मस्तिष्क में मिला भूख का मास्टर स्विच

वैज्ञानिकों ने हाल ही में मस्तिष्क (Brain) में एक खास ‘ब्रेन डायल’ (Brain Dial) खोजा है, जो खाने की इच्छा (Food Craving) को जगा या शांत कर सकता है – कम से कम चूहों में। यह छोटा-सा दिमागी हिस्सा जीवों को पेट भरा होने पर भी खाने के लिए मजबूर कर सकता है।

यह ब्रेन डायल मस्तिष्क के बेड न्यूक्लियस ऑफ स्ट्रिआ टर्मिनेलिस (Bed Nucleus of the Stria Terminalis, BNST) नामक हिस्से में पाया गया है। यह हिस्सा शरीर की तंत्रिकाओं से कई तरह की जानकारियां प्राप्त करके उनका समन्वय करता है – जैसे भूख का स्तर (Hunger Level), विशिष्ट पोषक तत्वों की कमी और भोजन के बारे में निर्णय करना कि वह खाने योग्य है या नहीं। यह एक तरह का कंट्रोल सेंटर (Brain Control Center) है, जो भूख, पोषण और स्वाद से जुड़ी जानकारियों से लेकर खाने के व्यवहार को नियंत्रित करता है। पहले वैज्ञानिकों को शक था कि BNST भूख में भूमिका निभाता है, लेकिन सेल पत्रिका (Cell Journal) में प्रकाशित इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यह खाने की आदतों को दोनों दिशाओं में नियंत्रित कर सकता है।

अध्ययन में कोलंबिया युनिवर्सिटी (Columbia University) के तंत्रिका वैज्ञानिक चार्ल्स ज़ुकर की टीम ने चूहों में स्वाद से जुड़े मस्तिष्कीय परिपथों का नक्शा तैयार किया। उन्होंने पाया कि केंद्रीय एमिग्डेला (Amygdala) और हायपोथैलेमस (Hypothalamus) की तंत्रिकाएं मीठा स्वाद पहचानती हैं और सीधे BNST न्यूरॉन्स से जुड़ी होती हैं। जब BNST तंत्रिकाओं को बाधित किया गया तब भूख होते हुए भी चूहों ने मीठा खाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन जब इन्हें सक्रिय किया गया तो पेट भरे चूहों ने सामने आने वाली हर चीज़ खाना शुरू कर दिया जैसे नमक, कड़वी चीज़ें, वसा, पानी, यहां तक कि प्लास्टिक की टिकलियां भी।

विशेषज्ञों के अनुसार यह शोध इसलिए अहम है क्योंकि इसमें भूख और स्वाद (Hunger and Taste) के असर को अलग-अलग समझकर दिखाया गया है, और यह भी बताया गया है कि दोनों का सम्बंध एक ही दिमागी हिस्से से है।

हालांकि ये प्रयोग चूहों पर हुए हैं, लेकिन इंसानों (Humans) के लिए भी इनके बड़े मायने हो सकते हैं। अगर वैज्ञानिक इस ब्रेन डायल को सुरक्षित रूप से नियंत्रित (Brain Dial Control) करना सीख जाते हैं, तो एक दिन यह मोटापा (Obesity), ज़्यादा खाना और खाने से जुड़ी बीमारियों (Eating Disorders) से निपटने में मदद कर सकता है। बहरहाल, इसे इंसानों पर लागू करने से पहले काफी अध्ययन की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-thumbnailer.cdn-si-edu.com/A6-Q0cfS_23kOlWphHSuBzJBbnM=/1280×720/filters:focal(1060×707:1061×708)/https://tf-cmsv2-smithsonianmag-media.s3.amazonaws.com/filer_public/29/88/29882ef5-a214-4c4f-aafb-2113d56143ae/gettyimages-1342113481.jpg

क्या सबका मस्तिष्क रंगों को एक ही तरह से देखता है?

ह तो हम जानते हैं कि भाषा (Language), संस्कृति (Culture), अनुभव (Experience) और वर्णांधता (Color Blindness) के चलते विभिन्न लोग रंगों को अलग तरह से देखते-समझते हैं। हरियाली से घिरे परिवेश में रहने वालों के पास शायद हरे की हर छटा के लिए अलग-अलग नाम हों, लेकिन किसी और के पास सभी हरे के लिए सिर्फ एक ही नाम हो – हरा। लेकिन क्या सभी के मस्तिष्क रंगों को अलग-अलग तरह से प्रोसेस करते हैं, या एक ही तरह से?

जर्मनी के ट्यूबिंगन विश्वविद्यालय में संज्ञान तंत्रिका विज्ञानी (Neuroscientist) एंड्रियास बार्टेल्स और उनके साथी माइकल बैनर्ट यह जानना चाहते थे कि मस्तिष्क के दृष्टि से सम्बंधित हिस्सों में विभिन्न रंग कैसे निरूपित होते हैं, और लोगों के बीच इसमें कितनी एकरूपता है।

इसके लिए उन्होंने 15 प्रतिभागियों को विभिन्न रंग दिखाए और उस समय उनकी मस्तिष्क गतिविधि को फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेन्स इमेज़िंग (fMRI) की मदद से रिकॉर्ड किया। फिर उन्होंने मस्तिष्क गतिविधि का एक नक्शा बनाया, जिसे देखकर अंदाज़ा मिलता था कि प्रत्येक रंग देखने पर मस्तिष्क के कौन से हिस्से सक्रिय होते हैं। इन आंकड़ों से उन्होंने मशीन-लर्निंग मॉडल (Machine Learning Model)  को प्रशिक्षित किया, और इसकी मदद से उन्होंने एक अन्य समूह की मस्तिष्क गतिविधि के रिकॉर्ड देखकर अनुमान लगाया कि प्रतिभागियों ने कौन से रंग देखे होंगे।

अधिकांश अनुमान सही निकले। देखा गया कि दृश्य से जुड़े अलग-अलग रंगों को मस्तिष्क के एक ही क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों में प्रोसेस किया जाता हैं, और विभिन्न रंगों के लिए अलग-अलग मस्तिष्क कोशिकाएं प्रतिक्रिया करती हैं। लेकिन मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा और कौन-सी कोशिकाएं किस रंग के लिए सक्रिय होंगी इसके नतीजे सभी प्रतिभागियों में एकसमान थे। अर्थात अलग-अलग लोगों में रंगों की प्रोसेसिंग एक ही तरह से होती है। शोधकर्ताओं ने अपने ये नतीजे जर्नल ऑफ न्यूरोसाइंस (Journal of Neuroscience) में प्रकाशित किए हैं।

इस अध्ययन से विभिन्न रंगों के प्रोसेसिंग और नामकरण (Color Perception) को देखने का एक नया नज़रिया मिलता है। अलबत्ता पूरी बात समझने के लिए और अध्ययन (Scientific Research) की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-025-02901-3/d41586-025-02901-3_51430836.jpg

परीक्षा देने का सबसे अच्छा समय क्या है?

