वयस्क फलमक्खी भी बनती है शिकार 

ततैया की तकरीबन 200 प्रजातियां परजीवी हैं। इनकी मादाएं अपने अंडे किसी अकशेरुकी जीव के अंदर देती हैं। अंडों से निकलने के बाद ततैया के लार्वा अपने मेजबान को अपना भोजन बनाते हैं, और अंतत: उसे काल के हवाले कर खुद उसके शरीर से बाहर निकल आते हैं। 

अंडे देने के लिए अधिकतर ततैया की पहली पसंद फलमक्खियों  (ड्रॉसोफिला) (fruit flies) के जीवित लार्वा-प्यूपा होते हैं। लार्वा या प्यूपा को चुनने का एक कारण यह होता है कि ये छोटे होते हैं, आसानी से पकड़ में आ जाते हैं और शिकार बन जाते हैं; वयस्क मेजबान एक तो आकार में बड़े होते हैं, ऊपर से उनके पास मुकाबला करने, डराने या बच निकलने की क्षमताएं भी होती हैं। इसलिए वयस्कों में अंडे देना ज़रा मुश्किल काम है। (कितना मुश्किल है इसका अंदाज़ा इस वीडियो (parasitoid wasps attack video) को देखकर लगाया जा सकता है: 

बहरहाल, हाल ही में जीवविज्ञानियों (biologists) ने एक ऐसी ततैया पहचानी है जो वयस्क फलमक्खियों को अपना शिकार बनाती है और उनमें अंडे देती हैं। 

इस ततैया को शोधकर्ताओं ने सिनट्रेटस पर्लमैनी (Syntretus perlmani) नाम दिया है। इस नई ततैया को यह नाम परजीवियों (parasites research) पर भरपूर शोध करने वाले स्टीव पर्लमैन के नाम पर दिया है। 

दरअसल शोधकर्ता मिसिसिपी स्थित अपनी प्रयोगशाला (Mississippi lab research) के कैंपस में फैलाए गए जाल में फंसी फलमक्खियों में कृमि संक्रमण की पड़ताल कर रहे थे। इसी दौरान उन्हें ऐसी वयस्क नर फलमक्खी मिली जिसके अंदर ततैया का लार्वा था। अब शोधकर्ता जानना चाहते थे कि एस. पर्लमैनी ततैया वास्तव में कितनी वयस्क फलमक्खियों को शिकार बनाती हैं। इसके लिए शोधकर्ताओं ने करीब 6000 नर फलमक्खियां और करीब 500 मादा फल मक्खियों की पड़ताल की। 

अंडे देने के 7 से 18 दिन के बाद, बिना किसी चीरफाड़ के नर फलमक्खी में तो आसानी से दिख जाता है कि किनके अंदर ततैया का लार्वा है और किनके अंदर नहीं। दूसरी ओर, मादा फलमक्खी में लार्वा होने की पुष्टि चीरफाड़ करके ही की जा सकी। 

विश्लेषण में पाया गया कि एस. पर्लमेनी ततैया हर साल 0.5-3 प्रतिशत तक वयस्क नर मक्खियों को अपना मेज़बान बनाती है। इसके विपरीत मात्र एक मादा फलमक्खी में ततैया के लार्वा मिले। 

शोधकर्ताओं का विचार है कि संभवत: वयस्क मक्खी को शिकार बनाने के कुछ फायदे होंगे। जैसे लार्वा-प्यूपा की तुलना में वयस्क फलमक्खी ततैयों के लार्वा की सुरक्षा (wasp larvae protection) कर सकते हैं; यह भी संभव है कि वयस्क फलमक्खियों की प्रतिरक्षा प्रणाली लार्वा की तुलना में कम प्रभावी हो और इसके चलते लार्वा को बाहर धकेले जाने का खतरा कम होता हो। और वयस्कों को मेज़बान बनाने से लार्वा-प्यूपा के लिए प्रतिस्पर्धा कम हो जाती होगी। 

नेचर (Nature journal) में प्रकाशित ये नतीजे ततैया के व्यवहार में विविधता को उजागर करते हैं और आगे के अध्ययन के लिए ज़मीन बनाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ईल कैसे शिकारी के पेट से भाग निकलती है

यह तो हम जानते हैं कि कई जीव-जंतुओं में शिकारियों (predators) से अपने बचाव के लिए कई तरीके विकसित हुए हैं। कुछ का रंग-रूप या काया आसपास के पर्यावरण (environment) से घुल-मिल जाती है, तो कोई किसी दूसरे खतरनाक जीव सी काया धर लेता है। या गुलाब जैसे पौधों या साही जैसे जीवों में कांटे विकसित हुए हैं कि शिकारी उनसे दूर ही रहें। ये तो हुए शिकार बनने से बचने के तरीके, लेकिन शिकार बन जाएं तब क्या?

कार्टून वगैरह में तो ऐसा बहुत देखा होगा कि हीरो चरित्र शिकारी के पेट में गुदगुदी करके, उछल-कूद मचाकर या ऐसे ही किसी तरीके से उसे परेशान करके उसके पेट से सलामत बाहर निकल आता है। हाल ही में, ऐसा ही कुछ मामला हकीकत में होता दिखा है। करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित अध्ययन का एक्स-रे वीडियो (X-ray video) खुलासा करता है कि जापानी ईल (Anguilla japonica) अपने शिकारी मछली के पेट से कैसे बाहर निकल जाती है।

दरअसल, पूर्व में नागासाकी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया था कि जापानी ईल अपने शिकारी के पेट से गलफड़ों (gills) के रास्ते बाहर निकल आती है। लेकिन वह ऐसा करती कैसे है यह उन्हें ठीक-ठीक नहीं मालूम था।

इस बात को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 32 शिशु ईल में एक ऐसा पदार्थ (barium sulfate) डाला जो एक्स-रे की नज़र की पकड़ में आ जाए। फिर उन्होंने ईल को डार्क स्लीपर (Odontobutis obscura) नामक एक शिकारी मछली के साथ छोटे टैंक (tank) में रखा।

