मैडागास्कर के विशालकाय जीव कैसे खत्म हो गए

क समय मैडागास्कर में एलीफैंट बर्ड, विशाल कछुए और यहां तक कि विशालकाय लीमर रहा करते थे। लेकिन आज इस क्षेत्र में सिर्फ छोटे जीव ही पाए जाते हैं। शोधकर्ताओं के बीच इस बात को लेकर काफी बहस होती रही है कि दोष मनुष्यों का है या जलवायु परिवर्तन का। लेकिन हाल ही में हिंद महासागर के एक द्वीप की गुफाओं से प्राप्त तलछट से इसके जवाब के संकेत मिले हैं: सूखे की परिस्थितियों ने विशालकाय जीवों के लिए जीवन काफी कठिन ज़रूर बना दिया था लेकिन एलीफैंट बर्ड के ताबूत में आखरी कील तो मनुष्यों ने ही ठोंकी है।    

अफ्रीका के दक्षिण-पूर्वी तट से 425 किलोमीटर दूर मैडागास्कर मनुष्यों द्वारा बसाया गया सबसे आखिरी स्थान माना जाता था। लेकिन दो वर्ष पहले शोधकर्ताओं को 10,500 वर्ष पुरानी हाथियों की हड्डियां मिलीं हैं जिनकी हत्या की गई थी। यह इस बात का संकेत है कि मनुष्य और विशालकाय जीव हज़ारों वर्षों साथ-साथ रहे थे लेकिन ये विशाल जीव लगभग 1500 वर्ष पहले विलुप्त हो गए।

इस क्षेत्र की जलवायु का इतिहास समझने के लिए शियान जियाटोंग युनिवर्सिटी के भू-वैज्ञानिक हई चेंग और उनके स्नातक छात्र हांग्लिंग ली ने मैडागास्कर से 1600 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे टापू रॉड्रिग्स पर गुफाओं का रुख किया। यह टापू काफी दूर और अलग-थलग स्थित है, जिसकी वजह से यह प्राचीन जलवायु की जानकारी एकत्रित करने के लिए बढ़िया स्थान था। मानव गतिविधियां न होने से अभी भी यहां स्टैलैक्टाइट तथा स्टैलैग्माइट सलामत थे।

सबसे पहले शोधकर्ताओं ने तलछट के खंडों का काल निर्धारण किया। कई जगहों पर तो वे पिछले 8000 वर्षों के लिए दशक-दशक तक की परिशुद्धता से काल निर्धारण कर पाए। इसके बाद उन्होंने परत-दर-परत ऑक्सीजन और कार्बन के भारी समस्थानिकों तथा सूक्ष्म मात्रा में पाए गए तत्वों का विश्लेषण किया जिससे अतीत में जलवायु में नमी के स्तर का पता लगाया जा सके। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर ने इस दौरान चार बड़े सूखों का सामना किया था। इनमें से सूखे की एक घटना 1500 वर्ष पूर्व बड़े स्तर पर विलुप्तिकरण की घटना के साथ भी मेल खाती है। चेंग का मानना है कि इसके पूर्व में होने वाली सूखे की घटनाओं से भी ये जीव बच निकले थे। इससे ऐसा लगता है कि मनुष्यों द्वारा अत्यधिक शिकार और आवास स्थल नष्ट करना निर्णायक रहा।

इस अध्ययन से अन्य शोधकर्ताओं को मैडागास्कर और आसपास के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों के बारे में स्पष्ट जानकारी प्राप्त हुई है। लेकिन अध्ययन मात्र एक छोटे टापू पर किया गया है जबकि यह क्षेत्र काफी विशाल है और यहां अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों के अलावा अलग-अलग मानव सभ्यताएं भी मौजूद रही होंगी। ऐसे में विभिन्न स्थानों में विलुप्त होने की परिस्थितियां भी काफी अलग-अलग हो सकती हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र से मधुमेह के उपचार की संभावना

ब तक मधुमेह के उपचार में औषधियों का या इंसुलिन का उपयोग किया जाता है। लेकिन अब सेल मेटाबॉलिज़्म पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन एक अन्य तरीके से मधुमेह के उपचार की संभावना जताता है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित चूहों को स्थिर विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में लाने पर उनमें इंसुलिन संवेदनशीलता बढ़ गई और रक्त शर्करा के स्तर में कमी आई। टाइप-2 मधुमेह वह स्थिति होती है जब शरीर में इंसुलिन बनता तो है लेकिन कोशिकाएं उसका ठीक तरह से उपयोग नहीं कर पातीं। दूसरे शब्दों में कोशिकाएं इंसुलिन-प्रतिरोधी हो जाती हैं, इंसुलिन के प्रति उनकी संवेदनशीलता कम हो जाती है।

आयोवा युनिवर्सिटी की वाल शेफील्ड लैब में कार्यरत केल्विन कार्टर कुछ समय पूर्व शरीर पर ऊर्जा क्षेत्र के प्रभाव का अध्ययन कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने ऐसे उपकरण बनाए जो ऐसा चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करें जो पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से 10 से 100 गुना अधिक शक्तिशाली और एमआरआई के चुम्बकीय क्षेत्र के हज़ारवें हिस्से के बीच का हो। चूहे इन धातु-मुक्त पिंजरों में उछलते-कूदते और वहां एक स्थिर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र बना रहता। इस तरह चूहों को प्रतिदिन 7 या 24 घंटे चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया।

एक अन्य शोधकर्ता सनी हुआंग को मधुमेह पर काम करते हुए चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापने की ज़रूरत थी। इसलिए कार्टर ने अपने अध्ययन के कुछ चूहे, जिनमें टाइप-2 मधुमेह पीड़ित चूहे भी शामिल थे, हुआंग को अध्ययन के लिए दे दिए। हुआंग ने जब चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापा तो पाया कि जिन चूहों को विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया था उन चूहों के रक्त में अन्य चूहों की तुलना में ग्लूकोज़ स्तर आधा था।

कार्टर को आंकड़ों पर यकीन नहीं आया। तब शोधकर्ताओं ने चूहों में शर्करा स्तर दोबारा जांचा। लेकिन इस बार भी मधुमेह पीड़ित चूहों की रक्त शर्करा का स्तर सामान्य निकला। इसके बाद हुआंग और उनके साथियों ने मधुमेह से पीड़ित तीन चूहा मॉडल्स में विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का प्रभाव देखा। तीनों में रक्त शर्करा का स्तर कम था और वे इंसुलिन के प्रति अधिक संवेदनशील थे। और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि चूहे विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में सात घंटे रहे या 24 घंटे।