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कार्मेलो विकारियो एवं उनके साथियों ने फ्रंटियर्स इन साइकोलॉजी पत्रिका (Frontiers in Psychology) के जुलाई 2025 के अंक में एक शोधपत्र प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था ‘Timing Matters! Academic assessment changes throughout the day’ (समय मायने रखता है! शैक्षणिक मूल्यांकन दिन भर बदलता रहता है)।

इस अध्ययन में उन्होंने संपूर्ण इटली के 1,04,552 विद्यार्थियों के शैक्षणिक प्रदर्शन का विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जो कहता है कि परीक्षा का समय मायने रखता है। अध्ययन में पाया गया कि सुबह 11 बजे से दोपहर 1 बजे के बीच आयोजित परीक्षाओं के परिणाम (exam results) बहुत अच्छे आए थे, और उनमें मध्यान्ह (12 बजे) के आसपास आयोजित परीक्षाएं सबसे अच्छी रहीं। जबकि सुबह 8 से 9 बजे के बीच और दोपहर 2 से 5 बजे के बीच आयोजित परीक्षाओं के परिणाम खराब रहे।

यानी नतीजों पर इस बात का असर पड़ता है कि महत्वपूर्ण निर्णय दिन के किस समय लिए गए हैं। ग्राफ पर परीक्षा में सफलता दर (success rate) घंटाकार वक्र रेखा के रूप में प्रदर्शित हुई थी, जिसके शिखर पर मध्यान्ह (12 बजे) का समय था। अर्थात, यदि सुबह 11 बजे या दोपहर 1 बजे परीक्षा हो तो उत्तीर्ण होने की संभावना में कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन यदि परीक्षा सुबह 8-9 बजे या दोपहर 3-4 बजे ली जाती है तो उत्तीर्ण होने की संभावना अपेक्षाकृत कम हो जाएगी। उत्तीर्ण होने की संभावना सुबह और देर दोपहर में बराबर थी।

इस अध्ययन के एक सह लेखक बोलोग्ना विश्वविद्यालय के प्रोफसर एलेसियो एवेनंती का कहना है कि “इन निष्कर्षों के व्यापक निहितार्थ हैं। ये नतीजे इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे जैविक लय (biological rhythms) महत्वपूर्ण मूल्यांकन परिणाम (assessment results) को सूक्ष्म रूप से लेकिन काफी प्रभावित कर सकती है जबकि इस बात को अक्सर निर्णय लेने के संदर्भ में अनदेखा कर दिया जाता है।”

हालांकि अध्ययन में इस पैटर्न के पीछे के क्रियाविधि का खुलासा नहीं किया गया है; लेकिन दोपहर के समय उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या में अधिकता इस बात के प्रमाण के समान है कि संज्ञानात्मक प्रदर्शन (cognitive performance) सुबह के दौरान बेहतर होने लगता है और दोपहर के दौरान कम होता जाता है। देर-दोपहर में विद्यार्थियों के ऊर्जा स्तर में गिरावट के कारण उनकी एकाग्रता कम हो सकती है, जिससे उनका प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है। प्रोफेसर/शिक्षक भी (जांच के दौरान) निर्णय लेने में थकान का अनुभव कर सकते हैं, जिसके कारण उत्तरों मूल्यांकन प्रभावित हो सकता है।

वहीं, सुबह के समय में खराब परिणाम क्रोनोटाइप (chronotype) या जैविक घड़ी की विविधता के कारण हो सकते हैं। 20 की उम्र के लोग आम तौर पर रात में जागने वाले होते हैं, जबकि 40 या उससे ज़्यादा उम्र के लोग सुबह जल्दी उठने वाले होते हैं। यानी जब प्रोफेसर/शिक्षक सबसे ज़्यादा चेतन/फुर्तीले हैं तब विद्यार्थी उनींदे से होते हैं: नतीजा होता है संज्ञानात्मक प्रदर्शन में गिरावट।

इटली के मेसिना विश्वविद्यालय के डॉ. विकारियो का सुझाव है कि दिन के समय के प्रभावों (time of day effect) का मुकाबला करने के लिए, विद्यार्थियों को अच्छी नींद लेना चाहिए, दिन के जिस समय वे खुद को सबसे कम ऊर्जावान महसूस करते हैं उस दौरान महत्वपूर्ण परीक्षाओं/साक्षात्कार रखने से बचना चाहिए, परीक्षा से पहले दिमाग को आराम देने जैसी रणनीतियां अपनाना चाहिए; और संस्थानों द्वारा सत्र देर-सुबह शुरू करने या प्रमुख मूल्यांकन देर-सुबह रखने से परिणाम में सुधार हो सकता है।

लेकिन शैक्षणिक प्रदर्शन (student performance) पर दिन के समय के प्रभाव को पूरी तरह से समझने और वाजिब मूल्यांकन सुनिश्चित करने के तरीके विकसित करने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है।

शोध पत्र के वरिष्ठ लेखक मेस्सिना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मासिमो मुच्चियार्डी का कहना है कि अध्ययन में “हम अन्य कारकों को पूरी तरह से शामिल नहीं कर पाए हैं। जैसे हम विद्यार्थियों या परीक्षकों के विस्तृत डैटा (जैसे सोने-जागने की आदतें, तनाव या जैविक लय सम्बंधी जानकारी) (student data) नहीं हासिल कर पाए। यही कारण है कि हम अंतर्निहित तंत्रों को उजागर करने के लिए शारीरिक या व्यवहारिक कारकों को शामिल कर आगे के अध्ययनों का सुझाव देते हैं।”

हालांकि यह शोध इटली में हुआ है, लेकिन इसके निष्कर्ष भारत (India study relevance) में भी भलीभांति लागू हो सकते हैं। भारत में भी कई प्रवेश परीक्षाएं आम तौर पर सुबह और दोपहर के समय में आयोजित की जाती हैं। उदाहरण के लिए, कॉमन युनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट (CUET exam) दो स्लॉट में आयोजित किया जाता है – सुबह 9-12 बजे और दोपहर 3-6 बजे। यदि हम उपरोक्त इतालवी अध्ययन को देखें, तो स्लॉट सुबह 9-11 बजे और दोपहर 12-2 बजे के बीच रखना बेहतर परिणाम दे सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/m96ccc/article69452059.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/21EPBS_CUET_Page%202.jpg

मन की बात बोल देने वाला यंत्र

म मन ही मन कई बातें सोचते हैं लेकिन वे किसी को सुनाई नहीं पड़ती। क्या हो यदि मन की इन बातों को बाहर सुना जा सके? और हाल ही में सेल पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में इसी करिश्मे का उल्लेख किया गया है। इसमें शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क (brain) में लगाए गए इम्प्लांट्स और डैटा विश्लेषण (data analysis) की मदद से चार लोगों की मन की बातों से सम्बंधित तंत्रिका संकेतों को अलग करने की जुगाड़ जमाई है। ये चारों व्यक्ति गति सम्बंधी दिक्कतों से पीड़ित थे जो उनकी बोलने की क्षमता को बाधित कर रही थी। शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क-कंप्यूटर इंटरफेस (brain computer interface) स्थापित किया जो उनके मन की बातों को वाणी दे सकता है। आप देख ही सकते हैं कि इसकी अपनी समस्याएं हैं – यह तकनीक किसी व्यक्ति के ऐसे विचारों को भी मुखर कर सकती है जो वह मन में ही रखना चाहे।

