है जो मनोवैज्ञानिक असर व नशे का कारण है। आज भी होली वगैरह पर लोग भांग चढ़ाते हैं।

तंबाकू

तंबाकू की बात करें, तो इसकी उत्पत्ति, औषधि के रूप में उपयोग, त्योहारों तथा नशे के लिए इसके उपयोग का विस्तृत विवरण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्रीय तंबाकू अनुसंधान संस्थान (राजामुंदरी, आंध्र प्रदेश) द्वारा दिया गया है। ऐसा लगता है कि तंबाकू का पौधा दक्षिण अमेरिका में पेरुवियन/इक्वेडोरियन एंडीज़ में उगाया जाता था। इस नशीले पौधों का स्पैनिश नाम ‘टोबेको’ था।

तंबाकू का लुत्फ उठाने के लिए युरोपीय लोग जिस ‘पाइप’ का उपयोग करते थे वह शायद रेड इंडियन्स के फोर्क्ड केन से उभरा था। युरोप में तंबाकू लाने का श्रेय कोलंबस को जाता है। वहां से यह उनके उपनिवेशों (भारत व दक्षिण एशिया) में पहुंची। पुर्तगाली लोगों ने तंबाकू की खेती गुजरात के उत्तर-पश्चिमी ज़िलों में तथा ब्रिटिश हुक्मरानों ने उ.प्र., बिहार व बंगाल में शुरू करवाई थी।

इम्पीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना 1903 में हुई और उसने तंबाकू का वानस्पतिक व आनुवंशिक अध्ययन शुरू कर दिया। संक्षेप में कहें, तो तंबाकू का पौधा और उसके नशीले असर के बारे में भारतीयों को तब तक पता नहीं था, जब तक कि  पश्चिमी लोग इसे यहां लेकर नहीं आए थे।

तंबाकू में सक्रिय अणु निकोटीन होता है। इसका नाम ज़्यां निकोट के नाम पर पड़ा है, जो पुर्तगाल में फ्रांसीसी राजदूत थे। उन्होंने 1560 में तंबाकू के बीज ब्राज़ील से पेरिस भेजे थे। तंबाकू के पौधे में से निकोटीन को अलग करने का काम 1858 में जर्मनी के डब्लू. एच. पोसेल्ट तथा के. एल. रीमान ने किया था। उनका मानना था कि यह एक विष है और यदि इसे स्लो-रिलीज़ ढंग से इस्तेमाल न किया जाए तो इसकी लत लग सकती है। (यही कारण है कि फिल्टर सिगरेटों का उपयोग स्लो-रिलीज़ के लिए किया जाता है)

लुइस मेल्सेन्स ने 1843 निकोटीन का अणु सूत्र ज्ञात किया और इसकी आणविक संरचना का खुलासा 1893 में एडोल्फ पिनर और रिटर्ड वोल्फेंस्टाइन ने किया था। इसका संश्लेषण सबसे पहले 1904 में ऑगस्ट पिक्टेट और क्रेपो द्वारा किया गया था। ताज़ा अनुसंधान से पता चला है कि नियमित धूम्रपानियों को टाइप-2 डायबिटीज़ का खतरा भी ज़्यादा रहता है।

प्रतिबंध

भारत में करीब 12 करोड़ लोग धूम्रपान करते हैं। जन स्वास्थ्य की दृष्टि से यह संख्या बहुत कम करना ज़रूरी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय सिगरेट की बिक्री पर रोक लगाने की तैयारी कर रहा है। भारत डब्लूएचओ की तंबाकू नियंत्रण संधि पर 27 फरवरी 2005 को हस्ताक्षर कर चुका है।

इस संधि तथा टिकाऊ विकास लक्ष्यों के अनुरूप भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने कई सार्वजनिक स्थानों व कार्यस्थलों पर धूम्रपान की मनाही कर दी है – जैसे स्वास्थ्य सेवा से जुड़े स्थान, शैक्षणिक व शासकीय स्थान तथा सार्वजनिक परिवहन। ये सारे कदम स्वागत-योग्य हैं और लोगों को सहयोग करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जीवन

जुरासिक पार्क फिल्म में दर्शाया गया था कि करोड़ों वर्ष पूर्व विलुप्त हो चुके डायनासौर के जीवाश्म से प्राप्त डीएनए की मदद से पूरे जीव को पुनर्जीवित कर लिया गया था। संभावना रोमांचक है किंतु सवाल है कि क्या ऐसा वाकई संभव है।

हाल के वर्षों में कई वैज्ञानिकों ने विलुप्त प्रजातियों को फिर से अस्तित्व में लाने (प्रति-विलुप्तिकरण) पर हाथ आज़माए हैं और लगता है कि ऐसा करना शायद संभव न हो। कम से कम आज तो यह संभव नहीं हुआ है। लेकिन वैज्ञानिक आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं।

