जड़ी-बूटियों का उपयोग करता ओरांगुटान

क हालिया अवलोकन में, वैज्ञानिकों ने सुमात्रा में पाए जाने वाले एक जंगली ओरांगुटान को चेहरे के घाव के इलाज के लिए एक औषधीय पौधे के पुल्टिस का लेप करते देखा है। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित यह खोज किसी जंगली जीव द्वारा उपचार के लिए जड़ी-बूटी के उपयोग का पहला मामला है। इसका विडियो यहां देख सकते हैं: https://www.youtube.com/watch?v=xfYANAdmOrk.

इस औषधि का उपयोग करने वाले राकस नामक ओरांगुटान को सबसे पहले जर्मनी स्थित मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर के शोधकर्ताओं ने देखा। गौरतलब है कि 2009 में जब राकस इस जंगल में आया था तब वह युवा था और गालों के पैड अविकसित थे। 2021 तक राकस वयस्क हो गया चुका था और उसके गालों पर फ्लैंज दिखाई देने लगे थे। इस जीव के अवलोकन के दौरान वर्ष 2022 में शोधकर्ताओं ने उसके चेहरे पर एक खुला घाव देखा, जो संभवत: अन्य नरों के साथ ‘इलाके’ के झगड़े के दौरान लगा था।

हैरानी की बात यह थी कि घाव लगने के कुछ दिनों बाद राकस को अकर कुनिंग नामक पौधे के तने और पत्तियों का सेवन करते देखा गया। इस पौधे का उपयोग मधुमेह और पेचिश जैसी विभिन्न बीमारियों के इलाज में किया जाता है। आश्चर्य इसलिए भी था क्योंकि इस क्षेत्र में ओरांगुटान शायद ही कभी इस पौधे को खाते हैं। राकस ने न केवल पत्तियों को खाया बल्कि पत्तियों को चबाकर घाव पर लगभग 7 मिनट तक लगाया भी। आठ दिनों के भीतर उसका घाव पूरी तरह ठीक हो गया।

यह व्यवहार पशु बुद्धिमत्ता और आत्म-चेतना की पिछली धारणाओं को चुनौती देता है। हालांकि स्वयं इलाज की प्रवृत्ति विभिन्न प्रजातियों में देखी गई है, लेकिन किसी जीव द्वारा कुछ दिनों तक घाव का इलाज करने के लिए किसी विशिष्ट पौधे का उपयोग करने का यह पहला अवलोकन है।

शोधकर्ताओं को लगता है कि संभवत: मनुष्यों ने जीवों के व्यवहार को देखकर उपचार के बारे में सीखा होगा। इस तरह के ज्ञान का संचार, चाहे मनुष्यों के बीच हो या विभिन्न पशु प्रजातियों के बीच, पीढ़ियों तक बना रह सकता है, और सभी जीवन रूपों के  परस्पर सम्बंध को उजागर करता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिमालय के मैगपाई – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

हियर या मैगपाई पक्षी कॉर्विडे (Corvidae) कुल के सदस्य हैं, जिसमें कौवा, नीलकण्ठ और रैवन आते हैं। आम तौर पर इस कुल के पक्षियों को कांव-कांव करने वाले और जिज्ञासु पक्षी के तौर पर देखा जाता है। दुनिया भर की लोककथाओं में अक्सर इन्हें शगुन-अपशगुन के साथ भी जोड़ा जाता है। जैसे कुछ युरोपीय संस्कृतियों में इन्हें चुड़ैलों का साथी माना जाता हैं। अंग्रेज़ी की एक तुकबंदी कहती है कि यदि एक अकेली मैगपाई दिखे तो बुरी खबर सुनने को मिलती है: “One for sorrow, two for joy; three for a girl, four for a boy; Five for silver, six for gold; Seven for a secret never to be told,” (हिंदी में यह कुछ इस तरह होगी: “एक यानी दुख, दो यानी खुशी; तीन यानी लड़की, चार यानी लड़का; पांच यानी चांदी, छह यानी सोना; सात यानी किसी को न बताने वाला राज़।”

लेकिन यह तो सभी मानेंगे कि मैगपाई दिखने में आकर्षक होती हैं। और इसकी कुछ सबसे सजीली (रंग-बिरंगी) प्रजातियां हिमालय में पाई जाती हैं।

नीली मैगपाई की कुछ निकट सम्बंधी प्रजातियां कश्मीर से लेकर म्यांमार तक में दिखना आम हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई (Urocissa flavirostris, जिसे पीली चोंच वाली नीली मैगपाई भी कहते हैं) की आंखें शरारती लगती हैं, और यह समुद्रतल से 2000 से 3000 मीटर ऊंचे स्थलों पर मिलती है। इससे थोड़ी कम ऊंचाई पर हमें लाल चोंच वाली मैगपाई दिखाई देती हैं, और नीली मैगपाई निचले इलाकों पर पाई जाती है जहां बड़ी तादाद में इंसान रहते हैं।

