जापान: युग की समाप्ति और कंप्यूटर की दशा

ताया जा रहा है कि जापान में कंप्यूटर प्रणाली पर एक बड़ा संकट आने वाला है। दिक्कत कंप्यूटर की तारीखों के साथ है और लगभग वैसी ही है जैसी वर्ष 2000 में दुनिया भर के कंप्यूटरों के साथ पेश आई थी। उसे वाय-टू-के (Y2K) समस्या कहा गया था।

जापान में नए सम्राट के राज्याभिषेक के साथ नया युग शुरू होता है। वर्तमान सम्राट अकिहितो ने 1989 में गद्दी संभाली थी। उस समय जो युग जापान में शुरु हुआ था उसका नाम है हाईसाई (यानी सर्वत्र शांति)। यही वह समय था जब कंप्यूटरों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था।

अब स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों के चलते सम्राट अकिहितो सिंहासन छोड़ना चाहते हैं। उन्होंने यह ऐलान किया है कि वे 30 अप्रैल 2019 के दिन सिंहासन छोड़ देंगे और उनके उत्तराधिकारी पुत्र 57-वर्षीय नारुहितो की ताज़पोशी हो जाएगी। अकिहितो के सिंहासन छोड़ने के निर्णय के अनुरूप जापान की केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि वहां 24 फरवरी 2019 के दिन सम्राट के 30 साल के राज का जश्न मनाया जाएगा।

चूंकि अकिहितो का शासन और कंप्यूटर क्रांति लगभग साथ-साथ शुरू हुए थे इसलिए कंप्यूटर की तारीखों में कोई समस्या नहीं आई थी। लेकिन अब जापान में नए युग की शुरुआत होगी और तब कंप्यूटरों की तारीख और नए युग की तारीख के बीच अंतर के चलते समस्याओं की आशंका है। और सरकार नए युग की शुरुआत की घोषणा जल्दी नहीं करना चाहती क्योंकि उससे गलत संदेश जाने का डर है।

जापान के घरेलू व अंतर्राष्ट्रीय मामलों के स्वतंत्र विश्लेषक एन-लिओनोर डार्डेने का कहना है कि खास तौर से डाक विभाग, बैंक और स्थानीय सरकारों द्वारा रखे जाने वाले आवासीय पतों के रजिस्टर के रख-रखाव का काम प्रभावित होगा क्योंकि इनके कंप्यूटर अपने कामकाज के लिए जापानी युग की तारीखों पर निर्भर हैं। लिहाज़ा कंप्यूटर तकनीशियनों को ओव्हरटाइम काम करके समस्या का हल निकालना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टेस्ट ट्यूब शिशु के चालीस साल

लुईस ब्राउन वह पहली बच्ची थी जिसका जन्म टेस्ट ट्य़ूब बेबी नाम से लोकप्रिय टेक्नॉलॉजी के ज़रिए हुआ था। आज वह 40 वर्ष की है और उसके अपने बच्चे हैं। एक मोटेमोटे अनुमान के मुताबिक इन 40 वर्षों में दुनिया भर में 60 लाख से अधिक टेस्ट ट¬ूब बच्चेपैदा हो चुके हैं और कहा जा रहा है कि वर्ष 2100 तक दुनिया की 3.5 प्रतिशत आबादी टेस्ट ट्यूब तकनीक से पैदा हुए लोगों की होगी। इनकी कुल संख्या 40 करोड़ के आसपास होगी।

वैसे इस तकनीक का नाम टेस्ट ट्यूबबेबी प्रचलित हो गया है किंतु इसमें टेस्ट ट्यूब का उपयोग नहीं होता। किया यह जाता है कि स्त्री के अंडे को शरीर से बाहर एक तश्तरी में पुरुष के शुक्राणु से निषेचित किया जाता है और इस प्रकार निर्मित भ्रूण को कुछ दिनों तक शरीर से बाहर ही विकसित किया जाता है। इसके बाद इसे स्त्री के गर्भाशय में आरोपित कर दिया जाता है और बच्चे का विकास मां की कोख में ही होता है।

