चाइनीज़ मांझा

न दिनों आसमान में परिंदों के अलावा पंतगें भी उड़ती नज़र आती हैं। कुछ जगहों पर तो मकर संक्रांति पर खास पतंगबाज़ी होती है। लेकिन पंतगबाज़ी के इस मौसम के साथ नायलोन मांझे से होने वाली दुर्घटनाओं की खबरें भी आ रही हैं। इसे बोलचाल में चायना मांझा भी कहते हैं, हालांकि इसका चीन से कोई सम्बंध नहीं है। इससे होने वाली दुर्घटनाओं के मद्देनज़र वर्ष 2017 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इसके नियमानुसार “नायलोन, प्लास्टिक या किसी भी अन्य सिंथेटिक सामग्री से बने पतंग के मांझे, जिसमें चाइनीज़ या चीनी मांझा के नाम से मिलने वाला मांझा भी शामिल है, तथा कांच, धातु या किसी अन्य धारदार सामग्री का लेप करके तेज़ किए गए पतंग उड़ाने की डोर की बिक्री, उत्पादन, भंडारण, आपूर्ति, आयात और उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध होगा।” पतंगबाज़ी की अनुमति केवल सूती धागे से होगी, जो धागे को तेज़ करने वाली किसी भी धारदार, धातु की या कांच की सामग्री या चिपकने वाली सामाग्री से मुक्त हो।

लेकिन फिर भी लोगों के बीच चाइनीज़ मांझा लोकप्रिय है। इसकी लोकप्रियता का मुख्य कारण इसकी कम कीमत है। यह कपास के मांझे से एक तिहाई सस्ता और कई गुना अधिक मज़बूत होता है (जो पंतग कटने से बचा देता है)।

चाइनीज़ मांझा पॉलीमर को पिघलाकर एकल-तंतु तार के रूप में बनाया जाता है। एकल-तंतु तार घातक होते हैं और इन्हें तोड़ना काफी मुश्किल होता है। धागे में पैनापन लाने के लिए इस पर कांच का लेप चढ़ाया जाता है। यदि तनी हुई स्थिति में हो तो इस तरह तैयार धारदार मांझा मनुष्यों और जानवरों को घायल कर सकता है और किया भी है।

वैसे, चाइनीज़ मांझा नाम सुनकर लगता है कि यह चीन से मंगाया जाता होगा। लेकिन वास्तव में चाइनीज़ मांझा स्वदेशी उत्पाद है। चाइनीज़ मांझा उत्तरप्रदेश के बरेली और उसके आसपास के गांवों और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बनाया जाता है, जहां से इसे अधिकतर ऑनलाइन बेचा जाता है।

लेकिन इसके उपयोग से कई हादसों की खबरें आई हैं। इसलिए, कानून हो या न हो, सुरक्षित सूती मांझे का उपयोग करें, खुद सुरक्षित रहें, दूसरों को सुरक्षित रखें। इस मामले में कानून से ज़्यादा जागरूकता ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीएम फसल व खाद्य हानिकारक क्यों हैं? – भारत डोगरा

न दिनों सरसों की जीएम फसल पर निर्णय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा विवाद छिड़ा हुआ है। इससे पहले भी कभी बैंगन, कभी सरसों तो कभी कपास की जीएम फसलों पर तीखे विवाद होते रहे हैं। विशेषकर जीएम खाद्य फसलों का विरोध विश्व में बड़े स्तर पर हुआ है। विश्व स्तर पर देखें तो जीएम फसल व खाद्य काफी विवादों में घिरे रहे हैं और बहुत से देशों ने इन्हें प्रतिबंधित भी किया हुआ है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त फसलों को संक्षेप में जीएम (जेनेटिकली मॉडीफाइड) फसल कहते हैं। सामान्यत: एक ही प्रजाति की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती रही हैं। जैसे गेंहू की दो किस्मों से एक नई किस्म तैयार कर ली जाए। इन्हें संकर किस्में कहते हैं।

परंतु जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी पौधे या जंतु के जीन या आनुवंशिक गुण का प्रवेश किसी असम्बंधित पौधे या जीव में करवाया जाता है। जैसे आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या सूअर के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में करवाना या मनुष्य के जीन का प्रवेश सूअर में करवाना आदि।

जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं। इसके अलावा, यह असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साइन्स पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है।