दरअसल शोध पत्र में इस बात को समझने की कोशिश हुई है कि आंतरिक वाणी (inner speech) कैसे निर्मित होती है। पिछले कुछ दशकों में इंजीनियर्स ऐसे लोगों के लिए कंप्यूटर सिस्टम्स बनाने में सफल हुए हैं जो लकवाग्रस्त (paralyzed) होने की वजह से बोल नहीं पाते। इन सिस्टम्स में यह क्षमता है कि वे मस्तिष्क में चल रही गतिविधियों से शब्द निर्मित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ महीने पहले कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक यंत्र प्रस्तुत किया था जो एमायोट्रॉफिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ALS disease) से पीड़ित एक व्यक्ति के दिमाग के मोटर कॉर्टेक्स में लगे इलेक्ट्रोड्स के संकेतों से शब्दों का सटीक व त्वरित पुनर्निर्माण कर सकता था।

इस मशीन को गति देने के लिए उस व्यक्ति को अपने मुंह से उन शब्दों को बोलने की भरसक कोशिश करनी होती थी – यानी उसे बोलने का प्रयास होता है। इस गतिविधि के संकेतों को यंत्र पकड़ सकता है। लेकिन सहभागियों का कहना था कि बोलने की कोशिश करना काफी थकाने वाला होता है।

हालांकि, अंदरुनी वाणी (internal speech) उत्पन्न करना कम थकाने वाले होता है लेकिन उसके संकेतों से शोधकर्ता बहुत थोड़े से शब्द पकड़ पाए थे। शोधकर्ताओं ने कोशिश जारी रखी। स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय (Stanford University) के एरिन कुंज़ ने सबसे पहले तो गति-बाधित लोगों के मस्तिष्क में लगे इलेक्ट्रोड्स का विश्लेषण किया। ये इलेक्ट्रोड मोटर कॉर्टेक्स के उस हिस्से में लगे थे जिसका सम्बंध बोलने के प्रयास से है। शोधकर्ताओं ने दो स्थितियों के रिकॉर्डिंग की तुलना की – एक तब जब सहभागी शब्दों को ज़ोर से बोलने का प्रयास कर रहे थे और दूसरी तब जब वे मन ही मन वे शब्द सोच रहे थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि इन दोनों स्थितियों (बोलने का प्रयास और मन में सोचना यानी अंदरुनी वाणी) में इसी क्षेत्र की तंत्रिकाएं सक्रिय हुईं।

अंदरुनी वार्तालाप (internal conversation) पर ध्यान केंद्रित करके कुंज़ व साथियों ने एक एल्गोरिद्म (algorithm) विकसित किया जो इन संकेतों को ध्वनि में बदल सकता था। अब बारी आई इस मॉडल को प्रशिक्षित करने की। टीम ने सहभागियों से कहा कि वे सवा लाख शब्दों की एक सूची के शब्दों को मन ही मन बोलें और उनकी तंत्रिका गतिविधि को रिकॉर्ड कर लिया। फिर सहभागियों से कहा गया कि वे उन शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कुछ पूरे-पूरे वाक्य बोलने की कल्पना करें।

परिणाम यह रहा कि उनका मॉडल अंदरुनी वार्तालाप को तत्काल वाक्यों में बदल सका। इसमें गलती होने की दर 26 से 54 प्रतिशत रही जो आज तक के प्रयासों में सबसे बेहतर है।

हालांकि गलती की दर काफी अधिक है, लेकिन यह अध्ययन मनोगत वार्तालाप (thought decoding) की अच्छी छानबीन है। वैसे इस तरह के अध्ययनों के साथ एक समस्या निजता (privacy issue) सम्बंधी भी है। कहीं ऐसा न हो कि वाणी-बाधित लोगों के सारे विचार खुलकर उजागर होने लगें। एक विचार तो यह है कि सारे मनोगत विचारों को नहीं बल्कि सिर्फ उन विचारों को एल्गोरिद्म तक पहुंचने दिया जाए, जिन्हें बोलने की कोशिश वह व्यक्ति कर रहा हो। दूसरा विचार है कि कोई ऐसा पासवर्ड (password) हो जो वह व्यक्ति सोचे तभी विचारों को ध्वनि में तबदील किया जाए। एक व्यक्ति के मामले में यह पासवर्ड वाली व्यवस्था 99 प्रतिशत बार कारगर रही।

मस्तिष्क-कंप्यूटर इंटरफेस (BCI technology) के विकास के साथ ऐसी व्यवस्थाएं निजता को सुरक्षित रखने के लिए अधिकाधिक ज़रूरी होती जा रही हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.news18.com/ibnlive/uploads/2025/01/language-decode-2025-01-fee6690b0af4bec92faa684602ce9b69.png

क्या सूरज की ऊर्जा से उड़ान संभव है?

ल्पना कीजिए एक धातु की चादर (metal sheet) की जो मात्र प्रकाश की शक्ति (light energy) से उड़ती जा रही है। कल्पना की उड़ान थोड़ी ज़्यादा ही लगती है लेकिन वैज्ञानिकों ने हथेली की साइज़ की एक छिद्रमय झिल्ली बनाई है जो ऊपरी वायुमंडल (upper atmosphere) में लगातार उड़ती रह सकती है। इसकी उड़ान का राज़ है इसकी दोनों सतहों पर तापमान का अंतर। इसका खुलासा नेचर के हालिया अंक में किया गया है।

दरअसल, हारवर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) के मटेरियल्स इंजीनियर बेन शेफर ऐसे उपकरण की तलाश में थे जो पृथ्वी के वायुमंडल के 50 से 80 किलोमीटर ऊंचाई वाले हिस्से की तहकीकात कर सके। इस परत को मीसोस्फीयर (मध्यमंडल – (mesosphere)) कहते हैं। मीसोस्फीयर में वायुमंडल इतना घना है कि वहां कृत्रिम उपग्रह (artificial satellites) नहीं रह सकते लेकिन इतना घना भी नहीं है कि हवाई जहाज़ उड़ सकें।

कुछ साल पहले पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय (Pennsylvania University) के इंजीनियर आइगॉर बार्गेटिन के दल ने इस समस्या के समाधान के लिए एक विचार प्रस्तुत किया था। इसमें फोटोफोरेसिस (photophoresis) नामक एक भौतिक प्रभाव के उपयोग की बात थी। पोटोफोरेसिस का मतलब होता है प्रकाश-प्रेरित गति (light induced motion)। इसका सबसे बढ़िया प्रदर्शन क्रुक्स रेडियोमीटर (Crookes radiometer) में दिखता है (देखने के लिए: https://en.wikipedia.org/wiki/Crookes_radiometer#/media/File:Radiometer_9965_Nevit.gif)। कांच के एक खोखले गोले में लगभग निर्वात की स्थिति पैदा की जाती है और अंदर एक चकरी लगी होती है, जिसकी चारों भुजाओं पर एक पतली चादर लगी होती है। इनके आसपास प्रकाश के ज़रिए तापमान में फर्क पैदा करने पर चकरी को घुमाने के लिए पर्याप्त बल मिल जाता है। बार्गेटिन ने बताया था कि उन्होंने ऐसे फोटोफोरेटिक उड़ान में समर्थ एक छोटा-सा यंत्र बना लिया है। लेकिन वह बहुत ही छोटा था।

