ग्लासगो जलवायु सम्मेलन पर एक दृष्टि – सोमेश केलकर

ग्रीनहाउस ऐसी इमारत को कहते हैं जिसका उपयोग पौधे उगाने के लिए किया जाता है। आम तौर पर ग्रीनहाउस कांच का बना होता है जिससे सूरज की किरणों की गर्मी अंदर ही कैद हो जाती है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि सर्द मौसम में भी इस इमारत में पौधों को वृद्धि के लिए ठीक-ठाक तापमान मिल जाता है।

देखा जाए तो ग्रीनहाउस प्रभाव पृथ्वी पर भी इसी तरह काम करता है। कांच के बजाय कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, ओज़ोन, नाइट्रस ऑक्साइड, जल वाष्प और क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसी गैसें वायुमंडल में उपस्थित हैं। ये गैसें ग्रीनहाउस की पारंपरिक कांच की दीवारों की तरह काम करती हैं। ये सूरज के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने देती हैं लेकिन जब धरती से ऊष्मा निकलती है तो उसे अंतरिक्ष में वापस जाने से रोक लेती हैं। इसलिए इन्हें ग्रीनहाउस गैसें कहा जाता है और ये जीवन के लिए इष्टतम तापमान बनाए रखती हैं।

आप ज़रूर पूछेंगे कि जब ग्रीनहाउस गैसें जीवन के लिए इतनी आवश्यक हैं तो इन गैसों के उत्सर्जन से इतनी परेशानी क्यों? क्या अधिक मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उपस्थित होना हमारे लिए बेहतर नहीं होगा? वास्तव में औद्योगीकरण की शुरुआत से ही मानव जाति ऐसी गतिविधियों में लिप्त रही है जिससे वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का निरंतर उत्सर्जन होता रहा है। चूंकि ग्रीनहाउस गैसों की प्रचुरता के कारण वातावरण में पहले की तुलना में और अधिक ऊष्मा रुकने लगी इसलिए पृथ्वी के तापमान में और अधिक वृद्धि होने लगी।

वनों की कटाई, जीवाश्म ईंधन के दहन जैसी गतिविधियों और जनसंख्या वृद्धि से ग्रीनहाउस के प्रभाव में काफी तेज़ी होने लगी। उदाहरण के लिए, पेड़ भोजन तैयार करने में कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग करते हैं। वनों की कटाई से पेड़ों की संख्या कम होती है जो अन्यथा वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित कर धरती के तापमान को नियंत्रण में रख सकते थे। इसी तरह, कोयला, पेट्रोल-डीज़ल जैसे जीवाश्म ईंधनों के जलने से वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।

ग्रीनहाउस गैसों से ग्रह के तापमान में हो रही वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, यह धरती के नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्रों को प्रभावित करना शुरू कर देती है जो अब तक संतुलन की स्थिति में रहे हैं। जैसे, महासागर वायुममंडल से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं जो पानी के नीचे उगने वाले पौधों को प्रकाश संश्लेषण में काम आ जाती है। जब वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बहुत अधिक होती है तब समुद्र भी बहुत अधिक मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने लगते हैं। इस अवशोषण की प्रक्रिया से समुद्र के पानी की अम्लीयता में परिवर्तन होता है जिसे महासागरीय अम्लीकरण कहा जाता है। महासागरों का अम्लीकरण नाज़ुक लेकिन जटिल पारिस्थितिकी तंत्र और उनमें रहने वाले जीवों को प्रभावित करता है।

ग्लासगो सम्मेलन

31 अक्टूबर से 13 नवंबर 2021 तक ग्लासगो में 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP-26) का आयोजन किया गया।

साल दर साल विश्व भर के राजनेता अपने देशों की ज़मीनी हकीकत से दूर इन सम्मेलनों में शामिल होते हैं। इन सम्मेलनों में बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं और शोरगुल थम जाता है – अगले वर्ष इन्हीं वादों को दोहराने के लिए।