इस पैनल में शामिल विश्व के कई देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार किया है जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है, “जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं तथा ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जीएम फसलों व गैर जीएम फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत, ऐसे पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सेफ्टी या सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी (खतरों की) उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की अपूरणीय क्षति होगी, जिसे ठीक नहीं किया जा सकता है। जीएम फसलों को अब दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर देना चाहिए।”

इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा और घातक दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी मरम्मत नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर उनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण जो पर्यावरण में चला गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।

विवाद का एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह बन रहा है कि वैज्ञानिकों के जो विचार सही बहस के लिए सामने आने चाहिए थे उन्हें दबाया गया है। प्राय: जीएम फसलों के समर्थकों द्वारा यह कहा गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जो अनेक जीएम फसलों को स्वीकृति मिली, वह काफी सोच-समझकर ही दी गई होगी। लेकिन हाल में ऐसे प्रमाण सामने आए हैं कि यह स्वीकृति बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में दी गई थी तथा इनके लिए सरकारी तंत्र द्वारा अपने वैज्ञानिकों की जीएम फसलों सम्बंधी चेतावनियों को दबाया गया था।

इस विषय पर एक बहुत चर्चित पुस्तक है जैफ्री एम. स्मिथ की जेनेटिक रुले। कई प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने इस पुस्तक को अति मूल्यवान बताया है। इस पुस्तक में स्मिथ ने बताया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के खाद्य व औषधि प्रशासन के लिए जो तकनीकी विशेषज्ञ व वैज्ञानिक कार्य करते रहे हैं, वे वर्षों से जीएम उत्पादों से सम्बंधित विभिन्न गंभीर संभावित खतरों के बारे में चेतावनी देते रहे थे और इसके लिए ज़रूरी अनुसंधान करवाने की ज़रूरत बताते रहे थे। यह काफी देर बाद पता चला कि जीएम उत्पादों पर इस तरह की जो प्रतिकूल राय होती थी, उसे यह सरकारी एजेंसी प्राय: दबा देती थी।

जब वर्ष 1992 में खाद्य व औषधि प्रशासन ने जीएम उत्पादों के पक्ष में नीति बनाई तो इस प्रतिकूल वैज्ञानिक राय को गोपनीय रखा गया। पर सात वर्ष बाद जब इस सरकारी एजेंसी के गोपनीय रिकार्ड को एक अदालती मुकदमे के कारण खुला करना पड़ा व 44,000 पृष्ठों में फैली नई जानकारी सामने आई तो पता चला कि वैज्ञानिकों की जो राय जीएम फसलों व उत्पादों के विरुद्ध होती थी, उसे वैज्ञानिकों के विरोध के बावजूद नीतिगत दस्तावेज़ों से हटा दिया जाता था। इन दस्तावेज़ों से यह भी पता चला कि खाद्य व औषधि प्रशासन को राष्ट्रपति के कार्यालय से आदेश थे कि जीएम फसलों को आगे बढ़ाया जाए।

इसी पुस्तक में जैफ्री स्मिथ ने ब्रिटेन का भी एक उदाहरण दिया है जहां वैज्ञानिकों के अनुसंधान से पता चला था कि विकसित किए जा रहे एक जीएम आलू की किस्म के प्रयोगों के दौरान चूहों के स्वास्थ्य को व्यापक क्षति देखी गई थी। जब यह परिणाम बताया जाने लगा तो सरकार ने यह प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया, उसके प्रमुख वैज्ञानिक की छुट्टी कर दी व उसकी अनुसंधान टीम छिन्न-भिन्न कर दी गई।

ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया या उनका अनुसंधान बाधित किया गया क्योंकि उनके अनुसंधान से जीएम फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। इन कुप्रयासों के बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने का उल्लेख है तथा जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

जीएम फसलों के अनेक खतरों के बढ़ते उदाहरणों को देखते हुए इन फसलों के समर्थक बस एक बात पर अड़ जाते हैं कि इनसे उत्पादकता बढ़ेगी। जीएम फसलों का सबसे अधिक प्रसार संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ है और यहां फ्रेंड्स ऑफ अर्थ के एक विस्तृत अध्ययन ने बता दिया है कि जीएम फसलों को उत्पादकता बढ़ाने में कोई सफलता नहीं मिली है। इसी तरह भारत में बीटी कॉटन फसलों के कुछ अध्ययनों से भी यही बात सामने आई है। बीटी कॉटन का कीटनाशक उपयोग कम करने का दावा ज़मीनी अनुभव से मेल नहीं खाता है।

