सर्पदंश: वक्त पर प्रभावी उपचार के प्रयास – प्रतिका गुप्ता

र्पदंश या सांप के काटने के कारण दुनिया भर में सालाना 81,000 से 1,38,000 लोगों की जान चली जाती है और करीब तीन-साढ़े तीन लाख लोग अक्षम हो जाते हें। फिर भी अफ्रीका, भारत जैसे देशों के स्वास्थ्य तंत्रों में सर्पदंश एक उपेक्षित स्वास्थ्य समस्या है। ऊपर से, सर्पदंश के लिए उपलब्ध उपचार और स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ भी कई समस्याएं और जटिलताएं हैं।

वैज्ञानिक सर्पदंश के उपचार को बेहतर से बेहतर और समय पर उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं। दो ताज़ातरीन अध्ययनों की प्रगति से बेहतर उपचार की उम्मीद जागी है।

साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन ने एक युनिवर्सल एंटीवेनम विकसित करने की दिशा में पहली सफलता हासिल की है। इससे एक ही एंटीवेनम से सांप की चार प्रजातियों के ज़हर को बेअसर किया जा सकेगा।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में एक ऐसे टेस्ट के बारे में बताया गया है जो वक्त रहते बता सकता है कि आपको किस सांप ने काटा है, और फिर तय किया जा सकता है कि आपको किस ज़हर के लिए उपचार (एंटीवेनम) देना है।

दरअसल सांप का ज़हर कोई एक यौगिक नहीं बल्कि दर्जनों – यहां तक कि सैकड़ों – यौगिकों का मिश्रण होता है। और खास बात यह है कि यह ज़हरीला मिश्रण हर प्रजाति के सांप में बहुत अलग होता है। यदि सांप काटे तो उपचार के लिए एंटीवेनम दिया जाता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि किस सांप ने काटा है।

सर्पदंश के इलाज में मुश्किलात यहीं से शुरू होती हैं। चूंकि हर प्रजाति के सांप का ज़हर अलग होता है – यहां तक कि विभिन्न इलाकों में पाए जाने वाले एक ही प्रजाति के सांप का ज़हर भी अलग होता है – इसलिए उपचार के लिए यह जानना आवश्यक होता है कि व्यक्ति को किस सांप ने काटा है। लेकिन उसे हमेशा पता नहीं होता कि उसे किस सांप ने डसा है, क्योंकि जब पता चलता है कि सांप ने डसा है तो पहले तो डर के मारे होश उड़ जाते हैं और बदहवासी में सांप पर गौर कर उसे पहचनाने का ध्यान नहीं रहता। फिर, कोई और देखकर पहचान ले इसकी संभावना भी अक्सर कम रहती है क्योंकि सर्पदंश के अधिकतर मामले खेतों या जंगल में काम करते हुए होते हैं, जहां लोग दूरियों पर या अकेले ही काम करते हैं। और किस्मत से कोई आपके साथ हो तो भी, जब तक समझ आता है तब तक सांप डस कर सरपट भाग चुका होता है। ऐसे में किस ज़हर के लिए एंटिवेनम दें?

यह तय करने के लिए चिकित्सकों को पीड़ित में लक्षणों के उभरने का इंतज़ार करना पड़ता है – ताकि सही एंटीवेनम दिया जा सके – हालांकि वे जानते हैं कि उपचार जितना जल्दी मिलेगा, उतना कारगर होगा। उपचार में देरी विकलांगता और जान गंवाने के जोखिम को बढ़ाती जाती है। हालांकि थोड़ा-बहुत अनुमान चिकित्सक इस जानकारी के आधार पर लगाने की कोशिश करते हैं कि किस क्षेत्र में सांप ने डंसा था, और उस इलाके में कौन-से सांप पाए जाते हैं। फिर भी एक इलाके में एक से अधिक तरह के सांप होने की संभावना होती है, और यदि अन्य ज़हर के लिए एंटीवेनम दे दिया गया तो या तो वह बेअसर रह सकता है, या मामला और बिगाड़ सकता है और रोगी की जान का जोखिम बढ़ जाता है।

फिर मानव शरीर द्वारा इन एंटीवेनम को अस्वीकार कर देने की भी संभावना रहती है। दरअसल घोड़ों या भेड़ों को वर्षों तक मामूली मात्रा में सांप का ज़हर देकर उनमें निर्मित एंटीबॉडी से एंटीवेनम तैयार किया जाता है। चूंकि ये एंटीवेनम पशु प्रोटीन से बने होते हैं, इसलिए प्रतिरक्षा प्रणाली इनके विरुद्ध प्रतिकूल प्रतिक्रिया भी कर सकती है जो जानलेवा भी हो सकती है।

फिर, एंटीवेनम का रख-रखाव भी बहुत मुश्किल होता है। अक्सर ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों पर इन्हें संभालकर रखने के लिए मूलभूत सुविधा नहीं रहती, दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह और भी मुश्किल है, जबकि सर्पदंश के मामले वहीं अधिक होते हैं।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स के इवॉल्यूशनरी वेनोमिक्स विशेषज्ञ कार्तिक सुनगर सर्पदंश के उपचार में आने वाली इन्हीं अड़चनों को दूर करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई तरह के सांपों के ज़हर के एक प्रमुख घटक थ्री-फिंगर अल्फा-न्यूरोटॉक्सिन (3FTx-L) का सिंथेटिक संस्करण तैयार किया। (गौरतलब है कि 3FTx-L एक विषाक्त पदार्थ है जो तंत्रिका कोशिकाओं के एक प्रमुख न्यूरोट्रांसमीटर की प्रतिक्रिया करने की क्षमता को कुंद कर देता है, और लकवे का कारण बनता है।) फिर उन्होंने एक बहुत बड़ी एंटीबॉडी लाइब्रेरी में सहेजी गईं लगभग 100 अरब कृत्रिम मानव एंटीबॉडी को इस ज़हर के प्रति जांचा और देखा कि कौन-सी एंटीबॉडी इस ज़हर को सबसे अच्छे से बेअसर करती है। उनकी यह खोज 95Mat5 नामक एंटीबॉडी पर आकर खत्म हुई, जो इस ज़हर पर बहुत ही कारगर पाई गई। इसकी बेहतरीन कारगरता का कारण है कि यह अल्फा-बंगारोटॉक्सिन पर ठीक उसी स्थान पर जाकर चिपकता है जहां से यह विष मानव तंत्रिकाओं और मांसपेशियों की कोशिकाओं के साथ बंधता है। अल्फा-बंगारोटॉक्सिन मल्टी-बैंडेड करैत (Bungarus multicinctus) के ज़हर का मुख्य 3FTx-L है।

फिलहाल तो यह 95Mat5 एंटीबॉडी चूहों में कारगर पाई गई है। यहां तक कि 95Mat5 ने चूहों को करैत सांप के ज़हर से भी बचा लिया। इस सांप के बारे में माना जाता है कि इसमें कम से कम चार दर्जन विभिन्न ज़हर होते हैं। इसकी कारगरता सर्पदंश के 20 मिनट विलंब से उपचार दिए जाने पर भी दिखी। और तो और, यह मोनोसेलेट कोबरा (Naja kaouthia) और ब्लैक मंबा (Dendroaspis polylepis) के ज़हर पर भी काम कर गया। लेकिन कुछ ज़हर, जैसे किंग कोबरा (Ophiophagus hannah) के ज़हर को बेअसर नहीं कर पाया, हालांकि इसने चूहों की मृत्यु को थोड़ा टाल ज़रूर दिया था। इस तरह इस एंटीबॉडी से निर्मित एक एंटीवेनम चार प्रजातियों के ज़हर को बेअसर करने के लिए किया जा सकता है।

साथ ही जो एंटीवेनम 3FTx-L के खिलाफ बहुत प्रभावी नहीं रहते हैं उनके स्थान पर 95Mat5 आधारित एंटीवेनम दिया जा सकता है। इसके अलावा यह पशु एंटीबॉडी पर आधारित न होकर मनुष्यों की कृत्रिम एंटीबॉडी है, तो इसमें उपचार के अवांछित दुष्प्रभाव और जोखिम की संभावना भी कम है।

