हरी रोशनी की मदद से जंतु-संरक्षण

त्स्याखेट के दौरान जाल में अनचाहे जीवों का फंस जाना एक बड़ी समस्या है। इनमें कछुए, स्टिंग रे, स्क्विड और यहां तक कि शार्क जैसे जीव फंसकर बेमौत मारे जाते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए हाल ही में किया गया शोध काफी आशाजनक प्रतीत होता है। इस नई तकनीक में मछली पकड़ने के जाल में हरी एलईडी लगाने से शार्क और स्क्विड जैसे गैर-लक्षित जीवों के जाल में फंसने की संभावना कम हो जाती है और इससे ग्रूपर और हैलिबट जैसी वांछित मछलियों की गुणवत्ता और मात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

आम तौर पर मछुआरों द्वारा गिलनेट का उपयोग किया जाता है जो पानी में एक कनात के रूप में लटकी रहती है। इसमें कई अनचाही प्रजातियां भी फंस जाती हैं जिन्हें ‘बायकैच’ कहा जाता है। यह बायकैच डॉल्फिन और समुद्री कछुओं सहित कई प्रजातियों के विनाश में योगदान देने के अलावा मछुआरों का काम बढ़ा देता है क्योंकि जाल की सफाई मुश्किल हो जाती है।

पूर्व में एक टीम द्वारा किए गए एक प्रयोग में जाल में हरे प्रकाश का उपयोग करने से कछुए के बायकैच में 64 प्रतिशत की कमी आई थी। इसके बाद इसे अन्य जीवों पर भी आज़माने का प्रयास किया गया। उसी टीम ने मेक्सिको स्थित बाजा कैलिफोर्निया के तट पर ग्रूपर और हैलिबट मछली पकड़ने वालों के साथ मिलकर काम किया। इस क्षेत्र को चुना गया क्योंकि मछलियों के साथ यहां बड़ी मात्रा में कछुए और अन्य बड़े समुद्री जीव पाए जाते हैं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 28 जोड़ी जाल डाले। प्रत्येक जोड़ी में एक-एक जाल पर 10-10 मीटर की दूरी पर एलईडी लाइट लगाई गई थी। अगले दिन सुबह जालों में फंसे जीवों को तौला गया और पहचान की गई।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रकाशित जालों में 63 प्रतिशत कम बायकैच पाया गया (51 प्रतिशत कम कछुए और 81 प्रतिशत कम स्क्विड)। शार्क और स्टिंग रे समूह के साथ किए गए एक अन्य अध्ययन में अधिक बेहतर परिणाम देखने को मिले। इस तकनीक का उपयोग करने से शार्क बायकैच में 95 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कैसे कुछ जीव खुद को हरे प्रकाश से बचा पाते हैं। इस सम्बंध में कई परिकल्पनाएं हैं।

बहरहाल, कारण जो भी हो लेकिन अब मछुआरों को जाल ढोने और सुलझाने में कम समय लगता है। हालांकि इन जालों की ऊंची लागत एक बड़ी बाधा है। एक जाल को रोशनी से लैस करने के लिए लगभग 140 डॉलर (लगभग 10000 रुपए) तक लागत आती है। कुछ मछुआरों के लिए यह बहुत महंगा है। फिलहाल शोधकर्ता सौर उर्जा से चलने वाली एलईडी का परीक्षण कर रहे हैं जो बैटरी चालित एलईडी की तुलना में अधिक समय तक चलती है। इसके साथ ही प्रति जाल कम संख्या में एलईडी के साथ भी प्रयोग किए जा रहे हैं ताकि लागत को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जेनेटिक अध्ययनों में ‘नस्ल’ शब्द के उपयोग में कमी

हाल के एक समीक्षा अध्ययन से पता चला है कि मानव जेनेटिक्स से सम्बंधित शोध पत्रों में ‘नस्ल’ (रेस) शब्द का उपयोग बहुत कम होने लगा है। खास तौर से मानव आबादियों या समूहों का विवरण देते समय उन्हें नस्ल कहने का चलन कम हुआ है। और इसका कारण यह लगता है कि जीव वैज्ञानिकों में आम तौर पर यह समझ विकसित हुई है कि नस्ल वास्तव में जीव वैज्ञानिक नहीं, बल्कि एक सामाजिक रूप से निर्मित श्रेणी है।

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में कई आनुवंशिकीविदों की यह धारणा थी कि मानव नस्लें वास्तव में होती हैं – जैसे नीग्रो या कॉकेशियन – और ये जीव वैज्ञानिक समूह की द्योतक हैं। इस आधार पर विभिन्न जनसमूहों के बारे में धारणाएं बना ली जाती थीं। अलबत्ता, अब वैज्ञानिकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नस्ल जैसी धारणा का कोई जीव वैज्ञानिक आधार नहीं है।

इस संदर्भ में समाज वैज्ञानिक वेंस बॉनहैम देखना चाहते थे कि क्या इस बदलती समझ का असर शोध पत्रों में नज़र आता है। इसे समझने के लिए उन्होंने अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्युमैन जेनेटिक्स (AJHG) में प्रकाशित शोध पत्रों को खंगाला। यह जर्नल जेनेटिक्स विषय का सबसे पुराना जर्नल है और 1949 से लगातार प्रकाशित हो रहा है। बॉनहैम और उनके साथियों ने 1949 से 2018 के बीच AJHG में प्रकाशित 11,635 शोध पत्रों को देखा। उन्होंने पाया कि जहां इस अवधि के पहले दशक में 22 प्रतिशत शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया गया था वहीं पिछले दशक में मात्र 5 प्रतिशत शोध पत्रों में ही यह शब्द प्रकट हुआ।

इसके अलावा, अध्ययन में यह भी देखा गया कि प्रथम दशक में नस्लीय समूहों से सम्बंधित शब्दों – नीग्रो और कॉकेशियन – का इस्तेमाल क्रमश: 21 और 12 प्रतिशत शोध पत्रों में हुआ था। 1970 के दशक के बाद से इसमें गिरावट आई और आखिरी दशक में तो ऐसे शब्दों का उपयोग एक प्रतिशत से भी कम शोध पत्रों में किया गया।

आजकल जब शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया जाता है तो उसके साथ ‘एथ्निसिटी’ या ‘एंसेस्ट्री’ शब्दों को जोड़ा जाता है। अन्य विशेषज्ञों का मत है कि इसकी एक वजह यह हो सकती है कि जेनेटिक्स विज्ञानी अभी भी किसी परिभाषा पर एकमत नहीं हो पाए हैं। इस संदर्भ में यूएस की नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्स, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन विचार-विमर्श कर रही है। अलबत्ता, एक बात साफ है कि शोधकर्ता अब मानते हैं कि नस्ल कोई जीव वैज्ञानिक धारणा नहीं बल्कि एक सामाजिक धारणा है जिसके जैविक असर होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भू-जल में रसायनों का घुलना चिंताजनक – अली खान

हाल में जारी केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 18 राज्यों के 249 ज़िलों का भूजल खारा है, जबकि 23 राज्यों के 370 ज़िलों में मानक से अधिक फ्लोराइड पाया गया है। 21 राज्यों के 154 ज़िलों में आर्सेनिक की शिकायत है। इसी तरह 24 ज़िलों के भूजल में कैडमियम, 94 ज़िलों में लेड, 341 ज़िलों में आयरन और 23 राज्यों के 423 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा स्वीकार्य से अधिक मिली है। कृषि प्रधान राज्य उत्तर प्रदेश के 59, पंजाब के 19, हरियाणा के 21 और मध्य प्रदेश के 51 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक पाई गई है।

