रहस्यमय भारतीय चील-उल्लू – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारतीय चील-उल्लू (Bubo bengalensis) को कुछ वर्षों पूर्व ही एक अलग प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था और इसे युरेशियन चील-उल्लू (Bubo bubo) से अलग पहचान मिली थी। भारतीय प्रजाति सचमुच एक शानदार पक्षी है। मादा नर से थोड़ी बड़ी होती है और ढाई फीट तक लंबी हो सकती है, और उसके डैनों का फैलाव छह फीट तक हो सकता है। इनके विशिष्ट कान सिर पर सींग की तरह उभरे हुए दिखाई देते हैं। इस बनावट के पीछे एक तर्क यह दिया जाता है कि ये इन्हें डरावना रूप देने के लिए विकसित हुए हैं ताकि शिकारी दूर रहें। यदि यह सही है, तो ये सींग वास्तव में अपना काम करते हैं और डरावना आभास देते हैं।

निशाचर होने के कारण इस पक्षी के बारे में बहुत कम मालूमात हैं। इनके विस्तृत फैलाव (संपूर्ण भारतीय प्रायद्वीप) से लगता है कि इनकी आबादी काफी स्थिर है। लेकिन पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि ये बहुत आम पक्षी नहीं हैं। इनकी कुल संख्या की कभी गणना नहीं की गई है। हमारे देश में वन क्षेत्र में कमी होते जाने से आज कई पक्षी प्रजातियों की संख्या कम हो रही है। लेकिन भारतीय चील-उल्लू वनों पर निर्भर नहीं है। उनका सामान्य भोजन, जैसे चूहे, बैंडिकूट और यहां तक कि चमगादड़ और कबूतर तो झाड़-झंखाड़ और खेतों में आसानी से मिल जाते हैं। आसपास की चट्टानी जगहें इनके घोंसले बनाने के लिए आदर्श स्थान हैं।

मिथक, अंधविश्वास

मानव बस्तियों के पास ये आम के पेड़ पर रहना पसंद करते हैं। ग्रामीण भारत में, इस पक्षी और इसकी तेज़ आवाज़ को लेकर कई अंधविश्वास हैं। इनका आना या इनकी आवाज़ अपशकुन मानी जाती है। प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली ने लोककथाओं का दस्तावेज़ीकरण किया है जो यह कहती हैं कि चील-उल्लू को पकड़कर उसे पिंजरे में कैद कर भूखा रखा जाए तो यह मनुष्य की आवाज़ में बोलता है और लोगों का भविष्य बताता है।

उल्लू द्वारा भविष्यवाणी करने सम्बंधी ऐसे ही मिथक यूनानी से लेकर एज़्टेक तक कई संस्कृतियों में व्याप्त हैं। कहीं माना जाता है कि वे भविष्यवाणी कर सकते हैं कि युद्ध में कौन जीतेगा, तो कहीं माना जाता है कि आने वाले खतरों की चेतावनी दे सकते हैं। लेकिन हम उन्हें ज्ञान से भी जोड़ते हैं। देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू (उलूक) ज्ञान और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

भारतीय चील-उल्लू से जुड़े नकारात्मक अंधविश्वास हमें इनके घोंसले वाली जगहों पर इनकी उग्र सुरक्षात्मक रणनीति पर विचार करने को मजबूर करते हैं। इनके घोंसले चट्टान पर खरोंचकर बनाए गोल कटोरेनुमा संरचना से अधिक कुछ नहीं होते, जिसमें ये चार तक अंडे देते हैं। इनके खुले घोंसले किसी नेवले या इंसान की आसान पहुंच में होते हैं। यदि कोई इनके घोंसले की ओर कूच करता है तो ये उल्लू खूब शोर मचाकर उपद्रवी व्यवहार करते हैं, और घुसपैठिये के सिर पर पीछे की ओर से अपने पंजे से झपट्टा मारकर वार करते हैं।

खेती में लाभकारी

इन उल्लुओं की मौजूदगी से किसानों को निश्चित ही लाभ होता है। एला फाउंडेशन और भारतीय प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि झाड़-झंखाड़ के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लुओं की तुलना में खेतों के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लू संख्या में अधिक और स्वस्थ होते हैं। ज़ाहिर है, उन्हें चूहे वगैरह कृंतक जीव बड़ी संख्या में मिलते होंगे। और उल्लुओं के होने से किसानों को भी राहत मिलती होगी।

इन उल्लुओं का भविष्य क्या है? भारत में पक्षियों के प्रति रुचि बढ़ती दिख रही है। पक्षी निरीक्षण (बर्ड वॉचिंग),  जिसे एक शौक कहा जाता है, अधिकाधिक उत्साही लोगों को लुभा रहा है। ये लोग पक्षियों की गणना, सर्वेक्षण और प्रवासन क्षेत्रों का डैटा जुटाने में योगदान दे रहे हैं। लेकिन यह काम अधिकतर दिन के उजाले में किया जाता है जिसमें उल्लुओं के दर्शन प्राय: कम होते हैं। उम्मीद है कि भारतीय चील-उल्लू जैसे निशाचर पक्षियों के भी दिन (रात) फिरेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक अजूबा है चूहा हिरण – प्रमोद भार्गव

चूहा, हिरण और खरगोश – तीन प्राणि एक ही प्राणि में शामिल हैं? एकाएक यह बात विश्वसनीय नहीं लगती। परंतु दुनिया का यह सबसे छोटा हिरण प्रकृति का एक अजूबा है। बताते हैं कि विलुप्ति की कगार पर खड़े ये हिरण छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जि़ले में स्थित अचानकमार अभयारण्य और कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाते हैं। कांगेर घाटी अभयारण्य में इस दुर्लभ प्रजाति के हिरण का चित्र अचानक ही कैमरा में कैद हुआ है।