उदाहरण के लिए, एक कंपनी कोलोसल लेबोरेटरीज़ एंड बायोसाइन्सेज़ का लक्ष्य है कि आजकल के हाथियों को मैमथ में तबदील कर दिया जाए या कम से कम मैमथनुमा प्राणि तो बना ही लिया जाए।

किसी विलुप्त प्रजाति को वापिस अस्तित्व में लाने के कदम क्या होंगे? सबसे पहले तो उस विलुप्त प्रजाति के जीवाश्म का जीनोम प्राप्त करके उसमें क्षारों के क्रम का अनुक्रमण करना होगा। फिर किसी मिलती-जुलती वर्तमान प्रजाति के डीएनए में इस तरह संसोधन करने होंगे कि वह विलुप्त प्रजाति के डीएनए से मेल खाने लगे। अगला कदम यह होगा संशोधित डीएनए से भ्रूण तैयार किए जाएं और उन्हें वर्तमान प्रजाति की किसी मादा के गर्भाशय में विकसित करके जंतु पैदा किए जाएं।

पहले कदम को देखें तो आज तक वैज्ञानिकों ने मात्र 20 विलुप्त प्रजातियों के जीनोम्स का अनुक्रमण किया है। इनमें एक भालू, एक कबूतर और कुछ किस्म के मैमथ तथा मोआ शामिल हैं। लेकिन अब तक किसी जीवित सम्बंधी में विलुप्त जीनोम का पुनर्निर्माण नहीं किया है।

हाल ही में कोपनहेगन विश्वविद्यालय के टॉम गिलबर्ट, शांताऊ विश्वविद्यालय के जियांग-किंग लिन और उनके साथियों ने मैमथ जैसे विशाल प्राणि का मोह छोड़कर एक छोटे प्राणि पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया – ऑस्ट्रेलिया से करीब 1200 कि.मी. दूर स्थित क्रिसमस द्वीप पर 1908 में विलुप्त हुआ एक चूहा रैटस मैकलीरी (Rattus macleari)। यह चूहा एक अन्य चूहे नॉर्वे चूहे (वर्तमान में जीवित) का निकट सम्बंधी है।

गिलबर्ट और लिन की टीम ने क्रिसमस द्वीप के चूहे के संरक्षित नमूनों की त्वचा में से जीनोम का यथासंभव अधिक से अधिक हिस्सा प्राप्त करके इसकी प्रतिलिपियां बनाईं। इसमें एक दिक्कत यह आती है कि प्राचीन डीएनए टुकड़ों में संरक्षित रहता है। इससे निपटने के लिए टीम ने नॉर्वे चूहे के जीनोम से तुलना के आधार पर विलुप्त चूहे का अधिक से अधिक जीनोम तैयार कर लिया। करंट बायोलॉजी में बताया गया है कि इन दो जीनोम की तुलना करने पर पता चला कि क्रिसमस द्वीप के विलुप्त चूहे के जीनोम का लगभग 5 प्रतिशत गुम है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि गुमशुदा हिस्से में चूहे के अनुमानित 34,000 में 2500 जीन शामिल हैं। जैसे, प्रतिरक्षा तंत्र और गंध संवेदना से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण जीन्स नदारद पाए गए।

कुल मिलाकर इस प्रयास ने प्रति-विलुप्तिकरण के काम की मुश्किलों को रेखांकित कर दिया। 5 प्रतिशत का फर्क बहुत कम लग सकता है लेकिन लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम की विक्टोरिया हेरिज का कहना है कि कई सारे गुमशुदा जीन्स वे होंगे जो किसी प्रजाति को अनूठा बनाते हैं। उदाहरण के लिए मनुष्यों और चिम्पैंज़ी या बोनोबो के बीच अंतर तो मात्र 1 प्रतिशत का है।

यह भी देखा गया है कि वर्तमान जीवित प्रजाति और विलुप्त प्रजाति के बीच जेनेटिक अंतर समय पर भी निर्भर करता है। अतीत में जितने पहले ये दो जीव विकास की अलग-अलग राह पर चल पड़े थे, उतना ही अधिक अंतर मिलने की उम्मीद की जा सकती है। मसलन, क्रिसमस चूहा और नॉर्वे चूहा एक-दूसरे से करीब 26 लाख साल पहले अलग-अलग हुए थे। और तो और, एशियाई हाथी और मैमथ को जुदा हुए तो पूरे 60 लाख साल बीत चुके हैं।