कई बार जलवायु सम्मेलन असफल भी हो जाते हैं। 2009 के कोपनहेगन शिखर सम्मेलन की विफलता का सबसे बड़ा कारण रहा देशों की खुदगर्ज़ी। युरोपीय राष्ट्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन की सीमा को कम नहीं करना चाहते थे। अमेरिका ऐसे समझौते नहीं करना चाहता था जिसे वह निभा न सके। अफ्रीका जैसे गरीब देश यह स्पष्ट किए बगैर अधिक धनराशि की मांग कर रहे थे कि उसे खर्च कहां किया जाएगा। चीन की इच्छा केवल द्विपक्षीय समझौते करने की रही। सबसे अधिक आबादी और सबसे बड़ा निर्माता होने के बाद भी वह अपनी लालची, विस्तारवादी और अलगाववादी प्रवृत्ति से बाज़ नहीं आया। कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन की विफलता में शक्तिशाली कॉर्पोरेट जगत का भी बड़ा योगदान रहा जो अपने मुनाफे के सामने पर्यावरण और जलवायु की परवाह नहीं करता। आखिर में इसमें कुछ ऐसे देश भी थे जो ग्लोबल वार्मिंग को एक प्राकृतिक घटना बताते रहे, जिसमें इंसानी क्रियाकलापों की कोई भूमिका नहीं है। सौभाग्य से, ग्लासगो जलवायु वार्ता को किसी भी पक्ष ने अपने स्वयं के एजेंडे के लिए अगवा नहीं किया। ग्लासगो सम्मेलन के बाद हमारी सबसे बड़ी चुनौती ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और उसमें कटौती है।

1990 में जब पहली बार जलवायु वार्ता की शुरुआत हुई थी, तब वायुमंडल में प्रति वर्ष लगभग 35 अरब टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा था। अब आप यह सोच रहे होंगे कि पिछले तीन दशकों से चली आ रही इन वार्ताओं के नतीजे में उत्सर्जन कम न सही, स्थिर तो ज़रूर हुआ होगा। लेकिन आपका यह विचार बिलकुल गलत है। आज वैश्विक स्तर पर वायुमंडल में 50 अरब टन प्रति वर्ष से अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा है।

यदि सारी योजनाओं और वादों का पालन किया गया तो उत्सर्जन को कम करके 46 अरब टन तक सीमित जा सकता है। वैसे, विज्ञान का मत साफ है – ग्रह को बचाने के लिए उत्सर्जन को 25 अरब टन यानी आधे से भी कम करना ज़रूरी है। और तो और, पिछले तीन दशकों का रुझान देखते हुए उत्सर्जन को 46 अरब टन तक सीमित करना भी अवास्तविक प्रतीत होता है।  

सम्मेलन का सार

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट (एआर6) ने वैश्विक तापमान में वृद्धि और इससे जुड़े जोखिमों के बारे में सभी देशों के कान खड़े कर दिए। इस रिपोर्ट के अनुसार सूखा, बाढ़, अत्यधिक वर्षा, समुद्र का बढ़ता स्तर और ग्रीष्म लहरों का बारंबार आना मानवीय गतिविधियों के परिणाम हैं। इससे यह तो स्पष्ट है पिछली जलवायु वार्ताओं में पारित संकल्प जलवायु संकट को कम करने में अपर्याप्त साबित हुए हैं। 

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने हाल ही में उत्सर्जन गैप रिपोर्ट, 2021 जारी की है। इस रिपोर्ट में देशों द्वारा 2030 तक उत्सर्जन में कमी के वादों और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री से 2 डिग्री सेल्सियस के बीच रखने के लिए आवश्यक प्रयासों में एक बड़े अंतर को उजागर किया गया है। इस रिपोर्ट के अंत में चेतावनी के तौर बताया गया है कि हमारे पास कार्रवाई करने के रास्ते काफी तेज़ी से कम होते जा रहे हैं।       

सम्मेलन शुरू होने से पहले चार लक्ष्य निर्धारित किए गए थे:

1.   इस सदी के मध्य तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना और वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना।

2.   जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील क्षेत्रों के समुदायों के साथ-साथ प्राकृतवासों की भी रक्षा करना। 

3.   तय किए गए लक्ष्यों के लिए धन जुटाना। 

4.   सभी देशों को एक साथ काम करने को तैयार करना ताकि नियमों को विस्तार से सूचीबद्ध करके पेरिस समझौते को पूरा करने में मदद मिल सके।    

महत्वपूर्ण घोषणाएं 

1. निर्वनीकरण पर रोक लगाना

इस सम्मेलन की सबसे बड़ी घोषणा 2030 तक वनों की कटाई पर पूरी तरह से रोक लगाना है। ग्लोबल फारेस्ट वॉच के अनुसार वर्ष 2020 में हमने 2,58,000 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र नष्ट किया है।

ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से निपटने के लिए 100 से अधिक देशों ने इस दशक के अंत तक निर्वनीकरण और भूमि क्षरण को रोकने का संकल्प लिया है। इन देशों में ब्राज़ील भी शामिल है जहां अमेज़न वर्षा वनों के विशाल भाग को पहले ही नष्ट किया जा चुका है।  

100 से अधिक देशों द्वारा लिए गए इस संकल्प में लगभग 19.2 अरब डॉलर की निधि भी शामिल है। वन क्षेत्रों के संरक्षण और नवीकरण के लिए, सार्वजनिक और निजी, दोनों स्रोतों से निधि जुटाई जाएगी। इस निधि का कुछ हिस्सा विकासशील देशों में क्षतिग्रस्त भूमि की बहाली, दावानलों से निपटने और आवश्यक होने पर देशज जनजातियों की सहायता के लिए दिया जाएगा। वैसे, इस कार्य के लिए 19.2 अरब डॉलर बहुत छोटी राशि है। ग्लासगो सम्मेलन में 28 ऐसे देश भी शामिल थे जिन्होंने वैश्विक खाद्य व्यापार से निर्वनीकरण को हटाने का संकल्प लिया है। इनमें पशुपालन और ताड़ का तेल, सोया तथा कोको जैसे अन्य कृषि उत्पाद शामिल हैं। ये उद्योग पशुओं को चराने या फसल उगाने के लिए पेड़ों को काटने और निर्वनीकरण को बढ़ावा देते हैं। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन संकल्पों पर कितना अमल किया जाता है। 2014 की संधि में निर्वनीकरण की गति को कम करने का संकल्प तो पूरी तरह विफल रहा है।     

2. मीथेन उत्सर्जन में कमी

ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के प्रयासों का मुख्य केंद्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को कम करना रहा है, लेकिन विशेषज्ञों ने अल्पकालिक ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए मीथेन उत्सर्जन में कटौती को अधिक प्रभावी बताया है। हालांकि, कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा वातावरण में अधिक है और यह काफी समय के लिए मौजूद भी रहती है, लेकिन इसकी तुलना में मीथेन अणुओं का वातावरण पर वार्मिंग प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है।

हाल ही में अमेरिका और युरोपीय संघ ने 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में कटौती के लिए वैश्विक साझेदारी की घोषणा की है। इसके तहत 2020 के स्तर की तुलना में 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 30% कटौती का संकल्प लिया गया है। वर्तमान में लगभग 90 देशों ने अमेरिका और युरोपीय संघ के इन प्रयासों को समर्थन देने का संकल्प लिया है। इस प्रयास को वैश्विक मीथेन संकल्प कहा गया है जिसकी घोषणा पिछले वर्ष सितम्बर में की गई। मीथेन गैस के सबसे बड़े उत्सर्जक ब्राज़ील ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं लेकिन चीन, भारत और रूस जैसे तीन बड़े उत्सर्जक इस समझौते में शामिल नहीं हैं।        