ट्रेकिंग पथ

पीली और लाल चोंच वाली मैगपाई सबसे अधिक दिखाई देती हैं पश्चिमी सिक्किम के ट्रैकिंग पथ पर, जो समुद्र तल से 1780 मीटर की ऊंचाई पर स्थित युकसोम कस्बे से शुरू होता है और लगभग 4700 मीटर की ऊंचाई पर गोचे ला दर्रे तक जाता है जहां से कंचनजंगा के शानदार नज़ारे दिखते हैं। इस ट्रेकिंग में आपका सफर थोड़ी ऊंचाई पर उष्णकटिबंधीय आर्द्र चौड़ी पत्ती वाले वन से शुरू होता है, उप-अल्पाइन जंगलों से गुज़रते हुए ऊंचाई पर आप वृक्षविहीन, जुनिपर झाड़ियों वाली जगह पर पहुंचते हैं। बीच में कहीं-कहीं ऐसे जंगल भी मिलते हैं जिनके घने आच्छादन से आप ढंके होते हैं, और जहां आपको पक्षियों की हैरतअंगेज़ विविधता और आबादी दिखती है।

सिक्किम गवर्नमेंट कॉलेज के प्राणी शास्त्रियों द्वारा किए गए क्षेत्रीय अध्ययनों से पता चला है कि इस क्षेत्र में पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं, और समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊंचाई पर आप हर पांच मिनट के अंतराल पर लगभग 60 अलग-अलग पक्षियों को देख या सुन सकते हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई की कूक अक्सर इन पक्षियों के कलरव के साथ सुनाई देती है। इस मैगपाई का शरीर लगभग कबूतर जितना बड़ा होता है, लेकिन इसकी पूंछ 45 सेंटीमीटर लंबी होती है, जिससे इसकी कुल लंबाई 66 सेंटीमीटर हो जाती है। ज़मीन पर कीड़े-मकोड़ों-कृमियों की तलाश करते समय इसकी पूंछ ऊपर की ओर उठी रहती है; लेकिन पेड़ों से जामुन तोड़ते समय इसकी पूंछ नीचे की ओर झुक जाती है। इसकी उड़ान भी खास होती है: शुरुआत में थोड़े समय तक यह लगातार पंख फड़फड़ाती है, और फिर उसके बाद देर तक हवा में शांत तैरती रहती है।

फूलदार बुरुंश

सुनहरी चोंच वाली मैगपाई बुरुंश वृक्ष पर उस जगह घोंसला बनाती है जहां शाखाएं दो में बंटती हैं। उसका घोंसला टहनियों पर जल्दबाज़ी में घास की मुलायम तह लगाकर बनाया गया लगता है। इन घोंसलों में मई-जून में तीन से छह अंडे दिए जाते हैं। चूज़ों का पालन-पोषण माता-पिता दोनों मिलकर करते हैं। अच्छी बात है, जैसा कि तुकबंदी में कहा गया है – ‘दो यानी खुशी’।

नीली मैगपाई और लाल चोंच वाली मैगपाई दिखने में बहुत हद तक एक जैसी दिखती हैं, बस एक थोड़ी छोटी होती है। नीली मैगपाई जंगलवासी पक्षी नहीं है, और अक्सर गांवों के आसपास पाई जाती हैं। मैगपाई की सभी प्रजातियां या तो अकेले फुदकते हुए, या जोड़े में, या शोरगुल मचाते हुए 8-10 के झुंड में देखी जा सकती हैं।

जैसे-जैसे इंसानों की जंगलों में मौजूदगी बढ़ रही है, इस बात की चिंता बढ़ रही है कि ये पक्षी इस दखल का कितना सामना कर पाएंगे। बुरुंश झाड़ी के रंग-बिरंगे फूल पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। पर्यटकों को ठहराने और उनकी सुविधाओं के लिए ग्रामीण अक्सर जलाऊ लकड़ी जैसे वन संसाधनों को दोहते हैं। आशा है कि कृषि की तरह पर्यटन भी एक वहनीय व्यापार करना सीखेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर की चोंच ने एक पारिस्थितिक नियम तोड़ा

न 1847 में जर्मन जीवविज्ञानी कार्ल बर्गमैन ने प्राणि विज्ञान की एक प्रवृत्ति को एक नियम के रूप में व्यक्त किया था: ‘किसी भी प्रजाति में, अपेक्षाकृत बड़ी साइज़ के जानवर तुलनात्मक रूप से ठंडे वातावरण में पाए जाते हैं, जबकि गर्म क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप से छोटे कद-काठी के जानवर पाए जाते हैं।’ यह नियम अक्सर पक्षियों और स्तनधारियों पर लागू किया जाता है।

मसलन, सबसे बड़े पेंगुइन अंटार्कटिका में पाए जाते हैं। उत्तर की ओर (यानी भूमध्य रेखा की ओर) थोड़ा बढ़ें तो वहां औसत साइज़ के पेंगुइन मिलते हैं, जैसे मैगेलैनिक पेंगुइन। और लगभग भूमध्य रेखा पर सबसे छोटे पेंगुइन, गैलापागोस पेंगुइन, मिलते हैं। ऐसी ही प्रवृत्ति मनुष्यों में भी देखी जा सकती है। ऊंचे कद के लोग उच्च अक्षांशों वाले स्थानों, जैसे स्कैंडिनेविया और उत्तरी युरोप, में पाए जाते हैं।

लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक हालिया पेपर कहता है कि यह नियम हमेशा लागू नहीं होता है। अपने विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने इस नियम को केवल समतापी जानवरों (जो अपने शरीर का तापमान स्थिर बनाए रखते हैं) के एक उपसमूह पर ही लागू होता पाया है, और वह भी तब जब अन्य कारकों को शामिल न कर सिर्फ तापमान पर विचार किया गया हो। इससे लगता है कि बर्गमैन का ‘नियम’ वास्तव में नियम की बजाय अपवाद ही है।

