मौत के करीब से गुज़रे कई लोग बताते हैं कि उनकी नज़रों के सामने से उनका जीवन गुज़रने लगता है। जीवन के यादगार क्षण दोहराने लगते हैं और यह सब कुछ वे शरीर के बाहर से अनुभव करते हैं जैसे खुद को कहीं बाहर से देख रहे हों। हाल ही में चार मरणासन्न लोगों पर किए गए एक अध्ययन से लगता है कि इसकी व्याख्या की जा सकती है। पता चला है कि मृत्यु के दौरान दिल की धड़कन बंद होने के बाद भी दिमाग में हलचल जारी रहती है।
चिकित्सकीय रूप से मृत्यु उस स्थिति को कहा जाता है जब हृदय हमेशा के लिए धड़कना बंद कर देता है। लेकिन हालिया अध्ययनों से पता चला है कि हृदय गति रुकने के बाद भी कुछ सेकंड से लेकर घंटों तक मस्तिष्क में हलचल जारी रह सकती है। वर्ष 2013 में चूहों पर हुए एक अध्ययन में चूहों के मस्तिष्क में मरने के 30 सेकंड बाद तक चेतना के लक्षण देखे गए थे।
अब एक नए अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की न्यूरोलॉजिस्ट जिमो बोर्जिगिन की टीम ने कोमा या लाइफ सपोर्ट वाले चार ऐसे रोगियों के सिर पर ईईजी टोपियां लगाईं जिनके जीने की संभावनाएं काफी कम थीं।
ये टोपियां मस्तिष्क की सतह के विद्युत संकेतों की निगरानी के लिए लगाई गई थीं। चिकित्सकों द्वारा वेंटीलेटर हटाए जाने पर दो रोगियों के दिल की धड़कन बंद होने के बाद दिमाग में गामा तरंग नामक उच्च-आवृत्ति वाले तंत्रिका पैटर्न देखे गए। एक स्वस्थ व्यक्ति में ऐसे पैटर्न तब बनते हैं जब वह कुछ सीख रहा हो, या कोई स्मृति या सपना याद कर रहा हो। कई तंत्रिका वैज्ञानिक इसे चेतना से जोड़ते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार गामा तरंगें इस बात का संकेत देती हैं कि मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्र एक साथ काम कर रहे थे, जैसे – हम किसी वस्तु को समझने के लिए दृष्टि, गंध और ध्वनि को एक साथ महसूस करते हैं। हालांकि यह अभी भी एक रहस्य है कि मस्तिष्क यह सब कैसे करता है लेकिन मरने वाले लोगों में गामा तरंगें देखकर ऐसा लगता है कि वे अपने अंतिम क्षणों में यादगार घटनाएं याद कर रहे थे।
टीम ने मस्तिष्क के उस क्षेत्र की विद्युत गतिविधियों में वृद्धि देखी, जिसकी चेतना में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है और यह क्षेत्र सपनों, दिमागी दौरे और मतिभ्रम के दौरान सक्रिय होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार मस्तिष्क की गतिविधि में अचानक वृद्धि होना उसके जीवित रहने की कोशिश का हिस्सा है – ऑक्सीजन से वंचित होने पर मस्तिष्क इस मोड में चला जाता है। मस्तिष्क-मृत्यु से गुज़रते जीवों के अध्ययन में पाया गया है कि उनका मस्तिष्क कई संकेतक अणु छोड़ने लगता है और खुद को पुनर्जीवित करने की कोशिश करने के लिए असामान्य ब्रेनवेव पैटर्न बनाता है। ऐसा करते हुए वह चेतना के बाहरी संकेतों को बंद कर देता है।
बोर्जिगिन मरणासन्न मरीज़ों में मस्तिष्क गतिविधि का अध्ययन करने के लिए अन्य चिकित्सा केंद्रों के साथ सहयोग की उम्मीद करती हैं ताकि निष्कर्षों की पुष्टि हो सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.insider.com/62166e9f45889c0019d1f0a1?width=700
कहने को तो यह बड़ी सरल-सी बात है कि हमें जब भूख लगती है तो हम खाना खा लेते हैं, और पेट भरने का एहसास होने पर खाना बंद कर देते हैं। लेकिन वास्तव में यह काफी जटिल मामला है। आपको भूख लगने और पेट भरने का एहसास दिलाने के लिए कई हार्मोन मिल-जुल कर काम करते हैं ताकि न खाने या अत्यधिक खाने के कारण शरीर और स्वास्थ्य प्रभावित न हो।
यहां भूख नियमन में लिप्त सात प्रमुख हार्मोन पर बात की जा रही है। इनमें कुछ हार्मोन जेनेटिक कारकों से प्रभावित होते हैं जबकि कुछ अन्य हार्मोंन हमारी जीवन शैली, सेहत की हालत और/या शरीर के वज़न में परिवर्तन से प्रभावित होते हैं। कुछ हार्मोन भोजन सेवन का अल्पकालिक नियमन करते हैं ताकि हम अत्यधिक भोजन करने से बच जाएं, वहीं अन्य हार्मोन शरीर में सामान्य ऊर्जा भंडार को बनाए रखने के लिए दीर्घकालिक भूमिका निभाते हैं।
लेप्टिन: लेप्टिन हार्मोन हमारे शरीर के वसा ऊतकों द्वारा बनाया जाता है। वसा कोशिकाएं तृप्ति (पेट भरने) का संकेत देने के लिए पूरे शरीर में लेप्टिन स्रावित करती हैं, जिससे भूख शांत होने का एहसास होता है और भोजन सेवन रोक दिया जाता है। 1994 में लेप्टिन के बारे में पता चलने से पहले हमें यह नहीं पता था कि शरीर के वसा भंडार मस्तिष्क के साथ कैसे संवाद करते हैं।
जो लोग मोटापे का शिकार होते हैं उनमें लेप्टिन का स्तर अधिक होता है क्योंकि या तो उनके शरीर में अधिक वसा कोशिकाएं होती हैं या उनका शरीर हार्मोन के प्रति प्रतिरोधी होता है। दूसरी ओर, यदि आप भोजन में कैलोरी की मात्रा घटाते हैं और शरीर की चर्बी घटाते हैं तो शरीर में लेप्टिन का स्तर कम हो जाता है। लेप्टिन भूखे मरने और शरीर के वसा भंडार को घटने से बचाने की कोशिश करता है। एक मायने में यह वज़न को संतुलित बनाए रखने वाला हार्मोन है।
ग्रेलीन: ग्रेलीन आमाशय में बनता है, और इसे अक्सर ‘भूख का हार्मोन’ कहा जाता है। खाने से ठीक पहले ग्रेलीन का स्तर बढ़ा हुआ होता है, और भोजन करने के बाद कम हो जाता है।
यदि आप वज़न कम करने की कोशिश में कम कैलोरी लेते हैं, तो ग्रेलीन अपने सामान्य स्तर से बढ़ा रहेगा। इससे वज़न कम करना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि सामान्य से अधिक समय तक भूख का एहसास बना रहेगा या बार-बार भूख लगेगी। 2017 में ओबेसिटी पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया था कि ग्रेलीन के सामान्य से अधिक स्तर ने लोगों में खाने की लालसा बढ़ा दी थी – खासकर तले-भुने, मसालेदार या मीठे पदार्थों के लिए, और छह महीने में ही उनका वज़न काफी बढ़ गया था।