शेफर की टीम ने जो यंत्र (device) बनाया है उसमें एल्युमिनियम ऑक्साइड (aluminium oxide) की दो छिद्रित चादरों को बीच में खूंटे लगाकर आपस में जोड़ दिया गया है। ये दोहरी चादरें एक ओर प्रकाश अवशोषित करती हैं जबकि दूसरी सतह से उसे उत्सर्जित कर देती हैं। इसके चलते तापमान में जो अंतर पैदा होता है वह ऊपरी वायुमंडल में विरल हवा में धाराएं उत्पन्न कर सकता है और यंत्र तैरता रहता है। लगता है कि मीसोस्फीयर इसकी उड़ान (flight experiment) के लिए अनुकूल है; वहां सूर्य की रोशनी पर्याप्त होती है तथा हवा भी एकदम सही मात्रा में है।

अभी तो टीम ने इसे प्रयोगशाला (laboratory test) में मीसोस्फीयर जैसा वातावरण तैयार करके आज़माया है। अभी उनके यंत्र का व्यास करीब 6 से.मी. है। टीम का कहना है कि उनका यंत्र ध्रुवीय अक्षांशों पर तो दिन-रात काम कर सकता है लेकिन भूमध्य रेखा के आसपास सिर्फ दिन में। फिलहाल यह यंत्र मात्र 10 मिलीग्राम का वज़न ढो सकता है। फिर भी बताते हैं कि यह लघु दूरसंचार व्यवस्था (telecommunication system), जलवायु संवेदी यंत्रों और छोटे सौर पैनल (solar panel) के लिए पर्याप्त होगा। हज़ारों ऐसे यंत्र उड़ाए जाएं तो मौसम भविष्यवाणी (weather prediction) में सहायक हो सकते हैं। विचार तो इन्हें मंगल (Mars mission) के अवलोकन के लिए भेजने का भी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://res.cloudinary.com/tbmg/c_scale,w_700,f_auto,q_auto/v1756224739/sites/tb/articles/2025/blog/082725-TB-blog_photophoresis.jpg

हकलाने के जीन की तलाश

म तौर पर हकलाने (Stuttering) को एक व्यवहारगत दिक्कत (Behavioral Problem) माना जाता है और डांट-फटकारकर उसे दुरुस्त करने के प्रयास किए जाते हैं या उस व्यक्ति को शांत रहकर अपनी वाणि पर नियंत्रण करने की सलाह दी जाती है। हकलाने की समस्या दुनिया भर में लगभग 1 प्रतिशत लोगों को परेशान करती है। ये 7 करोड़ लोग विभिन्न भाषाएं बोलते हैं और विभिन्न पूर्वज समुदायों के वंशज हैं। यह समस्या आम तौर पर शुरुआती बचपन में शुरू होती है और अधिकांश लोग जल्दी ही इससे उबर जाते हैं लेकिन कुछ लोग बड़प्पन में प्रभावित रहते हैं।

दशकों के अनुसंधान से पता चला है कि हकलाना एक अनैच्छिक दिक्कत है और यह विरासत (Genetic Disorder) में भी मिल सकती है। इसके कारणों पर से कुछ धुंध छंटी है। इसमें एक कंपनी 23andMe के पास उपलब्ध सूचना से मदद मिली है। यह कंपनी डीएनए (DNA Testing) सम्बंधी निजी मदद करती है। लगभग 11 लाख लोगों के डीएनए के 57 खंडों को पहचाना गया है जिनके बारे में अंदाज़ था कि उनका सम्बंध हकलाने से है।

नेचर जेनेटिक्स (Nature Genetics) में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि इसमें जो जीन्स शामिल हैं उनका सम्बंध दिमाग (Brain Function) के कामकाज और लय-ताल के एहसास से है। अध्ययन से यह भी लगता है कि शायद हकलाने का सम्बंध ऑटिज़्म (Autism) और अवसाद जैसे स्थितियों से भी है। माना जा रहा है कि इस खोज से हमें हकलाने के जैविक कारकों और उसके उपचार (Treatment) के लिए दिशा मिलेगी।

2000 के दशक की शुरुआत में शोधकर्ताओं के पास न तो इतना बड़ा जेनेटिक डैटाबेस (Genetic Database) था और न ही उसके विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर थे कि वे आम आबादी में हकलाने का सम्बंध जीन्स से खोज सकें। लिहाज़ा वे पाकिस्तान और अफ्रीका के एकरूप समुदायों में जेनेटिक पैटर्न पर ध्यान देते थे। उन्होंने कुछ संभावित डीएनए खंड और कुछ उत्परिवर्तन खोजे भी थे। लेकिन उन छोटे-छोटे अध्ययनों को सामान्य आबादी पर लागू करना संभव नहीं था।

ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 23andMe की मदद ली। उन्होंने दो समूहों के लोगों के जेनेटिक पैटर्न (Genetic Pattern) की तुलना की – 99,076 ऐसे लोग जिन्होंने कहा था कि वे हकलाते हैं और 9,81,944 ऐसे लोग थे जिन्होंने ‘ना’ कहा। इस तुलना के परिणामस्वरूप 57 ऐसे जेनेटिक खंड निकले जो थोड़ी हद तक हकलाने की संभावना बढ़ा सकते हैं। यानी हकलाना एक जटिल, बहुजीन आधारित समस्या है, अनिद्रा (Insomnia) और टाइप-2 मधुमेह के समान।

इस अध्ययन में कुछ जीन्स ऐसे भी पहचाने गए हैं जो शायद यह समझने में मदद करें कि हकलाने की समस्या की उत्पत्ति कहां से होती है। ऐसा सबसे सशक्त संकेत VRK2 जीन (VRK2 Gene) में मिला। इस जीन का सम्बंध शुरुआती तंत्रिका विकास से देखा गया है और इसके परिवर्तित रूप शिज़ोफ्रेनिया (Schizophrenia), मिर्गी, और मल्टीपल स्क्लेरोसिस से जुड़े पाए गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका सम्बंध संगीत की ताल के साथ ताली देने में दिक्कत से देखा गया है।

यह शोध का विषय रहा है कि ताल (Rhythm) के साथ कदमताल न कर पाने का सम्बंध हकलाने से हो सकता है और यह अध्ययन इसे बल देता है।

अध्ययन में चिंहित 20 जीन्स एक और सुराग देते हैं। इनका सम्बंध पहले भी ऑटिज़्म, एकाग्रता के अभाव व अति-सक्रियता (ADHD) वगैरह से देखा गया है। यानी संभव है कि इन सबमें एक से विकास पथ शामिल हैं।

अध्ययन से एक बात तो साफ है। हकलाना कोई व्यवहारगत या भावनात्मक समस्या (Emotional Disorder) नहीं है और इसकी बुनियाद में तंत्रिका का कामकाज है। वैसे इस अध्ययन की कई सीमाएं हैं। इसमें पुरुषों की भागीदारी ज़्यादा थी और एशियाई तथा अफ्रीकी लोगों का प्रतिनिधित्व भी कम था। शोधकर्ताओं का कहना है कि वे फिलहाल कोई ‘ऑन-ऑफ’ स्विच नहीं दे सकते। बहरहाल, यह अध्ययन हकलाने के साथ जुड़े सामाजिक पूर्वाग्रहों (Social Stigma) और धारणाओं को दूर करने में ज़रूर मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z78m5m5/full/_20250728_on_stuttering-1753902911443.jpg

क्या आंतों में छिपा है अवसाद का राज़?