कैंटरबरी विश्वविद्यालय (न्यूज़ीलैंड) के इस विषय के विशेषज्ञ डॉ. जैक हनीमैन ने लिखा है कि कुछ बड़ी कंपनियों ने ऊंची उत्पादकता वाले बीजों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है व इन बीजों को जीएम रूप में ही उपलब्ध करवाती हैं। ऊंची उत्पादकता मिलती है तो यह इन बीजों के अपने गुणों के कारण मिलती है, इन पर हुई जेनेटिक इंजीनियरिंग के कारण नहीं। भारत में जीएम फसलों के विस्तृत अध्ययनों से जुड़े रहे पी. वी. सतीश ने हाल ही में लिखा कि आंध्र प्रदेश में उनके अध्ययनों से बीटी कॉटन की विभिन्न स्तरों पर विफलता की जानकारी मिली। सैकड़ों भेड़ें बीटी कॉटन खेतों में चरने के बाद मर गईं। लेकिन बीज का केंद्रीकरण करके ऐसी स्थिति बना दी गई है जिसमें ऐसा संकरित बीज बाज़ार में मिलना कठिन हो गया है जो जेनेटिक इंजीनियरिंग से न बना हो।

जेनेटिक फसलों के प्रसार से खरपतवार तेज़ी से फैल सकते हैं और सामान्य फसलों में जेनेटिक प्रदूषण का बहुत प्रतिकूल असर हो सकता है। दुनिया के कई देश ऐसे खाद्य चाहते हैं जो जेनेटिक इंजीनियरिंग के असर से मुक्त हों। यदि हमारे यहां जीएम फसलों का प्रसार होगा तो इन देशों के बाज़ार हमसे छिन जाएंगे।

कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टेक्नॉलॉजी मात्र लगभग छ-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथों में केंद्रित है। इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देशों व विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका में है। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है।

इस षड्यंत्र के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में भी लंबी लड़ाई लड़ी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने जैव प्रौद्योगिकी के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव (अब नहीं रहे) को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। पुष्प भार्गव सेन्टर फार सेल्यूलर एंड मालीक्यूलर बॉयोलॉजी, हैदराबाद के पूर्व निदेशक व नेशनल नॉलेज कमीशन के उपाध्यक्ष रहे थे।

ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने बयान में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने देश को चेतावनी दी थी कि चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा अपने व बहुराष्ट्रीय कंपनियों (विशेषकर अमेरिकी) के हितों को जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें। उन्होंने इस चेतावनी में आगे कहा था कि इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त करना है।

हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा था कि लगभग 500 शोध पत्रों ने मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर जीएम फसलों के हानिकारक असर को स्थापित किया है और ये सभी शोध पत्र ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठा है। उन्होंने आगे लिखा था कि दूसरी ओर जीएम फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाशन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने हितों का टकराव स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं।

प्राय: जीएम फसलों के समर्थक कहते हैं कि वैज्ञानिकों का अधिक समर्थन जीएम फसलों को मिला है पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।

जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रचार कई बार इस तरह किया जाता है कि किसी विशिष्ट गुण वाले जीन का ठीक-ठीक पता लगा लिया गया है व इसे दूसरे जीव में पंहुचा कर उसमें वही गुण लाया जा सकता है। किंतु हकीकत इससे अलग व कहीं अधिक पेचीदा है।

कोई भी जीन केवल अपने स्तर पर या अलग से कार्य नहीं करता है अपितु बहुत से जीनों के एक जटिल समूह के एक हिस्से के रूप में कार्य करता है। इन असंख्य अन्य जीन्स से मिलकर व उनकी परस्पर निर्भरता में ही जीन के कार्य को देखना-समझना चाहिए, अलग-थलग नहीं। एक ही जीन का अलग-अलग जीवों में काफी भिन्न असर होगा, क्योंकि उनमें जो अन्य जीन हैं वे भिन्न हैं। विशेषकर जब एक जीव के जीन को काफी अलग तरह के जीव में पंहुचाया जाएगा, जैसे मनुष्य के जीन को सूअर में, तो इसके काफी नए व अप्रत्याशित परिणाम होने की संभावना है।