बता दें कि इन ज़िलों में उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग और सिंचाई की अवैज्ञानिक तकनीक के चलते यह समस्या पैदा हो रही है। जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा पाचन क्रिया और सांस लेने की तकलीफ को बढ़ा रही है। संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में जल संसाधन मंत्रालय ने केंद्रीय भूजल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भूजल प्रदूषण का ब्यौरा दिया। इसके मुताबिक देश के चार सौ से अधिक ज़िलों के भूजल में घातक रसायन घुलने से पीने के स्वच्छ व शुद्ध जल का गंभीर संकट पैदा हो गया है। कई ज़िलों के भूजल में पहले से ही फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन और भारी धातुएं निर्धारित मानक से अधिक थीं, वहीं ज़्यादातर ज़िलों में नाइट्रेट और आयरन की मात्रा बढ़ रही है।

भूजल में नाइट्रेट बढ़ने के पीछे मानवजनित अतिक्रमण को ज़िम्मेदार बताया गया है। उल्लेखनीय है कि उन राज्यों के भूजल में नाइट्रेट ज़्यादा बढ़ रहा है जहां सघन खेती में उर्वरकों का बेतहाशा उपयोग हो रहा है। भारी धातुओं और अन्य घातक रसायनों के जल में घुलने से पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। यदि समय रहते प्रदूषण की रोकथाम न की गई तो पेयजल संकट खड़ा हो जाएगा।

मालूम हो, प्राकृतिक संसाधन सीमित होते हैं और इनके असीमित उपयोग से संकट खड़ा होना स्वाभाविक है। मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के साम्राज्य का भयानक विनाश किया है। इसका परिणाम है कि पृथ्वी के लगभग तीन-चौथाई भाग पर जल होने के बावजूद राष्ट्र संघ की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि विश्व की आधी आबादी को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। भारत में स्थिति और भी अधिक भयावह है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भूजल में नाइट्रेट की मात्रा का बढ़ना चिंताजनक है।

लोक सभा में लिखित उत्तर में मंत्रालय ने बताया कि 24 सितंबर 2020 की एक अधिसूचना के मुताबिक भूजल ‌की गुणवत्ता के लिए कई सख्त प्रावधान किए गए हैं। जिनमें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित करना और जलाशयों व नदियों में गंदा पानी डालने के सारे स्रोतों को बंद करना शामिल है। इसी अधिसूचना के तहत केंद्र व राज्य सरकारें संयुक्त रूप से जल जीवन मिशन का संचालन कर रहीं हैं ताकि लोगों को उनके घर तक नल से सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति की जा सके। गौरतलब है कि इस मिशन की शुरुआत अगस्त 2019 में की गई थी। इसके तहत वर्ष 2024 तक देश के सभी ग्रामीण घरों को जलापूर्ति सुनिश्चित की जानी है।

स्वास्थ्य संगठन के प्रतिवेदन के मुताबिक लगभग 80 फीसदी रोगों का कारण जल है। इसी प्रकार, आयुर्वेद के अनुसार जल कई रोगों का शामक है।

जानकारी के लिए बता दें कि नाइट्रेट नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन के संयोग से बने हुए ऐसे यौगिक होते हैं जो कई खाद्य पदार्थों, विशेषतः सब्ज़ियों, मांस एवं मछलियों में पाए जाते हैं। वस्तुतः नाइट्रेट जैविक नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के अंतिम उत्पाद होते हैं। पानी में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता तथा मृदा कणों की कम धारण क्षमता के कारण अति सिंचाई या अति वर्षा से खेतों में से बहता पानी अपने साथ नाइट्रेट को भी बहाकर कुंओं, नालों एवं नहरों में ले जाता है। इस प्रकार मनुष्य और पशुओं के पीने का पानी नाइट्रेट प्रदूषित हो जाता है।

देश की जनसंख्या के लिए अनाज उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरकों का अधिकतम उपयोग हो रहा है। विगत वर्षों में देश में नाइट्रोजन उर्वरकों की खपत बहुत बढ़ी है। वैज्ञानिकों ने भूजल में बढ़ती हुई नाइट्रेट सांद्रता का प्रमुख कारण नाइट्रोजन उर्वरक को ही माना है। यह भी देखा गया है कि उर्वरकों के संतुलित उपयोग की अपेक्षा मात्र नाइट्रोजन उर्वरक के उपयोग की वजह से ऐसी स्थिति पैदा होती है।

पेयजल में नाइट्रेट की अधिक सांद्रता मानव, मवेशी, जलीय जीव तथा औद्योगिक क्षेत्र को भी प्रभावित करती है। वस्तुतः नाइट्रेट स्वयं स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता है, परंतु इसके अपचयन से बने नाइट्राइट की वजह से इसकी अत्यल्प मात्रा भी घातक हो जाती है। नाइट्रेट जब जल या भोजन के माध्यम से शरीर मे प्रवेश करता है तो शरीर के जीवाणुओं द्वारा नाइट्राइट में परिवर्तित कर दिया जाता है जो एक सशक्त ऑक्सीकारक होता है। यह रक्त में हीमोग्लोबिन को मेट-हीमोग्लोबिन में बदल देता है, जिसके कारण हीमोग्लोबिन अपनी ऑक्सीजन परिवहन की क्षमता गंवा देता है। अत्यधिक रूपांतरण की स्थिति में आंतरिक श्वास-अवरोध हो सकता है जिसके लक्षण चमड़ी तथा म्यूकस झिल्ली के हरे-नीले रंग से पहचाने जा सकते हैं। इसे ब्ल्यू बेबी सिंड्रोम या साइनोसिस भी कहते हैं। छोटे बच्चों में यह रूपांतरण दुगनी गति से होता है। दूध पीते बच्चों की माताओं द्वारा उच्च नाइट्रेट युक्त जल पीने से दूध भी विषाक्त हो जाता है।

रूस के वैज्ञानिकों ने नाइट्रेट विषाक्तता के दुष्प्रभाव केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर भी देखे हैं। ये प्रभाव मात्र 105 से 182 मिलीग्राम प्रति लीटर नाइट्रेट सांद्रण पर ही दिखने लगते हैं। इसी प्रकार हृदय संवहनी तंत्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव देखे गए हैं।

नाइट्रेट के परिवर्तन से बना नाइट्राइट एन-नाइट्रोसो यौगिक बनाता है जो कैंसरकारी होते हैं। अनुसंधान से पता चला है कि उच्च नाइट्रेट युक्त जल तथा पाचन तंत्र के कैंसर में गहरा सम्बंध है। कुल मिलाकर, जल में नाइट्रेट की बढ़ती मात्रा विभिन्न रोगों को न्यौता देती है।

जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा मवेशियों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। एक अध्ययन में गाय, भैंस, बकरी जैसे दुधारू मवेशियों में नाइट्रेट विषाक्तता देखी गई है। जई, बाजरा, मक्का, गेहूं, जौ, सूडान ग्रास तथा राई ग्रास ऐसे पौधे हैं जिनमें नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है। यदि चारे को ऐसी भूमि में उगाया जाए जिसमें कार्बनिक तथा नाइट्रोजन तत्व अधिक हों और नाइट्रोजन उर्वरक अधिक मात्रा में प्रयोग किए गए हों तो ऐसी स्थिति में चारे में नाइट्रेट विषाक्तता अधिक हो जाती है। नाइट्रेट विषाक्तता पशुओं में जठर आंत्र शोथ उत्पन्न करती है। चारागाह में चरते पशुओं की अचानक मृत्यु भी देखी गई है। तेज़ दर्द, लार-गिरना, कभी-कभी पेट फूलना तथा बहुमूत्रता जैसे लक्षणों के साथ रोग का एकाएक प्रकोप होता है। श्वास का तेज़ी से चलना तथा श्वास में कष्ट होेना, तेज़ नाड़ी, लड़खड़ाना एवं तापमान का कम हो जाना भी इस रोग के अन्य लक्षण हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान इज़्ज़तनगर (बरेली) के वैज्ञानिकों ने पाया है कि पैरा घास या अंगोला (ब्रैकिएरिया म्यूटिका) खाने से बछड़ों में अति तीव्र नाइट्रेट विषाक्तता और बकरियों में चिरकालिक नाइट्रेट विषाक्तता हो जाती है। देश के शुष्क क्षेत्रों में गर्मियों के दिनों में प्यासे पशु जब एक साथ अत्यधिक नाइट्रेट युक्त पानी पी लेते हैं तो उनमें नाइट्रेट विषाक्तता उत्पन्न हो जाती है जो कभी-कभी उनकी मृत्यु का कारण भी बन जाती है। कई दुधारू पशुओं में नाइट्रेट युक्त पानी पीने से दुग्धस्राव में कमी एवं गर्भपात भी देखे गए हैं।

सवाल यह है कि जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा को कैसे कम किया जाए? जल में नाइट्रेट की उपस्थिति पर सरकारें गंभीर क्यों नहीं हैं? गौरतलब है कि जल राज्य सूची का विषय है। राज्य सरकारें जल में बढ़ते प्रदूषक तत्वों के प्रति ढिलाई बरत रही हैं। केंद्र सरकार का रवैया उदासीन रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पानी को समवर्ती सूची में शामिल किया जाए। ऐसा होने पर व्यापक कार्य योजना विकसित करने में मदद मिलेगी। केंद्र और राज्यों के बीच सहमति से भूजल सहित जल का बेहतर संरक्षण, विकास और प्रबंधन संभव होगा।

जल में नाइट्रेट के कहर को देखते हुए इसके अधिक सांद्रण को कम किया जाना चाहिए। जल में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता के कारण इसका जल से अपनयन दुष्कर कार्य होता है। कृषि प्रधान देशों में नाइट्रेट प्रदूषण एक बड़ी समस्या बन चुका है। वर्तमान में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर हमारे देश के 16 राज्यों के भूजल में नाइट्रेट का सांद्रण 45 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक है। इनमें कई राज्यों के भूजल में कुल घुलनशील ठोस का मान भी अधिक है। पेयजल आपूर्ति में नाइट्रेट मुक्त जल प्राप्त करने हेतु वैकल्पिक विधियां अपनाए जाने की दरकार है। ऐसे क्षेत्रों में जहां जल में नाइट्रेट स्तर अधिक हो वहां नलकूप खोदकर जलापूर्ति करना, सपाट कुओं को चौड़ा करना अथवा अधिक गहराई से जल प्राप्त करने की कोशिशें होनी चाहिए। साथ ही जल संसाधन मंत्रालय को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के सहयोग से डार्क ब्लॉक्स में स्थित गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों को चिंहित करने के लिए कारगर तंत्र विकसित करना चाहिए। सतही जल और भूमिगत जल स्रोतों में औद्योगिक कचरे की डंपिंग को कम करने और नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। साथ ही केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने जिन उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किए हैं, उनकी नियमित निगरानी के लिए एक व्यवस्था कायम की जानी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि प्रमाण पत्र में दर्ज शर्तों का पालन किया जा रहा है। सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडलों को उपयुक्त और प्रभावी निगरानी तंत्र गठित करना चाहिए। आज जल संरक्षण हमारा विशेष सरोकार होना चाहिए, जिससे इस समस्या को विकराल रूप धारण करने से रोका जा सके।(स्रोत फीचर्स)

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बालासुब्रमण्यम राममूर्ति: भारत में न्यूरोसर्जरी के जनक – नवनीत कुमार गुप्ता

हान वैज्ञानिकों के योगदान ने सदियों से भारत को पूरे विश्व में गौरवान्वित किया है। ऐसे महान लोग सदियों तक जनमानस को प्रेरित करते हैं। प्रोफेसर बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ऐसे ही बिरले वैज्ञानिकों में से थे।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति को भारत में न्यूरोसर्जरी का जनक भी कहा जाता है। न्यूरोसर्जन के अलावा वे प्रसिद्ध लेखक और संपादक भी थे। उनका शोधकार्य तंत्रिका तंत्र की चोटों, ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी, मस्तिष्क के तपेदिक संक्रमण, तंत्रिका-कार्यिकी, स्टीरियोटैक्टिक (त्रिविम स्थान निर्धारण) सर्जरी, चेतना और बायोफीडबैक विषयों पर केंद्रित था। उन्होंने स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी के दौरान मस्तिष्क की गहरी संरचनाओं की तंत्रिका-कार्यिकी का अध्ययन किया। इससे मिर्गी सहित मस्तिष्क सम्बंधी विभिन्न बीमारियों को अच्छे से समझा जा सका।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति संगीत और मस्तिष्क पर इसके प्रभाव में गहरी रुचि रखते थे। उन्होंने न्यूरोसर्जरी इंडिया की स्थापना की। उनकी आत्मकथा अपहिल ऑल द वे प्रेरणा का एक सतत स्रोत है।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति का जन्म 30 जनवरी 1922 सिरकाज़ी में हुआ था। उनके पिता कैप्टन टी. एस. बालासुब्रमण्यम सरकारी अस्पताल में सहायक सर्जन थे। उनके दादा के भाई जी. सुब्रमण्यम अय्यर थे, जो अंग्रेजी दैनिक दी हिंदू के संस्थापकों में से एक थे। बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने त्रिची के ईआर हाई स्कूल में अध्ययन के उपरांत मद्रास मेडिकल कॉलेज से जनरल सर्जरी में एमएस और 1947 में एडिनबरा से एफआरसीएस की उपाधि प्राप्त की।

युवा राममूर्ति को मद्रास सरकार द्वारा न्यूरोसर्जरी में प्रशिक्षण के लिए चुना गया था और वे 2 जनवरी 1949 को न्यूकैसल पहुंचे। न्यूकैसल में उन्होंने जी. एफ. रोबोथम के अधीन प्रशिक्षण प्राप्त किया, और फिर मैनचेस्टर में प्रोफेसर जेफ्री जेफरसन के साथ समय बिताया। उन्होंने युरोप में विभिन्न केंद्रों का दौरा किया। 1950 में डॉ. राममूर्ति मॉन्ट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट में चले गए और प्रो. वाइल्डर पेनफील्ड के साथ चार महीने बिताए। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद वे अपने साथ न्यूरोसर्जरी की ब्रिटिश, अमेरिकी, कनाडाई और युरोपीय घरानों की परंपराओं को लेकर मद्रास लौट आए।