जब ये ईल शिकार बने तो उन सभी ईल ने शिकारी के पेट से भागने की कोशिश की। एक्स-रे की मदद से पता चल पाया कि इनमें से कुछ ईल ने बाहर का रास्ता तलाशने के लिए शिकारी के पेट में चक्कर लगाया। लेकिन सभी ईल भागने में सफल नहीं हो पाई। सिर्फ 9 ईल ही बाहर निकल पाईं। जो बाहर निकलने में सफल हो पाईं, वे तैरकर वापिस शिकारी की ग्रासनली (esophagus) में गईं और फिर गलफड़ों के ज़रिए सरसराते हुए पूंछ को पहले बाहर निकालते हुए पूरी की पूरी सलामत बाहर निकलने में सफल हो गईं। (स्रोत फीचर्स)

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नर जुगनुओं को धोखे से फांसती छलिया मकड़ी

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

घात लगाकर हमला करने वाले शिकारी जंतु (predator animals) शिकार को पकड़ने के लिए अनेक प्रकार की रणनीतियां (hunting strategies) अपनाते हैं। विशेषकर मकड़ियों (spiders) के पास शिकार पकड़ने की अद्भुत रणनीतियां होती हैं, जिनमें महज़ घात लगाने से लेकर रेशमी जाले (silk webs) में फांसने तक के जटिल तरीके अपनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए बोलस मकड़ी (Bolas spider) प्रजाति-विशेष के नर पतंगों (male moths) को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रेशमी धागे के अंतिम छोर पर चिपचिपी और फेरोमोन्स युक्त बूंद लटका देती है। नर पतंगें उसे मादा समझकर चिपक जाते हैं और मकड़ी के शिकार बन जाते हैं। 

कुछ पायरेट मकड़ियां (pirate spiders) अन्य मकड़ियों के जालों में इस प्रकार के कंपन उत्पन्न करती हैं जिससे मेज़बान को यह विश्वास हो जाए कि जाल में कोई कीट (insect) फंसकर छटपटा रहा है। जैसे ही मेज़बान मकड़ी पास आती है, पायरेट मकड़ी उसे अपना शिकार बना लेती है। 

फूलों पर पाई जाने वाली क्रेब मकड़ी (crab spider) लंबे समय तक बिना हिले-डुले फूलों पर घात लगाकर बैठी रहती है। जैसे ही फूलों का मकरंद लेने के लिए कोई कीट आता है वे तुरंत आक्रमण करके उसका शिकार कर लेती हैं। 

लाल चींटों जैसी दिखने वाली एमिशिया मकड़ी (ant-mimicking spider) चींटों जैसी बनावट और व्यवहार अपना लेती है तथा अपनी पहचान छुपा कर रहती है, और फिर उनका ही शिकार करती हैं। 

सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जीवविज्ञानी दाईकिन ली, हुआझोंग कृषि विश्वविद्यालय में जीवविज्ञानी शिन्हुआ फू और साथियों ने हाल ही में करंट बायोलॉजी (Current Biology) में मकड़ी पर एक शोध पत्र प्रकाशित किया है। शोध में यह देखा गया कि मकड़ियां नर जुगनू (male fireflies) को मादा जुगनू की तरह जगमगाने पर मजबूर करती हैं जिससे बड़ी संख्या में नर जुगनू आकर्षित होते हैं तथा मकड़ी को अधिक शिकार मिलते हैं। 

प्रायः सभी वैज्ञानिक खोजों में अवलोकन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। चीन के वुहान शहर में अपनी फील्ड ट्रिप के दौरान जीव विज्ञानी शिन्हुआ फू को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कई मकड़ियों के जाले ऐसे थे जिनमें केवल नर जुगनू शिकार हुए थे। सवाल था कि क्या मकड़ियां कोई ऐसी जुगत या तरकीब लगा रही हैं जिससे वे नर जुगनू को आकर्षित करके शिकार कर रही हों। 

जुगनू की प्रणय लीला (Mating Behavior of Fireflies)

प्रत्येक जंतु में विपरीत लिंग को प्रजनन के लिए आकर्षित करने के तरीके भिन्न-भिन्न होते हैं। जुगनुओं में यह कार्य उदर में उपस्थित विशेष अंगों से उत्पन्न प्रकाश को चमकाकर (light signals) किया जाता है। सूर्यास्त होते ही नर जुगनू उदर से एक निश्चित क्रम में प्रकाश-चमक के संकेतों से मादाओं को आकर्षित करते हैं। घास में नीचे बैठी मादा जुगनू अपनी प्रजाति के नरों की चमक के पैटर्न को देखकर अपनी प्रजाति के साथी को पहचान जाती है। अब मादा प्रत्युत्तर में रोशनी चमकाकर चयनित नर को आकर्षित करती हैं। संभोग के बाद, मादा गीली मिट्टी में 500 तक अंडे देती है। 

उष्णकटिबंधीय एशियाई जुगनू प्रजाति एब्सकॉन्डिटा टर्मिनेलिस में, नर और मादा, दोनों ही प्रणय के लिए साथी तलाशने के लिए चमक फेंकते हैं। लेकिन उनकी चमक एक जैसी नहीं होती। मादाएं अपने उदर में एकल प्रकाश स्रोत से धीमे-धीमे टिमटिमाती हैं, जबकि नर अपने उदर के दो प्रकाश स्रोतों से उतने ही समय में अधिक बार टिमटिमाते हैं। 

मकड़ियों की चालाकी (Spider’s Deception)