पूर्व में हुए अध्ययनों से यह पता था कि कोशिकाएं प्रवास के दौरान विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग करती हैं, जिसमें सुपरऑक्साइड नामक एक अणु की भूमिका होती है। सुपरऑक्साइड आणविक एंटीना की तरह कार्य करता है और विद्युत व चुंबकीय संकेतों को पकड़ता है। देखा गया है कि टाइप-2 डायबिटीज़ के मरीज़ों में सुपरऑक्साइड का स्तर अधिक होता है और इसका सम्बंध रक्त वाहिनी सम्बंधी समस्याओं और मधुमेह जनित रेटिनोपैथी से है।

आगे जांच में शोधकर्ताओं ने चूहों के लीवर से सुपरऑक्साइड खत्म करके उन्हें विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में रखा। इस समय उनके रक्त शर्करा के स्तर और इंसुलिन की संवेदनशीलता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे लगता है कि सुपरऑक्साइड कोशिका-प्रवास के अलावा कई अन्य भूमिकाएं निभाता है।

शोधकर्ताओं की योजना मनुष्यों सहित बड़े जानवरों पर अध्ययन करने और इसके हानिकारक प्रभाव जांचने की है। यदि कारगर रहता है तो यह एक सरल उपचार साबित होगा।(स्रोत फीचर्स)

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मछली के जीवाश्म से दुर्लभ मृदा तत्वों का खनन

श्चिमी प्रशांत महासागर और जापान के पूर्वी क्षेत्र में मिनामि-तोरी-शिमा नाम का एक छोटा-सा टापू है। यह तिकोना टापू केवल सवा तीन वर्ग कि.मी. में फैला है और आसपास एक अजीब दीवार के कारण इसका अधिकांश भाग समुद्र तल से भी नीचे है। और तो और, यह निकटतम भूमि से भी हज़ार किलोमीटर दूर है। लेकिन यह महत्वपूर्ण हो चला है क्योंकि यहां दुर्लभ मृदा तत्वों यानी रेयर अर्थ एलीमेंट्स का भंडार है।

यह भी उतना ही मज़ेदार है कि उक्त भंडार कहां स्थित है। दुर्लभ मृदा तत्व न तो इस टापू पर हैं और न ही टापू के अंदर दफन हैं। दरअसल यह टापू एक जलमग्न पर्वत पर स्थित है और यह भंडार उस पर्वत के दक्षिण में मछलियों के दांतों, शल्कों और हड्डियों के टुकड़ों पर जमा है। वास्तव में मछलियों के जीवाश्म दुर्लभ मृदा तत्वों को फांसने वाले ‘जाल’ हैं। जापानी वैज्ञानिकों के अनुसार ये ‘जाल’ इतने सक्षम हैं कि इस टापू के दक्षिण में 2500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की मिट्टी दुर्लभ मृदा तत्वों का इतना बड़ा भंडार है कि उससे सैकड़ों वर्षों तक दुनिया की ज़रूरतों की आपूर्ति हो सकती है।

तो यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि ये कौन से दुर्लभ मृदा तत्व हैं और इनकी हमें क्यों आवश्यकता है?             

आज के प्रौद्योगिकी युग में ये दुर्लभ मृदा तत्व कई मशीनों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। इन तत्वों का नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन, टीवी, स्मार्टफोन, एलईडी, आधुनिक दौर के विद्युत-र्इंधन संकर वाहनों, चिकित्सकीय और सैन्य तकनीकों में व्यापक उपयोग किया जा रहा है। ऐसे में इनकी खपत काफी बढ़ गई है। संयोग से इन तत्वों की अधिकांश खदानें चीन में हैं। देखा जाए, तो ये तत्व मात्रा के लिहाज़ से दुर्लभ नहीं हैं लेकिन इन तत्वों के खनन योग्य भंडार काफी दुर्लभ हैं।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जापानी वैज्ञानिक फिलहाल मिनामि-तोरी-शिमा और दक्षिण प्रशांत में इसी तरह के एक स्थल मनिहिकी पठार के दक्षिण पूर्व में मत्स्य जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे थे ताकि यह पता किया जा सके कि ये कितने पुराने हैं। साथ ही ऐसे जीवाश्मों के अन्य स्थलों की भी तलाश कर रहे थे। पता चला कि ये जीवाश्म लगभग 3.4 करोड़ वर्ष पुराने हैं और मिनामि-तोरी-शिमा पर इनकी उपस्थिति हिमयुग के दौरान निर्मित अंटार्कटिक बर्फीली चादर का परिणाम है।

अंटार्कटिक के नीचे वाला पानी ठंडा रहा और इसी वजह से अधिक सघन रहा। यह गर्म तथा कम सघन वाले पानी के नीचे-नीचे उत्तर की ओर बहने लगा। यह निचला पानी अपेक्षाकृत सुस्त दक्षिणी समुद्र में हज़ारों वर्षों तक पोषक तत्वों को संग्रहित करता रहा था और काफी लंबे समय के बाद उभरकर ऊपर आया। ऊपर से धूप मिली तो जीवन फलने-फूलने लगा। यह प्रक्रिया लगभग एक लाख वर्ष तक चलती रही जब तक कि अंटार्कटिका के आसपास संग्रहित पोषक तत्व खत्म नहीं हो गए। अंतत: जो बचा वे थे दांत, हड्डियों के टुकड़े और शल्क जो पेंदे में जमा हो गए।

हड्डियां कैल्शियम और फॉस्फेट से बनी होती हैं, और लगता है जीवाश्मित फॉस्फेट दुर्लभ मृदा तत्वों को काफी अच्छे से बांध पाता है। इस अध्ययन के सह-लेखक जुनिचिरो ओह्टा के अनुसार पिछले 3.4 करोड़ वर्षों में जीवाश्म ने धीरे-धीरे मिट्टी में फंसे तरल पदार्थ से यिट्रियम, युरोपियम, टर्बीयम और डिस्प्रोसियम को अच्छे से जमा किया है। हड्डियों के टुकड़े हो जाने की वजह से सतह के बढ़े हुए क्षेत्रफल ने इस क्षमता को और बढ़ाया है। इसके परिणामस्वरूप यहां की मिट्टी में 20,000 पीपीएम तक दुर्लभ मृद्दा तत्व उपस्थित हैं। यही कारण है कि मिनामि-तोरी-शिमा इतना खास है।