दूसरी ओर, विभिन्न शोध टीमें एक ऐसा परीक्षण तैयार करने की दिशा में काम कर रही हैं जिसके ज़रिए पता किया जा सके कि पीड़ित को किस सांप ने काटा है। और इस तरह लक्षण उभरने तक इंतज़ार करने के समय को कम करके एंटीवेनम को अधिक कारगर बनाया जा सके और विकलांगता और जान गंवाने के प्रतिक्षण बढ़ते जोखिम को कम किया जा सके।

लेकिन ऐसे परीक्षणों में मुख्य बात यह होनी चाहिए कि परीक्षण बहुत आसान हो, दूर-दराज़ के सुविधा रहित इलाकों में पहुंच सके और उपयोग किया जा सके, और परीक्षण के नतीजे फौरन प्राप्त हो जाएं। जैसे कि प्रेग्नेंसी टेस्ट देने वाली स्ट्रिप से मिलते हैं – पेशाब पड़ने के मिनट भर बाद वह रंग बदलकर (या न बदलकर) बता देती है कि गर्भ ठहरा है या नहीं।

दरअसल गर्भ ठहरने का निर्धारण करने वाली स्ट्रिप में ऐसे एंटीबॉडी होते हैं जो गर्भ ठहरने के कारण स्रावित होने वाले हारमोन ह्यूमन कोरियॉनिक गोनेडोट्रॉपिन से जुड़ते हैं। यदि गर्भ ठहरता है तो पेशाब में यह हारमोन बढ़ जाता है और स्ट्रिप में उपस्थित एंटीबॉडीज़ जब इस हारमोन से जुड़ती हैं तो रंग परिवर्तन की हुई दो धारियां मिलती हैं।

लेकिन सर्पदंश के मामले में इस तरह से सार्वभौमिक परीक्षण विकसित करने में समस्या यह है कि प्रेग्नेंसी में स्रावित हारमोन के विपरीत हर सांप का ज़हर एक समान नहीं होता और कई यौगिकों का मिश्रण होता है। फिर भी क्षेत्र विशेष के लिए क्षेत्रीय परीक्षण विकसित किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में सर्पदंश के अधिकांश मामले सिर्फ चार प्रजातियों के कारण होते हैं। तो शोधकर्ता क्षेत्रीय परीक्षण स्ट्रिप के लिए एक ऐसी एंटीबॉडी तैयार कर रहे हैं जो इन चारों विष को पहचान सके और बता सके कि कौन-सा ज़हर है। इस दिशा में उन्हें कुछ सफलता मिली है। कुछ परीक्षणों और अनुमोदन के बाद यह परीक्षण इस साल के अंत या अगले साल की शुरुआत तक उपलब्ध हो सकेगा।

लेकिन उपरोक्त एंटीवेनम और परीक्षणों का उत्पादन करने के लिए काफी धन लगेगा। ज़ाहिर है दवा कंपनियां यदि इन्हें बनाएंगी तो ये महंगे होंगे, और उन लोगों की पहुंच से बाहर होंगे जो सर्पदंश के शिकार होते हैं – सर्पदंश की समस्या से मुख्यत: निम्न और मध्यम आय वाले देशों के गरीब और खेतों-जंगलों में काम करने वाले लोग प्रभावित होते हैं। इन देशों में यह पहले ही एक उपेक्षित स्वास्थ्य समस्या है। इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ इससे सम्बंधी अर्थव्यवस्था, रणनीतिक निर्णयों और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों के स्तर पर भी काम करने की ज़रूरत है, तभी वास्तव में वक्त पर बेहतर उपचार मुहैया हो सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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उपवास: फायदेमंद या नुकसानदेह?

लाखों लोग या तो वज़न घटाने या फिर धार्मिक आस्था के चलते नियमित उपवास करते हैं, और व्रत-उपवास करने से शरीर को होने वाले फायदे भी गिनाते हैं। लेकिन उपवास करने के कारण शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को वास्तव में बहुत कम जाना-समझा गया है। एक ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लंबे उपवास के कारण विभिन्न अंगों में होने वाले आणविक परिवर्तनों पर बारीकी से निगरानी रखी, और पाया कि उपवास से स्वास्थ्य पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव पड़ते हैं।

अध्ययन में महज़ 12 प्रतिभागियों को सात दिन तक उपवास करने कहा गया – इस दौरान उन्हें सिर्फ पानी पीने की अनुमति थी, किसी भी तरह के भोजन की नहीं। रोज़ाना उनके शरीर के लगभग 3000 विभिन्न रक्त प्रोटीनों में हो रहे परिवर्तनों को मापा गया। यह पहली बार है कि उपवास के दौरान पूरे शरीर में आणविक स्तर पर निगरानी रखी गई है।

नेचर मेटाबोलिज़्म में प्रकाशित नतीजों के अनुसार उपवास के पहले कुछ दिनों में ही शरीर ने ऊर्जा हासिल करने का अपना स्रोत बदल लिया था, और ग्लूकोज़ की बजाय संग्रहित वसा का उपयोग शुरू कर दिया था। नतीजतन, पूरे सप्ताह में प्रतिभागियों का वज़न औसतन 5.7 किलोग्राम कम हुआ, और दोबारा भोजन शुरू करने के बाद भी उनका वज़न कम ही रहा।

अध्ययन में उपवास के प्रथम दो दिनों में रक्त प्रोटीन के स्तर में कोई बड़ा फर्क नहीं दिखा। लेकिन तीसरे दिन से सैकड़ों प्रोटीन के स्तर में नाटकीय रूप से घट-बढ़ हुई।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने पूर्व में हुए उन अध्ययनों को खंगाला जिनमें विभिन्न प्रोटीनों के घटते-बढ़ते स्तर और विभिन्न बीमारियों का सम्बंध देखा गया था। इस तरह शोधकर्ता उपवास के दौरान 212 प्लाज़्मा अणुओं में हुए बदलावों के स्वास्थ्य पर प्रभाव का आकलन कर पाए।

मसलन, उन्होंने पाया कि तीन दिनों से अधिक समय तक भोजन न करने के कारण प्लाज़्मा में स्विच-एसोसिएटेड प्रोटीन-70 का स्तर घट गया था। ज्ञात हो कि इसका स्तर कम हो तो रुमेटिक ऑर्थराइटिस का जोखिम कम होता है। संभवत: इसी कारण रुमेटिक ऑर्थराइटिस के रोगियों को लंबा उपवास करने से दर्द में राहत मिलती होगी। इसके अलावा, हाइपॉक्सिया अप-रेगुलेटेड-1 नामक प्रोटीन, जो हृदय धमनी रोग से जुड़ा है, के स्तर में कमी देखी गई। इससे लगता है कि लंबे समय तक ना खाना हृदय को तंदुरुस्त रखने में मददगार हो सकता है।

लेकिन अध्ययन में उपवास के स्वास्थ्य पर कई नकारात्मक परिणाम भी दिखे। जैसे, उन्होंने थक्का जमाने वाले कारक-XI में वृद्धि दिखी, जिसके चलते थ्रम्बोसिस होने का खतरा बढ़ सकता है।

कुल मिलाकर लगता है कि उपवास करने के फायदे भी हैं और नुकसान भी। बिना सोचे-समझे, या सिर्फ फायदों के बारे में सोचकर उपवास करना आपके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिए अपने शरीर और उसकी क्षमताओं से अवगत रहें और उस आधार पर तय करें कि व्रत करें या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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माइक्रोप्लास्टिक के स्वास्थ्य प्रभाव

ज प्लास्टिक हर जगह उपस्थित है। खाद्य पैकेजिंग, टायर, कपड़ा, पाइप आदि में उपयोग होने वाले प्लास्टिक से बारीक प्लास्टिक कण निकलते हैं जिसे माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। यह पर्यावरण में व्याप्त है और अनजाने में मनुष्यों द्वारा उपभोग या श्वसन के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर रहा है।

