धरती की सीमाएं: लांघना नहीं था, हमने लांघ दिया

सीमा मुंडोली

में सुरक्षित क्या महसूस कराता है? भरोसेमंद दोस्तों और परिवार का साथ। एक ऐसा जाना-पहचाना माहौल (safe environment) जो हमें निश्चिंत रखता है और जहां हमारे द्वारा तय की गई सीमा रेखाओं/हदों का सम्मान (personal boundaries) होता है।

आखिरी बात हमारे एकमात्र घर (planet Earth) धरती के लिए भी सच है।

धरती पर जीवन लगभग 3.7 अरब साल पहले एक-कोशिकीय जीव के रूप में शुरू हुआ था। लेकिन हमें – होमो सेपियंस को – पृथ्वी पर अस्तित्व में आने में बहुत ज़्यादा समय लगा। हम महज़ 3,00,000 साल पहले ही अफ्रीका में विकसित हुए। उसके बाद मनुष्य अफ्रीका से निकलकर तमाम महाद्वीपों में फैल गए। हिमयुग के बाद, पिछले 12,000 साल – होलोसीन काल (Holocene epoch)– वह समय था जब खेती की शुरुआत, शहरों के बसने और तेज़ी से आबादी बढ़ने के साथ बड़े-बड़े बदलाव हुए। होलोसीन के दौरान स्थिर मौसम (stable climate) ने मनुष्य के जीवन और नैसर्गिक प्रणाली को फलने-फूलने में मदद की।

फिर औद्योगिक क्रांति आई, जिसमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल (industrial pollution) बढ़ा और प्रदूषण जैसे बुरे पर्यावरणीय असर भी हुए। एक बार जब हम औद्योगिकीकरण के रास्ते पर चल पड़े तो हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1970 के दशक तक, यह स्पष्ट होता गया था कि सालों की औद्योगिक गतिविधियों ने प्राकृतिक पर्यावरण को नुकसान (environmental degradation) पहुंचाया है – नदियां प्रदूषित हुई हैं, हवा ज़हरीली हुई है, जंगल कट गए हैं और समंदरों की हालत खराब हो गई है।

किंतु सवाल बना रहा: कितना नुकसान हद से ज़्यादा है?

2009 में, जोहान रॉकस्ट्रॉम ने अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर ग्रह पर मनुष्य के प्रभाव के पैमाने का अंदाज़ा लगाने के लिए प्लेनेटरी बाउंड्रीज़ (Planetary Boundaries) फ्रेमवर्क का प्रस्ताव रखा। उन्होंने नौ सीमा रेखाओं (प्लेनेटरी बाउंड्रीज़- environmental thresholds) की पहचान की, जिन्हें अगर लांघा गया तो पृथ्वी की कार्यप्रणाली डगमगा सकती है। हद में रहने से यह सुनिश्चित होगा कि हम एक सुरक्षित कामकाजी दायरे में रहेंगे। ये नौ सीमा रेखाएं हैं: जलवायु परिवर्तन, जैवमण्डल समग्रता, भू-प्रणाली परिवर्तन, मीठे पानी में बदलाव, जैव भू-रसायन चक्र, समुद्र अम्लीकरण, वायुमंडलीय एरोसोल (निलंबित कणीय पदार्थ) का भार, समतापमंडल में ओज़ोन क्षरण और नवीन कारक।

इनमें से हर सीमा के लिए वैज्ञानिकों ने एक या दो मात्रात्मक परिवर्ती मानक तय किए, जिनके आधार पर हम यह जांच सकते हैं कि पृथ्वी की वह प्रणाली क्या सुरक्षित सीमा के अंदर है। मसलन, जलवायु परिवर्तन की सीमा में परिवर्ती कारकों में से एक है कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता (CO2 concentration), जिसे पार्ट्स पर मिलियन (ppm) में मापा जाता है। इसकी सांद्रता की सीमा 350ppm तय की गई है। और कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता इससे अधिक होने या सीमा पार करने का मतलब है कि ग्रह की प्रणाली पर खतरा बहुत तेज़ी से बढ़ेगा।

जब 2009 में यह फ्रेमवर्क पहली बार पेश किया गया था, तब ग्रह की तीन हदों – जलवायु परिवर्तन, जैवमंडल समग्रता और भू-जैवरसायन चक्र – का उल्लंघन हो भी चुका था। यह एक चेतावनी थी कि ग्रह स्तर पर हम मुश्किल में थे। 2015 तक, भू-प्रणाली बदलाव का उल्लंघन हो चुका था। 2023 में दो और सीमाएं उल्लंघन की सूची में जुड़ गई थीं – नए कारक और मीठा पानी परिवर्तन (freshwater change)। और अब, सितंबर 2025 में हमने एक और सीमा को लांघ दिया है – समुद्र अम्लीकरण (तालिका देखें) (ocean acidification) ये सीमाएं 15 साल पूर्व पहली बार इस उम्मीद के साथ प्रस्तावित की गई थीं कि हमें यह समझने में मदद मिले कि मनुष्य की गतिविधियों का पृथ्वी पर क्या असर पड़ रहा है, और हमें तुरंत सुधार के लिए कदम उठाने का तकाज़ा मिले। तब से हम नौ में से सात सीमाओं का उल्लंघन कर चुके हैं।

इसका क्या मतलब है? सीधे शब्दों में: हमारी पृथ्वी अब स्वस्थ नहीं रही (planetary health)

फिलहाल वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता 423ppm है, जो 350ppm की सुरक्षित सीमा से बहुत अधिक है। नतीजतन पृथ्वी तेज़ी से गर्म हो रही है, बर्फ की चादरें पिघल रही हैं, समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और तटवर्ती इलाके खतरे में हैं।

जैवमंडल समग्रता (biosphere integrity) सीमा भी बहुत ज़्यादा खतरे में है। सजीवों के विलुप्त होने की दर पहले से दस गुना अधिक है, और दुनिया भर के कई पारिस्थितिकी तंत्र बहुत ज़्यादा खतरे में हैं। संभव है कि हमारे द्वारा खोजे जाने से पहले ही कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएं। अकेले 2024 में, पक्षियों की कई प्रजातियां (जैसे स्लेंडर-बिल्ड कर्ल्यू और ओउ), मछलियों की प्रजातियां (जैसे थ्रेसियन शैड और चीम व्हाइटफिश), और अकशेरुकी जीव (जैसे कैप्टन कुक्स बीन स्नेल) विलुप्त घोषित कर दिए गए। 2024 की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 50 सालों में जंगली जानवरों की आबादी में 73 प्रतिशत की भारी गिरावट (biodiversity loss) आई है – इस मामले में समुद्री, थलीय और मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र समान रूप से प्रभावित हैं। दुखद तथ्य यह है कि विलुप्ति निश्चित है और इसे पलटा नहीं जा सकता। विलुप्त होने से जेनेटिक विविधता खत्म हो जाती है और पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यात्मक क्षमता कम हो जाती है। कितना दुखद है कि हम उन प्रजातियों को फिर कभी नहीं देख पाएंगे जो कभी इस ग्रह पर हमारे साथ रहती थी।