जापानी वैज्ञानिकों की टीम के अनुसार मिनामि-तोरी-शिमा के दक्षिण में 1.6 करोड़ टन के दुर्लभ मृदा ऑक्साइड्स मौजूद हैं जो वर्तमान उपभोग की दर के हिसाब से 420 से 780 वर्षों तक की आपूर्ति के लिए पर्याप्त हैं। और सिर्फ मिनामि-तोरी-शिमा और मानिहिकी पठार ही नहीं बल्कि प्रशांत महासागर में ऐसे सैकड़ों टापू हैं जहां दुर्लभ मृदा तत्वों के मिलने की संभावना है।                   

ऐसा अनुमान है कि विभिन्न दुर्लभ मृदा तत्वों की आपूर्ति में वृद्धि होने से ऐसे उपकरणों का निर्माण किया जा सकेगा जो जीवाश्म र्इंधन से छुटकारा दिला सकते हैं। इन्हें आसानी से प्राप्त भी किया जा सकता है। कीचड़ में पाए जाने के कारण इनमें युरेनियम और थोरियम जैसे रेडियोधर्मी तत्वों का स्तर भी कम होगा। लेकिन एक समस्या भी है – जीवाश्म तीन मील से अधिक गहराई पर मौजूद हैं, जहां अब तक का कोई भी व्यावसायिक खनन कार्य लाभदायक नहीं हो पाया है। महासागरों में गहराई पर खनन से पर्यावरण को काफी क्षति की भी आशंका है।     

ट्रेंड्स इन इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरणीय असंतुलन को कम आंका जा रहा है। इसके जवाब में कहा जा रहा है कि यह क्षेत्र बहुत छोटा है, और खनन से मिलने वाले फायदे पर्यावरणीय लागत से कहीं अधिक हैं। कुल मिलाकर, चाहे धरती पर हो या समुद्रों में, खनन को लेकर विवेकपूर्ण निर्णयों की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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तालाबंदी में गोरैया ने अपना गीत बदला

गुज़रे दिनों मानव गतिविधियों पर लगी पाबंदी से जीव-जंतुओं की हलचल बढ़ने की खबरें मिली हैं। शहरों में छाई अचानक शांति में लोगों ने गौर किया कि गोरैया पक्षी कितनी तेज़ आवाज़ निकालते हैं। जबकि साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया कि वास्तव में उनके गीतों की आवाज़ मंद पड़ी थी। गोरैयों ने बैंडविड्थ बढ़ाकर अपने गीतों में नीचे सुरों को शामिल किया था, जो शोधकर्ताओं के मुताबिक मादाओं को ज़्यादा लुभाते हैं।

दरअसल टेनेसी विश्वविद्यालय की जंतु संप्रेषण विज्ञानी एलिज़ाबेथ डेरीबेरी काफी समय से सफेद मुकुट वाली नर गोरैया (ज़ोनोट्रीकिया ल्यूकोफ्रिस) के गीतों का अध्ययन करती रही हैं। उन्होंने सैन फ्रांसिस्को के आसपास के शोर भरे शहरी वातावरण में रहने वाली गोरैया और शांत ग्रामीण वातावरण में रहने वाली गोरैया के गीतों की तुलना की थी। (मादा गोरैया शायद ही कभी गाती हों)। उन्होंने पाया था कि ग्रामीण इलाकों की गोरैया की तुलना में शहरी गोरैया ऊंची आवाज़ में और उच्च आवृत्ति पर गाती हैं। शायद इसलिए कि यातायात और मानव जनित शोर के बीच साथियों तक उनकी आवाज़ पहुंच सके।

तालाबंदी के दौरान शहरों के शोर में आई कमी के कारण गोरैया के गीतों पर पड़े प्रभावों को जानने के लिए डेरीबेरी और उनके साथियों ने उन्हीं स्थानों पर गोरैया के गीतों का अध्ययन किया। तुलना के लिए पहले की रिकॉर्डिंग थी ही।

चूंकि डेरीबेरी सैन फ्रांसिस्को में नहीं थीं इसलिए उनकी साथी जेनिफर फिलिप ने उन्हीं स्थानों पर गोरैयों की आवाज़ और शोर रिकार्ड करके डेरीबेरी को भेजा। ध्वनि के विश्लेषण में देखा गया कि ग्रामीण इलाकों के शोर के स्तर में खास कमी नहीं आई थी लेकिन शहरी इलाके के शोर में कमी आई थी, और वह लगभग ग्रामीण इलाकों जैसे हो गए थे। यानी इस दौरान शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों का शोर का स्तर लगभग समान हो गया था।

यह भी देखा गया कि जब शहरों का शोर कम हुआ तो शहरी गोरैया की आवाज़ भी मद्धम पड़ गई। उनकी आवाज़ में लगभग 4 डेसिबल की कमी देखी गई। उनके गीतों की आवाज़ मंद हो जाने के बावजूद उनके गीत स्पष्ट और अधिक दूरी तक सुनाई दे रहे थे, क्योंकि उनकी आवाज़ में आई कमी शहर के शोर में आई कमी से कम थी। स्पष्ट है कि तालाबंदी के दौरान पक्षी ज़ोर से नहीं गाने लगे थे।

आवाज़ कम होने के अलावा, गोरैया के गीतों की बैंडविड्थ भी बढ़ गई थी। खासकर उन्होंने निचले सुर वाले गीत गाए, जो पहले शोर भरे माहौल में गुम हो जाते थे। पूर्व के अध्ययनों में यह देखा गया है कि मादा गोरैया को वे नर अधिक आकर्षित करते हैं जो जिनके गीतों की बैंडविड्थ अधिक होती है।

हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस वसंत में परिवर्तित गीतों के कारण शहरी गोरैया की प्रजनन सफलता प्रभावित हुई है या नहीं। लेकिन यह अध्ययन बताता कि प्राकृतिक तंत्र मानव हस्तक्षेप में कमी आने पर तुरंत प्रतिक्रिया देना शुरू कर देता है।

भले ही शोरगुल फिर बढ़ने लगा है लेकिन उम्मीद है कि इन नतीजों को देखकर लोग शोर कम करने की सोचें। संभवत: वे अधिक घर से काम करने के बारे में सोचें, या ध्वनि रहित इलेक्ट्रिक वाहन लेने पर विचार करें।(स्रोत फीचर्स)

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राष्ट्रीय तितली के चयन में भागीदार बनें – सुदर्शन सोलंकी

प्रत्येक राष्ट्र के अपने राष्ट्रीय पशु, पक्षी, पुष्प आदि होते हैं। इनका चयन इन क्षेत्र के विशेषज्ञों और सरकार द्वारा कई पहलुओं और तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए किया जाता है। अभी हमारे देश में राष्ट्रीय तितली के चयन की प्रक्रिया की जा रही है और जल्द ही हमें राष्ट्रीय तितली भी मिल जाएगी। इस बार राष्ट्रीय प्रतीक के चयन की मुख्य विशेषता यह है कि देश में पहली बार राष्ट्रीय प्रतीक का चयन आम लोगों के द्वारा किया जा रहा है। इसलिए हमें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