इतना ही नहीं, जीन समूह का किसी जीव की अन्य शारीरिक रचना व बाहरी पर्यावरण से भी सम्बंध होता है। जिन जीवों में वैज्ञानिक विशेष जीन पहुंचाना चाह रहे हैं, उनसे अन्य जीवों में भी इन जीन्स के पंहुचने की संभावना रहती है जिसके अनेक अप्रत्याशित परिणाम व खतरे हो सकते हैं। बाहरी पर्यावरण जीन के असर को बदल सकता है व जीन बाहरी पर्यावरण को इस तरह प्रभावित कर सकता है जिसकी संभावना जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करने वालों को नहीं थी। एक जीव के जीन दूसरे जीव में पंहुचाने के लिए वैज्ञानिक जिन तरीकों का उपयोग करते हैं उनसे ऐसे खतरों की आशंका और बढ़ जाती है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं तथा वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं।

अत: जीएम फसलों, विशेषकर खाद्य फसलों व उनसे प्राप्त खाद्यों, का प्रवेश उचित नहीं है; इन पर प्रतिबंध लगना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या आप दीर्घ कोविड से पीड़ित हैं?

कोविड-19 से उबरने के बाद भी कई लोगों को हफ्तों या महीनों तक थकान और सिरदर्द जैसी शिकायतें हो रही हैं। ऐसी स्थिति में कई लोग असमंजस में हैं कि वे पूरी तरह ठीक हो पाएंगे या नहीं। इस स्थिति को दीर्घ-कोविड का नाम दिया गया है।

एक हालिया अध्ययन में स्कॉटलैंड के शोधकर्ताओं ने 31,000 से अधिक लक्षण-सहित संक्रमित लोगों का सर्वेक्षण किया। 42 प्रतिशत लोग संक्रमण के 6 से 18 महीने के बाद भी पूरी तरह से ठीक नहीं हुए थे। सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलेगा या क्या कभी वे ठीक नहीं होंगे।

दरअसल, इसका अभी कोई ठोस उत्तर हमारे पास नहीं है लेकिन यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय है। हारवर्ड मेडिकल स्कूल के न्यूरोसाइंटिस्ट माइकल वैनएल्ज़कर के अनुसार दीर्घ कोविड की पुष्टि करने के लिए अभी तक न तो कोई नैदानिक परीक्षण है और न ही यह पता है कि यह कौन-से लक्षण पैदा करता है।

एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कोविड से कुछ लोग तो पूरी तरह ठीक हो गए हैं जबकि कुछ लोगों में दीर्घ कोविड की समस्या बनी हुई है। 

क्या है दीर्घ कोविड?

वास्तव में अभी तक इसके लक्षण, इसके निदान से पहले बीमार रहने की मियाद और इस समस्या का सामना कर रहे लोगों की संख्या का पता लगाने के लिए कोई चिकित्सीय सहमति नहीं बन पाई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कोविड-उपरांत स्थिति तब कही जाएगी जब कोविड संक्रमण के बाद कम-से-कम तीन महीने तक लक्षण बने रहें। दूसरी ओर, यू. एस. सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने इस अवधि को चार सप्ताह रखा है। इसे पोस्ट-एक्यूट सीक्वल ऑफ सार्स-कोव-2 (पीएएससी), स्थायी कोविड, दीर्घकालिक कोविड जैसे कई अन्य नाम भी दिए गए हैं।     

कई बड़े-बड़े अध्ययनों के बाद भी स्पष्ट नहीं है कि कितने लोग दीर्घकालिक लक्षणों से पीड़ित हैं। जर्मनी में किए गए एक अध्ययन में 96 संभावित लक्षणों की पहचान की गई थी और ये लक्षण उन लोगों में पाए गए थे जिनको पूर्व में संक्रमण हुआ है। युवा लोगों में आम तौर पर थकान, खांसी, गले और सीने में दर्द, सिरदर्द, बुखार, पेटदर्द, चिंता और अवसाद जैसे लक्षण देखने को मिले हैं जबकि वयस्कों में गंध और स्वाद में बदलाव, बुखार, सांस लेने में परेशानी, खांसी, गले और सीने में दर्द, बालों का झड़ना, थकान और सिरदर्द जैसे लक्षण मिले हैं।

स्कॉटलैंड में किए गए एक अध्ययन में सिरदर्द, स्वाद और गंध की कमी, थकान, दिल की अनियमित धड़कन, कब्ज, सांस फूलना, जोड़ों में दर्द, चक्कर आना और अवसाद जैसे 26 लक्षणों पर विचार किया गया था। लेकिन पेचीदगी यह रही कि कोविड परीक्षण में पॉज़िटिव न आने वाले लोगों में भी ऐसे कई लक्षण देखे गए।