भारत में पाए जाने वाले हिरणों की 12 प्रजातियों में से एक प्रजाति चूहा-हिरण (Moschiola indica) की भी है। इसे विश्व का सबसे छोटा हिरण माना जाता है। इन अभयारण्यों के वन प्रांतरों में भारी-भरकम, खतरनाक और मांसाहारी वन्य प्राणियों के बीच यह छोटा एवं अत्यंत चंचल जीव कब तक बचा रहेगा, यह तो वक्त ही तय करेगा। हिरण और चूहे की शारीरिक बनावट व आदतों वाले इस नन्हे जंतु को हिंदी में ‘चूहा-हिरण’ संस्कृत में ‘मूषक-मृग’ और अंग्रेज़ी में माउस डियर कहते हैं। यह ट्रेगुलिडी कुल में आता है। वैसे बिलासपुर क्षेत्र के स्थानीय लोग इसे खरगोश की एक प्रजाति मानते आए हैं। इसलिए वे इसे ‘खरहा’ कहकर पुकारते हैं।

यहां के आदिवासी इसे घेरकर लाठियों से आसानी से मार लेते हैं। यदि यह लाठी की मार में नहीं आता तो वे इसे विष बुझे तीरों से निशाना भी बनाते हैं। दुर्लभ प्राणियों की श्रेणी में सूचीबद्ध होने के कारण इसके शिकार पर पूरी तरह प्रतिबंध है, संभवत: इसीलिए इसका अस्तित्व अभी तक बचा हुआ है। अब जागरूकता के चलते आदिवासी भी इसका शिकार नहीं करते हैं।

कुदरत का यह अजीब नमूना शक्ल-सूरत में खरगोश की तरह दिखता है, पर इसका मुंह एकदम चूहे से मिलता-जुलता है। इसकी त्वचा गहरा हरापन लिए भूरी-सी होती है। इससे इसे हरियाली के बीच छिपने में मदद मिलती है। अन्य हिरणों की तरह इसकी सूंघने व सुनने शक्ति तेज़ होती है। इससे यह दुश्मन को दूर से ही ताड़ लेता है और भागकर हरी घास अथवा झाड़ियों में छिप जाता है। इस तरह यह प्राणि हिंसक जीवों से अपनी रक्षा स्वयं कर लेता है।

इसकी त्वचा पर पेट के दोनों तरफ दो-दो चकत्तों में सफेद धारियां होती हैं। यही धारियां इसकी खास पहचान हैं तथा खरगोश व इसमें भेद करती हैं। इसका मुंह कुछ लंबा और कान छोटे होते हैं। इसके सिर पर सींग नहीं पाए जाते हैं, इसलिए यह एंटिलोप समूह का हिरण नहीं है। सींग की बजाय इसके मुंह पर ऊपरी जबड़े में दो कैनाइन दांत होते हैं। ये दांत कस्तूरी मृग में भी पाए जाते हैं। इन्हीं दांतों की सहायता से यह आहार को तोड़ता व चबाता है। इसके पैर गोल होने के साथ खुरों से युक्त होते हैं। खुर दो हिस्सों में विभाजित रहते हैं।

इनका रहवास विशेष रूप से घनी झाड़ियों और नमी वाले नमक्षेत्र होते हैं। अधिकतर ज़्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। शरीर की लंबाई 57.5 सेंटीमीटर तक होती है और पूंछ करीब 2.5 से.मी. लंबी होती है। इस तरह से यह कुल लगभग 61 से.मी. लंबा होता है। इसकी ऊंचाई 35 से.मी. तक होती है और वज़न तीन से सात किलोग्राम तक होता है। यह जंगलों में आठ से बारह वर्ष तक जीवित रह सकता है। यह पूरी तरह शाकाहारी प्राणि है और हिरण की अन्य प्रजातियों की तरह घास और फूल-पत्तियां ही खाता है।

भारत, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत अन्य दक्षिण एशियाई और पूर्व एशियाई देशों के उष्णकटिबंधीय नमी वाले क्षेत्रों में भी ये पाए जाते हैं। बिना सींगों वाले हिरणों का यह एकमात्र समूह है। शर्मीले और निशाचर होने के कारण इन पर भारत में ज़्यादा अध्ययन नहीं हुए हैं, इसीलिए इनके बारे में विशेष जानकारी भारतीय प्राणि विशेषज्ञों के पास भी नहीं है।

इनका प्रजनन काल पूरे साल चलता है। मादा साल में दो मर्तबा बच्चे जनती है। आम तौर पर एक बार में एक ही बच्चा जनती है, पर कभी-कभार दो बच्चे भी जनती है। ये बच्चे पैदा होने के 24 घंटे बाद चलने-फिरने व दौड़ने लगते हैं। चूहा हिरण की रफ्तार खरगोश से बहुत तेज़ होती है। अन्य हिरणों की भांति यह कुलांचे भरने में भी निपुण होता है। चूहा हिरण से कुछ बड़ा चिलियन हिरण पुडू पुडा (Pudu puda) होता है जो हमारे देश में नहीं पाया जाता। चिलियन पुडू पुडा की लंबाई 85 सेंटीमीटर और ऊंचाई 45 सेंटीमीटर तक होती है। शोरगुल, यांत्रिक कोलाहल व मानवीय हलचल से दूर ये हिरण नितांत एकांत पसंद करते हैं। मनुष्य का हस्तक्षेप, भले ही वह इसके संरक्षण के लिए ही क्यों न हो, इसके प्रजनन पर प्रतिकूल असर डालता है। इसलिए चिड़ियाघरों में यह हिरण ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहता। लिहाज़ा, अब बड़े चिड़ियाघरों ने इसे पालना बंद कर दिया है।