इस तकनीक को सफलता तक पहुंचाने में ब्रिटिश शोधकर्ताओं को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। भ्रूण वैज्ञानिक रॉबर्ट एडवड्र्स ने अंडे का निषेचन शरीर से बाहर करवाया, जीन पर्डी ने इस भ्रूण के विकास की देखरेख की और स्त्री रोग विशेषज्ञ पैट्रिक स्टेपटो ने मां की कोख में बच्चे की देखभाल की थी। लेकिन प्रथम शिशु के जन्म से पहले इस टीम ने 282 स्त्रियों से 457 बार अंडे प्राप्त किए, इनसे निर्मित 112 भ्रूणों को गर्भाशय में डाला, जिनमें से 5 गर्भधारण के चरण तक पहुंचे। आज यह एक ऐसी तकनीक बन चुकी है जो सामान्य अस्पतालों में संभव है।

बहरहाल, इस तरह प्रजनन में मदद की तकनीकों को लेकर नैतिकता के सवाल 40 साल पहले भी थे और आज भी हैं। इन 40 सालों में प्रजनन तकनीकों में बहुत तरक्की हुई है। हम मानव क्लोनिंग के काफी नज़दीक पहुंचे हैं, भ्रूण की जेनेटिक इंजीनियरिंग की दिशा में कई कदम आगे बढ़े हैं, तीन पालकों वाली संतानें पैदा करना संभव हो गया है। सवाल यह है कि क्या इस तरह की तकनीकों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो ऐसे परिवर्तन करती है जो कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेंगे। कहीं ऐसी तकनीकें लोगों को डिज़ायनर शिशु (यानी मनचाही बनावट वाले शिशु) पैदा करने को तो प्रेरित नहीं करेंगी?(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घाव की निगरानी और ज़रूरी होने पर दवा देती पट्टी

जीर्ण (पुराने) घावों को भरने में बहुत वक्त लगता है। घाव भरने के दौरान इनकी नियमित देखभाल करनी पड़ती है वरना संक्रमण की आशंका होती है। कभी-कभी तो नौबत यहां तक पहुंच जाती है कि व्यक्ति का वह अंग ही काटना पड़ जाता है। डायबिटीज़ और मोटापे की समस्या से ग्रस्त लोगों में जीर्ण घाव होने की संभावना और भी बढ़ जाती है।

इस समस्या से राहत पाने के लिए टफ्ट्स विश्वविद्यालय के समीर सोनकुसाले और उनकी टीम ने ऐसा बैंडेज विकसित किया है जो घावों की देखभाल करेगा और ज़रूरत के हिसाब से घाव पर दवा भी लगा देगा।

इस बैंडेज में लगे सेंसर घाव से रिसने वाले जैविक अणुओं का जायज़ा लेते रहते हैं और इनके आधार पर घाव की हालत भांपते हैं। उदाहरण के लिए, सेंसर देखते हैं कि घाव को ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में मिल रही है या नहीं; घाव का ph (यानी अम्लीयता) का स्तर ठीक है या नहीं; घाव असामान्य स्थिति में तो नहीं है; घाव के आसपास का तापमान क्या है; कोई सूजन तो नहीं है। इस जानकारी को एक माइक्रोप्रोसेसर में पढ़ा जाता है। फिर घाव की स्थिति एक मोबाइल डिवाइस को भेजी जाती है। यदि दवा देने की ज़रूरत लगती है तो वह डिवाइस बैंडेज को दवा, एंटीबायोटिक देने के निर्देश देती है।

पिछले कुछ सालों में वैज्ञानिकों ने ऐसे आधुनिक बैंडेज विकसित किए हैं जो घाव में संक्रमण का पता कर सकते हैं और यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि वह कितनी तेज़ी से ठीक हो रहा है। किंतु घाव की स्थिति भांपकर उपचार करने वाला यह पहला बैंडेज है हालांकि यह बैंडेज अभी बाज़ारों में उपलब्ध नहीं हैं। शोधकर्ताओं का कहना है अलग-अलग तरह के जीर्ण घावों की देखभाल और उपचार के लिए अभी इस पर और काम किया जाना बाकी है। उम्मीद है कि यह बैंडेज बेड सोर, जलने के घाव और सर्जरी के घावों को भरने में मददगार होगा। इस तरह का बैंडेज संक्रमण को कम करेगा। शायद अंग को काटे जाने की नौबत ना आए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्मार्टफोन के क्लिक से रंग बदलते कपड़े – डॉ. डी बालसुब्रमण्यन