अलास्का फेयरबैंक्स विश्वविद्यालय के लॉरेन विल्सन देखना चाहते थे कि क्या बर्गमैन का नियम डायनासौर पर भी लागू होता है। यह देखने के लिए उन्होंने मीसोज़ोइक युग (साढ़े 25 करोड़ से साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व) में विभिन्न जलवायु परिस्थितयों में रहने वाले डायनासौर और स्तनधारियों का डैटा एक मॉडल में डाला – इसमें सबसे उत्तरी स्थल, प्रिंस क्रीक फॉर्मेशन, के डायनासौर फॉसिल का डैटा भी था। विश्लेषण में अक्षांश और जंतुओं की साइज़ के बीच कोई सम्बंध नहीं दिखा।

जब यही विश्लेषण आधुनिक स्तनधारियों और पक्षियों के लिए किया गया तो परिणाम काफी हद तक वैसे ही थे, हालांकि आधुनिक पक्षियों में कुछ हद तक बर्गमैन का नियम लागू होता दिखा।

बहरहाल यह अध्ययन पारिस्थितिकी सिद्धांतों को समझने में जीवाश्मों के महत्व को रेखांकित करता है और बताता है कि जैविक नियम प्राचीन प्राणियों पर उसी तरह लागू होने चाहिए जैसे वे वर्तमान में जीवित प्राणियों पर लागू होते हैं। यदि हम आधुनिक पारिस्थितिकी प्रणालियों की वैकासिक उत्पत्ति को नज़रअंदाज करेंगे तो हम उन्हें समझ नहीं सकते हैं। मामले को और स्पष्ट करने के लिए और विस्तृत तथा विभिन्न जंतुओं पर अध्ययन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या यादों को मिटने से टाला जा सकता है

मारी याददाश्त एकदम पक्की हो, यह तो हम सभी की इच्छा होती है। लेकिन फिर भी हमारे दिमाग से कई बातें बिसर जाती हैं। बिसरना, स्मृति का दूसरा पहलू है जो जीवों को बदलते पर्यावरण के अनुरूप ढलने में मदद करता है। इसलिए स्मृति को पूरी तरह से समझने के लिए उनके बनने के साथ-साथ उनके बिसरने को भी समझने की ज़रूरत है, जिसके प्रयास वैज्ञानिक करते आए हैं।

ऐसे ही एक प्रयास में, तेल अवीव युनिवर्सिटी के अनुवांशिकीविद ओदेद रेचावी और उनकी एक छात्रा डैना लैंडशाफ्ट बर्लिनर ने गोलकृमि (Caenorhabditis elegans) की अल्पकालिक याददाश्त बढ़ाने का प्रयास किया। दरअसल, C. elegans कोई भी नई जानकारी सीखने के दो-तीन घंटे बाद ही उसे भूल जाते हैं।

तो, पहले तो शोधकर्ताओं ने कृमियों को उनकी एक पसंदीदा गंध को नापसंद करने के लिए प्रशिक्षित किया। इसके लिए उन्होंने इस गंध को कृमियों को तब सुंघाया जब वे बहुत देर के भूखे थे। गंध नापसंद करना सीखने के दो घंटे बाद कृमि गंध के साथ बने इस नकारात्मक सम्बंध को भूल जाते थे और गंध की ओर फिर खिंचे चले जाते थे। यानी यदि वे गंध की ओर जाने लगें तो माना गया कि वे नापसंदगी को भूल गए हैं।

फिर शोधकर्ताओं ने कृमियों को बर्फ में रखा। पाया कि कम से कम 16 घंटे तक ठंडे में रखने पर कृमियों की गंध सम्बंधी स्मृति बनी रहीं। लेकिन, जैसे ही उन्हें बर्फ से हटाया गया तो उनके स्मृति लोप की घड़ी चालू हो गई और तीन घंटे बाद वे गंध के प्रति अपनी घृणा को भूल गए।

एक अन्य प्रयोग में शोधकर्ताओं ने कृमियों को पहले रात भर बर्फ में रखा ताकि वे ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित हो जाएं और फिर उन्हें गंध प्रशिक्षण दिया। और इसके बाद उनकी स्मृति बने रहने का समय मापा। वे हमेशा की तरह जल्दी ही गंध को भूल गए थे।

एक और प्रयोग में उन्होंने कृमियों के एक समूह को लीथियम औषधि (दरअसल लीथियम का लवण) दी और एक को कंट्रोल के तौर पर रखा। फिर उन्होंने कृमियों में गंध से नापसंद का सम्बंध बैठाया। उन्होंने पाया कि लीथियम ने सामान्य तापमान पर भी उनकी स्मृति 5 घंटे बरकरार रखी थी। लेकिन ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित कृमियों में लीथियम देने से उनकी स्मृति पर कोई असर नहीं पड़ा था; उनकी स्मृति उसी रफ्तार से मिटी जितनी रफ्तार से गैर-लीथियम समूह की मिटी थी।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इसमें डायएसाइलग्लिसरॉल नामक एक संकेतक अणु की भूमिका लगती है। C. elegans में यह अणु स्मृति और सीखने से सम्बंधित कोशिकीय प्रक्रिया को घटाने-बढ़ाने का काम करता है, और गंध-स्मृति के लिए अहम होता है। उनके इस निष्कर्ष का आधार यह है कि जब बर्फ एवं लीथियम से स्मृति लंबे समय तक बनी रही थी, तब उनमें डायएसाइलग्लिसरॉल के स्तर में कमी देखी गई थी। यह इसलिए भी उचित लगता है कि लीथियम उस एंज़ाइम को बाधित करने के लिए जाना जाता है जो डायएसाइलग्लिसरॉल का जनक है। बायपोलर समस्या-ग्रस्त व्यक्तियों में लीथियम की उपयोगिता का आधार शायद यही प्रक्रिया है।