हाल ही में समुद्र के अम्लीकरण की सीमा का उल्लंघन खास चिंता की बात है। समुद्र हमारे ग्रह के 70 प्रतिशत हिस्से पर मौजूद हैं, और कुल कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग एक चौथाई हिस्सा सोख (carbon sink) लेते हैं। वे लंबे समय से हमारे लिए उत्सर्जन के सोख्ता की तरह काम करते रहे हैं। साथ ही ये अपने अंदर बहुत अधिक जैव विविधता को बनाए हुए हैं और लाखों लोगों को भोजन देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे समुद्र ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, वे अधिक अम्लीय होते जाते हैं। इससे कोरल का क्षरण (कोरल ब्लीचिंग) होता है – अनगिनत समुद्री प्रजातियों का प्राकृतवास खत्म (marine ecosystem decline) हो जाता है। और समुद्री जीवों के खोल और कंकाल कमज़ोर हो जाते हैं, जिससे उन्हें ‘ऑस्टियोपोरोसिस’ हो जाता है। समुद्र के अम्लीकरण की सीमा पार करने का मतलब है बड़े-बड़े बदलाव। ऐसी घटनाएं शुरू हो गई हैं जिनके असर का हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते।

हर लांघी गई सीमा अन्य स्थितियों/सीमाओं को और बदतर करती है, जिससे एक दुष्चक्र (vicious cycle) बनता है जो पृथ्वी को अस्थिरता के और करीब ले जाता है। हमें यह भी याद रखना होगा कि ग्रह की सीमा रेखाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जैसे भू-प्रणाली में परिवर्तन, जिसमें खेती या जानवर पालने के लिए जंगल कटाई से जैवविविधता की क्षति होगी और कार्बन का अवशोषण कम होगा, जिससे जलवायु परिवर्तन और तेज़ होगा (deforestation impact)। पानी में बढ़े हुए नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के साथ बदले हुए भू-जैव-रासायनिक मृत क्षेत्र बनते हैं जो बदले में ताज़े पानी की उपलब्धता और जैवविविधता पर असर डालते हैं। हर सीमा दूसरी सीमा से जुड़ी है जिससे खतरा बढ़ जाता है।

ग्रहों की सीमा रेखाओं के उल्लंघन की विशिष्ट जवाबदेही तय नहीं हो पाई है, खासकर इसलिए क्योंकि पश्चिम के कुछ अमीर देशों के उपभोग ने ऐतिहासिक रूप से सीमाओं के उल्लंघन में अधिक योगदान दिया है – और यह जारी है। लेकिन ग्रह-स्तरीय सीमा की अवधारणा ने हमें पृथ्वी पर मनुष्य की गतिविधियों (human impact) के असर का वैज्ञानिक और मात्रात्मक तरीके से आकलन करने के लिए एक फ्रेमवर्क ज़रूर दिया है। हमें 2009 में ही सावधान हो जाना चाहिए था, जब सिर्फ तीन सीमाएं पार हुई थीं, और समझ जाना चाहिए था कि धरती पर मनुष्यों के क्रियाकलापों के कैसे-कैसे बुरे प्रभाव पड़ेंगे।

लेकिन तब हमने अनसुना-अनदेखा कर दिया। अधिकांश दुनिया वैसे ही काम करती रही, बीच-बीच में कुछ मामूली सुधार होते रहे। अब, 2025 में जब नौ में से सात सीमा रेखाएं पार हो चुकी हैं, तो हम सुरक्षित नहीं हैं (climate emergency)।

लेकिन सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, अगर हम याद रखें कि हम इस मुश्किल में एक साथ हैं। उस तरह, जिस तरह हम लांघी गई एक सीमा रेखा – ओज़ोन परत के क्षरण (ozone depletion) – को पलटने के लिए एकजुट हुए थे। 1985 में वैज्ञानिकों ने बताया था कि रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर वगैरह में इस्तेमाल होने वाले रसायनों की वजह से ओज़ोन परत में छेद हो गया था। ओज़ोन परत में छेद का मतलब था कि अब हमारे पास सूरज की पराबैंगनी किरणों से कोई सुरक्षा नहीं थी, जिससे हम त्वचा कैंसर के शिकार हो सकते थे और कई पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में पड़ सकते थे। तब सरकारें मॉन्ट्रियल संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए साथ आईं (global cooperation), जिसमें ओज़ोन में छेद करने वाले रसायनों का इस्तेमाल धीरे-धीरे खत्म करने का वादा किया गया था। प्रयास सफल रहे।

यह सफलता हमें याद दिलाती है: अगर एक सीमा रेखा (planetary boundary) के उल्लंघन को पलट सकते हैं, तो हम ऐसा फिर से कर सकते हैं। हमारा – और पृथ्वी पर जीवित हर प्राणी का – भविष्य इस पर निर्भर करता है। (स्रोत फीचर्स)  

तालिका: ग्रह की नौ सीमा रेखाएं और उनकी स्थिति

सीमाव्याख्यास्थिति
जलवायु परिवर्तनजीवाश्म ईंधन जलाने से ग्रीनहाउस गैसों और एरोसोल का उत्सर्जन होता है, जिससे जलवायु गर्माती है। नतीजतन बर्फ की चादरें पिघलती हैं, समुद्र का स्तर बढ़ता है।उल्लंघन हो चुका
जैवमण्डल की समग्रता में परिवर्तनप्राकृतिक संसाधनों का दोहन, आक्रामक प्रजातियों का आना और ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव। इससे जेनेटिक विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत में गिरावट आती है।उल्लंघन हो चुका
भू-प्रणाली में परिवर्तनशहरीकरण, पशुपालन और खेती के लिए जंगल काटकर ज़मीन बनाना। इससे कार्बन सोखने की क्षमता और अन्य पारिस्थिकीय कार्यों में कमी आती है।उल्लंघन हो चुका
मीठे पानी में परिवर्तनखेती, उद्योगों और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी की बढ़ती खपत। ब्लू वॉटर (जैसे नदियां और झीलें) और ग्रीन वॉटर (मिट्टी की नमी) का खराब होना, कार्बन भंडारण और जैव विविधता पर असर डालता है।उल्लंघन हो चुका
भू-जैव-रसायन में परिवर्तनफॉस्फोरस व नाइट्रोजन वाले औद्योंगिक उर्वरकों के ज़्यादा इस्तेमाल से समुद्री और मीठे पानी तंत्र में मृत क्षेत्र बनते हैं।उल्लंघन हो चुका
समुद्र अम्लीकरणजीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है जिसे समुद्र सोख लेता है और अम्लीय हो जाता है। समुद्री जीवों के खोल को नुकसान होता है और पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो जाता है।उल्लंघन हो चुका
नए कारकउद्योगों, खेती और उपभोक्ता सामान से निकलने वाले कृत्रिम रसायन प्राकृतिक चक्र को बाधित करते हैं। और मनुष्य और जैव विविधता को हमेशा की क्षति का खतरा पैदा करते हैं।उल्लंघन हो चुका
वायुमण्डलीय एरोसोल में बढ़ोतरीजीवाश्म ईंधन के जलने और औद्योगिक गतिविधियों से हवा में मौजूद कणीय पदार्थ बढ़ते हैं, जिससे मौसम के पैटर्न में बदलाव आता है, खासकर तापमान और बारिश में।सुरक्षित सीमा में
ओज़ोन में क्षरणसिंथेटिक क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) और नाइट्रस ऑक्साइड के उत्पादन और उत्सर्जन से ओज़ोन परत पतली होती है और नुकसानदायक पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुंचती हैं।सुरक्षित सीमा में

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ईरान में गहराता जल संकट

रान इस समय अपने इतिहास के सबसे गंभीर जल संकट (Iran water crisis) से गुज़र रहा है। हालात निरंतर खराब हो रहे हैं। तेहरान शहर की जल आपूर्ति वाले बांध लगभग खाली हो चुके हैं (water shortage) और सरकार देश के लिए पीने का पानी जुटाने के लिए जूझ रही है। लंबे सूखे, तेज़ गर्मी, कुप्रबंधन, बढ़ती आबादी, आर्थिक मुश्किलों, पुरानी कृषि प्रणालियों और जलवायु परिवर्तन (climate change) के मिले-जुले कारणों से देश बेहद कठिन स्थिति में पहुंच गया है।

