उपेक्षित कॉफी फिर उगाई जा सकती है

हाल ही में बरपे सूखे ने दुनिया के सबसे लोकप्रिय कॉफी बीज कॉफी अरेबिका की कीमत को दुगना कर दिया है। बढ़ता वैश्विक तापमान जल्द ही कई प्लांटेशन के लिए उनके मनचाहे पौधे उगाना अव्यावहारिक बना सकता है। इसलिए अफ्रीका के कॉफी उत्पादकों ने लंबे समय से विस्मृत कॉफी की एक किस्म, कॉफी लिबरिका, को फिर से लगाना शुरू कर दिया है।

क्यू स्थित रॉयल बॉटेनिक गार्डन के वनस्पतिशास्त्रियों ने नेचर प्लांट्स पत्रिका में बताया है कि 1870 के दशक में सी. लिबरिका को बड़े पैमाने पर उगाया जाता था। लेकिन इसके कठोर आवरण वाले बड़े फल प्रोसेस करना कठिन था। इनकी तुलना में अन्य किस्मों के छोटे फलों को प्रोसेस करना आसान था। 20वीं सदी आते-आते सी. लिबरिका उगाना बंद हो गया था।

हाल के वर्षों में युगांडा के किसान सी. लिबरिका (लोकप्रिय नाम एक्सेल्सा) उप-प्रजाति की खेती अधिक करने लगे हैं। एक्सेल्सा बीमारियों और मुरझाने की प्रतिरोधी है। इस दमदार और मीठी कॉफी की वृद्धि के लिए बहुत ठंड भी ज़रूरी नहीं होती।

तो शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस तरह एक्सेल्सा और अन्य कम उगाई जाने वाली कॉफी किस्में गर्म हो रही पृथ्वी पर गर्मागर्म कॉफी के प्याले भरने में मदद करती रह सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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केला: एक पौष्टिक फल – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

क्षिण भारतीय पूजा और उत्सवों में केला एक अनिवार्य चीज़ है। लोग मंदिरों, शादी स्थलों और जश्नों के प्रवेश द्वारों को केले के पेड़ों से सजाते हैं, देवी-देवताओं को केला चढ़ाते हैं, और भोजन परोसने के लिए केले के पत्ते का उपयोग थाली की तरह करते हैं (तरल व्यंजनों तक के लिए कटोरी या चम्मच वगैरह का उपयोग नहीं करते)।

केले के पत्ते पर रसम भात खाना एक कला है। हालांकि इन दिनों किसी भी रेस्तरां में केले की ‘आधुनिक’ प्लेट (पत्तल) मिल सकती है, जिसमें सुविधा के लिए सूखे केले के पत्तों को आपस में सिल दिया जाता है।

एक पवित्र फल

विज्ञान लेखिका जे. मीनाक्षी बीबीसी में लिखती हैं कि केले का पेड़ प्रजनन और सम्पन्नता की दृष्टि से भगवान बृहस्पति के तुल्य माना जाता है। इसलिए इसे पवित्र माना जाता है।

डॉ. के. टी. अचया ने अपनी पुस्तक इंडियन फूड: ए हिस्टॉरिकल कम्पैनियन में लगभग 400 ईसा पूर्व बौद्ध साहित्य में केले का उल्लेख बताया था। अपनी पुस्तक में अचया बताते हैं कि केला न्यू गिनी द्वीप से समुद्री मार्ग से होकर दक्षिण भारत पहुंचा था। कुछ लोगों का दावा है कि केले का पालतूकरण सबसे पहले न्यू गिनी में किया गया था।

कई किस्में

मीनाक्षीजी ने हैदराबाद से नागरकोइल की यात्रा के दौरान पाया कि यहां केले की लगभग 12-15 किस्में पाई जाती हैं। केले के पौधे पश्चिमी घाट से सटे गर्म और नम क्षेत्रों में उगते हैं।

तो फिर, पूरे भारत में केला कहां-कहां उगाया जाता है? केला मुख्य रूप से प्रायद्वीपीय दक्षिणी तटीय इलाकों में – गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और बंगाल के कुछ हिस्सों तथा असम और अरुणाचल जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में उगाया जाता है।

वैसे, मध्य और उत्तरी क्षेत्र (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब) में भी केला उगाया जाता है, लेकिन यहां इसकी किस्मों में न तो इतनी विविधता होती है और न ही इतनी अधिक मात्रा में उगाया जाता है।

भारत हर साल लगभग 2.9 करोड़ टन केले का उत्पादन करता है। इसके बाद दूसरे नंबर पर चीन 1.1 करोड़ टन का उत्पादन करता है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) का कहना है कि लगभग 135 देश केले का उत्पादन करते हैं, और केले के पौधे गर्म और नम परिस्थितियों में फलते-फूलते हैं। इस संदर्भ में दक्षिणपूर्वी एशियाई देश विशेष स्थान रखते हैं। इन देशों में केले की 300 से अधिक किस्में पाई जाती हैं, और कई किस्मों के पौधे देखने में भी सुंदर लगते हैं।

पोषण मूल्य

केले में ऐसा क्या है जिसने उन्हें स्वादिष्ट, पवित्र, औषधीय और पोषण के लिहाज़ से महत्वपूर्ण बनाया है? इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) की पुस्तक न्यूट्रीटिव वैल्यू ऑफ इंडियन फूड्स बताती है कि केले के 100 ग्राम खाने योग्य हिस्से में 10-20 मिलीग्राम कैल्शियम, 36 मिलीग्राम सोडियम, 34 मिलीग्राम मैग्नीशियम व 30-50 मिलीग्राम फॉस्फोरस होता है। ये सभी पोषक तत्व मिलकर केले को अत्यधिक पौष्टिक बनाते हैं।

डॉ. के. अशोक कुमार और उनके साथियों ने वर्ष 2018 में जर्नल ऑफ फार्माकोग्नॉसी एंड फायटोकेमिस्ट्री में प्रकाशित अपने पर्चे में केले की किस्मों में पोषक तत्वों की मात्रा बताई थी। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि भारत में मिलने वाले सभी फलों में केला सबसे सस्ता है। यह भारत के अधिकांश हिस्सों, यहां तक कि ग्रामीण इलाकों में भी, पूरे वर्ष उपलब्ध रहता है। और केला बाज़ार में मिलने वाले कई अन्य फलों जैसे आम, संतरा की तुलना में अधिक पौष्टिक होता है। अन्य अधिकांश फल मौसमी और महंगे होते हैं, और केले की तुलना में कम पौष्टिक होते हैं।

केले का सिर्फ फल उपयोगी नहीं है। इसका छिलका भी बायोचार के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके बायोचार का उपयोग उर्वरक के रूप में और बिजली उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। इसकी मदद से इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के भी प्रयास जारी हैं। (स्रोत फीचर्स)


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ऊंट के दूध को प्रोत्साहन की ज़रूरत – डॉ. आर. बी. चौधरी

वैज्ञानिक इस बात से तो सहमत हैं कि ऊंट का दूध मनुष्य तथा गाय के दूध से किसी मामले में कम नहीं है। विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि ऊंट के दूध में एंटी-डायबेटिक, एंटी-हाइपरटेंसिव, एंटी-माइक्रोबियल व एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होते हैं।

देखा गया है कि मधुमेह रोगियों द्वारा ऊंट के दूध का लंबी अवधि तक सेवन इंसुलिन की ज़रूरत कम करने में सहायक होता है। ऊंटनी का दूध ऐतिहासिक रूप से अपने औषधीय और अन्य गुणों के लिए जाना जाता है। इन गुणों को लेकर कई अनुसंधान पत्र प्रकाशित हुए हैं। शोध बताते हैं कि यह मधुमेह और ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम विकारों से सम्बंधित बीमारियों के लिए अत्यंत लाभकारी पाया गया है। हाल के एक अनुसंधान से पता चला है कि ऊंट का दूध जीवाणुरोधी, एंटीवायरल, एंटीऑक्सिडेंट, कैंसर-रोधी तथा हाइपोएलर्जेनिक गुणों से संपन्न है।

