मच्छर वाहित बीमारियां हज़ारों वर्षों से अभिशाप रही हैं, इनकी वजह से कई सेनाएं परास्त हुईं और अर्थव्यवस्थाएं डगमगाई हैं। ऐसे में मलेरिया के लिए एक प्रभावी टीका आने की रिपोर्ट हमें राहत देती है। इस टीके के क्लीनिकल परीक्षण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और अन्य ने बुर्किना फासो में किए हैं।
पश्चिम अफ्रीकी देश बुर्किना फासो में
मानसून के बाद लंबे समय तक गर्मी पड़ती है,
और तब ही मच्छर बड़े
झुंडों में निकलते हैं। R21 नामक टीके ने 77 प्रतिशत प्रभाविता
दर्शाई है। यह टीका मलेरिया परजीवी, प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम, के
सर्कमस्पोरोज़ाइट प्रोटीन (CSP) को लक्षित करता है। इस परजीवी की
स्पोरोज़ाइट अवस्था CSP स्रावित करती है। मच्छर के काटने से CSP और
स्पोरोज़ाइट्स मानव रक्तप्रवाह में प्रवेश कर जाते हैं। CSP
परजीवी को यकृत (लीवर)
में ले जाता है जहां यह यकृत कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है, परिपक्व
होता है और संख्या वृद्धि करता है। फिर, परिपक्व मेरोज़ाइट्स मुक्त होते हैं और
मलेरिया के लक्षण दिखाई देने शुरू हो जाते हैं।
मलेरिया के टीके
हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने एक टीके, मॉस्क्यूरिक्स, को
मंज़ूरी दी है। यह टीका यूके के ग्लैक्सो स्मिथ क्लाइन (जीएसके) ने लंदन स्कूल ऑफ
हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के सहयोग से तैयार किया है। इस टीके का परीक्षण
केन्या, मलावी और घाना के 8 लाख से अधिक बच्चों पर किया गया है।
टीका लेने के पहले साल में इसकी प्रभाविता 50 प्रतिशत से अधिक देखी गई है, लेकिन
वक्त बीतने के साथ प्रभाविता कम होती गई। ग्लोबल वैक्सीन एलायंस (जीएवीआई) उन
देशों के लिए टीके खरीदने की योजना बना रहा है जिन्होंने इसकी मांग की है।
हैदराबाद की भारत बायोटेक ने भारत में इस
टीके को विकसित करने के लिए जीएसके के साथ अनुबंध किया है,
जिसके लिए भुवनेश्वर
में विशेष व्यवस्था होगी।
डेंगू से जंग
एक और तेज़ी से फैलने वाली बीमारी है
डेंगू। यह एडीज़ एजिप्टी मच्छरों से फैलती है,
जो ठहरे हुए पानी में
पनपते हैं, जैसे टायर वगैरह में भरा पानी। डेंगू वायरस के चार सीरोटाइप
पाए जाते हैं। सीरोटाइप टीका निर्माण को मुश्किल बनाते हैं, क्योंकि
प्रत्येक सीरोटाइप के लिए अलग टीके की आवश्यकता होती है। सेनोफी पाश्चर द्वारा
डेंगू के खिलाफ तैयार किया गया टीका, डेंगवैक्सिया,
कई देशों में स्वीकृत
है और वायरस के चारों सीरोटाइप के खिलाफ 42 प्रतिशत से 78 प्रतिशत तक कारगर है।
भारत में ज़ायडस कैडिला डेंगू के खिलाफ
डीएनए आधारित एक टीका विकसित कर रही है। तिरुवनंतपुरम स्थित राजीव गांधी सेंटर फॉर
बायोटेक्नॉलॉजी के डॉ. ईश्वरन श्रीकुमार ने चारों सीरोटाइप का एक साझा संस्करण
तैयार किया है जो ज़ायडस कैडिला के डीएनए आधारित टीके की बुनियाद है। इस कार्य में
कोविड-19 टीका विकसित करने के अनुभव का लाभ मिल रहा है।
डेंगू से लड़ने के अन्य नए तरीकों पर भी
काम चल रहा है। इनमें से एक दिलचस्प तरीके में एक बैक्टीरिया, वॉल्बेचिया
पाइपिएंटिस, का उपयोग किया जाता है। वॉल्बेचिया पाइपिएंटिस
एक-कोशिकीय परजीवी है। यह परजीवी सामान्यत: कई कीटों में पाया जाता है, लेकिन
यह डेंगू फैलाने वाले मच्छरों में नहीं होता। जब इस परजीवी को डेंगू फैलाने वाले
मच्छरों की कोशिकाओं में प्रवेश कराया जाता है तो यह डेंगू, चिकनगुनिया, पीत
ज्वर और ज़ीका का कारण बनने वाले अन्य परजीवियों से सफल प्रतिस्पर्धा करता है।
प्रयोगशाला में वॉल्बेचिया से ग्रस्त किए
गए एडीज़ मच्छर उन इलाकों में छोड़े जाते हैं जहां यह बीमारी अधिक होती है। ये
मच्छर फौरन ही स्थानीय एडीज़ मच्छरों में इस बैक्टीरिया को फैला देते हैं, और
डेंगू के नए मामले कम होने लगते हैं। गादजाह मादा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने
जकार्ता में किए गए एक नियंत्रित अध्ययन में दिसंबर 2017 में शहर के 12 इलाकों में
वॉल्बेचिया से संक्रमित एडीज़ मच्छर के अंडे रखे (9 अन्य इलाकों में नियंत्रण के
तौर पर वॉल्बेचिया-रहित अंडे रखे गए)। मार्च 2020 में कोविड महामारी के कारण
अध्ययन थम जाने तक नियंत्रण वाले 9 इलाकों की तुलना में 12 प्रायोगिक इलाकों में
डेंगू के 77 प्रतिशत कम मामले दर्ज हुए थे। डेंगू के कारण अस्पताल में भर्ती होने
वालों की संख्या में 86 प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी और बुखार की तीव्रता भी कम
हुई थी।
रोकथाम
मच्छर वाहित बीमारियों का इलाज करने की
बजाय उनसे बचाव का एक और तरीका यह है इनके अगले प्रकोप की सटीक भविष्यवाणी कर ली
जाए। और उसके मुताबिक अपने स्वास्थ्य तंत्र और मच्छर नियंत्रण प्रणालियों का उपयोग
किया जाए।
मच्छर और प्लास्मोडियम परजीवी दोनों को पनपने के लिए गर्म और नम मौसम की आवश्यकता होती है। NOAA-19 जैसे पर्यावरण उपग्रहों द्वारा लगातार एकत्रित किए गए डैटा का उपयोग करते हुए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च के वैज्ञानिकों ने ऐसे मॉडल तैयार किए हैं जो मासिक वर्षा डैटा और डेंगू और मलेरिया के वार्षिक राज्य-वार प्रकोप के डैटा को अल-नीनो-सदर्न ऑसीलेशन के साथ जोड़ता है। अल-नीनो-सदर्न ऑसीलेशन वैश्विक वायुमंडलीय प्रवाह को प्रभावित करता है। इस तरह, यह एक पूर्व-चेतावनी उपकरण है जो प्रकोप के शुरू होने, उसके फैलने और संभावित मामलों की संख्या का पूर्वानुमान लगाता है। इस तरह स्वास्थ्य अधिकारी प्रकोप के प्रभाव को कम करने के लिए कई हफ्तों पहले से ही एहतियाती उपाय शुरू कर सकते हैं। भारत में वर्तमान में यह जानकारी राज्य स्तर के लिए उपलब्ध है। अगला कदम ज़िला स्तर पर जानकारी उपलब्ध कराना होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/9he5xs/article37475340.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_1200/14TH-SCIAEDESjpg
यह तो अंदाज़ा था कि व्हेल जैसे विशाल प्राणी की भूख भी
विशाल होगी। लेकिन कितनी विशाल? हाल ही में शोधकर्ताओं ने पता
लगाया है कि बलीन व्हेल की खुराक अनुमान से तीन गुना अधिक है। इनके मुंह में
कंघीनुमा छन्ना होता है, जिसे बलीन कहते हैं। यह समुद्र
में तैरते हुए पानी के साथ अंदर आए अपने शिकार (छोटे-छोट क्रस्टेशियन जंतु और
प्लवक) को छानकर ग्रहण करने में मदद करता है।
इस अध्ययन ने एक विरोधाभास को भी दूर कर दिया है। क्रस्टेशियन जंतुओं का जितनी
मात्रा में ये व्हेल भक्षण करती हैं, उसे देखते हुए कहा जा
सकता है कि यदि व्हेल न हों तो इन नन्हें जंतुओं की आबादी बढ़ेगी। लेकिन वास्तव
में शिकार के चलते समुद्रों में व्हेल की संख्या में गिरावट के बाद क्रस्टेशियन की
संख्या में भी तेज़ गिरावट देखी गई है।
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि ये व्हेल समुद्र में पोषक तत्वो का संवहन भी
करती हैं: वे समुद्र के पेंदे से भोजन ग्रहण करती हैं और ऊपरी सतह पर आकर अपशिष्ट
उत्सर्जित करती हैं, जिससे समंदर में पोषक तत्वों का चक्रण होता
रहता है। यह क्रस्टेशियन्स के लिए पोषण का महत्वपूर्ण स्रोत होता है। इसलिए व्हेल
के जाने पर क्रस्टेशियन्स को पोषण मिलना भी बंद हो गया।
युनिवर्सिटी ऑफ हॉपकिंस मरीन स्टेशन के पारिस्थितिकीविद मैथ्यू सावोका यह पता
