हम सभी को आराम की ज़रूरत होती है, लेकिन बहुत अधिक आराम से हमारा शरीर सख्त हो सकता है, अकड़ सकता है। लगातार 10 दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहें तो हमारी 14 प्रतिशत तक मांसपेशीय क्षति हो सकती है। लेकिन शीतनिद्रा में जाने वाले प्राणियों की बात ही कुछ और है। शीतनिद्रा के दौरान ग्राउंड गिलहरियां कमज़ोर नहीं पड़तीं – वे अपनी शीतनिद्रा में भोजन के बिना भी मांसपेशियों का निर्माण कर लेती हैं।
एक नए अध्ययन से पता चला है कि मांसपेशियों के निर्माण में उनकी आंतों में पलने वाले बैक्टीरिया मदद करते हैं। ये बैक्टीरिया उनके शरीर के अपशिष्ट का पुनर्चक्रण करते हैं और मांसपेशी निर्माण का कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं। शीतनिद्रा में आंतों के सूक्ष्मजीवों की भूमिका पहली बार दर्शाई गई है।
शीतनिद्रा में ग्राउंड गिलहरी अपनी मांसपेशियों को कैसे बनाए रखती हैं, यह पता लगाने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के शोधकर्ताओं ने यूरिया नामक अपशिष्ट रसायन की भूमिका की पड़ताल की। नई मांसपेशियां बनाने के लिए शरीर को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, जो आम तौर पर भोजन से मिलती है। पूर्व के अध्ययनों ने बताया है कि शीतनिद्रा में ग्राउंड गिलहरियां यूरिया को रीसायकल करके नाइट्रोजन प्राप्त करती है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि वे ऐसा कैसे करती हैं।
यह समझने के लिए शोधकर्ताओं ने ग्राउंड गिलहरियों में ऐसा यूरिया प्रविष्ट कराया जिसमें नाइट्रोजन का एक समस्थानिक था जिसकी मदद से यह देखा जा सकता था कि वह यूरिया शरीर में कहां-कहां पहुंचा। यह चिंहित नाइट्रोजन गिलहरी के लीवर, आंत और मांसपेशियों में दिखी।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने गिलहरियों की आंत के सूक्ष्मजीव संसार को कमज़ोर करने के लिए एंटीबायोटिक दवाएं दी। ऐसा करने पर गिलहरियां पहले जितनी मात्रा में यूरिया को प्रोटीन बनाने में उपयोगी नाइट्रोजन में परिवर्तित नहीं कर पाईं। स्वस्थ सूक्ष्मजीव संसार वाली गिलहरियों की तुलना में असंतुलित सूक्ष्मजीव संसार वाली गिलहरियों की आंत, यकृत और मांसपेशियों में कम नाइट्रोजन दिखी। इससे पता चलता है कि शीतनिद्रा के दौरान ग्राउंड गिलहरियां मांसपेशी निर्माण के लिए ज़रूरी नाइट्रोजन पाने के लिए यूरिया पुनर्चक्रित करने वाले आंत के सूक्ष्मजीवों पर निर्भर करती हैं। ये नतीजे साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।
जब गिलहरी शीतनिद्रा में जाती है, तो उसकी आंत के सूक्ष्मजीवों को भी नियमित भोजन नहीं मिलता। भोजन का यह अभाव सूक्ष्मजीवों को यूरिया को पुनर्चक्रित करने के लिए उकसाता है। और जैसे-जैसे शीतनिद्रा काल बीतने लगता है सूक्ष्मजीव पुनर्चक्रण में और अधिक कुशल होते जाते हैं। गिलहरी अधिक यूरिया आंत में पहुंचाकर सूक्ष्मजीवों की मदद करती हैं। आंत के सूक्ष्मजीव पुनर्चक्रण के फलस्वरूप बनी नाइट्रोजन की अच्छी-खासी मात्रा तो अपने लिए रख लेते हैं, लेकिन कुछ नाइट्रोजन वे गिलहरी के लिए भी मुक्त करते हैं।
अध्ययन की सह-लेखक फरीबा असादी-पोर्टर बताती हैं कि मनुष्यों की आंत के सूक्ष्मजीव भी यूरिया को रीसायकल कर सकते हैं। हालांकि हम शीतनिद्रा में नहीं जाते हैं लेकिन फिर भी कई लोगों की मांसपेशियां उम्र बढ़ने, किसी बीमारी या कुपोषण के कारण क्षीण होने लगती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि गिलहरियां सूक्ष्मजीव अपशिष्ट रसायनों का पुन: उपयोग कैसे करती हैं, इसकी बेहतर समझ मांसपेशियों की क्षति रोकने में मददगार हो सकती है। बहरहाल इस पर और अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ada0671/full/_20220126_on_hibernatingsquirrels.jpg
पेरू स्थित अमेज़न वर्षावन जैव विविधता से समृद्ध और अछूते वनों के रूप में जाने जाते हैं। 55 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले इन जंगलों में विभिन्न प्रजातियों के जीव-जंतु और वनस्पति पाई जाती हैं। लेकिन इसी जंगल में एक ऐसा ज़हरीला रहस्य छिपा है जो जैव विविधता के लिए खतरा बना हुआ है। हालिया शोध के अनुसार जंगल में ज़हरीले पारे का स्तर काफी अधिक है।
काफी समय से इन जंगलों में सोने का अवैध खनन किया जाता रहा है। इस खनन प्रक्रिया में भारी मात्रा में पारे का उपयोग किया जाता है जो सोना प्राप्त होने के बाद वाष्प के रूप में वातावरण में पहुंच जाता है। युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की जैव-रसायनज्ञ जैकी गेर्सन के अनुसार पारे की अत्यधिक मात्रा अब खाद्य जाल (फूड वेब) में प्रवेश कर चुकी है।
गौरतलब है कि हाल के वर्षों में कोयला दहन को पीछे छोड़कर सोना खनन दुनिया के सबसे बड़े वायुजनित पारा प्रदूषण के स्रोत के रूप में उभरा है। इससे प्रति वर्ष 1000 टन पारा वातावरण में उत्सर्जित होता है जो मस्तिष्क व प्रजनन तंत्र के लिए काफी हानिकारक है। वास्तव में सोना निष्कर्षण में पारे का उपयोग एक सस्ता विकल्प है जिसमें पारे को अयस्क के घोल के साथ मिश्रित करने पर पारा सोने के साथ चिपक जाता है। इसके बाद पारे और सोने के मिश्रण को गर्म किया जाता है ताकि पारा वाष्प के रूप में अलग हो जाए।
इस तकनीक की मदद से पेरू के छोटे पैमाने के खनिकों ने मादरे दी दियोस नदी के किनारे के एक लाख हैक्टर से अधिक जंगल को उबड़-खाबड़ मैदान में बदल दिया है। वैज्ञानिकों ने पास के पोखरों और नदियों में पारे का पता लगाया है जिसने मछलियों को दूषित किया है। इन मछलियों का सेवन लोगों द्वारा किया जा रहा है। गौरतलब है कि पूर्व में किए गए अध्ययन में वनों की कटाई वाले क्षेत्र मादरे दी दियोस नदी के आसपास की मिट्टी में काफी कम स्तर में पारा पाया गया था। वैज्ञानिक यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहे थे कि बाकी पारा जाता कहां है।