पी.जी. वुडहाउस के प्रशंसकों को याद होगा कि ऑन्ट डहलिया कहानी के नायक बर्टी वूस्टर को उनकी अपनी साप्ताहिक पत्रिका मिलेडीज़ बुडवारके लिए  “what the well dressed man is wearing” (बनेठने आदमी ने क्या पहना है?) विषय पर लेख लिखने को राज़ी कर लेती हैं। यह बात 1920 के दशक की है और तब लोगों के पास फुरसत के पल भी थे। पर आज, लगभग 100 साल बाद, भागदौड़ भरा समय है। और हाल ही में साइंस न्यूज़ नामक पाक्षिक पत्रिका ने फैशन फॉरवर्ड आधुनिक वस्त्र उद्योग परिधानों में गैजेट्स लगा सकेगानामक एक लेख प्रकाशित किया है। इसकी लेखक मारिया टेमिंग और मारियाह क्वांटानिला हैं।

मारिया और मारियाह ने अपने इस लेख में आने वाले समय में गैजेट से लैस स्मार्टकपड़ों के बारे में लिखा है। उन्होंने अमेरिका में हुई तकनीकी बैठक में कई डेवलपर्स और अन्वेषकों द्वारा प्रस्तुत कुछ उदाहरण दिए हैं। लेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।

रंग बदलते कपड़े

साठसत्तर साल पहले ब्लीडिंग मद्रासकहलाने वाली शर्ट बिकती थी। यह हर धुलाई पर रंग बदलती थी (और रंग हल्का पड़ता जाता था)। पर यहां जिन कपड़ों के बारे में बात की जा रही है वे धोने पर नहीं बल्कि रोशनी (सूरज वगैरह की रोशनी) पड़ने पर रंग बदलते हैं और यह बदलाव पलटा जा सकता है। इसके लिए पहनने वाले को अपने स्मार्टफोन के स्क्रीन को क्लिक करना होता है। पर यह रंग बदलता कैसे है?

दरअसल इन कपड़ों को बनाने के लिए ऐसे धागों का उपयोग किया जाता है जिनमें तांबे के अत्यंत पतले तार पॉलीस्टर (या नायलॉन) में लिपटे होते हैं। पॉलीस्टर के रेशों पर रंजक (पिगमेंट) होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे सामान्य कपड़ों पर होते हैं। परिधान इन्हीं रंजक युक्त धागों से बनाए जाते हैं, और इन परिधानों पर छोटी बैटरी भी लगी होती है। यह बैटरी धागे में लिपटे तांबे के तार को गर्म करती है। परिधान पहना व्यक्ति अपने स्मार्टफोन से एक वाईफाई सिग्नल भेजता है, तो बैटरी चालू हो जाती है और तांबे का तार गर्म होने लगता है। इसके चलते कपड़े का रंग बदल जाता है या कपड़े पर नया पैटर्न (धारियां, चौखाने वगैरह) उभर आता है। अमेरिका स्थित सेंट्रल फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डॉ. जोशुआ कॉफमैन और डॉ. अयमान अबॉरेड्डी द्वारा बनाए ये कपड़े, बैग और अन्य चीज़ें जल्द ही बाज़ार में पहुंच जाएंगी।

गुजरात और राजस्थान की महिलाएं वहां की पारंपरिक पोशाक लहंगा या घाघरा पहनती हैं, इनमें छोटेछोटे कांच जड़े होते हैं। जब इन कांच के टुकड़ों पर रोशनी पड़ती है तो ये चमकते हैं। पर अब जल्द ही इन कपड़ों का हाईटेक संस्करण आएगा जिनमें कपड़ों पर पारंपरिक निर्जीव कांच की जगह जलतेबुझते एलईडी लगे होंगे जो प्रकाश उत्सर्जित करेंगे। इन एलईडी को शोधकर्ताओं ने ओएलईडी का नाम दिया है। ये ओएलईडी पॉलीस्टर कपड़े पर ही बनाए जाते हैं और परंपरागत एलईडी की तुलना में कहीं अधिक लचीले होते हैं। इसे दक्षिण कोरिया के डीजॉन में कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के डॉ. एस. क्वोन और उनके सहयोगियों ने विकसित किया है। स्मार्टफोन से विद्युत सिग्नल भेजकर इन ओएलईडी को चालू करके कपड़ों को रोशन किया जा सकता है। इस तरह कपड़ों पर पैटर्न, संदेश वगैरह बनाए जा सकते है या रात में पैदल चलने वाले राहगीरों के लिए रोशनी की जा सकती है।