छत्तीसगढ़ में चूहा हिरण को पहली बार 1905 में एक अंग्रेज़ नागरिक ने रायपुर में देखा था। इसके संरक्षण के बेहतर प्रयास छत्तीसगढ़ से अधिक तेलंगाना प्रांत में हो रहे हैं। तेलंगाना के जंगलों में अब तक चूहा हिरण के 17 जोड़े छोड़े गए हैं। लेकिन इस हिरण के उचित संरक्षण हेतु इसकी आदतों और नैसर्गिक प्रक्रियाओं का विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यकता है।(स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर भी मात खाते थे

ब तक पृथ्वी पर डायनासौर का राज रहा, स्तनधारी जीव काफी छोटे साइज़ के हुआ करते थे। ऐसा माना जाता है कि जिस समय डायनासौर पृथ्वी पर राज कर रहे थे उस समय स्तनधारी जीव उनसे डरकर यहां-वहां छिप जाते थे। लेकिन चीन में मिला जीवाश्म एक स्तनधारी जीव द्वारा डायनासौर का शिकार करने का दुर्लभ साक्ष्य पेश करता है और उक्त धारणा को चुनौती देता है।

वर्ष 2012 में उत्तरी चीन के लुजियाटुन के हरे-भरे जंगल में एक किसान को एक जीवाश्म मिला था। किसान ने यह जीवाश्म हानियन वोकेशनल युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के जीवाश्म विज्ञानी गैग हैन के सुपुर्द कर दिया।

जीवाश्म लगगभग 12.5 करोड़ साल पुराना था। उस समय इस इलाके में ट्राइसेराटॉप्स के पूर्वज डायनासौर सिटेकोसॉरस अपने दो पैरों पर विचरते थे। ये सिटेकोसॉरस साइज़ में लगभग कुत्ते बराबर थे और शाकाहारी थे। इन्हीं के साथ उस समय का सबसे बड़ा स्तनधारी जीव रेपेनोमेमस रोबस्टस इन जंगलों में विचरता था, जो लगभग अभी के जीव बिज्जू के बराबर था। यह झबरीला था और इसके दांत पैने-नुकीले थे और वह मांसाहारी था। यह सिटेकोसॉरस के शिशुओं का शिकार करने के लिए जाना जाता था।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ता बताते हैं कि इस जीवाश्म में इन्हीं दोनों प्राणियों की मुठभेड़ कैद है। लेकिन रेपेनोमेमस रोबस्टस के साथ मुठभेड़ में शिशु सिटेकोसॉरस नहीं बल्कि किशोरवय सिटेकोसॉरस है, जिसका आकार रेपेनोमेमस रोबस्टस स्तनधारी से लगभग तीन गुना बड़ा है। सिटेकोसॉरस लगभग 10.6 किलोग्राम का रहा होगा और स्तनधारी लगभग 3.4 किलोग्राम का। दृश्य देखकर लगता है कि स्तनधारी जीव ही डायनासौर पर हावी था। संभव है कि डायनासौर कुछ ही क्षण में स्तनधारी जीव का भोजन बन जाता लेकिन ऐसा होने के पहले ही अचानक ज्वालामुखीय मलबा बहकर आ गया जिसमें ये दोनों योद्धा मारे गए और उसी मुद्रा में कैद हो गए।

जीवाश्म में, स्तनधारी जीव डायनासौर के ऊपर बैठा था, उसके दांत डायनासौर की दो पसलियों में गड़े हुए थे, उसका पिछला पैर डायनासौर के एक पैर के नीचे दबा हुआ था, और उसका एक हाथ डायनासौर का जबड़ा जकड़े हुए था: ज़ाहिर है, इस मुठभेड़ में डायनासौर शिकस्त पाने वाला था।

कुछ शोधकर्ता इस जीवाश्म की वैधता को लेकर शंकित हैं क्योंकि पूर्व में इस क्षेत्र में जीवाश्म जालसाज़ी के कई उदाहरण देखे जा चुके हैं।

लेकिन हैन का कहना है कि उनकी टीम ने स्तनधारी जीव के निचले बाएं जबड़े की सावधानीपूर्वक जांच करके जीवाश्म की सत्यता की पुष्टि कर ली है। जीवाश्म के आसपास की तलछट भी उस तह से मेल खाती है जहां से जीवाश्म मिला था। (स्रोत फीचर्स)

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किलर व्हेल माताएं अपने पुत्रों की रक्षा करती हैं

किलर व्हेल की तेज़ गति, बुद्धिमत्ता और पैने दांत उन्हें समुद्र का सबसे ताकतवर शिकारी बनाते हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि मुठभेड़ों के दौरान किलर व्हेल माताएं अपने पुत्रों की रक्षा करती हैं और उनका विशेष ख्याल रखती हैं। शोधकर्ताओं का मत है कि ऐसा करते हुए वे अपने जीन्स के अगली पीढ़ियों में हस्तांतरित होने की संभावना बढ़ाती हैं।