कोलेसिस्टोकायनीन (CCK): यह तृप्ति के एहसास से जुड़ा हार्मोन है। यह खाना खाने के बाद आंत में बनता है और पेट भरे होने का एहसास दिलाता है। यह आमाशय से भोजन के गुज़रने की गति को मंद करके पाचन बेहतर करता है जिससे देर तक पेट भरे होने का एहसास होता है। इसके चलते अग्न्याशय से वसा, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट का चयापचय करने वाले और अधिक द्रव और एंज़ाइम स्रावित होते हैं।
इंसुलिन: रक्तप्रवाह में शर्करा का स्तर बढ़ जाने पर अग्न्याशय की बीटा कोशिकाओं द्वारा इंसुलिन स्रावित किया जाता है। कार्बोहाइड्रेट के अधिक सेवन से अधिक इंसुलिन उत्पन्न होता है जो ज़्यादा ग्लूकोज़ को ऊर्जा के लिए कोशिकाओं में भेजने का काम करता है। यह हार्मोन भी तृप्ति का एहसास कराता है।
कॉर्टिसोल: इसे तनाव हार्मोन के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि शरीर में इसका स्तर तब उच्च होता है जब आप तनाव में होते हैं। वास्तव में, कॉर्टिसोल के कई अलग-अलग कार्य होते हैं – इनमें से एक है चयापचय को नियंत्रित करना। कॉर्टिसोल का उच्च स्तर इंसुलिन के काम में बाधा डालता है और वसा भंडारण बढ़ाता है। देखा गया है कि जीर्ण तनाव की स्थिति में, कॉर्टिसोल के उच्च स्तर से भूख बढ़ जाती है खासकर मीठा, नमकीन-मसालेदार, या वसायुक्त भोजन की भूख तथा रक्त में शर्करा और इंसुलिन का स्तर बढ़ जाता है। न्यूरोइमेज क्लीनिकल पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि कॉर्टिसोल का अधिक स्तर भूख को उकसाता है और मस्तिष्क के उन क्षेत्रों में रक्त प्रवाह को कम कर देता है जो भोजन सेवन का नियंत्रण करते हैं।
ग्लूकागोन लाइक पेप्टाइड-1 (GLP-1): GLP-1 खाना खाने के बाद आंत में मुक्त होता है। यह मस्तिष्क में रिसेप्टर्स के साथ संवाद करता है और तृप्ति का एहसास पैदा करता है। यह पाचन और आंत से भोजन गुज़रने की गति को धीमा कर देता है, जिसके कारण लंबे समय तक पेट भरे होने का एहसास होता रहता है।
ग्लूकोज़ डिपेंडेंट इंसुलिनोट्रॉपिक पॉलीपेप्टाइड (GIP): यह हार्मोन खाना खाने के बाद छोटी आंत द्वारा बनाया जाता है। यह इंसुलिन के स्तर को बढ़ाता है जो ग्लायकोजन और वसा अम्लों के निर्माण को उकसाते हैं, और वसा को टूटने को रोकते हैं। GIP की भूमिका को पूरी तरह समझना बाकी है।
ये तो हुई भूख नियंत्रण में जुड़े हार्मोन्स की भूमिकाओं की बात। इनमें गड़बड़ी भूख नियंत्रण प्रणाली को गड़बड़ा देती है, नतीजतन शरीर और स्वास्थ्य प्रभावित होते हैं। विशेषज्ञों की सलाह है कि कुछ उपचार और जीवनशैली में कुछ बदलाव मदद कर सकते हैं। इनमें से कुछ की चर्चा यहां की जा रही है।
भरपूर नींद: भूख से जुड़े कई हार्मोन के सुचारू कामकाज के लिए पर्याप्त नींद ज़रूरी है। नींद की कमी से शरीर में कॉर्टिसोल और ग्रेलीन का स्तर बढ़ा रहता है, और लेप्टिन कम हो जाता है। ओबेसिटी पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि रात में नींद की कमी से पुरुषों की तुलना में महिलाओं में लेप्टिन का स्तर अधिक कम हुआ था। और जो लोग मोटापे से ग्रस्त थे उनमें नींद की कमी के कारण ग्रेलीन का स्तर बढ़ा हुआ था।
नियमित व्यायाम: देखा गया है कि एरोबिक व्यायाम कुछ समय के लिए भूख को शांत कर देते हैं, ग्रेलीन का स्तर कम कर देते हैं और GLP-1 के स्तर को बढ़ा देते हैं। और सघन व्यायाम स्वस्थ लोगों में ग्रेलीन के स्तर को अधिक प्रभावी तरीके से कम करते हैं। लगता है कि नियमित व्यायाम इन हार्मोन को आपके पक्ष में करेंगे, और इंसुलिन को शरीर में बेहतर तरीके से काम करने में मदद करेंगे।
तनाव भगाना: जीवन एकदम ही तनावमुक्त हो, ऐसा होना तो ज़रा मुश्किल है। लेकिन खुद को तनावमुक्त रखने के उपाय करके आप भूख सम्बंधी हार्मोन्स को संतुलित रख सकते हैं।
अध्ययनों में पाया गया है कि अत्यधिक तनाव भूख घटाता है, लेकिन जीर्ण या लंबे समय के तनाव से शरीर में कॉर्टिसोल का स्तर बढ़ता है। नतीजतन खाने की इच्छा बढ़ती है – खास कर उच्च कैलोरी वाली चीज़ों को खाने की।
तनाव और कॉर्टिसोल के स्तर को कम करने में सांस सम्बंधी या शारीरिक व्यायाम कारगर पाए गए हैं। बिहेवियोरल साइंसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि मानसिक शांति के लिए किए गए 12 मिनट के सत्र, सांस सम्बंधी व्यायाम सहित, से लार के कॉर्टिसोल स्तर में कमी आई।
इसके अलावा खान-पान का ध्यान रखना (जैसे प्रोसेस्ड खाद्य का कम सेवन, भोजन में साबुत अनाज, फल, सब्ज़ियां शामिल करना) फायदेमंद होगा।
बहरहाल कभी-कभी हार्मोन का संतुलन रखने के लिए चिकित्सकीय हस्तक्षेप की ज़रूरत भी पड़ती है। मोटापे और डायबिटीज़ के इलाज के लिए GLP-1 और GIP हार्मोन पर लक्षित उपचार इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि कई दवाएं मोटापा घटाने और रक्त शर्करा नियंत्रित करने में कारगर हैं। लेकिन इनका उपयोग चिकित्सकीय सलाह पर आहार, जीवनशैली में परिवर्तन और व्यायाम के साथ किया जाना चाहिए। आखिर आप पूरी तरह दवाओं पर निर्भर तो नहीं रह सकते – वे संपूर्ण समाधान नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)
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आम तौर पर जब किसी बुरी आदत या लत की बात होती है तो हम धूम्रपान या मद्यपान के बारे में सोचते हैं। लेकिन एक ऐसी भी लत है जिसने वयस्कों और बच्चों की बड़ी संख्या को अपनी चपेट में लिया है। यह लत खानपान की लत है।