तेज़ चाल से चलने या दौड़ने के बाद हमें गर्मी लगती है चलनेफिरने से ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न होती है। इसी तरह कुछ देर धूप में खड़े रहने पर भी हमें गर्मी लगती है, उर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा गर्मी के रूप में खो जाती है। इस तरह गर्मी के माध्यम से ऊर्जा खोने की बजाय क्या हम इस गर्मी या शरीर की गति को विद्युत उर्जा में परिवर्तित कर सकते हैं? इस सवाल पर स्टैनफोर्ड और जॉर्जिया टेक विश्वविद्यालय के डॉ. जून चेन और डॉ. झोंग लिन वांग ने काम किया है। उन्होंने कपडों में फोटोवोल्टेइक तार गूंथ दिए। इन तारों पर सूर्य का प्रकाश पड़ने पर वे सोलर सेल की तरह, कुछ मात्रा में बिजली उत्पन्न कर सकते हैं। इस बिजली को कपड़ों में लगी बैटरी में स्टोर किया जा सकता है। डॉ. चेन का कहना है कि आपकी टीशर्ट पर सौर सेल कपड़े का 4 सेमी × 5 सेमी टुकड़ा सिल दिया जाए, और आप सूर्य की रोशनी में दौड़ें तो एक सेलफोन चार्ज करने लायक बिजली उत्पन्न की जा सकती है। सोचिए अगर आपने पूरी तरह इस कपड़े से बनी शर्ट या जैकेट पहनी हो तब!

डॉ. चेन ने एक और विशेष प्रकार के पॉलीमर या बहुलक (जिसे पीटीएफई कहा जाता है) से कपड़ा तैयार किया है। यह शरीर की गति से उत्पन्न उर्जा को सोखता है और इसे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है। मारिया और मारियाह लिखती हैं: इस तरह के ऊर्जा उत्पन्न करने वाले यंत्र तंबुओं में भी लगाए जा सकते हैं। इन पर सूरज की रोशनी पड़ने या हवा के चलने पर ये शिविर में रहने वाले लोगों के उपकरणों को चार्ज कर सकते हैं।

मारिया और मारियाह का यह लेख इंटरनेट पर (https://www.sciencenews.org/article/future-smart-clothes-could-pack-serious-gadgetry) मुफ्त में उपलब्ध है और अत्यंत पठनीय है। लेख में और भी ऐसे अध्ययनों का उल्लेख किया गया है जो इस तरह के उपकरणों के माध्यम से पर्यावरण की ऊर्जा को विद्युत उर्जा में परिवर्तित करके संग्रहित कर उसका उपयोग करते हैं।

हल्केफुल्के सेल फोन

कुछ लोग भारी भरकम सेलफोन संभालने के बजाए कलाई में पहने जाने वाले फोन उपयोग करना पसंद कर रहे हैं। कुछ लोग लैपटॉप की जगह स्मार्टफोन का उपयोग करने लगे हैं। (हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. मार्टिन चाफी ने हैदराबाद में तीन अलगअलग व्याख्यान दिए। व्याख्यान से जुड़ी स्लाइड, फिल्में वगैरह लैपटाप में नहीं स्मार्टफोन में थीं। पहनने योग्य उपकरण (कम्प्यूटर तक) तेज़ी से लोकप्रिय और सुविधाजनक हो जाएंगे। इन्हें अब आपके कपड़ों में लगे उपकरणों की मदद से चार्ज किया जा सकेगा। तो देखते हैं, अगले साल का फैशन क्या होगा।(स्रोत फीचर्स)

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यान के उतरने पर चांद को कितना नुकसान

हमदाबाद स्थित राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने गणना की है कि जब कोई यान चांद पर उतरता है तो चांद की सतह पर कितने गहरे गड्ढे बनते हैं और कितनी धूल उड़ती है। इस गणना का मकसद चांद को कवियों और शायरों के लिए सुरक्षित रखना नहीं बल्कि अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाना है।

एस. के. मिश्रा व उनके साथियों ने अपने शोध के परिणाम प्लेनेट स्पेस साइन्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किए हैं। जब कोई यान चंद्रमा पर (या किसी भी ग्रह पर) उतरता है तो वह खूब धूल उड़ाता है। इसके चलते गड्ढे वगैरह तो बनते ही हैं, सारी धूल जाकर यान के सौर पैनल पर जमा हो जाती है। यान के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत यही सौर पैनल होते हैं जिनकी मदद से सौर ऊर्जा का दोहन होता है। जब इन पर धूल जमा हो जाती है तो ये पैनल ठीक से काम नहीं कर पाते।