गौरतलब है कि करीब 1 करोड़ आबादी वाले तेहरान की जल आपूर्ति पांच बड़े बांधों से होती है, लेकिन इन बांधों में अब अपनी सामान्य क्षमता से सिर्फ 10 प्रतिशत (dam depletion) पानी है। देश में 19 बांध सूखने की कगार पर हैं। करज जैसे भरोसेमंद जलाशय भी इतनी तेज़ी से सिकुड़ रहे हैं कि लोग यहां चहल-कदमी कर रहे हैं।

राष्ट्रपति मसूद पेज़ेश्कियन ने चेतावनी दी है कि अगर जल्द बारिश नहीं हुई, तो तेहरान में सख्त पानी राशन (water rationing) या सबसे बुरी स्थिति में कुछ इलाकों को खाली कराने तक की नौबत आ सकती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि पूरा शहर खाली होना मुश्किल है, लेकिन यह चेतावनी हालात की गंभीरता दिखाती है।

ईरान पिछले छह वर्षों से लगातार सूखे (drought conditions) का सामना कर रहा है। पिछले साल गर्मियों का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक दर्ज किया गया था जिससे पानी तेज़ी से वाष्पित हुआ और पहले से कमज़ोर जल–प्रणालियों पर दबाव और बढ़ गया। पिछला जल-वर्ष सबसे सूखे वर्षों में से एक रिकॉर्ड किया गया था, और इस साल की स्थिति उससे भी खराब है। नवंबर की शुरुआत तक ईरान में सिर्फ 2.3 मि.मी.बारिश हुई – जो सामान्य औसत से 81 प्रतिशत कम है। बारिश और बर्फबारी न होने की वजह से बांध, नदियां और जलाशय तेज़ी से सिमट़ गए हैं।

जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी इस संकट को और गंभीर बना रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि इस स्थिति के लिए दशकों का खराब प्रबंधन (water mismanagement) भी उतना ही ज़िम्मेदार है। ईरान ने कृषि और उद्योग को बढ़ाने की कोशिश तो की, लेकिन पानी की सीमाओं को ध्यान में नहीं रखा। सरकार लगातार नए बांध बनाती रही, गहरे कुएं खोदती रही और दूर-दराज़ के इलाकों से पानी खींचती रही – जैसे पानी की आपूर्ति कभी खत्म ही नहीं होगी।

यू.एन. विश्वविद्यालय के कावेह मदानी कहते हैं कि ईरान ने दशकों तक ऐसे व्यवहार किया जैसे उसके पास पानी अनंत मात्रा (unlimited water myth) में हो। आज पानी ही नहीं, बल्कि ऊर्जा और गैस प्रणालियां भी दबाव में हैं, जो संसाधन प्रबंधन की व्यापक विफलता दिखाता है।

सरकार ने चेतावनी दी है कि जल्द ही रात में पानी की सप्लाई बंद की जा सकती है, या पूरे देश में पानी की सख्त राशनिंग हो सकती (national water cuts) है। कई लोगों ने गर्मियों में अचानक पानी बंद होने का सामना किया था, जिससे जनता की नाराज़गी बढ़ी है।

अब पानी की कमी कई जगह तनाव और विरोध (water protest) का कारण बन रही है, खासकर गरीब इलाकों में। लंबे समय से चल रहे प्रतिबंधों, बेरोज़गारी, महंगाई और आर्थिक संकट ने लोगों की हालत पहले ही कमज़ोर कर दी है, इसलिए वे नए मुश्किल हालात झेल नहीं पा रहे।

सरकार ने लोगों से पानी कम इस्तेमाल करने और घरों में पानी स्टोरेज टैंक लगाने की अपील की है। लेकिन इस उपाय में एक बड़ी समस्या है – घरेलू उपभोग कुल पानी का सिर्फ 8 प्रतिशत है, जबकि 90 प्रतिशत से ज़्यादा पानी कृषि (agriculture water use) में जाता है। इसलिए अगर हर घर 20 प्रतिशत पानी कम भी इस्तेमाल करे, तो भी कुल मिलाकर इसका असर बहुत कम होगा।

ईरान के कानून के अनुसार, देश का 85 प्रतिशत भोजन घरेलू स्तर पर ही उगाया (food security policy) जाना चाहिए। इसका उद्देश्य तो खाद्य सुरक्षा है, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे जल सुरक्षा पर भारी असर पड़ा है। ईरान के पास इतना पानी और उपजाऊ ज़मीन ही नहीं है कि वह इतनी बड़ी मात्रा में खेती जारी रख सके। उधर, भूजल को इतनी तेज़ी से उलीचा जा रहा है कि इस्फहान जैसे मध्य क्षेत्रों में जमीन धंसने (land subsidence) लगी है। सिस्तान और बलूचिस्तान जैसे इलाकों में तो पूरे के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त होने की कगार पर हैं।

ईरान में सुधार की राह में एक बड़ा रोड़ा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध (international sanctions) हैं। इन प्रतिबंधों की वजह से विदेशी निवेश देश में नहीं आ पाता। असर यह है कि न तो आधुनिक जल प्रबंधन प्रणाली विकसित हो पाती है, न खेती की उन्नत तकनीकें अपनाई जा सकती हैं, और न ही असरदार पानी-रीसाइक्लिंग तकनीकें लगाई जा सकती हैं।

ग्रामीण इलाकों में ज़्यादातर लोग खेती पर निर्भर (rural agriculture dependence) हैं। प्रतिबंधों के चलते नए रोज़गार निर्मित करना मुश्किल है। इसी कारण सरकार कृषि क्षेत्र को पानी देती है। इससे लंबे समय में जल संकट बढ़ सकता है लेकिन सामाजिक अशांति और विरोध से बचने के लिए सरकार इसे अपना रही है।

विशेषज्ञों का मत है कि पानी के संकट से उबरने के लिए बड़े और लंबे समय के सुधार करने होंगे, जैसे:

  • भूजल का पुनर्भरण;
  • भूजल भंडार की मरम्मत;
  • पानी से जुड़ा स्पष्ट और पारदर्शी डैटा (water data transparency);
  • पानी, ऊर्जा व कृषि पर बराबर ध्यान देकर योजना बनाना;
  • स्थानीय समुदायों की भागीदारी;
  • लंबी अवधि वाली पर्यावरणीय नीतियां;
  • आधुनिक, कम पानी-खर्ची कृषि तकनीकें;
  • क्षेत्रों के बीच पानी के न्यायपूर्ण बंटवारे को प्राथमिकता।

यदि ये सुधार नहीं किए गए, तो पानी की कमी देश में सामाजिक व आर्थिक असमानता (water inequality) को और बढ़ा सकती है और अस्थिरता पैदा हो सकती है। असली सुधारों के लिए नीति-निर्माताओं को कठिन फैसले लेने की हिम्मत दिखाना होगा।

फिलहाल निगाहें सर्दियों की बारिश पर टिकी हैं। लेकिन विशेषज्ञ चेताते हैं कि चाहे बारिश अच्छी भी हो जाए, जब तक गंभीर सुधार नहीं किए जाते, ईरान को पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा (water scarcity future)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पंजों के जीवाश्म से जैव विकास पर नई रोशनी