लगाना चाहते थे कि व्हेल के पेट में कितना प्लास्टिक चला जाता है? लेकिन पहले उन्हें एक अधिक बुनियादी सवाल का जवाब पता लगाना पड़ा: व्हेल की
कुल खुराक कितनी है? क्योंकि अब तक इस सम्बंध में मोटे-मोटे
अनुमान ही लगाए गए थे।
सवोका और उनके दल ने ड्रोन, इको-साउंडिंग उपकरण और सक्शन
कप ट्रैकिंग डिवाइस की मदद से 321 व्हेल पर नज़र रखी। नौ वर्ष (2010-19) चले इस
अध्ययन में उन्होंने अटलांटिक, प्रशांत और दक्षिणी महासागर की
सात व्हेल प्रजातियों का भोजन सम्बंधी डैटा जुटाया। पूरी प्रक्रिया काफी कठिन थी।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित निष्कर्षों के अनुसार बलीन व्हेल अनुमान
से तीन गुना अधिक भोजन गटकती हैं। उदाहरण के लिए, उत्तरी
प्रशांत की ब्लू व्हेल एक दिन में औसतन 16 टन छोटे क्रस्टेशियंस खा जाती है – लगभग
दो ट्रक भरकर। इसी प्रकार से, धनुषाकार सिर वाली व्हेल
प्रतिदिन लगभग 6 टन जंतु-प्लवक खाती है। इस आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि
बीसवीं सदी में बड़े पैमाने पर व्हेल का शिकार शुरू होने से पहले दक्षिणी महासागर
की बलीन व्हेल प्रति वर्ष लगभग 43 करोड़ टन क्रस्टेशियन्स खा जाती थीं।
अध्ययन में विशेष रूप से यह भी देखा गया कि व्हेल अनुमान से अधिक लौह जैसे
पोषक तत्वों का उत्पादन और मिश्रण करती हैं। परिणामस्वरूप समुद्री खाद्य शृंखला की
बुनियाद – प्रकाश संश्लेषक प्लवक – की संख्या में वृद्धि होती है। जिसका अर्थ है
व्हेल के लिए अधिक क्रस्टेशियन्स और शिकार के लिए अधिक मछलियां उपलब्ध होना। इसके
अलावा प्रकाश संश्लेषण अधिक होने से वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड भी अधिक
अवशोषित होगी।
यह अध्ययन ध्यान दिलाता है कि व्हेल का शिकार महासागरों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह से प्रभावित करता है और पारिस्थितिकी काफी पेचीदा मामला है। (स्रोत फीचर्स)
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जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो में आयोजित महासम्मेलन के साथ ही
जलवायु परिवर्तन के लिए स्थापित कोश पर चर्चा बढ़ गई है। इस कोश की स्थापना वर्ष
2009 में कोपनहेगन में आयोजित जलवायु परिवर्तन के महासम्मेलन में की गई थी। इस
घोषणा के अनुसार विकासशील व निर्धन देशों की जलवायु सम्बंधी कार्रवाइयों में
सहायता के लिए सम्पन्न देशों को 2020 तक 100 अरब डॉलर के जलवायु परिवर्तन कोश की
स्थापना करनी थी।
इस कोश की वास्तविक प्रगति निराशाजनक रही है। इसके लिए उपलब्ध धनराशि इस समय
भी 100 अरब डॉलर वार्षिक से कहीं कम है। इतना ही नहीं, जहां
पूरी उम्मीद थी कि यह सहायता अनुदान के रूप में उपलब्ध होगी, वहां वास्तव में इस सहायता का मात्र लगभग 20 प्रतिशत ही अनुदान के रूप में
उपलब्ध करवाया गया व शेष राशि तरह-तरह के कर्ज़ के रूप में दी गई। यह एक तरह से
विश्वास तोड़ने वाली बात है। भला जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के उपाय को ब्याज पर दिए
गए कर्ज़ से कैसे पाया जा सकेगा? आरोप तो यह भी है कि इसी कोश
से धनी देशों की अपनी परियोजनाओं को भी धन दिया जा रहा है।
इस तरह यह कोश इस समय बुरी तरह भटक गया है। अब यह मांग ज़ोर पकड़ रही है कि इसे
अपने मूल उद्देश्य के अनुरूप पटरी पर लाया जाए तथा विकासशील व निर्धन देशों के लिए
100 अरब डालर के वार्षिक अनुदान की व्यवस्था मूल उद्देश्य के अनुरूप की जाए।
इतना ही नहीं, अब इससे आगे यह मांग भी उठ रही है कि निकट
भविष्य में 100 अरब डॉलर की अनुदान राशि में और वृद्धि भी की जाए। यह मांग अफ्रीका
महाद्वीप के अनेक गणमान्य विशेषज्ञों व जलवायु परिवर्तन वार्ताकारों ने रखी है और
स्पष्ट किया है कि अकेले उनके अपने महाद्वीप की ही ज़रूरत इससे कहीं अधिक है।
तुलना के लिए यह देखा जा सकता है कि विश्व के अरबपतियों की कुल संपदा 13,000
अरब डालर है। यदि इस पर मात्र 2 प्रतिशत टैक्स भी जलवायु परिवर्तन सम्बंधी कार्यों
के लिए अलग से लगाया जाए तो इससे 260 अरब डॉलर उपलब्ध हो सकते हैं।
यदि विश्व के केवल 10 सबसे बड़े अरबपतियों की ही बात की जाए तो इनकी कुल संपदा
1153 अरब डॉलर है। इनमें से 4 सबसे बड़े अरबपति ऐसे हैं जिनकी संपदा 100-100 अरब
डॉलर से अधिक है।
केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में एक वर्ष में मात्र शराब पर 252 अरब डॉलर खर्च
होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका व युरोपीय संघ में सिगरेट पर 1 वर्ष में 210 अरब
डॉलर से अधिक खर्च होते हैं। इस तरह के अनाप-शनाप खर्च को देखते हुए जलवायु
परिवर्तन के लिए यह कोई बड़ी मांग नहीं है। जिस समस्या को सबसे बड़ी वैश्विक समस्या
माना जा रहा है उसके कोश के लिए 100 अरब डॉलर से कहीं अधिक की व्यवस्था की जानी
चाहिए।
यदि इस धन की व्यवस्था अनुदान के रूप में सुनिश्चित हो जाती है तो इससे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने व जलवायु परिवर्तन के दौर में बढ़ने वाली आपदाओं व कठिनाइयों का सामना करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य हो सकते हैं। विशेषकर वनों की रक्षा, नए वृक्षारोपण, चारागाहों की हिफाज़त, मिट्टी व जल संरक्षण, प्राकृतिक खेती के क्षेत्र में ऐसे कार्य संभव हो सकते हैं। अक्षय ऊर्जा को सही ढंग से बढ़ावा दिया जा सकता है। किसानों की टिकाऊ आजीविका को अधिक मजबूत किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, टिकाऊ आजीविका की रक्षा व जलवायु परिवर्तन के संकट को कम करने के कार्य एक साथ बढ़ाए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-03036-x/d41586-021-03036-x_19825822.jpg
हाल ही में आयोजित 26वें जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-26) में
लगभग 200 देशों ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को जल्द से जल्द खत्म करने और कोयले के
उपयोग को कम करने का अभूतपूर्व और ऐतिहासिक संकल्प लिया है। ग्लासगो में आयोजित 14
दिवसीय सम्मेलन में 196 देशों ने अगले वर्ष ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के
लिए अधिक मज़बूत जलवायु योजनाएं तैयार करने की प्रतिबद्धता दिखाई है।
कॉप-26 में लिए गए संकल्पों के आधार पर अनुमान है कि इस सदी में वैश्विक
तापमान 2.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा जबकि सम्मेलन से पहले 2.7 डिग्री सेल्सियस
का अनुमान था। बहरहाल, 2.4 डिग्री की वृद्धि भी गंभीर जलवायु
प्रभाव पैदा कर सकती है। यह पेरिस समझौते के तहत निर्धारित 1.5 डिग्री या 2 डिग्री
सेल्सियस के लक्ष्य से अधिक ही है।
ऐसा माना जा रहा है कि 2022 के अंत में नई योजनाओं को प्रस्तुत करने का मतलब
यह है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य छोड़ा नहीं गया है। यह भी कहा जा रहा है
कि उनमें यह बात भी शामिल की जानी चाहिए कि यदि सरकारें अपने लक्ष्य को पूरा नहीं
कर पाती हैं तो वे जवाबदेह होंगी। कई देशों की वर्तमान योजनाएं अपर्याप्त हैं और
उन्हें मज़बूत करने की आवश्यकता है।
26 वर्षों से चली आ रही जलवायु वार्ता में ऐसा पहली बार हुआ है जब कोयला और
जीवाश्म ईंधन सब्सिडी का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। गौरतलब है कि कोयला