तो सवाल उठता है कि इन प्रयासों का तुक क्या है। क्रिसमस चूहा तो लौटेगा नहीं। गिलबर्ट अब मानने लगे हैं कि पैसेंजर कबूतर या मैमथ को पुनर्जीवित करना तो शायद असंभव ही हो लेकिन इसका मकसद ऐसी संकर प्रजाति का निर्माण करना हो सकता है जो पारिस्थितिक तंत्र में वही भूमिका निभा सके जो विलुप्त प्रजाति निभाती थी। इसी क्रम में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के एंड्र्यू पास्क थायलेसीन नामक एक विलुप्त मार्सुपियल चूहे को इस तकनीक से बहाल करने का प्रयास कर रहे हैं।

इसके अलावा, जीनोम अनुक्रमण का काम निरंतर बेहतर होता जा रहा है। हो सकता है, कुछ वर्षों बाद हमें 100 प्रतिशत जीनोम मिल जाएं।

अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों का मत है विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जीवित करने के प्रयासों के चलते काफी सारे संसाधन जीवित प्राणियों के संरक्षण से दूर जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक एक विलुप्त प्रजाति को पुनर्जीवित करने में जितना धन लगता है, उतने में 6 जीवित प्रजातियों को बचाया जा सकता है। इस गणित के बावजूद, यह जानने का रोमांच कम नहीं हो जाएगा कि विलुप्त पक्षी डोडो कैसा दिखता होगा, क्या करता होगा। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे छोटा कोशिकीय स्विचयार्ड बनाया

स्विचयार्ड रेलगाड़ियो को अलग-अलग ट्रेक पर डालने/मोड़ने का काम करता है ताकि गाड़ी अपने गंतव्य पर पहुंच जाए। हाल ही में साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक शोधकर्ताओं ने स्विचयार्ड के समान प्रोटीन मोटर्स तैयार किए हैं जो शरीर में विभिन्न वांछित जगहों पर माल भेजने में भूमिका निभाएंगे। और ये डीएनए कंप्यूटर के विकास की दिशा में हमें आगे ले जाएंगे।

हमारे शरीर की कोशिकाओं में प्रोटीन मोटर्स पोषक तत्वों और अन्य सामग्रियों को नलीनुमा सूक्ष्म मार्गों के माध्यम से एक जगह से दूसरी जगह ले जाती हैं। नैनोटेक्नोलॉजी शोधकर्ता काफी समय से डीएनए से बने नलिका-मार्गों का उपयोग करके इसके कृत्रिम संस्करण तैयार करते रहे हैं। अब शोधकर्ताओं ने इस मामले में एक और कदम आगे बढ़ाया है।

उन्होंने एक ऐसी डीएनए सूक्ष्म नलिका (नैनोट्यूब) रेल बनाई है जिससे कुछ बिंदुओं से कई रास्ते (ट्रैक) निकलते हैं। प्रत्येक ट्रैक का एक विशिष्ट डीएनए पैटर्न होता है। प्रोटीन मोटर्स इन अलग-अलग पैटर्नों को पहचानने के लिए तैयार की गई हैं। इस पैटर्न को पहचान कर ये प्रोटीन मोटर्स फिर अपने माल को वांछित रास्ते पर ले जाती हैं।

डायनीन्स नामक प्रोटीन को डीएनए ट्रैक पर फिसलकर आगे बढ़ने के लिए रूपांतरित किया गया है। सभी दोराहों पर, ट्रैक के विभिन्न डीएनए पैटर्न डायनीन्स को दिशा देते हैं। शोधकर्ताओं ने इस प्रक्रिया का जो वीडियो जारी किया है उसमें – नारंगी फ्लोरेसेंट माल वाले डायनीन्स बाईं ओर वाले मार्ग पर चले जाते हैं और स्यान फ्लोरोसेंट मालवाहक डाएनीन्स दाईं ओर मुड़ जाते हैं।

नैनो-स्विचयार्ड्स वैज्ञानिकों को कोशिकाओं के अंदर की वास्तविक स्थिति का जायज़ा लेने और बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे। अंततः ये अलग-अलग ऊतकों में अलग-अलग औषधियां पहुंचाने में भी मददगार हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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विकास का खामियाजा भुगत रही हैं जैव प्रजातियां – प्रदीप

सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) द्वारा हाल ही में जारी स्टेट ऑफ इंडियाज़ एनवायरनमेंट 2022 रिपोर्ट के मुताबिक इंसानी करतूतों, मसलन जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, प्रदूषण और जंगलों की अंधाधुंध कटाई वगैरह का खामियाजा जैव प्रजातियां भुगत रही हैं। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के बुनियादी ताने-बाने में छेड़छाड़ के लिए 75 फीसदी तक इंसानी गतिविधियां ही ज़िम्मेदार हैं। वनों में रहने वाले स्तनधारियों के तेज़ी से विलुप्त होने के लिए 83 फीसदी तक इंसान दोषी हैं और महासागरों में हो रहे प्रतिकूल बदलावों के लिए भी 66 फीसदी तक इंसानी क्रियाकलाप ही ज़िम्मेदार हैं।