तितलियों के चयन की बात से पहले यह समझने का प्रयास करते हैं कि भारत के राष्ट्रीय पक्षी का खिताब मोर (Pavocristatus) को क्यों दिया गया।

अद्भुत सौंदर्य रखने वाले मोर पक्षी दक्षिणी और दक्षिण पूर्वी एशिया में पाए जाते हैं। ये खुले वनों में वन्य पक्षी की तरह रहना पसंद करते हैं। नर अपनी रंग बिरंगी पूंछ खोलकर प्रणय निवेदन के लिए नाचता है। जब यह पक्षी पंख फैलाकर नाचता है तो इसका अनोखा नाच मन मोह लेता है और इसके खुले हुए सुंदर पंख हीरे-जड़ित पोशाक की भांति लगने लगते हैं। नीला मोर भारत और श्रीलंका का राष्ट्रीय पक्षी है।

किंतु मोर को भारत का राष्ट्रीय पक्षी के रूप में चुने जाने का कारण सिर्फ उसका अद्भुत सौंदर्य ही नहीं रहा बल्कि अन्य कई कारण हैं। जब देश के राष्ट्रीय पक्षी का चयन किया जा रहा था तब मोर के अलावा कई पक्षियों के नाम भी शामिल थे। 1961 में माधवी कृष्णन ने अपने लेख में लिखा था कि उटकमंड में भारतीय वन्य प्राणी बोर्ड की बैठक हुई थी। इस बैठक में सारस क्रैन, ब्राह्मणी काइट, बस्टर्ड, और हंस के नामों पर भी चर्चा हुई थी। लेकिन इन सब में मोर को चुना गया।

राष्ट्रीय तितली के चयन में भागीदारी करें
ऑनलाइन चयन की प्रक्रिया 11 सितम्बर 2020 से वन्यजीव सप्ताह के अंत यानी 8 अक्टूबर 2020 तक चलेगी। इस तरीके से हो रहे राष्ट्रीय तितली चयन में भागीदारी करने के लिए इस लिंक पर जा कर अपनी पसंदीदा तितली को वोट कर सकते हैं: https://forms.gle/u7WgCuuGSYC9AgLG6

दरअसल, इसके लिए जो गाइडलाइन्स बनाई गई थी उसके अनुसार राष्ट्रीय पक्षी घोषित किए जाने के लिए उस पक्षी का देश के सभी हिस्सों में पाया जाना ज़रूरी है। साथ ही आम आदमी इसे पहचान सके व इसे किसी भी सरकारी प्रकाशन में चित्रित किया जा सके। इसके अलावा यह पूरी तरह से भारतीय संस्कृति और परंपरा का हिस्सा होना चाहिए। इन सब विशेषताओं के साथ मोर को 26 जनवरी 1963 को भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर दिया गया।

अब राष्ट्रीय तितली के चयन की प्रक्रिया। भारत में पाई जाने वाली 1500 तरह की तितलियों में से तितली विशेषज्ञों की टीम ने इनके संरक्षण और पारिस्थितिकी उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए वोटिंग के लिए सात तितलियों को चुना है। आम लोग इन सात तितलियों में से किसी एक तितली को ऑनलाइन वोटिंग के ज़रिए चुन सकते है। सर्वाधिक वोट प्राप्त करने वाली प्रथम तीन तितलियों में से किसी एक तितली को केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की एक विशेषज्ञ समिति द्वारा राष्ट्रीय तितली चुना जाएगा।

ऐसा करने से आम लोगों में तितलियों के प्रति रुचि बढ़ेगी और वे इनका संरक्षण भी करेंगे। जैविक महत्व के साथ ही तितलियों की कोमलता, सुंदरता व सादगी से इन्हें राष्ट्रीय पहचान मिलना हम सभी के लिए गर्व की बात होगी।

तितलियां प्रकृति संरक्षण में राजदूत की भूमिका निभाती हैं। साथ ही वे महत्वपूर्ण जैविक संकेतक भी हैं जो हमारे पर्यावरण के बेहतर स्वास्थ्य को प्रतिबिंबित करती हैं। राष्ट्रीय तितली होने से लोगों में तितलियों के प्रति जागरूकता पैदा होगी। आम लोग भी तितलियों को उनके नाम से जान सकेंगे व इनसे प्रेम करेंगे।

राष्ट्रीय तितली के सर्वेक्षण के लिए प्रजातियों की अंतिम सूची कैसे तैयार की गई:

1. उस तितली का राष्ट्र के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक, पारिस्थितिक और संरक्षण महत्व हो।
2. वह करिश्माई होना चाहिए।
3. उसमें कोई ऐसा जैविक पहलू होना चाहिए जो लोगों को आकर्षित करे।
4. उसे आसानी से पहचाना, देखा और याद रखा जा सके।
5. उसकी प्रजातियों के कई रूप नहीं होने चाहिए।
6. उसके कैटरपिलर हानिकारक नहीं होने चाहिए।
7. वह बहुत आम नहीं होनी चाहिए।
8. वह उन प्रजातियों के अलावा होना चाहिए जो पहले से ही किसी राज्य की तितली घोषित है।

उपरोक्त मानदंडों को ध्यान में रखते हुए टीम ने लगभग 50 तितली प्रजातियों की अंतिम सूची तैयार की। फिर टीम के सदस्यों ने मतदान में स्कोरिंग प्रणाली का उपयोग करके निम्नलिखित सात प्रजातियों की अंतिम सूचि बनाई।

1. फाइव बार स्वॉर्डटेल (Graphiumantiphates): इस प्रजाति को पहली बार 1775 में पीटर क्रैमर द्वारा वर्णित किया गया था। यह पश्चिमी घाट के सदाबहार वनों, पूर्वी हिमालय एवं उत्तर-पूर्वी भारत में पाई जाती है। इसके पीछे के पंखों पर काली तलवार के समान पूंछ जैसी संरचना से इसे पहचाना जाता है। पंखों पर काले सफेद पट्टे पर हरे-पीले रंग का विन्यास होता है।

2. इंडियन जेज़बेल या कॉमन जेज़बेल (Delias eucharis): सामान्य आकार की यह तितली पूरे भारत में पाई जाती है। इसे उद्यानों में आसानी से देखा जा सकता है। इसके पंखों की ऊपरी सतह सफेद और निचली सतह पीली होती है। पंखों पर काली धारियां होती हैं और किनारों पर नारंगी धब्बे भी होते है।