सर्जरी से गुज़रे 200 से अधिक रोगियों पर किए गए हालिया अध्ययन से पता चला है कि लगभग 60 प्रतिशत लोगों की किसी मुख्य धमनी में माइक्रोप्लास्टिक या नैनोप्लास्टिक मौजूद है। चौंकाने वाली बात यह है कि इन प्लास्टिक कणों वाले व्यक्तियों में सर्जरी के बाद लगभग 34 महीनों के भीतर दिल के दौरे या स्ट्रोक जैसी हृदय सम्बंधी समस्याओं से पीड़ित होने की संभावना 4.5 गुना अधिक होती है।

वैसे दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित यह अध्ययन केवल माइक्रोप्लास्टिक को इसका ज़िम्मेदार नहीं बताता है। सामाजिक-आर्थिक स्थिति जैसे अन्य कारक भी स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं, जिन पर इस अध्ययन में विचार नहीं किया गया है।

दरअसल, जल्दी नष्ट न होने के कारण माइक्रोप्लास्टिक सजीवों के शरीर में जमा होते रहते हैं और पर्यावरण में भी टिके रहते हैं। माइक्रोप्लास्टिक मानव रक्त, फेफड़े और प्लेसेंटा में भी पाए गए हैं, लेकिन इनके स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभाव स्पष्ट नहीं हैं।

इसी विषय में अध्ययन करते हुए इटली स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैम्पेनिया लुइगी वानविटेली के चिकित्सक ग्यूसेप पाओलिसो और उनकी टीम जानती थी माइक्रोप्लास्टिक्स वसा अणुओं की ओर आकर्षित होते हैं। लिहाज़ा, उन्होंने यह देखने का प्रयास किया कि क्या ये कण रक्त वाहिकाओं के भीतर प्लाक (वसा की जमावट) के भीतर इकट्ठे होते हैं। इसके बाद टीम ने ऐसे 257 लोगों को ट्रैक किया जो गर्दन की धमनी से प्लाक हटाकर स्ट्रोक के जोखिम को कम करने की सर्जरी करवा रहे थे।

प्लाक की जांच करने पर पता चला कि 150 प्रतिभागियों के नमूनों में कोशिकाओं और अपशिष्ट उत्पादों के साथ माइक्रोप्लास्टिक वाले दांतेदार थक्के मौजूद हैं। इनके रासायनिक विश्लेषण से पॉलीथीन और पॉलीविनाइल क्लोराइड जैसे प्रमुख प्लास्टिक घटक मिले जो आम तौर पर रोज़मर्रा की वस्तुओं में पाए जाते हैं। अधिक माइक्रोप्लास्टिक वाले लोगों में सूजन वाले आणविक चिंह मिले जो स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का संकेत देते हैं।

इसके अलावा, जिन व्यक्तियों के प्लाक में माइक्रोप्लास्टिक पाया गया वे युवा, पुरुष, धूम्रपान करने वाले थे और उन्हें पहले से मधुमेह या हृदय रोग जैसी समस्याएं थी। चूंकि यह अध्ययन केवल उन लोगों पर किया गया था जो स्ट्रोक का जोखिम कम करने के लिए सर्जरी करवा रहे थे, इसलिए इसके सामान्य प्रभाव पर अभी अनिश्चितता है।

शोधकर्ताओं को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि 40 प्रतिशत प्रतिभागियों में माइक्रोप्लास्टिक्स अनुपस्थित थे क्योंकि प्लास्टिक से पूरी तरह बचना तो मुश्किल है। इसलिए यह समझने के लिए आगे के शोध की आवश्यकता है कि कुछ लोगों में माइक्रोप्लास्टिक क्यों नहीं पाया गया।

यह अध्ययन प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के उद्देश्य से एक वैश्विक संधि तैयार करने के राजनयिक प्रयासों से मेल खाता है। 2022 में, 175 देशों द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार इस संधि को 2024 के अंत तक कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते का रूप देना है, हालांकि प्रगति काफी धीमी है। अध्ययन के निष्कर्षों से उम्मीद की जा रही है कि अप्रैल में ओटावा में होने वाली वार्ता में निर्णय लिए जाएंगे। तब तक, अपनी निजी आदतों में बदलाव लाना आवश्यक है ताकि प्लास्टिक उपयोग को कम से कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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अति-संसाधित भोजन नुकसानदेह है

सोडा, कैंडी और फ्रोज़न फूड जैसे अति-संसाधित खाद्य पदार्थ हमारी लालसा को तो संतुष्ट कर सकते हैं, लेकिन अनुसंधान से पता चल रहा है कि ये हृदय और मस्तिष्क के लिए हानिकारक हो सकते हैं। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित शोध सारांश में इन खाद्य पदार्थों की अधिक खपत का हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा, सांस की दिक्कत, चिंता, अवसाद और संज्ञानात्मक क्षति के जोखिमों से सीधा सम्बंध बताया गया है। एक अन्य अध्ययन के मुताबिक ऐसे खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन अवसाद और चिंता के जोखिम में क्रमश: 44 और 48 प्रतिशत की वृद्धि करता है। अध्ययन यह भी बताते हैं कि कुल कैलोरी उपभोग में से इन खाद्य पदार्थों का कुछ हिस्सा ही जोखिम को बढ़ा देता है। इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स में 5 लाख लोगों पर किए गए एक अध्ययन में अति-संसाधित खाद्य उपभोग में केवल 10 प्रतिशत वृद्धि से मनोभ्रंश के जोखिम में 25 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई है। वैसे अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे खाद्य पदार्थों और स्वास्थ्य के बीच कार्य-कारण सम्बंध क्या है।

यह तो सब जानते हैं उच्च मात्रा में नमक, चीनी और संतृप्त वसा लेने के कारण जीर्ण शोथ, उच्च रक्तचाप और टाइप-2 मधुमेह होने की संभावना होती है। लेकिन अधिकतर लोग इस बात से अनभिज्ञ हैं कि ये परिस्थितियां मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। कृत्रिम मिठास और मोनोसोडियम ग्लूटामेट जैसे पदार्थ मस्तिष्क द्वारा कतिपय रसायनों (जैसे डोपामाइन, सीरोटोनिन, नॉरएपिनेफ्रीन) के उत्पादन और विमोचन को बाधित कर सकते हैं, जिससे मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याएं बढ़ सकती हैं।

अति-संसाधित खाद्य पदार्थ की लत भी लग सकती है जिसे कंपनियां भोजन चुनाव सम्बंधी हमारे निर्णयों को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल करती हैं।

नैसर्गिक तौर पर मिलने वाले फल या तो मीठे होते हैं (जैसे सेब) या वसा से भरपूर होते हैं (जैसे मूंगफली)। प्रकृति में सामान्यत: ऐसे खाद्य पदार्थ नहीं मिलेंगे जिनमें शकर, नमक और वसा तीनों हों। दूसरी ओर, अति-संसाधित खाद्य पदार्थों में चीनी और वसा दोनों एक साथ होते हैं, और ऊपर से नमक, कृत्रिम गंध और रंग-रोगन। ऐसे में, दिमाग बेकाबू हो जाता है। इन खाद्य पदार्थों की खपत कम करने और कम संसाधित विकल्पों को चुनने से बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य परिणाम हासिल हो सकते हैं।

हम तीन तरह की चीज़ें खाते हैं – अ-संसाधित, संसाधित और अति-संसाधित। असंसाधित खाद्य पदार्थ यानी ताज़ा या फ्रिज में रखे फल-सब्ज़ियां, आटा वगैरह। इनमें प्राय: एक ही पोषक पदार्थ होता है।

संसाधित पदार्थ वे कहलाते हैं जिन्हें असंसाधित खाद्य से सीधे प्राप्त किया जाता है – जैसे वनस्पति तेल, शकर वगैरह।