एरेनियस वेंट्रिकोसस (Araneus ventricosus) नामक मकड़ी निशाचर होती है और कार के पहिए के आकार के बड़े और गोलाकार जाले बुनती है। जाला बुनने वाली मकड़ियों की देखने की क्षमता जाला न बुनने वाली मकड़ियों की तुलना में कमज़ोर होती है। उन्हें वस्तुएं केवल तभी दिखाई देती हैं जब वे अपेक्षाकृत उनके करीब होती हैं। इन मकड़ियों के जाले में जब नर जुगनू फंस जाता है तो उसकी चमक से मकड़ी नर को पहचान जाती है और उसे जाले में लपेटते हुए अनेक बार विष दंतों से काट कर उसे मादा जुगनू जैसे प्रकाश संकेत निकालने पर मजबूर कर देती है। बंदी नर जुगनू विष के प्रभाव से मादा जैसे टिमटिमाने लगता है, जिससे कई नर भ्रमित होकर ‘मादा’ से संभोग की उम्मीद में मकड़ी के जाल में प्रवेश करते हैं और शिकार हो जाते हैं। इस प्रकार नर जुगनू मकड़ी के जाले में फंसे देखे जा सकते हैं। 

शोध के निष्कर्ष बताते हैं कि कुछ जंतु विशेष प्रकार के जंतुओं का शिकार करने के लिए शिकार के तरीके में हेरफेर करने में सक्षम होते हैं तथा शिकार को छद्म संकेत (false signals) उत्पन्न करने को विवश कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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परजीवी कृमियों की क्रूर करतूतें

एक सूक्ष्म चपटा कृमि है जो क्लोनिंग (cloning) के ज़रिए हज़ारों कृमियों की फौज बना लेता है। हैप्लोर्किस प्यूमिलियो (Haplorchis pumilio) नामक ये कृमि घोंघे को संक्रमित (infect) करते हैं और उसके प्रजनन अंगों की दावत उड़ाते हैं। अंतत: वह घोंघा वंध्या हो जाता है। ये चपटे कृमि दो-चार हफ्ते नहीं, सालों तक वहां बने रहते हैं और घोंघे के खून में से पोषण चूसते रहते हैं और अपने क्लोन बनाते रहते हैं। यानी यह घोंघा परजीवी-निर्माण कारखाना (parasite factory) बनकर रह जाता है। 

और क्रूरता यहीं समाप्त नहीं होती। जहां अधिकांश कृमि प्रजनन के बाद अपने लार्वा (larvae) को झीलों या नदी-नालों (ponds or rivers) में छोड़ देते हैं ताकि वे नए शिकार तलाश सकें, वहीं इस परजीवी के कुछ लार्वा प्रजनन के अयोग्य होते हैं और पानी में जाने की बजाय वहीं बने रहते हैं। ये सैनिकों (soldiers) के रूप में भूमिका निभाते हैं और इनके गले बड़े-बड़े होते हैं। 

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (Proceedings of the National Academy of Sciences) में शोधकर्ताओं (researchers) ने बताया है कि ये अन्य प्रतिस्पर्धी परजीवियों के शरीर में छेद कर देते हैं और उनकी आंतों को चूस लेते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह इन कृमियों में सामाजिक व्यवस्था (social structure) का द्योतक है। वैसे तो मधुमक्खियों और चींटियों जैसे जंतुओं में सामाजिक विभेदन देखने को मिलता है लेकिन ट्रेमेटोडा वर्ग (Trematoda class) के कृमियों में यह पहली बार देखा गया है। पहले के शोधकर्ताओं का विचार था कि ये सैनिक कृमि जीवन में कभी ना कभी प्रजनन करते होंगे। 

हैप्लोर्किस प्यूमिलियो को लेकर यह खोज संयोग और सोच-समझकर किए गए प्रयोगों (experiments) का मिला-जुला परिणाम है। एक झील के पास टहलते हुए परजीवी वैज्ञानिक (parasitologist) डैन मेट्ज़ की नज़र एक अजीब से घोंघे पर पड़ी। उन्होंने इसे पहचान लिया – यह मलेशिया मूल का ट्रम्पेट घोंघा (Melanoides tuberculata) था। वे इसे प्रयोगशाला (laboratory) में ले आए। वहां जब उसे सूक्ष्मदर्शी के नीचे एक तश्तरी में रखा तो देखा कि उसमें से परजीवी निकल-निकल कर आसपास तैर रहे हैं। 

मेट्ज़ ने पहचान कर ली कि ये परजीवी एच. प्यूमिलियो हैं। जांच करने पर पता चला कि कृमि के अंदर बच्चे भरे हुए हैं। खुद कृमि लगभग 1 मिली मीटर लंबा था। कुछ छोटे कृमि भी थे जो सामान्य साइज़ का मात्र 5 प्रतिशत थे यानी 1 मिलीमीटर का बीसवां भाग। लेकिन छोटे होने के बावजूद उनके मांसल गले विशाल थे – पूरे शरीर का लगभग एक-चौथाई। मेट्ज़ का विचार था कि ये सैनिक होंगे। 

अगला कदम था परजीवियों की कुश्ती। मेट्ज़ ने एच. प्यूमिलियो के सैनिकों को अन्य परजीवी कृमि प्रजातियों (parasite species) के साथ रखा। वे प्रजातियां भी आम तौर पर घोंघों को संक्रमित करती हैं। सैनिक इन पराए कृमियों के पास गए, अपना मुंह उनसे चिपकाया और गले को फुलाया। इसकी वजह से निर्वात उत्पन्न हुआ जिसके चलते बड़े परजीवियों के शरीर में छेद हो गए। इस छेद के ज़रिए सैनिकों ने उस परजीवी की आंतों को चूसकर बाहर निकाला और खा गए। लेकिन अजीबोगरीब बात यह देखी गई कि जब इन सैनिकों को उन्हीं की प्रजाति के अन्य सदस्यों के साथ रखा गया तो उन्होंने अपने प्रजननक्षम सहोदरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। 

इन सैनिकों में प्रजनन अंग (reproductive organs) भी नहीं पाए जाते और आजीवन वे वंध्या अवस्था में ही रहते हैं। यानी ये इसी रक्षात्मक भूमिका (defensive role) के लिए तैयार हुए हैं। इसके आधार पर मेट्ज़ का विचार है कि यह वास्तविक सामाजिक व्यवस्था का लक्षण है जैसी कि मधुमक्खियों, चींटियों, दीमकों वगैरह में पाई जाती है। 