इसके अलावा, ऊंट के दूध ने लैक्टोज़ टॉलरेंस के कारण लोगों के लिए एक वैकल्पिक डेयरी उत्पाद के रूप में लोकप्रियता हासिल की है। एक नई शोध समीक्षा के अनुसार ऊंट के दूध को गाय के दूध से बेहतर माना गया है क्योंकि इसमें लैक्टोज़, संतृप्त वसा और कोलेस्ट्रॉल कम होते हैं। इसमें असंतृप्त वसीय अम्ल भी अधिक होते हैं तथा 10 गुना अधिक लौह और 3 गुना अधिक विटामिन सी होता है।

वैसे तमाम वैज्ञानिक एवं विशेषज्ञ आम तौर पर कई उच्च जोखिम के कारण सामान्य रूप से कच्चे दूध का सेवन करने की सलाह नहीं देते हैं। कच्चे दूध का सेवन संक्रमण, गुर्दे की निष्क्रियता और यहां तक कि आक्रामक संक्रमण से मौत का कारण बन सकता है। विशेष रूप से उच्च जोखिम वाली आबादी, गर्भवती महिलाओं, बच्चों, वृद्धों, वयस्कों में प्रतिरक्षा सम्बंधी समस्याएं बढ़ने लगती हैं। अध्ययनों से पता चला है कि ऊंट के दूध में ऐसे जीवाणु पाए गए हैं जो श्वसन तंत्र को प्रभावित करते हैं। इसलिए गंभीर संक्रमण की घटनाएं तब पाई जाती हैं जब ऊंट के दूध का सेवन बिना पाश्चरीकरण के किया जाता है।

हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात में ऊंटनी के दूध की खपत के पैटर्न और वयस्कों के बीच कथित लाभों और उसके नुकसान सम्बंधी कुछ महत्वपूर्ण अध्ययन किए गए थे। इस अध्ययन के तहत एक प्रश्नावली के माध्यम से 852 वयस्कों से जानकारी ली गई। प्रश्नावली में सामाजिक-जनसांख्यिकीय विशेषताओं से लेकर ऊंट के दूध की खपत के पैटर्न और कच्चे ऊंट के दूध के लाभों और जोखिमों के कथित ज्ञान की जांच की गई। पता चला कि 60 प्रतिशत प्रतिभागियों ने ऊंटनी का दूध आज़माया है, लेकिन मात्र एक चौथाई ही नियमित रूप से सेवन करते थे। अध्ययन में दूध के बाद सबसे ज़्यादा खपत ऊंट के दही और विशेष स्वाद तथा महक वाले वाले दूध की रही। ऊंट के दूध की उपभोग परीक्षण में शहद, हल्दी और चीनी के साथ मिलाकर सेवन करने वालों का प्रतिशत अधिक था। अधिकांश उपभोक्ता (57 प्रतिशत) रोज़ाना एक कप से कम ऊंटनी के दूध का सेवन करते हैं। 64 प्रतिशत लोग ऊंट के दूध को उसकी पौष्टिकता के कारण, जबकि 40 प्रतिशत चिकित्सकीय गुणों के कारण पसंद करते थे।

वैश्विक स्तर पर केन्या सालाना 11.65 लाख टन ऊंट के दूध का उत्पादन कर अव्वल है। इसके बाद सोमालिया 9.58 लाख टन और माली 2.71 लाख टन उत्पादन करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि केन्या के उत्तर-पूर्वी हिस्सों में जनजातियां लगभग 47.22 लाख ऊंट पालती हैं जो विश्व की ऊंट आबादी का लगभग 80 प्रतिशत है। वर्ष 2020 में गल्फ कॉर्पोरेट काउंसिल (जीसीसी) ने ऊंट के दूध के व्यवसाय से 50.23 लाख अमेरिकी डॉलर की कमाई की और वर्ष 2026 तक 7.1 प्रतिशत की वृद्धि की उम्मीद है। संयुक्त अरब अमीरात में ऊंट के दूध के कई उत्पाद बाजार में हैं – जैसे ताज़ा दूध, सुगंधित दूध, दूध पाउडर, घी, दही, छाछ आदि।

भारत समेत विभिन्न देश ऊंट के दूध का उत्पादन और विपणन करने के नए-नए तरीके ढूंढ रहे हैं। हमारे देश में ऊंट के दूध का उत्पादन एवं बिक्री करने के लिए अमूल, आदविक जैसे कई बड़े दुग्ध उत्पादक सामने आए हैं। भारत में ऊंटनी के दूध का बाज़ार अभी धीरे-धीरे गति पकड़ रहा है। नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की कुल वार्षिक आपूर्ति में गाय का दूध 85 प्रतिशत, भैंस का दूध 11 प्रतिशत, बकरी का दूध 3.4 प्रतिशत, भेड़ का दूध 1.4 प्रतिशत और ऊंट का दूध मात्र 0.2 प्रतिशत ही है।

गौरतलब है कि भारत में ऊंटों की आबादी में लगातार गिरावट आ रही है क्योंकि अब परिवहन या खेती के लिए इनकी आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं, खेती तथा अन्य व्यवसाय के लिए खरीदकर मांस के लिए इनका उपयोग किया जाता है। 20वीं पशुधन गणना (2019) के अनुसार ऊंटों की आबादी में 37.5 प्रतिशत की गिरावट आई है।

अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया के लोग सदियों से दूध के लिए ऊंटों पर निर्भर हैं। अब, संयुक्त राज्य अमेरिका में ऊंट के दूध की खपत बढ़ रही है और मांग आपूर्ति से आगे निकल चुकी है।

2012 में अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने ऊंट के दूध की बिक्री की अनुमति दी। लेकिन बिक्री के लिए कानूनी निर्देशों का पालन किया जाना चाहिए। ऊंट के दूध को निश्चित तौर पर पाश्चरीकृत होना चाहिए।

डेयरी उद्योग के एक जानकार के अनुसार ऊंट के दूध बाज़ार में वर्ष 2022-2027 के दौरान 3.1 प्रतिशत वृद्धि की आशा है और 2027 के अंत तक 8.6 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है।

अगर देखा जाए तो आज भारत में ऊंटों के नस्ल संरक्षण और संवर्धन की नई राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है। इस नियम में अवैध परिवहन और वध पर प्रतिबंध का प्रावधान किया जाना चाहिए। साथ ही साथ, ऊंटों के लिए चारागाह की व्यवस्था ज़रूरी है। ऊंट के दूध के वितरण के लिए स्थापित डेयरी उद्योग के विकास की नीति ज़रूर शामिल करनी चाहिए। इस संदर्भ में राजस्थान में ऊंट दूध कोऑपरेटिव प्रणाली वर्ष 2010 में आरंभ की गई थी। (स्रोत फीचर्स) 

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पारिस्थितिकी और कृषि अर्थशास्त्र का तालमेल – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कोई पारिस्थितिक आवास यानी निशे पर्यावरणीय परिस्थितियों का उपयुक्त समूह होता है जिसमें कोई जंतु या पौधा फलता-फूलता है। एक पारिस्थितिक तंत्र के भीतर कई प्रकार के पारिस्थितिक आवास हो सकते हैं। जैव विविधता ऐसे ही आवासों का परिणाम है जिनमें वही प्रजातियां बसती हैं जो एकदम उनके अनुकूल हैं। उदाहरण के लिए, मरुस्थलीय पौधे शुष्क पारिस्थितिक आवास के लिए अनुकूल होते हैं क्योंकि उनमें अपनी पत्तियों में पानी जमा करके रखने की क्षमता होती है।

जब दुनिया की जलवायु बदलती है, तो मौजूदा प्रजातियों की अपने जैव-भौगोलिक आवासों में टिके रहने की क्षमता बदल सकती है। इस बात का कृषि पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि हो सकता है कि सदियों से उम्दा परिणाम देने वाले तरीके और फसलें बदली परिस्थितियों के लिए उपयुक्त न रहें।