मिश्रा व उनके साथियों ने इस क्षति की गणना करने के लिए यह देखा कि उतरने से पूर्व यान कितनी देर तक सतह के ऊपर मंडराता है और कितनी ऊंचाई पर मंडराता है। इन दोनों बातों का असर यान के द्वारा उड़ाई गई धूल की मात्रा पर और धूल के कणों की साइज़ पर पड़ता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मूलत: यान के सतह से ऊपर मंडराने के समय का असर धूल की मात्रा पर पड़ता है। उनकी गणना बताती है कि यदि मंडराने की अवधि को 25 सेकंड से बढ़ाकर 45 सेकंड कर दिया जाए तो धूल की मात्रा तीन गुनी हो जाती है।

इन परिणामों के मद्देनज़र शोधकर्ताओं का सुझाव है कि चांद की सतह पर क्षति को न्यूनतम रखने के लिए बेहतर होगा कि यान के मंडराने का समय कम से कम रखा जाए। इसके अलावा, उनका यह भी मत है कि अवतरण के समय यान पर ब्रेक लगाने का काम काफी ऊंचाई से ही शुरू कर देना चाहिए और जब यान सतह से 10 मीटर की ऊंचाई पर हो तो ब्रेक लगाना बंद कर देना चाहिए या कम से कम ब्रेक लगाने चाहिए। शोधकर्ताओं के मुताबिक उनके निष्कर्ष चांद पर अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

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चूहों में खोई याददाश्त वापस लाई गई

नुष्यों की तरह चूहों में भी स्मृति लोप होता है जिसमें में वे अपने शैशव अवस्था के अनुभवों या यादों को भूल जाते हैं। हाल ही में करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार चूहों में ये अनुभव पूरी तरह से नहीं मिटते बल्कि उन तक पहुंचना मुश्किल होता है। इन्हें बहाल किया जा सकता है।

19वीं शताब्दी में सिग्मंड फ्रायड के पास कुछ ऐसे मरीज़ आए जिन्हें अपने शुरुआती सालों के अनुभव या बातें याद नहीं थीं। सिग्मंड फ्रायड ने इस बीमारी को शैशव स्मृतिलोप का नाम दिया। तब से लेकर अब तक वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि मनुष्यों, अन्य प्राइमेट्स और कृंतक जीवों में ऐसा क्यों होता है। क्या यह यादों के गड़बड़ भंडारण के कारण होता है या यादों के भंडार में से यादों को वापस ना उभार पाने के कारण होता है। टोरोंटो स्थित हॉस्पिटल ऑफ सिक चिल्ड्रन में कार्यरत मनोवैज्ञानिक पॉल फ्रेकलैंड और उनके साथियों ने चूहों पर इसे समझने की कोशिश की।

शोधकर्ताओं ने चूहों को शुरुआती अनुभव देने के लिए उन्हें एक बक्से में रखा और उनके पैर पर हल्का बिजली का झटका दिया। युवा चूहों ने इस अनुभव को याद रखा और दूसरी बार जब उन्हें बक्से में डाला गया तो वे तुरंत सहम गए। जबकि इसके विपरीत शिशु चूहे एक दिन बाद ही इस वाकये को भूल गए और बक्से में उन्होंने समान्य व्यवहार किया।

हमारे दिमाग में मौजूद हिप्पोकैम्पस का एक हिस्सा नई समृतियां सहेजने के लिए ज़िम्मेदार होता है। चूहों को झटका देने पर भी इस हिस्से की तंत्रिकाएं सक्रिय होती हैं। शोधकर्ताओं ने बिजली का झटका खा चुके चूहों में इस हिस्से की तंत्रिकाओं को सक्रिय करने के लिए लेज़र का उपयोग किया। ऐसा करने पर शिशु चूहों को भी बॉक्स का उनका अनुभव याद आ गया और वे सहम गए।

फ्रेंकलैंड और उनके सहयोगी, झटके के 15, 30 और 90 दिनों के बाद भी उन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने में सफल रहे। चूहों को युवावस्था तक बिजली के झटके याद रहे। जब भी उन्हें बक्से में डाला जाता वे डर जाते।