एच. प्यूमिलियो का यह फौजी जमावड़ा (military group) काफी मददगार साबित होता है। 2021 में मेट्ज़ और उनके साथियों मे 3164 एम. ट्यूबरकुलेटा घोंघों का सर्वेक्षण किया था। उन्होंने देखा कि एच. प्यूमिलियो ने घोंघों पर पूरा कब्ज़ा कर लिया था। ऐसे मामले बिरले ही थे जहां घोंघों को किन्हीं अन्य प्रजातियों ने संक्रमित किया हो। और तो और, जिन मामलों में अन्य प्रजातियों ने घोंघों को संक्रमित किया था, उनमें भी एच. प्यूमिलियो का ही वर्चस्व (dominance) दिखा।  लड़ाइयों में एच. प्यूमिलियो सैनिक कभी नहीं मारे गए, बल्कि वे ही हमेशा किसी और को मारते दिखे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जानवरों द्वारा स्वयं उपचार के तरीके: ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मई, 2024 में नेचर पत्रिका में एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था: ‘सुमात्रा के एक नर ओरांगुटान द्वारा जैविक रूप से सक्रिय पौधे से चेहरे के घाव का सायास स्व-उपचार’ (‘Active self-treatment of a facial wound with a biologically active plant by a male Sumatran orangutan’)। 

इस शोधपत्र में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर [Animal Behavior Research] की इसाबेल लॉमर और उनके साथियों ने बताया था कि इंडोनेशिया में इस प्रायमेट जंतु [Primates in Indonesia] ने किस तरह एक स्थानीय पौधे फाइब्रौरिया टिंक्टोरिया का लुग्दीनुमा लेप बनाया और इसे अपने चेहरे के घाव पर लगाकर घाव का इलाज किया। 

इसी तरह 2012 में नेचर पत्रिका में मैट कापलान ने एक लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था: ‘(स्वस्थ रहने के लिए) निएंडरथल हरी पत्तेदार सब्ज़ियां खाते हैं’ (Neanderthals ate their greens)। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने उत्तरी स्पेन के कुछ निएंडरथलों के दांतों के प्लाक का विश्लेषण किया और पाया कि वे संक्रमण वगैरह से निजात पाने और सामान्य स्वास्थ्य के लिए येरो (संभवत: सहस्रपर्णी) और कैमोमाइल जैसे पौधों का इस्तेमाल करते थे। 

ऐसे कई पौधों का इस्तेमाल दुनिया भर के लोगों द्वारा पारंपरिक चिकित्सा [Traditional Medicine] में, संक्रमण से उबरने के लिए और स्वस्थ रहने के लिए किया जाता है। मार्च 2009 के रेज़ोनेंस के अंक में आर. रमन और एस. कंदुला की एक विस्तृत समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जो बताती है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद डी. एच. जैनज़ेन ने एक शब्द गढ़ा था ‘ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी’। (यानी जंतुओं द्वारा औषधीय गुणों वाली वनस्पतियों, कीटों या मिट्टी से स्वयं का उपचार करने का व्यवहार)। डी. एच. जैनज़ेन वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उन जंतुओं की सूची तैयार की थी जो विशिष्ट पौधों, मिट्टी या कीटों को खाकर या उनका लेप लगाकर खुद का उपचार कर लेते हैं। 

ब्राज़ील के बाहिया के डॉ. ई. एम. कोस्टा-नेटो ने 2012 में एनवायरमेंटल साइंस, बायोलॉजी [Environmental Science, Biology] में ‘ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी: जानवरों का स्व-उपचार का व्यवहार’ (Zoopharmacognosy: the self-medication behaviour of animals)’ शीर्षक से, और बाल्टीमोर के जोएल शर्किन ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में कई ऐसे पौधों और उनकी जड़ों, पत्तियों और फलों की सूची प्रकाशित की है जिन्हें वानर, बंदर, बारहसिंगा, भालू और कुछ पक्षी (स्टारलिंग) स्वस्थ रहने के लिए खाते हैं। कुत्ते पेट के संक्रमण से छुटकारा पाने के लिए घास खाकर और उसे उल्टी करके खुद को ठीक करते हैं। गर्भवती लीमर दूध बनने में सहायता के लिए इमली के पत्ते  कुतरती हैं, और केन्या में गर्भवती हथिनी प्रसव को शुरू करने के लिए बोरागिनेसी कुल के कुछ पौधों की पत्तियां खाती हैं। 

रोमन प्रकृतिविद प्लिनी ने 2000 वर्ष पहले बताया था कि कई जानवरों ने कुछ पौधों के चिकित्सीय/औषधीय गुण [Medicinal Properties] खोजे थे, जो स्थानीय लोगों के लिए उपयोगी ज्ञान बन गया। इनमें से कई औषधीय पौधों के बारे में अफ्रीका, मिस्र, मध्य पूर्व, भारत और चीन में 3000 से अधिक वर्ष पहले से पता है, और आज भी इनका उपयोग किया जाता है।

पारंपरिक दवाएं 

सुमात्रा के ओरांगुटान द्वारा घाव भरने में इस्तेमाल किए जाने वाले औषधीय पौधे फाइब्रौरिया टिंक्टोरिया में शोथ-रोधी अणु बर्बेराइन होता है। इस पौधे का स्थानीय नाम ‘अकर कुन्यी’ है, और इसका उपयोग वहां की पारंपरिक चिकित्सा [Traditional Medicine in Sumatra] में किया जाता है। दक्षिणी उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, इसी पौधे जैसा कनेर (ओलिएंडर) पौधा मिलता है, जिसका उपयोग पीलिया के उपचार [Jaundice Treatment] में किया जाता है। भारत में और एशिया व अफ्रीका के कई हिस्सों में पाई जाने वाले ग्वारपाठा (एलो वेरा) में रोगाणु-रोधी, शोध-रोधी और घाव भरने वाले गुण होते हैं। 