इस तरह के परिवर्तनों से कई चीज़ें बदलती हैं। जैसे, भोजन और पोषक तत्वों की उपलब्धता, शिकारियों और प्रतिस्पर्धी प्रजातियों की उपस्थिति वगैरह। अजैविक कारक भी पारिस्थितिक आवास को प्रभावित करते हैं। इनमें तापमान, उपलब्ध प्रकाश की मात्रा, मिट्टी की नमी आदि शामिल हैं।

मॉडलिंग

पारिस्थितिकी विज्ञानी ऐसी जानकारी का उपयोग संरक्षण प्रयासों के साथ-साथ भावी विकास के लिए करते हैं। अलबत्ता, संभव है कि पारिस्थितिक मापदंड आर्थिक वास्तविकताओं के साथ पूरी तरह मेल न खाएं। इन दो नज़रियों यानी पारिस्थितिकी और अर्थशास्त्र को जोड़ने के लिए, पारिस्थितिक आवास मॉडलिंग का उपयोग बदलते पारिस्थितिक परिदृश्यों के संदर्भ में आर्थिक व्यवहार्यता की जांच के लिए किया जा सकता है।

पारिस्थितिक आवास मॉडलिंग नई संभावनाओं की पहचान करने का एक साधन है – किसी मौजूदा प्राकृतवास के लिए संभावित नए निवासियों की पहचान के लिए, या ऐसे नए भौगोलिक स्थानों की तलाश के लिए जो वांछनीय वनस्पतियों के विकास के लिए उपयुक्त हों। मॉडलिंग में कंप्यूटर एल्गोरिदम की मदद से पर्यावरणीय डैटा की तुलना की जाती है और इस बारे में पूर्वानुमान लगाए जाते हैं कि किसी दिए गए पारिस्थितिक आवास के लिए आदर्श क्या होगा।

भौगोलिक रूप से दूर-दूर स्थित दो स्थानों की तुलना कीजिए। जैसे कर्नाटक के कूर्ग का मदिकेरी क्षेत्र और सिक्किम का गंगटोक। दोनों पहाड़ी इलाके हैं। मदिकेरी समुद्र तल से 1200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और गंगटोक 1600 मीटर की ऊंचाई पर। सालाना औसत वर्षा क्रमशः 321 से.मी. और 349 से.मी. होती है। शाम 5:30 बजे इन दो स्थानों की औसत सापेक्षिक आर्द्रता क्रमशः 76 प्रतिशत और 83 प्रतिशत रहती है। इन दोनों क्षेत्रों में कई और समानताएं भी हैं।

क्या, कहां उगाएं

अमित कुमार और उनके साथियों द्वारा साइंटिफिक रिपोर्ट्स में हाल ही में प्रकाशित पेपर में दर्शाया गया है कि भारत के भौगोलिक और कृषि अर्थशास्त्र के संदर्भ में पारिस्थितिक आवास मॉडलिंग का उपयोग किस तरह किया जा सकता है। पालमपुर स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण उत्पाद केसर पर विचार करने के लिए मॉडलिंग रणनीतियों का इस्तेमाल किया है।

केसर का पौधा (क्रोकस सैटाइवस) भूमिगत तनों के माध्यम से लगाया जाता है जिन्हें घनकंद कहते हैं।  माना जाता है कि यह यूनानी मूल का पौधा है, और भूमध्यसागरीय जलवायु परिस्थितियों में सबसे बेहतर फलता-फूलता है। वर्तमान में, ईरान विश्व के लगभग 90 प्रतिशत केसर का उत्पादन करता है। केसर के पौधे के फूल में चटख लाल रंग की तीन वर्तिकाएं होती हैं, जिन्हें परिपक्व होने पर तोड़ (चुन) लिया जाता है। व्यावसायिक केसर बनाने के लिए इन्हें सावधानीपूर्वक सुखाया जाता है। खाने में स्वाद बढ़ाने के अलावा केसर के और भी कई उपयोग हैं। प्राचीन भारतीय चिकित्सा ग्रंथों में तंत्रिका तंत्र के विकारों से निपटने के लिए इसके उपयोग की सलाह दी गई है। और, हाल ही में टोथ व उनके साथियों द्वारा किए गए क्लीनिकल परीक्षणों में पता चला है कि हर दिन 30 मिलीग्राम केसर का सेवन अवसाद-रोधी का काम करता है (प्लांटा मेडिका, 2019)। इसके कुछ रासायनिक घटकों में कैंसर-रोधी गुण भी पाए गए हैं।

भारत विश्व का 5 प्रतिशत केसर उत्पादन करता है। ऐतिहासिक रूप से, दुनिया के कुछ सबसे बेशकीमती केसर काश्मीर की प्राचीन झीलों के पेंदे में उगाए जाते थे। जम्मू-काश्मीर केसर की खेती के लिए कई तरह से अनुकूल है – समशीतोष्ण जलवायु, उच्च पीएच (6.3-8.3) वाली शुष्क मिट्टी, गर्मियों में (जब फूल खिलते हैं) लगभग 25 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान व मिट्टी में पोषक तत्वों की अच्छी उपलब्धता।

अधिक डैटा का उपयोग

अधिक डैटा के लिए भारतीय शोधकर्ताओं ने विश्व स्तर पर उपलब्ध सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग किया है। जम्मू-काश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में केसर की खेती वाले क्षेत्रों की तुलना दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में केसर की खेती करने वाले 449 स्थानों से की गई जो ग्लोबल बायोडायवर्सिटी इफॉर्मेशन फेसिलिटी में दर्ज हैं। पर्यावरण सम्बंधी डैटा WorldClim पोर्टल से लिया गया, जो धूप से लेकर हवा की गति समेत 103 कारकों का डैटा उपलब्ध कराता है। भू-आकृति सम्बंधी डैटा (जैसे ढलान, रुख और ऊंचाई) स्पेस शटल रडार टोपोग्राफी मिशन के डिजिटल एलिवेशन मॉडल से लिया गया। इनके विश्लेषण के आधार पर भारत में केसर उगाने के लिए संभावित उपयुक्त क्षेत्रों को चिन्हित किया गया है।

अध्ययन में कुल 4200 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र केसर की खेती के लिए उपयुक्त पाया गया, जो जम्मू-काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरी सिक्किम, इम्फाल, मणिपुर और तमिलनाडु के उडगमंडलम में है। इनमें से कुछ जगहों पर दो मौसमों में परीक्षण के तौर पर केसर उगाने पर तकरीबन राष्ट्रीय औसत उपज (प्रति हैक्टर 2.6 किलोग्राम) के बराबर केसर उत्पादन हुआ। तो क्या इन नए क्षेत्रों में केसर नियमित रूप से उगाई जा सकेगी? आर्थिक दृष्टि से तो जवाब हां ही होगा। (स्रोत फीचर्स)   

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कीटों को भ्रमित कर फसलों की सुरक्षा

र वर्ष विश्व की 20 प्रतिशत फसलों को कीट चट कर जाते हैं। आम तौर पर इन फसलों की रक्षा के लिए कीटनाशकों का और कीटों के व्यवहार को प्रभावित करने वाले रसायनों (फेरोमोन्स) का उपयोग किया जाता है। फेरोमोन्स कीटों को भ्रमित करते हैं और वे प्रजनन साथी खोज नहीं पाते। लेकिन महंगे होने के कारण इनका ज़्यादा उपयोग नहीं होता। अब शोधकर्ताओं ने सस्ता फेरोमोन बना लिया है।

विश्व भर में प्रति वर्ष 4 लाख टन से अधिक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। ये कीटनाशक खेतिहर मज़दूरों को नुकसान तो पहुंचाते ही हैं साथ ही परागणकर्ताओं और अन्य वन्यजीवों के लिए भी हानिकारक हैं। इसके अलावा कीटों में कीटनाशकों के विरुद्ध प्रतिरोध विकसित होने पर किसानों को इनका अधिक उपयोग करना पड़ रहा है। तो फेरोमोन एक अच्छा विकल्प हो सकता है।

मादा कीट नर को आकर्षित करने के लिए फेरोमोन्स का स्राव करती हैं। यदि विशिष्ट कीटों को आकर्षित करने वाले कृत्रिम फेरोमोन का उपयोग किया जाए तो नर चकमा खा जाएंगे और प्रजनन को रोका जा सकता है। तब मादा अनिषेचित अंडे देगी जिनमें से भुक्खड़ इल्लियां पैदा नहीं होंगी।