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में मिले प्राचीन पंजों (Australia fossil discovery) के निशानों ने वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया है। इन निशानों से पता चलता है कि सरीसृप (जैसे छिपकली) (ancient reptile footprints) और उनके निकट सम्बंधी शायद हमारे अनुमान से करोड़ों साल पहले ही धरती पर आ गए थे। नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, ये निशान एम्नीओट्स (early amniotes) प्राणियों ने बनाए होंगे। इस समूह में सरीसृप, पक्षी और स्तनधारी आते हैं।

एम्नीओट्स की खास बात यह है कि ये ज़मीन पर अंडे (land egg-laying animals) देते हैं या भ्रूण को गर्भ में पालते हैं। इन अंडों के चारों ओर एक झिल्ली (amniotic egg evolution) होती है जो उसे सूखने से बचाती है। इन जीवों का अब तक का सबसे प्राचीन जीवाश्म कनाडा से मिला था, जो करीब 31.9 करोड़ साल पुराना था। लेकिन अब ऑस्ट्रेलिया में मिले इन निशानों से पता चलता है कि ये प्राणी इससे भी कम से कम 3.5 करोड़ साल पहले (Carboniferous period) से, यानी 35.5 करोड़ साल पहले से मौजूद थे। यह वही समय है जब कार्बोनिफेरस युग (उभयचर जीवों और सरीसृपों के उद्भव के दौर) की शुरुआत हुई थी।

ये निशान ऑस्ट्रेलिया स्थित विक्टोरिया (paleontology site Victoria) इलाके में ब्रोकन नदी (broken river fossil) के किनारे बलुआ पत्थर की एक चट्टान में मिले हैं। वहां के स्थानीय ताउंगुरंग आदिवासी इस जगह को ‘बेरेपिट’ (Indigenous heritage site) कहते हैं। उसी चट्टान में कुछ पुराने जलीय जीवों के अवशेष भी मिले हैं, जो बताते हैं कि ये निशान वाकई उस दौर के हो सकते हैं।

इस प्रकार के नुकीले और मुड़े हुए पंजे सिर्फ सरीसृपों (distinct claw fossil) में पाए जाते हैं, जबकि उभयचरों (जैसे मेंढकों) के ऐसे पंजे नहीं होते हैं। साथ ही पेट या पूंछ घसीटने के कोई निशान नहीं मिले, जिससे लगता है कि ये जानवर चलने (reptilian locomotion) में अपने शरीर को ऊपर उठा सकते थे। हालांकि, कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि शायद ये जीव उथले पानी (shallow water) में चलते होंगे, न कि पूरी तरह सूखी ज़मीन पर।

बहरहाल, यह खोज जीवन के कालक्रम की समझ को बदलती है और बताती है कि ज़मीन पर अंडे देने वाले प्राणी (land animals origin) हमारी सोच से कहीं पहले अस्तित्व में आ चुके थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एम्बर में छिपे सुनामी के सुराग

म्बर (amber)(राल) पेड़ों से रिसने वाला एक तरह का तरल (resin) पदार्थ है जो रिसने के बाद ठोस हो जाता है। इसमें प्राय: कीट, पेड़-पौधों के अवशेष, फूल-पत्तियां आदि फंसकर अश्मीभूत (fossilized) हो जाते हैं। और एक हालिया अध्ययन बताता है कि यह अपने में न सिर्फ सजीवों की जानकारी बल्कि अतीत में आई सुनामियों (tsunami records in amber) की निशानियां भी कैद कर सकता है।

जापान के होक्काइडो के पास समुद्र की प्राचीन चट्टानों (ancient rocks) में एक एम्बर मिला है। ऐसा लगता है कि यह पानी के अंदर ही सख्त होता गया (amber formation under sea) और अपने भीतर लाखों साल का इतिहास दर्ज करता गया।

भूमि पर तो एम्बर हवा के संपर्क की वजह से जल्दी सख्त (resin hardening) हो जाता है। लेकिन पानी में अधिक समय तक नरम-लचीला बना रहता है। इसी वजह से पानी के तेज़ थपेड़ों के निशान (underwater fossilization) इसमें दर्ज हो जाते हैं। वैज्ञानिकों ने जब इस एम्बर को पराबैंगनी रोशनी (UV Analysis) में देखा, तो इसके अंदर ऐसी आकृतियां दिखाई दीं (wave pattern in fossils) जो आग की लपटों और गेंद व तकिया जैसी थीं, और तेज़ लहरों का संकेत होती हैं।

चट्टानों के पास अश्मीभूत वनस्पतियों के टुकड़े और बहकर आई लकड़ियों के टुकड़े भी मिले हैं, जिससे लगता है कि लौटती सुनामी की ज़ोरदार लहरों के कारण तटवर्ती जंगल का मलबा(tsunami debris) बहकर समुद्र (costal forest fossil) में आ गया था। पास की तलछट की जांच करने पर मालूम हुआ कि ऐसा कई बार हुआ था और करीब 20 लाख वर्षों की अवधि में इस इलाके में कई बार सुनामी (paleotsunami evidence) आई थी।

यह खोज इसलिए खास है क्योंकि तटों पर अतीत में आई सुनामी के सबूत मिलना(ancient disaster records) मुश्किल होते हैं। हवा और लहरें उनके निशान मिटा देती हैं, और सुनामी से हुई क्षति आम तूफानों (tsunami vs storm) जैसी ही लगती है। लेकिन अब लगता है कि एम्बर इनका गवाह (amber as historical archive) बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी की घूर्णन शक्ति से बिजली

क हालिया अध्ययन का दावा है कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetic field) में घूर्णन से बिजली उत्पन्न (electricity generation) की जा सकती है। हालांकि अध्ययन में एक विशेष उपकरण से मात्र 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts) की बेहद कम विद्युत धारा उत्पन्न की गई है, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि यह प्रभाव वास्तविक है और इसे बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है, तो यह बिना प्रदूषण के ऊर्जा उत्पादन (pollution-free energy generation) का नया तरीका हो सकता है। खास तौर पर दूरदराज़ के इलाकों (remote areas) और मेडिकल उपकरणों (medical devices) के लिए यह तकनीक बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। यह शोध प्रिंसटन यूनिवर्सिटी (Princeton University) के क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) के नेतृत्व में किया गया और फिजिकल रिव्यू रिसर्च (Physical Review Research) में प्रकाशित हुआ है।

आम तौर पर चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) में एक सुचालक (conductor) को घुमा कर बिजली उत्पन्न की जाती है, जैसा कि पावर प्लांट्स (power plants) में होता है। पृथ्वी का भी एक चुंबकीय क्षेत्र (geomagnetic field) होता है, और जब पृथ्वी घूमती है (Earth’s rotation) तो इस चुंबकीय क्षेत्र का एक हिस्सा स्थिर बना रहता है। सैद्धांतिक रूप से (theoretically), यदि कोई चालक (conductor) पृथ्वी की सतह पर रखा जाए तो वह इस चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) से गुज़रकर विद्युत धारा (electric current) उत्पन्न कर सकता है। हालांकि, पृथ्वी के सामान्य चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetism) में ऐसा नहीं होता, क्योंकि चालक के अंदर मौजूद आवेश (electrons inside the conductor) खुद को इस तरह व्यवस्थित कर लेते हैं कि बिजली पैदा (electricity production) ही नहीं हो पाती।

लेकिन क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) और उनकी टीम का दावा है कि उन्होंने इस समस्या का हल खोज लिया है। खास आकार में बना एक खोखला बेलन (hollow cylindrical conductor) पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से बिजली उत्पन्न (electricity generation from Earth’s magnetic field) कर सकता है।