वसाद (Depression) आज दुनिया की सबसे आम मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) समस्याओं में से एक है, जो व्यक्ति के सोचने, महसूस करने और जीने के तरीके को प्रभावित करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 28 करोड़ लोग यानी करीब 5 प्रतिशत वयस्क अवसाद से पीड़ित हैं।

गौरतलब है कि लंबे समय से अवसाद और चिंता (Anxiety) को दिमाग की रासायनिक प्रक्रिया, जीन या जीवन की परिस्थितियों से जोड़ा जाता रहा है। लेकिन अब शोध से यह पता चला है कि हमारी आंतों में मौजूद सूक्ष्मजीव संसार – यानी बैक्टीरिया (Bacteria), फफूंद और अन्य सूक्ष्मजीवों का विशाल संसार – हमारे मूड को नियंत्रित करने में बड़ी भूमिका निभाता है।

शुरुआत में वैज्ञानिकों ने बस एक सह-सम्बंध देखा था: जिन लोगों को अवसाद या चिंता थी, उनके आंतों में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव स्वस्थ लोगों से अलग थे। फिर 2016 के दो अलग-अलग अध्ययनों में जब अवसाद से पीड़ित मनुष्यों की विष्ठा (Fecal Transplant) चूहों की आंत में डाली गई, तो चूहों में भी अवसाद जैसे लक्षण दिखने लगे। वे आनंद या खुशी का अनुभव करने में रुचि खो बैठे, उनमें चिंता जैसी हरकतें दिखीं और उनके मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रियाएं भी बदल गई।

इस खोज से यह स्पष्ट हुआ कि मानसिक बीमारियां (Mental Illness) सिर्फ जीन या किसी सदमे से नहीं होतीं, बल्कि सूक्ष्मजीवों के ज़रिए भी ‘स्थानांतरित’ हो सकती हैं। इससे एक नया सवाल उठा: अगर अस्वास्थ्यकर सूक्ष्मजीव बीमारी फैला सकते हैं, तो क्या स्वस्थ सूक्ष्मजीव हमें फिर से स्वस्थ बना सकते हैं?

जवाबों की ओर पहला कदम

इससे प्रेरित होकर, युनिवर्सिटी ऑफ कैलगरी की मनोचिकित्सक वैलेरी टेलर ने मनुष्यों पर परीक्षण शुरू किए। उन्होंने बाइपोलर डिसऑर्डर (Bipolar Disorder) जैसी बीमारियों से शुरुआत की जिन्हें ठीक करना सबसे मुश्किल माना जाता है। उनका सोचना था कि अगर उस मामले में विष्ठा सूक्ष्मजीव प्रत्यारोपण (फीकल माइक्रोबायोटा ट्रांसप्लांट, FMT) कारगर साबित होता है, तो यह अन्य बीमारियों में भी मदद कर सकता है।

शुरुआती अध्ययनों में दिखा कि आंतों के सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव से मूड बेहतर हो सकता है। हालांकि FMT हर व्यक्ति पर एक जैसा असर नहीं करता, लेकिन कुछ मरीज़ों के लिए यह ज़िंदगी बदल देने वाला साबित हुआ। लेकिन एक समस्या है: FMT से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि कौन-से विशेष सूक्ष्मजीव इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। यह किसी खास बैक्टीरिया को नहीं बल्कि पूरे सूक्ष्मजीव संसार का पुनर्गठन करता है। शुरुआत के लिए तो ठीक है, लेकिन बहुत सटीक नहीं।

इसी कमी को दूर करने के लिए वैज्ञानिक अब साइकोबायोटिक्स (Psychobiotics) पर काम कर रहे हैं – यानी ऐसे फायदेमंद बैक्टीरिया (Probiotics – प्रोबायोटिक्स के रूप में) जो मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं। कुछ छोटे मानव परीक्षण बताते हैं कि इलाज के लिए अपने आप में इनकी क्षमता सीमित है, लेकिन साइकोबायोटिक्स अवसादरोधी दवाइयों का असर बढ़ा सकते हैं।

इस सम्बंध में वैज्ञानिकों का ध्यान आहार (Diet) पर भी रहा है। हमारा आहार हमारी आंत के सूक्ष्मजीव संसार को गहराई से प्रभावित करता है। 2017 में ऑस्ट्रेलिया में हुए एक मशहूर अध्ययन में पाया गया था कि मेडिटेरेनियन डाइट (जिसमें फल, सब्ज़ियां, दालें, मछली और साबुत अनाज अधिक हों) (Mediterranean Diet) अपनाने से प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण काफी कम हुए। भोजन से शरीर को प्रोबायोटिक्स मिलते हैं। ये ऐसे तत्व हैं जिन पर अच्छे बैक्टीरिया पनपते हैं और इस तरह एक स्वस्थ सूक्ष्मजीव समुदाय विकसित होता है।

शुरुआती नतीजे उत्साहजनक हैं, लेकिन यह क्षेत्र अभी नया है और इसमें कई सवाल बाकी हैं। जैसे, मानसिक स्वास्थ्य के लिए कौन-से खास सूक्ष्मजीव सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं? फायदा सूक्ष्मजीवों की विविधता से होता है या कुछ खास सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति या अनुपस्थिति से? कितने समय तक सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव बने रहने चाहिए ताकि लक्षणों में सुधार दिखे? प्रोबायोटिक्स का असर इसलिए है कि वे अवसादरोधियों (Antidepressants) की क्षमता बढ़ाते हैं या वे एक बिल्कुल अलग प्रक्रिया से काम करते हैं?