वैसे तो कीटों द्वारा उत्पन्न फेरोमोन कई यौगिकों का मिश्रण होता है। किसी प्रजाति विशेष के कीटों को आकर्षित करने के लिए कृत्रिम फेरोमोन में यौगिकों का सही मिश्रण होना चाहिए। लेकिन संभोग की प्रक्रिया को रोकने के लिए एक मोटा-मोटा मिश्रण चलेगा क्योंकि कई प्रजातियां एक से यौगिकों का इस्तेमाल करती हैं। फिर भी इस तरह का मिश्रण बनाना कोई आसान काम नहीं है। 1 किलोग्राम कृत्रिम फेरोमोन बनाने के लिए लगभग 1000 डॉलर (80 हज़ार रुपए) से 3500 डॉलर (2.7 लाख रुपए) तक का खर्च आता है। इसे खेतों में प्रसारित करने के लिए 3200 से 32,000 रुपए प्रति हैक्टर और लगते हैं तथा कुशल श्रमिकों की ज़रूरत होती है। इन्हीं कारणों से कृत्रिम फेरोमोन का उपयोग अपेक्षाकृत अधिक मुनाफा देने वाली फसलों में किया जाता है।

लुंड युनिवर्सिटी के केमिकल इकोलॉजिस्ट क्रिस्टर लोफस्टेड और उनके सहयोगी पिछले एक दशक से फेरोमोन संश्लेषण के आवश्यक रसायन बनाने के लिए पौधों को संशोधित कर रहे हैं। उन्होंने अपने अध्ययन के लिए कैमेलीना नामक पौधे को चुना है जिसके बीजों में भरपूर मात्रा में वसीय अम्ल होते हैं। ये वसीय अम्ल पौधों में फेरोमोन निर्माण के कच्चे माल के प्रमुख घटक हैं।

शोधकर्ताओं ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से नैवल ऑरेंजवर्म का जीन कैमेलीना में जोड़ा। इसे जोड़ने पर कैमेलीना के बीज में (ज़ेड)-11-हेक्साडेकेनोइक अम्ल का उत्पादन होने लगता है। कीटों में यह वसीय अम्ल फेरोमोन का पूर्ववर्ती होता है। उन पौधों को चुना गया जो अम्ल का सबसे अधिक मात्रा में उत्पादन करते थे।

तीन पीढ़ियों बाद इन बीजों में फेरोमोन के उत्पादन के लिए पर्याप्त (ज़ेड)-11-हेक्साडेकेनोइक अम्ल था। इसकी मदद से शोधकर्ताओं ने एक तरल फेरोमोन मिश्रण तैयार किया जो डायमंडबैक पतंगे (प्लूटेला ज़ाइलोस्टेला) नामक कीट को आकर्षित करता था।

वर्ष 2017 में टीम ने चीन में इस फेरोमोन मिश्रण का परीक्षण किया। नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह अन्य उपलब्ध कृत्रिम फेरोमोन के बराबर कारगर रहा। ब्राज़ील में किए गए एक अन्य परीक्षण में इस फेरोमोन ने कॉटन बोलवर्म (हेलिकोवर्पा अर्मिगेरा) के संभोग पैटर्न में ठीक उसी तरह का परिवर्तन किया जैसा महंगा कृत्रिम फेरोमोन करता है।

इस शोध में शामिल कंपनी आईएससीए ने इस रसायन की कीमत 70-125 डॉलर (5600-10,000 रुपए) के बीच रखी है जो लगभग कीटनाशकों के बराबर है। एक समस्या यह है कि यह तरीका बड़े खेतों में ही लाभदायक साबित होता है। विकासशील देशों में खेत छोटे-छोटे होते हैं। इसके लिए अलग रणनीति की ज़रूरत होगी। बहरहाल, अन्य कीटों के लिए भी फेरोमोन्स निर्माण के प्रयास जारी है। (स्रोत फीचर्स)

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अतिरिक्त जीन से चावल की उपज में सुधार – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साठ के दशक की हरित क्रांति ने चावल और गेहूं जैसी फसलों की उपज में उल्लेखनीय सुधार किया। यह नव-विकसित उच्च उपज वाली किस्मों के साथ-साथ सिंचाई, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रचुर उपयोग का मिला-जुला परिणाम था। भारत में चावल की प्रति हैक्टर उपज में तीन गुना वृद्धि देखी गई।

अब पचास साल बाद, इस सघन तरीके के कुछ नकारात्मक प्रभाव दिखने लगे हैं – नाइट्रोजन उर्वरक और कृषि रसायन पर्यावरण के लिए खतरा पैदा करते हैं; पानी आपूर्ति अक्सर कम होती है; और कृषि भूमि अब दम तोड़ने लगी है।

दुनिया की बढ़ती आबादी के लिए अधिक खाद्यान उपजाने के लिए जंगलों और घास के मैदानों को खेतों में तबदील करना होगा। यह हमारे पारिस्थितिक तंत्रों पर भारी दबाव डालेगा।

इस उलझन से बाहर निकलने का एक संभावित तरीका चीनी कृषि विज्ञान अकादमी के फसल विज्ञान संस्थान के शाओबो वाई और उनके साथियों ने साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में सुझाया है – ‘ए ट्रांसक्रिप्शनल रेगुलेटर दैट बूस्ट्स ग्रेन यील्ड एंड शॉर्टन्स दी ग्रोथ ड्यूरेशन ऑफ राइस’ यानी अनुलेखन का एक नियंत्रक जो धान की पैदावार को बढ़ाता है और पकने की अवधि को कम करता है। इसी अंक में रिपोर्टर एरिक स्टोकस्टेड ने लिखा है, “सुपरचार्ज्ड बायोटेक चावल 40 प्रतिशत अधिक उपज देता है।”

यह रिपोर्ट बताती है कि चीनी चावल की एक किस्म में इसके अपने ही एक जीन की दूसरी प्रति जोड़ने से उपज में 40 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। जब इस चावल में OsDREB1C नामक जीन की दूसरी प्रति जोड़ी जाती है, तो यह प्रकाश संश्लेषण और नाइट्रोजन का बेहतर उपयोग करता है, पुष्पन तेज़ गति से होता है और ज़्यादा बड़े तथा अधिक संख्या में दाने मिलते हैं। यह उर्वरकों का अवशोषण अधिक कुशलता से करता है – जिससे अधिक प्रचुर मात्रा में अनाज पैदा होता है।

भारत दुनिया में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक है। भारत ने वर्ष 2021-22 के दौरान 150 से अधिक देशों को लगभग 1.8 करोड़ मीट्रिक टन चावल निर्यात किया था, जिससे 6.11 खरब डॉलर की कमाई हुई थी। यह कुछ साल पहले की तुलना में बहुत बड़ा सुधार है। जैसा कि अरुण अधिकारी और उनके साथियों ने 2016 में एग्रीकल्चर इकॉनॉमी रिसर्च रिव्यू में बताया था, आने वाले वर्षों में बढ़ती मांग के मद्देनज़र धान उत्पादन और निर्यात बढ़ाने की (बेहतर) रणनीति तलाशनी चाहिए।

वियतनाम चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश बन गया है। वर्ष 2021-2022 में उसने 65 लाख टन धान का उत्पादन किया है। भारत को दुनिया के सबसे बड़े चावल उत्पादक व निर्यातक के रूप में अपनी हैसियत को बरकरार रखने और इसे बढ़ाने के लिए 1.8 करोड़ टन से अधिक उत्पादन करना होगा। इस संदर्भ में वाई और उनके साथियों का पेपर महत्वपूर्ण हो जाता है।

जीन मॉडुलेशन

पेपर में महत्वपूर्ण बात यह है कि शोधकर्ताओं ने धान की इस किस्म में कोई बाहरी जीन नहीं बल्कि उसी जीन को फिर से जोड़ा है। इसे जेनेटिक मॉडुलेशन की संज्ञा देना सबसे उपयुक्त होगा। यह कोई जेनेटिक संशोधन या परिवर्तन (जीएम) नहीं है। यह किसी बाह्य जीन रोपित पौधे का परिणाम नहीं है, जिसमें किसी दाता पौधे से जीन लिए जाते हैं।