इसका पता लगाने के लिए गेर्सन और उनके साथियों ने खनन के लिए निर्वनीकृत दो क्षेत्रों, खनन क्षेत्र से 50 किलोमीटर दूर के जंगल, और खनन क्षेत्र पर स्थित जंगल का अध्ययन किया। उन्होंने यहां से वर्षा जल, मिट्टी और पेड़ों की पत्तियों के नमूने एकत्रित किए। नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार खदानों के आसपास के वनों में पारे की मात्रा 15 गुना अधिक थी (प्रति वर्ग मीटर मिट्टी में 137 माइक्रोग्राम) जो युरोप और उत्तरी अमेरिका के कोयला बिजली संयंत्रों के आसपास की मिट्टी की तुलना में काफी अधिक और चीन के औद्योगिक क्षेत्र के पारे के स्तर के बराबर है।
इससे पता चलता है कि जंगल के पेड़ पारा-सोख्ता का काम कर रहे हैं। पत्तियां पारा मिश्रित धूल में से पारे की वाष्प को सोख लेती हैं। पत्तियों के गिरने या वर्षा से यह धातु मिट्टी में प्रवेश कर जाती है। वृक्षों के चंदोबे से प्राप्त पानी में लोस एमिगोस में अन्य स्थानों से दुगना पारा मिला।
इन नतीजों से यह भी लगता है कि पत्तियां और मिट्टी ज़हरीले पारे को अपने अंदर सोखकर इसके दुष्प्रभावों को कम करती है। इस तरह से वृक्षों में कैद पारे से वहां के लोगों और वन्यजीवों के लिए आम तौर पर कोई जोखिम नहीं होता है।
फिर भी हवा में उड़ता पारा पानी में पहुंचकर जलीय बैक्टीरिया के संपर्क में आने पर मिथाइल मर्करी में परिवर्तित होकर घातक रूप ले सकता है। यह पारा जीव जंतुओं की कोशिकाओं में प्रवेश कर खाद्य जाल का हिस्सा बन जाता है। शोधकर्ताओं को वन्यजीवों में मिथाइल मर्करी की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। सान्गबर्ड की तीन प्रजातियों में 12 गुना अधिक पारा पाया गया। इसी तरह 10 में से 7 ब्लैक-स्पॉटेड बेयर आई पक्षी में इतना अधिक पारा मिला जो उनकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त है। ज़ाहिर है यह फूड वेब में पारे के शामिल होने का संकेत देता है। (स्रोत फीचर्स)
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पारिस्थितिक विज्ञानी डायना स्टासियुकिनास को जंगल में एक प्रेमी जोड़ा दिखाई दिया: दरअसल, कोलंबिया के ऊष्णकटिबंधीय सवाना क्षेत्र में हाटो ला ऑरोरा नेचर रिज़र्व में बड़ी-बड़ी घास के बीच जैगुआर (तेंदुए/चीते जैसे प्राणि) का एक जोड़ा प्रणय पुकार कर रहा था।
स्टासियुकिनास ने जब जैगुआर जोड़े की गुपचुप मुलाकात का यह वीडियो देखा तो वे थोड़ा सोच में पड़ गईं। क्योंकि थोड़े ही दिनों पहले इस जोड़े की मादा अपने 5 महीने के शावक के साथ खेलते और शिकार करते देखी गई थी। और अब वह एक नर जैगुआर के साथ इश्क लड़ा रही थी। और इस इश्कबाज़ी के दौरान कुछ दिनों तक उसका बच्चा कहीं नहीं दिखाई दिया। फिर कुछ दिनों बाद वही जैगुआर मादा फिर से अपने उसी बच्चे के साथ दिखाई दी। तब स्टासियुकिनास को लगा कि नर जैगुआर के साथ यह प्रेम प्रदर्शन अपने शावकों को हत्या से बचाने की रणनीति हो सकती है।
दरअसल, कभी-कभी नर जैगुआर मादा के साथ संभोग के लिए उन शावकों को मार देते हैं जो उनके अपने नहीं होते। जब तक मादा के साथ उसके शावक होते हैं, वह नर के साथ नहीं जाती। शावकों की हत्या मादा को मुक्त कर देती है, भविष्य के प्रतिस्पर्धी भी खत्म हो जाते हैं।
लिंगों के बीच इस तरह की लड़ाई अन्य बड़ी बिल्लियों में भी होती है। मां शेरनी और प्यूमा अपने शिशुओं को नर से बचाने के लिए संभोग के दौरान कहीं छुपा देती हैं। यह युक्ति नर को यह विश्वास दिला सकती है कि इसके बाद मादा के साथ दिखा शावक उसका अपना है और वह उसे नहीं मारता। मादा का इश्किया व्यवहार नर को यौन सफलता का गुमान दे सकता है जिससे संतानों को मारने की संभावना कम हो जाती है।
और अब एक्टा एथोलॉजिका में स्टासियुकिनास और उनके साथियों ने बताया है कि मादा जैगुआर भी अपने शावकों को हत्या से बचाने के लिए ‘छुपाने और इश्क लड़ाने’ की रणनीति अपनाती हैं। वीडियो देखने के बाद स्टासियुकिनास ने प्रकाशनों की खोजबीन की लेकिन जैगुआर के ऐसे व्यवहार के बारे में कुछ नहीं मिला। अलबत्ता, ब्राज़ील की एक साथी का भी ऐसा ही अनुभव था। कोलंबिया और ब्राज़ील में दो मामलों में मां जैगुआर नर के साथ इश्क लड़ाने के बाद पुन: अपने शावकों के साथ दिखाई दी थी।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कुछ दिन के लिए छिपाए गए ये शावक अपने दिन कैसे गुज़ारते हैं। ऐसे ही मामले में, जब फ्लोरिडा पैंथर मादा अपने बच्चों को छुपाकर नर के साथ होती है तो उसके बच्चों के वज़न में लगभग 20 प्रतिशत की कमी आती है। जैगुआर के बारे में अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है।
अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि हालांकि इस रणनीति के उदाहरण बहुत ही कम दिखे हैं लेकिन इस प्रजाति के प्राकृतिक इतिहास के बारे में इस तरह का अधिक डैटा एकत्रित करने की ज़रूरत है। यह भी पता लगाना महत्वपूर्ण होगा कि विभिन्न पर्यावरणों में यह व्यवहार किस तरह बदलता है, खासकर उन स्थितियों में जहां विकास और मनुष्यों के दखल के कारण जानवरों के छिपने की जगह प्रभावित हो रही है। मनुष्यों के कारण जैगुआर सीमित दायरे में सिमट सकते हैं, सीमित जगह में अधिक जानवर होने से भोजन और साथी के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। इस तरह पास-पास होने से नर द्वारा शावकों की हत्या करने की अधिक संभावना होगी, और इसे रोकने के लिए मादा जैगुआर विभिन्न रणनीतियां अपनाने के लिए प्रेरित हो सकती है। इसके अलावा सघन वर्षा वनों में रहने वाले जैगुआर की रणनीति अलग हो सकती है। यह समझना शावकों की हत्या को कम करने में मदद कर सकता है कि अलग-अलग पर्यावरण में मादा जैगुआर अपने शावकों को छिपाने की कैसी रणनीतियां अपनाती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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वर्तमान महामारी के संदर्भ में एंडेमिक (स्थानिक) शब्द का काफी दुरूपयोग हुआ है और इसने काफी मुगालता पैदा किया है। इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि कोविड-19 का प्राकृतिक रूप से अंत हो जाएगा।
महामारी विज्ञानियों की भाषा में एंडेमिक संक्रमण उसे कहते हैं जिसमें संक्रमण की समग्र दर संतुलित रहती है। उदाहरण के तौर पर, साधारण सर्दी जुकाम, लासा बुखार, मलेरिया, पोलियो वगैरह एंडेमिक हैं। टीके की मदद से समाप्त किए जाने से पहले चेचक भी एंडेमिक था।