खानपान में भी विशेष रूप से वसा और चीनी से भरपूर भोजन हमें अधिक लुभाते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो भोजन की लालसा मात्र एक भावना नहीं है। गौरतलब है कि पिछले कुछ दशकों में हमारा भोजन अति-प्रोसेस्ड हो गया है। इस प्रकार का भोजन शरीर में चीनी और वसा संवेदी ग्राहियों को सक्रिय कर डोपामाइन मुक्त करने का काम करता है। प्रोसेस्ड खाद्य शरीर में कुछ ऐसे परिवर्तन करते हैं जिससे मस्तिष्क इनका अधिक सेवन करने को प्रोत्साहित करने लगता है और लंबे समय तक इनका सेवन शरीर के लिए घातक हो सकता है। विशेषज्ञ खानपान की लत को बारीकी से समझने का प्रयास कर रहे हैं।
इसके लिए सबसे पहले तो यह समझना ज़रूरी है कि भोजन हमारे मस्तिष्क को कैसे प्रभावित करता है। एक महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया मस्तिष्क से डोपामाइन नामक न्यूरोट्रांसमीटर मुक्त होना है। नशीले पदार्थों के समान खाना खाने से भी डोपामाइन मुक्त होता है। आम समझ है कि डोपामाइन आनंद में वृद्धि करता है लेकिन यह सच नहीं है। यह हमें ऐसे व्यवहारों को दोहराने के लिए उकसाता है जो जीवन के लिए ज़रूरी हैं। जैसे भोजन करना और प्रजनन। जितना अधिक डोपामाइन मुक्त होगा, उस व्यवहार को दोहराने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
वसा या चीनी युक्त भोजन का सेवन करने पर हमारे मुंह का सेंसर स्ट्रिएटम को डोपामाइन मुक्त करने का संदेश भेजता है। स्ट्रिएटम मस्तिष्क का एक भाग है जो गतियों और पुरस्कार योग्य व्यवहार से जुड़ा है। लेकिन मुंह के सेंसर द्वारा डोपामाइन मुक्त होना पूरी प्रक्रिया का केवल एक हिस्सा है।
विशेषज्ञों के अनुसार आंत में भी वसा और चीनी के लिए एक द्वितीयक सेंसर होता है और वह भी मस्तिष्क के उसी क्षेत्र को डोपामाइन मुक्त करने का संकेत देता है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि आंत से मस्तिष्क तक चीनी की उपस्थिति का संकेत कैसे पहुंचता है लेकिन वसा के संकेत का पता लगाया जा चुका है। ऊपरी आंत में वसा का पता लगने पर वैगस तंत्रिका के माध्यम से पश्च-मस्तिष्क को संकेत पहुंचता है जो आखिरकार स्ट्रिएटम तक जाता है।
यह देखा गया है कि चीनी व वसा से भरपूर खाद्य पदार्थ स्ट्रिएटम में डोपामाइन का स्तर सामान्य से 200 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं। यह स्तर निकोटीन और शराब द्वारा की जाने वाली वृद्धि के बराबर है। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि शकर ने डोपामाइन के स्तर को 135 से 140 प्रतिशत तक बढ़ाया जबकि वसा ने इस स्तर को 160 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था। तुलना के लिए कोकेन ने सामान्य डोपामाइन के स्तर को तीन गुना किया जबकि मेथाम्फेटामिन नेे इसे 10 गुना बढ़ाया।
जैसे-जैसे हम भोजन और मस्तिष्क के सम्बंध को समझ रहे हैं, वैसे-वैसे भोजन का उत्पादन इस तरह किया जाने लगा है कि हम खुद को रोक न पाएं। हमारे शरीरों को ऐसे खाद्य पदार्थों से पाट दिया गया है जिनमें कुछ विशिष्ट पोषक पदार्थों की मात्रा अत्यधिक है – जैसे शकर, वसा और नए-नए पदार्थों के सम्मिश्रण।
औद्योगिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ स्टार्च और हाइड्रोजनीकृत वसा से तैयार किए जाते हैं। इसके अलावा मज़ेदार स्वाद देने वाले कृत्रिम फ्लेवर, पानी और तेल को घुलनशील रखने वाले इमल्सीफायर और खाद्य सामग्री की संरचना को संरक्षित रखने वाले स्टेबिलाइज़र्स ने हमारे भोजन को अधिक आकर्षक तो बना दिया है लेकिन हमारे स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ भी किया है।
विशेषज्ञों के अनुसार अत्यधिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों और बुनियादी चीज़ों से बनाए खाद्य पदार्थों के बीच अंतर करना ज़रूरी है। यह अंतर आहार सम्बंधी स्वास्थ्य समस्याओं से बचने का पहला कदम हो सकता है। अत्यधिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ नशे की तरह काम करते हैं। जितनी तेज़ी से कोई चीज़ आपके मस्तिष्क को प्रभावित करती है उतनी ही जल्दी आपको उस चीज़ की लत लगती है। इसके साथ ही डोपामाइन मुक्त होने की गति को बढ़ाने के लिए कई प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों को पहले से ही थोड़ा पचाया गया होता है।
आखिर में इस पूरे मुद्दे में सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। प्रोसेस्ड खाद्य सामग्री काफी समय से सुलभ और सस्ती है तथा इसका काफी विज्ञापन भी किया जाता रहा है। लिहाज़ा, बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो जानते हैं कि ये खाद्य सामग्री स्वास्थ्यवर्धक नहीं हैं लेकिन फिर भी वे अपने आपको रोक नहीं पाते हैं।
किसी भी पदार्थ या ड्रग की लत के सम्बंध में सहनशीलता और उसे छोड़ने के परिणाम के सिद्धांत का इस्तेमाल किया जाता है। सहनशीलता यानी किसी ड्रग (या भोजन) का इतना आदी हो जाना कि उतना ही प्रभाव प्राप्त करने के लिए इसका और अधिक सेवन करना पड़े। जबकि छोड़ने के परिणाम का सम्बंध उन शारीरिक और मानसिक लक्षणों से है जो अचानक किसी नशीले पदार्थ का उपयोग बंद या कम करने पर होते हैं।
पूर्व में यह माना जाता था कि भोजन की लत वाले लोग खानपान जारी रखते हैं ताकि खुद को उसे छोड़ने की स्थिति जैसे चिंता, मितली और सिरदर्द से बचा सकें। भोजन के मामले में, डोपामाइन की कमी की परिकल्पना यह बताती है कि अगर हम कुछ खाते हैं और इससे पर्याप्त आनंद नहीं मिलता है, तो हम तब तक खाते रहेंगे जब तक वैसा आनंद महसूस नहीं करते।