भारत के लिए यह विशेष रूप से प्रासंगिक है, जिसका लक्ष्य चावल के उत्पादन और व्यापार में अपनी स्थिति को बरकरार रखना है। दी वायर में 16 जून को प्रकाशित एक लेख – (भारत में जीएम फसलों का नियमन जीन के प्रभावों पर आधारित होना चाहिए, उसके स्रोत पर नहीं) बताता है कि “भारत ने पूर्व में सभी तरह की जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के व्यावसायीकरण सम्बंधी जो नियम लागू किए थे उनमें से चंद जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों को इन नियमों से छूट दी गई है।

उदाहरण के लिए, बीटी कपास में बैसिलस थुरंजिएंसिस (बीटी) नामक बैक्टीरिया से जीन सामान्य कपास में स्थानांतरित किया जाता है। भारत के कृषि मंत्रालय ने वर्ष 2019 में बताया था कि उसने इस बाहरी जीन को सामान्य कपास में स्थानांतरित कर बीटी कपास का उत्पादन करने की अनुमति दे दी है। इसे भारत में बनाकर भारत और अन्य देशों में बेचा जा रहा है।

इसी तरह, बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित एक लेख कहता है कि भारत पशुओं के चारे के लिए 12 लाख टन जीएम सोयाबीन का आयात करेगा। अगर मंत्रालय विदेशों से जीएम सोयाबीन आयात की अनुमति दे रहा है तो क्यों न भारत में उत्पादन की अनुमति दे दी जाए?

दूसरी ओर, साइंस में प्रकाशित उपरोक्त शोधपत्र के लेखकों ने चावल में पहले से मौजूद ‘मूल’ जीन (OsDREB1C) की एक अतिरिक्त प्रति जोड़ी है, न कि बीटी कपास या बीटी सोयाबीन की तरह एक बाहरी जीन।

भारत में चावल के बेहतरीन शोधकर्ता हैं और देश भर की कई प्रयोगशालाओं में उत्कृष्ट जेनेटिक इंजीनियर भी मौजूद हैं। जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के पोषण विशेषज्ञों के साथ मिलकर कृषि मंत्रालय इन शोधकर्ताओं का साथ दे तो भारत दुनिया में प्रमुख चावल निर्यातक बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जंगली मुर्गियां चिकन कैसे बनीं?

चिकन बिरयानी से लेकर खाओ-मन-गाई तक चिकन और चावल का संयोजन दुनिया भर में काफी प्रचलित है। लेकिन इन दोनों का सम्बंध सिर्फ साथ-साथ पकाने तक सीमित नहीं है। हाल ही में किए गए कुछ पुरातत्व अध्ययनों से पता चलता है कि चावल के बिना पालतू मुर्गियों का अस्तित्व भी संभव नहीं था।

इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि मुर्गियों का पालतूकरण वैज्ञानिकों के अनुमान से हज़ारों वर्ष बाद हुआ जब थाईलैंड या प्रायद्वीपीय दक्षिणपूर्वी एशिया में लाल जंगली फाउल के क्षेत्रों में मनुष्यों द्वारा चावल की खेती शुरू की गई। इस अध्ययन में और भी कई पहलू सामने आए हैं जिसने चिकन की उत्पत्ति से सम्बंधित कई मिथकों को ध्वस्त किया है।

चार्ल्स डार्विन के अनुसार मुर्गियों की उत्पत्ति का सम्बंध लाल जंगली फाउल से है क्योंकि ये दिखने में लगभग एक जैसे हैं। लेकिन डार्विन के इस प्रस्ताव को सही साबित करना मुश्किल है। देखा जाए तो जीवाश्म स्थलों में भारत से लेकर उत्तरी चीन तक जंगली फाउल की पांच किस्में और छोटी मुर्गियों की हड्डियां कम मिलती हैं।

गौरतलब है कि वर्ष 2020 में 863 जीवित मुर्गियों के जीनोम के अध्ययन से यह सबित हुआ है कि जंगली फाउल उप-प्रजाति (गैलस गैलसपेडिकस) आधुनिक मुर्गियों की पूर्वज है। चिकन का डीएनए इस उप-प्रजाति से सबसे अधिक मेल खाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुर्गियों के पालतूकरण की शुरुआत दक्षिणपूर्वी एशिया में हुई थी। शोधकर्ताओं ने उत्तरी चीन और पाकिस्तान में 8-11 हज़ार साले पुराने जीवाश्मों को चिकन के जीवाश्म बताया है। लेकिन आनुवंशिकविदों के अनुसार वर्तमान जीवित पक्षियों के आनुवंशिक विश्लेषण से पालतूकरण के समय के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता है। इसके अलावा शोधकर्ताओं को जीवाश्मित मुर्गियों से पर्याप्त डीएनए प्राप्त नहीं हुआ है जिससे पालतूकरण का सटीक समय बताया जा सके।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ म्युनिख के पुरा शारीरिकी विज्ञानी जोरिस पीटर्स और ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के पालतूकरण विशेषज्ञ ग्रेगर लार्सन ने विश्व भर के 600 से अधिक पुरातात्विक स्थलों से चिकन की हड्डियों और उससे सम्बंधित व्यापक अध्ययन के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय टीम गठित की। इसके अलावा, एक अन्य स्वतंत्र अध्ययन में उन्होंने पश्चिमी युरेशिया और उत्तरी अफ्रीका से प्राप्त चिकन जीवाश्मों की हड्डियों का काल-निर्धारण किया।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार संभावित चिकन की सबसे पुरानी हड्डियां मध्य थाईलैंड के बान नॉन वाट क्षेत्र में पाई गईं जहां किसानों ने 3250 से 3650 वर्ष पूर्व चावल की खेती शुरू की थी। इन किसानों ने गैलस वंश के कई जीवों को विशिष्ट सामग्री (कब्र-सामग्री) के साथ दफन किया था जो इस बात के संकेत है कि ये कंकाल जंगली फाउल की बजाय पालतू मुर्गियों के थे। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जंगली फाउल चावल के दानों से आकर्षित हुए होंगे और खेतों के किनारे झुरमुट में अपने घोंसले बनाए होंगे और मनुष्यों की उपस्थिति के आदी हो गए होंगे ।

एशिया से मध्य पूर्व और अफ्रीका के क्षेत्रों में मुर्गियों की हड्डियों की उपस्थिति के साथ-साथ वैज्ञानिकों को चावल की शुष्क खेती, बाजरा और अन्य अनाजों के प्रसार का सम्बंध देखने को मिला। टीम ने पाया कि चिकन उत्तरी चीन और भारत में लगभग 3000 वर्ष पूर्व तथा मध्य पूर्व और उत्तर-पूर्वी अफ्रीका में लगभग 2800 पूर्व प्रकट हुए थे।

ऐसे में शोधकर्ताओं ने पूर्व में चिकन के और अधिक समय पहले मिलने के अध्ययनों को त्रुटिपूर्ण बताया है। उनके अनुसार पिछले अध्ययनों में मिले जीवाश्म या तो चिकन के नहीं हैं या उनके पालतूकरण की तारीखों की गणना करने में कोई गलती हुई है।

युरोप में चिकन की उपस्थिति का पता लगाने के लिए टीम ने युरोप और एशिया में पूर्व में प्रस्तावित 23 मुर्गियों की हड्डियों का पुन: काल-निर्धारण किया। एंटिक्विटी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार युरोप में सबसे पहले चिकन 2800 वर्ष पूर्व इटली स्थित एट्रस्केन स्थल पर पाए गए थे। इस अध्ययन को कई ऐतिहासिक अभिलेखों का भी समर्थन प्राप्त है। जैसे ओल्ड टेस्टामेंट में चिकन का ज़िक्र नहीं है; ये न्यू टेस्टामेंट में प्रकट होते हैं।