इसके बाद आते हैं थोड़े संसाधित खाद्य पदार्थ जैसे मक्खन, प्रिज़र्वेटिव रहित ब्रेड, अचार वगैरह। इनमें भी घटकों की सूची बहुत छोटी होती है।

फिर आते हैं अति-संसाधित खाद्य – केक, ऊर्जादायक बार वगैरह, प्रिज़र्वेटिव्स के साथ रखे गए तैयारशुदा भोजन वगैरह। इनमें अक्सर भरपूर वसा, शकर, नमक वगैरह होते हैं और ऊपर से तमाम खुशबुएं, रंग-रोगन वगैरह डाले जाते हैं। इनमें उपस्थित घटकों की फेहरिस्त काफी लंबी हो सकती है।

अति-संसाधित खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। ये खाद्य पदार्थ कैलोरी से भरपूर होते हैं, जिससे मोटापा बढ़ता है। शरीर की वसा कोशिकाएं निष्क्रिय होकर शोथजनक अणु मुक्त करने लगती है जिनसे अवसाद, चिंता और मनोभ्रंश जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

कई शोध अध्ययनों से पता चला है कि संभावना रहती है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा इन खाद्य पदार्थों का आदी हो जाएगा, जिससे उनकी खपत में और अधिक वृद्धि हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अति-संसाधित खाद्य पदार्थों का सेवन करने वाले व्यक्ति फलों, सब्ज़ियों और साबुत अनाज में पाए जाने वाले आवश्यक पोषक तत्वों से वंचित रह जाएंगे जो मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं। इन आवश्यक तत्वों की कमी से अवसाद जैसी मानसिक समस्याएं हो सकती हैं।

यह देखा गया है कि गरीब लोग ऐसे खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन करते हैं। लुभावने विज्ञापनों और हर गली-नुक्कड़ पर मौजूद गुमठियों में आसानी से मिलने के कारण अति-संसाधित खाद्य पदार्थ लोगों को आकर्षित करते हैं, और खुद को रोक पाना काफी मुश्किल होता है।

अति-संसाधित खाद्य पदार्थों से बचने के लिए, विशेषज्ञ कुछ सुझाव देते हैं:

  1. खुद को दोष देने की बजाय इस बात को जानें कि इन खाद्यों के आदी होने के लिए पूरा माहौल बनाया गया है।
  2.  भूख से प्रेरित लालसा से बचने के लिए नियमित समय पर भोजन करें।
  3. अति-संसाधित खाद्य पदार्थों की जगह गिरियों और ताज़े फलों जैसे विकल्प अपनाएं।
  4. कम सोडियम और कम शर्करा वाले खाद्य पदार्थों को प्राथमिकता दें।
  5. कुछ अति-संसाधित खाद्य पदार्थ अन्य अति-संसाधित खाद्य पदार्थ की तुलना में स्वास्थ्यवर्धक विकल्प हो सकते हैं, जैसे मैदे की बजाय आटे की ब्रेड।
  6. बच्चों को खाद्य विपणन की तिकड़मों के बारे में शिक्षित करें।

मुख्तसर सी बात है कि अति-संसाधित खाद्यों के प्रति सजग रहें और स्वयं को इनकी गिरफ्त से बचाएं। (स्रोत फीचर्स)

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आप सूंघकर बीमारी पता कर सकते हैं

सूंघने की शक्ति कई खतरों को टालने में मदद करती है; जैसे हम खराब खाना खाने से बचने के लिए उसे सूंघकर देखते हैं या हम गैस रिसने या कुछ जलने जैसी गंध के प्रति सचेत रहते हैं। तो क्या हम सूंघकर बीमारी की आहट नहीं भांप सकते?

वैज्ञानिकों का कहना है कि दुरुस्त घ्राण इंद्रियों वाला कोई भी व्यक्ति किसी ‘बीमारी की गंध’ पहचान सकता है। वैज्ञानिकों ने देखा है कि कई बीमारियों की अपनी एक विशेष गंध होती है, जिसे पहचान कर आप बता सकते हैं कि कोई व्यक्ति उस बीमारी से पीड़ित है या नहीं। जैसे डायबिटीज़ के रोगी के मूत्र से सड़े हुए सेब जैसी गंध आती है, टायफाइड के कारण शरीर की गंध ब्रेड जैसी हो सकती है, यहां तक कि पीत-ज्वर के कारण आपका शरीर कसाई की दुकान (कच्चे मांस) की तरह गंध मार सकता है।

दरअसल, हमारा शरीर हवा में लगातार वाष्पशील रासायनिक पदार्थ छोड़ता रहता है, जो हमारी सांस और त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशिष्ट गंध हो सकती है। हमारे चयापचय तंत्र में उम्र, आहार, या किसी बीमारी के कारण आए बदलाव के कारण बाहर निकलने वाले वाष्पशील अणु बदल सकते हैं, जिसके चलते गंध भी अलग हो सकती है। फिर, हमारी आंत और त्वचा पर रहने वाले सूक्ष्मजीव भी चयापचय उप-उत्पादों के विघटन से विभिन्न गंधयुक्त अणु पैदा कर सकते हैं।

कुल मिलाकर हमारा शरीर गंध का एक कारखाना है। और यदि हम गंधों पर ध्यान दें, अपनी घ्राण शक्ति का भरपूर उपयोग करें और उसे प्रशिक्षित करें तो संभवत: हम बीमारियों की गंध पहचान पाएंगे।

कुछ समय पहले ऐसा ही एक मामला सामने आया था, जिसमें पता चला था कि एक महिला पार्किंसन रोग की गंध सूंघ सकती है। गौरतलब है कि समय रहते पार्किंसन का पता करना बेहद मुश्किल है, और जब तक इस बीमारी के लक्षण सामने आते हैं और इसकी पुष्टि हो पाती है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। दरअसल, इस महिला के पति को पार्किंसन से ग्रसित पाया गया था। लेकिन पति में पार्किंसन का पता चलने के छह साल पहले से ही इस महिला को अपने पति में से कुछ अजीब सी गंध आने लगी थी – यह गंध थोड़ी लकड़ी, थोड़ी कस्तूरी जैसी थी। बाद में महिला जब पार्किंसन के रोगियों से भरे वार्ड में गई तो उन्हें अहसास हुआ कि ऐसी गंध सिर्फ उनके पति से ही नहीं, बल्कि सभी पार्किंसन रोगियों से आती है।

उनकी इस क्षमता को परखा गया। इसके लिए उन्हें छह पार्किंसन-पीड़ित और छह स्वस्थ लोगों की टी-शर्ट सुंघाई गई, और उन्हें पार्किंसन रोगियों की टी-शर्ट पहचानना था। उन्होंने छह के छह पार्किंसन पीड़ितों की टी-शर्ट की सही पहचान की, लेकिन उन्होंने कंट्रोल (यानी स्वस्थ व्यक्तियों वाले) समूह में से भी एक व्यक्ति को पार्किसन पीड़ित बताया।

तब तो यह लगा था कि उन्होंने पहचानने में गड़बड़ी की है, लेकिन आठ महीने बाद वास्तव में उस व्यक्ति को पार्किंसन से पीड़ित पाया गया।

लेकिन इस तरह की विशिष्ट क्षमता वाले किसी व्यक्ति को हमेशा बीमारी की पहचान के लिए बुलाना कहां तक संभव है? साथ ही यह भी समस्या है कि गंध की अदला-बदली भी हो सकती है: एक-दूसरे के कपड़े पहनने से, खचाखच भरी बस या ट्रेन में चिपक-चिपक कर बैठे हुए लोगों से।