विफलताएं

हालांकि, COP-26 सम्मेलन में वैश्विक जलवायु में सुधार और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी की दिशा में कई प्रस्ताव, समझौते और संकल्प लिए गए हैं लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि कितने देश इन वादों पर खरे उतरते हैं। पिछले संकल्पों, समझौतों और घोषणाओं का रिकॉर्ड देखते हुए अभी भी संशय की स्थिति बनी हुई है।

यह तो स्पष्ट है कि ग्लासगो सम्मेलन में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन प्राप्त करने का जो लक्ष्य रखा गया है वह काफी दूर का है – 2050। यह 2030 के लिए निर्धारित कई महत्वपूर्ण लक्ष्यों से ध्यान हटा सकता है जिन पर सम्मेलन में ध्यान केंद्रित किया गया था।     

नेट-ज़ीरो लक्ष्य युनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) के मूलभूत सिद्धांतों का विरोधाभासी भी प्रतीत होता है जो ‘समान परन्तु विभेदित उत्तरदायित्वों’ (सीबीडीआर) पर आधारित है। यूएनएफसीसी का तर्क है कि सभी देशों के पास नेट-ज़ीरो के लिए एक सामान्य लक्ष्य वर्ष के बजाय अलग-अलग लक्ष्य होना चाहिए। क्योंकि विकसित देश तो अपना लक्ष्य जल्दी हासिल कर सकते हैं लेकिन विकासशील देशों को इसमें थोड़ा अधिक समय लगेगा। यूएनएफसीसी ने विकसित देशों द्वारा अतीत में किए गए अत्यधिक उत्सर्जनों को देखते हुए जलवायु सम्बंधी कार्रवाई की अधिक ज़िम्मेदारी उठाने का आह्वान किया है। विकासशील देशों को भी विकसित देशों से प्राप्त तकनीकी और वित्तीय सहायता प्राप्त करते हुए दिशा में भरसक प्रयास करना चाहिए । यह तर्क ग्लासगो सम्मेलन में सभी देशों के लिए प्रस्तावित 2030 और 2050 के एक-समान लक्ष्यों के विपरीत प्रतीत होता है।              

भारत की भूमिका

भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक है। यदि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारत की भागीदारी की गणना की जाए तो यह 7% से कुछ ही कम होगा। वैसे भारत विश्व के सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जकों में से एक तो है लेकिन इसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से बहुत कम है। यह देश में आर्थिक असमानता की स्थिति का संकेत देता है।

भारत ने मीथेन संकल्प पर हस्ताक्षर नहीं किए क्योंकि हम विश्व के सबसे बड़े बीफ और अन्य प्रकार के मांस के निर्यातक हैं और इस समझौते पर हस्ताक्षर करने का मतलब मीथेन उत्सर्जन में कटौती है जिसका प्रतिकूल असर मांस व्यापार पर होगा।

विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 1.8 टन है जो 2015 के पेरिस समझौते के दायित्वों के अनुसार 2030 में 2.4 टन होने की संभावना है। भारत के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के क्षेत्रवार विश्लेषण से पता चलता है कि इसमें सबसे अधिक हिस्सा बिजली और ऊष्मा का है और इसके बाद क्रमशः कृषि, विनिर्माण एवं परिवहन, उद्योग तथा भूमि उपयोग में परिवर्तन और वानिकी क्षेत्र हैं।

आने वाले वर्षों में भारत के प्रति व्यक्ति जीडीपी में वृद्धि होने की संभावना है जिसके नतीजे में कार्बन उत्सर्जन में भी वृद्धि होगी। चूंकि भारत ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधनों पर अधिक निर्भर है इसलिए उत्सर्जन में मुख्य भागीदारी ऊर्जा क्षेत्र की रहेगी।

भारत के जीडीपी में सेवाओं का बड़ा हिस्सा संकेत देता है कि आने वाले समय में विकास कम कार्बन उत्सर्जन आधारित रहेगा।

हालांकि, भारत की जनसंख्या वृद्धि भले ही धीमी हो रही है लेकिन जनसंख्या के बदलते चाल-ढाल के परिणामस्वरूप आने वाले वर्षों में कार्बन उत्सर्जन पर दबाव पड़ सकता है।     