यह भी दिखा कि स्मृति का बने रहना कोशिका झिल्ली की कठोरता से भी जुड़ा है, जो ठंड के कारण बढ़ जाती है। जिन कृमियों की कोशिका झिल्ली सामान्य कृमियों की कोशिका झिल्ली से अधिक सख्त थी, उनकी भूलने की दर सामान्य कृमियों की तुलना में धीमी थी, यहां तक कि सामान्य तापमान पर भी। इससे लगता है कि झिल्ली का सख्त होना भूलने को टालता है।

ये नतीजे बायोआर्काइव प्रीप्रिंट में प्रकाशित हुए हैं और समकक्ष समीक्षा के मुंतज़िर है। स्मृति बनने-बिगड़ने के महत्व के मद्देनज़र शोधकर्ता अन्य जीवों पर भी प्रयोग कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या वुली मैमथ फिर से जी उठेगा?

क कंपनी है कोलोसल जिसका उद्देश्य है विलुप्त हो चुके जंतुओं को फिर से साकार करना। इस बार यह कंपनी कोशिश कर रही है कि वुली मैमथ नाम के विशाल प्राणि को पुन: प्रकट किया जाए।

अपने इस प्रयास में कंपनी के वैज्ञानिक आजकल के हाथियों की त्वचा कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में परिवर्तित करने में सफल हो गए हैं। स्टेम कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो किसी खास अंग की कोशिका में विभेदित नहीं हो चुकी होती हैं और सही परिवेश मिलने पर शरीर की कोई भी कोशिश बनाने में समर्थ होती हैं। योजना यह है कि इन स्टेम कोशिकाओं में जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीकों की मदद से मैमथ के जीन्स रोपे जाएंगे और उम्मीद है कि यह कोशिका विकसित होकर एक मैमथ का रूप ले लेगी।

कोलोसल का उद्देश्य है कि एशियाई हाथियों (Elephas maximus) का ऐसा कुनबा तैयार किया जाए जिसके शरीर पर वुली मैमथ (Mammuthus primigenius) जैसे लंबे-लंबे बाल हों, अतिरिक्त चर्बी हो और मैमथ के अन्य गुणधर्म हों।

देखने में तो बात सीधी-सी लगती है क्योंकि सामान्य कोशिकाओं को बहुसक्षम स्टेम कोशिकाओं में बदलने में पहले भी सफलता मिल चुकी है और जेनेटिक इंजीनियरिंग भी अब कोई अजूबा नहीं है। जैसे एक शोधकर्ता दल ने 2011 में श्वेत राइनोसिरस (Ceratotherium simum cottoni) और ड्रिल नामक एक बंदर (Mandrillus leucophaeus) से स्टेम कोशिकाएं तैयार कर ली थीं। इसके बाद कई अन्य जोखिमग्रस्त प्रजातियों के साथ भी ऐसा किया जा चुका है। जैसे, तेंदुए (Panthera uncia), सुमात्रा का ओरांगुटान (Pongo abelii) वगैरह। लेकिन पूरे काम में कई अगर-मगर हैं।

अव्वल तो कई दल हाथी की स्टेम कोशिकाएं तैयार करने में असफल रह चुके हैं। जैसे कोलोसल की ही एक टीम एशियाई हाथी की कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में तबदील करने में असफल रही थी। उन्होंने शिन्या यामानाका द्वारा वर्णित रीप्रोग्रामिंग कारकों का उपयोग किया था। अधिकांश स्टेम कोशिकाएं तैयार करने के लिए इसी विधि का इस्तेमाल किया जाता है।

इस असफलता के बाद एरिओना ह्योसोली की टीम ने उस रासायनिक मिश्रण का उपयोग किया जिसके उपयोग से मानव व मूषक कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं का रूप देने में सफलता मिल चुकी थी। लेकिन इस उपचार के बाद हाथियों की अधिकांश कोशिकाएं या तो मर गईं, या उनमें विभाजन रुक गया या कई मामलों में वे इस उपचार से अप्राभावित रहीं। लेकिन चंद कोशिकाओं ने गोल आकार हासिल कर लिया जो स्टेम कोशिका जैसा था। अब टीम ने इन कोशिकाओं को यामानाका कारकों से उपचारित किया। लेकिन सफलता तो तब हाथ लगी जब उन्होंने एक कैंसर-रोधी जीन TP53 की अभिव्यक्ति को ठप कर दिया। इस तरह से शोधकर्ताओं ने एक हाथी से चार कोशिका वंश तैयार किए हैं।