दहन ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारणों में से एक है और कोयला, तेल एवं गैस पर विश्व स्तर पर प्रति वर्ष 5.9 ट्रिलियन डॉलर की सब्सिडी दी
जाती है।
ग्लासगो क्लाइमेट संधि के अंतिम मसौदे में सभी देशों ने अक्षम सब्सिडीज़ को
खत्म करने के प्रयासों में तेज़ी लाने के प्रति सहमति दिखाई। लेकिन अंतिम समय में
भारत के हस्तक्षेप ने कोयले के उपयोग सम्बंधी निर्णय को कमज़ोर कर दिया और कोयले के
उपयोग को “चरणबद्ध तरीके से खत्म” करने की बजाय “चरणबद्ध तरीके से कम” करने को ही
मंज़ूरी मिली। इस निर्णय में “नियंत्रित” कोयले को शामिल किया गया यानी कोयले का
ऐसा उपयोग जिसके साथ कार्बन को अवशोषित करके भंडारण की व्यवस्था हो।
सम्मेलन में लिए गए निर्णयों से जलवायु कार्यकर्ताओं को काफी निराशा हुई है।
सम्मेलन में 2030 तक उत्सर्जनों को आधा करने का निर्णय लिया जाना था जो 1.5 डिग्री
सेल्सियस तक तापमान में वृद्धि को सीमित करने के लिए आवश्यक है। लेकिन विशेषज्ञों
के अनुसार एक ही सम्मेलन से अत्यधिक उम्मीद रखना उचित नहीं है। यह निर्णय पर्याप्त
तो नहीं हैं लेकिन यह एक प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत में कुछ अच्छे परिणाम देखने को
मिले हैं। 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य काफी कमज़ोर डोरी से टंगा है लेकिन अच्छी
बात है कि यह आज भी जीवित है।
एक अच्छी बात यह भी है कि कई देशों ने माना है कि उनकी योजनाएं संतोषप्रद नहीं
हैं और वादा किया है कि वे अगले वर्ष अधिक बेहतर योजनाओं के साथ शामिल होंगे
जिसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि के लक्ष्य को ध्यान में रखा जाएगा।
इस सम्मेलन में वित्त सम्बंधी पिछले संकल्पों की भी चर्चा रही। उच्च-आय वाले
देशों द्वारा कम-आय वाले देशों को 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर की वित्तीय
सहायता के वादे को पूरा करने में अभी 2 वर्ष का समय और लगेगा। देशों ने इस विषय
में खेद व्यक्त करते हुए बताया कि 2019 में 80 अरब डॉलर ही प्रदान किए गए हैं और
उसमें से भी एक चौथाई राशि तो जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन बैठाने के लिए थी।
अगले तीन वर्षों में एक नई योजना तैयार करने पर भी सहमति बनी है जिसमें 2025 के
बाद जलवायु वित्त लक्ष्यों पर चर्चा की जाएगी।
पिछले कई सम्मेलनों में उत्सर्जन में कटौती की चर्चा में अनदेखा किए गए
अनुकूलन के मुद्दे को भी उठाया गया। इस बार, उच्च-आय
वाले देशों ने 2025 तक अनुकूलन वित्त को दोगुना करते हुए प्रति वर्ष 40 अरब डॉलर
करने का निर्णय लिया है और भविष्य की वार्ताओं में भी वैश्विक अनुकूलन लक्ष्य पर
काम करने के लिए भी सहमत हुए हैं।
सम्मेलन में 77 विकासशील देशों के एक समूह और चीन द्वारा “नुकसान और
क्षतिपूर्ति” के मुद्दे के लिए वित्तीय सहायता की मांग के प्रस्ताव स्वीकृति नहीं
मिल सकी। यदि इस प्रस्ताव को मान लिया जाता तो यह समुद्र के बढ़ते स्तर और इन्तहाई
मौसम जैसे प्रभावों के लिए उच्च-आय वाले देशों से कम-आय वाले देशों को वित्तीय
क्षतिपूर्ति के क्षेत्र में पहला कदम होता। फिर भी देशों ने जलवायु परिवर्तन के
प्रतिकूल प्रभावों से जुड़े नुकसान और क्षतिपूर्ति के लिए वित्त के विषय में चर्चा
जारी रखने का वादा किया है।
देशों ने पेरिस समझौते के महत्वपूर्ण तकनीकी नियमों पर भी स्पष्टीकरण किए हैं
जो पहली वैश्विक जलवायु संधि के समय से अबूझ रहे हैं। ऐसा एक मुद्दा “वैश्विक
कार्बन बाज़ार” का है। देशों के लिए नए कार्बन लक्ष्यों के लिए “सामान्य समय-सीमा”
की समस्या को भी हल किया गया। उत्सर्जन में कटौती की रिपोर्टिंग में पारदर्शिता
नियमों की समस्या को भी हल किया गया।
इस सम्मेलन के शुरुआत में देशों ने वनों की कटाई को रोकने, कोयले के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण को रोकने, तेल और गैस की नई परियोजनाओं को रोकने और शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन पर अंकुश लगाने के लिए स्वैच्छिक रूप से सौदे किए। सम्मेलन में भारत ने 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की घोषणा की। ऑस्ट्रेलिया और सऊदी अरब सहित कई देशों नें भी नेट-ज़ीरो लक्ष्य को प्राप्त करने की घोषणा की है। इसका मतलब यह हुआ कि वर्तमान विश्व उत्सर्जन का लगभग 90 प्रतिशत नेट-ज़ीरो लक्ष्य में शामिल हो गया है। अगला जलवायु सम्मेलन मिस्र में आयोजित करने का निर्णय लिया गया। (स्रोत फीचर्स)
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यदि आपको किसी ऊंची जगह पर छोटे, सफेद बीजाणुओं से घिरी मृत
मक्खी दिखे तो समझ जाइए कि यहां मौत का जाल बिछा हुआ है। ऐसी मक्खी पर एक फफूंद
(कवक) का हमला हुआ था जिसने मक्खी के मस्तिष्क पर काबू किया और मक्खी को किसी ऊंची
जगह पर जाकर बैठकर मरने को मजबूर किया ताकि फफूंद अपने बीजाणुओं को बिखराकर अधिक
से अधिक स्वस्थ मक्खियों को संक्रमित कर सके। इससे भी विचित्र बात यह है कि नर
मक्खियां उस फफूंद संक्रमित मृत मादा मक्खी के साथ संभोग करने की कोशिश भी करती
हैं।
अब,
एक ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि यह फफूंद हवा में एक
प्रेम-रस छोड़ती है जो मक्खियों को आकर्षित करके संक्रमण की संभावना बढ़ाता है।
पूर्व में कुछ शोधकर्ताओं ने नर घरेलू मक्खी को ऐसी मादा मक्खी के शव के साथ
संभोग की कोशिश करते हुए देखा था, जो एंटोमोफथोरा म्यूसके
नामक फफूंद के संक्रमण से मारी गईं थीं। लगता तो था कि इस तरह की कोशिश फफूंद को
फैलने में मदद करती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि क्या फफूंद नर
मक्खियों को आकर्षित करने में कोई भूमिका निभाती है।
कोपेनहेगन युनिवर्सिटी के वैकासिक पारिस्थितिकीविद हेनरिक डी फाइन लिश्ट और
एंड्रियास नौनड्रप हैनसेन ने जांच की कि क्या यह आकर्षण लैंगिक है और क्या फफूंद
इसके लिए ज़िम्मेदार है।
इसके लिए उन्होंने मादा मक्खियों को फफूंद से संक्रमित किया और उनके मरने के
ठीक बाद उन्हें एक-एक करके पेट्री डिश में रखा। और हर बार उन्होंने पेट्री डिश में
एक स्वस्थ नर भी छोड़ा और देखा कि क्या नर मृत मादा के पास गया, कितनी देर मादा के नज़दीक रहा, और क्या उसने संभोग करने की
कोशिश की?
नियंत्रण के तौर पर उन्होंने एक अलग पेट्री डिश में
असंक्रमित मादाएं रखीं जिन्हें ठंड से मारा गया था।
बायोआर्काइव्स में प्रकाशन-पूर्व नतीजों के अनुसार नर
मक्खी ने स्वस्थ मादा की तुलना में संक्रमित मादा से संभोग करने की कोशिश पांच
गुना अधिक की। नर का साधारण-सा संपर्क भी उसे संक्रमित करने के लिए पर्याप्त होता
है हालांकि कभी-कभी ज़ोरदार संभोग बीजाणुओं का गुबार हवा में उड़ाता है।
इसके बाद,
एक अन्य प्रयोग में शोधकर्ताओं ने स्वस्थ नर मक्खी के सामने
दो मृत मादा मक्खी रखी – एक संक्रमित और दूसरी सामान्य। इस स्थिति में, नर ने अधिक बार संभोग की कोशिश की (बनिस्बत उस स्थिति के जब कोई मादा संक्रमित
नहीं थी) लेकिन वे संक्रमित और असंक्रमित मादा में फर्क नहीं कर पाए। इस आधार पर
नौनड्रप का अनुमान है कि फफूंद कोई रसायन छोड़ती है जो नर को संभोग के लिए उकसाता
है।
अब शोधकर्ता जांचना चाहते थे कि क्या नर फफूंद के बीजाणुओं की ओर आकर्षित होते
हैं?