कोई बीमारी एंडेमिक होने के साथ-साथ व्यापक और घातक दोनों हो सकती है। 2020 में मलेरिया से 6 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी तथा टीबी से 1 करोड़ लोग बीमार हुए और 15 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। अर्थात एंडेमिक संक्रमण का मतलब यह नहीं होता कि सब कुछ नियंत्रण में है और सामान्य जीवन चल सकता है।
विशेषज्ञों के अनुसार नीति-निर्माता एंडेमिक शब्द का उपयोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के लिए करते हैं। जबकि ऐसे एंडेमिक रोगजनकों के साथ जीते रहने की बजाय स्वास्थ्य नीति सम्बंधी ठोस निर्णय लेना अधिक महत्वपूर्ण है।
वास्तव में किसी संक्रमण को एंडेमिक कहने से न तो यह पता चलता है कि वह स्थिर अवस्था में कब पहुंचेगा, मामलों की दर क्या होगी, और न ही यह पता चलता है कि बीमारी की गंभीरता या मृत्यु दर क्या होगी। इससे यह गारंटी भी नहीं मिलती कि संक्रमण में स्थिरता आ जाएगी।
वास्तव में स्वास्थ्य नीतियां और व्यक्तिगत व्यवहार ही कोविड-19 के रूप को निर्धारित कर सकते हैं। 2020 के अंत में अल्फा संस्करण के उभरने के बाद विशेषज्ञों ने यह कहा था कि जब तक संक्रमण को दबा नहीं दिया जाता तब तक वायरस का विकास काफी तेज़ और अप्रत्याशित ढंग से होगा। इसी विकास ने अधिक संक्रामक डेल्टा संस्करण को जन्म दिया और अब हम प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने वाले ओमिक्रॉन को झेल रहे हैं। बीटा और गामा संस्करण भी काफी खतरनाक थे लेकिन ये उस रफ्तार से फैले नहीं।
वायरस का फैलाव और असर लोगों के व्यवहार, जनसांख्यिकी संरचना, संवेदनशीलता और प्रतिरक्षा और उभरते हुए वायरस संस्करणों पर निर्भर करता है।
देखा जाए तो कोविड-19 विश्व की पहली महामारी नहीं है। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली निरंतर संक्रमण से निपटने के लिए विकसित हुई है और हमारे जीनोम में वायरल आनुवंशिक सामग्री के अवशेष इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कुछ वायरस अपने आप ही ‘विलुप्त’ तो हो गए लेकिन जाते-जाते उच्च मृत्यु दर का कारण भी रहे।
एक व्यापक भ्रम यह फैला है कि वायरस समय के साथ विकसित होकर ‘भले’ या कम हानिकारक हो जाते हैं। ऐसा नहीं है और आज कुछ नहीं कहा जा सकता कि वायरस किस दिशा में विकसित होगा। सार्स-कोव-2 के अल्फा और डेल्टा संस्करण वुहान में पाए गए पहले स्ट्रेन की तुलना में अधिक खतरनाक साबित हुए। पूर्व में भी 1918 इन्फ्लुएंज़ा महामारी की दूसरी लहर पहली की तुलना में अधिक घातक थी।
यह ज़रूर है कि इस विकास को मानवता के पक्ष में बदलने के लिए काफी कुछ किया जा सकता है। लेकिन सबसे पहले तो अकर्मण्य आशावाद को छोड़ना होगा। दूसरा, हमें मृत्यु, विकलांगता और बीमारी के संभावित स्तरों के बारे में यथार्थवादी होना पड़ेगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि वायरस के नए-नए संस्करणों के विकास की संभावना को कम करने के लिए संक्रमण को फैलने से रोकना ज़रूरी है। तीसरा, हमें टीकाकरण, एंटीवायरल दवाओं, नैदानिक परीक्षण जैसी तकनीकों का उपयोग करने के साथ-साथ मास्क के उपयोग, शारीरिक दूरी, वेंटिलेशन वगैरह के माध्यम से हवा से फैलने वाले वायरस को रोकना होगा। वायरस को जितना अधिक फैलने का मौका मिलेगा, नए-नए संस्करणों के उभरने की संभावना बढ़ती जाएगी। चौथा, हमें ऐसे टीकों में निवेश करना होगा जो एकाधिक वायरस संस्करणों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। इसके अलावा दुनिया भर में टीकों की समतामूलक उपलब्धता सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण होगा।
ऐसे में किसी वायरस को एंडेमिक समझना सिर्फ गलत नहीं, खतरनाक भी है। बेहतर होगा कि वायरस को हावी होने का अवसर न दें और वायरस के नए संस्करणों को उभरने का मौका न दें। (स्रोत फीचर्स)
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हींग (जिसे अंग्रेज़ी में एसाफीटिडा, तमिल में पेरुंगायम, तेलुगु में इंगुवा और कन्नड़ में इंगु कहते हैं) एक सुगंधित मसाला है जिसका हमारे पकवानों और पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग किया जाता रहा है। महाभारत काल से हम हींग के बारे में जानते हैं, और यह अफगानिस्तान से आयात की जाती है। भागवत पुराण में उल्लेख है कि देवताओं का पूजन करने से पहले हींग नहीं खाना चाहिए। भारतीय ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि हम ईसा पूर्व 12वीं शताब्दी से हींग का आयात करते रहे हैं। हींग के लिए अंग्रेज़ी शब्द Asafoetida (एसाफीटिडा) फारसी शब्द Asa (जिसका अर्थ है गोंद), और लैटिन शब्द foetidus (जिसका अर्थ है तीक्ष्ण बदबू) से मिलकर बना है। विकीपीडिया के अनुसार प्रारंभिक यहूदी साहित्य में इसका ज़िक्र मिश्नाहा के रूप में मिलता है। रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि वे कैसे ‘काबुलीवाला’ से मेवे खरीदते थे लेकिन उनकी रचनाओं में हींग का उल्लेख नहीं मिलता, जबकि निश्चित ही यह उनके घर की रसोई में उपयोग की जाती होगी!
हींग एक गाढ़ा गोंद या राल है, जो अम्बेलीफेरी कुल के फेरुला वंश के बारहमासी पौधे की मूसला जड़ से मिलता है। इंडियन मिरर में एसाफीटिडा शीर्षक से प्रकाशित लेख में बताया गया है कि चिकित्सा के क्षेत्र में हींग का उपयोग तरह-तरह से होता है। यह भी कहा गया है कि हींग इन्फ्लूएंज़ा जैसे वायरस के विरुद्ध कारगर है। इसलिए वर्तमान समय के औषधि रसायनज्ञों और आणविक जीव विज्ञानियों द्वारा इसकी क्रियाविधि का अध्ययन सार्थक हो सकता है। (और, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन के प्रोफेसर एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने यह किया भी है)।
आयुर्वेद में शरीर में तीन तरह के दोष बताए गए हैं – वात, पित्त, और कफ। इन तीनों के अपने विशिष्ट कार्य हैं। वात दोष को शांत करने के लिए मसालों में हींग को सबसे अच्छा मसाला माना गया है। होम रेमेडीज़ फॉर हिक्कप नामक वेबसाइट बताती है कि हिचकी रोकने के लिए हींग उत्तम उपाय है! इसे मक्खन के साथ अच्छी तरह मिलाओ और निगल लो, और हिचकी बंद!
स्वदेशी?