इनमें से कुछ चुनौतियों से निपटने के लिए मैनचेस्टर इंस्टीट्यूट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी की एनालिटिकल केमिस्ट पर्डिटा बैरेन की टीम ने यह पहचानने का प्रयास किया है कि पार्किंसन की गंध के लिए कौन से अणु ज़िम्मेदार हैं। उन्हें ऐसे तीन अणु (आईकोसेन, हिपुरिक एसिड और ऑक्टाडेकेनल) मिले जो पार्किंसन पीड़ितों में अधिक होते हैं और एक अणु (पेरिलिक एल्डिहाइड) ऐसा मिला जो उनमें कम होता है। इन अणुओं के मिश्रण से उन्होंने पार्किंसन की विशिष्ट गंध बनाई। इसकी मदद से उन्होंने एक ऐसा परीक्षण बनाया जो गंध से लोगों में पार्किंसन की पहचान कर सके। प्रयोगशाला जांच में उनका यह परीक्षण 95 प्रतिशत सटीक रहा। अब वे इसे लोगों के उपयोग लायक बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं।

लेकिन हमने जहां से बात शुरू की थी वापिस उसी पर आते हैं कि क्या हम जैसे साधारण लोग सूंघकर बीमारी पहचान सकते हैं? अध्ययनों ने पाया है कि हमारी घ्राण शक्ति बहुत शक्तिशाली है। हमारे मस्तिष्क के घ्राण बल्बों में न्यूरॉन्स की संख्या को देखकर पता चलता है कि मनुष्यों की सूंघने की क्षमता चूहों से बेहतर हो सकती है जबकि हम चूहों और कुत्तों की घ्राण शक्ति के कायल हैं और कई मामलों में उनकी इस क्षमता का उपयोग भी करते हैं। बस हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम गंधों पर उतना गौर नहीं करते जितना करना चाहिए। फिर हमारे पास ‘गंध कैसी है’ इसका विवरण देने वाली भाषा भी सीमित है।

लेकिन ऐसा देखा गया है कि यदि हम बारीकी से गौर करें तो हम बीमारी पहचान सकते हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में प्रतिभागियों ने शरीर की गंध और तस्वीरों के आधार पर बीमार और स्वस्थ लोगों की पहचान कर ली थी। तो हम भी अपनी या अपनों की गंध पर बारीकी से गौर करने की और शरीर का हाल जानने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीकों में सहायक पदार्थों का उपयोग

टीकों के विज्ञान में एक दिलचस्प रहस्य छिपा है जिसे एडजुवेंट (सहायक पदार्थ) कहते हैं। 1920 के दशक में फ्रांसीसी पशुचिकित्सक गैस्टन रेमन ने पाया था कि टीकों में ब्रेड का चूरा, कसावा या ऐसा ही कोई योजक मिलाने से टीके बेहतर काम करते हैं। सहायक पदार्थों की इस भूमिका को देखते हुए कुछ टीकों में इनका उपयोग किया जा रहा है। साथ ही नए टीके तैयार करने के लिए एडजुवेंट पर शोध जारी है ताकि लंबे समय तक कारगर टीके विकसित किए जा सकें।

टीके का मतलब है कि रोगजनक का मृत या दुर्बल रूप या उसके द्वारा बनाया जाने वाला विष शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसे एंटीजन के रूप में पहचान लेता है और जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा होती है जिसके फलस्वरूप सूजन पैदा होती है। इसके साथ ही, प्रतिरक्षा कोशिकाएं एंटीजन को लिम्फ नोड्स तक पहुंचाती हैं, जहां अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र सक्रिय हो जाता है। प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: सूजन के ज़रिए ही काम करता है और कोशिश यही रहती है कि यह सूजन यथेष्ट मात्रा में पैदा हो।

एडजुवेंट प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया में सुधार करते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि टीकों से सूजन ठीक मात्रा में उत्पन्न हो – न बहुत ज़्यादा, न बहुत कम।

हालांकि, कुछ टीके प्रतिरक्षा उत्पन्न करने का अच्छा काम करते हैं, लेकिन प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने की क्षमता वाले जटिल रोगजनकों, जैसे एचआईवी, इन्फ्लूएंज़ा और मलेरिया, के लिए टीके विकसित करना काफी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने प्रतिरक्षा प्रणाली की जटिलताओं में गहराई से उतरकर ऐसे टीके बनाने का प्रयास किया जो व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं। एडजुवेंट इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रेमन ने देखा था कि जब घोड़ों में टीके के स्थान के आसपास संक्रमण विकसित होता है तो उनमें अधिक शक्तिशाली एंटी-डिप्थीरिया सीरम बनता है। जल्द ही वे उसी प्रतिक्रिया को बढ़ाने और प्रतिरक्षा में सहायता करने के लिए टीकों में ब्रेड का चूरा वगैरह चीज़ें मिलाने लगे।

इसे आगे बढ़ाते हुए एल्युमीनियम लवण जैसे एडजुवेंट्स का विकास हुआ। एडजुवेंट पर काम कर रहे एमआईटी के डेरेल इरविन का विचार है कि एमआरएनए टीकों में संयोगवश चुने गए लिपिड नैनोकण शायद एडजुवेंट के समान कार्य करते हैं। कुछ टीकों में सहायक पदार्थ इस आधार पर चुने जाते हैं कि उनमें संक्रामक बैक्टीरिया के कुछ घटक होते हैं। ऐसे अणुओं के खिलाफ प्रतिक्रिया के ज़रिए एडजुवेंट सूजन बढ़ाते हैं और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया मज़बूत होती है।

अंतत: एडजुवेंट प्रतिरक्षा कोशिकाओं की जीन गतिविधि को पुन: प्रोग्राम कर पाएंगे, जिससे एक साथ कई बीमारियों से सुरक्षा मिल सकेगी। चूहों पर हुए अध्ययनों से पता चला है कि एडजुवेंट युक्त तपेदिक का बीसीजी टीका विभिन्न संक्रमणों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इस शोध के आधार पर वैज्ञानिकों का लक्ष्य ऐसे एडजुवेंट विकसित करना है जो दीर्घकालिक एंटीवायरल प्रतिरक्षा प्रेरित कर सकें और विभिन्न रोगजनकों के खिलाफ व्यापक सुरक्षा प्रदान करें।

इरविन का मानना है कि एडजुवेंट पर अधिक अनुसंधान से कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों के विरुद्ध टीकों के निर्माण में मदद मिल सकती है। ट्यूमर द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन और एडजुवेंट के मिश्रण के परीक्षण मेलेनोमा और अग्न्याशय के कैंसर के विरुद्ध प्रतिरक्षा को उत्तेजित करने में प्रभावी रहे हैं।

विशेषज्ञों का मत है कि भविष्य में एडजुवेंट सूजन पर हमारी समझ विकसित होने पर एचआईवी, मलेरिया, कैंसर, इन्फ्लूएंज़ा और सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन जैसे संक्रामक खतरों सहित कई बीमारियों से एक साथ निपटने के लिए समाधान मिल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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जब हंसी मज़ाकिया न हो

ई के पहले रविवार को विश्व ठहाका दिवस होगा। इस अवसर पर अखबारों से लेकर व्हाट्सएप संदेश व अन्य (सोशल) मीडिया प्लेटफॉर्म हंसने के फायदे के बारे बताएंगे। बताया जाएगा कि हंसना हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, यह हमारी धमनियों को तंदुरुस्त रखता है, आईवीएफ की सफलता दर को बढ़ाता है, तनाव से राहत देता है, यहां तक कि कैंसर को ठीक भी कर देता है।

लेकिन हंसना एक बीमारी भी हो सकती है जो बे-वक्त, बे-मौके पर फूटकर व्यक्ति को शर्मिंदा कर सकती है/परेशानी में डाल सकती है। अधिक हंसी जीर्ण सिरदर्द का कारण भी बन सकती है। यहां तक कि हंसी के बेकाबू दौरे पड़ सकते हैं।

हंसने के कारण उपजी ऐसी ही एक स्थिति है ‘परिस्थितिजन्य सिरदर्द’। एक 52 वर्षीय महिला परिस्थितिजन्य सिरदर्द यानी अत्यधिक हंसने के कारण उपजे सिरदर्द से 32 वर्षों से पीड़ित थी। मस्तिष्क का स्कैन करने पर पता चला कि उसके मस्तिष्क में तीन जगहों पर मस्तिष्क-मेरु द्रव के थक्के जमा हैं। जब वह हंसती थी तो हंसी के कारण द्रव के दबाव में होने वाले परिवर्तन के कारण सिरदर्द होने लगता था। हालांकि खांसने-छींकने पर भी उसे सिरदर्द होने लगता था। लेकिन हंसी भी सिरदर्द का कारण तो बनती थी।