वैज्ञानिक भविष्य में मानसिक स्वास्थ्य की ऐसी चिकित्सा (Treatment) की कल्पना कर रहे हैं, जिसमें इलाज का तौर-तरीका मरीज़ की आंतों के सूक्ष्मजीवों के अनुसार तय किया जाएगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर नैदानिक परीक्षण; जीन, प्रोटीन, मेटाबोलाइट्स वगैरह का अध्ययन (‘मल्टीओमिक्स’); और मस्तिष्क इमेजिंग (Brain Imaging) को सूक्ष्मजीव संसार के आंकड़ों के साथ जोड़कर देखने की ज़रूरत होगी। ये प्रयोग महंगे हैं, लेकिन अब लागत धीरे-धीरे कम हो रही है।

सबसे बड़ी रुकावट तो यह है कि कंपनियां इसमें भारी निवेश नहीं करना चाहतीं क्योंकि दवा कंपनियां दवाइयों पर तो पेटेंट ले सकती हैं, उन्हें आसानी से बेच सकती हैं और मुनाफा कमा सकती हैं। लेकिन प्रोबायोटिक्स या डाइट प्लान को इस तरह बेचना मुश्किल है।

अवसाद या मानसिक समस्याओं से पीड़ित लोगों के सूक्ष्मजीव संसार पर आधारित इलाज (Gut Microbiome Therapy) एक नया नज़रिया है। यह मानसिक बीमारियों को देखने की धारणाओं को भी बदल सकता है। अब मानसिक रोगों को सिर्फ दिमाग की गड़बड़ी नहीं, बल्कि शरीर, सूक्ष्मजीवों और मन के बीच जटिल संवाद का नतीजा माना जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-025-02633-4/d41586-025-02633-4_51319844.gif?as=webp

एक नया रक्त समूह खोजा गया

हाल ही में एक नया रक्त समूह (new blood group) खोजा गया है। अब तक कुल 47 रक्त समूह (blood types)  ज्ञात थे और यह 48वां रक्त समूह इतना दुर्लभ (rare blood group) है कि फिलहाल दुनिया में मात्र एक इंसान में पाया गया है।

दरअसल, फ्रांस में एक महिला के लिए उपयुक्त रक्तदाता (blood donor) खोजने के लिए सामान्य रक्त परीक्षण (blood test) किया जा रहा था। लेकिन महिला की रक्त प्लाज़्मा हरेक संभावित दानदाता के रक्त के विरुद्ध प्रतिक्रिया दे रही थी। और तो और, उसके सगे भाई-बहनों का रक्त भी मैच नहीं किया। यानी उसके लिए कोई दानदाता खोजना नामुमकिन हो गया था।

आम तौर पर हम जानते हैं कि रक्त समूह चार होते हैं – ए, बी, एबी तथा ओ (A, B, AB, O blood groups) । साथ ही इनमें आरएच धनात्मक और आरएच ऋणात्मक (Rh positive, Rh negative) हो सकते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि ये रक्त समूह दर्जनों रक्त समूह प्रणालियों में से मात्र दो का प्रतिनिधित्व करते हैं। अन्य रक्त वर्गीकरण प्रणालियों (blood classification systems) का असर भी खून लेने-देने पर होता है। रक्त समूह वर्गीकरण की तमाम प्रणालियों में लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) की सतह पर पाई जाने वाली शर्कराओं और प्रोटीन में बारीक अंतरों को आधार बनाया गया है। इसके आधार पर विभिन्न व्यक्तियों में रक्त का लेन-देन संभव या असंभव होता है।

फ्रांस के ग्वाडेलूप में खोजे गए इस रक्त समूह को ‘ग्वाडा ऋणात्मक’ (Gwada negative) नाम दिया गया है। इसकी गुत्थी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने आधुनिक संपूर्ण एक्सोम अनुक्रमण (whole exome sequencing) नामक तकनीक की मदद ली। इस तकनीक में मनुष्यों में पाए जाने 20,000 से ज़्यादा जीन्स (human genes) की जांच की जाती है। इस विश्लेषण से पता चला कि उस महिला के एक जीन PIGZ में उत्परिवर्तन (gene mutation) हुआ है।

यह जीन एक ऐसा एंज़ाइम बनाता है जो कोशिका झिल्ली के एक महत्वपूर्ण अणु पर एक खास शर्करा को जोड़ता है। वह शर्करा न हो तो लाल रक्त कोशिकाओं पर एक अणु की रचना बदल जाती है। इस परिवर्तन की वजह से एक नया एंटीजन बन जाता है। विशिष्ट एंटीजन की उपस्थिति ही रक्त समूह का निर्धारण करती है – इस मामले में एक सर्वथा नया वर्गीकरण उभरा है – ग्वाडा धनात्मक (जब एंटीजन उपस्थित हो) (Gwada positive) और ग्वाडा ऋणात्मक (जब एंटीजन नदारद हो।

जीन संपादन की तकनीक (gene editing) से शोधकर्ताओं ने जब वह उत्परिवर्तन प्रयोगशाला में भी किया, तो पता चला कि सारे दानदाताओं का रक्त ग्वाडा धनात्मक था जबकि वह महिला दुनिया की एकमात्र महिला थी जिसका रक्त ग्वाडा ऋणात्मक था।

रक्त समूह के बारे में मान्यता है कि वे मात्र खून के लेन-देन को प्रभावित करते हैं। लेकिन इस मामले में देखा गया है कि वह महिला थोड़ी बौद्धिक विकलांगता (intellectual disability) से पीड़ित है, प्रसव के दौरान दो बच्चे गंवा चुकी है। वैज्ञानिकों को लगता है कि ये उसके उत्परिवर्तन से सम्बंधित हो सकते हैं।

बहरहाल, सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि इस महिला के लिए खून की व्यवस्था (blood availability) कैसे की जाए। वैसे कई वैज्ञानिक प्रयोगशाला में स्टेम कोशिकाओं से लाल रक्त कोशिकाएं विकसित करने पर काम कर रहे हैं जिन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग (genetic engineering) के उपरांत ग्वाडा ऋणात्मक जैसे दुर्लभ प्रकरणों (lab-grown blood cells for rare blood types) में इस्तेमाल किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/v2/t:0,l:200,cw:1200,ch:900,q:80,w:1200/NbBe7smQDttHQbHgg7q789.jpg

कैंसर ट्यूमर की मदद करती तंत्रिकाएं

हाल में किए गए एक अध्ययन से उजागर हुआ है कि कुछ कैंसर कोशिकाएं अपनी पड़ोसी स्वस्थ कोशिकाओं की मदद से अधिक विनाशकारी शक्ति हासिल कर लेती हैं। एक अनुसंधान दल ने पाया है कि तंत्रिकाएं अपनी पड़ोस की मैलिग्नेंट (दुर्दम) कोशिकाओं को अपना माइटोकॉण्ड्रिया दान (mitochondria donation in cancer) दे देती हैं। गौरतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया कोशिकाओं का एक उपांग होता है जो कोशिकाओं के कामकाज के लिए ज़रूरी ऊर्जा उपलब्ध कराता है। यह अवलोकन इस बात की व्याख्या कर देता है कि क्यों तंत्रिकाओं की उपस्थिति में ट्यूमर ज़्यादा तेज़ी से बढ़ते हैं। और तो और, कैंसर कोशिकाओं को अतिरिक्त माइटोकॉण्ड्रिया मिल जाने पर उनकी शरीर के अन्य हिस्सों में फैलने (मेटास्टेसिस) की क्षमता (cancer metastasis) भी बढ़ जाती है।

पहले माना जाता था कि कोशिकाएं अपने माइटोकॉण्ड्रिया सहेजकर रखती हैं। लेकिन पिछले 20 वर्षों में हुए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि कोशिकाएं इन उपांगों का खूब लेन-देन (cellular mitochondria exchange, mitochondria sharing between cells) करती हैं। कैंसर कोशिकाएं दाता भी हो सकती हैं और प्राप्तकर्ता भी।