इसके लिए उन्होंने चार नर मक्खियों को एक छोटे प्रकोष्ठ में
रखा। इस प्रकोष्ठ में दो अपारदर्शी पेट्री डिश थीं – एक में फफूंद के बीजाणुओं से
सना कागज़ था और दूसरी में नहीं। प्रत्येक पेट्री डिश के ढक्कन में मक्खी के अंदर
जाने के लिए एक छोटा सुराख था। 43 बार ऐसा हुआ कि चारों मक्खियां बीजाणु युक्त
पेट्री डिश में गईं, जबकि चारों मक्खियां बीजाणु रहित पेट्री
डिश में गई हों ऐसा मात्र 17 बार हुआ।
शोधकर्ताओं का अनुमान था कि नर मक्खी को फफूंद की तेज़ गंध आकर्षित करती है।
अपने अनुमान की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने मक्खी के एंटीना के सिरे पर एक
इलेक्ट्रोड लगाकर दर्शाया कि फफूंद की महक के झोके से मस्तिष्क में विद्युत प्रवाह
शुरू हो जाता है।
यह जानने के लिए कि फफूंद कौन से रसायन छोड़ते हैं, शोधकर्ताओं ने मृत मक्खियों से कई रसायनों पृथक किए। उन्होंने पाया कि स्वस्थ मक्खियों की तुलना में संक्रमित मक्खियों में कहीं अधिक रसायन मौजूद थे, और इनमें से कई रसायनों की उपस्थिति और प्रचुरता इस बात पर निर्भर करती थी कि मक्खी कितने समय से संक्रमित है। पूर्व में यह देखा जा चुका है कि इनमें से कुछ रसायन, जिन्हें मिथाइल-शाखित एल्केन्स कहा जाता है, नर घरेलू मक्खी को यौन-उत्तेजित करने में भूमिका निभाते हैं। लेकिन शोधकर्ता फफूंद के ऐसे आकर्षक रसायन की पहचान नहीं कर पाए हैं। यदि इन्हें प्रयोगशाला में बनाया जा सका तो ये घरेलू मक्खियों को फंसा कर मारने में उपयोगी हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9529/full/_20211029_on_pathogenic-fungus2.jpg
हाल ही में वैज्ञानिकों के एक संघ ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट ने
बताया है कि लॉकडाउन के चलते कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में आई गिरावट इस वर्ष के
अंत तक वापस अपने पुराने स्तर पर पहुंच सकती है। रिपोर्ट का अनुमान है कि जीवाश्म
ईंधन के जलने से कार्बन उत्सर्जन बढ़कर 36.4 अरब टन हो जाएगा जो पिछले वर्ष की
तुलना में 4.9 प्रतिशत अधिक है। चीन और भारत में कोयले की बढ़ती मांग को देखते हुए
शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि यदि सरकारें कोई ठोस कदम नहीं उठातीं तो यह
उत्सर्जन अगले वर्ष नए सिरे से बढ़ना शुरू हो जाएगा।
रिपोर्ट में भूमि-उपयोग में परिवर्तन – जैसे सड़कों के लिए जंगल कटाई या
चारागाह को जंगल में तबदील करना – की वजह से उत्सर्जन के नए अनुमान भी प्रस्तुत
किए गए हैं। हालांकि, जीवाश्म ईंधनों के उपयोग में वृद्धि जारी
है लेकिन पिछले एक दशक में भूमि-उपयोग में परिवर्तन से उत्सर्जन में कमी के चलते
कुल उत्सर्जन थमा रहा है। अलबत्ता, विशेषज्ञों के अनुसार
भूमि-उपयोग के रुझानों में काफी अनिश्चितता बनी रहती है और कुछ भी तय करना जल्दबाज़ी
होगी।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के मुताबिक 2020 में लॉकडाउन के चलते जीवाश्म ईंधनों
से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में 5.4 प्रतिशत की गिरावट आई थी। एक अन्य संगठन
कार्बन मॉनीटर का अनुमान थोड़ी अधिक गिरावट का था।
वैज्ञानिकों को उत्सर्जन में वापिस कुछ हद तक वृद्धि की तो उम्मीद थी लेकिन यह
अटकल का मामला था कि कितनी और किस दर से यह वृद्धि होगी। खास तौर से सवाल यह था कि
लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाएं हरित ऊर्जा में कितना निवेश करेंगी।
इस विषय में कार्बन मॉनीटर के अनुसार लॉकडाउन खुलने के बाद से ऊर्जा की मांग
में वृद्धि को जीवाश्म ईंधनों से ही पूरा किया जा रहा है। वैज्ञानिकों का ऐसा
अनुमान है कि आने वाले वर्ष में उत्सर्जन और बढ़ेगा।
जलवायु परिवर्तन पर सरकारों की समिति के ग्लासगो सम्मेलन (कॉप 26) में पहले ही
राष्ट्रीय,
कॉर्पोरेट और वैश्विक स्तर पर कई महत्वपूर्ण संकल्प लिए जा
चुके हैं। इस सम्मेलन में भारत सहित कई देशों ने एक समयावधि में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन
का वादा किया है। सम्मेलन में 130 से अधिक देशों ने 2030 तक वनों की कटाई पर
प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है जो ग्रीनहाउस गैसों का प्रमुख स्रोत है।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की अंतर सरकारी पैनल का अनुमान है कि 2015
के पैरिस जलवायु समझौते में तय किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूरी
दुनिया को 2030 तक अपने उत्सर्जनों को लगभग आधा करना होगा ताकि वैश्विक तापमान में
वृद्धि को औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जा सके। लेकिन
यह लक्ष्य काफी कठिन लग रहा है। हालांकि, अक्षय-उर्जा तकनीकों का
उपयोग तो बढ़ रहा है लेकिन आशंका है कि बिजली की मांग को पूरा करने में प्रमुख रूप
से अक्षय ऊर्जा का उपयोग होने में लंबा समय लगेगा।
इस रिपोर्ट में ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक संयुक्त राज्य अमेरिका, युरोपीय संघ,
भारत और चीन के रुझानों का स्वतंत्र रूप से विश्लेषण करके
बताया गया है कि उत्सर्जन अपने महामारी-पूर्व स्तर पर लौट रहा है। अमेरिका और
युरोपीय संघ में जहां महामारी के पहले जीवाश्म-ईंधन का उपयोग कम होने लगा था वहां
2021 में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के तेज़ी से बढ़ने का अनुमान है लेकिन यह 2019
से 4 प्रतिशत नीचे है। भारत में इस वर्ष कार्बन उत्सर्जन में 12.6 प्रतिशत वृद्धि
की संभावना है। विश्व के सबसे बड़े उत्सर्जक चीन ने महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था
को बढ़ाने के लिए कोयले का पुन:उपयोग शुरू कर दिया।
रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि इस वर्ष चीन द्वारा जीवाश्म-ईंधन उत्सर्जन चार
प्रतिशत बढ़कर 11.1 अरब टन हो जाएगा जो महामारी-पूर्व के स्तर से 5.5 प्रतिशत अधिक
है।
रिपोर्ट में कुछ सकारात्मक पहलू भी बताए गए हैं। इसमें 23 ऐसे देशों का ज़िक्र किया गया है जिनका उत्सर्जन कुल वैश्विक उत्सर्जन का लगभग एक-चौथाई है। ये वे देश हैं जिन्होंने महामारी के पूर्व एक दशक से अधिक के समय में अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के साथ-साथ जीवाश्म-ईंधन जनित उत्सर्जन पर अंकुश लगाया है। देखा जाए तो आज हमारे पास तकनीक है और पता है कि क्या करना है। मुद्दा निर्णय लेने और उसके कार्यान्वयन का है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-03036-x/d41586-021-03036-x_19825822.jpg
आज हम ज्ञान उत्पन्न करने में लगे वैज्ञानिकों और इस ज्ञान
को लोगों तक पहुंचाकर संतुष्ट विज्ञान लेखकों के बीच बढ़ता विभाजन देख रहे हैं। हम
इस विभाजन को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि आज का विज्ञान इतना जटिल हो गया है कि
वैज्ञानिकों के पास इसे आम जनता तक पहुंचाने का न तो समय है और न ही इसके संप्रेषण
का कौशल है तथा दूसरी ओर, विज्ञान लेखकों के पास ज्ञान
उत्पत्ति के न तो कोई अवसर हैं और न ही आवश्यक कौशल। हालांकि, यह कुछ हद तक सही हो सकता है लेकिन मेरी चिंता यह है कि वैज्ञानिक अपनी
ज़िम्मेदारी से बचने के लिए विज्ञान की कथित जटिलता का बहाना कर रहे हैं और इस
विभाजन को बेवजह बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं।
आदर्श रूप में, वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों के बीच किसी
प्रकार का विभाजन नहीं होना चाहिए। न तो वैज्ञानिकों को आम जनता के बीच विज्ञान के
संप्रेषण को पूरी तरह से विज्ञान लेखकों के भरोसे छोड़ना चाहिए और न ही विज्ञान
लेखक ज्ञान सृजन के कार्य को पूरी तरह से वैज्ञानिकों पर छोड़ सकते हैं। विज्ञान के
संप्रेषण का आनंद ज्ञान निर्माण का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए और ज्ञान
के सृजन का आनंद विज्ञान लेखन का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए। अपने कार्य
का पूरा आनंद प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिकों को प्रभावी संप्रेषक बनना चाहिए। हम
यह बदलाव कैसे ला सकते हैं?
सबसे पहले,
वैज्ञानिकों में अच्छे लेखन की इच्छा होनी चाहिए। हमें लेखन
शैली को प्रतिष्ठा का विषय बनाना चाहिए। आश्चर्य की बात है कि ऐसा आम तौर पर होता
नहीं है।
सी.पी. स्नो की पुस्तक दी टू कल्चर्स की भूमिका में कैंब्रिज
युनिवर्सिटी में इंटेलेक्चुअल हिस्ट्री एंड इंग्लिश लिटरेचर के प्रोफेसर स्टीफन
कॉलिनी ने हमारी उलझन का बढ़िया वर्णन किया है:
“प्रायोगिक विज्ञान के कई
रूपों में लेखन वास्तव में कोई रचनात्मक भूमिका नहीं निभाता है: यह अपने आप में
खोज की प्रक्रिया नहीं होता, जैसा कि मानविकी में
होता है,
बल्कि किसी घटना के बाद की रिपोर्ट होता है जिसको लिख डालना
कहते हैं। परिणामों की प्रस्तुति में सटीकता, स्पष्टता, किफायत तो यकीनन आवश्यक हैं
लेकिन अपने निष्कर्षों को बोधगम्य तरीके से व्यवस्थित करने को कई शोध वैज्ञानिक एक
बोझ मानते हैं…शैली के लालित्य को एक पेशेवर आदर्श के रूप में विकसित नहीं किया
जाता,
न महत्व दिया जाता है, हालांकि इक्का-दुक्का वैज्ञानिक इसे पसंद कर सकते हैं।”
मैं सहमत हूं। लेकिन हमें विज्ञान की दुनिया में ऐसे सुधार करना चाहिए ताकि
कॉलिनी का विवरण सही न रहे।
कैसे?