इससे अलग, द्विध्रुवी विकार (बायपोलर डिसऑर्डर) से पीड़ित एक व्यक्ति को हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाने के कारण मिर्गी के दौरे पड़ते थे। टीवी पर कॉमेडी शो देखते हुए जब भी वह कोई चुटकुला सुनता, हंसी आती और हंसते-हंसते जब वह लोट-पोट होने लगता तो उसके हाथ कांपने लगते और उसे ऐसा लगता जैसे उसकी चेतना शून्य हो रही है। एक दिन में पड़ने वाले मिर्गी के दौरों की संख्या और कॉमेडी शो की लंबाई और शो कितना हंसोड़ था के बीच सम्बंध था; औसतन  दिन में पांच बार। पहले तो डॉक्टरों को लगा कि दौरे उसके द्विध्रुवी विकार के कारण पड़ते हैं। लेकिन जब उन्होंने ईईजी के माध्यम से दो दिनों तक उसकी मस्तिष्क तरंगों को नापा तो पता चला कि मिर्गी के दौरों का सम्बंध उसकी लोट-पोट होकर हंसने वाली हंसी से था।

हंसी मस्तिष्क के दो अलग-अलग क्षेत्रों में हलचल से आती है: टेम्पोरल लोब, जो भावनात्मक पहलुओं को संभालता है; और फ्रंटल कॉर्टेक्स, जो क्रियाकारी हिस्से (चलना, दौड़ना, कूदना, फेंकना, झेलना, पकड़ना वगैरह) को संभालता है। शोधकर्ताओं का अनुमान था कि हंसने के कारण क्रियाकारी क्षेत्र में हलचल होने से मिर्गी के दौरे पड़ते हैं। उपचार लेने से समस्या ठीक तो हो गई लेकिन यदि, खुदा न ख्वास्ता, उनका अनुमान ठीक न निकलता तो शायद उसे टीवी देखना बंद करना पड़ता।

हंसी के कारण एक और जो समस्याप्रद स्थिति बनती है वह है पैथालॉजिकल लाफ्टर। पैथालॉजिकल लाफ्टर से पीड़ित शख्स को अचानक ही वक्त-बेवक्त, मौके-बेमौके ही हंसी आ जाती है। ऐसे ही एक मामले में एक शख्स को अपने परिवार के साथ शराड का खेलते हुए हंसी का दौरा पड़ा। आगे चलकर किसी के अंतिम संस्कार में, यहां तक कि अपनी बीमार मां से मिलते वक्त भी हंसी का दौरा पड़ गया। इसके चलते उसे काफी शर्मिंदगी महसूस हुई और उसने लोगों से मेल-जोल ही छोड़ दिया। मस्तिष्क की इमेजिंग करने पर पाया गया कि मस्तिष्क कोशिकाओं को जोड़ने वाले सफेद पदार्थ में घाव थे। साथ ही, मध्य मस्तिष्क और टेम्पोरल लोब में भी घाव थे। पैथोलॉजिकल लॉफ्टर का कारण तो पता नहीं चल पाया है लेकिन ऐसे मौकों पर एकदम तुरंत हंसी आने के बजाय थोड़ी देर बाद हंसी (विलंबित हंसी) आने के आधार पर लगता है कि इसका कारण सिर्फ घाव नहीं हैं। विलंबित हंसी आने से लगता है कि स्वायत्त क्रियाकारी केंद्र बनने में समय लगता है। जिससे लगता है कि नई तंत्रिका गतिविधि या नए हंसी नियंत्रण केंद्र बन रहे हैं।

ये ऐसे कुछ मामले थे जो हंसी से सम्बंधित समस्याओं को दर्शाते थे। लेकिन इन्हें पढ़कर हंसना मत छोड़िए। बस, जब लगे कि आपका हंसना आपके लिए कोई गंभीर समस्या पैदा कर रहा है तो डॉक्टर से मिलिए। वरना हंसिये-हंसाइए। (स्रोत फीचर्स)

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चिकित्सा में महत्व के चलते जोंक पतन – ज़ुबैर सिद्दिकी

धुनिक युरोप के इतिहास में जाने-माने ट्यूलिप उन्माद और रियल एस्टेट का जुनून सवार होने के बाद 19वीं सदी में जोंक चिकित्सा की एक नई सनक सवार हुई थी। लेकिन खून चूसने वाले ये अकशेरुकी प्राणि, युरोपीय चिकित्सकीय जोंक (Hirudo medicinalis), चिकित्सा सम्बंधित उन्माद के चलते विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। वैसे इन नन्हें जंतुओं ने मौसम की भविष्यवाणी में भी अपना नाम दर्ज कराया था।

वास्तव में चिकित्सीय उपचार के लिए जोंक का उपयोग सबसे पहले मिस्र में किया गया और आगे चलकर यूनान, रोम और भारत में भी इनका उपयोग होने लगा। जोंक को मुख्य रूप से शरीर के विभिन्न द्रवों को संतुलित करने के उद्देश्य से खून चुसवाने के लिए उपयोग किया जाता था। जबकि यूनानी चिकित्सक, विभिन्न अन्य रोगों, जैसे गठिया, बुखार और बहरेपन, के इलाज में भी जोंक का उपयोग किया करते थे। ये नन्हें जीव बड़ी आसानी से अपने तीन बड़े जबड़ों से त्वचा पर चिपक जाते थे और लार में प्राकृतिक निश्चेतक और थक्कारोधी गुण की मदद से रक्त चूसने लगते थे। इस तरह से रोगी को बिलकुल दर्द नहीं होता था और उपचार के बाद बस एक हल्का निशान रह जाता था जो समय के साथ  ठीक हो जाता था। 

लंबे समय से चली आ रही यह पद्धति उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में तब काफी सुर्खियों में रही जब पेरिस स्थित वाल-डी-ग्रे के प्रमुख चिकित्सक डॉ. फ्रांस्वा-जोसेफ-विक्टर ब्रूसे ने युरोपीय चिकित्सकीय जोंक उपचार को एक रामबाण उपचार के रूप में प्रचारित किया। ब्रूसे का मानना था कि सभी बीमारियों का मूल कारण है सूजन, और इसके इलाज के लिए रक्तस्राव सबसे उचित उपचार है। चूंकि यह सुरक्षित था और इसके लिए किसी विशेष कौशल की आवश्यकता भी नहीं थी, इसलिए जोंक की मांग में निरंतर वृद्धि होती गई। यहां तक कि कैंसर से लेकर मानसिक बीमारी सहित विभिन्न बीमारियों के इलाज में जोंक का खूब उपयोग किया जाने लगा।

इनकी मांग इतनी अधिक थी कि 1830 से 1836 तक फ्रांस्वा ब्रूसे के अस्पताल में ही 20 लाख से अधिक जोंकों का उपयोग किया गया जबकि फ्रांस के अन्य अस्पतालों में चरम लोकप्रियता के वर्षों में सालाना 5,000 से 60,000 जोंकों का उपयोग किया गया।

जोंक को रक्त निकालने के लिए एक बार में 20 से 45 मिनट तक चिपकाया जाता था। चूंकि एक जोंक केवल 10 से 15 मिलीलीटर तक ही खून चूस सकती है, इसलिए विभिन्न प्रकार के उपचार के लिए अलग-अलग डोज़ भी तय किए जाते थे – जैसे निमोनिया के लिए 80 जोंक और पेट की सूजन के लिए 20 से 40 जोंक।

यह काफी दिलचस्प बात है कि विक्टोरिया युग में जोंक ने चिकित्सा के साथ फैशन और कला को भी प्रभावित किया था। महिलाओं की पोशाकों पर जोंक के चित्र काढ़े जाते थे और औषधालय बड़े-बड़े पात्रों में जोंक का प्रदर्शन करते थे। और तो और, ब्रिटेन के सर्वोच्च अधिकारी लॉर्ड चांसलर थॉमस एर्स्किन जोंक को अपने सबसे प्रिय पालतू जानवर के रूप में पालने लगे थे।