जैसे, हाल ही में जापान के शोधकर्ताओं ने बताया था कि कैंसर कोशिकाएं और प्रतिरक्षा टी-कोशिकाएं कभी-कभी माइटोकॉण्ड्रिया का विनिमय (mitochondria and immune cells, T-cells energy hijack by cancer) करती हैं। इस दौरान, कैंसर कोशिकाएं अपने दोषपूर्ण उपांग टी-कोशिकाओं को देकर उन्हें कमज़ोर भी कर सकती हैं।

कुछ सर्वथा अलग तरह के अध्ययनों में पता चला है कि तंत्रिकाएं अपने आसपास के ट्यूमर्स की वृद्धि को बढ़ावा देती हैं (nerves in tumor growth, nerve-cancer interaction)। उदाहरण के लिए टेक्सास हेल्थ साइन्स सेंटर के गुस्तावो आयला की टीम ने देखा था कि जब प्रयोगशाला के जंतुओं की प्रोस्टेट ग्रंथि को पहुंचने वाली तंत्रिकाओं को काट दिया गया (nerve block in cancer treatment) या बोटॉक्स इंजेक्शन देकर खामोश कर दिया गया, तो प्रोस्टेट कैंसर (prostate cancer) सिकुड़ गया। ट्यूमर-ग्रस्त मनुष्यों में भी बोटॉक्स इंजेक्शन (botox injection) देने पर कैंसर कोशिकाओं की मृत्यु दर बढ़ गई थी।

यह भी पता चला है कि जिन कैंसर कोशिकाओं से तंत्रिकाएं नदारद होती हैं, उनकी सामान्य प्रक्रियाएं गड़बड़ हो जाती हैं। साउथ अलाबामा विश्वविद्यालय के साइमन ग्रेलेट ने सोचा कि कहीं उधार के माइटोकॉण्ड्रिया का स्रोत कट जाने का तो यह परिणाम नहीं है। ग्रेलेट, आयला और उनके दल ने देखा कि तश्तरियों में रखने पर स्तन कैंसर की कोशिकाओं और तंत्रिका कोशिकाओं के बीच सेतु (neuron to cancer cell bridge) बनने लगते हैं। जब उन्होंने तंत्रिकाओं के माइटोकॉण्ड्रिया को एक हरे प्रोटीन की मदद से शिनाख्त योग्य बना दिया तो देखा गया कि ये उपांग सेतुओं के ज़रिए कैंसर कोशिकाओं में जा रहे हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी दर्शाया कि यदि माइटोकॉण्ड्रिया रहित कैंसर कोशिकाएं (mitochondria-depleted cancer cells) तैयार करके उन्हें यह उपांग बाहर से दिया जाए तो कैंसर कोशिकाओं को बढ़ावा मिलता है। ऐसी माइटोकॉण्ट्रिया रहित कोशिकाएं विभाजित नहीं होतीं और उनकी ऑक्सीजन खपत भी कम रहती है। लेकिन जब इन्हें तंत्रिका कोशिकाओं के साथ रखा गया, तो 5 दिन में इनकी चयापचय क्रियाएं बहाल (restoring cancer cell metabolism)हो गईं और इनमें विभाजन भी होने लगा। शायद पड़ोसियों से मिले माइटोकॉण्ड्रिया के दम पर। इसी प्रयोग को आगे करने पर पता चला कि यह असर लंबे समय के लिए होता है।

शोधकर्ताओं ने यह जांच भी की कि क्या ऐसी पुन: सक्रिय हुई कैंसर कोशिकाओं के अन्य स्थानों/अंगों में फैलने (मेटास्टेसिस) की संभावना (cancer spread after mitochondrial gain) भी ज़्यादा होती है। इसकी जांच करने के लिए उन्होंने चूहों की तंत्रिका व कैंसर कोशिकाओं को साथ-साथ रखकर विकसित किया और फिर उन्हें मादा चूहे के उदर की वसा में डाल दिया। देखा गया पेट में ट्यूमर बना और जल्दी ही वह फेफड़ों तथा मस्तिष्क में फैल गया। यह भी देखा गया कि मूल ट्यूमर में तो मात्र 5 प्रतिशत कोशिकाओं ने तंत्रिकाओं से माइटोकॉण्ड्रिया हासिल किए थे लेकिन फेफड़े में पहुंची 27 प्रतिशत तथा मस्तिष्क में पहुंची 46 प्रतिशत कैंसर कोशिकाओं में आयातित माइट्कॉण्ड्रिया थे। अर्थात आयातित माइटोकॉण्ड्रिया मेटास्टेसिस (metastatic potential and mitochondria) को बढ़ावा देते हैं। जब प्रोस्टेट कैंसर से पीड़ित व्यक्तियों के ट्यूमर की कोशिकाओं का विश्लेषण किया गया तो पता चला कि तंत्रिकाओं के नज़दीक की कोशिकाओं में ज़्यादा माइटोकॉण्ड्रिया (tumor proximity to neurons) थे।

यह अनुसंधान कैंसर से निपटने का एक सर्वथा नया रास्ता सुझाता है। शोधकर्ता कहते हैं कि कैंसर से निपटने के लिए उसके आसपास की तंत्रिकाओं (targeting nerves in cancer) पर ध्यान देना उपयोगी होगा। आगे अनुसंधान का एक विषय यह भी होना चाहिए कि माइटोकॉण्ड्रिया के घातक लेन-देन को कैसे रोका जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2025/05/29114711/SEI_252606890.jpg?width=900

बंद आंखों से देख सकते हैं

प्रतिका गुप्ता

मारी आंखे सूर्य के प्रकाश के स्पेक्ट्रम का कुछ हिस्सा ही देख पाती हैं – 400-700 नैनोमीटर तरंगदैर्घ्य (visible light spectrum) वाला हिस्सा। इससे छोटी पराबैंगनी (अल्ट्रावॉयलेट – UV Rays), और इससे बड़ी अवरक्त (इंफ्रारेड) तरंगदैर्घ्य को हमारी नग्न आंखें नहीं देख (infrared light invisible to eyes) पाती हैं। हालांकि, कुछ तकनीकें और उपकरण विकसित किए गए हैं जिनकी मदद से हम कुछ अल्ट्रावॉयलेट और इंफ्रारेड तरंगें देख पाते हैं। इन तरंगों को देखने का फायदा फॉरेंसिक जांच में, चिकित्सा में, अंधेरी रात की हलचल देखने में, पुरानी पेंटिंग्स की परतें खोलने आदि (infrared in forensic and medical) में उठाया जाता है।

तो, थोड़ी बातें इंफ्रारेड प्रकाश को हमारी आंखों के देखने लायक बनाने वाले उपकरणों की। ऐसा एक उपकरण है थर्मल इमेजिंग कैमरा (thermal imaging camera)। दरअसल, इंफ्रारेड तरंगें ऊष्मा प्रभाव पैदा करती हैं। यह कैमरा वस्तुओं द्वारा उत्सर्जित इंफ्रारेड ऊर्जा को भांपता है। किसी सतह पर इंफ्रारेड विकिरण की कितनी तीव्रता है इस जानकारी के आधार पर वह एक तस्वीर बनाता है जिसे हम देख सकते हैं। इससे बनी तस्वीर लाल-नीले-पीले रंगों में मिलती है। ऐसा ही एक अन्य उपकरण है नाइट विज़न चश्मा (night vision goggles) । यह साधारण बायनॉक्यूलर जितना बड़ा और चश्मे जैसा होता है। यह 800 से 1600 नैनोमीटर के नीयर इंफ्रारेड प्रकाश को दृश्य प्रकाश में परिवर्तित कर देता है, जिसे हम देख पाते हैं।