इस मामले में मेरे कुछ पसंदीदा विचार हैं। हमें सबसे पहले
तो भरपूर और अंधाधुंध तरीके से पढ़ना चाहिए। जब तक हम अच्छे-बुरे-भौंडे हर प्रकार
की रचनाएं नहीं पढ़ेंगे तब तक हम विवेकी पाठक और अच्छे लेखक नहीं बन सकते। हमें
कथा-साहित्य भी काफी मात्रा में पढ़ना चाहिए। कथेतर साहित्य की तुलना में
कथा-साहित्य बेहतर शैली प्रस्तुत करने के अलावा हमारी कल्पना करने की क्षमता को
विकसित करने में मदद करता है। विज्ञान में कल्पना का बहुत महत्व है; खासकर परिकल्पनाएं प्रस्तावित करने में, ख्याली
प्रयोगों में और अपने सिद्धांतों के निहितार्थों का अनुमान लगाने में। कल्पना तो
कौशल का एक महत्वपूर्ण घटक भी है जो नए-नए पाठकों की मानसिक दुनिया में प्रवेश
करने और जटिल वैज्ञानिक अवधारणाओं को समझने में उनकी मदद करने के लिए आवश्यक है।
अच्छा लेखन सीखने के लिए, हमें बेझिझक गाइडबुक्स का
भरपूर उपयोग करना चाहिए। हालांकि, हमारा उद्देश्य सिर्फ उनमें दी
गई सलाहों को पालन करना नहीं होना चाहिए। बल्कि हमें तो उन्हें पढ़कर, समझकर उनके उल्लंघन के प्रयोग करने चाहिए और नतीजे देखने चाहिए (ठीक वैसे ही
जैसे हम विज्ञान में कोई कंट्रोलशुदा प्रयोग करते हैं)।
लेखन के लिए अनगिनत गाइडबुक्स उपलब्ध हैं, लेकिन
यदि वास्तव में हमारा उद्देश्य उन्हें पढ़ना, समझना
और उल्लंघन का प्रयास करना है तो फिर कोई भी गाइडबुक उपयुक्त रहेगी। वैसे, मेरा सुझाव है कि शुरुआत स्ट्रंक और वाइट द्वारा लिखित दी एलीमेंट्स ऑफ
स्टाइल या फिर स्टीफन किंग द्वारा लिखित ऑन राइटिंग: ए मेमॉयर ऑफ दी
क्राफ्ट से करनी चाहिए। दोनों ही ‘पढ़ने और उल्लंघन’ के लिहाज़ से बढ़िया हैं।
लेकिन हमारे भीतर स्टीफन फ्राय का आत्मविश्वास भी ज़रूरी है जो कहते हैं कि
उन्होंने किंग की सलाह का पालन करने का प्रयास किया लेकिन “यह बिलकुल भी ठीक
नहीं है,
एक लेखक (यानी मैं) है और यदि लोगों को लगता है कि उसने
लेखन में अति कर दी है…. उसे अति आलंकारिक बनाया है, तो लगने दो, वे ऐसी किताब को पटक देंगे और
किसी और की किताब को उठा लेंगे।”
मेरी एक और ‘सलाह पुस्तक’ स्टीवन पिंकर की किताब दी सेंस ऑफ स्टाइल: दी
थिंकिंग पर्सन्स गाइड टू राइटिंग इन 21st सेंचुरी है। एक मनोवैज्ञानिक, भाषाविद
और शानदार लेखक होने के नाते, पिंकर ने न केवल लेखन पर सलाह
दी है बल्कि उस सलाह के पीछे का तर्क भी प्रस्तुत किया है, जिससे
सलाह की सकारण उपेक्षा का मार्ग भी खुला रहता है। वैज्ञानिकों को पिंकर के लेखन
दर्शन को आत्मसात करना चाहिए: ‘शैली से जीवन में सुंदरता पनपती है…किसी
साक्षर पाठक के लिए, एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है।‘
मुझे विशेष रूप से इतालवी हरफनमौला, उम्बर्टो इको द्वारा
लिखित हाउ टू राइट ए थीसिस (1997/2012) काफी पसंद आई। इको विशेष रूप से
उनके दार्शनिक उपन्यास दी नेम ऑफ दी रोज़ (1994) के लिए मशहूर हैं। पहली नज़र
में देखें तो इको की सलाह विशेष रूप से इंडेक्स कार्ड, नोटपैड
और इंटरलाइब्रेरी लोन के युग के मानविकी विज्ञान के छात्रों के लिए है। लेकिन मेरा
ऐसा मानना है कि इंटरनेट, वेब ऑफ साइंस और गूगल स्कॉलर
युग के प्राकृतिक वैज्ञानिकों को भी इसे पढ़ना चाहिए। ‘हाउ टू राइट ए थीसिस’
पर सलाह देने की आड़ में इको ने ‘शोध कैसे करें’ पर अधिक सलाह दी है।
हालांकि,
शैली और विषयवस्तु में से किसी एक को चुनना ज़रूरी नहीं है।
रिचर्ड डॉकिंस ने इस बात को अपनी हालिया पुस्तक बुक्स डू फर्निश ए लाइफ में
व्यक्त किया है। यह डॉकिंस की निहायत पठनीय पूर्व रचनाओं का संकलन है। आश्चर्यजनक
रूप से इसमें बड़ी संख्या में अन्य लोगों की पुस्तकों के लिए लिखी गई भूमिकाएं, प्रस्तावनाएं, उपसंहार और समीक्षाएं शामिल हैं। यह विधा
मुझे बहुत पसंद है क्योंकि यह उन सख्त नियमों से मुक्त है जो अक्सर अधिक तकनीकी
वैज्ञानिक लेखन पर लागू होते हैं। आम तौर पर ये नियम लेख की गुणवत्ता को अनावश्यक
रूप से कम करते हैं। इसलिए निबंध शैली के वैज्ञानिक लेखन को बेहतर बनाने का यह
बढ़िया तरीका हो सकता है, लेकिन बहुत कम देखने को मिलता
है।
दुर्भाग्य से, हम इस विधा की उपेक्षा इस गलत आधार पर करते
हैं कि यह किसी नए ज्ञान की द्योतक नहीं है। कई चयन एवं मूल्यांकन समितियों में
काम करते हुए मुझे इस बात ने काफी व्यथित किया है कि व्यक्ति का मूल्यांकन करते
समय इस विधा के सभी प्रकाशनों को दरकिनार कर दिया जाता है। और तो और, इसके साथ ही हम छात्रों के असाइनमेंट में निबंध प्रारूप की जगह बहु-विकल्पी
सवालों (MCQ)
को तरजीह देने लगे हैं। इसके परिणामस्वरूप, आज के छात्र किसी विषय पर उपलब्ध सारी जानकारी इकट्ठा करके एक निबंध तैयार
करने में बिलकुल भी आनंद नहीं लेते।
वैज्ञानिकों को लेखन के लिए अनुकरणीय उदाहरणों की ज़रूरत है। मेरी शिकायत रही
है कि वैज्ञानिक खराब लिखते हैं या पर्याप्त नहीं लिखते, लेकिन
सच्चाई यह है कि कई अनुकरणीय आदर्श मौजूद हैं। डॉकिंस की किताब दी ऑक्सफोर्ड
बुक ऑफ मॉडर्न साइंस राइटिंग (2008) ऐसे 394 उदाहरणों का एक प्रेरक संग्रह है
जिसमें मार्टिन रीस, फ्रांसिस क्रिक, फ्रेड
हॉयल,
जेरेड डायमंड, रैशेल कार्लसन, एडवर्ड ओ. विल्सन, फ्रीमैन डायसन, जे.बी.एस.