कई सभ्यताओं ने हज़ारों वर्षों से प्राकृतिक चिकित्सा प्रणालियों [Natural Medicine Systems] को समझा है/दर्ज किया है और उनका उपयोग किया है। चीन में पिछले 5000 वर्षों से झोंग्यी प्रणाली है, अरेबिया 4000 वर्षों से है और भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली 5000 वर्षों से है। इन सभी में उपचार के लिए विभिन्न पौधों, फलों और जड़ों का उपयोग किया जाता है। जैसे सर्पगंधा (Rauwolfina serpentina), तुलसी, एलो वेरा, जंगली लहसुन, प्याज़, अजवायन, आर्टिचोक, कपूर, नारियल और अरंडी का तेल। च्यवनप्राश भारत में लोकप्रिय है; इसको बनाने का एक नुस्खा लगभग 700 ईसा पूर्व से चरक संहिता में दर्ज है। अब हम नए प्राकृतिक उत्पाद अणुओं के बारे में बताने के लिए जैव रसायनज्ञों और दवा कंपनियों [Biochemists and Pharmaceutical Companies] से उम्मीद रखते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चमगादड़ों में श्रवण क्षमता बुढ़ापे में बरकरार रहती है

ज़ुबैर सिद्दिकी

मनुष्य सहित अधिकांश स्तनधारी प्राणियों में उम्र बढ़ने के साथ सुनने की क्षमता (hearing ability) क्षीण पड़ जाती है। लेकिन बड़े-भूरे चमगादड़ (big brown bats) (एप्टेसिकस फ्यूस्कस) इस मामले में अपवाद हैं। बायोआर्काइव (bioRxiv) में प्रकाशित हालिया शोध से पता चलता है कि ये चमगादड़ जीवन भर अपनी सुनने की क्षमता बनाए रखते हैं। इसका कारण संभवत: इकोलोकेशन (echolocation) (प्रतिध्वनि की मदद से स्थान निर्धारण) पर उनकी निर्भरता है। यह शोध मनुष्यों में श्रवण क्षमता के ह्रास (hearing loss) के उपचार में मदद कर सकता है। 

गौरतलब है कि चमगादड़ों में दो उल्लेखनीय गुण होते हैं: एक है इकोलोकेशन, जो वस्तुओं से टकराकर वापस आईं ध्वनि तरंगों के माध्यम से मार्ग निर्धारण (navigation) करने और शिकार (hunting) करने में मदद करता है। और दूसरा, वे अपने आकार के हिसाब से असाधारण रूप से लंबा जीते हैं। अधिकांश छोटे स्तनधारियों का जीवनकाल (lifespan) छोटा होता है, लेकिन बड़े-भूरे चमगादड़ 19 साल तक जीवित रह सकते हैं, जो लगभग बराबर डील-डौल के चूहों से पांच गुना अधिक है। 

इसी गुण के कारण वैज्ञानिक बुढ़ाने (aging) और सुनने की क्षमता की तुलना के लिए इन्हें शक्तिशाली मॉडल-जंतु (model organisms) के तौर पर देख रहे हैं। गौरतलब है कि चमगादड़ों की श्रवण प्रणाली (auditory system) मूलत: अन्य स्तनधारियों के समान ही होती है। 

बड़े-भूरे चमगादड़ों की उम्र के साथ सुनने की क्षमता का पता लगाने के लिए जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी (Johns Hopkins University) की शोधकर्ता ग्रेस कैपशॉ (Grace Capshaw) और उनकी टीम ने 23 जंगली चमगादड़ों को युवा और बूढ़े समूहों में विभाजित किया, जिसमें छह साल की उम्र को विभाजन रेखा के रूप में इस्तेमाल किया गया। अध्ययन में अधिकतम संभव उम्र के करीब वाले चमगादड़ शामिल नहीं थे। चमगादड़ों की उम्र जेनेटिक विधि (genetic method) से निर्धारित की गई और श्रवण परीक्षण (hearing tests) लगभग वैसे ही किए गए जैसे मानव शिशुओं (human infants) पर किए जाते हैं। चमगादड़ों के सिर पर लगे इलेक्ट्रोड्स (electrodes) से विभिन्न ध्वनियों के जवाब में श्रवण तंत्रिका द्वारा उत्पन्न विद्युत संकेतों को मापा। 

परिणामों से पता चला कि युवा और बूढ़े दोनों चमगादड़ सबसे धीमी ध्वनियों (low-frequency sounds) को समान रूप से अच्छी तरह से सुन सकते हैं, विशेष रूप से उन आवृत्तियों को जो वे इकोलोकेशन और संवाद में उपयोग करते हैं। मनुष्यों में अक्सर आंतरिक कान (कॉक्लिया) में रोम कोशिकाओं की मृत्यु के कारण सुनने की क्षमता क्षीण पड़ जाती है, जबकि इस अध्ययन में पाया गया कि सबसे बूढ़े चमगादड़ों में भी रोम कोशिकाएं और कॉक्लिया (cochlea) सलामत थे। 

लेकिन सभी चमगादड़ प्रजातियां इतनी सौभाग्यशाली नहीं हैं। मसलन, मिस्र के रूसेटस एजिप्टियाकस (Rousettus aegyptiacus) चमगादड़ उम्र के साथ सुनने की क्षमता खो देते हैं। संभवत: इसका कारण यह है कि वे शिकार के लिए ध्वनि की अपेक्षा देखने (vision) पर अधिक निर्भर होते हैं। 

बहरहाल, इन चमगादड़ों की असाधारण श्रवण क्षमता को पूरी तरह समझने के लिए और अधिक शोध की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स) 

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कुत्ते भावनाएं समझते हैं, सह-विकास की बदौलत

ई लोग जानते हैं कि कुत्ते हमारी भावनाओं, हमारे मूड को महसूस कर पाते हैं। संभव है कि उनकी यह क्षमता जन्मजात हो। हाल ही में एनिमल बिहेवियर में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि उनमें यह क्षमता मनुष्यों के संग सह-विकास का परिणाम है।