लेकिन भोजन के मानसिक असर को लेकर अभी पूरी स्पष्टता नहीं है। वर्तमान में वैज्ञानिकों के पास इस बाबत उत्तर कम, प्रश्न अधिक हैं कि हमारा शरीर भोजन का आदी कैसे हो जाता है। हम जानते हैं कि डोपामाइन ही सब कुछ नहीं है क्योंकि सिर्फ इसी से भोजन आनंददायक नहीं बनता है। हालांकि शोधकर्ताओं ने वर्ष 2012 के एक अध्ययन में पाया है कि खाना खाने से हमारे अफीमी ग्राही उत्तेजित होते हैं, जो आनंद की भावना को बढ़ाते हैं। लेकिन वैज्ञानिक अभी भी इस प्रक्रिया के बारे में कम ही जानते हैं। कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि ऊपरी आंत में एक संवेदक हमारे भोजन की पसंद-नापसंद में कुछ भूमिका निभाता है। कई अन्य इसके लिए हायपोथैलेमस को महत्वपूर्ण मानते हैं जो शरीर के तापमान से लेकर भूख के एहसास तक सब कुछ नियंत्रित करता है। (स्रोत फीचर्स)
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गंध एक महत्वपूर्ण संवेदना है। मनुष्यों में यह शायद उतनी महत्वपूर्ण न हो, लेकिन कई अन्य जंतुओं में यह सबसे महत्वपूर्ण संवेदना होती है। जहां अन्य संवेदनाओं को लेकर हमारी समझ काफी विस्तृत है, वहीं गंध को लेकर कई अस्पष्टताएं हैं। अब हम इस दिशा में एक कदम और आगे बढ़े हैं।
गंध संवेदना दरअसल एक रसायन-आधारित संवेदना है। कुछ रसायन हमारी गंध संवेदी तंत्रिकाओं के ग्राहियों को उत्तेजित करते हैं और मस्तिष्क इसे गंध के रूप में पहचानता है। अब पहली बार एक मानव गंध-ग्राही की सटीक त्रि-आयामी संरचना का खुलासा किया गया है। नेचर में प्रकाशित इस अध्ययन में OR51E2 नामक एक गंध-ग्राही की संरचना का विवरण देते हुए बताया गया है कि यह आणविक क्रियाओं के माध्यम से कैसे चीज़ (cheese) की गंध को ताड़ता है।
गौरतलब है कि मानव जीनोम में 400 जीन्स होते हैं जो गंध-ग्राहियों के कोड हैं और ये ग्राही कई गंधों को पहचान सकते हैं। स्तनधारियों में गंध ग्राही के जीन्स सबसे पहले चूहों में 1990 के दशक में पहचाने गए थे। इससे पहले 1920 के दशक में यह अनुमान लगाया गया था कि मनुष्य की नाक तकरीबन 1000 गंधों को ताड़ सकती है। लेकिन 2014 में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि हम 1 खरब से ज़्यादा गंधों को अलग-अलग पहचान सकते हैं।
हर गंध-ग्राही गंधदार अणुओं (ओडोरेंट) के सिर्फ एक समूह से अंतर्क्रिया कर सकता है जबकि एक ही ओडोरेंट कई ग्राहियों को सक्रिय कर सकता है। होता यह है कि इन ग्राहियों की एक मिश्रित सक्रियता विशिष्ट गंध का एहसास कराती है।
लेकिन इन गंध-ग्राहियों की क्रिया को समझना एक चुनौती रही है। एक दिक्कत यह रही है कि ये ग्राही सिर्फ गंध तंत्रिकाओं में ही ठीक-ठाक काम करते हैं, बाकी किसी भी कोशिका में ये ठप हो जाते हैं। इसका मतलब यह होता है कि इन्हें किसी भी अन्य प्रकार की कोशिका में जोड़कर अध्ययन नहीं किया जा सकता।
इस समस्या से निपटने के लिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सैन फ्रांसिस्को) के आशीष मांगलिक और उनके साथियों ने OR51E2 नामक ग्राही पर ध्यान केंद्रित किया। इस ग्राही की विशेषता है कि यह ओडोरेंट की पहचान के अलावा कुछ अन्य कार्य भी करता है और यह गुर्दों तथा प्रोस्टेट की कोशिकाओं में भी पाया जाता है।
यह ग्राही (OR51E2) दो ओडोरेंट अणुओं के साथ अंतर्क्रिया करता है – एसिटेट (जिसकी गंध सिरके जैसी होती है) और प्रोपिओनेट (जिसकी गंध चीज़नुमा होती है)। शोधकर्ताओं ने इस ग्राही को शुद्ध रूप में प्राप्त किया और फिर प्रोपिओनेट से सम्बद्ध तथा असम्बद्ध OR51E2 की संरचना का विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी और एटॉमिक रिज़ॉल्यूशन इमेजिंग तकनीकों का इस्तेमाल किया। इसके अलावा उन्होंने कंप्यूटर सिमुलेशन की भी मदद ली ताकि पता चल सके कि यह ग्राही प्रोटीन ओडोरेंट अणुओं के साथ कैसे अंतर्क्रिया करता है।
विश्लेषण से पता चला कि यह प्रोटीन (OR51E2) आयनिक व हाइड्रोजन बंधनों के ज़रिए प्रोपिओनेट अणु के कार्बोक्सिलिक समूह को एक अमीनो अम्ल (आर्जीनीन) से जोड़ लेता है। जैसे ही प्रोपिओनेट जुड़ता है, OR51E2 की आकृति बदल जाती है और यही ग्राही को चालू कर देता है। शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि इस ग्राही के जीन में आर्जीनीन को प्रभावित करने वाले उत्परिवर्तन उसे प्रोपिओनेट द्वारा सक्रिय नहीं होने देते।
वैज्ञानिकों की इच्छा रही है कि वे गंध ग्राहियों की रासायनिक संरचनाओं का एक कैटालॉग तैयार कर सकें और उसके आधार पर यह बता सकें कि इनमें से कौन-से ग्राही मिलकर किस गंध विशेष का एहसास कराते हैं। मांगलिक की टीम द्वारा यह खुलासा मात्र पहला कदम है। (स्रोत फीचर्स)
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कोविड-19 के दौर में प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने के लिए पूरक और पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य पदार्थों के सेवन की सलाह दी गई। कई लोगों ने शारीरिक दूरी, मास्क के उपयोग और टीकाकरण के अलावा विशेष पूरक तत्वों का उपयोग किया जबकि कुछ लोग तो मात्र प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने के ही सहारे रहे। बाज़ार में भी कई ऐसे उत्पादों की बाढ़ आई जिन्होंने प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने का दावा किया।
इन पूरक तत्वों में ज़िंक और विटामिन सी तथा डी को विशेष महत्व दिया गया। विशेषज्ञों की मानें तो इस तरह के प्रयासों से संक्रमण रुकने की संभावना तो नहीं है लेकिन ये प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए मददगार हो सकते हैं। फिर भी संतुलित भोजन, व्यायाम और पर्याप्त नींद लेने वाले व्यक्ति के लिए ये पूरक तत्व कोई खास उपयोगी नहीं हैं। ये उन लोगों के लिए उपयोगी हो सकते हैं जिनमें इन तत्वों की कमी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी सुरक्षा के लिए अतिरिक्त विटामिन या खनिज तत्वों का सेवन करता है तो इसमें कोई हानि नहीं है बशर्ते कि इनकी मात्रा दैनिक अनुशंसित खुराक से अधिक न हो। अधिक मात्रा में इनका सेवन घातक हो सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य दवाओं के साथ परस्पर क्रिया की भी संभावना होती है।