जोंक के प्रति यह दीवानगी जोंक की आबादी को गंभीर रूप से प्रभावित करने लगी। कुछ सरकारों ने इन्हें विलुप्ति से बचाने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानून लागू किया और जोंक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के साथ इनके संग्रहण को भी नियंत्रित किया। 1848 में, रूस ने जोंक के प्रजनन काल के दौरान जोंक संग्रह पर प्रतिबंध लगाया था। जोंक को कृत्रिम रूप से पालने व संवर्धन की भी कोशिशें की गईं।

लेकिन इनके संवर्धन तथा व्यावसायीकरण में कई चुनौतियां थीं। आम तौर पर उपयोग की गई जोंक को खाइयों या तालाबों में फेंक दिया जाता था, जिससे प्रजातियों का अत्यधिक दोहन होता था। इसी के साथ कृषि के लिए जल निकासी और दलदली भूमि के पुनर्विकास ने उनकी आबादी को और कम कर दिया। कई प्रयासों के बावजूद, 20वीं सदी की शुरुआत तक कई स्थानों पर चिकित्सीय जोंक लुप्तप्राय हो गए थे।

दरअसल, जोंक उपचार से कुछ फायदे थे तो कुछ नुकसान भी थे। जहां इस उपचार के बाद रोगी दर्द से राहत, सूजन में कमी और रक्त परिसंचरण में सुधार महसूस करते थे, थ्रम्बोसिस जैसी समस्याओं में राहत पाते थे, वहीं इससे खून की कमी, एनीमिया, संक्रमण और एलर्जी जैसी समस्याओं की संभावना रहती थी। इससे सिफिलस, तपेदिक और मलेरिया जैसी बीमारियां भी फैल सकती थी। इसके अलावा, कई रोगियों ने जोंक के प्रति भय और घृणा के कारण मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अनुभव किया।

जोंक के लुप्तप्राय होने को छोड़ भी दिया जाए तो इनके उपयोग में कमी का एक कारण चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास है जिसने कई बीमारियों के लिए अधिक प्रभावी उपचार प्रदान किए। इसके अलावा रोगाणु सिद्धांत तथा चिकित्सा विज्ञान में सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता के उदय होने से संक्रामक रोगों की घटनाओं और प्रसार में कमी आई। हालांकि 20वीं सदी के मध्य तक जोंक उपचार को काफी हद तक छोड़ दिया गया था लेकिन कुछ देशों में वैज्ञानिक अनुसंधान और विनियमन के साथ जोंक उपचार को एक मूल्यवान पूरक चिकित्सा के रूप में देखा जा रहा है। आजकल जोंक का प्रजनन युरोप और यूएसए की कुछ प्रयोगशालाओं में किया जा रहा है। 

मौसम भविष्यवाणी

दरअसल, जेनर ने अपनी कविता में बारिश के आगमन कई ऐसे कुदरती संकेतों का ज़िक्र किया था – जैसे मोर का शोर मचाना, सूर्यास्त का पीला पड़ जाना वगैरह। लेकिन मेरीवेदर का ध्यान कविता के उस हिस्से पर गया जहां जेनर ने कहा था, “जोंक परेशान हो जाती है, अपने पिंजड़े के शिखर पर चढ़ जाती है।

जॉर्ज मेरीवेदर नामक एक ब्रिटिश चिकित्सक और आविष्कारक ने जोंक को औषधीय उपयोग से परे देखा। एडवर्ड जेनर की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने एक ऐसा उपकरण (टेम्पेस्ट प्रोग्नॉस्टिकेटर) बनाया जो जोंक की कथित रहस्यमयी क्षमता का उपयोग कर तूफानों की भविष्यवाणी करता था।

मेरीवेदर द्वारा तैयार किए गए तूफान-सूचक में बारह बोतलों को एक घेरे में जमाया गया था। प्रत्येक बोतल में कुछ इंच बारिश का पानी भरा गया था और प्रत्येक बोतल में एक-एक जोंक रखी गई थी। जोंक को इस तरह रखा गया था कि वे एक-दूसरे को देख सकती थीं और एकांत कारावास की पीड़ा से मुक्त रहती थीं।

सामान्य परिस्थितियों में सभी जोंक बोतल में नीचे पड़ी रहती थीं लेकिन बारिश आने से पहले वे ऊपर चढ़ने लगती थीं। और ऊपर चढ़कर जब वे बोतल के मुंह तक पहुंच जाती थीं, तब वहां लगी एक छोटी व्हेलबोन पिन सरक जाती थी और उपकरण के केंद्र में लगी घंटी बजने लगती थी। जितनी अधिक जोंकें ऊपर की ओर बढ़ती थीं उतनी ही अधिक बार घंटी बजती थी। वैसे मेरीवेदर ने यह भी देखा कि कुछ जोंक बढ़िया संकेत देती थीं जबकि अन्य निठल्ली पड़ी रहती थीं और अपनी जगह से टस से मस नहीं होती थीं।

मेरीवेदर ने महीने भर अपने उपकरण का परीक्षण किया और व्हिटबाय फिलॉसॉफिकल सोसाइटी को आसन्न तूफानों की सूचना भेजते रहे। हालांकि उन्होंने अपनी असफलताओं की सूचना नहीं दी थी। एक अखबार के मुताबिक इस उपकरण ने अक्टूबर 1850 के विनाशकारी तूफान की सटीक भविष्यवाणी की थी, जिसके बाद इसे मान्यता मिली और 1851 में हाइड पार्क में इसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया।

हालांकि, मेरीवेदर का यह तूफान सूचक उतना व्यावहारिक नहीं था जितना वे सरकार को विश्वास दिला रहे थे। यह उपकरण न तो तूफान की दिशा बताता था और न ही इससे तूफान आने का सटीक समय पता चलता था। इसके अलावा, उपकरण की सबसे बड़ी कमी थी जोंक के लिए मासिक आहार की व्यवस्था और हर पांचवे दिन इसके पानी को बदलना। ऐसे में इसका नियमित रखरखाव थोड़ा मुश्किल काम था और विशेष रूप से जहाज़ों पर मौसम पूर्वानुमान के लिए यह अव्यावहारिक था। इसकी तुलना में स्टॉर्म ग्लास अधिक व्यावहारिक विकल्प के रूप में उभरा।

स्टॉर्म ग्लास एक कांच का उपकरण है जिसमें आम तौर पर कपूर, कुछ रसायन, पानी, एथेनॉल और हवा का मिश्रण होता है। ऐसा माना जाता था कि तरल में क्रिस्टल और बादल के बनने से मौसम में आगामी बदलावों का संकेत मिलता है। हालांकि, यह जोंक की तुलना में कम प्रभावी था लेकिन उपयोग में अधिक व्यवहारिक होने के कारण इसे दशकों तक उपयोग किया जाता रहा। मेरीवेदर का मूल तूफान भविष्यवक्ता तो शायद कहीं खो गया है, लेकिन लगभग एक सदी बाद 1951 में प्रदर्शनी के लिए इसकी कई प्रतिकृतियां बनाई गई थीं।

युरोपीय औषधीय जोंक और तूफान सूचक की आकर्षक कथाएं 19वीं सदी के विज्ञान और सामाजिक विचित्रताओं को एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। विलुप्त होने की कगार से लेकर मौसम के भविष्यवक्ता के एक संक्षिप्त कार्यकाल तक, जोंक ने उन क्षेत्रों का भ्रमण किया जिन्होंने इतिहास को आकार दिया। (स्रोत फीचर्स)

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बायोटेक जोखिमों से सुरक्षा की नई पहल