प्रशांत महासागर के उत्तर-पश्चिमी तट की किलर व्हेल जटिल सामाजिक विविधता के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका प्रत्येक पॉड (समूह) मातृप्रधान व्यवस्था में गुंथा होता है जिसमें एक बुज़ुर्ग (प्रधान) मादा, उसकी संतानें और उसकी पुत्रियों की संतानें शामिल होती हैं। नर अन्य समूह की मादाओं के साथ संभोग करते हैं लेकिन नर-मादा दोनों ही जीवन भर अपनी मां के साथ रहते हैं।

मनुष्यों के अलावा इनका कोई प्राकृतिक शिकारी नहीं है, इसलिए इनके शरीर पर दांतों के निशान अन्य व्हेल के हमलों का संकेत देते हैं। एक्सेटर विश्वविद्यालय की चार्ली ग्रिम्स इन हमलों के पैटर्न को समझना चाहती थीं। इसके लिए उन्होंने सेंटर फॉर व्हेल रिसर्च की फोटोग्राफिक जनगणना डैटा की मदद से 1976 से लेकर अब तक किलर व्हेल के शरीर पर निशानों के साक्ष्य एकत्रित किए।

उन्हें मादा व्हेल की तुलना में नर व्हेल पर अधिक घाव दिखे। कई नर ऐसे भी थे जिन्हें अन्य की तुलना में कम चोटें आई थीं। ग्रिम्स को लगा कि इसका सम्बंध 2012 के एक अध्ययन के नतीजों से हो सकता है जिसमें पाया गया था कि एक बुज़ुर्ग मादा व्हेल की उपस्थिति मात्र से उसकी नर संतानों के जीवित रहने की संभावना में वृद्धि होती है। इसे देखने के लिए टीम ने किलर व्हेल के पिछले 47 वर्षों के रिकॉर्ड का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि उन नर व्हेलों के शरीर पर दांतों के निशान कम थे जिनकी मां जीवित थी और प्रजनन उम्र पार कर चुकी थी, जबकि अनाथ और प्रजनन आयु की माताओं के साथ रहने वाले नरों को सबसे अधिक चोटें आईं थीं। इन परिणामों से पता चलता है कि प्रजनन आयु की व्हेल की अपेक्षा रजोनिवृत्त व्हेल अपने पुत्रों को सामाजिक संघर्ष से बचाती हैं। शोधकर्ताओं का यह भी मानना है कि माताएं झगड़ों में शारीरिक रूप से हस्तक्षेप नहीं करती बल्कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करके हिंसा शुरू ही नहीं होने देतीं। रजोनिवृत्त मां की पुत्रियों और प्रजनन करती मां की पुत्रियों के बीच कोई अंतर नहीं दिखता है।

पुत्र-रक्षा का कारण जैव विकास से सम्बंधित हो सकता हैं – समूह की मादाओं के शिशुओं के पालन की ज़िम्मेदारी मादा का पूरा समूह उठाता है। नर अपने समूह के बाहर संभोग करते हैं और अपनी संतानों के पालन-पोषण का बोझ दूसरे समूह को सौंप देते हैं। अपने पुत्रों को प्राथमिकता देकर प्रधान मादा अपने समूह के संसाधनों को खर्च किए बिना अपने जीन्स को अगली पीढ़ी में पहुंचा सकती है।

इस डैटा से रजोनिवृत्ति के काफी समय बाद तक मादाओं के जीवित रहने के कारण भी स्पष्ट होते हैं: ऐसी मादाएं समूह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ग्रिम्स इन पर और अध्ययन करना चाहती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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सांपों ने अपनी टांगें कैसे गंवाई?

सांप बड़े विचित्र कशेरुकी जीव होते हैं। इनका शरीर इतना पतला होता है कि इसमें दूसरे फेफड़े के लिए जगह नहीं होती। ये अपनी जीभ से सूंघते हैं और सबसे खास बात तो यह कि इनकी टांगें नहीं होती। अब एक दर्जन से अधिक सांप प्रजातियों के जीनोम को अनुक्रमित कर उन उत्परिवर्तनों का पता लगाया गया है जिनके कारण टांगें लुप्त हुई थीं। कई अन्य लक्षणों से सम्बंधित डीएनए भी पता चले हैं।

चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में चेंग्दू इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजी के सरीसृपविज्ञानी जिया-तांग ली और उनके सहयोगियों ने सांपों के 12 कुलों की 14 प्रजातियों के जीनोम का अनुक्रमण किया। सैंपल में शामिल सांप जैव विकास की 15 करोड़ वर्षों की अवधि का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने उन 11 सांप प्रजातियों के जीनोम भी शामिल कर लिए जिन्हें पहले अनुक्रमित किया जा चुका था।

सेल में प्रकाशित इस अध्ययन में टीम ने बताया है कि भुजाओं के विकास को नियंत्रित करने वाले जीन (पीटीसीएच1) में तीन स्थानों से डीएनए खंड गायब थे। पूर्व शोधकर्ताओं का ख्याल था कि पीटीसीएच1 की गतिविधि को नियंत्रित करने वाले डीएनए खंड में उत्परिवर्तन कुछ हद तक टांगों के गायब होने के लिए ज़िम्मेदार हैं। लेकिन अब लग रहा है कि स्वयं जीन में हुए उत्परिवर्तन भुजाओं के ह्रास के लिए ज़िम्मेदार है। सभी सांपों में पीटीसीएच1 में एक जैसे उत्परिवर्तन पाए गए और इस आधार पर यह टांगों के लोप का कारण लगता है।

और तो और, जब ली की टीम ने चूहों में एक समकक्ष जीन में वही उत्परिवर्तन किए तो चूहों के पैर की उंगलियों की हड्डियां बहुत छोटी हो गई थीं।