साल 2018 में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया था कि पृथ्वी एक और वैश्विक जैविक विलोपन (मास बायोलॉजिकल एक्सटिंक्शन) घटना की गिरफ्त में है। वैश्विक जैविक विलोपन उस घटना को कहते हैं, जिसके दौरान धरती पर मौजूद 75 से 80 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो जाती हैं। पृथ्वी अब तक ऐसी पांच घटनाओं को झेल चुकी है। उक्त अध्ययन बताता है कि हम छठे वैश्विक विलोपन के दौर में प्रवेश कर रहे हैं। आशंका जताई गई है कि इसकी चपेट में इंसान भी आएंगे। इसी तरह की घटना आज से साढ़े 6 करोड़ साल पहले हुई थी, जब संभवत: एक उल्कापिंड के टकराने से धरती से डायनासौर समेत कई प्रजातियां विलुप्त हो गई थीं।

कई लोग ऐसा मानते हैं कि कुछ प्रजातियों के विलुप्त होने से मानव अस्तित्व पर कोई खतरा नहीं आएगा। यह दावा गलत है, क्योंकि हकीकत यह है कि पूरा पारिस्थितिकी तंत्र एक विशाल इमारत की तरह है। इमारत की एक ईंट के कमज़ोर होने या गिरने से पूरी इमारत के धराशायी होने का खतरा रहता है। छोटे-से-छोटे जीव की भी पारिस्थितिकी संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में लिप्त इंसान को यह नज़र ही नहीं आ रहा है कि वह अपने साथ-साथ लाखों अन्य जीवों का जीवन कितना दूभर बनाता जा रहा है। हमने अपनी सुख-सुविधाओं और तथाकथित विकास के नाम पर धरती पर मौजूद संसाधनों का प्रबंधन और दोहन इस तरह से किया है कि दूसरे जीवधारियों के जीवन के आधार ही समाप्त हो गए हैं।

महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘पृथ्वी में देने की इतनी क्षमता है कि वह सबकी ज़रूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन एक मनुष्य के लालच को भी नहीं पूरा कर सकती।’ ऐसा प्रतीत होता है कि मानव सभ्यता ने प्रकृति के खिलाफ एक अघोषित जंग का ऐलान कर रखा है और स्वयं को प्रकृति से अधिक शक्तिशाली साबित करने में जुटा हुआ है। यह जानते हुए भी कि प्रकृति के खिलाफ युद्ध में वह जीत कर भी अपना अस्तित्व कायम नहीं रख पाएगा। बहरहाल, जब तक समाज के सभी वर्गों तक यह संदेश नहीं जाता कि प्रकृति ने पृथ्वी पर इंसानों के साथ-साथ वनस्पति और जीव-जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया है, तब तक उनके संरक्षण को लोग अपना दायित्व नहीं मानेंगे। बहुत से पर्यावरणविद कोविड-19 महामारी को प्रकृति के साथ किए गए अन्याय का दुष्परिणाम मान रहे हैं। कोरोना एक उम्मीद लेकर आया कि शायद अब इंसान प्रकृति और इसके सभी हिस्सेदारों के प्रति संवेदनशील होगा, लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है। आज भी ज़्यादातर लोग अन्य जीवों को तवज्जो सिर्फ तभी देते हैं, जब वे उनके किसी स्वार्थ, सुख या मनोरंजन से सम्बंध रखते हों। (स्रोत फीचर्स)

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सिंगल यूज़ प्लास्टिक का विकल्प खोजना बेहद ज़रूरी – अली खान

मौजूदा वक्त में सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ा है। आज यह जलवायु परिवर्तन की बहुत बड़ी वजह बन रहा है। इसी के मद्देनज़र सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल पर 1 जुलाई 2022 से देश भर में प्रतिबंध लगने जा रहा है। लेकिन, सबसे बड़ी चुनौती तो प्लास्टिक के विकल्प तलाशने को लेकर है।

इस संदर्भ में सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) की स्टेट ऑफ इंडियाज़ एन्वायरमेंट रिपोर्ट 2022 ने चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं। प्लास्टिक पर निर्भरता को देखते हुए यह प्रतिबंध लगाना इतना आसान नहीं होगा। वह भी तब जब इसका कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं खोजा जा सका है। रिपोर्ट में रोज़ाना निकलने वाले प्लास्टिक कचरे के आंकड़े शहरों की प्लास्टिक-निर्भरता को बखूबी बयां करते हैं। महानगरों की स्थिति तो और भी खराब है। भारत में रोज़ाना 25 हज़ार 950 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। वायु प्रदूषण के साथ-साथ दिल्ली इस मामले में भी पहले नंबर पर है जहां रोजाना 689.8 टन प्लास्टिक कचरा निकल रहा है। कोलकाता (429.5 टन प्रतिदिन) दूसरे और चेन्नई (429.4 टन प्रतिदिन) तीसरे नंबर पर है।