इन्हीं शोधकर्ताओं ने पहले के अध्ययन में शिशुकाल की स्मृतियां ना बचने के पीछे का कारण बताया था कि वयस्क मस्तिष्क में नई स्मृति या अनुभव बनाने के लिए हिप्पोकैम्पस में नई तंत्रिकाएं बनती हैं। ये नई तंत्रिकाएं पुरानी तंत्रिकाओं की जगह ले लेती हैं। यह अध्ययन बताता है कि युवा चूहों में अपने शैशव के अनुभव की स्मृति मिटती नहीं है, पहुचं से दूर हो जाती है।

क्या इस प्रयोग के निष्कर्षों को मनुष्य पर लागू किया जा सकता है? कई वैज्ञानिकों का मत है कि मनुष्यों की स्थिति थोड़ी अलग होती है और सीधेसीधे इन परिणामों को लागू करने में सावधानी रखनी चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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स्वायत्त जानलेवा रोबोट न बनाने की शपथ

कृत्रिम बुद्धि के क्षेत्र में कार्यरत कई सारे अग्रणी वैज्ञानिकों ने शपथ ली है कि वे ऐसे रोबोट-अस्त्र बनाने के काम में भागीदार नहीं होंगे जो बगैर किसी मानवीय निरीक्षण के स्वयं ही किसी व्यक्ति को पहचानकर मार सकते हैं। शपथ लेने वालों में गूगल डीपमाइंड के सह-संस्थापक और स्पेसएक्स के मुख्य कार्यकारी अधिकारी समेत 2400 वैज्ञानिक शामिल हैं।

इस शपथ का मुख्य मकसद सैन्य कंपनियों और राष्ट्रों को लीथल ऑटोनॉमस वेपन्स सिस्टम (जानलेवा स्वायत्त अस्त्र प्रणाली) बनाने से रोकना है। संक्षेप में इन्हें लॉस भी कहते हैं। ये ऐसे रोबोट होते हैं जो लोगों को पहचानकर उन पर आक्रमण कर सकते हैं, इन पर किसी इन्सान का निरीक्षण-नियंत्रण नहीं होता।

हस्ताक्षर करने वाले वैज्ञानिकों और उनके संगठनों का कहना है कि जीवन-मृत्यु के फैसले कृत्रिम बुद्धि से संचालित मशीनों पर छोड़ने में कई खतरे हैं। वैज्ञानिकों ने ऐसे हथियारों की टेक्नॉलॉजी पर प्रतिबंध की मांग की है जो जनसंहार के हथियारों की नई पीढ़ी बनाने में काम आ सकती है।

इस शपथ पर हस्ताक्षर अभियान का संचालन बोस्टन की एक संस्था दी फ्यूचर ऑफ लाइफ इंस्टीट्यूट कर रहा है। शपथ में सरकारों से आव्हान किया गया है कि वे जानलेवा रोबोट के विकास को गैर-कानूनी घोषित करें। यदि सरकारे ऐसा नहीं करती हैं तो हस्ताक्षरकर्ता वैज्ञानिक जानलेवा स्वायत्त शस्त्रों के विकास में सहभागी नहीं बनेंगे।

इस संदर्भ में मॉन्ट्रियल इंस्टीट्यूट फॉर लर्निंग एल्गोरिदम के योशुआ बेंजिओ का कहना है कि इस हस्ताक्षर अभियान के ज़रिए जनमत बनाने की कोशिश हो रही है ताकि ऐसे क्रियाकलापों में लगी कंपनियां और संगठन शर्मिंदा हों। उनका कहना है कि यह रणनीति बारूदी सुरंगों के मामले में काफी कारगर रही है हालांकि यूएस जैसे प्रमुख देशों ने उस मामले में हस्ताक्षर नहीं किए थे।

अधुनातन कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी से लैस रोबोट शत्रु के इलाके में उड़ान भर सकते हैं, ज़मीन पर चहलकदमी कर सकते हैं और समुद्र के नीचे निगरानी कर सकते हैं। पायलट रहित वायुयान की टेक्नॉलॉजी विकास के अंतिम चरण में है। धीरे-धीरे इन रोबोटों को इस तरह विकसित किया जा रहा है कि ये बगैर मानवीय नियंत्रण के स्वयं ही निर्णय लेकर क्रियांवित कर सकेंगे। कई शोधकर्ताओं को यह अनैतिक लगता है कि मशीनों को यह फैसला करने का अधिकार दे दिया जाए कि कौन जीएगा और कौन मरेगा। (स्रोत फीचर्स)

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अनैतिकता के निर्यात पर रोक का प्रयास