जैव प्रौद्योगिकी के दुरुपयोग के बढ़ते खतरों को देखते हुए जैव सुरक्षा विशेषज्ञों के एक वैश्विक समूह ने एक अंतर्राष्ट्रीय जैव सुरक्षा पहल (इंटरनेशनल बायोसिक्यूरिटी एंड बायोसेफ्टी इनिशिएटिव फॉर साइन्स – IBBIS) की शुरुआत की है। इस गैर-मुनाफा संगठन का लक्ष्य डीएनए संश्लेषण और जीन संपादन जैसी आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी तकनीकों से जुड़े जोखिमों को कम करना है। इसके ज़रिए जाने-अनजाने किए जा रहे हानिकारक रोगजनकों या विषाक्त पदार्थों के निर्माण पर रोक लगाई जा सकेगी।

हालिया समय में बायोटेक तकनीकों की सुलभता ने उनके दुरुपयोग की चिंताओं को बढ़ाया है। हालांकि, वैज्ञानिक समुदाय हमेशा से खुलेपन का हिमायती रहा है लेकिन आधुनिक तकनीकों के उद्भव से खतरनाक वायरस और अन्य सूक्ष्मजीवों के निर्माण की क्षमता ने सुरक्षा उपायों की आवश्यकता पर ध्यान आकर्षित किया है। वर्तमान में दुनियाभर की कंपनियों द्वारा ऑन-डिमांड डीएनए संश्लेषण सेवाएं प्रदान करने तथा क्रिस्पर और कृत्रिम बुद्धि जैसी तकनीकों से आशंका है कि जैव-आतंकवादी इन तकनीकों का फायदा उठा सकते हैं।

IBBIS का पहला प्रोजेक्ट डीएनए संश्लेषण कंपनियों के लिए ऐसे मुफ्त सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराना है जिनकी मदद से संदिग्ध गतिविधियों वाले, हानिकारक जीन अनुक्रमों वाले ऑर्डरों और ग्राहकों की अच्छे से स्क्रीनिंग की जा सके। संदेह होने पर कंपनियां ऐसे ऑर्डरों को मना कर सकती हैं या अधिकारियों को सतर्क कर सकती हैं। वैसे तो कई स्क्रीनिंग साधन मौजूद हैं, लेकिन उन्हें व्यापक रूप से अपनाया नहीं जा रहा है।

IBBIS का एक उद्देश्य हितधारकों के बीच विश्वास और सहयोग को बढ़ावा देना है। पारदर्शी और सुलभ समाधान पेश करके, इस पहल का उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों और राजनीतिक संदर्भों में समझ और कार्यान्वयन में अंतर को कम करना है।

न्यूक्लिक एसिड प्रदाताओं के बीच सर्वोत्तम प्रथाओं को स्थापित करने के प्रयासों के लेकर IBBIS के विभिन्न प्रयासों की सराहना की जा रही है। IBBIS की एक योजना ऐसे सॉफ्टवेयर पैकेज विकसित करने की है जिनकी मदद से जीव वैज्ञानिक पांडुलिपियों का स्क्रीनिंग करके देखा सके कि कहीं उनमें रोगजनक या टॉक्सिक बनाने की विधि का खुलासा तो नहीं किया गया है।

IBBIS के कार्यकारी निदेशक पियर्स मिलेट वैज्ञानिक समुदाय के ज़िम्मेदार व्यवहार को प्रोत्साहित करने के महत्व पर ज़ोर देते हैं। पारदर्शिता, सहयोग और जवाबदेही को बढ़ावा देकर, IBBIS का लक्ष्य वैश्विक जैव सुरक्षा प्रयासों को बढ़ाना और जैव प्रौद्योगिकी से जुड़े जोखिमों को कम करना है। IBBIS का दृष्टिकोण वैश्विक सुरक्षा के संभावित खतरों को कम करते हुए समाज की भलाई के लिए जैव प्रौद्योगिकी के सुरक्षित और ज़िम्मेदार उपयोग सुनिश्चित करना है। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया की ‘याददाश्त’!

हा जाता है कि ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले’। लेकिन पिछली बातों को याद रखना कई मामलों में फायदेमंद होता है, जैसे यदि हम पहले कभी गर्म चीज़ से जले हैं तो हम इस स्मृति के आधार पर आगे सतर्क रहते हैं और अन्य को भी सावधान करते हैं। ये स्मृतियां हमारे जीवन को सुरक्षित बनाती हैं।

अब हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि बैक्टीरिया भी अपने पिछले अनुभवों को याद रखते हैं: एशरिशिया कोली (ई.कोली.) बैक्टीरिया अपने आसपास मौजूद पोषक तत्व का स्तर याद रखते हैं। साथ ही वे इन स्मृतियों को अपनी आने वाली पीढ़ियों में हस्तांतरित भी करते हैं, जो संभवत: उनकी संतति को एंटीबायोटिक दवाओं से बचने में मदद करता है।

आम तौर पर हमें लगता है कि एक-कोशिकीय सूक्ष्मजीव अकेले-अकेले बस अपना-अपना काम करते रहते हैं। लेकिन बैक्टीरिया अक्सर मिल-जुल काम करते हैं जो उन्हें अधिक सुरक्षित रखता है। स्थायी ‘घर’ (बायोफिल्म) की तलाश में बैक्टीरिया के झुंड अक्सर घूमते हैं। झुंड में रहने से बैक्टीरिया को यह फायदा होता है कि वे एंटीबायोटिक के असर को बेहतर ढंग से झेल पाते हैं।

टेक्सास विश्वविद्यालय के सौविक भट्टाचार्य जब ई. कोली बैक्टीरिया में झुंड के व्यवहार का अध्ययन कर रहे थे, तब उन्होंने उनकी कॉलोनियों में ‘अजीब से पैटर्न’ देखे। फिर जब उन्होंने इन कालोनियों से एक-एक बैक्टीरिया को अलग करके देखा तो उन्होंने पाया कि बैक्टीरिया अपने पिछले अनुभवों के आधार पर अलग-अलग व्यवहार कर रहे थे। कॉलोनी में जिन बैक्टीरिया ने पहले झुंड बनाए थे, उनके दोबारा झुंड में आने की संभावना उन बैक्टीरिया की तुलना में अधिक थी जिन्होंने पहले झुंड नहीं बनाए थे। और यह प्रवृत्ति कम से कम उनकी अगली चार पीढ़ियों (जो दो घंटे में अस्तित्व में आ गईं थी) ने भी दिखाई थी।

ई. कोली के जीनोम में फेर-बदल करने पर शोध दल ने पाया कि उनकी इस क्षमता के पीछे दो जीन्स हैं जो मिलकर लौह के ग्रहण और नियमन को नियंत्रित करते हैं। बैक्टीरिया के लिए लौह अहम पोषक तत्व है। लौह का स्तर कम होने पर बैक्टीरिया में अपने झुंड की जगह बदलने की प्रवृत्ति दिखी, जो उनमें सहज रूप से निहित थी। ऐसा अनुमान है कि लौह स्तर कम होने पर बैक्टीरिया का झुंड आदर्श लौह स्तर वाले नए स्थान की तलाश में था।

हालांकि यह मालूम था कि कुछ बैक्टीरिया अपने आसपास के भौतिक पर्यावरण (जैसे टिकाऊ सतह) को याद रखते हैं और यह जानकारी अपनी संतानों को दे सकते हैं लेकिन इस अध्ययन में यह नई बात मालूम चली कि बैक्टीरिया पोषक तत्वों की उपस्थिति को भी याद रखते हैं। टिकाऊ, सुरक्षित और उपयुक्त स्थान तलाशने के लिए बैक्टीरिया इन स्मृतियों का उपयोग करते हैं और बायोफिल्म बनाते हैं।

बहरहाल, यह देखने की ज़रूरत है कि क्या अन्य सूक्ष्मजीव भी लौह स्तर को याद रखते हैं? बैक्टीरिया लौह स्तर अनुपयुक्त पाने पर कैसे अपना व्यवहार बदलते हैं? शोधकर्ताओं का मानना है कि इस मामले में अधिक अध्ययन रोगजनक संक्रमणों से निपटने में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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