अब अगला कदम होगा हाथी की कोशिकाओं में जेनेटिक संपादन करके मैमथ जैसे गुणधर्म जोड़ना। इसके लिए उन्हें यह पहचानना होगा कि वे कौन-से जेनेटिक परिवर्तन हैं जो हाथी को मैमथनुमा बना देंगे। यह काम पहले तो सामान्य कोशिकाओं में किया जाएगा और फिर स्टेम कोशिकाओं में। पहले संपादित स्टेम कोशिकाएं तैयार की जाएगी और फिर उन्हें ऊतकों (जैसे बाल या रक्त) में विकसित करने का काम करना होगा।

लेकिन उससे पहले और भी कई काम होंगे। जैसे संपादित स्टेम कोशिकाओं को किसी प्रकार से शुक्राणुओं व अंडाणुओं में बदलना ताकि उनके निषेचन से भ्रूण बन सके। यह काम चूहों में किया जा चुका है। इसका दूसरा रास्ता भी है – इन स्टेम कोशिकाओं को ‘संश्लेषित’ भ्रूण में तबदील कर देना।

एक समस्या यह भी आएगी कि भ्रूण तैयार हो जाने के बाद उनके विकास के लिए कोख का इंतज़ाम करना। इसके लिए टीम को कृत्रिम कोख का इस्तेमाल करना ज़्यादा मुफीद लग रहा है क्योंकि हाथी की कोख में विकसित होने के दौरान मैमथ भ्रूण का विकास प्रभावित हो सकता है। लिहाज़ा स्टेम कोशिकाओं से ही कोख तैयार करने की योजना है।

दरअसल, शोधकर्ताओं के लिए यह प्रयास जोखिमग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण की दिशा में कदम है। और इससे जीव वैज्ञानिक शोध में मदद मिलने की भी उम्मीद है। जैसे वैकासिक जीव वैज्ञानिक विंसेंट लिंच का विचार है कि हाथियों की स्टेम कोशिकाओं पर प्रयोग यह समझा सकते हैं कि हाथियों को कैंसर इतना कम क्यों होता है। (स्रोत फीचर्स)

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पक्षी भी करते हैं ‘पहले आप!’, ‘पहले आप!’

हाथ हिलाकर विदा कहना, झुककर अभिवादन करना, ठेंगा दिखाना, ऐसे कई इशारे या भंगिमाएं हम अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने आपस में इसी तरह मेलजोल करते एक ‘शिष्ट’ पक्षी जोड़े को देखा है।
जापान के नागानो में लिए गए वीडियो में दो जापानी टिट पक्षी (Parus minor) कैद हुए हैं। वीडियो में दिखता है कि जब पक्षियों का ये जोड़ा अपने चूज़ों के लिए भोजन लेकर घोंसले को लौटता है तो मादा घोंसले के पास वाली डाल पर जाकर बैठ जाती है और पंख फड़फड़ा कर अपने साथी को पहले घोंसले में जाने का इशारा करती है। जब साथी घोंसले के अंदर चला जाता है तो उसके पीछे-पीछे वह भी घोंसले मे चली जाती है।
करीब 8 पैरस माइनर जोड़ों के 300 से अधिक बार घोंसले में लौटने के अवलोकनों से पता चला कि मादाओं का फड़फड़ाना अधिक था; वे फड़फड़ा कर ज़ाहिर करती हैं कि उनके साथी पहले घोंसले में जाएं और वे उनके अंदर जाने तक रुकी रहती हैं। लेकिन जब मादा पंख नहीं फड़फड़ाती तो इसका मतलब होता है वह पहले घोंसले में जाना चाहती है। पक्षियों में ‘पहले आप’ की शिष्टता उजागर करते ये नतीजे करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
मादा पंख फड़फड़ाते हुए अपने साथी की ओर मुखातिब थी, न कि घोंसले की ओर। इससे पता चलता है वह केवल घोंसले का पता नहीं बता रही थी बल्कि कोई संदेश भी दे रही थी। रुचि की किसी चीज़ की ओर ध्यान आकर्षित करने का व्यवहार कौवों सहित अन्य पक्षियों में देखा गया है, लेकिन सांकेतिक इशारों को अधिक जटिल माना जाता है। इस तरह से संदेश देने के व्यवहार इसके पहले प्रायमेट्स के अलावा अन्य किसी प्राणि में नहीं देखे गए हैं।
इसका वीडियो यहां देख सकते हैं: https://www.science.org/content/article/after-you-female-bird-s-flutter-conveys-polite-message-her-mate (स्रोत फीचर्स)

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डिप्रेशन की दवाइयां और चूहों पर प्रयोग