यह तो देखा गया है कि घोड़े मनुष्यों की हंसी की तुलना में उनके गुर्राने पर अधिक गौर करते हैं। इसी प्रकार से, सूअर मनुष्यों की आवाज़ पर अधिक सशक्त प्रतिक्रिया देते हैं बजाय जंगली सूअरों की आवाज़ पर। लेकिन इस बात को बहुत कम समझा गया है कि जानवर केवल इंसानी ध्वनियों पर प्रतिक्रिया देते हैं, या वे उनके पीछे की भावनाओं को समझते भी हैं।

अधिकांश जानवर केवल अपनी प्रजाति के अन्य सदस्यों की भावनाओं को ही सटीकता से प्रतिध्वनित कर सकते हैं। लेकिन कुछ अध्ययन बताते हैं कि कुत्ते (Canis familiaris) अपने आसपास के लोगों की भावनाओं को हूबहू व्यक्त कर सकते हैं।

लेकिन एक सवाल यह उठता है कि क्या इस भावनात्मक ‘छूत’ का आधार ‘भावनाओं के सार्वभौमिक ध्वनि संकेतों’ में है जिन्हें सभी पालतू जानवर समझ सकते हैं, या यह विशेषता सिर्फ कुत्तों जैसे संगी जानवरों में है? इसका जवाब पाने के लिए शोधकर्ताओं ने मानव ध्वनियों के प्रति कुत्तों और पालतू सूअरों (Sus scrofa domesticus) की तनाव प्रतिक्रिया की तुलना की।

कुत्तों की तरह, पालतू सूअर भी सामाजिक जानवर होते हैं जिन्हें बचपन से ही पाला जाता है। इसलिए यदि भावनात्मक लगाव महज लोगों के साथ निकटता से सीखा जा सकता है, तो कुत्तों और पालतू सूअरों की इंसानी भावनात्मक ध्वनियों के प्रति प्रतिक्रिया समान होनी चाहिए। लेकिन एक अंतर है – कुत्तों के विपरीत, सूअरों को मनुष्यों ने अपने साथ सिर्फ पशुधन के रूप में रखा है, साथी के रूप में नहीं।

फैनी लेहोज़्की, इओटवॉस लौरेंड और पौला पेरेज़ फ्रैगा की टीम ने दुनिया भर के कुत्तों और सूअर मालिकों को अध्ययन में शामिल किया। और उन्हें उनके पालतू जानवरों के साथ एक कमरे में रखा। जानवरों को रोने या गुनगुनाने की रिकॉर्डेड आवाज़ें सुनाई गईं। इन आवाज़ों के प्रति जानवरों के व्यवहार – जैसे कुत्तों के मामले में कराहना और जम्हाई लेना, और सूअरों के मामले में कान तेज़ी से फड़फड़ाना का अवलोकन किया गया – और देखा गया कि किसने इस तरह कितनी बार प्रतिक्रिया दी।

जैसा कि अपेक्षित था, कुत्ते हमारी ध्वनियों की भावनाओं को समझने में काफी कुशल थे – वे रोने की आवाज़ पर तनावग्रस्त हो जाते थे और गुनगुनाने की आवाज़ पर काफी हद तक अप्रभावित रहते थे। हालांकि सूअरों ने भी रोने की आवाज़ पर थोड़ा तनाव ज़ाहिर किया लेकिन उनके व्यवहार से लगता है कि उनके लिए गुनगुनाना कहीं अधिक तनावपूर्ण आवाज़ थी।

जैसा कि परिणाम से ज़ाहिर है पशुधन जानवरों की तुलना में साथी जानवरों में मनुष्यों के साथ भावनात्मक लगाव अधिक दिखता है। लेकिन विशेषज्ञ इस पर अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत बताते हैं, क्योंकि सूअर भी काफी संवेदनशील होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गिद्धों की कमी से मनुष्यों की जान को खतरा

गिद्धों को अक्सर मृत जीव-जंतुओं के भक्षण के लिए जाना जाता है। इस तरह ये हमारे पारिस्थितिक तंत्र को साफ रखते हैं और बीमारियों के प्रसार को कम करके मानव जीवन की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस संदर्भ में अमेरिकन इकॉनॉमिक एसोसिएशन जर्नल में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन का निष्कर्ष है कि 1990 के दशक के दौरान भारत में गिद्धों के लगभग विलुप्त होने से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट पैदा हुआ जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2000 से 2005 के बीच लगभग पांच लाख अतिरिक्त मौतें हुईं।

1990 के दशक में, पशु चिकित्सा में डाइक्लोफेनेक दवा के व्यापक उपयोग के कारण भारतीय गिद्ध की आबादी में गिरावट आई। इस दवा का इस्तेमाल मवेशियों में दर्द, शोथ व अन्य तकलीफों के लिए काफी मात्रा में किया गया था। इन पशुओं के शवों को खाने वाले गिद्धों के लिए यह घातक साबित हुई। इससे गिद्धों की बड़ी आबादी के गुर्दे खराब हो गए और एक दशक में गिद्धों की आबादी 5 करोड़ से घटकर मात्र कुछ हज़ार रह गई।

गौरतलब है कि गिद्ध शवों का कुशलतापूर्वक सफाया करते हैं, जिसकी वजह से जंगली कुत्तों और चूहों जैसे जीवों को भोजन कम मिल पाता है और उनकी आबादी नियंत्रण में रहती है। ये जीव रेबीज़ जैसे रोगाणुओं को मानव आबादी तक पहुंचा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, गिद्धों की अनुपस्थिति में किसान अक्सर मृत पशुओं को नदी-नालों में फेंक देते हैं, जिससे पानी दूषित होता है तथा और अधिक बीमारियां फैलती हैं।