तो चलिए देखते हैं कि संक्रमण को दूर करने के लिए आम तौर पर अपनाए जाने वाले प्रचलित तरीकों के बारे में विज्ञान क्या कहता है।
ज़िंक (जस्ता)
निसंदेह, प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए ज़िंक ज़रूरी है। यह टी-कोशिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक है जो बैक्टीरिया और वायरस से संक्रमित कोशिकाओं की पहचान कर उनको नष्ट करती हैं। यह श्वसन मार्ग की कोशिकाओं के कामकाज में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जो हमारे शरीर की प्रतिरक्षा की पहली पंक्ति हैं। कुछ अध्ययन बताते हैं कि सामान्य सर्दी-जुकाम के शुरुआती 24 घंटे के भीतर ज़िंक पूरक लिया जाए तो बीमारी की अवधि को कम किया जा सकता है। एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि ज़िंक के इस्तेमाल से जुकाम की अवधि दो दिन कम की जा सकती है।
गौरतलब है कि ज़िंक को गंभीर कोविड-19 के विरुद्ध एक रक्षक के रूप में प्रचारित किया था लेकिन यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) के विशेषज्ञों ने अपर्याप्त प्रमाण के कारण इसे उपचार के रूप में स्वीकार नहीं किया। फ्रेड हच कैंसर रिसर्च सेंटर के प्रतिरक्षा विज्ञानी जैरोड डुडाकोव के अनुसार ज़िंक पूरक वायरल या बैक्टीरिया संक्रमण रोकने में सक्षम नहीं हैं। कम समय के लिए ज़िंक पूरक लेने से कोई हानि तो नहीं है लेकिन फायदे भी नहीं हैं। मांस, सीफूड, फलियां, दालें, गिरियां, बीज और साबुत अनाज ज़िंक के उम्दा स्रोत हैं। हां, ज़िंक की कमी वाले लोगों के लिए ज़िंक पूरक उपयोगी हो सकते हैं।
पुरुषों के लिए प्रतिदिन 11 मिलीग्राम और महिलाओं के लिए प्रतिदिन 8 मिलीग्राम ज़िंक अनुशंसित है। शोधकर्ताओं के अनुसार लंबे समय तक ज़िंक पूरक लेने से शरीर में तांबे की कमी हो सकती है जिससे तंत्रिका और रक्त सम्बंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। उच्च मात्रा में सेवन से मितली, उल्टी और सिरदर्द जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं।
विटामिन सी
ज़िंक की तरह विटामिन सी भी हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए काफी महत्वपूर्ण है। यह न्यूट्रोफिल नामक श्वेत रक्त कोशिकाओं को गतिशील करता है जो शरीर को संक्रमण से लड़ने में मदद करती हैं। इसके अलावा यह मैक्रोफेज नामक अन्य श्वेत रक्त कोशिकाओं को भी पुष्ट करता है जो रोगजनकों को निगलती हैं और मृत मेज़बान कोशिकाओं को हटाकर सूजन को कम करती हैं।
कई जंतु अध्ययनों से पता चला है कि विटामिन सी बैक्टीरिया और वायरल संक्रमणों को रोकने में तो सक्षम है लेकिन मानव आबादी में सामान्य सर्दी-जुकाम के प्रकोप को कम नहीं करता है। वैसे ज़िंक की तरह विटामिन सी भी रोग की अवधि को कम करता है। गौरतलब है कि कोविड-19 के मामले में एनआईएच ने अपर्याप्त साक्ष्यों के आधार पर विटामिन सी के उपयोग को उपचार के रूप में स्वीकार नहीं किया था। फिर भी कुछ अध्ययनों के अनुसार गंभीर रूप से बीमार रोगियों में सूजन को कम करने में विटामिन सी की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
एक पूरक के तौर पर विटामिन सी मनुष्यों में वायरल या बैक्टीरियल संक्रमण रोकने के सक्षम नहीं है। बहरहाल, अन्य विटामिन और खनिज पदार्थों की तरह यह भी प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए उपयोगी है। लेकिन विशेषज्ञ संतुलित पौष्टिक आहार की सलाह देते हैं और पूरक आहार का सुझाव तब ही देते हैं जब कोई व्यक्ति इन खाद्य पदार्थों का सेवन करने में असमर्थ हो या फिर शरीर में इसकी कमी हो। पुरुषों के लिए प्रतिदिन 90 मिलीग्राम और महिलाओं के लिए प्रतिदिन 75 मिलीग्राम विटामिन सी अनुशंसित है। इससे अधिक सेवन से पथरी हो सकती है।
विटामिन डी
विटामिन सी के समान विटामिन डी में भी सूजन-रोधी गुण होते हैं। विटामिन डी की कमी हो तो सर्दी-जुकाम का जोखिम रहता है। एक हालिया अध्ययन के अनुसार विटामिन डी पूरक सामान्य सर्दी जुकाम की अवधि और गंभीरता को कम कर सकता है। अलबत्ता, कोविड-19 के संदर्भ में विटामिन डी की भूमिका स्पष्ट नहीं है।
अक्टूबर 2021 में किए गए विश्लेषण के अनुसार शरीर में अपर्याप्त विटामिन डी ने लोगों में कोविड-19 के प्रति अधिक संवेदनशीलता या संक्रमण से उनकी मृत्यु की संभावना में कोई वृद्धि नहीं की थी। इसके अलावा विटामिन डी पूरकों से गंभीर लक्षणों वाले कोविड-19 रोगियों में भी कोई सुधार नहीं देखा गया।
सच तो यह है कि हमारे पास प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने की कोई जादुई गोली नहीं है। इसके अलावा एक बड़ी समस्या यह है कि लोगों को यह नहीं पता होता कि उन्हें कौन से विटामिन या खनिजों की कमी है और किस हद तक है। विटामिन डी और बी-12 का पता लगाने के तो काफी अच्छे नैदानिक परीक्षण हैं लेकिन अधिकांश पोषक तत्वों को मापना काफी कठिन है। समाधान यही है कि हमें विभिन्न प्रकार के पौष्टिक खाद्य पदार्थों का संतुलित सेवन करना चाहिए और ये सबको मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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इक्कीसवीं सदी की आधुनिक टेक्नॉलॉजी ने हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। इसने दैनिक कार्यों को आसान करने के साथ दक्षता, उत्पादकता और प्रदर्शन में भी वृद्धि की है। स्वास्थ्य सेवा और टेक्नॉलॉजी के संगम ने स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच और उसके प्रबंधन में क्रांतिकारी योगदान दिया है। पिछले कुछ वर्षों में टेक्नॉलॉजी के विकास से बेहतर और सटीक इलाज के साथ-साथ बेहतर निर्णय लेने में भी काफी मदद मिली है।