इसके अलावा उन्होंने सांपों की अन्य आनुवंशिक विशेषताओं को भी देखा है। पूर्व में किए गए अधूरे जीनोम के विश्लेषण के आधार पर वैज्ञानिकों का मानना था कि सरीसृपों ने दृष्टि के मुख्य जीन को खो दिया है। लेकिन नए विश्लेषण से पता चलता है कि उनमें यह जीन अभी भी उपस्थित है, बस यह निष्क्रिय है और शायद सांपों के विकास के आरंभ में ही निष्क्रिय हो गया था – संभवत: उन  सांपों में जो भूमिगत रहते थे।

हो सकता है इस तरह के उत्परिवर्तन उच्च आवृत्तियों को सुनने की क्षमता से सम्बंधित जीन में भी हुए होंगे। लेकिन इस आनुवंशिक परिवर्तन से सरीसृपों के कान की हड्डियों का पुनर्गठन हुआ जो उन्हें कंपन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनाता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इतने पतले शरीर में सभी अंगों को फिट करने के लिए सांपों में दो जीन नदारद हुए हैं जो आम तौर पर शरीर को सममित रखने का निर्देश देते हैं, जैसे दोनों बाजू एक-एक फेफड़ा। लेकिन इन जीन्स के अभाव में यदि सांप का बायां फेफड़ा बनता भी है तो उसका आकार बहुत छोटा होता है। (स्रोत फीचर्स)

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प्रोकेरियोट्स ने कैसे युकेरियोट्स को जन्म दिया – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पृथ्वी के जीवों को मोटे तौर पर दो समूहों में बांटा गया है – प्रोकेरियोट्स (केंद्रक-पूर्व या केंद्रकविहीन) और युकेरियोट्स (सुकेंद्रकीय या केंद्रकयुक्त)। प्रोकेरियोट्स एककोशिकीय जीव होते हैं; इनमें माइटोकॉन्ड्रिया जैसे कोई कोशिकांग भी नहीं होते, और इनमें डीएनए केंद्रक के अंदर बंद नहीं होता। युकेरियोट्स में माइटोकॉन्ड्रिया जैसे कोशिकांग होते हैं और इनका डीएनए केंद्रक के अंदर बंद होता है। अधिकांश युकेरियोट्स जटिल और बहुकोशिकीय जीव होते हैं।

लगभग 50 साल पहले यह दर्शाया गया था कि एककोशिकीय जीवों के एक उपसमूह, आर्किया, का वंशानुक्रम बैक्टीरिया से अलग है। ये दोनों कोशिका भित्ति की संरचना और कुछ जीनों के अनुक्रम की दृष्टि से अलग-अलग हैं। इस समूह के लिए आर्किया शब्द, जो प्राचीन होने का एहसास देता है, का उपयोग इसलिए किया गया था क्योंकि इस समूह के सबसे पहले खोजे गए सदस्य बहुत उच्च तापमान या बहुत अधिक खारी जगह वाली बहुत ही विषम परिस्थितियों में पाए गए थे।

आर्किया के एक समूह में ऐसे प्रोटीन पाए गए थे जो युकेरियोटिक प्रोटीन के काफी समान थे। ये जीव ऐसी भू-गर्भीय संरचनाओं में पाए जाते हैं जहां गर्म पानी एक दरार से बाहर निकलता है। ये संरचनाएं समुद्र में 2400 मीटर की गहराई पर हैं और यहां भूगर्भीय गर्मी से गरम होकर पानी के सोते फूटते रहते हैं। आगे चलकर इसी तरह के कई अन्य जीव कुछ असामान्य पारिस्थितिक तंत्रों में पाए गए, और उनके समूह को एसगार्ड कहा जाने लगा। एसगार्ड नॉर्स पौराणिक कथाओं में देवताओं के घर को कहा जाता है।

युकेरियोटिक कोशिकाओं का ऊर्जा बनाने वाला अंग (माइटोकॉन्ड्रिया) और पौधों की कोशिकाओं में प्रकाश संश्लेषण के लिए पाया जाने वाला अंग (क्लोरोप्लास्ट), दोनों ही मुक्त-जीवी बैक्टीरिया से विकसित हुए हैं। जैव विकास के किन चरणों में इन दो कोशिकाओं के बीच यह सहजीवी सम्बंध अस्तित्व में आया? माइटोकॉन्ड्रिया का पूर्वज कोई प्रोटियोबैक्टीरियम था जिसे किसी एसगार्ड आर्किया जीव ने निगल लिया था। इस अंत:सहजीवी संयोजन के वंशजों ने जंतुओं, कवकों और पौधों को जन्म दिया। पौधों में, एसगार्ड-माइटोकॉन्ड्रियल मेल के बाद प्रकाश संश्लेषण करने वाले सायनोबैक्टीरिया आए, जो क्लोरोप्लास्ट बन गए।

कुछ साल पहले हम भारतीयों ने कुछ सरकारी बैंकों का जटिल विलय देखा था, जो उनके संचालन को सुधारने/बेहतर करने के लिए किया गया था। इसी तरह, दो स्वतंत्र तरह के जीवों के बीच एक व्यावहारिक सहजीवी सम्बंध के निर्माण में कई चुनौतियां होती हैं। नए जीव में जीन के दो पूरे सेट बरकरार रखने की कोई ज़रूरत नहीं थी, इसलिए चयन किया गया; सूचना संचालन के लिए आर्किया के जीन बरकरार रखे गए और रखरखाव व कार्यों का निष्पादन करने (यानी प्रोटीन संश्लेषण) के लिए, बैक्टीरिया के जीन के चुने गए। समय के साथ, कोशिकांगों के अधिकांश जीन केंद्रक में पहुंच गए, जो संभवत: अधिक कुशल व्यवस्था थी।