जब डिप्रेशन यानी अवसाद के लिए कोई दवा विकसित होती है तो उसका परीक्षण कैसे किया जाता है? पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों के पास एक सरल सा परीक्षण रहा है। 1977 में निर्मित इस परीक्षण को जबरन तैराकी परीक्षण (forced swim test FST) कहते हैं। यह परीक्षण इस धारणा पर टिका है कि कोई अवसादग्रस्त जंतु जल्दी ही हाथ डाल देगा। लगता था कि यह परीक्षण कारगर है। देखा गया था कि डिप्रेशन-रोधी दवाइयां और इलेक्ट्रोकंवल्सिव थेरपी (ईसीटी या सरल शब्दों में बिजली के झटके) देने पर जंतु हार मानने से पहले थोड़ी ज़्यादा कोशिश करते हैं। यह परीक्षण इतना लोकप्रिय है कि हर साल लगभग 600 शोध पत्रों में इसका उल्लेख होता है।
जबरन तैराकी परीक्षण में किया यह जाता है कि किसी चूहे को पानी भरे एक टब में छोड़ दिया जाता है और यह देखा जाता है कि वह कब तक तैरने की कोशिश करता है और कितनी देर बाद कोशिश करना छोड़ देता है। ऐसा देखा गया है कि अवसाद-रोधी दवा देने के बाद चूहे ज़्यादा देर तक तैरने की कोशिश करते हैं।
परीक्षण में कई अगर-मगर होते हैं। जैसे चूहे के प्रदर्शन पर इस बात का असर पड़ता है कि वह पहले से कितने तनाव में था। यह भी देखा गया है कि चतुर चूहे समझ जाते हैं कि अंतत: शोधकर्ता उन्हें सुरक्षित बचा लेंगे। और सबसे बड़ी बात यह है कि चूहों पर असर के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह दवा मनुष्यों पर भी काम करेगी। इन दिक्कतों के चलते जंतु अधिकार कार्यकर्ता (जैसे पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स यानी पेटा) इस परीक्षण पर सवाल उठाते रहे हैं।
कुछ समय से शोधकर्ताओं के बीच भी इस परीक्षण को लेकर शंकाएं पैदा होने लगी हैं। खास तौर से इस बात को लेकर संदेह जताए जा रहे हैं कि क्या यह परीक्षण इस बात का सही पूर्वानुमान कर पाता है कि कोई अवसाद-रोधी दवा मनुष्यों पर कारगर होगी। इस परीक्षण का विरोध बढ़ता जा रहा है। एक चिंता यह है कि जबरन तैराकी परीक्षण निहायत क्रूर है और परिणाम सटीक नहीं होते।
2023 में ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय स्वास्थ्य व चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने कह दिया था कि वह जबरन तैराकी परीक्षण करने वाले अनुसंधान के लिए पैसा नहीं देगी। यू.के. में निर्देश है कि यदि इस परीक्षण का उपयोग करना है तो उसे उचित ठहराने का कारण बताना होगा। फिर ऑस्ट्रेलिया के प्रांत न्यू साउथ वेल्स ने इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया। कम से कम 13 बड़ी दवा कंपनियों ने कहा है कि वे इस परीक्षण का उपयोग नहीं करेंगी। यूएस में प्रतिबंध तो नहीं लगाया गया है किंतु इसे निरुत्साहित करने की नीति बनाई है।
इस सबका एक सकारात्मक असर यह हुआ है कि शोधकर्ता अब नए वैकल्पिक परीक्षणों की तलाश कर रहे हैं। खास तौर से यह देखने की कोशिश की जा रही है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े व्यवहारों की पड़ताल की जाए। जैसे जीवन का आनंद, नींद का उम्दा पैटर्न, तनाव के प्रति लचीलापन वगैरह। सोच यह है कि अवसाद को एक स्वतंत्र तकलीफ न माना जाए बल्कि कई मानसिक विकारों के हिस्से के रूप में देखा जाए। अलबत्ता, तथ्य यह है कि 2018 से 2020 के बीच अवसाद से सम्बंधित 60 प्रतिशत शोध पत्रों में जबरन तैराकी परीक्षण का उपयोग किया गया और बताया गया कि ‘यह अवसादनुमा व्यवहार’ का उपयुक्त द्योतक है।
बहरहाल, नए परीक्षणों की तलाश जारी है। जैसे फरवरी में न्यूरोसायकोफार्मेकोलॉजी जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र में औषधि वैज्ञानिक मार्को बोर्टोलेटो ने ऐसे ही परीक्षण की जानकारी दी है। इस परीक्षण में चूहे को यह सीखना होता है कि वह पानी से बाहर निकलने के लिए वहां बने प्लेटफॉर्म्स पर चढ़ सकता है लेकिन जब वह उन पर चढ़ता है तो वे डूब जाते हैं। परीक्षण में यह देखा जाता है कि चूहा एक स्थिर प्लेटफॉर्म ढूंढने की कोशिश कब तक जारी रखता है। एक परीक्षण में पता चला कि चूहों को अवसाद-रोधी दवा प्लोक्ज़ेटिन देने पर या उन्हें कसरत कराने पर वे देर तक कोशिश करते रहे।
ऐसा ही एक विकल्प तंत्रिका वैज्ञानिक मॉरिट्ज़ रोसनर भी विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। अपने परीक्षण का उपयोग करते हुए उन्होंने दर्शाया है कि बायपोलर तकलीफ की दवा लीथियम देने पर चूहों का प्रदर्शन बेहतर रहा। उनके परीक्षण में एक नहीं बल्कि 11 व्यवहारों का अवलोकन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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परवाने रोशनी के आसपास क्यों मंडराते हैं?