वार्विक विश्वविद्यालय के पर्यावरण अर्थशास्त्री अनंत सुदर्शन ने गिद्धों की अनुपस्थिति के परिणामों का प्रत्यक्ष रूप से अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि गिद्धों की अनुपस्थिति में चमड़े के कारखानों और शहर की सीमाओं के बाहर शवों का ढेर लग गया था जिसका भक्षण जंगली (फीरल) कुत्ते व अन्य रोगवाहक जीव कर रहे थे। भारत सरकार ने चमड़ा कारखानों को शवों के निपटान के लिए रसायनों के उपयोग का निर्देश दिया लेकिन इन रसायनों से जलमार्ग प्रदूषित हो गए।

सुदर्शन और शिकागो विश्वविद्यालय के पर्यावरण अर्थशास्त्री इयाल फ्रैंक ने गिद्धों की संख्या में कमी के कारण मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को मापने के लिए एक विस्तृत विश्लेषण किया। उन्होंने भारत के 600 से अधिक ज़िलों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड के साथ गिद्धों के आवासों के मानचित्रों को जोड़कर देखा। इस विश्लेषण में उन्होंने पानी की गुणवत्ता, मौसम और अस्पतालों की उपलब्धता जैसे कारकों का ध्यान रखा।

उन्होंने पाया कि 1994 से पहले, जिन ज़िलों में कभी गिद्धों की बड़ी आबादी हुआ करती थी, वहां मानव मृत्यु दर औसतन प्रति 1000 लोगों पर लगभग 0.9 थी जबकि 2005 के अंत तक इस मृत्यु दर में 4.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यानी हर साल लगभग एक लाख अतिरिक्त मौतें हुईं। वहीं, जिन ज़िलों में पहले भी गिद्धों की आबादी बहुत ज़्यादा नहीं थी, वहां मृत्यु दर में कोई बदलाव नहीं देखा गया। इन अतिरिक्त मौतों की आर्थिक लागत की गणना भारतीय समाज द्वारा जीवन को बचाने के महत्व के आधार पर की गई थी। पूर्व सांख्यिकीय अध्ययनों के अनुसार यह प्रति व्यक्ति 5.5 करोड़ रुपए है। इस हिसाब से वर्ष 2000 से 2005 तक गिद्धों के न होने से कुल आर्थिक क्षति प्रति वर्ष लगभग 6000 अरब रुपए थी।

यह अध्ययन जन स्वास्थ्य में गिद्धों की महत्वपूर्ण भूमिका और उनकी आबादी में गिरावट के गंभीर परिणामों पर प्रकाश डालता है। 2006 में भारत सरकार द्वारा डाइक्लोफेनेक पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद गिद्धों की आबादी पूरी तरह बहाल होने की संभावना नहीं है। ये परिणाम भविष्य में इसी तरह के संकटों को रोकने के लिए सक्रिय संरक्षण उपायों की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। साथ ही इस तरह के आकलन मानव स्वास्थ्य पर ज्ञात प्रभावों वाली अन्य प्रजातियों के संरक्षण के बारे में सोचने को भी प्रेरित करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंधकार के निवासी जीव इतने रंग-बिरंगे क्यों?

क्रेफिश (झिंगा मछली) के नाम में मछली है लेकिन ये जंतु मछली नहीं होते बल्कि केंकड़े, लॉबस्टर वगैरह जैसे क्रस्टेशियन वर्ग के जंतु हैं। क्रेफिश की लगभग 700 प्रजातियां ज्ञात हैं। ये भूमिगत बिलों में रहते हैं और सिर्फ रात के अंधेरे में ही ज़मीन पर आते हैं। लेकिन इनके रंग चटख होते हैं – गहरे नीले, नारंगी, बैंगनी-जामुनी और लाल। जैव विकास की दृष्टि से यह एक पहेली रही है। अंधेरे में जब इन रंगों को कोई देख नहीं सकता तो इनका विकास ही क्यों हुआ?

हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित शोध पत्र में वेस्ट लिबर्टी युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकीविद ज़ेकरी ग्राहम और उनके सहयोगियों ने इस संदर्भ में एक परिकल्पना सुझाई है। उनकी परिकल्पना है कि इन भूमिगत क्रेफिशों की रंग-बिरंगी छटाएं किसी खास मकसद से विकसित नहीं हुई हैं, बल्कि ये महज संयोग का परिणाम हैं।

वैकासिक जीव वैज्ञानिक आम तौर पर मानते हैं कि चटख रंगों वाले जंतुओं का विकास किसी कारण से होता है। जैसे पक्षी अपने रंगों से अपनी फिटनेस का प्रदर्शन करते हैं, जबकि कुछ ज़हरीले मेंढक शिकारियों को दूर रखने के लिए चमकीले रंगों और पैटर्न का सहारा लेते हैं।

ग्राहम की टीम यही समझने को उत्सुक थी कि क्या यह बात क्रेफिश पर लागू होती है। कुछ क्रेफिश तो अधिकांश समय नदियों के खुले पानी में मटरगश्ती करते बिताते हैं जबकि कुछ हैं जो कीचड़ में बिल बनाकर रहते हैं और रात में बाहर निकलते हैं। तो क्या उनकी आवास की पसंद ने उनके रंगों को संजोया होगा?

शोधकर्ताओं ने दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, युरोप और उत्तरी अमेरिका की 400 क्रेफिश प्रजातियों के मौजूदा आंकड़े देखे और इन्हें रंग व प्राकृतवास के आधार पर वर्गीकृत किया। फिर उन्होंने यह देखा कि वर्तमान प्रजातियां और उनके पूर्वज किसी तरह परस्पर सम्बंधित हैं – यानी उनका एक वंशवृक्ष तैयार किया।

पता चला कि नीले, नारंगी, जामुनी और लाल चटख रंगत वाले क्रेफिश तो भूमिगत बिलों के वासी हैं जबकि पानी में रहने वाले क्रेफिश प्राय: भूरे, कत्थई और अन्य फीके रंगों के थे। तो बिल में रहने वाले क्रेफिश में ऐसे रंग क्यों विकसित हुए होंगे जबकि उन्हें अंधेरे में बसर करना है – रंगों के दम पर वे न तो साथियों को आकर्षित कर सकते हैं और शिकारियों से तो वे अपने बिलों में महफूज़ ही हैं।