हाल्डेन,
जैकब ब्रोनोस्की, ओलिवर सैक्स, लेविस वोलपर्ट, कार्ल सेगन, जॉन
टायलर बोनर,
सिडनी ब्रेनर, जॉन मेनार्ड स्मिथ, डी’आर्ची थॉमसन, निको टिनबरगन, आर्थर
एडिंगटन,
पीटर मेडावर जैसे शानदार वैज्ञानिकों के आलेख शामिल हैं।
मेरे एक आदर्श हैं ज़्यां हेनरी फैबर (1823-1915)। फैबर एक फ्रांसीसी
कीटविज्ञानी,
प्रकृतिविद और एक उत्कृष्ट लेखक थे। उन्हें एक बेलेट्रिस्ट
(एक ऐसा व्यक्ति जो विशेष रूप से साहित्यिक और कलात्मक समालोचना पर निबंध लिखता है
जिनको मुख्य रूप से उनके सौंदर्यबोध के लिए रचा और पढ़ा जाता है), ‘विज्ञान कवि’ और ‘कीट विज्ञान का होमर’ कहा जाता है। जब मैं फैबर की रचना दी
बुक ऑफ इंसेक्ट्स को पढ़ता हूं, तब मेरे कानों में पिंकर के
शब्द गूंजने लगते हैं कि ‘…एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है‘ और
लगता है कि मुझमें लिखने की चाह पैदा हो जाती है।
विज्ञान की संस्कृति को बदलने की ज़रूरत है ताकि यह संभव हो सके कि वैज्ञानिक न
केवल उच्च गुणवत्ता के शोध में योगदान दें बल्कि साथ ही बेहतर संचार के लिए समय दे
सकें और उससे आनंद भी प्राप्त कर सकें। व्यापक गैर-तकनीकी पाठकों के लिए लिखने का
काम तकनीकी पेपर लिखने के कार्य से काफी पहले शुरू हो जाना चाहिए, तकनीकी पेपर लिखने के साथ-साथ निरंतर चलते रहना चाहिए और तकनीकी पेपर का लेखन
कार्य पूरा होने के बाद भी लंबे समय तक जारी रहना चाहिए। हम पाएंगे कि प्राकृतिक
विज्ञान में भी,
‘लेखन की प्रक्रिया के दौरान सबसे रचनात्मक सोच किया जा सकता
है।’ मेरा तो निश्चित रूप से यही अनुभव रहा है।
तो फिर पेशेवर विज्ञान लेखकों की क्या भूमिका होनी चाहिए? हमें यह भय नहीं पालना चाहिए कि यदि वैज्ञानिक अच्छा लिखेंगे और आम जनता के
लिए लिखने लगेंगे तो वे पेशेवर विज्ञान लेखकों को खदेड़ देंगे। विज्ञान लेखकों की
भूमिका तो अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन मेरी इच्छा उनको भी
ज्ञान निर्माताओं के रूप में देखने की है। विज्ञान लेखकों का काम केवल रिपोर्टिंग
करने से कहीं ज़्यादा होना चाहिए। उनका काम वैज्ञानिकों की अस्पष्ट भाषा को
अंग्रेज़ी में या फिर किसी अन्य भाषा में अनुवाद करने से कहीं अधिक होना चाहिए।
यदि वैज्ञानिक जनता के बीच विज्ञान के संप्रेषण का काम अच्छे से करते हैं, तो विज्ञान लेखक अपने प्रयासों को नए ज्ञान के निर्माण पर केंद्रित कर सकते
हैं। देखा जाए तो विज्ञान लेखक पार्श्विक तुलना करने, विज्ञान
की प्रक्रिया को समझने तथा संभावित पूर्वाग्रहों और हितों के टकराव को समझने की
बेहतर स्थिति में होते हैं जिनको वैज्ञानिक, अंदरूनी
व्यक्ति होने के कारण, सही तरह से समझ नहीं सकते हैं। अत:
अस्त-व्यस्त गद्य में सुधार करने की अपेक्षा करने की बजाय, हमें
विज्ञान लेखकों को ज्ञान परिष्कारकों की भूमिका के तौर पर बढ़ावा देना चाहिए।
विज्ञान लेखकों को अपने लेखन में इतिहास, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र और विज्ञान की राजनीति को भी शामिल करना चाहिए। विज्ञान की संस्कृति में बदलाव लाना चाहिए ताकि विज्ञान लेखकों को प्रतिष्ठा मिल सके और उन्हें ज्ञान परिष्कारक के रूप में स्वीकार करके वैज्ञानिकों की श्रेणी में शुमार किया जाए। वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों, दोनों को प्रभावी ढंग से ज्ञान का प्रसार करना चाहिए। इस तरह के सांस्कृतिक परिवर्तन विज्ञान के कामकाज की प्रक्रिया को अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक बनाएंगे और विज्ञान की सीमाओं का भी विस्तार करेंगे। इसी परिवर्तन का एक हिस्सा यह भी होगा कि विज्ञान को एक जटिल और महंगी गतिविधि के रूप में पैकेजिंग से मुक्त करना है जिसमें केवल उच्च प्रशिक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही प्रवेश कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख मूलत: करंट साइंस (25 अगस्त 2021) में प्रकाशित हुआ था।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://blog.writers.work/wp-content/uploads/2019/02/WW.FreelanceScience-01.png
ग्लासगो में आयोजित 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन
सम्मेलन (कॉप-26) के शुरुआती दिनों में विश्व भर के राजनेताओं द्वारा जलवायु
परिवर्तन से निपटने के लिए कई घोषणाएं की गईं। इन घोषणाओं में चरणबद्ध तरीके से
कोयला-आधारित ऊर्जा संयंत्रों को वित्तीय सहायता बंद करने से लेकर वनों की कटाई पर
प्रतिबंध लगाना तक शामिल थे। नेचर पत्रिका ने इस वार्ता में अब तक लिए गए
निर्णयों और संकल्पों पर शोधकर्ताओं के विचार जानने के प्रयास किए हैं।
मीथेन उत्सर्जन
वार्ता के पहले सप्ताह में मीथेन उत्सर्जन को रोकने के प्रयासों पर चर्चा हुई
जो कार्बन डाईऑक्साइड के बाद जलवायु को सबसे अधिक प्रभावित करती है। 100 से अधिक
देशों ने वर्ष 2030 तक वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत तक कम करने का संकल्प
लिया।
वैसे,
वैज्ञानिकों का मानना है कि 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 50
प्रतिशत तक की कमी करने का संकल्प बेहतर होता। फिर भी, वे 30
प्रतिशत को भी एक अच्छी शुरुआत के रूप में देखते हैं। शोध से पता चला है कि उपलब्ध
तकनीकों का उपयोग करके मीथेन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने से वर्ष 2100 तक वैश्विक
तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की कमी आ सकती है।
गौरतलब है कि यूएस संसद में जलवायु के मुद्दे से जूझ रहे अमेरिकी राष्ट्रपति
ने ग्लासगो सम्मलेन में तेल और गैस उद्योगों द्वारा मीथेन उत्सर्जन को रोकने के
लिए नए नियमों की घोषणा की है। यूएस पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी द्वारा प्रस्तावित
नियमों के मुताबिक कंपनियों को 2005 की तुलना में आने वाले दशक में मीथेन उत्सर्जन
में 74 प्रतिशत तक कमी करना होगी। ऐसा हुआ तो 2035 तक लगभग 3.7 करोड़ टन मीथेन
उत्सर्जन रोका जा सकेगा। यह अमेरिका में यात्री वाहनों और वाणिज्यिक विमानों से
होने वाले वार्षिक कार्बन उत्सर्जन के बराबर है।
भारत का नेट-ज़ीरो लक्ष्य
भारत की ओर से प्रधानमंत्री द्वारा वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन की
घोषणा उत्साह का केंद्र रही। वैसे भारत द्वारा निर्धारित समय सीमा कई अन्य देशों
से दशकों बाद की है और घोषणा में यह भी स्पष्ट नहीं है कि भारत केवल कार्बन
डाईऑक्साइड उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए प्रतिबद्ध है या इसमें अन्य ग्रीनहाउस
गैसें भी शामिल हैं। फिर भी यह काफी महत्वपूर्ण घोषणा है और अमल किया जाए तो अच्छे
परिणाम मिल सकते हैं।
वैसे सालों बाद नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के संकल्पों को लेकर वैज्ञानिकों का मत है
इस तरह के दीर्घकालिक वादे करना तो आसान होता है लेकिन इन्हें पूरा करने के लिए
अल्पकालिक निर्णय लेना काफी कठिन होता है। लेकिन भारत के संकल्प में निकट-अवधि के
मापन योग्य लक्ष्य शामिल किए गए हैं। उदाहरण के लिए भारत ने 2030 तक देश की बिजली
का 50 प्रतिशत अक्षय संसाधनों के माध्यम से प्रदान करने और कार्बन डाईऑक्साइड
उत्सर्जन को एक अरब टन कम करने का वादा किया है। फिर भी इन लक्ष्यों को परिभाषित
और उनके मापन की प्रकिया पर सवाल बना हुआ है।