रिपोर्ट बताती है कि देश में पिछले तीन दशकों के दौरान प्लास्टिक के उपयोग में 20 गुना बढ़ोतरी हुई है। चिंता की बात यह है कि इसका 60 फीसदी हिस्सा सिंगल यूज़ प्लास्टिक का है। सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1990 में प्लास्टिक का उपयोग करीब नौ लाख टन था और वर्ष 2018-19 तक बढ़कर 1.80 करोड़ टन से ज़्यादा हो गया। यही नहीं, सिंगल यूज़ प्लास्टिक का 60 फीसदी हिस्सा यानी लगभग 1.10 करोड़ टन अलग-अलग पैकेजिंग में इस्तेमाल किया जाता है। लगभग 30 लाख टन प्लास्टिक अन्य कार्यों में उपयोग होता है। 75 लाख टन से अधिक प्लास्टिक अलग-अलग तरह की परेशानी पैदा करता है।

लिहाज़ा, सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को पूरी तरह से रोकना होगा। और सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को रोकने के लिए इसका विकल्प खोजा जाना निहायत ज़रूरी है।

आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर व्यक्ति प्रति वर्ष औसत 11 किलोग्राम प्लास्टिक वस्तुओं का इस्तेमाल करता है। विश्व के लिए यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति 28 किलोग्राम प्रति वर्ष है। देखा जाए तो आजकल लोग अपनी सहूलियत के तौर पर प्लास्टिक का अधिक से अधिक इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए, एक प्लास्टिक बैग अपने वज़न से कई गुना अधिक वज़न उठाने में सक्षम होता है। इसी वजह से लोग कपड़े और जूट के थैले की बजाय प्लास्टिक थैली को तरजीह देते हैं।

लेकिन, हमें यह समझना होगा कि सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल हमारे स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित करता है। दरअसल, इससे ज़हरीले पदार्थ निकलते हैं, जो मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। साथ ही, प्लास्टिक का इस्तेमाल जीव-जंतुओं के जीवन को भी खासा प्रभावित करता है। युनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में प्लास्टिक के दुष्प्रभाव के कारण लगभग 10 करोड़ समुद्री जीव-जंतु प्रति वर्ष असमय काल के गाल में समा जाते हैं। यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर प्लास्टिक जीव-जंतुओं के जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है? बता दें कि प्लास्टिक की ज़्यादातर वस्तुएं एक बार उपयोग में लेने के बाद खुले में फेंक दी जाती हैं। ये इधर-उधर जमा होती रहती हैं और जब बारिश होती है तो ये पानी के बहाव के संग नदी-नालों से होकर समुद्र में चली जाती हैं। प्लास्टिक की वस्तुएं वर्षों तक समुद्र में पड़ी रहती हैं। इनसे धीरे-धीरे ज़हरीले पदार्थ निकलना शुरू हो जाते हैं जो जल को दूषित करते हैं। शोध से सामने आया है कि कई बार समुद्री जीव प्लास्टिक को भोजन समझकर निगल लेते हैं। यह प्लास्टिक उनकी सांस नली या फेफड़ों में फंस जाता है और वे बैमौत मारे जाते हैं।

आज यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक प्रदूषण ने धरती की सेहत को बिगाड़ने का काम किया है। प्लास्टिक को पूरी तरह खत्म करना तो संभव नहीं है। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि इसके उपयोग को कम से कम किया जाए। साथ ही सरकारों को भी प्लास्टिक के विकल्प अतिशीघ्र तलाशने होंगे, ताकि प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम किया जा सके। इसके अलावा, समूचे देश में एक ऐसी मुहिम चलाने की आवश्यकता है जो प्लास्टिक, और खासकर सिंगल यूज़ प्लास्टिक, के खतरों के प्रति आम लोगों में जागरूकता और चेतना पैदा कर सके। लोगों की व्यापक भागीदारी के बगैर प्लास्टिक प्रदूषण पर कारगर नियंत्रण संभव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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आखिर हिमालय में कितने बांध बनेंगे? – भारत डोगरा

हिमालय क्षेत्र में बांध व पनबिजली उत्पादन का कार्य तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। विश्व की सबसे बड़ी पनबिजली निर्माण परियोजना को कुछ समय पहले चीन ने स्वीकृति दे दी है। इसका निर्माण तिब्बत क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र नदी पर किया जाएगा जो भारत की सीमा से बहुत नज़दीक के क्षेत्र में होगा। इसकी क्षमता इससे पहले विश्व की सबसे अधिक क्षमता वाली पनबिजली परियोजना थ्री गॉर्जेस से भी तीन गुना अधिक होगी।