इस परिकल्पना को जांचने के लिए वैज्ञानिकों ने मैंगनीज़ (manganese), ज़िंक (zinc), और आयरन (iron) वाले चुंबकीय पदार्थ (magnetic material) से एक विशेष उपकरण बनाया। उन्होंने 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts of electric current) की बहुत हल्की विद्युत धारा दर्ज की, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के सापेक्ष उपकरण की स्थिति बदलने पर भी बदल रही थी। लेकिन जब उन्होंने खोखले सिलेंडर (hollow cylinder) की जगह ठोस सिलेंडर (solid cylinder) का उपयोग किया तो बिजली पैदा (electricity production) नहीं हुई।

विस्कॉन्सिन-यूक्लेयर विश्वविद्यालय (University of Wisconsin-Eau Claire) के पॉल थॉमस (Paul Thomas) जैसे कुछ वैज्ञानिक इस प्रयोग को विश्वसनीय मानते हैं, लेकिन फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ एम्स्टर्डम (Free University of Amsterdam) के रिंके विजनगार्डन (Rinke Wijngaarden) जैसे अन्य वैज्ञानिकों को संदेह है। विजनगार्डन ने 2018 में इसी तरह का प्रयोग करने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। उनका मानना है कि चायबा (Chyba) की परिकल्पना सही नहीं हो सकती। उनके मुताबिक चायबा (Chyba) के दल ने काफी सावधानी बरती है, लेकिन यह भी संभव है कि दर्ज किया गया वोल्टेज (voltage measurement) तापमान में बदलाव (temperature variation) जैसी अन्य वजहों से आया हो।

फिलहाल, यह अध्ययन वैज्ञानिक समुदाय (scientific community) में बहस का विषय बन गया है। अगर आगे के प्रयोग इन नतीजों की पुष्टि कर पाते हैं तो यह बिजली उत्पादन (electricity generation technology) के नए रास्ते खोल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चंद्रमा की उम्र लगभग पृथ्वी के बराबर है!

हाल में प्रस्तुत एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि पृथ्वी (Earth) के अस्तित्व में आने के थोड़े समय बाद से ही चंद्रमा (Moon) उसका साथी रहा है। यह नया शोध बताता है कि चंद्रमा का जन्म सौर मंडल (Solar System) बनने के महज 6.5 करोड़ साल बाद ही हो गया था। यानी चंद्रमा की उम्र करीब 4.5 अरब साल है, जो पहले के अनुमानों से अधिक है।

ल्यूनर एंड प्लैनेटरी साइंस कॉन्फ्रेंस (LPSC) में प्रस्तुत इस शोध में बताया गया है कि चंद्रमा का निर्माण पृथ्वी के बनने के तुरंत बाद हुआ था, जब मंगल ग्रह (Mars) के साइज़ जितना एक प्रोटो-प्लैनेट (Proto-planet) ‘थीया’ (Theia) पृथ्वी से टकराया था।

गौरतलब है कि सौर मंडल (Solar System) का निर्माण लगभग 4.56 अरब वर्ष पहले शुरू हुआ, और इसके 2-3 करोड़ साल बाद पृथ्वी आकार लेने लगी। उस समय अंतरिक्ष (Space) में भारी हलचल थी और बड़े-बड़े खगोलीय पिंडों की टक्कर एक आम बात थी। इन्हीं में से एक टक्कर युवा पृथ्वी से थीया नामक पिंड के टकराने की थी। यह टक्कर इतनी भीषण थी कि पृथ्वी से भारी मात्रा में पिघली हुई चट्टान और मलबा अंतरिक्ष में उछला, जो बाद में संघनित होकर चंद्रमा बना।

यह घटना पृथ्वी के विकास में भी महत्वपूर्ण रही। इस टक्कर से पृथ्वी की सतह पिघलकर खौलते मैग्मा के महासागर में बदल गई और इसने पृथ्वी के घूर्णन और झुकाव को स्थिर करने में मदद की। इसलिए चंद्रमा के निर्माण का सटीक समय जानकर वैज्ञानिक यह समझ सकते हैं कि पृथ्वी अपने वर्तमान रूप में कब आई।

चंद्रमा की उम्र कैसे तय की?

कई वर्षों से वैज्ञानिक अपोलो मिशनों (Apollo Missions) द्वारा लाई गईं चंद्रमा की चट्टानों (Lunar Rocks) का अध्ययन करते आ रहे हैं। पूर्व में, जब वैज्ञानिकों ने चट्टानों का अध्ययन किया था तो पता चला था कि चंद्रमा की सतह से प्राप्त चट्टानें लगभग 4.35 अरब साल पुरानी थीं और ये चट्टानें चांद के अपने मैग्मा (Lunar Magma) से बनी थीं। तो माना गया कि चांद की उम्र लगभग उतनी ही है। लेकिन इतना युवा चंद्रमा बाकी प्रमाणों से मेल नहीं खाता।

इस पहेली को सुलझाने में बड़ी सफलता तब मिली जब वैज्ञानिकों ने चंद्रमा से मिले ज़िरकॉन क्रिस्टलों (Zircon Crystals) का अध्ययन किया। इन क्रिस्टल के रेडियोधर्मी तत्वों के विघटन से उनकी सही उम्र का पता लगाया जा सकता है। 2017 में, भू-रसायन वैज्ञानिक मेलानी बारबोनी ने आठ ज़िरकॉन रवों का विश्लेषण करके यह देखा कि इनमें मौजूद युरेनियम (Uranium) के विघटन से कितना लेड (Lead) बन चुका है। इस मापन के आधार पर बारबोनी ने निष्कर्ष निकाला कि चंद्रमा 4.51 अरब साल पुराना है।

2019 में, वैज्ञानिकों को चंद्रमा की चट्टानों में टंगस्टन (Tungsten) के हल्के आइसोटोप मिले। उस अध्ययन के मुखिया मैक्सवेल थीमेन्स ने अनुमान लगाया कि ये आइसोटोप तत्व हाफ्नियम (Hafnium) के अब विलुप्त हो चुके आइसोटोप से बने होंगे। और हाफ्नियम का यह आइसोटोप सौर मंडल के शुरू के 6 करोड़ वर्षों में ही उपस्थित था। इस खोज ने बारबोनी के निष्कर्षों को मज़बूती दी। यानी चंद्रमा उन वर्षों में बना होगा।

अब, वैज्ञानिकों ने रुबिडियम(rubidium) के स्ट्रॉन्शियम(strontium) में विघटन को मापने की एक नई विधि से इस निष्कर्ष  की पुष्टि की है। मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट के थॉर्स्टन क्लाइन और उनकी टीम ने गणना की कि चंद्रमा लगभग 4.5 अरब साल पहले बना था। ये नतीजे पिछले शोधों को पुख्ता करते हैं और चंद्रमा के जन्म की एक सुसंगत समयरेखा देते हैं।

चंद्रमा बनने के बाद भी यह कोई शांत खगोलीय पिंड नहीं था। आरंभ में इसकी पूरी सतह पिघले हुए लावा के महासागर (lava ocean) से ढंकी थी, जो धीरे-धीरे ठंडी होकर ठोस बन गई। लेकिन शोध बताते हैं कि पृथ्वी और सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव ने इसकी सतह को दोबारा गर्म कर दिया, ठीक वैसे ही जैसे बृहस्पति (Jupiter) के असर से उसके चंद्रमा ‘आयो’(Io) पर भीषण ज्वालामुखीय गतिविधि देखी जाती है। एक अन्य सिद्धांत के अनुसार, चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव (lunar south pole) पर किसी विशाल उल्कापिंड की टक्कर (asteroid impact) ने इसकी सतह को नया रूप दिया होगा। इनमें से किसी एक वज़ह से चंद्रमा की उम्र का सही अनुमान लगाना जटिल हो गया। अपोलो द्वारा लाए गए नमूनों को इस नए दृष्टिकोण से देखने की ज़रूरत है। हो सकता है कि वे पिघलकर वापिस ठोस बन गए चंद्रमा के होंगे, मूल रूप में निर्मित चंद्रमा के नहीं।