क्या यह संभव है कि इनके पूर्वजों में बेतरतीब ढंग से यह रंगीनियत पैदा हो गई थी और फिर इसे बदलने का कोई कारण न रहा हो। एक तथ्य यह है कि भूमिगत क्रेफिश अपने बिलों में ही अपने सम्बंधियों के साथ प्रजनन करते हैं। इसका मतलब यह होगा उनमें कोई लक्षण कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेगा।

 शोध के दौरान एक रोचक तथ्य यह सामने आया कि पिछले 26 करोड़ वर्षों में क्रेफिश के चटख रंगों का विकास 50 मर्तबा स्वतंत्र रूप से हुआ है। इसका मतलब है कि कई फीके रंग वाले क्रेफिश में किसी समय नीला या नारंगी या लाल होने की क्षमता पैदा हो गई होगी। ग्राहम का कहना है कि हर मौजूदा लक्षण अनुकूलनकारी हो, यह ज़रूरी नहीं है। कई लक्षण उपस्थित रहते हैं जबकि उनका कोई ज़ाहिर उपयोग नहीं होता। यह भी संभव है कि कई लक्षण सिर्फ इसलिए बन जाते है और बने रहते हैं कि उनकी वजह से जंतु को कोई नुकसान भी नहीं होता। जब कोई दीदावर नहीं है तो क्या फर्क पड़ता है आप कैसी पोशाक पहने हैं। कहने का मतलब कि भूमिगत क्रेफिशों में रंगों पर कोई चयनात्मक दबाव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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अतीत में भी नए पंख आजकल जैसे ही झड़ते-उगते थे

क हालिया और दिलचस्प अध्ययन से पता चला है कि संभवत: कन्फ्यूशियसॉर्निस वंश के प्राचीन पक्षी आधुनिक चिड़ियाओं के सामान पंख छोड़ते थे। पक्षियों में उड़ान दक्षता बनाए रखने के लिए पंखों का निर्मोचन (यानी पुराने पंख झड़कर नए पंख आना) एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इन प्राचीन पक्षियों में मौजूद थी।

पंखों की उत्पत्ति संभवत: डायनासौर और टेरोसौर के साझा पूर्वजों में लगभग 25 करोड़ वर्ष पहले ट्राएसिक काल में हुई थी। इन पक्षियों के शुरुआती पंख हल्के रोएं से अधिक कुछ नहीं होते थे। समय के साथ, शिकारी पक्षियों (रैप्टर्स) और पक्षियों की पूर्ववर्ती प्रजातियों (जैसे मांसाहारी डायनासौर) में केरेटिन से बने जटिल पंख विकसित हुए। केरेटीन वही प्रोटीन है जिससे मनुष्यों में बाल और नाखून का निर्माण होता है। लेकिन नाखूनों के विपरीत पंख अपने आधार से निरंतर नहीं बढ़ते। परिपक्व होने के बाद ये मृत संरचना ही होते हैं। इसलिए पक्षियों को अपने पुराने पंखों को छोड़ना पड़ता है। विभिन्न पक्षियों में इसके तरीके अलग-अलग होते हैं।

उड़ने में असमर्थ पेंगुइन जैसे पक्षी एक बार में बहुत सारे पंख गिराते हैं, जबकि उड़ने वाले पक्षी अपनी उड़ने की क्षमता बनाए रखने के लिए एक बार में कुछ ही पंख गिराते हैं। इसे क्रमिक निर्मोचन कहते हैं। इस तरीके में उनके डैनों पर छोटी-छोटी रिक्तियां रह जाती हैं, जहां नए पंख उगते हैं।

इस अध्ययन के लिए फील्ड म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के जीव विज्ञानी योसेफ किआट और उनकी टीम ने चीन के एक म्यूज़ियम के 600 से अधिक पक्षी जीवाश्मों का अध्ययन किया। ये पक्षी शुरुआती क्रेटेशियस काल (लगभग 12.5 करोड़ साल पूर्व) के दौरान वर्तमान के पूर्वी चीन में रहते थे। इनमें कन्फ्यूशियसॉर्निस सबसे आम पक्षी था। कौवे की साइज़ के इस पक्षी की खोपड़ी सरीसृपों के समान, पंजे मुड़े हुए, घने पंख और दांत-विहीन चोंच होती थी। यह संरचना डायनासौर और पक्षी दोनों से मिलती-जुलती थी। टीम को कन्फ्यूशियसॉर्निस के दो ऐसे जीवाश्म भी मिले जो निर्मोचन प्रक्रिया के दौरान ही अश्मीभूत हुए थे। उनके परिपक्व पंखों के बीच रिक्तियों में काले, बढ़ते पंख दिखाई दे रहे थे। ये नए पंख दोनों डैनों में सममित रूप से मौजूद थे। यह आधुनिक सॉन्गबर्ड में देखी जाने वाली क्रमिक निर्मोचन प्रक्रिया के समान ही है। टीम के अनुसार ये जीवाश्म पक्षियों में निर्मोचन के सबसे पुराने ज्ञात साक्ष्य हैं। अनुमान है कि पंख निर्मोचन की यह प्रक्रिया साल में एक बार न होते हुए उनके शारीरिक विकास में उछाल के अनुरूप होती होगी।

ये साक्ष्य 12 करोड़ वर्ष पहले पाए जाने वाले चार डैनों वाले डायनासौर माइक्रोरैप्टर में क्रमिक निर्मोचन के साक्ष्यों से भी मेल खाते हैं और इस विचार का समर्थन करते हैं कि माइक्रोरैप्टर उड़ सकता था, क्योंकि क्रमिक निर्मोचन अक्सर उड़ने वाली प्रजातियों में देखा जाता है।

यह अध्ययन कई डायनासौर में निर्मोचन की संभावना जताता है और उड़ान के विकास में इस प्रक्रिया का महत्व बताता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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