कुछ मॉडल्स से ऐसे संकेत मिलते हैं कि यदि सभी देशों द्वारा नेट-ज़ीरो संकल्पों
को लागू किया जाए तो 50 प्रतिशत संभावना है कि ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस
या उससे कम तक सीमित किया जा सकता है।
जलवायु वित्त
वित्तीय क्षेत्र के 450 से अधिक संगठन जैसे बैंक, फंड
मेनेजर्स और बीमा कंपनियों ने 45 देशों में अपने नियंत्रण में 130 ट्रिलियन
अमेरिकी डॉलर के फंड को ऐसे क्षेत्रों में निवेश करने का निर्णय लिया है जो 2050
तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्ध हैं। हालांकि संस्थानों ने अभी तक इन
लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कोई अंतरिम लक्ष्य या समय सारणी प्रस्तुत नहीं की
है।
सरकारों ने स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश की भी घोषणा की है। यूके, पोलैंड,
दक्षिण कोरिया और वियतनाम सहित 40 देशों ने घोषणा की है
2030 तक (बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए) या 2040 तक (वैश्विक स्तर पर) कोयला बिजली
संयंत्रों को चरणबद्ध रूप से समाप्त किया जाएगा और नए कोयला आधारित बिजली
संयंत्रों के लिए सरकारी धन के उपयोग पर रोक लगाई जाएगी।
एक दिक्कत यह है कि ऐसी घोषणाओं को आम तौर पर सरकारों द्वारा अनदेखा कर दिया
जाता है। उदाहरण के लिए 2009 में निम्न और मध्यम आय वाले देशों को 2020 तक जलवायु
वित्त के तौर पर वार्षिक 100 अरब डॉलर देने के वचन को पूरा करने में सरकारें विफल
रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अभी 2 वर्ष का समय
और लगेगा और 70 प्रतिशत वित्त तो कर्ज़ के रूप में दिया जाएगा। ऐसे कर्ज़ों के
पीछे कई शर्तें छिपी रहती हैं।
निर्वनीकरण पर रोक
सम्मेलन में 130 से अधिक देशों ने 2030 तक वनों को होने वाली क्षति और
भूमि-क्षरण को रोकने का संकल्प लिया है। ब्राज़ील, डेमोक्रेटिक
रिपब्लिक ऑफ कांगो और इंडोनेशिया (जहां दुनिया के 90 प्रतिशत जंगल हैं) ने भी इस
संकल्प पर हस्ताक्षर किए हैं। गौरतलब है कि ऐसे संकल्प पहली बार नहीं लिए गए हैं।
2014 में न्यूयॉर्क डिक्लेरेशन ऑफ फॉरेस्ट में लगभग 200 से अधिक देशों, कंपनियों,
देशज समूहों और अन्य गठबंधनों ने 2020 तक वनों की कटाई दर
को आधा करने और 2030 तक इसे पूरी तरह खत्म करने का आह्वान किया था। इसमें जैव
विविधता को होने वाली क्षति को धीमा करने और अंततः उसको उलटने के लिए संयुक्त
राष्ट्र का लंबे समय से चला आ रहा संकल्प भी शामिल है। लेकिन बिना किसी आधिकारिक
निगरानी के यह निरर्थक ही है। शोधकर्ताओं के अनुसार एक प्रवर्तन तंत्र के बिना इन
लक्ष्यों को प्राप्त करना असंभव है।
इसके अलावा, उच्च आय वाले देशों के एक समूह ने 2021 और 2025 के बीच वन संरक्षण के लिए 12 अरब डॉलर का सरकारी वित्त प्रदान करने का संकल्प लिया था लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया था कि यह धन राशि कैसे प्रदान की जाएगी। कनाडा, अमेरिका, यूके और युरोपीय संघ सहित कई देशों के संयुक्त वक्तव्य में बताया गया कि सरकारें “निजी क्षेत्र के साथ मिलकर काम करेंगी” ताकि “बड़े स्तर पर बदलाव के लिए निजी स्रोतों से धन मिल सके।” ज़ाहिर है, वित्त मुख्य रूप से ऋण के रूप में दिया जाएगा। फिर भी, ये निर्णय काफी आशाजनक हैं। पिछले कुछ जलवायु सम्मेलनों और इस वर्ष ग्लासगो में प्रकृति और वनों पर काफी चर्चाएं हुई हैं। इससे पहले की बैठकों में जैव विविधता पर बात नहीं होती थी। संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता और जलवायु को अलग-अलग चुनौतियों के रूप में देखता था। इन विषयों पर चर्चा भविष्य के लिए काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.dw.com/image/59812388_101.jpg
अक्षय उर्जा की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी वित्तीय बाधा जीवाश्म
ईंधनों को मिलने वाली सब्सिडी है। हर वर्ष, दुनिया
भर की सरकारें जीवाश्म ईंधनों की कीमत कम रखने के लिए लगभग 5 खरब डॉलर खर्च करती
हैं। यह नवीकरणीय उर्जा पर किए जाने वाले खर्च से तीन गुना अधिक है। इसे खत्म करने
के संकल्पों के बाद भी स्थिति बदली नहीं है।
वैसे,
इस तरह के परिवर्तन लाना असंभव नहीं है। जिनेवा स्थित एक शोध
समूह ग्लोबल सब्सिडीज़ इनिशिएटिव (जीएसआई) के अनुसार 2015 से 2020 के बीच लगभग 53
देशों ने अपनी जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में सुधार किया है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी
(आईए) ने 2021 में जारी रिपोर्ट में कहा है कि नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के लिए
आने वाले वर्षों में सभी सरकारों को जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करना होगा।
सब्सिडी के प्रकार
आम तौर पर जीवाश्म ईंधन पर दो प्रकार की सब्सिडी दी जाती हैं। पहली, उत्पादन सब्सिडी जिसमें कर में छूट से कोयला, तेल, या गैस की उत्पादन लागत में कमी होती है। यह पश्चिमी देशों में अधिक देखने को
मिलती हैं। आयल चेंज इंटरनेशनल, कनाडा के विश्लेषक ब्रॉनवेन
टकर के अनुसार यह सब्सिडी बुनियादी ढांचा स्थापित करने में उपयोगी होती है।
दूसरी उपभोग सब्सिडी होती हैं जो उपयोगकर्ताओं के लिए ईंधन के दामों में कमी
करती हैं। पेट्रोल पंपों पर दाम बाज़ार दर से कम रखे जाते हैं। यह सब्सिडी आम तौर
पर कम आय वाले देशों में अधिक देखने को मिलती है जहां लोग खाना पकाने के लिए
स्वच्छ ईंधन का खर्च नहीं उठा सकते हैं। मध्य पूर्व के देशों में इन सब्सिडीज़ को
लोगों को प्राकृतिक संसाधनों से लाभान्वित करने के रूप में देखा जाता है।
आईए और आर्गेनाईज़ेशन फॉर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) का अनुमान
है कि विश्व के 90 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन की आपूर्ति करने वाली 52 उन्नत और उभरती
हुई अर्थव्यवस्थाओं ने 2017 से 2019 के बीच औसतन 555 अरब अमेरिकी डॉलर की सब्सिडी
प्रदान की है। हालांकि, 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान कम
ईंधन खपत और गिरते दामों के कारण यह 345 अरब डॉलर रही।
लेकिन कई संगठन सब्सिडी का अनुमान लगाने की प्रक्रिया से असहमत हैं। एक बड़ी
जटिलता यह है कि जीवाश्म ईंधन के कुछ सार्वजनिक फंडिंग में सब्सिडी और गैर-सब्सिडी
दोनों के तत्व मौजूद हैं। फिर भी पिछले वर्ष नवंबर में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर
सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईआईएसडी) ने सभी सार्वजनिक फंडिंग को ध्यान में रखते हुए
अनुमान लगाया है कि केवल G20 समूह के देशों ने 2017 से
2019 के बीच प्रति वर्ष 584 अरब डॉलर की सब्सिडी दी है जो ओईसीडी-आईए के विश्लेषण
से काफी अधिक है। इनमें सबसे बड़े सब्सिडी प्रदाताओं में चीन, रूस,
सऊदी अरब और भारत शामिल हैं।
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि जीवाश्म ईंधनों की छिपी हुई लागत जैसे वायु
प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग पर उनके प्रभाव को अनदेखा करना भी एक प्रकार की
सब्सिडी है। पिछले माह जारी एक रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश ने इन सभी
को ध्यान में रखते हुए 2020 में कुल जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी की गणना 59 खरब डॉलर की
है जो वैश्विक जीडीपी का 9 प्रतिशत है।
सब्सिडी बंद करना कठिन क्यों?