इलेक्ट्रॉनिक हेल्थ रिकॉर्ड (ईएचआर) से लेकर टेलीमेडिसिन, पहनने योग्य टेक्नॉलॉजी और कृत्रिम बुद्धि ने स्वास्थ्य सेवा के ढांचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं। यहां हम कुछ ऐसी तकनीकों पर चर्चा कर रहे हैं जो भविष्य में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन ला सकती हैं।
नैनो टेक्नॉलॉजी और हृदय
हृदयाघात के कारण तो सर्वविदित हैं। इसका मुख्य कारण है हृदय तक रक्त पहुंचाने वाली धमनियों में प्लाक जमा होकर उनका संकरा हो जाना जिससे रक्त प्रवाह को बाधित होता है। अंतत: ये धमनियां इतनी संकरी हो जाती हैं कि हृदय को पर्याप्त रक्त और ऑक्सीजन नहीं मिल पाती। नतीजतन हृदयाघात या स्ट्रोक हो जाता है।
इस समस्या से निपटने के लिए स्टेंट या फिर बायपास का सहारा लिया जाता है। लेकिन इसकी सभी तकनीकें – कैथेटराइज़ेशन या ओपन-हार्ट सर्जरी वगैरह – काफी महंगी हैं। लेकिन प्लाक हटाने वाले नैनो-रोबोट्स की मदद से यह उपचार काफी सस्ता हो सकता है। इसमें एक अतिसूक्ष्म आकार का रोबोट रुकावट वाले स्थान पर जाकर धमनियों को चौड़ा कर सकता है।
अंगों या ऊतकों का पुनर्जनन
हारवर्ड युनिवर्सिटी में एक ऐसी तकनीक पर काम चल रहा है जिसमें एंटीरियर क्रुशिएट लिगामेंट (घुटने का लिगामेंट, एसीएल) को किसी अन्य व्यक्ति या जीव, या स्वयं उस व्यक्ति के लिगामेंट से प्रतिस्थापित करने की बजाय उसे स्वयं स्वस्थ होने में मदद दी जा सके।
इस तकनीक में अवरग्लास के आकार का एक स्पंज तैयार किया जाता है जिसमें रोगी का रक्त, विकास कारक और पुन:सक्रिय स्टेम कोशिकाएं भरी होती हैं। इसे प्रविष्ट कराने पर यह लिगामेंट के टुकड़ों के बीच एक सेतु का काम करता है जो विकसित होते हुए क्षतिग्रस्त लिगामेंट को जोड़ देता है।
कृत्रिम अंग
हम आनुवंशिक रूप से पुनर्निर्मित हृदय या कृत्रिम हृदय तैयार करने की ओर बढ़ रहे हैं। कुछ शोधकर्ताओं का तो दावा है कि पर्याप्त पैसा मिले तो वे तीन वर्ष के भीतर एक कृत्रिम हृदय तैयार करके उसे मनुष्य के शरीर में प्रत्यारोपित कर सकते हैं।
यह बात 3-डी प्रिंटेड अंग के मामले में देखी जा रही है। इनमें ऐसी क्रियाविधियां या रचनाएं होती हैं जो अंगों या ऊतकों के अध्ययन में उपयोग की जा सकती हैं। जैसे फेफड़े के ऊतक जो कुदरती फेफड़ों के समान कोविड से संक्रमित हो सकते हैं और इनका उपयोग संक्रमण व उसके उपचार के अध्ययन में किया जा सकता है। हाल ही में एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी ने रोबोटिक उपकरण विकसित किया है जो किसी व्यक्ति की त्वचा की कोशिकाओं को प्रिंट करने में सक्षम है। इसका उपयोग घावों या जलने से क्षतिग्रस्त त्वचा को ठीक करने के लिए किया जा सकता है।
ज़रा कल्पना कीजिए कि आपके शरीर के सभी अंगों का कंप्यूटर कोड ‘क्लाउड’ पर मौजूद हो जिसकी मदद से आवश्यकतानुसार कोई अंग या उसका भाग तैयार किया जा सकेगा। उदाहरण के लिए यदि किसी कैंसरग्रस्त हड्डी को शरीर से अलग किया जाता है तो कंप्यूटर को की मदद से उसी आकार और क्षमता की हड्डी प्रत्यारोपित की जा सकेगी जिसके लिगामेंट, जोड़ और अन्य हड्डियों के साथ जुड़ाव मूल हड्डी जैसे ही होंगे। यह अगले 10 वर्षों में संभव हो सकता है।
प्रोटीन में हेरफेर
कैसा हो यदि आप किसी अंग या शरीर के भाग में परिवर्तन कर सकें या फिर शरीर के सामान्य कामकाज के तरीके में हेर-फेर कर सकें। उदाहरण के लिए, कोरिया के शोधकर्ता ऐसी एंटीएजिंग दवाओं का परीक्षण कर रहे हैं जो गोलकृमियों की कोशिकाओं में प्रोटीन की गतिविधि को परिवर्तित कर देती हैं। ये प्रोटीन ऊर्जा में कमी के दौरान शरीर को शर्करा को ऊर्जा में बदलने के निर्देश देते हैं। इन दवाओं के उपयोग से कृमि के जीवनकाल में वृद्धि देखी गई है।
मरम्मत के उपकरण
दीर्घायु के संदर्भ में यह देखना प्रासंगिक होगा कि हृदय के वाल्व के मामले में हम कितना आगे बढ़ चुके हैं। उम्र के साथ हृदय के वाल्व खराब होने लगते हैं; 65 वर्ष से अधिक आयु के 25 प्रतिशत लोगों के वाल्व के कार्य में किसी न किसी प्रकार का परिवर्तन आने लगता है और 85-95 वर्ष की आयु के वाल्व की मरम्मत या प्रतिस्थापन ज़रूरी हो जाता है।
पारंपरिक तौर पर इसके लिए ओपन-हार्ट सर्जरी में हृदय की धड़कन को रोककर एक पंप की मदद से रक्त संचरण जारी रखा जाता है। इस प्रक्रिया में 17 प्रतिशत रोगियों में सर्जरी के बाद मानसिक गिरावट पाई गई है। आजकल वाल्व को रक्त वाहिका के माध्यम से हृदय तक पहुंचाया जा सकता है। हालांकि यह भी हृदय सर्जरी है लेकिन इस तकनीक से रिकवरी की अवधि कम हो जाती है।
हाई-टेक खिलौने
आज के दौर में कृत्रिम बुद्धि, वर्चुअल रियलिटी, उन्नत तकनीकें, बेहतर डैटा संग्रहण ने स्वास्थ्य सेवाओं में भी बड़े परिवर्तन के संकेत दिए हैं। आज हम ऐप की मदद से चिकित्सकों से ऑनलाइन घर बैठे परामर्श ले सकते हैं, भले ही वे किसी अन्य देश में ही क्यों न हो।
यदि इन तकनीकों को और विकसित किया जाए तो हम क्या-क्या कर सकते हैं। संभव है कि नियमित डैटा संग्रहण से हम दवाओं को बेहतर ढंग से विकसित कर पाएं। पहनने योग्य उपकरण न केवल हमारे शरीर की स्थिति को ट्रैक कर पाएं बल्कि भविष्य में होने वाले समस्याओं का अनुमान भी लगा पाएं। शायद कृत्रिम बुद्धि की मदद से यह अनुमान लगा पाएं कि हृदय का वाल्व कब खराब हो सकता है।