नैतिकता का निर्यात यानी एथिकल डंपिंग शब्द युरोपीय आयोग ने 2013 में गढ़ा था। इसका आशय यह है कि कई देशों के शोधकर्ता नैतिक मापदंडों के चलते जो शोध अपने देश में नहीं कर सकते उसे किसी अन्य देश में जाकर करते हैं जहां के नैतिक मापदंड उतने सख्त नहीं हैं। यह स्थिति प्राय: विकसित सम्पन्न देशों और निर्धन देशों के बीच उत्पन्न होती है। अब युरोपीय संघ ने इस तरह के अनैतिकता के निर्यात पर रोक लगाने का फैसला किया है।

वैसे युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित शोध के संदर्भ में अनैतिकता के निर्यात की बात 2013 में ही शुरू हो गई थी किंतु उस समय इस संदर्भ में स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं होने के कारण प्रतिबंध को लागू नहीं किया जा सका था। अब आयोग ने दिशानिर्देश तैयार कर लिए हैं और युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित सारे अनुसंधान प्रोजेक्ट्स में इन्हें लागू किया जाएगा।

युरोपीय आयोग के नैतिकता समीक्षा विभाग का कहना है कि इस तरह से अन्य देशों में जाकर शोध के ढीलेढाले मापदंडों का उपयोग करने से वैज्ञानिक अनुसंधान की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। खास तौर से यह स्थिति जंतुओं पर किए जाने वाले अनुसंधान के संदर्भ में सामने आती है। इसके अलावा, कई मर्तबा यह भी देखा गया है कि जिन देशों में अनुसंधान किया जाता है, वहां के लोगों को पर्याप्त जानकारी देने के मामले में भी लापरवाही बरती जाती है। अनुसंधान में भागीदारी के जो मापदंड युरोप में लागू हैं, उनका पालन प्राय: नहीं किया जाता। दिशानिर्देशों में यह भी कहा गया है कि शोध परियोजनाओं में इस वजह से जानकारी छिपाना या कम जानकारी देना उचित नहीं कहा जा सकता कि वहां के लोग या स्थानीय शोधकर्ता उसे समझ नहीं पाएंगे। इसके अलावा एक मुद्दा यह भी है कि अन्य देशों में शोध करते समय वहां के नियमकानूनों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

अलबत्ता, कई लोगों का कहना है कि इस तरह की सख्ती से अन्य देशों में अनुसंधान करना मुश्किल हो जाएगा और इससे न सिर्फ वैज्ञानिक अनुसंधान का बल्कि उन देशों का भी नुकसान होगा।(स्रोत फीचर्स)

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तीन पालकों वाले एक और बच्चे की तैयारी

 सिंगापुर शायद वह दूसरा देश होगा जहां तीन पालकोंदो मां और एक पिताकी संतान पैदा करने की अनुमति मिल जाएगी। इससे पहले युनाइटेड किंगडम में इसे कानूनन वैध घोषित किया गया था। और संभवत: इस वर्ष पहली तीनपालक संतान जन्म लेगी। तो यह मामला क्या है और एक बच्चे की दो मांएं कैसे हो सकती हैं? 

जब स्त्री के अंडाणु और पुरुष के शुक्राणु का निषेचन होता है तो दोनों की आधीआधी जेनेटिक सामग्री निषेचित अंडे में पहुंचती है। मगर कोशिका के एक खास अंग (माइटोकॉण्ड्रिया) पूरे के पूरे सिर्फ मां से आते हैं। माइटो­कॉण्ड्रिया कोशिका का वह अंग है जो ऑक्सीजन का उपयोग करके ग्लूकोज़ से ऊर्जा प्राप्त करने का काम करता है। मज़ेदार बात यह है कि माइटोकॉण्ड्रिया की अपनी स्वतंत्र जेनेटिक सामग्री होती है जो कोशिका के केंद्रक से अलग होती है। 

यदि मां के माइटोकॉण्ड्रिया की जेनेटिक सामग्री में कोई विकार हो तो वह बच्चे में भी पहुंच जाता है और बच्चे को श्वसन सम्बंधी रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। इसका प्रभाव मुख्य रूप से मस्तिष्क, हृदय और मांसपेशियों के काम पर होता है। इसलिए वैज्ञानिकों ने यह तकनीक विकसित की है कि ऐसे विकारग्रस्त माइटोकॉण्ड्रिया वाली स्त्री के अंडाणु के निषेचन के दौरान केंद्रक की जेनेटिक सामग्री तो उसकी अपनी रहे किंतु माइटोकॉण्ड्रिया किसी अन्य स्त्री का डाला जाए। तो उस बच्चे की दो मां होती हैंएक जिसके केंद्रक की जेनेटिक सामग्री अंडे में है और दूसरी जिसके माइटो­कॉण्ड्रिया बच्चे को मिले हैं।