जहां एक ओर हिमालय क्षेत्र में बांध और पनबिजली निर्माण तेज़ी से बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर इनसे जुड़े खतरों व पर्यावरणीय दुष्परिणामों के बारे में बहुत सी जानकारी भी सामने आ रही है। हिमालय क्षेत्र अधिक भूकंपनीयता का क्षेत्र है। यहां की भू-संरचना में बांध निर्माण की दृष्टि से अनेक जटिलताएं हैं। निर्माण कार्य के दौरान होने वाली ब्लास्टिंग से भी यहां बहुत क्षति होती है। मलबे को ठिकाने लगाने में जो लापरवाही प्राय: बरती जाती है उससे समस्याएं और बढ़ जाती हैं।

वर्ष 2013 में उत्तराखंड में बहुत विनाशकारी बाढ़ आई थी जिसमें लगभग 6000 लोग मारे गए थे। उस समय कई लोगों ने कहा था कि पनबिजली परियोजनाओं की वजह से बाढ़ की क्षति बढ़ गई थी। इस विवाद के बीच सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन करवाया था। रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने बताया था कि कुछ पनबिजली व बांध परियोजनाओं के क्षेत्र में ही सबसे अधिक क्षति हुई है व मलबे को ठिकाने लगाने में इन परियोजनाओं के निर्माण के दौरान जो गलतियां हुईं वे भी बहुत महंगी सिद्ध हुईं।

इसके अतिरिक्त इस विशेषज्ञ समिति ने विशेष ध्यान इस ओर दिलाया था कि जो कंपनियां किसी परियोजना के निर्माण में करोड़ों रुपए कमाने वाली हैं, उन्हें ही उसकी लाभ व क्षति के मूल्यांकन की रिपोर्ट तैयार करवाने के लिए कहा जाता है। भला अपनी कमाऊ परियोजना के दुष्परिणामों या खतरों के बारे में कोई कंपनी पूरी सच्चाई क्योंकर उजागर करेगी?

इसके अतिरिक्त इस समिति ने कहा था कि एक-एक परियोजना का अलग-अलग आकलन पर्याप्त नहीं है, बल्कि इनके समग्र असर को समझना होगा। एक ही नदी पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर परियोजनाओं की ंखला बनाई जा रही है, तो नदी पर असर जानने के लिए इन सभी परियोजनाओं को समग्र रूप में ही देखना-परखना होगा। यदि एक ही परियोजना से जलाशय जनित भूकंपनीयता उत्पन्न हो सकती है, तो एक क्षेत्र में ऐसी अनेक परियोजनाओं का क्या असर होगा? पूरे हिमालय क्षेत्र में ऐसी हज़ारों परियोजनाओं का क्या असर होगा?

वर्ष 2013 की स्थिति पर विशेषज्ञ समिति ने बताया था कि इस समय 3624 मेगावॉट क्षमता वाली 92 पनबिजली परियोजनाएं उत्तराखंड में पूरी हो चुकी हैं। इसमें से 95 प्रतिशत क्षमता मात्र बड़ी व मध्यम परियोजनाओं में सिमटी है। रिपोर्ट में बताया गया था कि 3292 मेगावॉट की 38 अन्य परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है। इनमें से 97 प्रतिशत क्षमता मात्र 8 बड़ी परियोजनाओं में निहित है।

दूसरी ओर, विशेषज्ञ समिति ने बताया था कि उत्तराखंड में कुल पनबिजली क्षमता का जो आकलन हुआ है, वह 27,039 मेगावॉट की 450 परियोजनाओं का है। सवाल यह है कि जब निर्मित व निर्माणाधीन 130 परियोजनाओं से ही इतने गंभीर खतरे व दुष्परिणाम सामने आए हैं तो 450 परियोजनाओं का कितना प्रतिकूल असर होगा। केवल टिहरी बांध परियोजना से ही लगभग एक लाख लोगों का विस्थापन हुआ था व कई गांव संकटग्रस्त हुए थे। इसके गंभीर खतरों को देखते हुए दो सरकारी विशेषज्ञ समितियों ने इस परियोजना को स्वीकृति देनेे से ही इंकार कर दिया था; इस इन्कार के बावजूद इस बांध को बनाया गया।

सवाल यह है कि आखिर हिमालय में कितनी पनबिजली परियोजनाएं व बांध बनाए जाएंगे और इन्हें बनाते हुए हिमालय की वहन क्षमता का ध्यान भी रखा जाएगा या नहीं? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मानव-विज्ञानी और सामाजिक कार्यकर्ता: पॉल फार्मर