24 अक्टूबर 1950 को बालासुब्रमण्यम राममूर्ति मद्रास जनरल अस्पताल और मद्रास मेडिकल कॉलेज में न्यूरोसर्जरी में सहायक सर्जन के रूप में शामिल हुए और मद्रास में न्यूरोसर्जरी का आयोजन शुरू किया। 1970 के दशक की शुरुआत में, प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने कनाडा में मॉन्ट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट की तर्ज पर इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजी, मद्रास की स्थापना की, जिसमें न्यूरोसाइंस की सभी शाखाएं एक छत के नीचे थीं। बड़ी बाधाओं और कठिनाइयों के खिलाफ, प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने न्यूरोसर्जिकल विभाग का निर्माण और विकास किया, जो बाद में सरकारी जनरल अस्पताल में न्यूरोलॉजी संस्थान के रूप में विकसित हुआ, जहां वे 1978 में अपनी सेवानिवृत्ति तक प्रोफेसर और प्रमुख थे। प्रो. राममूर्ति और उनकी टीम स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी करने वाली भारत की सबसे पहली टीम बनी।

उन्होंने 1977-1978 में अडयार में स्वैच्छिक स्वास्थ्य सेवा (वीएचएस) अस्पताल में डॉ. ए. लक्ष्मीपति न्यूरोसर्जिकल सेंटर की शुरुआत की। प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने अस्पताल के डीन और मद्रास मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल और मद्रास विश्वविद्यालय के मानद कुलपति के रूप में अपने लंबे और व्यापक वर्षों के दौरान एक शिक्षक, संरक्षक और मार्गदर्शक के रूप में कार्य किया। उन्हें 1987 में वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ न्यूरोसर्जिकल सोसाइटीज़ के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। वे भारत के राष्ट्रीय चिकित्सा परीक्षा बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे।

उन्होंने डॉ. राजा सहित कई प्रतिष्ठित न्यूरोसर्जनों को प्रशिक्षित किया, जिन्हें अब कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज, मणिपाल में न्यूरोसर्जरी विभाग के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। प्रो. राममूर्ति स्वयं कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज, मणिपाल में न्यूरोसर्जरी विभाग से जुड़े रहे हैं और उन्होंने अपने छात्र डॉ. राजा को वहां न्यूरोसर्जरी विभाग में शामिल होने के लिए राजी किया, और उन्नत चिकित्सा उपकरणों के उपयोग का उद्घाटन भी किया।

सीखने और लगातार अग्रिम शोध से संपर्क में रहने की उनकी उत्सुकता इस बात में झलकती है कि 1980 के दशक में, माइक्रोसर्जिकल तकनीकों के लाभों को देखते हुए, उन्होंने पहले खुद सीखा, अभ्यास किया और फिर न्यूरोसर्जरी में माइक्रोसर्जरी की पुरज़ोर वकालत की। वे सीटी और एमआरआई स्कैन पढ़ने में उतने ही माहिर थे, जितने एक्स-रे, ईईजी, न्यूमोएन्सेफेलोग्राम, वेंट्रिकुलोग्राम और एंजियोग्राम पढ़ने में थे।

देश में मस्तिष्क अनुसंधान के समन्वय के लिए एक शीर्ष निकाय के रूप में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र, मानेसर की स्थापना में उनकी अहम भूमिका रही। इस दिशा में उनके दो दशकों से अधिक समय के प्रयासों का फल तब मिला जब भारत के राष्ट्रपति ने औपचारिक रूप से 16 दिसंबर 2003 को नई दिल्ली के पास मानेसर में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र का उद्घाटन किया।

वे नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज़, एकेडमी ऑफ साइंसेज़, इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी सहित रॉयल सोसाइटी ऑफ मेडिसिन, लंदन के फेलो थे। वे उन बिरले लोगों में से थे जिन्हें भारत की तीनों विज्ञान अकादमियों का फेलो चुना गया था। भारत के सशस्त्र बलों ने उन्हें सेना में ब्रिगेडियर के मानद पद से सम्मानित किया।

उन्हें श्री राजा-लक्ष्मी फाउंडेशन चेन्नई द्वारा 1987 में राजा-लक्ष्मी पुरस्कार के अलावा भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण और प्रतिष्ठित धनवंतरी पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। चेन्नई में राममूर्ति तंत्रिका विज्ञान संग्रहालय का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है। उन्होंने न्यूरोसर्जन्स की युवा पीढ़ी को अपने पेशेवर और व्यक्तिगत जीवन में उत्कृष्टता हासिल करने के लिए मार्गदर्शन दिया।(स्रोत फीचर्स)

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मनुष्य निर्मित पहला संकर पशु कुंगा

सीरिया के उम्म-अल-मारा खुदाई स्थल पर पुरातत्वविदों को 2006 में लगभग 3000 ईसा पूर्व के शाही कब्रगाहों के साथ गधे जैसे एक जानवर के अवशेष भी मिले थे। दफन की शैली को देखकर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह जानवर दुर्लभ ‘कुंगा’ होगा, जो कांस्य युगीन मेसोपोटामिया के अभिजात्य वर्ग के लिए अत्यधिक महत्व रखता था। लेकिन अब तक इस चौपाए की वास्तविक जैविक पहचान स्पष्ट नहीं हो सकी थी। अब, प्राप्त हड्डियों के जेनेटिक विश्लेषण से पता चला है कि यह चौपाया दो प्रजातियों – एक नर जंगली गधे और पालतू मादा गधी – की संकर संतान थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में यह पहला मानव निर्मित संकर प्राणि है।

उस समय की कीलाक्षरी लिपि तख्तियों पर एक शक्तिशाली और नाटे कद के कुंगा का वर्णन यहां के अमीर और शक्तिशाली लोगों के पसंदीदा जानवर के तौर पर मिला है। यह ज्ञात प्रजातियों से अलग तरह का गधा था। इन तख्तियों पर पशुपालन के जटिल तरीकों के बारे में भी वर्णन मिलता है; इनमें अश्वों की दो अलग-अलग प्रजातियों का प्रजनन कराकर संकर जानवर तैयार करने का ज़िक्र है। ये तख्तियां बहुत विस्तार से जानकारी नहीं देती कि ये प्रजातियां कौन-सी थीं, और संकर संतान प्रजनन योग्य थी या नहीं। लेकिन इन पर अंकित संदेश से इतना पता चलता है कि संकर प्रजाति औसत गधों की तुलना में फुर्तीली थी।

पुरातत्वविदों को जब ये हड्डियां मिली तो वे किसी ज्ञात प्रजाति की नहीं लगीं। वैसे भी सिर्फ अवशेष देखकर यह पहचानना मुश्किल होता कि वे किस अश्व वंश की हैं, घोड़े की हैं या गधे की।

इन हड्डियों के दफन होने के स्थान और स्थिति के आधार पर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह चौपाया यहां के लोगों के लिए पौराणिक महत्व रखता होगा और अवश्य ही कुंगा होगा। लेकिन वास्तव में यह कौन-सा जानवर है इसकी पुष्टि के लिए पुरातत्वविदों ने आनुवंशिकीविद ईवा-मारिया गीगल की सहायता ली। हड्डियां बहुत भुरभुरी स्थिति में थी। इसलिए गीगल और उनके दल ने इनके नाभिकीय डीएनए के विश्लेषण के लिए अत्यधिक संवेदनशील अनुक्रमण विधियों का उपयोग किया, और साथ ही उनके मातृ और पितृ वंश को भी देखा। कुंगा के डीएनए की तुलना आधुनिक घोड़ों, पालतू गधों और विलुप्त सीरियाई जंगली गधे सहित अन्य अश्व वंश के जानवरों के जीनोम से भी की गई।

साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने बताया है कि हड्डियां किसी एक अश्व प्रजाति की नहीं थी, बल्कि ये दो भिन्न प्रजातियों के संकरण की पहली पीढ़ी की संतान थी; जिसमें मादा पालतू गधा प्रजाति की और नर सीरियाई जंगली गधा प्रजाति का था।

मानव निर्मित संकर प्राणि का यह पहला दर्ज उदाहरण है। खच्चर (घोड़े और गधे का संकर) संभवतः अगला सबसे पुराना उदाहरण है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन कांस्य युगीन मेसोपोटामिया समाज की तकनीकी क्षमताओं को दर्शाता है और इन जानवरों को जीवित रखने के लिए आवश्यक संगठन और प्रबंधन तकनीकों के स्तर को भी दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बर्फ में दबा विशाल मछली प्रजनन क्षेत्र

रवरी 2021 में, एक बड़ा जर्मन शोध जहाज़ आरवी पोलरस्टर्न समुद्री जीवन का अध्ययन करने के लिए वेडेल सागर की ओर रवाना हुआ था। अध्ययन में वैज्ञानिकों को वेडेल सागर के नीचे मछलियों की सबसे बड़ी और घनी आबादी वाली प्रजनन कॉलोनी मिली है। अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्व में स्थित आइसफिश की यह कॉलोनी लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली है जिसमें इनके अनगिनत घोंसले नियमित अंतराल पर बने हैं।

अल्फ्रेड वेगनर इंस्टीट्यूट के ऑटन पर्सर और उनके दल ने जब समुद्र सतह से आधा किलोमीटर नीचे, समुद्र के पेंदे के नज़दीक, वीडियो कैमरा और अन्य उपकरण डाले तो उन्हें वहां लगभग 75-75 सेंटीमीटर चौड़े हज़ारों आइसफिश के घोंसले दिखे। इन गोलाकार घोंसलों को वयस्क आइसफिश अपने पेल्विक फिन से बजरी और रेत को हटाकर बनाती हैं। हर घोंसले में एक वयस्क आइसफिश थी और प्रत्येक में 2100 तक अंडे थे।

सोनार तकनीक की मदद से पता लगा कि मछलियों के ये घोंसले सैकड़ों मीटर तक फैले हैं। उच्च विभेदन वाले वीडियो और कैमरों ने 12,000 से अधिक वयस्क आइसफिश (नियोपैगेटोप्सिस आयोना) को कैद किया।

लगभग 60 सेंटीमीटर लंबी यह आइसफिश अत्यधिक ठंडे वातावरण में रहने के लिए अनुकूलित है। ये एंटीफ्रीज़ किस्म के रसायनों (जो बर्फ बनने से रोकते हैं) का उत्पादन करती हैं। और इस इलाके में पानी में भरपूर ऑक्सीजन पाई जाती है जिसके चलते ये एकमात्र कशेरुकी जीव हैं जिनका रक्त हीमोग्लोबिन रहित रंगहीन होता है।

अपनी तीन यात्राओं के दौरान शोधकर्ताओं को आइसफिश के पास-पास स्थित 16,160 घोंसले दिखे। इनमें से 76 प्रतिशत घोंसलों की रक्षा एक-एक इकलौता नर कर रहा था। करंट बायोलॉजी जर्नल में शोधकर्ताओं ने अनुमान व्यक्त किया है कि यदि पूरे क्षेत्र में घोंसले इतनी ही सघनता से फैले होंगे तो लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में 6 करोड़ घोंसले होंगे। इनकी इतनी अधिक संख्या देखते हुए लगता है कि आइसफिश और उनके अंडे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में प्रमुख भूमिका निभाते होंगे।

शोधकर्ताओं का कहना है कि वयस्क आइसफिश पानी की धाराओं की मदद से अंडे देने के लिए उचित जगह तलाशती होंगी, जहां का पानी जंतु-प्लवकों से समृद्ध होगा और जहां उनकी संतानों के लिए पर्याप्त भोजन मिलेगा। इसके अलावा, घोंसलों की सघनता शिकारियों से बचने में मदद करती होगी।

मछलियों की नई विशाल कॉलोनी मिलना वेडेल सागर को संरक्षित क्षेत्र बनाने का एक नया कारण है। हालांकि वेडेल सागर अब तक मछलियों के शिकार जैसी गतिविधि से सुरक्षित है, लेकिन इस सुरक्षित और पारिस्थितिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र को सुरक्षित बनाए रखने के लिए और प्रयास करने होंगे।

बहरहाल शोधकर्ता आइसफिश के प्रजनन और घोंसले बनाने सम्बंधी व्यवहार के बारे में अधिक जानने को उत्सुक व तैयार हैं।(स्रोत फीचर्स)

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जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर

पृथ्वी पर जीवन के इतिहास के बारे में हमारी समझ विकसित करने में जीवाश्मों की एक बड़ी भूमिका रही है। जीवाश्मों से हमें जैव-विकास और पौधों एवं जीव-जंतुओं में अनुकूलन के महत्वपूर्ण साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इन साक्ष्यों की मदद से विभिन्न प्रजातियों के आपसी सम्बंध के बारे में भी जानकारी मिलती है। लेकिन एक हालिया अध्ययन बताता है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर है। इस विश्लेषण के अनुसार 97 प्रतिशत जीवाश्म सम्बंधी डैटा अमेरिका, जर्मनी और चीन जैसे उच्च और उच्च-मध्यम आय वाले देशों के वैज्ञानिकों से प्राप्त हुआ है।

इस अध्ययन में शामिल फ्राइडरिच एलेक्जे़ंडर युनिवर्सिटी की जीवाश्म वैज्ञानिक नुसाइबा रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड के उच्च आय वाले देशों के वैज्ञानिकों के पास संकेंद्रित होने की संभावना तो थी लेकिन इतने अधिक प्रतिशत की उम्मीद नहीं थी। रजा और उनकी टीम का मानना है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का अमीर देशों की ओर झुकाव जीवन के इतिहास के बारे में शोधकर्ताओं की समझ को प्रभावित कर सकता है। यह अध्ययन नेचर इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुआ है।        

रजा और उनके सहयोगियों ने इस अध्ययन के लिए पैलियोबायोलॉजी डैटाबेस (पीबीडीबी) का उपयोग किया। पीबीडीबी में 80,000 शोध पत्रों से 15 लाख से अधिक जीवाश्म रिकॉर्ड शामिल हैं। टीम ने अपने अध्ययन में 1990 से 2020 के बीच पीबीडीबी में शामिल किए गए 29,039 शोध पत्रों का विश्लेषण किया है। इनमें से एक तिहाई से अधिक रिकॉर्ड अमेरिकी वैज्ञानिकों के पाए गए जबकि शीर्ष पांच में जर्मनी, यूके, फ्रांस और कनाडा के वैज्ञानिक शामिल थे। इस विश्लेषण में शोधकर्ताओं के अपने देश में पाए गए जीवाश्मों के साथ-साथ विदेशों में पाए गए जीवाश्म भी शामिल हैं।