इसे माइटोकॉण्ड्रिया प्रतिस्था­पन उपचार या माइटोकॉण्ड्रियल रिप्लेसमेंट थेरपी कहते हैं। और इसे अंजाम देने के कई वैकल्पिक तरीके हैं। इसके कई सामाजिक पक्ष हैं जिन पर विचार करना आवश्यक है। इसलिए सिंगापुर सरकार ने आम लोगों और धार्मिक समूहों को 15 जून तक का समय दिया था कि वे सिंगापुर की जैव आचार परामर्श समिति को अपनी राय बता सकते हैं। इसके आधार समिति अंतिम निर्णय लेगी। (स्रोत फीचर्स)

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फोटो क्रेडिट : Bio ethics observatory

गुरुत्व तरंग प्रयोग का और विश्लेषण

पिछले साल लिगो (लेज़र इंटरफेरोमीटर गुरुत्वतरंग प्रेक्षक) टीम ने दो न्यूट्रॉन तारों के परस्पर विलय के फलस्वरूप उत्पन्न हुई गुरुत्व तरंगों को पकड़ा था। वैज्ञानिकों का ख्याल है कि उस अवलोकन से जो आंकड़े मिले थे उनके विश्लेषण से नए-नए निष्कर्ष निकालने की अभी और संभावना है। यह काम किया भी जा रहा है।

हाल ही में उन आंकड़ों के नए सिरे से विश्लेषण के आधार पर न्यूट्रॉन तारों की आंतरिक संरचना के बारे में नए सुराग मिले हैं। न्यूट्रॉन तारा तब बनता है जब कोई विशाल तारा फूटता है और उसका अधिकांश पदार्थ अंतरिक्ष में बिखर जाता है किंतु अंदर का पदार्थ अत्यंत घना हो जाता है। इतने घने पदार्थ का गुरुत्वाकर्षण भी बहुत अधिक होता है किंतु ब्लैक होल जितना नहीं होता।

पिछले साल अगस्त में जो गुरुत्व तरंगें देखी गई थीं वे पृथ्वी से 13 करोड़ प्रकाश वर्ष दूर दो न्यूट्रॉन तारों के आपस में विलय की घटना में उत्पन्न हुई थीं। लेकिन तब यह नहीं बताया गया था कि इस विलय के बाद क्या बना – क्या विलय के उपरांत एक और न्यूट्रॉन तारा बना या ब्लैक होल?

अब उस विलय के आंकड़ों का एक बार फिर विश्लेषण किया गया है। विश्लेषण से पता यह चला है कि जब उक्त दो न्यूट्रॉन तारे एक दूसरे का चक्कर काटते हुए संयुक्त विनाश की ओर बढ़ रहे थे, तब उनकी परिक्रमा ऊर्जा अंतरिक्ष में बिखर रही थी। साथ ही अपने-अपने गुरुत्वाकर्षण बल के कारण वे एक-दूसरे की सतह पर ज्वार भी उत्पन्न कर रहे थे। ज्वार-आधारित परस्पर क्रिया की वजह से उनकी परिक्रमा ऊर्जा और तेज़ी से कम हुई और उनकी टक्कर अपेक्षा से जल्दी हुई।

उपरोक्त ज्वारीय अंत र्क्रिया की प्रकृतिव परिमाण उन तारों की आंतरिक संरचना पर निर्भर होगा। वैज्ञानिकों का ख्याल है कि लिगो प्रेक्षण के दौरान जो आंकड़े मिले थे, उनका और अधिक बारीकी से विश्लेषण करके न्यूट्रॉन तारों की आंतरिक रचना के बारे में पता चल सकेगा। एक अनुमान यह भी है कि आंतरिक दबाव के चलते शायद उनमें न्यूट्रॉन और भी मूलभूत कणों (क्वार्क्स) में टूट गए होंगे और शायद हमें इनके बारे में कुछ और पता चले। तो प्रयोग के आंकड़ों की बाल की खाल निकालकर वैज्ञानिक अधिक से अधिक समझ बनाने की जुगाड़ में हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : NASA