पौधों का अलग तरीका

हैदराबाद के कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (सीसीएमबी) के राजन शंकरनारायणन के दल ने इन अंत:सहजीवी सम्बंधों में कोशिकीय प्रक्रियाओं के पुर्नगठन पर विस्तृत अध्ययन किया है। प्रोटीन संश्लेषण के महत्वपूर्ण कोशिकीय कार्य को केंद्र में रखकर उन्होंने जंतुओं और कवक की तुलना पादपों से की है। पादपों में यह और भी जटिल है क्योंकि इनके विकास में जीन के तीन सेट (आर्किया, प्रोटियोबैक्टीरियम और सायनोबैक्टीरियम) शामिल थे। पीएनएएस में प्रकाशित अपने हालिया अध्ययन में वे बताते हैं कि पादपों ने वाकई जानवरों और कवकों से अलग ही रणनीति अपनाई है।

प्रोटीन अमीनो एसिड से बने होते हैं। प्रकृति केवल वामहस्ती अमीनो एसिड का उपयोग करती है; दक्षिणहस्ती विषैले हो सकते हैं। एसगार्ड और बैक्टीरिया का ‘अच्छे-बुरे’ के बीच भेद करने का तंत्र अलग होता है। शोध पत्र बताता है कि जंतु और कवक माइटोकॉन्ड्रिया को बदल-बदलकर इस विसंगति को दूर करते हैं। पौधे इन दो व्यवस्थाओं को अलग-अलग कर देते हैं – कोशिकाद्रव्य और माइटोकॉन्ड्रिया में। (स्रोत फीचर्स)

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भोजन की सुरक्षा के लिए बढ़ईगिरी

म अनाज को सड़ने से बचाने या चूहों या अन्य किसी के हाथ लगने से सुरक्षित रखने के लिए कई तरह के उपाय अपनाते हैं। ऐसा ही काम कुछ गिलहरियां भी करती पाई गई हैं।

जब शोधकर्ता दक्षिणी चीन के वर्षावनों में पेड़-पौधों की विविधता का सर्वेक्षण कर रहे थे तब उन्हें पौधों पर उन जगहों पर फलों की गिरियां मिलीं जहां शाखाएं दो भागों में बंट रही थीं। शाख पर बनाए गए खांचों में ये गिरियां इतनी मज़बूती से फंसी थीं कि पेड़ को ज़ोर से हिलाने पर भी वे नहीं गिरीं। लेकिन इस बात का कोई सुराग नहीं था कि ये गिरियां वहां पहुंची कैसे। खुलासा तो तब हुआ जब वहां मोशन कैमरे लगाए गए। पता चला कि यह करतूत गिलहरियों की थी।

रिकॉर्डिंग्स में शोधकर्ताओं को दो प्रजातियों की उड़न गिलहरियां नज़र आईं। ये छोटी, निशाचर होती हैं और प्राकृतिक परिस्थिति में इनका अध्ययन मुश्किल होता है। रिकॉर्डिंग में दिखा कि ये उन गिरियों को निकालकर खा रही हैं और अपने दांतों की मदद से गिरियों को शाखाओं में फंसाने के लिए कुंडलीदार खांचे बना रही थीं। कुछ उस्ताद गिलहरियां तो वापस आकर अपने द्वारा फंसाई गई गिरियों को और मज़बूती देने का काम करती हैं। इस तरह इन गिलहरियों की गिरियां अन्य प्रतिस्पर्धी गिलहरियों की पहुंच से दूर रहती हैं, और संभवत: वर्षावन की नम भूमि में गिरकर मिट्टी में सड़कर गल जाने से भी बची रहती हैं।

गिलहरियों के भोजन को सुरक्षित रखने के अलावा उनका यह व्यवहार वर्षावन को आकार देने में मदद कर सकता है। हो सकता है पेड़ फंसी गिरियां कभी पौधों के लिए बीज का काम भी कर देती हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सीपियों की विष्ठा सूक्ष्म प्लास्टिक कणों को हटा सकती है

माइक्रोप्लास्टिक एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या बन गए हैं। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण समुद्री जीवों के शरीर में पहुंच कर उनके ऊतकों को नष्ट कर सकते हैं और उनकी जान के लिए खतरा हो सकते हैं। ये कण इतने छोटे होते हैं कि पर्यावरण से इनको हटाना मुश्किल होता है।

अब, प्लायमाउथ मरीन लेबोरेटरी की पारिस्थितिकी विज्ञानी पेनलोप लिंडिकी को एक ऐसे समुद्री जीव – नीले घोंघे (मायटिलस एडुलिस) – के बारे में पता चला है जो न सिर्फ माइक्रोप्लास्टिक्स से अप्रभावित रहते हैं बल्कि उन्हें पर्यावरण से हटाने में मदद कर सकते हैं। काली-नीली खोल वाली ये सीपियां भोजन के साथ माइक्रोप्लास्टिक भी निगल लेती हैं और अपनी विष्ठा के साथ इसे शरीर से बाहर निकाल देती हैं।

शोधकर्ता जानते थे कि नीली सीपियां ठहरे हुए पानी में से माइक्रोप्लास्टिक्स को छान सकती हैं। लिहाज़ा वे कुदरती परिस्थितियों में इस बात को जांचना चाह रहे थे।