स्कॉटलैंड अध्ययन में 42 प्रतिशत लोगों में हल्के-फुल्के लक्षण देखने को मिले जबकि 6 प्रतिशत लोगों ने बताया कि वे अभी तक पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं। जर्मन शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में यह दावा किया कि कोविड परीक्षण में पॉज़िटिव न आने वाले लोगों की तुलना में कोविड संक्रमित वयस्कों, बच्चों और किशोरों में 30 प्रतिशत अधिक लोगों में तीन महीनों तक कोविड लक्षण होने की संभावना है। सीडीसी द्वारा किए गए सर्वेक्षण में 41,000 में से 14 प्रतिशत लोगों ने कोविड संक्रमण के तीन महीने बाद भी कोविड के लक्षण होने की बात बताई है। इन सभी अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि हर पांच में से एक से लेकर हर 20 में से एक व्यक्ति में दीर्घ कोविड के लक्षण देखने को मिल रहे हैं।  

सुधार की संभावना

अभी तक हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि दीर्घ-कोविड कितने दिन चलेगा। माउंट सिनाई सेंटर फॉर पोस्ट-कोविड केयर में आने वाले अधिकांश रोगियों में तो काफी सुधार देखने को मिला लेकिन 10 प्रतिशत लोगों में कोई सुधार नहीं दिखा। 

इनमें से कुछ लोग मायएलजिक एंसेफेलोमाइलाइटिस (एमई/सीएफएस) या स्थायी थकान सिंड्रोम से ग्रसित हो सकते हैं। यह स्थिति विभिन्न वायरल संक्रमणों के बाद उभरती है। वैनएल्ज़कर के अनुसार एपस्टाइन-बार नामक वायरस से ग्रसित 10 प्रतिशत लोग एमई/सीएसएफ से ग्रसित हुए थे। उन्हें कोविड रोगियों में भी इसी तरह की समस्या का संदेह है। अलबत्ता, ऐसे भी लोग हैं जिनकी कोविड सम्बंधी समस्याएं पूरी तरह खत्म हो गई हैं।

कारण

विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान लक्षण वाले लोगों में इसके कई संभावित कारण हो सकते हैं और उपचार करने के लिए कारणों को समझना ज़रूरी है। एक शोध के अनुसार सार्स-कोव-2 वायरस कई लोगों के शरीर में बस जाता है और कोविड से उबरने के बाद भी लंबे समय तक शरीर में उपस्थित रहता है। 2020 और 2021 में कोविड से मृत 44 लोगों पर किए गए अध्ययन में मस्तिष्क, हृदय और आंतों सहित कई अंगों में सात महीनों से अधिक समय तक सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन के साक्ष्य मिले थे। ये साक्ष्य अलक्षणी लोगों में भी पाए गए। यह भी देखा गया कि कुछ लोगों में वायरस तीन महीनों तक अपनी प्रतिलिपि बनाता रहा।

वायरस की उपस्थिति रक्त परीक्षणों में नहीं मिलती। इसके लिए दीर्घ-कोविड रोगियों की आंतों और फेफड़ों से नमूने एकत्रित कर वायरस के ठिकानों का पता लगाना होगा।          

शरीर में वायरस के ठिकानों और तकलीफों के संभावित कारणों का पता चलने पर उपचार में मदद मिलेगी। उदारहण के लिए, गंभीर निमोनिया जैसे लक्षणों वाले रोगियों को सांस सम्बंधी पुनर्वास से लाभ हो सकता है जबकि इस तरह का उपचार एमई/सीएफएस वाले रोगियों के लिए घातक हो सकता है। लगातार कोविड के लक्षण वाले रोगियों को एंटीवायरल उपचार से काफी मदद मिल सकती है लेकिन दीर्घ कोविड वाले रोगियों को इस तरह का उपचार देना उचित नहीं है।      

क्या करें

विशेषज्ञों की राय है कि यदि लक्षण चार सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं तो डॉक्टर से सलाह लेना बेहतर है। शुरुआत में कुछ बुनियादी जांचों के साथ हृदय और फेफड़ों की जांच ज़रूरी है। यदि ये लक्षण 12 हफ्तों से अधिक समय तक बने रहते हैं तब विशेषज्ञ उच्च स्तरीय जांच के साथ अधिक आक्रामक इलाज की सलाह देते हैं। चूंकि इस महामारी के दौरान सभी ने एक मुश्किल दौर झेला है इसलिए मानसिक स्वास्थ्य की जांच कराना भी ज़रूरी है। एमई/सीएफएस की जानकारी सहायक हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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आंतों के सूक्ष्मजीव व्यायाम के लिए उकसाते हैं!