उपरोक्त दोनों उपकरण इंफ्रारेड विज़न में मददगार तो हैं लेकिन इनकी कुछ सीमाएं हैं। जैसे इमेजिंग कैमरा और नाइट विज़न चश्मा दोनों ही बड़े और भारी हैं। और उन्हें चलाने के लिए अलग से बैटरी या बिजली लगती है। हालांकि इमेजिंग कैमरा तो तीन-चार रंगों में दृश्य तस्वीर बनाता है, लेकिन नाइट विज़न चश्मा केवल एकरंगी हरा इंफ्रारेड विज़न (monochrome night vision) देता है।

कोशिश थी कि इंफ्रारेड विज़न देने वाले उपकरण भी कॉम्पेक्ट और आसान बन जाएं, जिससे इनकी उपयोगिता बढ़े, खासकर जाली नोट, जाली दस्तावेज़ आदि (infrared contact lenses, fake note detection device) पकड़ने में। इसी कोशिश में वैज्ञानिकों ने इंफ्रारेड विज़न देने वाले कॉन्टेक्ट लेंस बनाए हैं। जिन्हें साधारण कॉन्टेक्ट लेंस की तरह आंखों में लगाकर इंफ्रारेड मंजर देख सकते हैं।

ये लेंस चीन की युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों ने विकसित किए हैं। इन्हें बनाने के लिए उन्होंने साधारण कॉन्टेक्ट लेंस में नैनोकण (nano particles in lenses, infrared detecting lens) जोड़े हैं। ये नैनोकण नीयर इंफ्रारेड प्रकाश को दृश्य प्रकाश में परिवर्तित करते हैं जिससे हम इंफ्रारेड मंजर देख सकते हैं, यहां तक कि बंद आंखों से भी। एक और फायदा यह है कि ये बहु-रंगी दृश्य दिखाते हैं, जो नाइट विज़न गॉगल में संभव नहीं होता।Text Box: करके देखें – फोन के कैमरे से इंफ्रारेड तरंगें
आप अपने स्मार्ट फोन के कैमरे से भी इंफ्रारेड तरंगों को देख सकते हैं। हो सकता है कि आपके फोन का कैमरा थर्मल इमेजिंग कैमरों की तरह साफ और पूरी तस्वीर न दिखा सके, लेकिन वह शक्तिशाली इंफ्रारेड तंरगें आपको दिखा सकता है।
ज़रूरी सामग्री : स्मार्ट फोन, इंफ्रारेड के स्रोत के रूप में टी.वी. या किसी भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का रिमोट। (आप जानते होंगे कि रिमोट इंफ्रारेड तंरगों के माध्यम से ही आपके उपकरणों को आपके इशारे पर चलाते हैं।)
यह करना है : अपने स्मार्ट फोन का कैमरा खोलिए। रिमोट को कैमरे के सामने ऐसे रखिए जैसे फोटो खींचते हैं, और आप फोन में ही देखिए। ध्यान रखें कि रिमोट का सामने वाले हिस्सा कैमरे की ओर रहे। अब, रिमोट का कोई भी बटन दबाइए। क्या आप रिमोट के बल्ब से निकलती इंफ्रारेड रोशनी देख पाए?
यह स्मार्ट फोन के फ्रंट और रीअर दोनों कैमरों के साथ करके देख सकते हैं।
ध्यान में रखने की कुछ बातें: 
थोड़ी अंधेरी जगह पर या रात में करेंगे तो रोशनी अच्छे से दिखाई देगी।
कुछ फोन में रीअर कैमरे इस तरह डिज़ाइन किए होते हैं कि उनके लेंस इंफ्रारेड प्रकाश को अपने में से होकर गुज़रने नहीं देते। इसलिए हो सकता है कि कुछ फोन के रीअर कैमरे में इंफ्रारेड रोशनी न दिखे, लेकिन फ्रंट कैमरे में दिख सकती है।  
कुछ रिमोट में इंफ्रारेड बल्ब के पास ही एलईडी लाइट लगी होती है, जो रिमोट का बटन दबाने पर खाली आंखों से भी दिखाई देती है। यह रोशनी इंफ्रारेड प्रकाश नहीं है, बल्कि यह इतना ही बताती है कि आपका रिमोट काम कर रहा है।
आजकल कुछ स्मार्ट फोन भी इंफ्रारेड तकनीक से लैस होते हैं, जिससे आप अपने फोन का रिमोट की तरह इस्तेमाल कर सकते है और अपने घर के टी.वी, सेट-टॉप बॉक्स, पंखे वगैरह चला सकते हैं। आप रिमोट की तरह फोन से भी इंफ्रारेड तरंगे निकलती देख सकते हैं।

हालांकि, शुरू में इन लेंस की कुछ कमियां थीं। चूंकि लेंस नैनोकण को जोड़कर बनाए गए हैं, इसलिए इनसे बनी तस्वीर थोड़ी धुंधली (infrared vision blur, nanoparticle limitations in lenses) बनती थी। टीम ने इस खामी को भी कुछ हद तक दूर करने की कोशिश की है। उन्होंने लेंस में एक और अतिरक्त लेंस जोड़ा है ताकि नैनोकण से बिखरा प्रकाश एक जगह केंद्रित हो, और तस्वीर साफ बने। यह कमी तो कुछ हद तक दूर हो गई लेकिन इसकी एक और दिक्कत अभी बनी हुई है। ये लेंस कमज़ोर इंफ्रारेंड प्रकाश को नहीं देख पाते, इनकी पकड़ में सिर्फ अत्यंत शक्तिशाली इंफ्रारेड विकिरण आते हैं; जैसे एलईडी लाइट से उत्सर्जित शक्तिशाली इंफ्रारेड विकिरण (infrared LED detection, lens infrared sensitivity)।

दूसरी ओर, नाइट विज़न चश्मा कमज़ोर इंफ्रारेड विकिरण को भी भांप कर, उसे शक्तिशाली बनाकर बेहतर इंफ्रारेड दृश्य निर्मित करते हैं।

बहरहाल, वैज्ञानिक इस खामी को दूर करने पर भी काम कर रहे हैं। यदि ये लेंस और उन्नत तस्वीर देने में सफल हो जाते हैं तो सर्जरी वगैरह में डॉक्टर्स को ज़्यादा ताम-झाम वाले उपकरणों से निजात (infrared in surgery, future of medical optics) मिल सकती है। इसके बारे में शोधकर्ताओं ने सेल पत्रिका (cell journal) में विस्तार से बताया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.nature.com/lw1200/magazine-assets/d41586-025-01630-x/d41586-025-01630-x_51005236.jpg