उन्होंने सीपियों को एक स्टील की टंकी में रखा और उसमें माइक्रोप्लास्टिक युक्त पानी में भर दिया। जैसी कि उम्मीद थी सीपियों ने टंकी का लगभग दो-तिहाई माइक्रोप्लास्टिक्स निगला और उसे अपने मल के साथ त्याग दिया।

यही परीक्षण उन्होंने वास्तविक परिस्थितियों में भी दोहराया। उन्होंने तकरीबन 300 सीपियों को टोकरियों में भरकर पास के समंदर में डाल दिया। विष्ठा इकट्ठा करने के लिए उन्होंने हर टोकरी के नीचे एक जाली लगाई।

जर्नल ऑफ हेज़ार्डस मटेरियल्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस व्यवस्था में सीपियों ने प्रतिदिन लगभग 240 माइक्रोप्लास्टिक कण फिल्टर किए। प्रयोगशाला का काम बताता है कि पानी में अत्यधिक माइक्रोप्लास्टिक्स होने पर सीपियां प्रति घंटे लगभग एक लाख कण तक हटा सकती हैं। माइक्रोप्लास्टिक युक्त विष्ठा समुद्री जल में गहराई में बैठ जाती है जहां ये समुद्री जीवन के लिए कम हानिकारक होती हैं। और तली में बैठे प्लास्टिक कणों को उठाना आसान हो जाता है।

लेकिन इकट्ठा करने के बाद इसके निस्तारण की समस्या उभरती है। शोधकर्ता यह संभावना तलाशना चाहती हैं कि क्या माइक्रोप्लास्टिक युक्त विष्ठा से उपयोगी बायोफिल्म बनाई जा सकती है?

लेकिन उल्लखेनीय प्रभाव देखने के लिए बहुत अधिक संख्या में नीली सीपियों की ज़रूरत होगी। सिर्फ न्यू जर्सी खाड़ी के पानी को ‘माइक्रोप्लास्टि रहित’ बनाने के लिए हर रोज़ करीबन 20 लाख से अधिक नीली सीपियों को लगातार 24 घंटे प्रति फिल्टर करने का काम करना पड़ेगा।

बहरहाल यह समाधान बड़े पैमाने पर कुछ माइक्रोप्लास्टिक्स कम करने में तो मदद करेगा लेकिन मूल समस्या को पूरी तरह हल नहीं करेगा। इतनी सीपियां छोड़ने के अपने पारिस्थितिक असर भी होंगे। इसके अलावा, ये सीपियां एक विशेष आकार के कणों का उपभोग करती हैं। इसलिए शोधकर्ताओं का भी ज़ोर है कि वास्तविक समाधान तो प्लास्टिक उपयोग को कम करना ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चूहों को गंध से भटकाकर फसलों की सुरक्षा

ह तो सब जानते हैं कि चूहे घर के सामान का कितना नुकसान करते हैं। चूहों जैसे कृंतकों के कारण हर साल लगभग 7 करोड़ टन अनाज की भी बर्बादी होती है। वे खेतों में बोए बीजों को खोद-खोदकर खा जाते हैं और फसल बर्बाद कर देते हैं।

चूहों से निजात के लिए खेतों में बिल्लियां छोड़ने से लेकर ज़हर देने तक के कई तरीके आज़माए गए हैं। लेकिन ये सब महंगे हैं। ज़हर या कीटनाशक का छिड़काव सिर्फ एक बार करने से काम नहीं बनता। ऊपर से ये ज़हर चूहों के अलावा अन्य जीवों को भी मार देते हैं।

इसलिए शोधकर्ता कुछ ऐसे विकल्प की तलाश में थे जो जेब पर भारी न पड़े, अन्य जीवों को नुकसान न पहुंचाए और चूहों से होने वाला नुकसान कम से कम हो जाए। पूर्व अध्ययन में देखा गया था कि पक्षियों की गंध का ‘छद्मावरण’ देने से शिकारी भटक जाते हैं। शोधकर्ताओं ने पक्षियों की गंध को कुछ ऐसी जगहों पर बिखेर दिया जहां ये पक्षी वास्तव में कभी नहीं जाते थे। शुरू-शुरू में बिल्ली व इनके अन्य शिकारी जीव गंध का पीछा करते हुए अपने शिकार को ढूंढने उन जगहों पर पहुंचे थे, लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने इस गंध को ‘धोखा’ मान लिया और गंध का पीछा करना छोड़ा दिया। फिर जब घोंसला बनाने के मौसम में ये पक्षी वास्तव में वहां आए तो गंध को छलावा मानकर इनके शिकारियों ने इन तक पहुंचने की चेष्टा नहीं की।

चूहे भी भोजन ढूंढने के लिए गंध पर निर्भर होते हैं। गेहूं के मामले वे गेहूं के भ्रूण से आने वाली गंध सूंघते हुए पहुंचते हैं। तो युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के जीव वैज्ञानिक पीटर बैंक और उनके दल ने सोचा कि क्या इसी तरह चूहों को भी भटकाया जा सकता है। यह जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने ऑस्ट्रेलिया के ग्रामीण इलाके के गेहूं के एक खेत को 10×10 मीटर के 60 भूखंडों में बांटा। कुछ भूखंडों पर सिर्फ गेहूं के भ्रूण की गंध छिड़की गेहूं नहीं बोए। कुछ भूखंडों में बीज भी बोए और गंध भी छिड़की। और कुछ भूखंडों में सिर्फ बीज बोकर छोड़ दिया।