चीन का चांग’ई-6 मिशन (Chang’e 6 Mission), जो चंद्रमा की दूरस्थ सतह से लगभग 2 किलोग्राम चट्टानें लेकर लौटा है, इस रहस्य पर और प्रकाश डाल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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चट्टानों में हवा के बुलबुलों में छिपा पृथ्वी का अतीत

रबों  वर्षों में पृथ्वी के वातावरण (Earth’s atmosphere) में काफी परिवर्तन हुए हैं, जिससे जीवन (life evolution) के विकास की दिशा तय हुई। वैज्ञानिकों (scientists) ने ध्रुवों पर जमा बर्फ की परतों से पिछले 60 लाख वर्षों का वायुमंडलीय डैटा (atmospheric data) निकाला है, लेकिन यह डैटा पृथ्वी (Earth) के 4.5 अरब साल के इतिहास का बहुत छोटा हिस्सा है।

प्राचीन समय में वायु में कौन-से घटक कितनी मात्रा में थे, इसका पता वैज्ञानिक केवल चट्टानों (rocks) और खनिजों (minerals) में छिपे अप्रत्यक्ष प्रमाणों से लगाते आए हैं। लेकिन अब, एक नई तकनीक (new technique) से अधिक सटीक जानकारी मिल रही है – प्राचीन चट्टानों, लवणों और लावा (lava) में फंसे सूक्ष्म वायु बुलबुलों (air bubbles) का विश्लेषण। 

वैज्ञानिक यह जानते हैं कि 4.5 अरब वर्ष पूर्व जब पृथ्वी का निर्माण (Earth formation) हुआ, तब उसकी सतह पिघली हुई चट्टानों (magma) से ढंकी थी। इस मैग्मा से रिसी गैसों, और आगे चलकर ज्वालामुखी विस्फोटों (volcanic eruptions), क्षुद्रग्रहों (asteroids) की बौछार के कारण मुक्त गैसों ने एक प्रारंभिक वातावरण (early atmosphere) बनाया। समय के साथ, नाइट्रोजन (nitrogen) अपनी स्थिरता के कारण मुख्य गैस बन गई, जबकि हाइड्रोजन (hydrogen) और हीलियम (helium) जैसी हल्की गैसें अंतरिक्ष में विलीन हो गईं। ऑक्सीजन (oxygen) लगभग न के बराबर थी, जब तक कि लगभग 3 अरब साल पूर्व प्रकाश-संश्लेषण (photosynthesis) करने वाले सूक्ष्मजीवों ने इसे धीरे-धीरे वातावरण में छोड़ना शुरू नहीं किया।

फिर, वैज्ञानिक यह भी जानते थे कि चट्टानों में प्राचीन वायु (ancient air) कैद हो सकती है, लेकिन इन गैसों को निकालना और विश्लेषण (gas analysis) करना बेहद कठिन था। अब, वैज्ञानिक एक वैक्यूम-सील प्रेस (vacuum-sealed press) में प्राचीन चट्टानों को धीरे-धीरे दाब बढ़ाते हुए कुचलते हैं, जिससे उसमें फंसी हुई गैस निकलती है। इस गैस का विश्लेषण मास स्पेक्ट्रोमीटर (mass spectrometer) से किया जाता है।

सर्वप्रथम भू-रसायनविद (geochemist) बर्नार्ड मार्टी ने 2010 के दशक में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया (Western Australia) के क्वार्ट्ज़ (quartz) और बैराइट भंडारों में फंसी गैस का विश्लेषण किया था। और पहली बार 3 अरब साल से भी अधिक पुराने वायुमंडलीय नमूने (atmospheric samples) उपलब्ध कराए। उसके बाद से इस तकनीक के इस्तेमाल से कई अध्ययन (research studies) हुए हैं। 

ऑक्सीजन की उपस्थिति : पहले वैज्ञानिक मानते थे कि लगभग 80 करोड़ साल पहले तक पृथ्वी के वातावरण में ऑक्सीजन बहुत कम थी, और तभी इसके स्तर में अचानक वृद्धि हुई, जिससे जंतुओं (animals) का विकास संभव हुआ। लेकिन विभिन्न अध्ययन (scientific studies) अलग-अलग निष्कर्ष देते हैं।

बोरिंग बिलियन: वैज्ञानिक 1.8 अरब से 80 करोड़ साल पहले के कालखंड को “बोरिंग बिलियन” (Boring Billion) कहते हैं, क्योंकि इस दौरान जलवायु (climate), टेक्टोनिक्स (tectonics) और जैव विकास (biological evolution) में कोई खास बदलाव नहीं दिखता था। लेकिन 1.4 अरब साल पुराने लवण (ancient salts) के क्रिस्टलों से पता चला है कि उस समय ऑक्सीजन स्तर अपेक्षा से अधिक था। इससे यह संकेत मिलता है कि जटिल जीवन (complex life) के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां उस समय मौजूद रही होंगी।

नोबल गैसें : नोबल गैसें (noble gases), जैसे आर्गन (argon), नीऑन (neon) और ज़ीनॉन (xenon), रासायनिक रूप से अन्य तत्वों के साथ अभिक्रिया नहीं करतीं। इसलिए वे पृथ्वी के वायुमंडलीय परिवर्तनों (atmospheric changes) को समझने में उपयोगी होती हैं।

भारत में 2 अरब साल पुराने उल्कापिंड टकराव स्थल (meteorite impact site) के अध्ययन से पता चला है कि उस समय ज्वालामुखीय गतिविधि (volcanic activity) कई करोड़ वर्षों तक धीमी हो गई थी, जिससे पृथ्वी के आंतरिक भाग से गैसों का उत्सर्जन (gas emissions) भी कम हुआ। इसी प्रकार, ग्रीनलैंड (Greenland) की 3 अरब साल पुरानी चट्टानों में फंसी गैसों के अध्ययन से यह संकेत मिला कि ये गैसें प्राचीन पृथ्वी के मेंटल (Earth’s mantle) और समुद्री जल (ocean water) से आई थीं। ये खोजें (discoveries) हमें यह समझने में मदद करती हैं कि पृथ्वी का वायुमंडल (Earth’s atmosphere) कैसे बना और विकसित हुआ। इन खोजों के बावजूद, वैज्ञानिकों ने अभी केवल सतह को ही कुरेदा है। भविष्य की संभावनाएं (future possibilities) कई हैं। वे और भी प्राचीन चट्टानों के नमूने (ancient rock samples) इकट्ठा करेंगे, गैस निकालने की तकनीकों (gas extraction techniques) में सुधार करेंगे और यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि क्या ये वायुमंडलीय सुराग (atmospheric clues) जीवन की उत्पत्ति (origin of life) को समझने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्र की अतल गहराइयों में छिपी अद्भुत दुनिया

प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) की अथाह गहराइयों में एक रहस्यमयी दुनिया छिपी हुई है। मैरियाना ट्रेंच (Mariana Trench) पृथ्वी के महासागरों की सबसे गहरी जगह है। यहां गहराई लगभग 11,000 मीटर तक है। इतनी गहराई पर दाब (pressure) बहुत अधिक, ठंड (temperature) अकल्पनीय और अंधकार (darkness) भी घटाटोप होता है। ये परिस्थितियां इस जगह को पृथ्वी की सबसे प्रतिकूल और दूभर परिस्थितियों में शुमार करती हैं। लेकिन हाल ही में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि इन परिस्थितियों में भी जीवन (deep-sea life)  की हैरतअंगेज़ विविधता मौजूद है। यह विविधता गहरे समुद्र की पारिस्थितिकी (deep ocean ecosystem) के बारे में हमारी वर्तमान समझ को ललकारती है।