त 21 फरवरी 2022 को पॉल फार्मर का 62 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। फार्मर एक डॉक्टर होने के साथ मानव-विज्ञानी और सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने अपना जीवन स्वास्थ्य क्षेत्र में समानता के लिए समर्पित कर दिया था। ‘पार्टनर्स इन हेल्थ’ (पीआईएच) नामक एक गैर-मुनाफा संगठन, जो हैटी, पेरू और रवांडा जैसे कम आय वाले देशों में मुफ्त चिकित्सा सेवा प्रदान करता है, के सह-संस्थापक के रूप में उन्होंने संगठन के अनुभव के आधार पर टीबी और एचआईवी के इलाज के तौर-तरीकों पर वैश्विक दिशानिर्देशों को बदलवाने का काम किया। कोविड-19 महामारी के दौरान फार्मर और उनके सहयोगियों ने टीकों के एकाधिकार के विरुद्ध मोर्चा खोला और दर्शाया कि इसी एकाधिकार के चलते ही कम आय वाले देशों में केवल 10 प्रतिशत लोगों का पूर्ण टीकाकरण हो पाया है।

फार्मर ने 1990 में हारवर्ड मेडिकल स्कूल से मेडिकल डिग्री के साथ-साथ मानव-विज्ञान में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की और इसी युनिवर्सिटी में वैश्विक स्वास्थ्य और सामाजिक चिकित्सा के शिक्षण का काम किया। अमेरिका में एक बच्चे और हैटी में एक युवक के रूप में हुए अनुभवों ने उनके नज़रिए को आकार दिया। सामाजिक सिद्धांत, राजनीतिक सिद्धांत और ‘मुक्तिपरक धर्म शास्त्र’ के कैथोलिक दर्शन ने इसे और विस्तार दिया। इस अध्ययन ने उनका ध्यान गरीबों के व्यवस्थागत उत्पीड़न पर केंद्रित किया।   

फार्मर द्वारा लिखी गई 12 किताबों और 200 से अधिक पांडुलिपियों से उनके कार्यों की सैद्धांतिक बुनियाद का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उनका कहना था कि जानें बचाने के लिए पैसे की कोई कमी नहीं होगी, बशर्ते कि हरेक जीवन को मूल्यवान माना जाए। उन्होंने सरकारों और दानदाताओं द्वारा अपनाए जाने वाले लागत-क्षमता विश्लेषण की आलोचना की है। जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारें और दानदाता जिस लागत-क्षमता विश्लेषण का इस्तेमाल करती हैं, उसकी फार्मर ने आलोचना की थी – खास तौर से उस स्थिति में जब किसी चिकित्सा टेक्नॉलॉजी को उन लोगों के लिए उपयुक्त मान लिया जाता है जो उसकी कीमत नहीं चुका सकते। उन्होंने जन स्वास्थ्य समुदाय के उन लोगों की भी आलोचना की जो सस्ते के चक्कर में गरीब देशों में एड्स मरीज़ों को स्वास्थ्य सेवा व देखभाल की बजाय एचआईवी रोकथाम पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे थे। उस समय एचआईवी की दवाएं काफी महंगी थीं लेकिन फार्मर का तर्क था कि इनका महंगा होना ज़रूरी नहीं है। आगे चलकर नीतिगत बदलाव हुए और जेनेरिक दवाओं को मंज़ूरी दी गई और कीमतों में भारी गिरावट आई।       

सबके लिए स्वास्थ्य सेवा की पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए फार्मर ने कभी-कभी नियमों का उल्लंघन भी किया। दी न्यू यॉर्कर के अनुसार, 1990 के दशक में फार्मर और उनके सहयोगी जिम योंग किम ने अपने कार्यस्थल, ब्रिगहैम और बोस्टन के महिला अस्पताल, से बड़ी मात्रा में टीबी की दवाइयां पेरू के अपने रोगियों के इलाज के लिए गुपचुप भेज दी थीं। बाद में पीआईएच के एक दानदाता ने इनकी प्रतिपूर्ति कर दी थी। इसके कुछ वर्षों बाद फार्मर और किम ने डबल्यूएचओ के उस कार्यक्रम में मदद की थी जिसके तहत 2005 तक 30 लाख लोगों का एचआईवी/एड्स का इलाज किया जाना था। हालांकि उनका उद्देश्य हमेशा से स्वास्थ्य प्रणाली को पुनर्गठित करने का रहा लेकिन वे यह समझ चुके थे कि दानदाता समग्र स्वास्थ्य सेवा की बजाय ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन देते हैं जो किसी एक रोग पर केंद्रित हों।       

पीआईएच का काम अन्य सहायता संगठनों से अलग रहा है। उन्होंने न केवल क्लीनिक बनाए बल्कि बल्कि उन्हें टिकाऊ बनाने के उद्देश्य से उन्हें सरकार द्वारा संचालित सेवाओं के अंदर खोला और स्थानीय कर्मचारियों को शामिल किया।