आंकड़ों के मुताबिक अमेरिकी शोधकर्ताओं ने घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय जीवाश्म दोनों पर लगभग समान रूप से काम किया जबकि युरोपीय देशों के वैज्ञानिकों ने अधिकांश जीवश्मीय अध्ययन विदेशों में किए हैं। जैसे, स्विट्ज़रलैंड के वैज्ञानिकों की 86 प्रतिशत जीवश्मीय खोजें विदेशों में की गई हैं।

विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि कई देशों में दशकों पहले खत्म हुए औपनिवेशिक सम्बंध आज भी जीवाश्म विज्ञान को प्रभावित कर रहे हैं। मोरक्को, ट्यूनीशिया और अल्जीरिया में एक चौथाई से अधिक जीवाश्मीय अध्ययन फ्रांसीसी वैज्ञानिकों द्वारा किए गए हैं। ये तीनों देश पूर्व फ्रांसीसी कॉलोनी रहे हैं। इसके अलावा, दक्षिण अफ्रीका और मिस्र में जीवाश्म का अध्ययन करने वाले 10 प्रतिशत शोध पत्रों में यूके के शोधकर्ता शामिल हैं जबकि तंज़ानिया के जीवाश्मों पर प्रकाशित 17 प्रतिशत शोध पत्र जर्मन वैज्ञानिकों के हैं।

कई मामलों में इन शोध कार्यों में स्थानीय लोगों को शामिल नहीं किया गया है। इस तरीके को आम तौर पर ‘पैराशूट विज्ञान’ कहा जाता है। रजा और उनकी टीम ने एक पैराशूट सूचकांक तैयार किया है जो यह दर्शाता है कि किसी देश का कितना जीवाश्मीय डैटा स्थानीय वैज्ञानिकों को शामिल किए बिना तैयार किया गया है। यह अनुपात म्यांमार और डोमिनिक गणराज्य में सर्वाधिक रहा। इन दोनों देशों में काफी मात्रा में एम्बर में संरक्षित जीवाश्म पाए जाते हैं।

शोधकर्ताओं का मानना है कि जीवाश्म विज्ञान पर अमीर देशों का अत्यधिक प्रभाव जीवन के इतिहास के बारे में एक विकृत दृष्टिकोण पैदा कर सकता है। पीबीडीबी जैसे संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवाश्म विज्ञान का अध्ययन करने वाले शोधकर्ता इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है कि जीवाश्म रिकॉर्ड अनगिनत पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होता है। इनमें चट्टान की उम्र और उसका प्रकार शामिल है जिसमें जीवाश्म संरक्षित रह सकते हैं। लेकिन आम तौर पर जीवाश्म को एकत्रित करने वाले व्यक्ति के पूर्वाग्रहों पर कम ध्यान दिया जाता है। रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड को प्रभावित करने वाले भौतिक कारकों पर तो बात होती है लेकिन मानवीय कारकों के बारे में नहीं।

कुछ अन्य जीवाश्म विशेषज्ञ इस अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते हैं जो पैराशूट विज्ञान जैसी प्रवृत्तियों को उजागर कर सकते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि वैज्ञानिक ज्ञान को कुछ क्षेत्रों तक सीमित नहीं रखना चाहिए और न ही इसे मुट्ठी भर देशों के शोधकर्ताओं द्वारा निर्मित किया जाना चाहिए। पैराशूट विज्ञान से न सिर्फ जीवाश्म विज्ञान प्रभावित होता है बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी नुकसान होता है। जीवाश्म खोजें पर्यटकों को संग्रहालयों की ओर आकर्षित करके स्थानीय अर्थव्यवस्था को सहायता प्रदान करती हैं। यदि विदेशी वैज्ञानिक इन जीवाश्मों को अपने देश ले जाते हैं तो स्थानीय लोग इनका लाभ नहीं प्राप्त कर पाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

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अंग दाएं-बाएं कैसे जम जाते हैं?

बाहर से देखने पर तो मनुष्य एकदम सुडौल, सममित लगते हैं यानी दाहिनी तरफ और बाईं तरफ एक से हाथ, पैर, आंखें, कान वगैरह होते हैं। लेकिन अंदर झांकेंगे तो मामला अलग होता है। सबको पता है कि दिल सीने में थोड़ा बाईं ओर होता है जबकि जिगर उदर में दाईं ओर। कुछ लोगों में ज़रूर इनमें से कुछ अंगों की स्थिति पलट जाती है। सवाल यह रहा है कि आखिर इन अंगों को अपनी सही स्थिति में पहुंचने का आदेश कहां से मिलता है। अब शोधकर्ताओं ने एक जीन खोज निकाला है जो इस व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार है।

भ्रूण के विकास का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को यह तो काफी समय से पता रहा है कि कुछ जीन्स ऐसे होते हैं जो भ्रूण की शुरुआती सममिति को तोड़ते हैं और अंगों को अपना पाला तय करने में मदद करते हैं। शोधकर्ता यह भी जानते थे कि दिल तथा कतिपय अन्य अंगों को मध्यरेखा से अलग स्थिति में पहुंचाने में कुछ कोशिकाओं की भूमिका है जिन्हें दायां-बायां व्यवस्थापक कहते हैं। 1998 में चूहों पर किए गए अध्ययनों के आधार पर जापान के वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि इनमें से कुछ व्यवस्थापक-कोशिकाओं में रोम होते हैं और इन रोग की गति कुछ ऐसी होती है कि वे भ्रूण के तरल को बाईं ओर भेजते हैं, दाईं ओर नहीं। तरल के असमान प्रवाह की वजह से अंग सही जगहों पर बनते हैं। तरल का यह असमान प्रवाह बाईं ओर की कोशिकाओं में कुछ जीन्स को सक्रिय कर देता है। आगे चलकर पता चला कि मछलियों और मेंढकों में भी ऐसा ही होता है।

लेकिन अचरज की बात यह रही कि कोशिकाओं का ऐसा समूह मुर्गियों और सुअरों के विकसित होते भ्रूण में नहीं पाया जाता जबकि इनके दिल भी एक बाजू ही बनते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि घुमावदार गति वाले रोम जंतु विकास में काफी प्राचीन काल में प्रकट हुए थे लेकिन फिर किसी कारण से कुछ जंतुओं में ये लुप्त हो गए – जैसे सुअरों, स्तनधारियों में और पक्षियों में। लेकिन मनुष्यों में ये बरकरार रहे।

तो सिंगापुर के जीनोम इंस्टीट्यूट के ब्रुनो रेवरसेड और पेरिस के इमेजिन इंस्टीट्यूट के क्रिस्टोफर गॉर्डन देखना चाहते थे इस बेडौल विकास के लिए क्या कोई नया जीन ज़िम्मेदार है। इन शोधकर्ताओं के दल ने यह देखना शुरू किया कि वे कौन-से जीन हैं जो चूहों, मछलियों और मेंढकों के विकासमान भ्रूणों में तो सक्रिय होते हैं लेकिन सुअरों के विकास की उस अवस्था में अक्रिय होते हैं जब तरल का प्रवाह नहीं हो रहा होता।