3. इंडियन नवाब या कॉमन नवाब (Charaxesbharata/Polyurabharata): लगभग पूरे भारत के नम जंगलों में पाई जाती है। तेज़ी से उड़ने और पेड़ों के ऊपरी हिस्सों में रहने के कारण आम तौर पर कम दिखाई देती है। ऊपरी पंख काले एवं नीचे के पंख चॉकलेटी होते हैं। पंखों के बीच हल्के पीले रंग की टोपी सामान संरचना के कारण इसे नवाब कहा जाता है।

4. कृष्णा पीकॉक (Papiliokrishna): अपने बड़े पंख के लिए प्रसिद्ध और उन्हीं से पहचानी जाने वाली यह तितली उत्तर-पूर्वी भारत व हिमालय में पाई जाती है। इसके पंख काले होते हैं एवं इनमें पीले रंग की धारी होती है। इनके निचले पंख पर नीले लाल रंग के पट्टे होते हैं।

5. ऑरेंज ओकलीफ (Kallimainachus): यह पश्चिमी घाट एवं उत्तर -पूर्व के जंगलों में पाई जाती है। पंखों पर नारंगी पट्टा और गहरा नीला रंग होता है। बंद होने पर पंख एक सूखी पत्ती जैसा दिखता है। पंख खुले होते हैं तो एक काला एपेक्स, एक नारंगी डिस्कल बैंड और गहरा नीला आधार प्रदर्शित होता है। जो बहुत आकर्षक लगता है। 

6. नॉर्थन जंगल क्वीन (Stichophthalmacamadeva): यह अरुणाचल प्रदेश में पाई जाती है। बड़े आकार की होती है। पंख चॉकलेटी ब्राउन के साथ सफेद धब्बेदार होते हैं। पंखों पर चॉकलेटी गोल घेरे होते हैं। यह फ्लोरेसेंट कलर में भी देखी जाती है। इस पर हल्की नीली धारियां होती है जिससे यह अधिक सुंदर लगती है।

7. येलो गोर्गन (Meandrusapayeni): यह पूर्वी हिमालय और उत्तर पूर्व भारत में पाई जाती है। इसका आकार मध्यम होता है। इसके पंखों से कोण बनता है। इसके अनूठे पंखों से इसकी पहचान है। पंखों की आंतरिक सतह गहरी पीली होती है। यह तेज़ी से ऊंचा उड़ सकती है।(स्रोत फीचर्स)

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हाथियों की मृत्यु का कारण सायनोबैक्टीरिया! – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

स साल 25 मई को बोत्सवाना के ओकावांगो पैनहैंडल के ऊपर विमान से निगरानी करते हुए वन संरक्षकों की टीम को 169 मृत हाथी दिखाई दिए। और अधिक खोज करने पर 356 हाथी मृत पाए गए। हत्यारों की खोज में जुटे विशेषज्ञों को कुछ खास सुराग नहीं मिल रहा था। चूंकि इतने सारे हाथियों का एक साथ मरना कोई सामान्य घटना तो थी नहीं, इसलिए संदेह था कि या तो उन्हें ज़हर देकर मारा गया है या इलाके में कोई अज्ञात बीमारी फैली है।

दुनिया भर के एक-तिहाई हाथी बोत्सवाना में पाए जाते हैं। हाथी और गेंडे के अवैध शिकार की कुछेक छुटपुट घटनाओं के अलावा बोत्सवाना हाथियों के संरक्षण के लिए सुरक्षित एवं महत्वपूर्ण ठिकाना साबित हुआ है।

किसी भी हाथी के शरीर में गोलियों के निशान नहीं थे और हाथी दांतों का ना निकाला जाना भी इस बात का सबूत था कि शायद इनका शिकार बहुमूल्य दांतों के लिए नहीं किया गया है। ज़मीन में पाए जाने वाले एंथ्रेक्स बैक्टीरिया के संक्रमण को भी बोत्सवाना की शासकीय प्रयोगशाला ने नकार दिया था।

प्रारंभ में बोत्सवाना सरकार द्वारा देश के बाहर से सहायता ना लेने और चुप्पी साधने के कारण हाथियों की हत्याओं का रहस्य बरकरार था।

फिर महीनों तक जिम्बाब्वे, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा और अमेरिका के विशेषज्ञों ने मामले की जांच की। बोत्सवाना के अधिकारियों ने बताया कि हाथियों की मृत्यु का कारण सायनोबैक्टीरिया द्वारा उत्पन्न तंत्रिका विष है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह विष पीने के पानी के साथ हाथियों के शरीर में पहुंचा और उसने मस्तिष्क की कोशिकाओं पर बुरा असर डाला। नीले-हरे शैवाल के रूप में मशहूर सायनोबैक्टीरिया ठहरे हुए पानी में पाए जाते हैं और सायनोटॉक्सिन नामक विष बनाते हैं, जो मानव व जंतुओं को गंभीर रूप से बीमार कर सकता है। गर्मी बढ़ने से तथा फॉस्फोरस की उपलब्धता में सायनोबैक्टीरिया तेज़ी से वृद्धि करते हैं और सायनोटॉक्सिन अधिक मात्रा में उत्पन्न करते हैं। सायनोटॉक्सिन तंत्रिका तंत्र के अलावा लीवर और त्वचा पर भी गंभीर प्रभाव डालता है।

यद्यपि अधिकारिक घोषणा में सायनोबैक्टीरिया को हाथियों की मृत्यु का कारण बताया गया परंतु पानी पीने के स्थानों पर अन्य जानवरों की लाशें प्राप्त नहीं हुर्इं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि शायद हाथी सायनोटॉक्सिन के प्रति अति संवेदनशील होते हैं और दूसरे जानवर प्रतिरोधी। इसके अलावा हाथी एक बार में 150 लीटर पानी पी जाते हैं, इसलिए छोटे जंतुओं की तुलना में उनके शरीर में सायनोटॉक्सिन की मात्रा अधिक गई होगी। यह भी हो सकता है कि कीचड़ में लोटने और पानी से ज़्यादा देर खेलने के कारण विष त्वचा को भेदकर शरीर में फैल गया हो। परंतु गिद्धों वगैरह में विष का प्रभाव नहीं देखा गया। इसके जवाब में यह कहा जा रहा है कि तंत्रिका विष तो मस्तिष्क एवं मेरु रज्जू में जमा हुआ होगा जिसे जानवर नहीं खाते हैं। बहरहाल, उक्त निष्कर्ष को लेकर संदेह भी व्यक्त किए गए हैं। जैसे केन्या के एक संरक्षणकर्ता कैथ लिंडसे कहते हैं कि बोत्सवाना सरकार द्वारा पड़ताल के प्रारंभिक चरण में अन्य संस्थाओं से सहयोग न लेने के कारण हम एक रहस्य को उजागर करने में पीछे रह गए हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वुडरैट के घोंसलों में एंटीबायोटिक निर्माता बैक्टीरिया