हाल ही में, चीन के वैज्ञानिकों ने फेंडोज़े पनडुब्बी (Fendouzhe Submarine) के ज़रिए मैरियाना ट्रेंच की गहराइयों में गोता लगाया है। जैसे-जैसे वे नीचे उतरे, उन्होंने अंधकार में दीप्ति बिखेरने वाले जीव (bioluminescent organisms) देखे; जो हरी, पीली और नारंगी चमक बिखेर रहे थे। समुद्र के पेंदे (ocean floor) पर पहुंचने पर टीम ने जब रोशनी चालू की, तो उन्हें एक विस्मयकारी नीली दुनिया दिखाई दी, जहां प्लवकों (plankton) की भरमार थी।

यह खोज मैरियाना ट्रेंच पर्यावरण और पारिस्थितिकी अनुसंधान (MEER – Mariana Trench Ecology and Environment Research) परियोजना का हिस्सा है, जिसके तहत किए गए अध्ययन सेल पत्रिका (cell journal) में प्रकाशित हुए हैं। इस शोध की सबसे चौंकाने वाली खोज 7000 से अधिक नए सूक्ष्मजीवों (new microbes, deep-sea bacteria) की पहचान है, जिनमें से 89 प्रतिशत विज्ञान के लिए पूरी तरह नए हैं। ये सूक्ष्मजीव हैडल ज़ोन (hadal zone – 6000 से 11,000 मीटर की गहराई) की कठोर परिस्थितियों में जीवित रहने के लिए विकसित हैं।

गौरतलब है कि कुछ सूक्ष्मजीवों (microorganisms) के जीनोम (genome sequencing) बहुत कुशल होते हैं, जो सीमित कार्यों के लिए अनुकूलित होते हैं। जबकि कुछ अन्य के जीन (genes) अधिक जटिल होते हैं, जिससे वे बदलते पर्यावरण के अनुसार खुद को ढाल सकते हैं। हैरानी की बात यह है कि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव कार्बन मोनोऑक्साइड (carbon monoxide metabolism) जैसी गैसों को अपना भोजन बनाते हैं। यह क्षमता उन्हें पोषक तत्वों की कमी (nutrient-poor environment) वाले समुद्री वातावरण में जीवित रहने में मदद करती है।

आगे के इस अध्ययन में एम्फिपॉड्स (amphipods – छोटे झींगे जैसे जीव) पर ध्यान दिया गया, जो समुद्री खाइयों (deep-sea trench) में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। वैज्ञानिकों (scientists) ने पाया कि ये जीव गहरे समुद्र में रहने वाले बैक्टीरिया (deep sea symbiotic bacteria) के साथ सहजीवी सम्बंध रखते हैं। उनकी आंतों में सायक्रोमोनास (Psychromonas bacteria) नामक बैक्टीरिया काफी संख्या में मिले, जो ट्राइमेथिइलएमाइन एन-ऑक्साइड (TMAO – Trimethylamine N-oxide) नामक एक यौगिक का निर्माण करने में मदद करते हैं। TMAO गहरे समुद्र के अत्यधिक दाब (extreme pressure adaptation)से जीवों की रक्षा करने में अहम भूमिका निभाता है।

शोध के तीसरे चरण में यह समझने की कोशिश की गई कि गहरे समुद्र की मछलियां (deep-sea fish) अत्यधिक दाब और ठंडे तापमान में कैसे जीवित रहती हैं। जेनेटिक विश्लेषण (genetic analysis) से पता चला कि 3000 मीटर से अधिक गहराई में रहने वाली मछलियों में एक विशेष जेनेटिक परिवर्तन (genetic mutation) होता है, जो उनकी कोशिकाओं को अधिक कुशलता से प्रोटीन बनाने (protein synthesis) में मदद करता है। यह अनुकूलन उन्हें समुद्री दाब से बचने में सहायता करता है।

शोध से यह भी पता चला कि विभिन्न जीवों ने गहरे समुद्र में कब शरण (deep-sea migration) ली होगी। मसलन, ईल मछलियां (eel fish)  शायद लगभग 10 करोड़ साल (100 million years ago) पहले गहरे समुद्र में चली गई होंगी जिसकी वजह से वे डायनासौर विलुप्ति (dinosaur extinction) वाली घटना से बच गई होंगी। इसी तरह स्नेलफिश (Snailfish) लगभग 2 करोड़ साल पहले (20 million years ago) समुद्र की गहरी खाइयों में पहुंच गई होगीं। यह वह समय था जब पृथ्वी पर टेक्टोनिक हलचल (tectonic activity) सबसे अधिक थी यानी धरती के भूखंड तेज़ी से इधर-उधर भटक रहे थे। 

ये निष्कर्ष इस बात को नुमाया करते हैं कि गहरा समुद्र (deep sea) लंबे समय से जलवायु परिवर्तन और ऑक्सीजन के उतार-चढ़ाव के दौरान कई जीवों को पनाह देता रहा है। 

इन रोमांचक खोजों के साथ-साथ वैज्ञानिकों ने गहरे समुद्र में कुछ चिंताजनक चीज़ें (deep-sea pollution) भी देखीं; उन्हें मैरियाना ट्रेंच (Mariana Trench) और याप ट्रेंच (Yap Trench) में प्लास्टिक बैग(plastic pollution), बीयर की बोतलें (beer bottles), सोडा कैन (soda can) और एक टोकरी (basket) भी मिली है। यह दर्शाता है कि मानव गतिविधियों का असर (human activities impact) दूरस्थ और दुगर्म क्षेत्रों तक पहुंच चुका है। 

हालांकि, वैज्ञानिकों ने पाया कि कुछ बैक्टीरिया (bacteria) इन प्रदूषकों (pollutants) का इस्तेमाल ऊर्जा स्रोत (energy source) के रूप में करने में सक्षम हैं। इससे लगता है कि भविष्य में समुद्री बैक्टीरिया (marine bacteria) पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकते हैं।

बहरहाल, समुद्र की अधिकांश गहराइयां अब भी अनदेखी हैं। संभव है कि वहां भी असंख्य अनजाने जीव (undiscovered species) हैं। MEER की योजना आगे भी ऐसे अध्ययन जारी रखने की है। (स्रोत फीचर्स)

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गाज़ा: तबाही के साये में शोध कार्य

युद्ध (war), तबाही (destruction) और अनिश्चितता (uncertainty) के बावजूद, गाज़ा (Gaza) के वैज्ञानिक (scientists) अपने शोध (research) कार्य जारी रख रहे हैं। वे इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि शोध (scientific research) न केवल विनाश (documentation of destruction) के दस्तावेज़ीकरण और पुनर्निर्माण (reconstruction efforts) प्रयासों में मदद करता है, बल्कि मानवीय संकटों (humanitarian crisis) के समाधान के लिए भी आवश्यक है। 19 जनवरी को हमास (Hamas) और इस्राइल (Israel) के बीच अस्थायी संघर्ष विराम (ceasefire) से वैज्ञानिकों को स्थिति का आकलन करने का अवसर मिला है।