ह तो हम भली-भांति जानते हैं कि तरह-तरह के कीट-पतंगे मोमबत्ती, बल्ब-टूयबलाइट जैसी कृत्रिम रोशनियों की ओर खिंचे चले आते हैं। दिए जलते ही वे उनके आसपास मंडराने लगते हैं। शायद इसी अनुभव से प्रेरित होकर किसी शायर ने कहा है –

कितने परवाने जले राज़ ये पाने के लिए,

शमा जलने के लिए है या जलाने के लिए।

लेकिन हाल ही में परवानों यानी कीट-पतंगों पर किया गया अध्ययन इस राज़ का खुलासा करता है कि क्यों वे कृत्रिम रोशनियों की ओर खिंचे चले आते हैं और उनके चक्कर काटते हैं।

इस बात की पड़ताल तो लंबे समय से चली आ रही थी जिसने हमें इसकी कई व्याख्याएं भी दीं; जैसे वे इन रोशनियों के स्रोत को चंद्रमा समझ कर दिशा निर्धारण के लिए इनका उपयोग करते हैं, या वे रोशनी नहीं बल्कि गर्मी से आकर्षित होते हैं। शोधकर्ता उनके बारे में थोड़ा गहराई से समझना चाहते थे। इसलिए उन्होंने रोशनी के आसपास मंडराते कीट-पतंगों की हरकतों को मोशन-कैप्चर कैमरा और स्टीरियो वीडियोग्राफी से रिकॉर्ड किया।

उनकी फुटेज देखने से पता चला कि कीट-पतंगे अपनी पीठ हमेशा रोशनी की ओर रखने का प्रयास करते हैं – यह प्रयास पृष्ठीय प्रकाश प्रतिक्रिया कहलाती है। पीठ हमेशा रोशनी की ओर झुकाने के प्रयास में वे रोशनी के चक्र में फंस जाते हैं और उसी के आसपास मंडराते रहते हैं। गौरतलब है कि पृष्ठीय प्रकाश प्रतिक्रिया कीट-पतंगों को ऊपर-नीचे का निर्धारण करने और सही उन्मुखीकरण में बने रहने में मदद करती है। इसका मुख्य कारण यह है कि सामान्यत: परिवेश का ज़्यादा चमकीला हिस्सा ऊपर की ओर होता है। लेकिन कृत्रिम प्रकाश में यही चमक उन्हें भ्रम में डाल देती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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यह उभयचर अपने शिशुओं को ‘दूध’ पिलाता है

शिशु के विकास और पोषण के लिए जन्म के बाद अपने शरीर में बनने वाले पोषक द्रव का शिशु को पान कराना स्तनधारी प्राणियों का प्रमुख लक्षण माना जाता है। लेकिन स्तनधारियों के अलावा भी चंद जीव ऐसे हैं जो अपने शिशुओं को अपने शरीर में बनने वाले पोषक द्रव पिलाते हैं; जैसे कुछ मछलियां, मकड़ियां, कीट और पक्षी। हाल ही में पोषकपान कराने वालों की इस फेहरिस्त में अब एक सेसिलियन (नेत्र विहीन कृमिनुमा उभयचर) जीव साइफोनॉप्स एनुलैटस भी जुड़ गया है जो अंडे से बाहर निकली अपनी नवजात संतानों के लिए ‘दूध’ बनाता है और पिलाता है।

उपोष्णकटिबंधीय इलाकों में पाए जाने वाले ये नीले-काले रंग के उभयचर कृमि सरीखे दिखते हैं। और अपना अधिकांश समय भूमि के अंदर बिताते हैं। चूंकि ये अधिकांश समय अंधकार में रहते हैं तो इनमें तथाकथित ‘देखने’ की क्षमता नहीं होती है।

पूर्व में वैज्ञानिकों ने पाया था कि सेसिलियन की कुछ प्रजातियों के शिशुओं में दांत आते हैं, और वे लगभग हर सातवें दिन अपनी मां की पोषक तत्वों से भरपूर त्वचा परत को खाते हैं – नई पोषक त्वचा बनने में इतना समय तो लग ही जाता है। लेकिन बुटान्टन इंस्टिट्यूट के प्रकृतिविद मार्टा एंटोनियाज़ी और कार्लोस जेरेड को यह बात थोड़ी अजीब लगी कि नवजात हफ्ते में केवल एक बार पोषण पाते हैं। जबकि उन्हें विकास के लिए समय-समय पर भरपूर पोषण चाहिए होता है। हफ्ते में एक बार का भोजन तो विकास के लिए पर्याप्त नहीं लगता।

इसलिए उन्होंने इन शिशु उभयचरों के विचित्र भोजन व्यवहार को विस्तार से जानना तय किया। उन्होंने ब्राज़ील के अटलांटिक वन से साइफोनॉप्स एनुलैटस प्रजाति के 16 जच्चा और उनके नवजात बच्चों को एकत्र किया, और वीडियो के माध्यम से उनकी गतिविधियों पर नज़र रखी।

200 घंटे से अधिक लंबे फुटेज के विश्लेषण से पता चला कि नवजात पोषण के लिए अपनी मां की त्वचा को तो कुतरते ही हैं, साथ-साथ वे मां के क्लोएका से निकलने वाले वसा और कार्बोहाइड्रेट युक्त पोषक पदार्थ का सेवन भी करते हैं। क्लोएका शरीर के पीछे की ओर स्थित आहार नाल और जनन मार्ग का साझा निकास द्वार होता है। मां उनके लिए इस तरल का स्राव करे, इसके लिए शिशु तेज़ आवाज़ें निकालते हैं, और अपना सिर मां के क्लोएका में घुसाकर ‘दूध’ पीते हैं।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित ये अप्रत्याशित नतीजे सेसिलियन जीवों पर और अधिक अध्ययन की ज़रूरत को भी रेखांकित करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जंतु भी घात लगाकर शिकार करते हैं