भारत का प्रदर्शन

भारत ने 2005 की तुलना में 2030 तक अपनी उत्सर्जन तीव्रता में 33% से 35% तक कमी करने का संकल्प लिया है। (उत्सर्जन तीव्रता का अर्थ होता है प्रति इकाई जीडीपी के लिए ऊर्जा की खपत) और कहा है कि वह अब तक 24% कमी हासिल कर चुका है। भारत ने सम्मेलन में घोषणा की है कि वह 2030 के अंत तक अपने नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन को 450 गीगावाट तक बढ़ा देगा। यह लक्ष्य पेरिस जलवायु समझौते के तहत भारत द्वारा व्यक्त 40% ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से के लक्ष्य से अलग है। भारत ने 2.5 से 3 अरब टन कार्बन सिंक (अवशोषक) बनाने के लिए वन क्षेत्र बढ़ाने की घोषणा भी की है।

भारत ने हाल ही में हरित विधियों के माध्यम से हाइड्रोजन उत्पादन के लिए राष्ट्रीय हाइड्रोजन नीति की भी घोषणा की है। हाइड्रोजन को औद्योगिक और परिवहन के क्षेत्र में इस्तेमाल करना है। इससे भारत को अपने ऊर्जा क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने में मदद मिलेगी। फरवरी 2022 में इंदौर ऐसा पहला भारतीय शहर बन गया है जहां गोबर गैस प्लांट शहर के सभी सरकारी सार्वजनिक वाहनों को ऊर्जा प्रदान करेंगे।   

भावी चुनौतियां

2070 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करने का मतलब होगा कि 2040 तक उत्सर्जन सर्वोच्च स्तर तक पहुंचकर कम होने लगे। अब तक के अध्ययन से पता चलता है कि 2070 तक नेट-ज़ीरो हासिल करने के लिए भारत को उत्सर्जन की तीव्रता (यानी उत्सर्जन प्रति इकाई जीडीपी) में 85% की कमी करना होगी। तुलना के लिए देखें कि भारत 2005 से लेकर अब तक उत्सर्जन में केवल 24% की कमी कर पाया है।   

इस प्रकार की भारी कमी को संभव बनाने के लिए पनबिजली से इतर नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी को वर्तमान 11% से बढ़ाकर 65% करना होगा और इलेक्ट्रिक कारों की हिस्सेदारी को 2040 तक 0.1% से 75% तक ले जाना होगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकार द्वारा नागरिकों को सौर पैनल जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। सब्सिडी प्रदान कर सौर पैनल सस्ते भी किए जा सकते हैं। विकल्प के रूप में सरकारों को घरों में उत्पादित अधिशेष सौर ऊर्जा को खरीदना चाहिए जिससे नागरिकों को सौर पैनल में निवेश करने का प्रोत्साहन भी मिलेगा।

देश में इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या को बढ़ाने के लिए राज्य को सरकार द्वारा संचालित सार्वजनिक परिवहन को पूरी तरह इलेक्ट्रिक वाहनों में परिवर्तित करना चाहिए। इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने के लिए दिए जाने वाले ऋण पर कर में राहत प्रदान करना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इलेक्ट्रिक वाहनों में बैटरी बदलने की प्रक्रिया आसान रहे। ऐसी व्यवस्था भी ज़रूरी है कि पेट्रोल पंप चार्जिंग स्टेशन भी स्थापित कर सकें।     

इस अवधि में जीवाश्म ऊर्जा का हिस्सा 73% से घटाकर 40% करना होगा। भारत के वर्तमान वित्तीय और तकनीकी संसाधनों को देखते हुए इस लक्ष्य को पूरा कर पाना काफी कठिन लगता है।                