हमें कब तक हींग आयात करनी पड़ेगी? ऐसा लगता है अब और नहीं! दी हिंदू के 10 नवंबर, 2020 के अंक में प्रकाशित और दी वायर व साइंस में उद्धृत एक रिपोर्ट में सीएसआईआर के इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोटेक्नोलॉजी (CSIR-IHBT) के निदेशक डॉ. संजय कुमार बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति की ठंडी रेगिस्तानी जलवायु ईरान और अफगानिस्तान की जलवायु से काफी मिलती-जुलती है। उन्होंने सोचा कि क्यों न हींग भारत में भी उगाई जाए। इस विचार ने IHBT को अफगानिस्तान से हींग के बीज आयात करके नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेस के मार्गदर्शन में IHBT अनुसंधान केंद्र में इसे उगाने को प्रेरित किया। प्रयोग सफल रहा और दो तरह की हींग राल प्राप्त हो गई – दूधिया सफेद किस्म की और लाल किस्म की। वे आगे बताते हैं कि चूंकि वर्तमान में हिमाचल प्रदेश में किसान आलू और मटर ही उगाते हैं इसलिए उन्हें हींग उगाने के लिए प्रेरित कर और तकनीकी सहायता प्रदान कर उनकी आय में वृद्धि की जा सकती है। डॉ. कुमार ने टाइम्स ऑफ इंडिया में ‘स्वदेशी हींग’ होना क्यों बड़ी बात है (Why ‘made-in-India’ heeng is a big thing) शीर्षक से एक लेख प्रकाशित भी किया है।
लंबा इतिहास
इस जड़ी बूटी के पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग का एक लंबा इतिहास रहा है। मिस्र के लोग लंबे समय से इसका उपयोग करते आ रहे हैं। आयुर्वेद के जानकार भी सदियों से इसके बारे में जानते हैं। प्रो. एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने फलमक्खी को एक मॉडल के रूप में उपयोग करके अध्ययन में पाया है कि शरीर में आयुर्वेदिक औषधियां प्रभावी हैं। इसी तरह जर्नल ऑफ एथ्नोफार्मेकोलॉजी में वर्ष 1999 में आइग्नर और उनके साथियों ने बताया था कि नेपाल की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों और आहार में हींग कैसे प्रभावी है। इस संदर्भ में फार्मेकोग्नॉसी रिव्यूज़ जर्नल के वर्ष 2012 के अंक में जयपुर की सुरेश ज्ञान विहार युनिवर्सिटी की डॉ. पूनम महेंद्र और डॉ. श्रद्धा बिष्ट द्वारा एक उत्कृष्ट और अद्यतन रिपोर्ट प्रकाशित की गई है, जिसका शीर्षक है फेरुला एसाफीडिटा: ट्रेडिशनल यूज़ एंड फार्मेकोलॉजिकल एक्टिविटी।
हींग के रासायनिक घटकों के विश्लेषण से पता चलता है कि हींग के पौधे में लगभग 70 प्रतिशत कार्बोहायड्रेट, 5 प्रतिशत प्रोटीन, एक प्रतिशत वसा, 7 प्रतिशत खनिज होते हैं। इसके अलावा इसमें कैल्शियम, फास्फोरस, सल्फर के यौगिक और विभिन्न एलिफैटिक और एरोमेटिक अल्कोहल होते हैं। इसकी वसा में सल्फाइड होता है जिससे मलनुमा गंध आती है।
प्रयोगशाला में चूहों पर किए गए रासायनिक परीक्षणों से पता चलता है कि हींग पाचन में अहम भूमिका निभाती है। इसके अलावा शोधदल ने बताया है कि हींग का पौधा कैंसर-रोधी एजेंट के रूप में भी काम कर सकता है, और महिलाओं की कुछ बीमारियों के खिलाफ भी कारगर हो सकता है। उन्होंने हींग के लगभग 30 ऐसे अणुओं को सूचीबद्ध किया है जो एंटी-ऑक्सीडेंट, कैंसर-रोधी, जीवाणुरोधी, एंटीवायरल और यहां तक कि एड्स वायरस-रोधी की तरह काम करते हैं। इस सूची के मद्देनज़र देश भर के वैज्ञानिकों को आणविक जीव विज्ञान, प्रतिरक्षा विज्ञान और औषधि डिज़ाइन की नई तकनीकों का उपयोग करते हुए हींग से इन अणुओं को प्राप्त करके रोगों में इनकी निवारक भूमिका पर अध्ययन करना चाहिए। तो चलिए काम शुरू किया जाए। (स्रोत फीचर्स)
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विश्वभर में वृद्ध लोगों की बढ़ती आबादी के लिए वित्तीय सहायता और देखभाल का विषय राजनैतिक रूप से काफी पेचीदा है। इस संदर्भ में विभिन्न देशों ने अलग-अलग प्रयास किए हैं।
यू.के. में 2017 में और उसके बाद 2021 में सरकार द्वारा सोशल-केयर नीति लागू की गई थी। इसमें सामाजिक सुरक्षा हेतु धन जुटाने के मकसद से राष्ट्रीय बीमा की दरें बढ़ा दी गई थीं। यह एक प्रकार का सामाजिक सुरक्षा टैक्स है जो सारे कमाऊ वयस्क और उनके नियोक्ता भरते हैं।
कोविड-19 के दौरान वृद्धाश्रमों में मरने वाले लोगों की बड़ी संख्या ने इस मॉडल पर सवाल खड़े दिए। तो सवाल यह है कि बढ़ती बुज़ुर्ग आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में किस तरह के पुनर्गठन की ज़रूरत है।
लगभग सभी उन्नत और बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएं इस चुनौती का सामना कर रही हैं। जैसे 2050 तक यूके की 25 प्रतिशत जनसंख्या 65 वर्ष से अधिक आयु की होगी जो वर्तमान में 20 प्रतिशत है। इसी तरह अमेरिका में वर्ष 2018 में 65 वर्ष से अधिक आयु के 5.2 करोड़ लोग थे जो 2060 तक 9.5 करोड़ हो जाएंगे। इस मामले में जापान का ‘अतिवृद्ध’ समाज अन्य देशों के लिए विश्लेषण का आधार प्रदान करता है। 2015 से 2065 के बीच जापान की आबादी 12.7 करोड़ से घटकर 8.8 करोड़ होने की संभावना है जिसमें 2036 तक एक तिहाई आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की होगी।
हालांकि भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक वाली आबादी वाला देश है, की वर्तमान स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अनुमान है कि 2050 तक 32 करोड़ भारतीयों की उम्र 60 वर्ष से अधिक होगी।
मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज़ के प्रमुख कुरियाथ जेम्स बताते हैं कि भारत में बुज़ुर्गों की देखभाल मुख्य रूप से परिवारों के अंदर ही की जाती है। वृद्धाश्रम अभी भी बहुत कम हैं। भारत में संयुक्त परिवार आम तौर पर पास-पास ही रहते हैं जिससे घर के वृद्ध लोगों की देखभाल करना आसान हो जाता है। लेकिन इस व्यवस्था को अब जनांकिक रुझान चुनौती दे रहे हैं।
गौरतलब है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत है। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर अब तक विदेशों में काम करने वाले भारतीयों की संख्या दुगनी से अधिक होकर 2015 तक 1.56 करोड़ हो गई थी। इसके अलावा कई भारतीय काम के सिलसिले में देश के ही दूसरे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 30 प्रतिशत आबादी अपने जन्म स्थान पर नहीं रह रही थी। यह संख्या 2011 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी। जेम्स के अनुसार इस प्रवास में आम तौर पर व्यस्क युवा होते हैं जो अपने माता-पिता को छोड़कर दूसरे शहर चले जाते हैं। नतीजतन घर पर ही वृद्ध लोगों की देखभाल और कठिन हो जाती है।