शोधकर्ताओं ने नेचर जेनेटिक्स जर्नल में बताया है कि उन्हें पांच ऐसे जीन मिले। वे जानते थे कि वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं क्योंकि इन पांच में से तीन जीन्स के बारे में पहले से ही पता था कि वे प्रवाह-प्रेरित सममिति भ्रंश के लिए ज़िम्मेदार हैं। शेष रहे दो जीन्स। इनमें से एक का नामकरण सिरॉप (CIROP) किया गया है।

शोधकर्ताओं ने इस जीन में एक ऐसा परिवर्तन कर दिया कि जब यह सक्रिय हो तो एक चमक पैदा करे। इसकी मदद से शोधकर्ताओं को यह पता चला कि सिरॉप जीन ज़ेब्रा मछली, चूहों और मेंढकों के भ्रूण में मात्र कुछ घंटों के लिए सक्रिय रहता है जब दायां-बायां व्यवस्थापक बनता है। जब इस जीन को निष्क्रिय कर दिया गया तो पता चला कि इसकी ज़रूरत भ्रूण के सिर्फ बाएं हिस्से में होती है ताकि दिल, आंतें व पित्ताशय सही जगह पर बन जाएं। यानी सिरॉप इन अंगों की स्थिति निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाता है।

मनुष्यों की बात करें तो हर 10 हज़ार में से एक व्यक्ति गलत जगह स्थित अंगों के साथ पैदा होता है। इसे हेटेरोटैक्सी कहते हैं। रेवरसेड की टीम ने हेटेरोटैक्सी से ग्रस्त 183 लोगों के सिरॉप जीन का अनुक्रमण किया और उन्हें 12 परिवारों के 21 व्यक्तियों में सिरॉप में उत्परिवर्तन देखने को मिले। वैसे सिरॉप की खोज से इस समस्या का इलाज करने में कोई मदद शायद न मिले लेकिन यह महत्वपूर्ण तो है ही। शोधकर्ताओं को कुछ अंदाज़ तो है कि यह जीन सममिति को कैसे तोड़ता है लेकिन वे और अध्ययन करना चाहते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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टीकों को चकमा देता ओमिक्रॉन

प्रयोगशाला से प्राप्त डैटा से पता चला है कि व्यापक रूप से उपयोग किए जा रहे टीके तेज़ी से फैल रहे ओमिक्रॉन संस्करण के विरुद्ध न के बराबर सुरक्षा प्रदान करते हैं।

गौरतलब है कि कुछ टीकों में निष्क्रिय किए गए वायरस का उपयोग किया जाता है। ये टीके स्थिर होते हैं और इनका निर्माण अपेक्षाकृत रूप से आसान होता है। लेकिन प्रयोगों से यह साबित हुआ है कि ये ओमिक्रॉन के विरुद्ध अप्रभावी रहे हैं।

ऐसे निष्क्रिय-वायरस आधारित टीकों की दोनों खुराकें मिलने के बाद भी ऐसे प्रतिरक्षा अणुओं का निर्माण नहीं हुआ जो ओमिक्रॉन संक्रमण का मुकाबला कर सकें। और तो और, तीसरी खुराक के बाद भी ‘न्यूट्रलाइज़िंग’ एंटीबॉडी का स्तर कम पाया गया जो कोशिकाओं को संक्रमण के खिलाफ शक्तिशाली सुरक्षा प्रदान करती हैं। दूसरी ओर, mRNA या प्रोटीन-आधारित टीकों की तीसरी खुराक ओमिक्रॉन के विरुद्ध बेहतर सुरक्षा प्रदान करती है।

ये निष्कर्ष निष्क्रिय-वायरस आधारित टीकों की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करने की ज़रूरत दर्शाते हैं।

पिछले वर्ष विश्वभर के टीकाकरण अभियान में निष्क्रिय -वायरस टीकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अब तक वितरित 11 अरब टीकों में से चीन द्वारा निर्मित सायनोवैक और सायनोफार्म की हिस्सेदारी 5 अरब रही है। इसके अलावा भारत में निर्मित कोवैक्सिन, ईरान द्वारा निर्मित कोविरॉन बरेकत और कज़ाकिस्तान द्वारा निर्मित क्वैज़वैक जैसे टीकों की भी 20 करोड़ से अधिक खुराकें वितरित की जा चुकी हैं। ये सभी टीके गंभीर बीमारी या मृत्यु से सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम रहे हैं।

हांगकांग के शोधकर्ताओं द्वारा कोरोनावैक टीका प्राप्त 25 लोगों के रक्त के विश्लेषण में एक भी व्यक्ति में ओमिक्रॉन संस्करण के विरुद्ध न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी नहीं पाई गई। शोधकर्ताओं का मत है कि इस टीके से ओमिक्रॉन संक्रमण का जोखिम बना रहता हैं। वैसे सायनोवैक ने अपने आंतरिक आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया है कि कंपनी का टीका प्राप्त करने वाले 20 में से 7 लोगों में ओमिक्रॉन को निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडी पाई गई हैं। भारत बायोटेक (कोवैक्सिन) और चीनी कंपनी सायनोफार्म (बीबीआईबीपी-कोरवी) ने भी ओमिक्रॉन के विरुद्ध निष्क्रिय -वायरस टीकों के कुछ हद तक प्रभावी होने का दावा किया है।

इस टीके की तीसरी खुराक से कई लोगों में न्यूट्रलाइज़िंग गतिविधि बहाल हुई है। शंघाई जियाओ टोंग युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में 292 लोगों पर किए गए एक अध्ययन में तीसरी खुराक मिलने पर 228 में न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी मिली हालांकि स्तर कम ही रहा।

इस सम्बंध में पोंटिफिकल कैथोलिक युनिवर्सिटी ऑफ चिली के मॉलिक्यूलर वायरोलॉजिस्ट राफेल मेडिना ने प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य भागों की भूमिका की ओर ध्यान दिलाया है।

विशेषज्ञों के अनुसार परिणाम भले ही दर्शाते हों कि निष्क्रिय-वायरस आधारित टीके ओमिक्रॉन से सुरक्षा प्रदान नहीं करते लेकिन ये कोविड-19 के गंभीर प्रभावों से रक्षा ज़रूर करते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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खुजली तरह-तरह की – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पारंपरिक तौर पर खुजली को जिस तरह परिभाषित किया गया है उसके अनुसार खुजली एक असुखद एहसास (संवेदना) है जो खुजलाने की अनुक्रिया या अनैच्छिक प्रतिक्रिया पैदा करती है। खुजाने से उस कीड़े को भगाने में मदद मिलती है जो आपको कष्ट दे रहा था; लेकिन प्रुराइटस (खुजली का चिकित्सकीय नाम) यदि छह सप्ताह से अधिक समय तक बनी रहती है तो यह रोग की द्योतक है जो हर सात में से एक व्यक्ति के शारीरिक और/या मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालती है। अनुसंधानों ने इस एक ही प्रतीत होती तकलीफ (खुजली) के पीछे के कई क्रियाविधियों का खुलासा किया है।

जीर्ण खुजली (यानी लंबे समय तक चलने वाली खुजली) कई कारणों से हो सकती है। जैसे यह त्वचा-सम्बंधी हो सकती है (अक्सर हिस्टेमीन के स्राव के कारण होती है, जिसका उपचार बेनेड्रिल जैसी एंटीहिस्टेमीन दवाओं से किया जाता है)। यह तंत्रिका विकार सम्बंधी हो सकती है (दाद, तंत्रिका संपीड़न और मस्तिष्क रक्तस्राव जैसी समस्या), या तंत्रगत हो सकती है (कमज़ोर गुर्दे जैसी समस्या) या मनोवैज्ञानिक भी हो सकती है (जैसे जुनूनी-बाध्यकारी गड़बड़ी यानी OCD)।