विकास पर प्रभाव

काउंसिल फॉर एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) का अध्ययन बताता है कि भारत को 2070 तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य हासिल करने के लिए कोयले का उपयोग 2040 तक चरम पर पहुंचने के बाद 2040 से 2060 के बीच 99% तक कम करना होगा। ऐसा होने की संभावना कम ही है क्योंकि इससे भारत की विकास संभावनाओं को नुकसान पहुंचेगा और संभव है कि भारत विकास की कीमत पर पर्यावरण को तरजीह नहीं देगा।       

धन की कमी

भारतीय अर्थव्यवस्था को कार्बन-मुक्त करने और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ने के लिए पूंजी की आवश्यकता होगी। अभी तक भारत के पास इतनी पूंजी तो नहीं है इसलिए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसे बाहरी फंडिंग पर निर्भर रहना पड़ेगा। विकसित देशों ने जलवायु कोश में 2020 से प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर की व्यवस्था करने का वादा किया था जिसे अभी तक पूरा नहीं किया गया है।      

आगे का रास्ता

COP-26 के मद्देनज़र भारत भविष्य में निम्नलिखित कार्य कर सकता है;

1.  नेतृत्व की भूमिका निभाना और पहल करना

यह तो स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है। इससे निपटने के लिए भारत को वैश्विक प्रयासों में भाग लेना चाहिए और 1.5 डिग्री के लक्ष्य के प्रति गंभीरता प्रदर्शित करने के लिए तकनीकी, सामाजिक-आर्थिक और वित्तीय नीतियों एवं शर्तों का प्रस्ताव देने में पहल करना चाहिए भले वे जोखिम भरे क्यों न हों।    

2. सशर्त लक्ष्य

कुछ विशेषज्ञों ने भारत द्वारा 2070 तक नेट-ज़ीरो के लक्ष्य को लेकर चिंता व्यक्त की है। उनके मुताबिक यह सही है कि भारत के लिए नेट-ज़ीरो वर्ष की घोषणा करने के दबाव की अवहेलना करना संभव नहीं था लेकिन भारत को यह स्पष्ट कर देना चाहिए था कि वह 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने की घोषणा तभी करेगा जब विकसित देश 2050 से पहले नेट-ज़ीरो तक पहुंचने और भारत जैसे विकासशील देशों को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध होंगे। भारत ने सशर्त लक्ष्य निर्धारित न करके गलती की है।

जलवायु सम्मेलन में अनुकूलन के उपायों पर भी ज़ोर देना चाहिए था। इसके साथ ही भारत को वैश्विक कार्बन बजट के पर्याप्त हिस्से पर अपना दावा पेश करना था और विश्व के बड़े उत्सर्जकों के विशिष्ट वैश्विक कार्बन बजट के आधार पर संचयी उत्सर्जन पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान करना चाहिए था। भारत विकसित देशों द्वारा अतीत में किए गए उत्सर्जन की भरपाई की मांग भी कर सकता है।        

3. हरित विकास पथ पर चलना

इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्सर्जन का पूरे विश्व पर प्रभाव होगा, लेकिन यह प्रभाव सभी देशों पर समान नहीं होगा। भारत एक जलवायु-संवेदनशील राष्ट्र है और सरकार को हरित विकास के रास्तों को अपनाना चाहिए। अर्थव्यवस्था को ऐसे तरीकों से विकसित करना चाहिए जो न केवल विकास को सुनिश्चित करें बल्कि लम्बे समय तक संधारणीय भी रहे। 

हरित विकास पथ का एक उदाहरण नवीकरणीय ऊर्जा को व्यापक रूप से अपनाने के साथ जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करना हो सकता है। इसके लिए भारत एक बहु-क्षेत्रीय योजना पर काम कर सकता है। आज देश में पेट्रोल और डीज़ल आधारित वाहन बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक हैं; सरकार वाहन निर्माताओं और ईंधन पर अप्रत्यक्ष टैक्स लगा सकती है और इससे मिलने वाले फंड का उपयोग नवीकरणीय ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहन को सब्सिडी देने में कर सकती है।           