चिकन को उत्तर में ब्रिटेन, स्कैंडेनेविया और आइसलैंड तक फैलने में 1000 वर्षों का समय लग गया। संभवत: उपोष्णकटिबंधीय पक्षियों को ठंडे इलाकों में रहने के लिए अनुकूलित होना पड़ा।   

वैसे, मनुष्यों ने पक्षियों को मुख्य रूप से भोजन के स्रोत के रूप में देखना काफी हाल में शुरू किया है। पहले इनका लेन-देन संपत्ति, पंखों, रंजकों, मूल्यवान वस्तुओं, कब्रों में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं आदि के रूप में किया जाता था। टीम के अनुसार शुरुआती चिकन आकार में काफी छोटे थे जिनको मांस का प्रमुख स्रोत नहीं माना जाता था। धीरे-धीरे वे साधारण भोजन का हिस्सा बन गए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फफूंद से सुरक्षित है जीन-संपादित गेहूं

पावडरी माइल्ड्यू नामक फफूंद गेहूं की खेती करने वाले किसानों के लिए एक बड़ी समस्या है। यह फसलों को संक्रमित करती है, पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है और वृद्धि धीमी पड़ जाती है। यह फसल को 40 प्रतिशत तक नष्ट कर सकती है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा जीन-संपादित गेहूं विकसित किया है जो दाने के विकास को बाधित किए बिना फफूंद से सुरक्षा प्रदान करता है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह तकनीक स्ट्रॉबेरी और खीरे जैसी अन्य फसलों में भी अपनाई जा सकती है।

फसलों में रसायनों का उपयोग कम करना पर्यावरण के लिए अच्छा होगा और साथ ही रोग प्रतिरोधी पौधे ऐसे देशों के लिए बेहतर साबित होंगे जिनकी कीटनाशकों तक पहुंच नहीं है।     

गौरतलब है कि कुछ पौधे प्राकृतिक रूप से पावडरी माइल्ड्यू से अपना बचाव कर सकते हैं। 1940 के दशक में इथोपिया की यात्राओं के दौरान वैज्ञानिकों ने जौं की ऐसी किस्में देखी थी जिन पर फफूंद का बहुत कम प्रभाव था। लेकिन ये पौधे और इनके आधार पर पौध संवर्धकों द्वारा बनाए गए पौधे ठीक से विकसित नहीं हो पाते थे और अनाज की उपज भी कम थी। फिर भी संवर्धकों के प्रयासों से जौं के ऐसे संस्करण तैयार हो सके जो कवकों से सुरक्षित रहते थे और पर्याप्त रूप से विकसित होने में सक्षम थे। इस तरह से विकसित जौं काफी सफल रही।

कई रोगजनक जीव पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को चकमा देने के तरीके विकसित कर लेते हैं लेकिन इन नई किस्मों में पाउडरी माइल्ड्यू से दशकों तक सुरक्षा मिलती रही। इसका कारण MLO नामक जीन है जो उत्परिवर्तित होने पर फफूंद का संक्रमण रोकता है। यह जीन फफूंद हमले के दौरान कोशिका भित्ति को मोटा करके पौधे को सुरक्षा प्रदान करता है।

गेहूं में यह तकनीक सफल नहीं रही। गेहूं में MLO में उत्परिवर्तन से पौधों का विकास रुक गया और पैदावार में 5 प्रतिशत की कमी आई। किसानों को फफूंदनाशी का इस्तेमाल करना ही बेहतर लगा। समस्या के समाधान के लिए कुछ वर्ष पूर्व चीन के इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स एंड डेवलपमेंटल बायोलॉजी के पादप विज्ञानी गाओ कैक्सिया और उनके सहयोगियों ने क्रिस्पर सहित विभिन्न जीन-संपादन तकनीकों का उपयोग करते हुए गेहूं में MLO जीन की छह प्रतियों में सुरक्षा देने वाले उत्परिवर्तन तैयार किए।        

वैसे ऐसे परिवर्तन पारंपरिक तरीकों से हासिल किए जा सकते हैं लेकिन उसमें कई वर्षों का समय लग जाता है। वैसे भी अब कई देशों की सरकारों ने हाल ही में जीन संपादन तकनीक से बनाए गए पौधों के अध्ययन और व्यवसायीकरण को आसान बना दिया है।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार टीम ने कुछ सीमित मैदानी परीक्षणों में जीन-संपादित गेहूं और अन्य गेहूं की वृद्धि में कोई उल्लेखनीय अंतर नहीं पाया। लेकिन सिर्फ एक-एक पौधे को माप कर उपज का विश्वसनीय अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए बड़े प्लॉट में परीक्षण की आवश्यकता होगी। 

जीन-संशोधित पौधों की वृद्धि सामान्य रहना अचरज की बात थी। गाओ और उनके सहयोगियों ने पाया कि जीन संपादन से MLO जीन का एक भाग ही नहीं हटा बल्कि गुणसूत्र का एक बड़ा हिस्सा भी हट गया था। नतीजतन TMT3 नामक एक नज़दीकी जीन अधिक सक्रिय हो गया जिसने पौधे की वृद्धि को सामान्य रखा। TMT3 जीन एक ऐसे प्रोटीन का निर्माण करता है जो शर्करा के अणुओं के परिवहन में मदद करता है लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि MLO उत्परिवर्तन के कारण उपज में होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति कैसे हुई है।

गाओ और उनके सहयोगी स्ट्रॉबेरी, मिर्च और खीरे में भी जीन संपादन का प्रयास कर रहे हैं जो पाउडरी माइल्ड्यू के प्रति अति संवेदनशील हैं। इसी दौरान उन्होंने गेहूं की चार किस्मों का जीन-संपादन किया है जिनको चीन के किसानों ने काफी पसंद किया और बड़े मैदानी परीक्षणों में अच्छे परिणाम दिए हैं। बहरहाल, चीन में जीन-संपादित गेहूं को किसानों को बेचने से पहले कृषि मंत्रालय की मंज़ूरी की आवश्यकता होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत के जंगली संतरे – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

नींबू और संतरा हमारे भोजन को स्वाद देने वाले और पोषण बढ़ाने वाले अवयव हैं। ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी पर नींबू (साइट्रस) वंश के लगभग एक अरब पेड़ हैं। वर्तमान में दुनिया में नींबू वंश के 60 से अधिक अलग-अलग फल लोकप्रिय हैं। ये सभी निम्नलिखित तीन फल प्रजातियों के संकर हैं या संकर के संकर हैं या संकर के संकर के संकर… हैं: (1) बड़ा, मीठा और स्पंजी (मोटे) छिलके वाला चकोतरा (साइट्रस मैक्सिमा; अंग्रेज़ी पोमेलो, तमिल बम्बलिमा); (2) स्वादहीन साइट्रॉन, जिसका उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में किया जाता है (साइट्रस मेडिका; गलगल, मटुलंकम या कोमाट्टी-मटुलै), और (3) ढीले-पतले छिलके वाला और मीठे स्वाद का मैंडरिन ऑरेंज (साइट्रस रेटिकुलेटा, संतरा, कमला संतरा) जिसका सम्बंध हम नागपुर के साथ जोड़ते हैं।

नींबू वंश के हर फल की कुछ खासियत होती है: उदाहरण के लिए, दुर्लभ ताहिती संतरा, जो भारतीय रंगपुर नींबू का वंशज है, नारंगी रंग के नींबू जैसा दिखता है और स्वाद में अनानास जैसा होता है।