2020 में लॉन्गीट्यूडिनल एजिंग स्टडी इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 60 वर्ष से अधिक आयु के 26 प्रतिशत लोग या तो अकेले या सिर्फ अपने जीवनसाथी (पति-पत्नी) के साथ रहते हैं। फिलहाल भारत में पारिवारिक जीवन अभी भी अपेक्षाकृत रूप से आम बात है जिसमें 60 से अधिक उम्र के 41 प्रतिशत लोग अपने जीवनसाथी और व्यस्क बच्चों दोनों के साथ रहते हैं जबकि 28 प्रतिशत लोग अपने व्यस्क बच्चों के साथ रहते हैं और उनका कोई जीवनसाथी नहीं है।
वैसे, घर पर देखभाल की कुछ समस्याएं हैं। देखभाल का काम मुख्य रूप से महिलाओं के ज़िम्मे होता है और अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है क्योंकि वे घर से बाहर काम करने नहीं जा पाती हैं।
यदि प्रवासन में उपरोक्त वृद्धि जारी रही तो जल्दी ही देश की बुज़ुर्ग आबादी के पास कोई परिवार नहीं होगा और उनको देखभाल के लिए वृद्धाश्रम की आवश्यकता होगी। ऐसे में खर्चा बढ़ेगा और इन खर्चों को पूरा करने के लिए अधिक महिलाओं को काम की तलाश करना होगी।
भारत के वृद्ध लोग अपने संयुक्त परिवारों के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं। ऐसे परिवारों में रहने वाले ज़्यादा बुज़ुर्ग (80 प्रतिशत) अपने रहने की व्यवस्था से संतुष्ट हैं बनिस्बत अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों (53 प्रतिशत) के। नर्सिंग-होम जैसी संस्थाओं में संतुष्टि के संदर्भ में कोई डैटा तो नहीं है लेकिन परिवार द्वारा देखभाल को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है क्योंकि यह समाज की अपेक्षा भी है। फिर भी देश के अंदर और विदेशों की ओर प्रवास की प्रवृत्ति और कोविड-19 के दीर्घकालिक प्रभाव को देखते हुए विशेषज्ञ मानते हैं कि व्यवस्था में बदलाव की दरकार है।
महामारी के दौरान कई देशों के केयर-होम्स वायरस संक्रमण के भंडार रहे हैं। भारत के संदर्भ में पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लंदन आधारित इंटरनेशनल लॉन्ग टर्म केयर पालिसी नेटवर्क ने हाल ही में एक समीक्षा में बताया है कि परिवार के वृद्ध जन के कोविड-19 संक्रमित होने पर परिवार को अतिरिक्त तनाव झेलना पड़ा था। इस महामारी ने एक ऐसी व्यवस्था की सीमाओं को उजागर किया है जो वृद्ध लोगों की देखभाल के लिए मुख्यत: परिवारों पर निर्भर है।
घर पर देखभाल के लिए देश के आधे कामगारों (महिलाओं) की उपेक्षा करना अर्थव्यवस्था पर एक गंभीर बोझ है।
इसी कारण जापान ने अपने वृद्ध लोगों की देखभाल करने के तरीके में बदलाव किए हैं। भारत की तुलना में जापान में आंतरिक प्रवास की दर कम है – वहां केवल 20 प्रतिशत लोग उस प्रांत में नहीं रहते हैं जहां वे पैदा हुए थे। लेकिन वहां भी औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की कम उपस्थिति एक बड़ा मुद्दा है। वर्ष 2000 में, 25 से 54 वर्ष की आयु के बीच की 67 प्रतिशत महिलाएं अधिकारिक तौर पर नौकरियों में थी जो अमेरिका से 10 प्रतिशत कम था। वैसे भी जापान सामान्य रूप से घटते कार्यबल का सामना कर रहा है।
इस सहस्राब्दी की शुरुआत में जापान ने लॉन्ग-टर्म केयर इंश्योरेंस (एलटीसीआई) योजना की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य देखभाल को परिवार-आधारित व्यवस्था से दूर करके बीमा पर आधारित करना है। एलटीसीआई के तहत, 65 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग जिन्हें किसी भी कारण देखभाल की आवश्यकता है, उन्हें सहायता प्रदान की जाती है। इसके लिए कोई विशेष विकलांगता की शर्त नहीं है। इसकी पात्रता एक सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित की जाती है। इसके बाद चिकित्सक के इनपुट के आधार पर लॉन्ग-टर्म केयर अप्रूवल बोर्ड द्वारा निर्णय लिया जाता है। इसके बाद दावेदार को उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार देखभाल प्रदान की जाती है जो नर्सिंग-होम में निवास से लेकर उनके दैनिक कार्यों में मदद के लिए सेवाएं प्रदान करने तक हो सकती हैं।
एलटीसीआई के वित्तपोषण का 50 प्रतिशत हिस्सा कर से प्राप्त राजस्व से और बाकी का हिस्सा 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों पर अनिवार्य बीमा प्रीमियम आरोपित करके किया जाता है। यह आयु सीमा इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि 40 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर व्यक्ति के बुज़ुर्ग रिश्तेदारों को देखभाल की आवश्यकता होगी, ऐसे में वह व्यक्ति इस व्यवस्था का लाभ देख पाएगा। हितग्राही को कुल खर्च के 10 प्रतिशत का भुगतान भी करना होता है।
यदि अप्रूवल बोर्ड दीर्घकालिक देखभाल की आवश्यकता नहीं देखता तो उन्हें ‘रोकथाम देखभाल’ की पेशकश की जा सकती है। इन सेवाओं में पुनर्वास और फिज़ियोथेरेपी शामिल हैं। रोकथाम सेवा इसलिए भी आवश्यक हो गई क्योंकि एलटीसीआई योजना की सफलता के चलते नामांकन की संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई। वर्ष 2000 में जापान सरकार ने एलटीसीआई भुगतानों पर लगभग 2.36 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे जो 2017 में बढ़कर 7.02 लाख करोड़ हो गए। अनुमान है कि 2025 यह आंकड़ा 9.84 लाख करोड़ रुपए हो सकता है। खर्च कम करने के लिए सरकार ने 2005 में कुछ लाभों को कम कर दिया। 2015 में सक्षम लोगों के लिए 20 प्रतिशत भुगतान भी शामिल किया गया। सरकार ने प्रीमियम योगदान की उम्र घटाने की भी कोशिश की जिसका काफी विरोध हुआ।
कुल मिलाकर सबक यह है कि इतनी व्यापक योजना का आकार समय के साथ बढ़ती ही जाएगा। एलटीसीआई के लिए उच्च स्तर का उत्साह पैदा करना आसान नहीं था। लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना पड़ा क्योंकि घर पर वृद्ध रिश्तेदारों की देखभाल न करना एक शर्म की बात माना जाता था। हालांकि, जापान ने जो समस्याएं एलटीसीआई की मदद से दूर करने की कोशिश की थी उनमें से कई समस्याएं अभी भी मौजूद हैं।
एक रोचक तथ्य यह है कि जहां 2000 से 2018 के बीच जापान की कामकाजी उम्र की आबादी में 1.1 करोड़ से अधिक लोगों की कमी आई है वहीं कार्यबल में 6 लाख की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का श्रेय महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दिया जाता है क्योंकि एलटीसीआई ने पारिवारिक देखभाल की चिंताओं को कम किया जिससे महिलाओं को काम करने के अवसर मिले।
हालांकि, अभी भी जापान में बढ़ती उम्र की समस्या बनी हुई है और इसी कारण उसका श्रम-बाज़ार का संकट खत्म भी नहीं हुआ है। अधिक महिलाओं को रोज़गार देने के बाद भी देश के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक कार्यबल घटकर 5.3 करोड़ रह जाएगा जो 2017 से 20 प्रतिशत कम होगा। साथ ही वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ने के साथ एलटीसीआई के लिए पात्र लोगों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है। ऐसे में भविष्य में योजना को वित्तपोषित करना एक बड़ी चुनौती होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-022-00074-x/d41586-022-00074-x_20028386.jpg