एक मिथक यह फैलाया गया है कि विश्व में अधिकांश प्रदूषण के लिए आम नागरिक ज़िम्मेदार हैं। इसके विपरीत, सच तो यह कि यदि विश्व भर के परिवार अपने जीवनयापन के लिए पर्यावरण अनुकूल तरीकों को अपना लें तो भी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में मात्र 22% की ही कमी होगी। इसका मतलब यह है कि अधिकांश उत्सर्जन उद्योगों के कारण होता है; सरकार पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाली कंपनियों पर कर लगा सकती है और उत्पादन के लिए पर्यावरण अनुकूल तथा संधारणीय तरीकों को अपनाने वाली कंपनियों को कर मुक्त कर सकती हैं। इससे निजी क्षेत्र की कंपनियों को ऊर्जा सम्बंधी परिवर्तन के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।

4. नेटज़ीरो की दिशा में

यदि भारत को 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो स्वच्छ ऊर्जा नवाचार और प्रौद्योगिकियों के लिए व्यापक समर्थन तथा निवेश के साथ वर्तमान में उपलब्ध हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाने की आवश्यकता होगी। निम्नलिखित हस्तक्षेप भारत को नेट-ज़ीरो लक्ष्य प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं:

क. एक कानूनी ढांचा बनाया जाना चाहिए जिसके तहत सभी गतिविधियों के जलवायु प्रभाव का मूल्यांकन सुनिश्चित किया जा सके। हाल ही में पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रोटोकॉल के कमज़ोर होने के साथ ही हम विपरीत दिशा में जा रहे हैं।

ख. ऐसी ऊर्जा कुशल वस्तुओं के लिए कानूनी आदेश जारी किया जाना चाहिए जिनका जीवन लम्बा है। बाज़ार में कई तरह की विकृतियां नज़र आती हैं – उत्पादों को ऐसे बनाना जो जल्दी कंडम हो जाएं, मालिकाना मानकों का अनावश्यक उपयोग, स्पेयर पार्ट्स का उत्पादन न करना, स्पेयर पार्ट्स बाज़ार पर एकाधिकार रखना और जानबूझकर मरम्मत के लिए कठिन उत्पाद बनाना। ऐसे कदाचरण को कानून के माध्यम से हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

ग. एक समर्पित हरित कोश बनाना और विभिन्न पर्यावरण संरक्षण योजनाओं के वित्तपोषण के लिए इसका उपयोग करना।

घ. ऐसे जंगल लगाना जो कार्बन सिंक का काम करें।       

च. केंद्रीकृत और विकेंद्रीकृत बिजली उत्पादन दोनों पर समान रूप से ज़ोर देते हुए नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि करना।

छ. कार्बन आधारित ईंधन के एक उत्कृष्ट विकल्प, ग्रीन हाइड्रोजन, को मुख्यधारा में लाकर बिजली, औद्योगिक और परिवहन क्षेत्रों के उत्सर्जन में कटौती की जा सकती है।           

ज. मीथेन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कचरे का बेहतर प्रबंधन।

झ. पैदल चलने और साइकिल चलाने को बढ़ावा देने के साथ-साथ शहर भर में साइक्लिंग मार्ग का निर्माण कर साइकिल चालन के बुनियादी ढांचे में निवेश करना और इन मार्गों में गाड़ियों की पार्किंग या कोई अन्य दुरूपयोग करने वालों पर जुर्माना।     

निष्कर्ष

पर्यावरण और विकास हमेशा से ही एक सिक्के के दो पहलू रहे हैं। एक अच्छा नीति निर्माता हमेशा ऐसी नीतियां तैयार करता है जिससे विकास और निर्वहनीयता के बीच एक अच्छा संतुलन बना रहे। आज की परिस्थितियों में लगता है कि नीतिकारों की दिलचस्पी विकास में अधिक है। यदि संतुलन बिगड़ा तो सबसे कमज़ोर और पिछड़े वर्ग को इन गलतियों और असफलताओं का सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)   

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202109/Glasgow.jpeg?.s2tWO5.a.vscZi1Ep5iQXpvPoYrGQau&size=770:433

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