पूर्व अध्ययन के हिसाब से शोधकर्ताओं को उम्मीद थी कि स्थानीय चूहे खाली खेतों के छलावे से समझ जाएंगे कि गंध के पीछे भागकर बीज ढूंढना ऊर्जा और समय की बर्बादी है, पर ऐसा नहीं हुआ। लेकिन गेहूं बोने के साथ गंध का छिड़काव करने का तरीका काम कर गया। जिन खेतों में गेहूं की बहुत अधिक गंध आ रही थी वहां चूहे यह पता ही नहीं कर पाए कि वास्तव में बीज हैं कहां। नेचर सस्टेनेबिलिटी की रिपोर्ट के मुताबिक गंध रहित बुवाई वाले खेतों की तुलना में गंध सहित बुवाई वाले खेतों में फसल को 74 प्रतिशत कम नुकसान हुआ।

अच्छी बात यह है कि गेहूं की गंध का छिड़काव करने के लिए आम तौर पर किसानी में उपयोग किए जाने वाले उपकरणों से काम चल जाएगा। गंध के लिए गेहूं का तेल मिलों का सह-उत्पाद होता है, इसलिए इसमें कोई अतिरिक्त खर्चा भी नहीं आएगा। तो किसानों के लिए यह उपाय अपनाना अपेक्षाकृत आसान हो सकता है। बहरहाल, यह जानना बाकी है कि कितनी मात्रा में और कितनी बार गंध छिड़काव पर्याप्त होगा, इसे हर साल छिड़कना होगा या मात्र तब छिड़कने से काम चल जाएगा जब चूहे ज़्यादा हों। (स्रोत फीचर्स)

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मां का दूध हृदय को स्वस्थ रखता है

हृदय की मांसपेशियां विशिष्ट कोशिकाओं (हृदयपेशीय कोशिकाओं) से बनी होती है, जिनके सिकुड़ने से दिल धड़कता है। भ्रूण अवस्था में हृदयपेशीय कोशिकाएं अधिकतर ग्लूकोज़ और लैक्टिक एसिड से ऊर्जा प्राप्त करती हैं। लेकिन परिपक्व होने पर ये कोशिकाएं वसा अम्लों से ऊर्जा लेने लगती हैं। अब तक यह बात अनसुलझी थी कि यह परिवर्तन कैसे होता है।

अब, चूहों पर अध्ययन कर वैज्ञानिकों ने बताया है कि मां के दूध में मौजूद एक अणु इस परिवर्तन को अंजाम देता है। देखा गया कि यह परिवर्तन जन्म के 24 घंटों के भीतर हो जाता है।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित इन नतीजों तक पहुंचने में स्पैनिश नेशनल सेंटर फॉर कॉर्डियोवेस्कुलर रिसर्च की जीवविज्ञानी मर्सीडीज़ रिकोट और उनके साथियों को सात साल लगे हैं।

पहले उन्होंने कुछ शिशु चूहों की मांओं को वसायुक्त भोजन और कुछ चूहों की मांओं को वसा रहित भोजन खिलाया। उन्होंने देखा कि जिन शिशु चूहों ने वसा रहित आहार पाने वाली मांओं का दूध पिया था उनके हृदय असामान्य थे, और उनमें से अधिकांश शिशु चूहे जन्म के दो दिनों के भीतर मर गए थे।

फिर उन्होंने मां चूहों के दूध के घटकों का विश्लेषण किया ताकि पता चल सके कि कौन-सा अणु इसके लिए ज़िम्मेदार है। उन्होंने पाया कि इसमें गामा-लिनोलेनिक अम्ल नामक वसा अम्ल की भूमिका है; यह अणु इन्सानी मां के दूध में भी पाया जाता है। गौरतलब है कि न तो चूहों का और न ही मनुष्य का शरीर इसे बना सकता है और इसलिए इसका (GLA का) सेवन भोजन के साथ ज़रूरी है।

इसके बाद जब शोधकर्ताओं ने वसा-विहीन आहार वाली मां चूहों को GLA दिया और फिर उनका दूध शिशुओं को पिलाया तो वे ठीक होने लगे। और इन शिशु चूहों में वसा से ऊर्जा बनाने में शामिल जीन्स की गतिविधि में भी वृद्धि देखी गई।

उन्होंने वह रिसेप्टर, RXR, भी खोज लिया है जिससे हृदयपेशीय कोशिकाओं में GLA जुड़ता है। जीएलए और RXR के बीच का सम्बंध ही इन कोशिकाओं को ग्लूकोज़ की जगह वसा अम्लों से ऊर्जा बनाने की क्षमता देता है। टीम ने उन जीन्स को भी पहचाना है जो रिसेप्टर (RXR) के GLA से जुड़ने के बाद सक्रिय हो जाते हैं।

अभी यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि यही प्रक्रिया मनुष्यों में भी होती होगी या क्या इस परिवर्तन में GLA के अलावा विटामिन ‘ए’ जैसे किसी अन्य अणु की भी भूमिका हो सकती है।

शोधकर्ताओं ने RXR रिसेप्टर रहित चूहे भी विकसित किए हैं। ये चूहे अन्य शोध समूहों को हृदय रोग सम्बंधी अध्ययन करने में मदद कर सकते हैं। बहरहाल, शोधकर्ता नवजात चूहों के साथ काम करना चाहते हैं, लेकिन वह थोड़ा मुश्किल है क्योंकि एक तो वे साइज़ में बहुत छोटे होते हैं, दूसरा उनके जन्म का समय अनिश्चित होता है। (स्रोत फीचर्स)

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