संतरे की उत्पत्ति                               

साइट्रस (नींबू) वंश की उत्पत्ति कहां से हुई? नींबू वंश के भारतीय मूल का होने की बात सबसे पहले चीनी वनस्पति शास्त्री चोज़ाबुरो तनाका ने कही थी। वर्ष 2018 में नेचर पत्रिका में गुओहांग अल्बर्ट वू और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित नींबू वंश की कई किस्मों के जीनोम के एक विस्तृत अध्ययन का निष्कर्ष है कि आज हम इसकी जितनी भी किस्में देखते हैं, उनके अंतिम साझे पूर्वज लगभग अस्सी लाख वर्ष पूर्व उस इलाके में उगते थे जो वर्तमान में पूर्वोत्तर भारत के मेघालय, असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मणिपुर और उससे सटे हुए म्यांमार और दक्षिण पश्चिमी चीन में है। गौरतलब है कि यह क्षेत्र दुनिया के सबसे समृद्ध जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक है। जैव विविधता हॉटस्पॉट ऐसे क्षेत्र को कहते हैं जहां स्थानिक वनस्पति की कम से कम 1500 प्रजातियां पाई जाती हों, और वह क्षेत्र अपनी कम से कम 70 प्रतिशत वनस्पति गंवा चुका हो। पूर्वोत्तर में भारत के 25 प्रतिशत जंगल हैं और जैव विविधता का एक बड़ा हिस्सा है। यहां आपको खासी और गारो जैसी जनजातियां और बोली जाने वाली लगभग 200 भाषाएं मिलेंगी। यह क्षेत्र नींबू वंश के जीनोम का एक समृद्ध भंडार भी है। वर्तमान में यहां 68 किस्म के जंगली और संवर्धित साइट्रस पाए जाते हैं।

प्रेतों का फल

जंगली भारतीय संतरा विशेष दिलचस्पी का केंद्र है। यह पूर्वोत्तर भारत के देशज साइट्रस (साइट्रस इंडिका तनाका) की पूर्वज प्रजाति है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह इस समूह का आदिम पूर्वज भी हो सकता है। कलकम मोमिन और उनके साथियों ने मेघालय की गारो पहाड़ियों में हमारे अपने जंगली संतरे का अध्ययन किया था, जहां ये अब सिर्फ बहुत छोटे हिस्सों में ही बचे हैं। यह अध्ययन वर्ष 2016 में  इंटरनेशनल जर्नल ऑफ माइनर फ्रूट्स, मेडिसिनल एंड एरोमैटिक प्लांट्स में प्रकाशित हुआ था।

विस्तृत आणविक तुलनाओं वाली हालिया खोज में मणिपुर के तमेंगलांग ज़िले में जंगली भारतीय संतरा पुन: खोजा गया है; इलाके का जनसंख्या घनत्व बहुत कम है जंगल अत्यंत घना। यह अध्ययन हुइद्रोम सुनीतिबाला और उनके साथियों द्वारा इस वर्ष जेनेटिक रिसोर्स एंड क्रॉप इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुआ है। मणिपुर के इस शोध दल को यहां साइट्रस इंडिका के तीन अलग-अलग झुंड मिले हैं, जिनमें से सबसे बड़े झुंड में 20 पेड़ हैं। यह भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता वाला क्षेत्र है, जहां वार्षिक तापमान 4 और 31 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है।

मणिपुरी जनजाति इसे गरौन-थाई (केन फ्रूट) कहती है, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने इस फल की न तो खेती की और न ही इसे सांस्कृतिक रूप से अपनाया, जैसा कि खासी और गारो लोगों ने किया है। गारो भाषा में इस फल का नाम मेमंग नारंग (प्रेतों का फल) है, क्योंकि इसका उपयोग वे अपने मृत्यु अनुष्ठानों में करते हैं। पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में इसे पाचन सम्बंधी समस्याओं और सामान्य सर्दी के लिए उपयोग किया जाता है। गांव अपने मेमंग पेड़ों की देखभाल काफी लगन से करता है।

इसका फल छोटा होता है, जिसका वजन 25-30 ग्राम होता है और यह गहरे नारंगी से लेकर लाल रंग का होता है। जनजातियां पके फल को उसके तीखे खट्टेपन के साथ बहुत पसंद करती हैं। इसका स्वाद फीनॉलिक यौगिकों (जो सशक्त एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं) और फ्लेवोनॉइड्स से आता है। ये फीनॉलिक्स और फ्लेवोनॉइड्स प्रचलित एंटी-एजिंग (बुढ़ापा-रोधी) स्किन लोशन्स में पाए जाते हैं।

ऐसा लगता है मानव जाति मीठा पसंद करती है, और संतरा प्रजनकों ने इसी बात का ख्याल रखा है। हालांकि हम भारतीय खट्टे स्वाद के खिलाफ नहीं हैं! हम नींबू (साइट्रस औरेंटिफोलिया स्विंगल) के बहुत शौकीन हैं। दुनिया में भारत इनका अग्रणी उत्पादक है। हमारे प्रजनकों ने इसमें बहुत अच्छा काम किया है। परभणी और अकोला के कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित नई किस्में (विक्रम, प्रेमलिनी वगैरह) अर्ध-शुष्क इलाके में भी अच्छी पैदावार दे रही हैं।

इस चक्कर में, साइट्रस इंडिका उपेक्षित पड़ी हुई है। यह गंभीर जोखिम में है, इसकी खेती केवल कुछ ही गांवों में की जाती है। और इसका जीनोम अनुक्रमण भी नहीं किया गया है।

ज़रूरी नहीं कि नींबू वंश के (खट्टे) फलों में फीनॉलिक और फ्लेवोनॉइड यौगिकों को कम करना अच्छा ही साबित हो क्योंकि ये पौधों को रोगजनकों से बचाने का काम करते हैं। पूर्वोत्तर में साइट्रस की बची हुई जंगली किस्मों की सावधानीपूर्वक पहचान करने, उनका संरक्षण करने और उनका विस्तार से अध्ययन करने से केवल ज्ञान ही नहीं मिलेगा। बल्कि यह वर्तमान में उगाए जा रहे संतरों और नींबू को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने में मदद करेगा। इनसे रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार होगा और साथ ही साथ इन अद्भुत फलों से मिलने वाले स्वास्थ्य लाभ भी मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीटनाशक प्रबंधन विधेयक 2020 – ए. डी. दिलीप कुमार और डी. नरसिम्हा रेड्डी

यह लेख मूलत: करंट साइंस पत्रिका (अगस्त 2021) में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ है।

केंद्रीय मंत्रीमंडल ने फरवरी 2020 में नए कीटनाशक प्रबंधन विधेयक को मंज़ूरी दी। इस विधेयक में उद्योगों को विनियमित करने के प्रावधान तो हैं लेकिन इसमें ऐसे कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया है जो कीटनाशकों के उपयोग से उत्पन्न होने वाले जोखिमों को कम करने के लिहाज़ से अनिवार्य हैं। यह विधेयक पंजीकरण उपरांत जोखिम में कमी, कीटनाशक उपयोगकर्ताओं, समुदाय और पर्यावरण की सुरक्षा को संबोधित करने में विफल रहा है। ऐसे में सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण सुरक्षा के संदर्भ में इस विधेयक के परिणाम घटिया हो सकते हैं; इसलिए इसमें महत्वपूर्ण संशोधनों की आवश्यकता है।

फरवरी 2020 में केंद्रीय मंत्रीमंडल द्वारा कीटनाशक प्रबंधन विधेयक 2020 (पीएमबी 2020) को मंज़ूरी दी गई। जून 2021 में, विधेयक को जांच के लिए कृषि मामलों की स्थायी समिति को भेजा गया। पारित होने पर यह नया अधिनियम कीटनाशक अधिनियम 1968 का स्थान लेगा। इस विधेयक में उद्योगों के नियमन के साथ-साथ कीटनाशक विषाक्तता की निगरानी और पीड़ितों को मुआवज़ा देने सम्बंधी प्रावधान हैं। लेकिन, इसमें ऐसे कई मुद्दों को संबोधित नहीं किया गया है जो प्रभावी कीटनाशक प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन मुद्दों पर यहां चर्चा की गई है।     