वुडरैट चूहे जैसा एक जंतु होता है जो अपने बिल में प्राय: टहनियां वगैरह जमा करता है। फ्लोरिडा के निकट छोटे-छोटे टापुओं पर पाए जाने वाले की लार्गो वुडरैट्स जंगल में फेंकी गई पुरानी कारों, नौकाओं और छोटे प्लास्टिक घरों में अपने घोंसले बनाने लगे हैं। उनके आवास गंदगी से घिरे होने के कारण, उनका जीवन जोखिमपूर्ण लगता है। लेकिन हाल के एक अध्ययन से सर्वथा विपरीत स्थिति सामने आई है। उनके घोंसले ना सिर्फ कृंतकों यानी कुतरने वाले जंतुओं में होने वाले आम रोगों से मुक्त थे, बल्कि उनमें एंटीबायोटिक बनाने वाले बैक्टीरिया भी थे।

1800 के अंत में, अनानास की खेती के लिए की लार्गो के जंगलों को साफ किया गया था। तब वुडरैट बचे-खुचे जंगलों में रहने लगे लेकिन जिन पेड़ों पर वे अपने बिल बनाते थे वे अधिकांश नष्ट हो चुके थे। 1980 के आसपास द्वीप के उत्तरी छोर पर फिर से जंगल पनपना शुरू हुआ, और अब वहां 1000 हैक्टर से भी कम संरक्षित क्षेत्र में कुछ हज़ार वुडरैट बसे हैं।

लेकिन द्वीप पर सीमित जगह होने की वजह से यह जंगल पुरानी कारों और वाशिंग मशीन का डंपिंग ग्राउंड बन गया। तब अप्रत्याशित रूप से वुडरैट्स इस डंपिंग ग्राउंड में बसने लगे। कबाड़ बन चुकी कारों में वुडरैट्स लकड़ी और पत्तियों से अपने घोंसले बनाने लगे। संरक्षणकर्ताओं ने इस ओर ध्यान दिया और जिन इलाकों में घोंसला बनाने की प्राकृतिक सामग्री कम थी वहां उन्हें कबाड़ मुहैया कराया। और प्लास्टिक पाइप और पत्थरों से 1000 से अधिक कृत्रिम घोंसले भी तैयार किए।

यह जानने के लिए कि कृत्रिम घोंसलों में रोगजनक सूक्ष्मजीव तो नहीं पनप रहे, कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के सूक्ष्मजीव पारिस्थितिकीविद मेगन थेम्स और उनके साथियों ने 10 कृत्रिम घोंसलों में पनपने वाले सूक्ष्मजीवों का पता लगाया। इसकी तुलना उन्होंने लकड़ियों और पत्तियों से बने 10 ‘प्राकृतिक’ घोंसलों, उनके आसपास के स्थानों की मिट्टी और वुडरैट्स की त्वचा से लिए गए नमूनों से की। उन्होंने बैक्टीरिया के डीएनए का अनुक्रमण भी किया।

शोधकर्ताओं को किसी भी घोंसले में बैक्टीरिया जनित कोई रोग नहीं मिला। यहां तक कि चूहों में आम तौर पर फैलने वाली बीमारी प्लेग और लेप्टोस्पायरोसिस भी घोंसलों से नदारद थी। इकोस्फीयर पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि वुडरैट्स में भी बीमारियों का प्रसार कम दिखा। वहीं वुडरैट के कृत्रिम और प्राकृतिक दोनों घोंसलों में ऐसे बैक्टीरिया मिले जो एरिथ्रोमाइसिन सहित कई एंटीबायोटिक बनाते हैं। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि एंटीबायोटिक बनाने वाले ये बैक्टीरिया ही रोगजनकों को घोंसलों से दूर रखते हैं। लेकिन घोंसले में सूक्ष्मजीवों की विविधता और प्रचुरता एक कारक ज़रूर हो सकता है।

अध्ययन रेखांकित करता है कि जीवों के संरक्षण प्रयास में यह जानना महत्वपूर्ण है कि संरक्षण के प्रयास जानवरों और पर्यावरण के सूक्ष्मजीव संसार की विविधता को किस तरह प्रभावित करते हैं। सौभाग्यवश वुडरैट के संरक्षण के फलस्वरूप कृत्रिम आवास में उनका सूक्ष्मजीव संसार नहीं बदला था। शोधकर्ता यह जानना चाहते हैं कि वुडरैट्स के घोंसलों मे एंटीबायोटिक बनाने वाले बैक्टीरिया आते कहां से हैं।

अन्य स्तनधारियों में रोगजनकों का सफाया करने वाले सूक्ष्मजीव किस तरह कार्य करते हैं इसे समझना मनुष्यों के अपने रोगों के खिलाफ लड़ने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि में मददगार हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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हमिंगबर्ड की जीवन-रक्षक तंद्रा

ऊंचे एंडीज़ पर्वतों पर पाई जाने वाली हमिंगबर्ड की प्रजातियां वहां कुल्फी जमा देने वाली ठंड का सामना करती हैं। ये नन्हीं और फुर्तीली हमिंगबर्ड ठंड से बचने के लिए विचित्र रास्ता अपनाती हैं। वे अपने शरीर का तापमान रात में कम कर लेती हैं। और अब हालिया अध्ययन में पता चला है कि बर्फीली रातों में जीवित बचने के लिए ये अपने शरीर का तापमान सामान्य की तुलना में 33 डिग्री सेल्सियस तक कम कर सकती हैं।

अपने छोटे आकार के हिसाब से हमिंगबर्ड की चयापचय दर सभी कशेरुकी जीवों की तुलना में सबसे अधिक होती है। यह मनुष्यों की चयापचय दर से लगभग 77 गुना अधिक होती है। इसी वजह से उन्हें लगातार खाते रहना पड़ता है। लेकिन जब बहुत ठंड हो जाती है या अंधेरा हो जाता है तो भोजन तलाशना मुश्किल हो जाता है। यदि शरीर का तापमान सामान्य बनाए रखना है तो बहुत अधिक ऊर्जा की खपत होती है, जिसकी पूर्ति के लिए भोजन मिलना मुश्किल होता है। इसलिए ये अपने शरीर का तापमान बहुत कम कर लेती हैं, जो उन्हें भूख से मरने से बचाता है।