चीन के राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार चीन की जनसंख्या दशकों तक बढ़ने के बाद इस वर्ष घटना शुरू हो सकती है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2021 में, चीन की जन्म दर में लगातार पांचवें वर्ष गिरावट आई है, जो घटकर 7.52 प्रति 1000 व्यक्ति हो गई है। इन आंकड़ों के आधार पर जनसांख्यिकीविदों का अनुमान है कि देश की कुल प्रजनन दर प्रति व्यक्ति लगभग 1.15 है, जो प्रतिस्थापन दर (2.1) से काफी कम है। इस दर के साथ चीन विश्व का सबसे कम जनसंख्या वृद्धि दर वाला देश बन गया है।
युनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना के जनसांख्यिकीविद योंग काय का कहना है कि अधिक बच्चे पैदा करने के लिए की जा रही सारी पहल और प्रचार के बावजूद युवा जोड़े अधिक बच्चे न पैदा करने का निर्णय ले रहे हैं। अनुमान है कि चीन की जनसंख्या में तेज़ी से गिरावट आएगी।
बढ़ती से घटती जनसंख्या की दिशा में यह बदलाव बहुत तेज़ गति से हुआ है। कुछ साल पहले अनुमान था कि चीन की आबादी लगभग 2027 तक बढ़ेगी। 2020 की जनगणना में भी कुल प्रजनन दर 1.3 आंकी गई थी।
चीन की सरकार ने लंबे समय तक सख्त जनसंख्या नियंत्रण अपनाया। लेकिन यह देखते हुए कि घटती युवा आबादी और बढ़ती वृद्ध आबादी पेंशन प्रणाली और सामाजिक सेवाओं पर बोझ बढ़ाएंगी, और आर्थिक और भू-राजनैतिक गिरावट का कारण बनेंगी, चीन ने 2016 में अपनी एक-संतान नीति को समाप्त कर दिया था। मई 2021 में यह सीमा बढ़ाकर तीन बच्चे तक कर दी गई। कुछ स्थानीय सरकारों ने दूसरा और तीसरा बच्चा करने पर जोड़ों को मासिक नकद सब्सिडी देना भी शुरू किया।
लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद युवा अधिक बच्चे नहीं चाहते। विशेषज्ञों के अनुसार सब्सिडी बहुत कम है। युवाओं पर पहले ही बहुत अधिक काम का बोझ है और वेतन बहुत कम, ऊपर से बच्चों की देखभाल के लिए सामाजिक मदद बहुत कम है। इन कारणों के चलते बहुत कम जोड़े ही परिवार शुरू करना या दूसरा बच्चा चाहते हैं।
सांख्यिकी ब्यूरो ने यह भी बताया है कि चीन अब और अधिक शहरीकृत हो रहा है। वर्ष 2020 से अब शहरी आबादी में 0.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, इस तरह चीन की लगभग 65 प्रतिशत आबादी शहरी क्षेत्रों में रह रही है। शहरों में आकर बसने वाले लोग आम तौर पर प्रजनन उम्र में भी होते हैं। और शहरों की तंग और भीड़-भाड़ वाली जगहों में आवास, महंगा जीवन यापन और महंगी शिक्षा होने के कारण लोग दूसरा बच्चा ही नहीं चाहते, तो तीसरा बच्चा तो दूर की बात है।
कुछ जनसांख्यिकीविद कहते हैं कि जनसंख्या कमी के संकट को अधिक तूल दिया जा रहा है। निश्चित ही चीन बूढ़ा हो रहा है। लेकिन चीन की आबादी स्वस्थ, बेहतर शिक्षित और हुनर से लैस होती जा रही है, और नई तकनीकों के अनुकूल हो रही है। अधिक बच्चे पैदा करने को बढ़ावा देने की बजाय जीविका प्रशिक्षण को प्रोत्साहित करने से, उत्पादकता में सुधार लाने से और वृद्धों के स्वास्थ्य को बेहतर करने से भी स्थिति संभल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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मत्स्याखेट के दौरान जाल में अनचाहे जीवों का फंस जाना एक बड़ी समस्या है। इनमें कछुए, स्टिंग रे, स्क्विड और यहां तक कि शार्क जैसे जीव फंसकर बेमौत मारे जाते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए हाल ही में किया गया शोध काफी आशाजनक प्रतीत होता है। इस नई तकनीक में मछली पकड़ने के जाल में हरी एलईडी लगाने से शार्क और स्क्विड जैसे गैर-लक्षित जीवों के जाल में फंसने की संभावना कम हो जाती है और इससे ग्रूपर और हैलिबट जैसी वांछित मछलियों की गुणवत्ता और मात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
आम तौर पर मछुआरों द्वारा गिलनेट का उपयोग किया जाता है जो पानी में एक कनात के रूप में लटकी रहती है। इसमें कई अनचाही प्रजातियां भी फंस जाती हैं जिन्हें ‘बायकैच’ कहा जाता है। यह बायकैच डॉल्फिन और समुद्री कछुओं सहित कई प्रजातियों के विनाश में योगदान देने के अलावा मछुआरों का काम बढ़ा देता है क्योंकि जाल की सफाई मुश्किल हो जाती है।
पूर्व में एक टीम द्वारा किए गए एक प्रयोग में जाल में हरे प्रकाश का उपयोग करने से कछुए के बायकैच में 64 प्रतिशत की कमी आई थी। इसके बाद इसे अन्य जीवों पर भी आज़माने का प्रयास किया गया। उसी टीम ने मेक्सिको स्थित बाजा कैलिफोर्निया के तट पर ग्रूपर और हैलिबट मछली पकड़ने वालों के साथ मिलकर काम किया। इस क्षेत्र को चुना गया क्योंकि मछलियों के साथ यहां बड़ी मात्रा में कछुए और अन्य बड़े समुद्री जीव पाए जाते हैं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 28 जोड़ी जाल डाले। प्रत्येक जोड़ी में एक-एक जाल पर 10-10 मीटर की दूरी पर एलईडी लाइट लगाई गई थी। अगले दिन सुबह जालों में फंसे जीवों को तौला गया और पहचान की गई।
करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रकाशित जालों में 63 प्रतिशत कम बायकैच पाया गया (51 प्रतिशत कम कछुए और 81 प्रतिशत कम स्क्विड)। शार्क और स्टिंग रे समूह के साथ किए गए एक अन्य अध्ययन में अधिक बेहतर परिणाम देखने को मिले। इस तकनीक का उपयोग करने से शार्क बायकैच में 95 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कैसे कुछ जीव खुद को हरे प्रकाश से बचा पाते हैं। इस सम्बंध में कई परिकल्पनाएं हैं।
बहरहाल, कारण जो भी हो लेकिन अब मछुआरों को जाल ढोने और सुलझाने में कम समय लगता है। हालांकि इन जालों की ऊंची लागत एक बड़ी बाधा है। एक जाल को रोशनी से लैस करने के लिए लगभग 140 डॉलर (लगभग 10000 रुपए) तक लागत आती है। कुछ मछुआरों के लिए यह बहुत महंगा है। फिलहाल शोधकर्ता सौर उर्जा से चलने वाली एलईडी का परीक्षण कर रहे हैं जो बैटरी चालित एलईडी की तुलना में अधिक समय तक चलती है। इसके साथ ही प्रति जाल कम संख्या में एलईडी के साथ भी प्रयोग किए जा रहे हैं ताकि लागत को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
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हाल के एक समीक्षा अध्ययन से पता चला है कि मानव जेनेटिक्स से सम्बंधित शोध पत्रों में ‘नस्ल’ (रेस) शब्द का उपयोग बहुत कम होने लगा है। खास तौर से मानव आबादियों या समूहों का विवरण देते समय उन्हें नस्ल कहने का चलन कम हुआ है। और इसका कारण यह लगता है कि जीव वैज्ञानिकों में आम तौर पर यह समझ विकसित हुई है कि नस्ल वास्तव में जीव वैज्ञानिक नहीं, बल्कि एक सामाजिक रूप से निर्मित श्रेणी है।