एक बड़ी समस्या तो परिभाषा की है। G7 और G20
देशों ने अकार्यक्षम जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को खत्म करने का वादा तो किया है लेकिन
उन्होंने इस जुम्ले को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया है। कुछ देशों का तो दावा
है कि वे सब्सिडी देते ही नहीं हैं जिसे खत्म किया जाए। एक उदाहरण यूके का है जो
जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर कुछ टैक्स को छोड़ देता है और सीधे अपने तेल और गैस
उद्योग का फंडिंग करता है।
इसके अलावा,
प्रत्येक राष्ट्र के पास जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी देने के
अपने कारण हैं जो अक्सर उनकी औद्योगिक नीतियों से जुड़े हैं। उत्पादन सब्सिडी को
हटाने में तीन मुख्य बाधाएं हैं। पहली, जीवाश्म ईंधन कंपनियां
राजनैतिक रूप से शक्तिशाली हैं। दूसरा, लोगों की नौकरी जाने का
खतरा। और तीसरा,
यह चिंता कि ऊर्जा की बढ़ती कीमतों से आर्थिक विकास में कमी
और मुद्रास्फीति में तेज़ी आ सकती है।
वैसे,
इन सभी बाधाओं को दूर किया जा सकता है। जैसे जीवाश्म ईंधन
कंपनियों को धन न देकर उसका उपयोग उर्जा की बढ़ती कीमतों के प्रभावों की भरपाई के
लिए किया जा सकता है। जीएसआई के अनुसार फिलीपींस, इंडोनेशिया, घाना और मोरक्को ने सब्सिडी हटाने की क्षतिपूर्ति करने के लिए नगद हस्तांतरण
और शिक्षा निधि और गरीब परिवारों को स्वास्थ्य बीमा जैसी सहायता प्रदान की है।
इसके साथ ही सरकार को जीवाश्म ईंधन श्रमिकों को वैकल्पिक रोज़गार खोजने में मदद की
भी योजना बनाना चाहिए।
ऊर्जा सब्सिडी को हटाने के लिए राजनैतिक झिझक को दूर करने का एक तरीका यह है
कि समर्थन जारी रखा जाए किंतु उसे हरित ऊर्जा को बढ़ावा देने से जोड़ दिया जाए।
जीवाश्म ईंधन उद्योगों को नवीकरणीय उर्जा के क्षेत्र में कदम रखना चाहिए। उदाहरण
के लिए,
डेनमार्क की ओर्स्टेड नामक एक सरकारी कंपनी जीवाश्म ईंधन से
विश्व की सबसे बड़ी नवीकरणीय उर्जा उत्पादक में परिवर्तित हुई है।
इसके अतिरिक्त, तेल की कम कीमतों के दौरान खपत सब्सिडीज़ को
हटाना एक अच्छा विचार है। आईआईएसडी के अनुसार, तेल का
आयात करने वाले देश भारत ने तेल की कम कीमतों का लाभ उठाते हुए 2014 से 2019 के
बीच तेल और गैस सब्सिडी काफी कम कर दी है।
तेल की कम कीमतों ने सऊदी अरब को अपने भारी सब्सिडी वाले घरेलू जीवाश्म ईंधन
और बिजली की कीमतों में वृद्धि करने में मदद की। इस देश ने 2016 से ईंधन की कीमतों
में धीरे-धीरे वृद्धि करके काफी तेज़ी से विकास किया है। इसने कम आय वाले परिवारों
को नगद मदद प्रदान करके मूल्य वृद्धि के प्रभावों को कुछ हद तक कम कर दिया है।
हालांकि,
कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र कुछ कदम वापिस ले लिए गए हैं।
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि जलवायु नीतियां कम आय वाले समुदायों को नुकसान न
पहुंचाएं। जब 2019 में इक्वेडोर ने तेज़ी से ईंधन कर में वृद्धि की तो नागरिकों के
व्यापक विरोध ने सरकार को पुन: सब्सिडी शुरू करने को मजबूर किया। जब भारत ने
एलपीजी गैस के लिए अपनी सब्सिडी को कम किया तो उम्मीद थी कि ग्रामीण आबादी को खाना
पकाने के लिए मुफ्त एलपीजी सिलिंडर देकर ऊंची कीमतों की भरपाई हो जाएगी।
जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव
आईआईएसडी की जुलाई की रिपोर्ट के अनुसार, 32
देशों में खपत सब्सिडी को हटाने से वर्ष 2025 तक उनके ग्रीनहाउस उत्सर्जन में औसतन
6 प्रतिशत की कमी आएगी। यह वर्ष 2018 की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट से भी मेल
खाती है जिसमें जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने से 2020 से 2030 तक
वैश्विक उत्सर्जन में 1 प्रतिशत से 11 प्रतिशत की कमी आ सकती है। इसका सबसे बड़ा
प्रभाव मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में होगा। इस कमी की भरपाई नवीकरणीय उर्जा के
उपयोग को प्रोत्साहित करके की जा सकती है।
इंटरनेशनल रिन्यूएबल एनर्जी एजेंसी (आईआरईएनए) की एक रिपोर्ट के अनुसार
ऊर्जा-क्षेत्र की 634 अरब डॉलर सब्सिडी में से लगभग 70 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन, 20 प्रतिशत अक्षय उर्जा, 6 प्रतिशत जैव ईंधन और 3
प्रतिशत परमाणु उर्जा के लिए है। इस प्रकार का असंतुलन पेरिस जलवायु लक्ष्यों को
प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा है।
आईआरईएनए ने अपनी रिपोर्ट में एक खाका भी पेश किया है कि 2050 तक वैश्विक
तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के लिए वैश्विक उर्जा सब्सिडी
में किस तरह के परिवर्तन करना होंगे।
परिवर्तन की संभावनाएं
ग्लासगो,
यूके में नवंबर में होने वाले जलवायु शिखर सम्मलेन COP26 से पहले इतालवी राष्ट्रपति ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से
समाप्त करने का विचार रखा है। इसी तरह इस वर्ष जनवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति
बाइडेन ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में कटौती करने के कार्यकारी आदेश जारी किए हैं
जिनका अनुमोदन संसद द्वारा होने के बाद ही लागू होंगे। रूस अभी भी जीवाश्म ईंधन पर
निर्भर है इसलिए वह लगभग 2060 तक कार्बन तटस्थ होने की कोशिश करेगा।
कुछ जलवायु अधिवक्ताओं ने उत्सर्जन में कमी के नाम पर नई टेक्नॉलॉजी के लिए नई
सब्सिडी के खिलाफ चेतावनी दी है। उदाहरण के लिए, ‘ब्लू’
हाइड्रोजन के लिए सब्सिडी का विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। गौरतलब है कि ‘ब्लू’
हाइड्रोजन वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जीवाश्म ईंधन से हाइड्रोजन बनाई
जाती है और इसके उप-उत्पाद के रूप में उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड को एक जगह
संग्रहित कर दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार जीवाश्म ईंधन कंपनियां भारी-भरकम
सब्सिडी प्राप्त करने के लिए ऐसी परियोजनाओं को बढ़ावा दे रही हैं।
G20 और G7 शिखर सम्मलेन के दौरान, छोटे देशों के समूह काफी समय से सब्सिडी सुधार पर आम सहमति बनाने की कोशिश कर रहे हैं। 2019 में कोस्टा रिका, फिजी, आइसलैंड, न्यूज़ीलैंड और नॉर्वे द्वारा शुरू की गई व्यापार और जलवायु परिवर्तन पर एक पहल का उद्देश्य जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करना और सदस्य देशों के बीच पर्यावरणीय वस्तुओं के व्यापार की बाधाओं को दूर करना है। वैसे ये देश सब्सिडी देने वाले बड़े देश तो नहीं हैं लेकिन इनके द्वारा इस तरह के निर्णय अन्य देशों के लिए मिसाल कायम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.greenpeace.org/usa/wp-content/uploads/2021/02/GP0STPXHV_Medium_res.jpg
आश्चर्य की बात है कि लोगों के एक ही प्रोटीन की साइज़ में
अंतर हो सकता है – कुछ में छोटा तो कुछ में बड़ा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन
प्रोटीन को कोड करने वाले जीन में डीएनए शृंखला के कुछ खंडों का कई बार दोहराव हो
जाता है। इस दोहराव की संख्या हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकती है। डीएनए खंड का
प्रत्येक दोहराव प्रोटीन में अमीनो अम्ल की एक अतिरिक्त शृंखला जोड़ देता है। जीन
में दोहराव जितनी अधिक बार होगा प्रोटीन का आकार उतना ही बड़ा होगा।
शोधकर्ताओं के अनुसार, जीन के छोटे संस्करण द्वारा
निर्मित प्रोटीन में 1000 अमीनो अम्ल और जीन के लंबे संस्करण द्वारा निर्मित
प्रोटीन में 2000 अमीनो अम्ल तक हो सकते हैं। जीन में यह दोहराव वेरियेबल नंबर ऑफ
टेंडम रिपीट (वीएनटीआर) कहलाता है।
हाल ही में हुए वीएनटीआर के एक व्यापक विश्लेषण में पाया गया है कि ये दोहराव
व्यक्ति के कद और गंजेपन जैसे लक्षणों को काफी प्रभावित करते हैं। साइंस
पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार वीएनटीआर की मदद से ओझल आनुवंशिकता को
समझने में मदद मिलेगी: देखा गया है कि ज्ञात आनुवंशिक संस्करण मनुष्यों में
बीमारियों,
व्यवहार और अन्य शारीरिक लक्षणों (यानी फीनोटाइप) की व्याख्या
के लिए पर्याप्त नहीं होते।
वैसे तो आनुवंशिकीविद काफी समय से वीएनटीआर के संभावित प्रभावों के बारे में
जानते हैं लेकिन इनका अध्ययन करना तकनीकी कारणों से मुश्किल है। इसलिए ब्रॉड
इंस्टीट्यूट के आनुवंशिकीविद रोनेन मुकामेल और उनके साथियों ने उपलब्ध डीएनए
अनुक्रमण डैटा और सांख्यिकीय तकनीक की मदद से वीएनटीआर के आकार का अनुमान लगाया।
शोधकर्ताओं ने यूके बायोबैंक प्रोजेक्ट के चार लाख से अधिक प्रतिभागियों के
118 प्रोटीन को कोड करने वाले जीन्स में वीएनटीआर के प्रभाव का विश्लेषण किया।
उन्होंने इन वीएनटीआर की लंबाई और 786 विभिन्न फीनोटाइप के बीच सम्बंध देखा। यूके
बायोबैंक में बड़े पैमाने पर लोगों की विस्तृत आनुवंशिक और स्वास्थ्य जानकारी है।
शोधकर्ताओं को विश्लेषण में प्रोटीन के आकार और मनुष्यों के फीनोटाइप के बीच
मज़बूत सम्बंध दिखा। और कई मामलों में वीएनटीआर का प्रभाव किसी अन्य ज्ञात
आनुवंशिक परिवर्तन से अधिक मिला। कुल 19 फीनोटाइप और पांच विभिन्न वीएनटीआर के बीच
मज़बूत सम्बंध दिखा। वीएनटीआर के स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभावों में लिपोप्रोटीन(ए)
का उच्च स्तर (जो हृदय धमनी रोग का प्रमुख कारक है) और किडनी कार्यों से जुड़े कई
लक्षण शामिल हैं। यह कद से भी स्पष्ट रूप से जुड़ा दिखा। एग्रेकेन प्रोटीन को कोड
करने वाले ACAN जीन की भिन्न-भिन्न वीएनटीआर लंबाई के कारण लोगों की ऊंचाई में औसतन 3.2 सेमी
अंतर दिखा।
इस तरह की खोजें किसी व्यक्ति में रोग विकसित होने की संभावना के बारे में पता करने के आनुवंशिक परीक्षण के नए तरीके देती है। यह रोग निदान का एक नया तरीका हो सकता है जो लक्षण प्रकट होने से पूर्व संकेत दे सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69219/aImg/43651/height-article-l.jpg