इस अवस्था को टॉरपोर या तंद्रा की अवस्था कहते हैं। टॉरपोर में पक्षी गतिहीन हो जाते हैं और किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। इस अवस्था में इन्हें देखने पर पता भी नहीं चलता कि ये जीवित हैं या नहीं। लेकिन सुबह होते ही वापस सक्रिय होकर भोजन की तलाश शुरू कर देते हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ न्यू मेक्सिको के वुल्फ और उनके साथी देखना चाहते थे कि इन ऊंचे स्थानों पर हमिंगबर्ड की विभिन्न प्रजातियां टॉरपोर अवस्था का कितना उपयोग करती हैं। इसके लिए उन्होंने मार्च 2015 में समुद्र तल से लगभग 3800 मीटर ऊपर पेरू एंडीज़ पर्वत से छह विभिन्न प्रजातियों की 26 हमिंगबर्ड पकड़ीं, जिनमें मेटालुरा फीब सबसे छोटी और पैटागोना गिगाससबसे बड़ी थी। यहां रात का तापमान शून्य के करीब पहुंच जाता है।

अध्ययनकर्ताओं ने हरेक हमिंगबर्ड को कैंप के नज़दीक चिड़ियों के एक छोटे दड़बे में रखा। और उनके क्लोएका (मल त्यागने, अंडे देने का मार्ग) में एक तार फिट कर दिया। इस तार की मदद से उन्होंने पूरी रात पक्षियों के शरीर के तापमान पर नज़र रखी।

ना सिर्फ प्रत्येक प्रजाति की हमिंगबर्ड टॉरपोर अवस्था में गई, बल्कि कई हमिंगबर्ड के शरीर का तापमान शून्य डिग्री के करीब पहुंच गया। मेटालुरा फीब हमिंगबर्ड के शरीर का तापमान तो 3.3 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था, जो पक्षियों और गैर-हाइबरनेटिंग जीवों में सबसे कम दर्ज तापमान है। बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक टॉरपोर की अवस्था में हमिंगबर्ड्स के शरीर का तापमान सक्रिय अवस्था की तुलना में औसतन 26 डिग्री सेल्सियस घट जाता है (यानी यह औसतन 5 से 10 डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है), जो कि लगभग वातावरण के तापमान के बराबर है। इससे उनकी चयापचय दर 95 प्रतिशत तक कम हो जाती है, और शरीर को गर्म रखने और ह्रदय गति सामान्य बनाए रखने जैसे कार्यों में लगने वाली ऊर्जा की बचत होती है। सामान्यत: उड़ान के वक्त हमिंगबर्ड का ह्रदय एक मिनट में 1000 से 1200 बार धड़कता है लेकिन टॉरपोर अवस्था में यह एक मिनट में महज़ 50 बार धड़कता है।

वैसे तो किसी जीव का सुप्तावस्था में जाना जोखिमपूर्ण हो सकता है, क्योंकि इस अवस्था में वे आसानी से शिकार हो सकते हैं। लेकिन ऊंचाई पर शिकारी अपेक्षाकृत कम होते हैं तो शिकार बनने का खतरा भी कम होता है। शोधकर्ता अपने अध्ययन में आगे देखना चाहते हैं कि हमिंगबर्ड अपने शरीर को इतना ठंडा कैसे कर लेती हैं।(स्रोत फीचर्स)

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मधुमक्खियों की क्षति से जुड़ी हैं गंभीर समस्याएं – भारत डोगरा

देश व दुनिया दोनों स्तरों पर समाचार आ रहे हैं कि अनेक देशों व क्षेत्रों में मधुमक्खियों की संख्या में भारी कमी आ रही है। इसका एक स्पष्ट प्रतिकूल असर यह नज़र आता है कि अच्छी गुणवत्ता के प्राकृतिक शहद की उपलब्धि में कमी होगी। बाज़ार में इसकी डिब्बाबंद उपलब्धि अधिक नज़र आएगी पर इसमें शुद्धता व पौष्टिकता की कमी होगी, कृत्रिम पदार्थों की मिलावट अधिक होगी।

इस प्रतिकूल परिणाम के अतिरिक्त एक अन्य दुष्परिणाम इससे भी कहीं अधिक गंभीर है, वह है परागण में कमी। अनेक खाद्य फसलों व पौधों के परागण में मधुमक्खियों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि मधुमक्खियों में अत्यधिक कमी आएगी तो इसका निश्चय ही खेती व बागवानी,फसलों व पौधों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। यह एक ऐसी गंभीर क्षति है जिसकी पूर्ति अन्य किसी तरीके से नहीं हो सकती है।

यह क्षति तो तभी कम हो सकती है जब मधुमक्खियों की, विशेषकर स्थानीय प्रजातियों की, रक्षा की जाए। प्राय: यह देखा गया कि परागण की जो प्राकृतिक भूमिका बहुत स्वाभाविक ढंग से और मुस्तैदी से स्थानीय प्रजातियों की मधुमक्खियां निभाती हैं, वह बाहरी प्रजातियों की मधुमक्खियां नहीं निभा सकतीं। उदाहरण के लिए, कई बार ठंडी जलवायु के देशों (जैसे इटली) की मधुमक्खियों को गर्म जलवायु के देशों (जैसे भारत) में यह कह कर लाया गया है कि इससे शहद का बेहतर उत्पादन हो सकेगा, पर हकीकत में नए इलाके की गर्म जलवायु में ये मधुमक्खियां परागण में अधिक रुचि ही नहीं लेती हैं या स्वभावगत तत्परता नहीं दिखाती हैं।

भारत के कुछ भागों में बाहरी मधुमक्खियों की प्रजातियों को लाने पर भी कुछ समस्याएं आर्इं। केरल व दक्षिण भारत के कुछ भागों में एपिस मेलीफेरा मधुमक्खी को बाहर से लाने पर एक वायरसजन्य बीमारी फैली जिससे स्थानीय मधुमक्खियां बड़ी संख्या में मारी गई। दूसरी ओर, स्थानीय परिवेश में अनुकूलन न होने के कारण बाहरी प्रजाति की मधुमक्खियां भी मरने लगीं। बाहरी प्रजातियों की मधुमक्खी के पालन पर खर्च अधिक होता है, अत: छोटे किसान व निर्धन परिवार इसे नहीं अपना पाते।

यह भी देखा गया है कि मधुमक्खियों में विविधता स्थानीय पौधों की प्रजातियों की जैव विविधता से जुड़ी हुई है। इस तरह स्थानीय प्रजातियों की मधुमक्खियों के क्षतिग्रस्त होने से पौधों की जैव विविधता की बहुत क्षति हो रही है।