न्यूरोसाइंटिस्ट (neuroscientist) खमीस एलसी, जो वर्तमान में घायलों का इलाज कर रहे हैं, युद्ध के प्रभावों को दर्ज करने और प्रकाशित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इसी तरह, जलवाहित रोगों (waterborne diseases) के विशेषज्ञ सामर अबूज़र सुधार व पुनर्निर्माण में शोध (scientific studies) की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं। इन कठिन परिस्थितियों के बावजूद, विज्ञान (science) और शिक्षा (education) के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के चलते वैज्ञानिकों (Gaza scientists) ने अपना काम जारी रखा है।

युद्ध (conflict) के कारण गाज़ा की 22 लाख आबादी में से 90 प्रतिशत बेघर (homeless) हो गई है। भोजन (food crisis), पानी (water shortage), स्वास्थ्य सेवाएं (healthcare services) और शिक्षा (education crisis) जैसी बुनियादी सुविधाएं या तो नष्ट हो गई हैं या अत्यधिक सीमित रह गई हैं। बमबारी (airstrikes) से तबाह इलाकों से मलबा हटाना एक बड़ी चुनौती है। गाज़ा (Palestine conflict) के प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में करीब 100 किलोग्राम मलबा जमा है जिसमें खतरनाक पदार्थ (hazardous materials) भी मौजूद हैं।

गाज़ा में पानी (clean water crisis) की स्थिति भी गंभीर है। यहां 97 प्रतिशत पानी भूजल स्रोतों (groundwater contamination) से आता है, जो अत्यधिक असुरक्षित हैं और इनके दूषित होने का खतरा भी है। युद्ध (war damage) से पहले भी महज 10 प्रतिशत लोगों को साफ पानी (safe drinking water) मिलता था, लेकिन अब मात्र 4 प्रतिशत लोगों को ही मिल रहा है। टूटी-फूटी सीवेज लाइन (damaged sewage system) के कारण गंदा पानी सड़कों पर बह रहा है, जिससे डायरिया (diarrhea) और हेपेटाइटिस (hepatitis outbreak) जैसी जलवाहित बीमारियों (waterborne infections) का खतरा बढ़ गया है।

युद्ध (war crisis) के कारण गाज़ा (Gaza universities) के 21 उच्च शिक्षण संस्थानों में से 15 बुरी तरह क्षतिग्रस्त या नष्ट हो चुके हैं। अस्पतालों (hospitals in Gaza) की स्थिति भी गंभीर है – लगभग आधे पूरी तरह बंद हैं, जबकि बाकी सीमित संसाधनों के साथ काम कर रहे हैं। कैंसर सहित अन्य गंभीर बीमारियों (chronic diseases) से जूझ रहे 11,000 मरीज़ों को न तो इलाज मिल रहा है और न ही उनके पास विदेश में उपचार का कोई अवसर है।

शोधकर्ताओं का सुझाव है कि सबसे पहले आवास (housing rehabilitation), सीवेज मरम्मत (sewage repair) और स्वास्थ्य सेवाओं (health services restoration) को बहाल करना ज़रूरी है। ऑनलाइन-लर्निंग विशेषज्ञ (online education expert) आया अलमशहरावी अस्थायी शिविर (temporary shelters) और घरों के पुनर्निर्माण (home reconstruction) के लिए तुरंत कदम उठाने की अपील कर रही हैं। वे खुद एक बमबारी (bombing survivor) में बचीं, जिसमें उनके अपार्टमेंट में 30 लोगों की जान चली गई, और अब वे एक शरणार्थी शिविर (refugee camp) में रह रही हैं।

भारी विनाश (mass destruction) के बावजूद, गाज़ा (Gaza research community) के वैज्ञानिक समुदाय का संकल्प अटूट है। वे इस संकट (ongoing crisis) का दस्तावेज़ीकरण कर रहे हैं और भविष्य के पुनर्निर्माण (future rebuilding) में योगदान देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह साबित करता है कि युद्ध (war-torn regions) के कठिन समय में भी ज्ञान (knowledge) और शोध (scientific progress) को आगे बढ़ते रहना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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गाज़ा: बच्चों पर युद्ध का मनोवैज्ञानिक असर

हालिया अध्ययन ने गाज़ा के बच्चों पर युद्ध के विनाशकारी मनोवैज्ञानिक प्रभावों (psychological Impacts) का एक दिल दहला देने वाला खुलासा किया है। पता चला है कि 96 प्रतिशत बच्चों का मानना है कि उनकी मृत्यु अवश्यंभावी है। वॉर चाइल्ड एलायंस (Child war alliance) के सहयोग से गाज़ा स्थित एक एनजीओ (NGO) द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण में बच्चों के गहरे भावनात्मक और मानसिक संकट को उजागर किया गया है। इस अध्ययन में शामिल लगभग आधे बच्चों ने अपने ऊपर होने वाले भारी आघात के कारण मरने की इच्छा व्यक्त की है। 

यह रिपोर्ट गाज़ा में जीवन की जो तस्वीर पेश करती है, उसमें बच्चे लगातार डर(Fear), चिंता(Anxiety) और क्षति से जूझ रहे हैं। लगभग 79 प्रतिशत बच्चे दुस्वप्न (Nightmares) देखते हैं, 73 प्रतिशत में आक्रामकता(Aggression) के लक्षण दिखाई देते हैं, और 92 प्रतिशत को अपने वर्तमान हालात को स्वीकार करने में कठिनाई महसूस होती है। ये लक्षण उस गहरे मनोवैज्ञानिक प्रभाव के संकेत हैं, जो बमबारियां(Bombardments) देखने, अपनों को खोने और घर से बेघर होने जैसी त्रासदियों का सामना करने से पड़े हैं।

इस सर्वे में 504 बच्चों के देखभालकर्ताओं से जानकारी जुटाई गई। इनमें से कई परिवारों में विकलांग, घायल या अकेले रह रहे बच्चे हैं। यह गाज़ा में 19 लाख से अधिक विस्थापित फिलिस्तीनियों(Palestinians) के मानवीय संकट को उजागर करता है, जिनमें से आधे बच्चे हैं। इनमें से कई बच्चों को बार-बार अपने मोहल्लों से भागने पर मजबूर होना पड़ा है, और अनुमान है कि लगभग 17,000 बच्चे अब अपने माता-पिता (Parents) से बिछड़ चुके हैं। 

विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि इन अनुभवों के गहरे और स्थायी प्रभाव हो सकते हैं। बुरे सपने देखना, सामाजिक रूप से अलग-थलग होना, एकाग्रता में कठिनाई और यहां तक कि शारीरिक दर्द जैसी समस्याएं आम हैं। रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि ऐसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं (mental health problems) लंबे समय तक भावनात्मक और व्यवहारिक बदलाव ला सकती हैं, जिससे सदमा पीढ़ियों तक बना रह सकता है।

यह अच्छी बात है कि राहत पहुंचाने के प्रयास शुरू हो चुके हैं, जिसमें वॉर चाइल्ड (war child) और उसके साझेदारों ने 17,000 बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता (mental health support) दी है। लेकिन संकट का पैमाना बहुत बड़ा है, और संगठन का लक्ष्य अगले तीन दशकों में अपनी सबसे बड़ी मानवीय प्रतिक्रिया के तहत 10 लाख बच्चों की मदद करना है। 

वॉर चाइल्ड यूके (war child UK) की सीईओ हेलेन पैटिन्सन ने मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य आपदा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी संकट में बदलने से रोकने के लिए तुरंत अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई का आह्वान किया। उन्होंने गाज़ा के बच्चों पर पड़े अदृश्य घावों के साथ-साथ घरों, अस्पतालों और स्कूलों के विनाश को दूर करने के लिए वैश्विक हस्तक्षेप की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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