फार्मर ने रोगों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को जाति, लिंग और गरीबी जैसे कारकों पर ध्यान देने को कहा जो विज्ञान से लाभ लेने की क्षमता को बाधित करते हैं। फार्मर ने यह भी बताया कि समता की बात को ध्यान में रखा जाए तो चिकित्सीय कार्यक्रम बेहतर तरीके से चलाए जा सकते हैं। अपने एक पेपर में वे बताते हैं कि कैसे पेरू स्थित उनकी टीम द्वारा मुफ्त तपेदिक उपचार के साथ मामूली मासिक वज़ीफा और भोजन प्रदान करने से 100 प्रतिशत लोग बीमारी से ठीक हो गए जबकि सिर्फ दवा देने से 56 प्रतिशत ही ठीक हो पाए थे।

फार्मर का राजनैतिक रुझान उनके गरीबी में बड़े होने के अनुभव से उपजा था। वे छह बच्चों में से एक थे और एक बस, एक नाव और एक तम्बू में रहा करते थे। 1988 में उनके टूटे पैर के उपचार के लिए कैशियर का काम करने वाली उनकी मां को अपना दो साल का वेतन लगाना पड़ा था। हालांकि, हारवर्ड मेडिकल इन्श्योरेंस से उनके अधिकांश खर्च की भरपाई हो गई थी, लेकिन फार्मर जानते थे कि इस तरह के चिकित्सा खर्च दुनिया भर में हर वर्ष 3 करोड़ लोगों को गरीबी में धकेल देते हैं।

फार्मर ने अपना करियर लोगों को यह समझाने में लगाया कि स्वास्थ्य सेवा एक मानव अधिकार है। उनको वैश्विक स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक जानी-मानी शख्सियत के रूप में माना जाता है। उन्होंने अपने पीछे ऐसे शोधकर्ताओं की टीम छोड़ी है जो उनके मिशन को आगे ले जाने में सक्षम है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऑक्टोपस के पूर्वज की 10 भुजाएं थीं

गभग 33 करोड़ साल पहले स्क्विड जैसा प्राणि एक ऊष्णकटिबंधीय खाड़ी में मर गया था। यह स्थान आजकल के मोंटाना (पश्चिमी यूएस) में है। उसका नर्म शरीर चूना पत्थर में संरक्षित हो गया था। हाल ही में, अमेरिकन म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री और येल युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानियों ने इसके जीवाश्म अवशेषों का अध्ययन करके बताया है कि यह जीव ऑक्टोपस का एक पूर्वज था जिसकी 8 नहीं बल्कि 10 भुजाएं हुआ करती थीं। वैज्ञानिकों ने इस जीव का नाम सिलिप्सिमोपोडी बाइडेनी रखा है। सिलिप्सिमोपोडी का अर्थ है पकड़ने में सक्षम पैर। और बाइडेनी नाम अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के सम्मान में दिया गया है।

एस. बाइडेनी लगभग 12 सेंटीमीटर लंबा था। इसका शरीर टारपीडो के आकार का था, जिसके एक छोर पर एक जोड़ी फिन थे जो संभवतः तैरते समय संतुलन बनाने मदद करते होंगे। इसमें एक स्याही की थैली भी थी। अधिकतर सेफेलोपोड जंतुओं में यह थैली एक विशेष तरह का गहरा या चमकीला रंग छोड़ने के काम आती है और जंतु की रक्षा में मददगार होती है। इसके अलावा इसकी दस चूषक भुजाएं थीं। ये विवरण शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित किए हैं। एस. बाइडेनी की दो भुजाएं बाकी आठ भुजाओं से लंबी थीं, वैसे ही जैसे आधुनिक आठ भुजाओं वाले स्क्विड के दो स्पर्शक होते हैं। स्पर्शक किसी जीव के शरीर में जोड़ी में लगा हुआ लचीला और लंबा उपांग होता है जो चीज़ों को छूने, सूंघने, पकड़ने वगैरह के काम आता है। सेफेलोपॉड की पूरी भुजाओं में चूषक होते हैं जो उन्हें शिकार पकड़ने में मदद करते हैं, जबकि स्पर्शक में सिर्फ अंतिम सिरे पर चूषक होते हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि यह जीव सबसे प्रचीन ज्ञात वैम्पायरोपॉड है, जो आधुनिक ऑक्टोपस और वैम्पायर स्क्विड का पूर्वज है। एस. बाइडेनी का जीवाश्म उन आनुवंशिक अध्ययनों की पुष्टि करता है, जो यह बताते हैं कि लगभग इसी समय वैम्पायरोपॉड्स अपने स्क्विड पूर्वजों से अलग हो गए थे। इस जीव के पास 10 शक्तिशाली, कामकाजी भुजाएं थीं, जबकि इसके आधुनिक वंशजों में भुजाओं की एक जोड़ी का लोप हो गया है। वैम्पायर स्क्विड में तो दो अवशिष्ट स्पर्शक बचे हैं, लेकिन ऑक्टोपस में भुजाओं की यह जोड़ी पूरी तरह से मिट गई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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