हाल ही में येल स्थित जेनेटिक्स शोधकर्ताओं ने एक पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड उपकरण तैयार किया है जिसे आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। यह सर्वोत्तम मशीन तो नहीं है लेकिन चिकित्सकों के लिए काफी उपयोगी हो सकती है। इसके उपयोग से चिकित्सकों द्वारा रोगियों को बेहतर सलाह देने में मदद मिलेगी।
ज़ाहिर है, इन सभी तकनीकों की शुरुआती लागत काफी अधिक होगी लेकिन समय के साथ ये सस्ती होती जाएंगी। ये परिवर्तन हमारे जीवनकाल में वृद्धि करेंगे, जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाएंगे और हो सकता है कि हमारी जवानी को भी लंबा कर दें। हालांकि यह कोई जादू की छड़ी नहीं है जो सभी समस्याओं को एक शॉट में खत्म कर दे फिर भी टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में ये परिवर्तन दीर्घायु में महत्वपूर्ण योगदान देंगे। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में ग्लोबल पोलियो इरेडिकेशन इनिशिएटिव (GPEI) ने अफ्रीका से ऐसे सात बच्चों की रिपोर्ट दी है जो हाल ही में पोलियो की वजह से अपंग हो गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ये टीके से पैदा हुए पोलियोवायरस स्ट्रेन की वजह से बीमार हुए हैं। पिछले वर्ष अफ्रीका, यमन और अन्य स्थानों से 786 बच्चों के पोलियोग्रस्त होने की खबर थी। लेकिन हाल के 7 मामले थोड़े अलग हैं। GPEI के मुताबिक ये मामले उस टीके से सम्बंधित हैं, जिसे ऐसी ही दिक्कतों से बचने के लिए विकसित किया गया था।
इस टीके को नॉवेल ओरल पोलियो वैक्सीन टाइप 2 (nOPV2) कहते हैं और पिछले दो वर्षों से विशेषज्ञ इस बात की निगरानी कर रहे हैं कि क्या यह यदा-कदा रोग-प्रकोप पैदा कर सकता है।
वैसे नॉवेल वैक्सीन कोई जादू की छड़ी नहीं है लेकिन अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि यह पूर्व में इस्तेमाल किए गए टीके (मोनोवेलेंट ओपीवी) से कहीं बेहतर है। और मुंह से दिया जाने वाला पोलियो का टीका (ओपीवी) गरीब देशों के लिए सबसे बेहतर माना गया है। इसमें वायरस को दुर्बल करके शरीर में डाला जाता है और प्रतिरक्षा तंत्र उसे पहचानकर वास्तविक वायरस से लड़ने के तैयार हो जाता है। एक फायदा यह है कि टीकाकृत बच्चे मल के साथ दुर्बलीकृत वायरस त्यागते रहते हैं जो प्रदूषित पानी के साथ अन्य बच्चों के शरीर में पहुंचकर उन्हें भी सुरक्षा प्रदान कर देते हैं।
लेकिन इसका मतलब यह भी है कि ये दुर्बलीकृत वायरस अप्रतिरक्षित लोगों में प्रवाहित होते रहते हैं और उत्परिवर्तन हासिल करते जाते हैं। इसलिए यह संभावना बनी रहती है कि एक समय के बाद इतने उत्परिवर्तन इकट्ठे हो जाएंगे कि वायरस फिर से लकवा पैदा करने की स्थिति में पहुंच जाएगा। पोलियोवायरस के तीन स्ट्रेन हैं (1, 2 और 3) तथा उपरोक्त स्थिति टाइप 2 में ज़्यादा देखी गई है।
इस समस्या से निपटने के लिए टीके के वायरस के साथ फेरबदल की गई ताकि यह पलटकर अपंगताजनक स्थिति में न पहुंच सके। इस लिहाज़ से nOPV2 जेनेटिक दृष्टि से कहीं अधिक टिकाऊ है और इसमें उत्परिवर्तन की दर बहुत कम है। परीक्षण के दौरान 28 देशों में 60 करोड़ खुराकें दी गई हैं और अब तक कोई समस्या नहीं देखी गई थी। अब अफ्रीका में इन सात मामलों का सामने आना एक नई बात है जिसकी जांच-पड़ताल की जा रही है। एक मत यह है कि यदि कई देशों में टीकाकरण की दर कम रहती है तो ज़्यादा संभावना रहेगी कि वायरस पलटकर अपंगताजनक बन जाए। (स्रोत फीचर्स)
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आजकल ऑर्गेनॉइड्स (अंगाभ) अनुसंधान की एक प्रमुख धारा है। ऑर्गेनॉइड का मतलब होता है ऊतकों का कृत्रिम रूप से तैयार किया गया एक ऐसा पिंड जो किसी अंग की तरह काम करे। विभिन्न प्रयोगशालाओं में विभिन्न अंगों के अंगाभ बनाने के प्रयास चल रहे हैं। इन्हीं में से एक है मस्तिष्क अंगाभ।
सेल स्टेम सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मानव मस्तिष्क अंगाभ को चूहे के क्षतिग्रस्त मस्तिष्क में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिया है। और तो और, अंगाभ ने शेष मस्तिष्क के साथ कड़ियां भी जोड़ लीं और प्रकाश उद्दीपन पर प्रतिक्रिया भी दी।
शोध समुदाय में इसे एक महत्वपूर्ण अपलब्धि माना जा रहा है क्योंकि अन्य अंगों की तुलना में मस्तिष्क कहीं अधिक जटिल अंग है जिसमें तमाम कड़ियां जुड़ी होती हैं। इससे पहले मस्तिष्क अंगाभ को शिशु चूहों में ही प्रत्यारोपित किया गया था; मनुष्यों की बात तो दूर, वयस्क चूहों पर भी प्रयोग नहीं हुए थे।
वर्तमान प्रयोग में पेनसिल्वेनिया की टीम ने कुछ वयस्क चूहों के मस्तिष्क के विज़ुअल कॉर्टेक्स नामक हिस्से का एक छोटा सा भाग निकाल दिया। फिर इस खाली जगह में मानव मस्तिष्क कोशिकाओं से बना अंगाभ डाल दिया। यह अंगाभ रेत के एक दाने के आकार का था। अगले तीन महीनों तक इन चूहों के मस्तिष्क की जांच की गई।
जैसी कि उम्मीद थी प्रत्यारोपित अंगाभों में 82 प्रतिशत पूरे प्रयोग की अवधि में जीवित रहे। पहले महीने में ही स्पष्ट हो गया था कि चूहों के मस्तिष्कों में इन अंगाभों को रक्त संचार में जोड़ लिया गया था और जीवित अंगाभ चूहों के दृष्टि तंत्र में एकाकार हो गए थे। यह भी देखा गया कि अंगाभों की तंत्रिका कोशिकाओं और चूहों की आंखों के बीच कनेक्शन भी बन गए थे। यानी कम से कम संरचना के लिहाज़ से तो अंगाभ काम करने लगे थे। इससे भी आगे बढ़कर, जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों की आंखों पर रोशनी चमकाई तो अंगाभ की तंत्रिकाओं में सक्रियता देखी गई। अर्थात अंगाभ कार्य की दृष्टि से भी सफल रहा था। लेकिन फिलहाल पूरा मामला मनुष्यों में परीक्षण से बहुत दूर है हालांकि यह सफलता आगे के लिए आशा जगाती है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने नए कीटनाशक मिश्रण से उपचारित मच्छरदानी के उपयोग का अनुमोदन किया है। इस नई मच्छरदानी में ऐसे दो रसायनों का उपयोग किया गया है जो मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को अधिक प्रभावी ढंग से खत्म करने में सक्षम हैं। जल्दी ही यह उपचारित मच्छरदानी उप-सहारा अफ्रीका में व्यापक रूप से उपलब्ध हो जाएगी जहां पिछले वर्ष मलेरिया से 6 लाख से अधिक लोगों की जान जा चुकी है।