बुज़ुर्ग विशेष रूप से जीर्ण समस्याओं से ग्रसित होते हैं जो खुजली के रूप में प्रकट होती हैं। वर्ष 2018 में जर्नल ऑफ दी इंडियन एकेडमी ऑफ जेरिएट्रिक्स में मणिक्कम और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित दक्षिण भारत के एक अध्ययन में साठ साल से अधिक आयु वर्ग के 29 प्रतिशत लोगो में एक्ज़िमा की समस्या देखी गई थी। दिल्ली कैंट के बेस अस्पताल में इसी उम्र वर्ग पर हुए एक अन्य अध्ययन में 56 प्रतिशत लोगों ने प्रुराइटस की शिकायत बताई थी। यह अध्ययन वर्ष 2019 में इंडियन डर्मेटोलॉजी ऑनलाइन जर्नल में प्रकाशित हुआ था। 2019 में ही इंडियन जर्नल ऑफ क्लीनिकल एंड एक्सपेरिमेंटल डर्मेटोलॉजी में प्रकाशित एक विश्लेषण में जीर्ण खुजली की शिकायत करने वाले 100 रोगियों में से 62 लोगों की समस्या के सम्बंधित कारणों को पहचाना जा सका, और इनमें मधुमेह, हाइपोथायरायडिज़्म, कई तरह के कैंसर और लौह की कमी शामिल थे।

खुजली पैदा करने वाले कारकों को प्रुराइटोजेन्स कहा जाता है। खुजली के प्रति संवेदनशील ऊतकों में त्वचा, श्लेष्मा झिल्लियां और आंख का कॉर्निया शामिल हैं। इन ऊतकों में कुछ तंत्रिका ग्राही (प्रुरिसेप्टर) प्रुराइटोजेन्स द्वारा उत्तेजित होते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न संदेश मेरु रज्जू में खुजली के संकेत देने वाली तंत्रिकाओं के ज़रिए मस्तिष्क तक ले जाए जाते हैं। प्रुराइटोजेन्स पर प्रतिक्रिया देने वाले कई अलग-अलग ग्राही और चैनल होते हैं। इनकी संख्या इतनी अघिक होती है कि चाहे जो भी हो, खुजली की अनुभूति आपके मस्तिष्क तक पहुंच ही जाती है।

जीर्ण खुजली का एक सामान्य उदाहरण है एटोपिक डर्मेटाइटिस। यह एक शोथ स्थिति है जो अक्सर एलर्जी के कारण होती है जिसमें त्वचा कटी-फटी दिखती है और खुजली होती है। उदाहरण के लिए, धूल में पाई जाने वाली घुन (हाउस डस्ट माइट) से होने वाली एलर्जी। यह घुन एक मिलीमीटर के एक तिहाई हिस्से के बराबर होती है, इसका भोजन हमारे शरीर से लगातार झड़ने वाली मृत त्वचा की पपड़ियां होती है। इस घुन के मल में एक तरह का प्रोटीन होता है जो एक शक्तिशाली प्रुराइटोजेन है। इस प्रुराइटोजेन के त्वचा के ग्राहियों से जुड़ने पर यह एटोपिक डर्मेटाइटिस या अस्थमा जैसी एलर्जी पैदा करता है। ये ग्राही उपचार के लिए अच्छे लक्ष्य हैं। इन ग्राहियों को लक्षित करके खुजली की संवेदना को मस्तिष्क तक पहुंचने से रोका जा सकता है। लेकिन साथ ही कोशिश करनी होती है कि शरीर की सुरक्षा के लिए ज़रूरी अन्य संवेदनाएं बाधित न हों।

खुजली और दर्द

खुजली और दर्द के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर खुजलाने की इच्छा का है। अचानक उठे तेज़ दर्द के कारण आप जल्दी से पीछे हट जाते हैं (या खुद को आगे बढ़ने से रोक लेते हैं) और इस तरह संभावित नुकसान से बच जाते हैं; लेकिन खुजलाना वास्तव में खुजली के कारण की ओर ध्यान दिलाता है। खुजलाना मेरु रज्जू में खुजली के संदेश देने वाली तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करता है। इससे मस्तिष्क तक पहुंचने वाली खुजली संवेदना में कमी आती है और राहत मिलती है! लेकिन यह राहत क्षणिक ही होती है। खुजलाकर हम असल में हल्का दर्द पहुंचा रहे होते हैं, और यह दर्द पल भर को हमारे मस्तिष्क में खुजली की अनुभूति को दबा सकता है। खुजलाना मस्तिष्क में पारितोषिक तंत्र की तरह भी काम कर सकता है, और खुजलाना एक सुखद एहसास बन सकता है। लेकिन जीर्ण खुजली वाले रोगियों के लिए खुजलाना एक अभिशाप हो सकता है, इससे त्वचा को नुकसान पहुंच सकता है और खुजली बढ़ सकती है।

आभासी खुजली

जिन लोगों ने (दुर्घटनावश) अपने हाथ या पैर गंवा दिए हैं, उन्हें अक्सर लगता है कि उनके ‘गुमशुदा अंग’ (आभासी अंग) में बहुत खुजली हो रही है। असल में, उनका मस्तिष्क समय के साथ कुछ नए परिपथ बना लेता लेता है और इस कारण शरीर के किसी अन्य हिस्से से मिलने वाले संदेश मस्तिष्क के उस हिस्से को मिलने लगते हैं जो पूर्व में उस अंग से मिला करते थे जो अब नहीं है।

कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी वी. एस. रामचंद्रन ने कई ऐसे प्रयोग किए जो लगते तो सरल हैं लेकिन यह सरलता बस कहने को है। इन प्रयोगों की मदद से उन्होंने दर्शाया कि जिन लोगों ने हाल ही में किसी दुर्घटना में अपना कोई अंग को गंवाया है और अक्सर उन्हें अपने उस ‘अनुपस्थित अंग में असहनीय खुजली’ की शिकायत रहती है तो वे अपने चेहरे के विभिन्न हिस्सों को खुजला कर राहत महसूस कर सकते हैं – जैसे ऊपरी होंठ को खुजला कर वे कट चुकी तर्जनी उंगली में राहत महसूस कर सकते हैं।

जीर्ण खुजली से निपटने के लिए नए चिकित्सीय तरीके त्वचा से लेकर केंद्रीय तंत्रिका तंत्र तक कई अलग-अलग बिंदुओं पर आज़माए जा रहे हैं। टाइप बी अल्ट्रा वायलेट प्रकाश त्वचा में प्रतिरक्षा कोशिकाओं से हिस्टेमीन का स्राव कम करने के लिए जाना जाता है, इसलिए फोटोथेरेपी खुजली में उपयोगी साबित हुई है। रोगाणुरोधी यौगिकों से लेपित रेशम के कपड़े भी एक तरीका है। लंबे समय तक बनी रहने वाली खुजली मस्तिष्क में खुजली से जुड़े हिस्सों में कार्यात्मक विसंगतियां पैदा करती है, और इसमें मस्तिष्क के वांछित हिस्से को विद्युत धारा से उत्तेजित करके राहत पहुंचाई जा सकी है। (स्रोत फीचर्स)

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