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में कई आनुवंशिकीविदों की यह धारणा थी कि मानव नस्लें वास्तव में होती हैं – जैसे नीग्रो या कॉकेशियन – और ये जीव वैज्ञानिक समूह की द्योतक हैं। इस आधार पर विभिन्न जनसमूहों के बारे में धारणाएं बना ली जाती थीं। अलबत्ता, अब वैज्ञानिकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नस्ल जैसी धारणा का कोई जीव वैज्ञानिक आधार नहीं है।
इस संदर्भ में समाज वैज्ञानिक वेंस बॉनहैम देखना चाहते थे कि क्या इस बदलती समझ का असर शोध पत्रों में नज़र आता है। इसे समझने के लिए उन्होंने अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्युमैन जेनेटिक्स (AJHG) में प्रकाशित शोध पत्रों को खंगाला। यह जर्नल जेनेटिक्स विषय का सबसे पुराना जर्नल है और 1949 से लगातार प्रकाशित हो रहा है। बॉनहैम और उनके साथियों ने 1949 से 2018 के बीच AJHG में प्रकाशित 11,635 शोध पत्रों को देखा। उन्होंने पाया कि जहां इस अवधि के पहले दशक में 22 प्रतिशत शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया गया था वहीं पिछले दशक में मात्र 5 प्रतिशत शोध पत्रों में ही यह शब्द प्रकट हुआ।
इसके अलावा, अध्ययन में यह भी देखा गया कि प्रथम दशक में नस्लीय समूहों से सम्बंधित शब्दों – नीग्रो और कॉकेशियन – का इस्तेमाल क्रमश: 21 और 12 प्रतिशत शोध पत्रों में हुआ था। 1970 के दशक के बाद से इसमें गिरावट आई और आखिरी दशक में तो ऐसे शब्दों का उपयोग एक प्रतिशत से भी कम शोध पत्रों में किया गया।
आजकल जब शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया जाता है तो उसके साथ ‘एथ्निसिटी’ या ‘एंसेस्ट्री’ शब्दों को जोड़ा जाता है। अन्य विशेषज्ञों का मत है कि इसकी एक वजह यह हो सकती है कि जेनेटिक्स विज्ञानी अभी भी किसी परिभाषा पर एकमत नहीं हो पाए हैं। इस संदर्भ में यूएस की नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्स, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन विचार-विमर्श कर रही है। अलबत्ता, एक बात साफ है कि शोधकर्ता अब मानते हैं कि नस्ल कोई जीव वैज्ञानिक धारणा नहीं बल्कि एक सामाजिक धारणा है जिसके जैविक असर होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल में जारी केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 18 राज्यों के 249 ज़िलों का भूजल खारा है, जबकि 23 राज्यों के 370 ज़िलों में मानक से अधिक फ्लोराइड पाया गया है। 21 राज्यों के 154 ज़िलों में आर्सेनिक की शिकायत है। इसी तरह 24 ज़िलों के भूजल में कैडमियम, 94 ज़िलों में लेड, 341 ज़िलों में आयरन और 23 राज्यों के 423 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा स्वीकार्य से अधिक मिली है। कृषि प्रधान राज्य उत्तर प्रदेश के 59, पंजाब के 19, हरियाणा के 21 और मध्य प्रदेश के 51 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक पाई गई है।
बता दें कि इन ज़िलों में उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग और सिंचाई की अवैज्ञानिक तकनीक के चलते यह समस्या पैदा हो रही है। जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा पाचन क्रिया और सांस लेने की तकलीफ को बढ़ा रही है। संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में जल संसाधन मंत्रालय ने केंद्रीय भूजल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भूजल प्रदूषण का ब्यौरा दिया। इसके मुताबिक देश के चार सौ से अधिक ज़िलों के भूजल में घातक रसायन घुलने से पीने के स्वच्छ व शुद्ध जल का गंभीर संकट पैदा हो गया है। कई ज़िलों के भूजल में पहले से ही फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन और भारी धातुएं निर्धारित मानक से अधिक थीं, वहीं ज़्यादातर ज़िलों में नाइट्रेट और आयरन की मात्रा बढ़ रही है।
भूजल में नाइट्रेट बढ़ने के पीछे मानवजनित अतिक्रमण को ज़िम्मेदार बताया गया है। उल्लेखनीय है कि उन राज्यों के भूजल में नाइट्रेट ज़्यादा बढ़ रहा है जहां सघन खेती में उर्वरकों का बेतहाशा उपयोग हो रहा है। भारी धातुओं और अन्य घातक रसायनों के जल में घुलने से पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। यदि समय रहते प्रदूषण की रोकथाम न की गई तो पेयजल संकट खड़ा हो जाएगा।
मालूम हो, प्राकृतिक संसाधन सीमित होते हैं और इनके असीमित उपयोग से संकट खड़ा होना स्वाभाविक है। मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के साम्राज्य का भयानक विनाश किया है। इसका परिणाम है कि पृथ्वी के लगभग तीन-चौथाई भाग पर जल होने के बावजूद राष्ट्र संघ की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि विश्व की आधी आबादी को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। भारत में स्थिति और भी अधिक भयावह है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भूजल में नाइट्रेट की मात्रा का बढ़ना चिंताजनक है।
लोक सभा में लिखित उत्तर में मंत्रालय ने बताया कि 24 सितंबर 2020 की एक अधिसूचना के मुताबिक भूजल की गुणवत्ता के लिए कई सख्त प्रावधान किए गए हैं। जिनमें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित करना और जलाशयों व नदियों में गंदा पानी डालने के सारे स्रोतों को बंद करना शामिल है। इसी अधिसूचना के तहत केंद्र व राज्य सरकारें संयुक्त रूप से जल जीवन मिशन का संचालन कर रहीं हैं ताकि लोगों को उनके घर तक नल से सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति की जा सके। गौरतलब है कि इस मिशन की शुरुआत अगस्त 2019 में की गई थी। इसके तहत वर्ष 2024 तक देश के सभी ग्रामीण घरों को जलापूर्ति सुनिश्चित की जानी है।
स्वास्थ्य संगठन के प्रतिवेदन के मुताबिक लगभग 80 फीसदी रोगों का कारण जल है। इसी प्रकार, आयुर्वेद के अनुसार जल कई रोगों का शामक है।
जानकारी के लिए बता दें कि नाइट्रेट नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन के संयोग से बने हुए ऐसे यौगिक होते हैं जो कई खाद्य पदार्थों, विशेषतः सब्ज़ियों, मांस एवं मछलियों में पाए जाते हैं। वस्तुतः नाइट्रेट जैविक नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के अंतिम उत्पाद होते हैं। पानी में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता तथा मृदा कणों की कम धारण क्षमता के कारण अति सिंचाई या अति वर्षा से खेतों में से बहता पानी अपने साथ नाइट्रेट को भी बहाकर कुंओं, नालों एवं नहरों में ले जाता है। इस प्रकार मनुष्य और पशुओं के पीने का पानी नाइट्रेट प्रदूषित हो जाता है।