कीटनाशक उपचारित मच्छरदानी का डबल फायदा है। इसके अंदर सोता व्यक्ति तो सुरक्षित रहता ही है, इस पर बैठने वाले मच्छरों का भी खात्मा हो जाता है। 2000 से 2015 के बीच मलेरिया के प्रकोप में 40 प्रतिशत गिरावट का श्रेय उपचारित मच्छरदानियों को जाता है।
लेकिन मच्छर इनमें प्रयुक्त पाएरेथ्रॉइड नामक कीटनाशक के प्रतिरोधी हो चले थे। नई अनुमोदित मच्छरदानी में पाएरेथ्रॉइड के साथ क्लोरफेनापिर का उपयोग किया गया है। क्लोरफेनापिर मच्छरों के माइटोकॉन्ड्रिया को निशाना बनाता है जिसके चलते मांसपेशियों में मरोड़ पैदा होती है और मच्छर हिलडुल या उड़ नहीं पाते हैं।
वैसे पिछले वर्ष भी WHO ने एक नए प्रकार की मच्छरदानी को सीमित स्वीकृति प्रदान की थी। इस मच्छरदानी में पाएरेथ्रॉइड के साथ पीबीओ का उपयोग किया गया था जो मच्छरों की पाइरेथ्रॉइड का विघटन करने की क्षमता को खत्म करता है। ये केवल-पाइरेथ्रॉइड मच्छरदानी की तुलना में काफी महंगी थीं और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा था कि इनके उपयोग से मलेरिया के प्रकोप में कमी से जितना फायदा होता है वह इनकी लागत के हिसाब से कम है।
क्लोरफेनापिर ने इस समस्या को दूर कर दिया है। तंज़ानिया और बेनिन में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि नई मच्छरदानियों के उपयोग से बच्चों में मलेरिया का प्रकोप लगभग आधा रह गया। अर्थात इन मच्छरदानी के उपयोग में होना वाला खर्च मलेरिया उपचार की लागत से काफी कम साबित हुआ जो WHO द्वारा अनुमोदन के लिए पर्याप्त कारण था।
गौरतलब है कि क्लोरफेनापिर का उपयोग सबसे पहले अमेरिका में वर्ष 2001 में गैर-खाद्य फसलों के लिए ग्रीनहाउसों में किया गया था। पक्षियों और जलीय जीवों में विषाक्तता के कारण खेतों पर इसके छिड़काव पर प्रतिबंध है। चूंकि इस मच्छरदानी का उपयोग घर के अंदर किया जा रहा है और व्यापक पर्यावरण से इसका सीमित संपर्क है इसलिए पर्यावरण की दृष्टि से इसे सुरक्षित माना जा रहा है।
विशेषज्ञों की चेतावनी है कि देर सबेर मच्छरों में क्लोरफेनापिर के खिलाफ भी प्रतिरोध उभरना तय है। इसलिए प्रतिरोध पैदा होने की रफ्तार को धीमा करने की तकनीकें विकसित करना महत्वपूर्ण होगा। इसके लिए नई मच्छरदानियों के साथ-साथ घरों में अंदर कीटनाशक छिड़काव या कुछ वर्षों के लिए पाइरेथ्रॉइड-पीबीओ मच्छरदानियों का उपयोग भी करते रहना ठीक होगा। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले कुछ वर्षों में घातक रोगाणुओं का अध्ययन करने वाली प्रयोगशालाओं की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। ऐसे में इबोला और निपाह जैसे जानलेवा रोगाणुओं के लैब से लीक होने या दुरूपयोग का जोखिम बढ़ गया है। ग्लोबल बायोलैब्स प्रोजेक्ट की संस्थापक किंग्स कॉलेज लंदन की जैव सुरक्षा विशेषज्ञ फिलिपा लेंटज़ोस ने बढ़ते जोखिम पर चिंता व्यक्त की है। सबसे अधिक जैव-सुरक्षा प्रयोगशालाएं अकेले युरोप में हैं जिनमें से तीन-चैथाई तो शहरी क्षेत्रों में हैं।
ग्लोबल बायोलैब्स रिपोर्ट 2023 के अनुसार विश्व स्तर पर 27 देशों में 51 बीएसएल-4 प्रयोगशालाएं हैं। इन सभी प्रयोगशालाओं में उच्च स्तरीय सुरक्षा मानकों का पालन किया जाता है। एक दशक पूर्व इन प्रयोगशालाओं की संख्या लगभग आधी थी। बीएसएल-4 प्रयोगशालाएं 2001 में एंथ्रेक्स और 2003 में सार्स के प्रकोप के बाद स्थापित की गई थीं। तीन-चौथाई बीएसएल-4 प्रयोगशालाओं का शहरी क्षेत्रों में होने का मतलब है कि ये एक बड़ी आबादी के लिए जोखिम पैदा कर सकती हैं। निकट भविष्य में 18 नई बीएसएल-4 प्रयोगशालाएं शुरू होने की संभावना है जो अधिकांशत: भारत, फिलीपींस वगैरह अधिकांश एशियाई देशों में होंगी। इस रिपोर्ट में 57 बीएसएल-3 प्लस अन्य प्रयोगशालाओं का भी ज़िक्र है जिनमें बीएसएल-3 से अधिक सुरक्षा उपायों का पालन किया जाता है। इनमें से अधिकांश युरोप में हैं जहां एच5एन1 इन्फ्लुएंज़ा जैसे रोगाणुओं का अध्ययन किया जा रहा है। एशिया में भी कई ऐसी प्रयोगशालाएं हैं जहां खतरनाक रोगाणुओं का अध्ययन किया जा रहा है। हालिया सार्स-कोव-2 के बाद से तो बीएसएल-4 प्रयोगशालाओं में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है और ऐसी संभावना है कि जल्द ही यह संख्या दुगनी हो जाएगी। ऐसे में वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने की आशंका बनी रहती है।
गौरतलब है कि कई देशों में बीएसएल-4 प्रयोगशालाओं की निगरानी के लिए पर्याप्त नीतियों और तरीकों का हमेशा से अभाव रहा है। केवल कनाडा ही एक ऐसा देश है जहां रोगाणुओं पर होने वाले गैर-सरकारी अनुसंधान की निगरानी के लिए भी कानून बनाए गए हैं। इनमें विशेष रूप से उन प्रयोगों को शामिल किया गया है जिनके दोहरे उपयोग की संभावना हो सकती है। उक्त रिपोर्ट में आग्रह किया गया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सशक्त मार्गदर्शन और बाहरी विशेषज्ञों द्वारा ऑडिट के लिए सभी देशों की सहमति बनवाने की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रयोगशालाएं अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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