कर्नाटक के वैज्ञानिक डॉ. चन्द्रशेखर रेड्डी ने एक अनुसंधान में पाया कि राज्य में बाहरी प्रजातियों की जो मधुमक्खियों कृत्रिम ढंग से स्थापित की गर्इं थी उनमें से 95 प्रतिशत खत्म हो गर्इं या विफल हो गर्इं। जो बचीं उन्हें भी बहुत चीनी खिलाकर व दवा के बल पर जीवित रखा गया। पश्चिमी घाट में कई अनुकूल पौधे होने के बावजूद ये मधुमक्खियां वहां भी बहुत कम शहद तैयार कर पार्इं।

मधुमक्खियों सम्बंधी इन विसंगति भरी नीतियों में सुधार करने के लिए यहां के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता पांडुरंग हेगड़े ने परंपरागत शहद का कार्य करने वाले गांववासियों को जोड़कर मधुमक्खी रक्षा अभियान (सेव हनी बी कैम्पैन) आरंभ किया है।

इस तरह के अभियान विश्व के कुछ अन्य भागों में भी सक्रिय हो रहे हैं। इनकी एक मुख्य मांग यह भी है कि कृषि में रासायनिक कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों व जंतुनाशकों का उपयोग न्यूनतम किया जाए क्योंकि इनका ज़हरीला संपर्क मधुमक्खियों के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध होता है। जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों का प्रसार भी मधुमक्खियों के लिए बहुत हानिकारक माना गया है।

ग्लायफोसेट कीटनाशक से स्वास्थ्य के गंभीर खतरों के बारे में जानकारियां समय-समय पर मिलती रही हैं। भारत में भी इसका उपयोग होता है। ग्लायफोसेट का उपयोग जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के साथ भी नज़दीकी तौर से जुड़ा रहा है। ऐसे खरपतवारनाशकों का उपयोग खेतों के अतिरिक्त शहरों के बाग-बगीचों आदि में भी हो रहा है। ग्लायफोसेट को प्रतिबंधित करने की मांग विश्व स्तर पर ज़ोर पकड़ रही है।

पारिस्थितिकी में मधुमक्खियों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए इन विभिन्न सावधानियों को ध्यान में रखते हुए मधुमक्खियों की रक्षा की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। यदि प्राकृतिक वनों की रक्षा हो व जैविक खेती का प्रसार हो तो इससे मधुमक्खियों की रक्षा में बहुत सहायता मिलेगी।(स्रोत फीचर्स)

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अमीबा भूलभुलैया में रास्ता ढूंढ सकते हैं

भूलभुलैया में जाना और खुद से बाहर निकलना मुश्किल भी होता है और रोचक भी। देखा गया है कि चूहे भी भूलभुलैया से बाहर निकल आते हैं। और मज़ेदार बात यह है कि एक नए अध्ययन में पता चला है कि चूहे ही नहीं, अमीबा जैसे एक-कोशिकीय जीव और एक इकलौती कैंसर कोशिका भी भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ लेती है। वे रासायनिक संकेतों की मदद से अपने आकार से सैकड़ों गुना बड़ी और पेचीदा भूलभुलैया से बाहर निकल सकते हैं।

प्रत्येक कोशिका चाहे वह कैंसर कोशिका हो, त्वचा कोशिका हो, या बैक्टीरिया सरीखे एक-कोशिकीय जीव हों, सामान्यत: जानते हैं कि उन्हें किस दिशा में आगे बढ़ना है। वे अपने पर्यावरण में मौजूद आकर्षी रसायनों को पहचानकर उनकी दिशा में आगे बढ़ते हैं। इसे कीमोटैक्सिस (रसायन-संचालित गति) कहते हैं। कोशिकाओं का यह बुनियादी दिशाज्ञान छोटी दूरी, लगभग आधे मिलीमीटर तक के लिए तो बढ़िया काम करता है लेकिन मुश्किल और लंबा रास्ता तय करने के लिए कोशिकाएं सिर्फ रासायनिक संकेतों के भरोसे नहीं रह सकतीं। उन्हें इन रसायनों को प्रोसेस करके सही रास्ता निर्धारित करना पड़ता है। कोशिकाएं यह करती कैसे हैं?

यह पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने लंबा फासला तय करने वाली दो तरह की कोशिकाओं – अमीबा (डिक्टियोस्टेलियम डिसोइडम) और चूहों के अग्न्याशय की कैंसर कोशिका – पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने विभिन्न सूक्ष्म भूलभुलैया तैयार कीं, इनमें पर्याप्त मोड़ और रास्तों के विकल्प थे। इन भूलभुलैया के आखिरी छोर पर आकर्षी रसायन भरे गए थे। और ऐसे ही आकर्षी रसायन भूलभुलैया के अंदर भी भरे गए थे ताकि कोशिकाएं अपना रासायनिक रास्ता (चिन्ह) बना सकें। ये भूलभुलैया लगभग वैसी ही जटिल थीं जैसी ज़मीन के अंदर की सुरंगें अथवा रक्त नलिकाओं का जाल होता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि दोनों तरह की कोशिकाएं विभिन्न 0.85 मिलीमीटर लंबी भूलभुलैया से सफलतापूर्वक बाहर निकल आईं । साइंसपत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक सबसे लंबी भूलभुलैया (हैम्पटन कोर्ट पैलेस की प्रतिकृति) को सिर्फ अमीबा सुलझा पाए। कैंसर कोशिकाएं बहुत धीमी गति से आगे बढ़ती हैं, इसलिए शोधकर्ताओं का विचार है कि हो सकता है कि इतनी लंबी भूलभुलैया को पार करने के दौरान वे बीच में ही नष्ट हो गई होंगी।

इसके अलावा, भूलभुलैया में अमीबा की पहली टोली रसायनों को प्रोसेस कर भूलभुलैया के बंद-सिरों (जिनमें सीमित मात्रा में आकर्षी रसायन था) और बाहर निकलने के खुले रास्तों के बीच अंतर कर पार्इं। लेकिन इनके पीछे आने वाली कोशिकाओं की टोली यह अंतर नहीं कर पाई। प्रकृति में, आम तौर पर आगे वाली कोशिकाएं अपनी अनुगामी कोशिकाओं को रास्ते का अनुसरण करने के संकेत देती हैं। लेकिन प्रयोग में वैज्ञानिकों ने आगे वाली कोशिकाओं में बदलाव कर इन संकेतों को बाधित कर दिया था। इसलिए जब आगे वाली कोशिकाएं रसायनों को संसाधित कर आगे बढ़ीं (यानी रास्ते से रसायन हटा दिए गए), तो पीछे आने वाली कोशिकाएं रास्ता भटक गईं ।(स्रोत फीचर्स)

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