देश की जनसंख्या के लिए अनाज उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरकों का अधिकतम उपयोग हो रहा है। विगत वर्षों में देश में नाइट्रोजन उर्वरकों की खपत बहुत बढ़ी है। वैज्ञानिकों ने भूजल में बढ़ती हुई नाइट्रेट सांद्रता का प्रमुख कारण नाइट्रोजन उर्वरक को ही माना है। यह भी देखा गया है कि उर्वरकों के संतुलित उपयोग की अपेक्षा मात्र नाइट्रोजन उर्वरक के उपयोग की वजह से ऐसी स्थिति पैदा होती है।
पेयजल में नाइट्रेट की अधिक सांद्रता मानव, मवेशी, जलीय जीव तथा औद्योगिक क्षेत्र को भी प्रभावित करती है। वस्तुतः नाइट्रेट स्वयं स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता है, परंतु इसके अपचयन से बने नाइट्राइट की वजह से इसकी अत्यल्प मात्रा भी घातक हो जाती है। नाइट्रेट जब जल या भोजन के माध्यम से शरीर मे प्रवेश करता है तो शरीर के जीवाणुओं द्वारा नाइट्राइट में परिवर्तित कर दिया जाता है जो एक सशक्त ऑक्सीकारक होता है। यह रक्त में हीमोग्लोबिन को मेट-हीमोग्लोबिन में बदल देता है, जिसके कारण हीमोग्लोबिन अपनी ऑक्सीजन परिवहन की क्षमता गंवा देता है। अत्यधिक रूपांतरण की स्थिति में आंतरिक श्वास-अवरोध हो सकता है जिसके लक्षण चमड़ी तथा म्यूकस झिल्ली के हरे-नीले रंग से पहचाने जा सकते हैं। इसे ब्ल्यू बेबी सिंड्रोम या साइनोसिस भी कहते हैं। छोटे बच्चों में यह रूपांतरण दुगनी गति से होता है। दूध पीते बच्चों की माताओं द्वारा उच्च नाइट्रेट युक्त जल पीने से दूध भी विषाक्त हो जाता है।
रूस के वैज्ञानिकों ने नाइट्रेट विषाक्तता के दुष्प्रभाव केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर भी देखे हैं। ये प्रभाव मात्र 105 से 182 मिलीग्राम प्रति लीटर नाइट्रेट सांद्रण पर ही दिखने लगते हैं। इसी प्रकार हृदय संवहनी तंत्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव देखे गए हैं।
नाइट्रेट के परिवर्तन से बना नाइट्राइट एन-नाइट्रोसो यौगिक बनाता है जो कैंसरकारी होते हैं। अनुसंधान से पता चला है कि उच्च नाइट्रेट युक्त जल तथा पाचन तंत्र के कैंसर में गहरा सम्बंध है। कुल मिलाकर, जल में नाइट्रेट की बढ़ती मात्रा विभिन्न रोगों को न्यौता देती है।
जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा मवेशियों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। एक अध्ययन में गाय, भैंस, बकरी जैसे दुधारू मवेशियों में नाइट्रेट विषाक्तता देखी गई है। जई, बाजरा, मक्का, गेहूं, जौ, सूडान ग्रास तथा राई ग्रास ऐसे पौधे हैं जिनमें नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है। यदि चारे को ऐसी भूमि में उगाया जाए जिसमें कार्बनिक तथा नाइट्रोजन तत्व अधिक हों और नाइट्रोजन उर्वरक अधिक मात्रा में प्रयोग किए गए हों तो ऐसी स्थिति में चारे में नाइट्रेट विषाक्तता अधिक हो जाती है। नाइट्रेट विषाक्तता पशुओं में जठर आंत्र शोथ उत्पन्न करती है। चारागाह में चरते पशुओं की अचानक मृत्यु भी देखी गई है। तेज़ दर्द, लार-गिरना, कभी-कभी पेट फूलना तथा बहुमूत्रता जैसे लक्षणों के साथ रोग का एकाएक प्रकोप होता है। श्वास का तेज़ी से चलना तथा श्वास में कष्ट होेना, तेज़ नाड़ी, लड़खड़ाना एवं तापमान का कम हो जाना भी इस रोग के अन्य लक्षण हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान इज़्ज़तनगर (बरेली) के वैज्ञानिकों ने पाया है कि पैरा घास या अंगोला (ब्रैकिएरिया म्यूटिका) खाने से बछड़ों में अति तीव्र नाइट्रेट विषाक्तता और बकरियों में चिरकालिक नाइट्रेट विषाक्तता हो जाती है। देश के शुष्क क्षेत्रों में गर्मियों के दिनों में प्यासे पशु जब एक साथ अत्यधिक नाइट्रेट युक्त पानी पी लेते हैं तो उनमें नाइट्रेट विषाक्तता उत्पन्न हो जाती है जो कभी-कभी उनकी मृत्यु का कारण भी बन जाती है। कई दुधारू पशुओं में नाइट्रेट युक्त पानी पीने से दुग्धस्राव में कमी एवं गर्भपात भी देखे गए हैं।
सवाल यह है कि जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा को कैसे कम किया जाए? जल में नाइट्रेट की उपस्थिति पर सरकारें गंभीर क्यों नहीं हैं? गौरतलब है कि जल राज्य सूची का विषय है। राज्य सरकारें जल में बढ़ते प्रदूषक तत्वों के प्रति ढिलाई बरत रही हैं। केंद्र सरकार का रवैया उदासीन रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पानी को समवर्ती सूची में शामिल किया जाए। ऐसा होने पर व्यापक कार्य योजना विकसित करने में मदद मिलेगी। केंद्र और राज्यों के बीच सहमति से भूजल सहित जल का बेहतर संरक्षण, विकास और प्रबंधन संभव होगा।
जल में नाइट्रेट के कहर को देखते हुए इसके अधिक सांद्रण को कम किया जाना चाहिए। जल में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता के कारण इसका जल से अपनयन दुष्कर कार्य होता है। कृषि प्रधान देशों में नाइट्रेट प्रदूषण एक बड़ी समस्या बन चुका है। वर्तमान में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर हमारे देश के 16 राज्यों के भूजल में नाइट्रेट का सांद्रण 45 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक है। इनमें कई राज्यों के भूजल में कुल घुलनशील ठोस का मान भी अधिक है। पेयजल आपूर्ति में नाइट्रेट मुक्त जल प्राप्त करने हेतु वैकल्पिक विधियां अपनाए जाने की दरकार है। ऐसे क्षेत्रों में जहां जल में नाइट्रेट स्तर अधिक हो वहां नलकूप खोदकर जलापूर्ति करना, सपाट कुओं को चौड़ा करना अथवा अधिक गहराई से जल प्राप्त करने की कोशिशें होनी चाहिए। साथ ही जल संसाधन मंत्रालय को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के सहयोग से डार्क ब्लॉक्स में स्थित गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों को चिंहित करने के लिए कारगर तंत्र विकसित करना चाहिए। सतही जल और भूमिगत जल स्रोतों में औद्योगिक कचरे की डंपिंग को कम करने और नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। साथ ही केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने जिन उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किए हैं, उनकी नियमित निगरानी के लिए एक व्यवस्था कायम की जानी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि प्रमाण पत्र में दर्ज शर्तों का पालन किया जा रहा है। सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडलों को उपयुक्त और प्रभावी निगरानी तंत्र गठित करना चाहिए। आज जल संरक्षण हमारा विशेष सरोकार होना चाहिए, जिससे इस समस्या को विकराल रूप धारण करने से रोका जा सके।(स्रोत फीचर्स)
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