घोंघों की पीठ पर कैल्शियम कार्बोनेट से बनी खोल एक कवच का काम करती है और उन्हें शिकारियों से बचाती है। लेकिन उनके शिकारी भी कोई कम शातिर नहीं हैं; वे शिकार के तरीके ढूंढ निकालते हैं। हालिया अध्ययन में ऐसा ही एक तरीका पता चला है, जिसमें घोंघों का शिकारी – क्लिक बीटल (भृंग) का लार्वा – अपने मांदनुमा घोंसले में घात लगाए बैठा होता है। क्लिक बीटल में शिकार की यह रणनीति पहली बार देखी गई है।

क्लिक बीटल एलाटेरिडे कुल के सदस्य है और जुगनुओं के सम्बंधी हैं। क्लिक बीटल अपनी ‘क्लिक’ की आवाज़ के लिए प्रसिद्ध हैं। ये बीटल्स वक्ष पर मौजूद कांटे का लीवर की तरह उपयोग कर हवा में उछलते हैं और कांटे से चटकने (क्लिक) की आवाज़ पैदा होती है।

देखा गया है कि क्लिक बीटल की कई प्रजातियां लार्वा अवस्था में शिकारी होती हैं। ब्राज़ील में पाई जाने वाली इनकी एक प्रजाति शिकार को फांसने के लिए अपनी नैसर्गिक जैवदीप्ति का सहारा लेती है, और फ्लोरिडा में पाई जाने वाली एक अन्य प्रजाति कछुए के अंडों को तोड़ कर उन्हें चट कर जाती है।

एक तरह का क्लिक बीटल, ड्रिलिनी, घोंघों का शिकार करता है। घोंघों का शिकार करने के लिए ड्रिलिनी पहले तो घोंघा द्वारा पीछे छोड़े गए चिपचिपे पदार्थ की लकीर का पीछा करके उनके ठिकाने का पता लगाता है, और वहां पहुंच जाता है। जब उसे घोंघा मिल जाता है तो वह अपने डंकनुमा मुखांग से उसके कठोर कवच में छेद करके उस पर काबू कर लेता है और शिकार बना लेता है। कई बार वह एक विष का भी उपयोग करता है।

लेकिन इकॉलॉजी में प्रकाशित हालिया अध्ययन में शिकार करती पाई गई क्लिक बीटल की प्रजाति एन्थ्राकेलौस साकागुची के पास कोई विशिष्ट हथियार नहीं होता बल्कि वह नीचे से वार करके चौंकाने की मदद लेता है।

जापान के ऋयुक्युस द्वीप पर रहने वाले क्लिक बीटल का लार्वा भूमि के नीचे बनी अपनी मांद में बैठा रहता है, और ऊपर से घोंघों के गुज़रने का इंतज़ार करता है। जैसे ही घोंघा ऊपर से गुज़रता है, लार्वा नीचे से उसके नरम और कवच-विहीन शरीर को पकड़ लेता है और अंदर खींचकर खा जाता है। घोंघे का खाली-खोखला कवच भूमि के ऊपर पड़ा रह जाता है।

दरअसल इन घोंघों के बारे में तब पता चला जब टोक्यो मेट्रोपोलिटन युनिवर्सिटी के कीटविज्ञानी नोज़ोमु सातो और उनके एक सहयोगी ऋयुक्युस के कुमे द्वीप पर घोंघा सर्वेक्षण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि कई घोंघे मृत पड़े हैं और उनका नरम शरीर नीचे ज़मीन में बने बिलों में खींचा गया है। इन बिलों को खोदने पर उन्हें लार्वा मिले। लेकिन उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि ये लार्वा क्लिक बीटल के हैं, वे तो इन्हें जुगनुओं के लार्वा समझ रहे थे। खैर, इन्हें वे अपनी प्रयोगशाला में ले आए और पाला। जब वे विकसित हुए तो पता चला कि ये तो ए. साकागुची क्लिक बीटल के लार्वा थे।

शोधकर्ता अब यह जानना चाहते हैं कि क्या ए. साकागुची के लार्वा घोघों को ऊपर से गुज़रने के लिए कोई प्रलोभन देते हैं या रंग वगैरह से आकर्षित करते हैं, या बस घात लगाए बैठे रहते हैं। साथ ही वे यह भी देखना चाहते हैं कि मृत पड़े झींगुर और तिलचट्टे भी क्या ए. साकागुची का शिकार बनते हैं या सिर्फ घोंघे ही इनका शिकार बनते हैं। हालांकि झींगुर और तिलचट्टों के मृत शरीर साबुत पड़े थे, किसी के द्वारा खाए नहीं गए थे।

इस अध्ययन से एक बात यह प्रकाश में आती है कि कीटों की वयस्क अवस्था पर तो काफी अध्ययन हुए हैं और उनके बारे में हमें मालूमात है, लेकिन उनके लार्वा अनदेखे ही रहे हैं और उनके बारे में हम बहुत कम जानते हैं। इन पर अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

लार्वा का हमला देखने के लिए इस लिंक पर जाएं – https://www.science.org/content/article/watch-beetle-larva-ambush-snails-below-dragging-them-their-demise

उसकी उछाल देखने और क्लिक की आवाज़ सुनने के लिए इस लिंक पर जाएं – https://youtu.be/uH4roWTUMoA?si=FOs7uzaSq6xiXlTQ

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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