विधेयक (पीएमबी 2020) भारत में कीटनाशकों के उपयोग के परिदृश्य को संबोधित करने में विफल रहा है। केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड और पंजीकरण समिति (सीआईबी और आरसी) द्वारा कीटनाशकों को फसल और कीट के किसी विशिष्ट संयोजन और/या लक्षित कीटों के लिए पंजीकृत और अनुमोदित किया जाता है। कीटनाशक अवशेष (रेसिड्यू) सम्बंधी मानक और अन्य नियम अनुमोदित उपयोग के आधार पर तैयार किए जाते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि राज्य कृषि विश्वविद्यालयों/विभागों, कमोडिटी बोर्डों और उद्योगों ने अनुमोदित उपयोग का ध्यान रखे बिना कीटनाशकों के उपयोग की सिफारिश की थी। किसान कीटनाशकों का उपयोग कई फसलों के लिए यह ध्यान दिए बगैर करते हैं कि अनुमोदित उपयोग क्या है। गैर-अनुमोदित कीटनाशकों के उपयोग की बात अवशेष की निगरानी में पता चली है। इसलिए, पीएमबी 2020 में होना यह चाहिए था कि कृषि वि.वि. और विभागों, कमोडिटी बोर्डों और पेस्टिसाइड लेबल के दावों द्वारा की गई सिफारिशों का तालमेल अनुमोदित उपयोग से स्थापित करने और अन्य उपयोगों को अवैध घोषित करने का प्रावधान हो।   

पीएमबी 2020 में ‘कीट नियंत्रण संचालक’ और ‘कार्यकर्ता’ की परिभाषा में देश के सबसे बड़े कीटनाशक उपयोगकर्ताओं, किसानों और कृषि श्रमिकों, को शामिल नहीं किया गया है। इसलिए विधेयक में आवश्यक रूप से यह निर्दिष्ट किया जाना चाहिए कि कौन लोग कृषि और अन्य कार्यों में कीटनाशकों का इस्तेमाल कर सकते हैं।    

कीटनाशक पंजीकरण की प्रक्रिया कीटनाशक के चयन का अवसर देती है। यह चयन उपयोग की परिस्थिति में प्रभाविता, मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण सुरक्षा सम्बंधी डैटा के मूल्यांकन के आधार पर किया जाता है। कीटनाशकों के जोखिम को कम करने के तीन महत्वपूर्ण सूत्र हैं: ‘कीटनाशकों पर निर्भरता कम करना’, ‘कम जोखिम वाले कीटनाशकों का चयन’, और ‘उचित ढंग से उपयोग सुनिश्चित करना’। अंतर्राष्ट्रीय कीटनाशक प्रबंधन आचार संहिता (इंटरनेशनल कोड ऑफ कंडक्ट ऑन पेस्टिसाइड मैनेजमेंट, आईसीसीपीएम) के अनुच्छेद 3.6 और 6.1.1 का पालन करते हुए, पंजीयन के लिए निर्णय लेने और अत्यधिक खतरनाक कीटनाशकों (जिनको अत्यधिक विषाक्त माना जाता है) वाले रसायनों को पंजीकृत न करने के लिए एफएओ टूलकिट अधिक फायदेमंद होगा। इससे भारत में कीटनाशक सम्बंधी जोखिमों में कमी लाई जा सकती है।   

वर्तमान में, भारत में 62 कीटनाशकों को ‘पंजीकृत माना गया’ है, जिनकी उपस्थिति कीटनाशक अधिनियम 1968 से भी पहले से है। इनमें से अधिकांश कीटनाशक मूल्यांकन प्रक्रिया से परे पंजीकृत माने जाते रहे हैं। विधेयक में ‘पंजीकृत माना गया’ (अनुच्छेद 23) के प्रावधान को बनाए रखना अनुचित है। अनिवार्य पंजीकरण की खोजबीन और मानक प्रोटोकॉल के साथ सभी कीटनाशकों की समीक्षा, विधेयक का हिस्सा होना चाहिए।

पीएमबी 2020 ने एक सलाहकारी भूमिका के साथ सेंट्रल पेस्टिसाइड बोर्ड (सीपीबी) के गठन का प्रस्ताव दिया है। इसके अतिरिक्त, सीपीबी को कीटनाशक पंजीकरण के मानदंडों को विकसित और अपडेट करने, पारदर्शी प्रक्रियाओं को तैयार करने, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य मानदंडों का अनुपालन करने और पंजीकरण के बाद के निगरानी करने का काम सौंपा जा सकता है। इस बोर्ड में मान्यता प्राप्त कृषि श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जा सकता है।

पीएमबी 2020 में पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट (पीपीई) का उपयोग करने के महत्वपूर्ण प्रावधान गायब हैं जो कीटनाशक अधिनियम 1968 और पीएमबी 2017 के मसौदे में उपलब्ध थे। महाराष्ट्र में पीपीई के बिना कीटनाशकों का छिड़काव कीटनाशक विषाक्तता के कारणों में से एक माना गया है। उद्योग के माध्यम से आईसीसीपीएम के अनुच्छेद 3.6 का पालन करने वाले पीपीई के अनिवार्य रूप से उपयोग के पर्याप्त प्रावधान काफी उपयोगी हो सकते हैं। कीटनाशकों के उपयोग से अक्सर विषाक्तता हो जाती है। इस कारण से, एंटी-डॉट्स के साथ कीटनाशकों के पंजीकरण को प्रतिबंधित करना उचित होगा।     

कीटनाशकों का बहाव, छिड़काव क्षेत्र से परे लोगों में कीटनाशकों के संपर्क में आने के जोखिम और विषाक्तता को बढ़ा सकता है तथा पारिस्थितिकी तंत्र को भी दूषित कर सकता है। इससे बचने के लिए, पीएमबी 2020 को कुछ संवेदनशील क्षेत्र जैसे आंगनवाड़ी, स्कूल, स्वास्थ्य सेवा केंद्र, सामुदायिक सभाओं, आवास, आदि के लिए बफर ज़ोन घोषित करना चाहिए। कीटनाशक-मुक्त बफर ज़ोन की घोषणा करने की शक्ति राज्य सरकारों या स्थानीय इकाइयों को दी जानी चाहिए।

पीएमबी 2020 में कीटनाशकों के उपयोग के जोखिम को कम करने के प्रावधानों का अभाव है। कीटनाशकों के जीवन चक्र का प्रबंधन जैसे एक्सपायर्ड उत्पादों और खाली कीटनाशक कंटेनरों के उचित संग्रह और निपटान को पीएमबी 2020 में लाया जाना चाहिए। ऐसे प्रावधान भी अनिवार्य हैं जो पारस्थितिकी तंत्रों (वायु, जल निकायों, मिट्टी, जंगलों, आदि) के संदूषण को संबोधित करें और मनुष्यों तथा अन्य जीवों को भी इसके संपर्क में आने से भी रोकें। ‘प्रदूषक भुगतान करें’ के सिद्धांत का अनुपालन करने वाले प्रवधानों को कानून का हिस्सा होना चाहिए।       

 इसके अलावा, जवाबदेही और पारदर्शिता के प्रावधान मनुष्यों और पर्यावरण को कीटनाशकों के नुकसान से बचाने के उद्देश्य का हिस्सा हैं; इसलिए इसे विधेयक में लाया जाना चाहिए। इन प्रावधानों का उल्लंघन अन्य अपराधों और सज़ाओं के समान होना चाहिए। इसके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए, कुछ निर्धारित कार्यों के लिए प्रशिक्षित और जानकार कर्मचारियों की नियुक्ति की जानी चाहिए।

पीएमबी 2020 के वर्तमान संस्करण में महत्वपूर्ण संशोधन की आवश्यकता है जिसके बिना भारत में कीटनाशक कानून मानव स्वस्थ्य, जीवों और पर्यावरण की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं होगा। एहतियाती सिद्धांतों की रोशनी में और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा आश्वस्त अधिकारों को सुनिश्चित करते हुए, देश में कीटनाशक कानून को कृषि पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित गैर-रासायनिक कृषि उत्पादन प्रणालियों को बढ़ावा देकर ज़हरीले रासायनिक कीट नियंत्रण उत्पादों पर निर्भरता में कमी की सुविधा प्रदान करनी चाहिए। संधारणीय कृषि, सुरक्षित खाद्य सामग्री उत्पादन और सुरक्षित कार्यस्थल के साथ-साथ प्रदूषण रहित वातावरण प्राप्त करने के लिए पीएमबी 2020 में महत्वपूर्ण संशोधनों की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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