ववर्ष के मौके पर कई लोग अपना यह (नाकाम) प्रण दोहराएंगे कि वे सुबह उठ कर व्यायाम करना शुरू कर देंगे। लेकिन सुबह जल्दी बिस्तर न छोड़ पाने के चलते उनका प्रण धरा का धरा रह जाएगा। लेकिन अब लग रहा है कि आंतों के पलने वाले बैक्टीरिया यह प्रण पूरा करने में उनकी मदद कर सकते हैं।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित चूहों पर हुआ अध्ययन बताता है कि व्यायाम करने की इच्छा-अनिच्छा में फर्क के पीछे आंत के सूक्ष्मजीव ज़िम्मेदार हो सकते हैं। शोधकर्ताओं ने अपना अध्ययन कुछ विशेष सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पादित अणुओं पर केंद्रित किया जो चूहों जैसे कृंतक जीवों में दौड़ने की इच्छा जगाते हैं और उन्हें दौड़ाते रहते हैं। शोधकर्ताओं ने यह पता लगाया है कि ये अणु मस्तिष्क से ठीक किस तरह संवाद करते हैं। उम्मीद की जा रही है कि ये नतीजे मनुष्यों पर भी लागू होंगे।

प्रोबायोटिक बनाने वाली कंपनी FitBiomics के सह-संस्थापक और सूक्ष्मजीव विज्ञानी एलेक्ज़ेंडर कोस्टिक के अनुसार यह अध्ययन बताता है कि व्यायाम के लिए सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) कितना महत्वपूर्ण है और आंत और मस्तिष्क के बीच घनिष्ठ सम्बंध भी उजागर करता है। शायद किसी दिन व्यायाम के लिए उकसाने वाले सूक्ष्मजीव (या सम्बंधित अणु) दवा के रूप में इस्तेमाल किए जा सकेंगे।

यह जानने के लिए कि क्यों कुछ लोग व्यायाम करना पसंद करते हैं और कुछ नहीं, पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव विज्ञानी क्रिस्टोफ थैइस ने फुर्तीले चूहों से लेकर आलसी चूहों तक का अध्ययन किया। आनुवंशिक और व्यवहारगत भिन्नता वाले चूहे विशेष रूप से तैयार किए गए थे। इन चूहों की पिंजरों में लगे पहियों पर चलने की इच्छा में पांच गुना से अधिक अंतर था – कुछ चूहे 48 घंटों में 30 किलोमीटर से अधिक दौड़ लेते थे, जबकि बाकी चूहे बमुश्किल कदम उठाते थे।

अध्ययन में फुर्तीले और आलसी चूहों की आनुवंशिक बनावट या जैव-रासायनिक संरचना में कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं दिखाई दिया। लेकिन शोधकर्ताओं को एक सुराग मिला: सामान्य रूप से फुर्तीले चूहों को एंटीबायोटिक दवाएं देने पर वे कम व्यायाम करने लगे थे। आगे के अध्ययनों से पता चला कि एंटीबायोटिक उपचार ने इन फुर्तीले चूहों के मस्तिष्क को प्रभावित किया था। उनके डोपामाइन स्तर में कमी आई थी और मस्तिष्क के कुछ जीन्स की गतिविधि कम हो गई थी। डोपामाइन एक तंत्रिका-संप्रेषक है जो ‘धावकों के नशे’ यानी लगातार व्यायाम करने से मिलने वाले आनंद के लिए जाना जाता है।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि जिन चूहों में आंत के कतिपय बैक्टीरिया की कमी थी उन्हें फुर्तीले चूहों की आंत के सूक्ष्मजीव दिए गए तो वे भी अधिक सक्रिय हो गए। ऐसा लगता है कि ये बैक्टीरिया एक संकेत भेजते हैं जो मस्तिष्क में डोपामाइन को तोड़ने के लिए ज़िम्मेदार एंजाइम की क्रिया में बाधा डालता है। परिणाम यह होता है कि मस्तिष्क के रिवार्ड सेंटर (आनंद महसूस करवाने वाले भाग) में डोपामाइन जमा होने लगता है।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों में आंत से मस्तिष्क तक संदेश पहुंचाने वाली तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करके देखा कि डोपामाइन बढ़ाने वाले संकेत मेरूदंड की तंत्रिकाओं के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुंचते हैं। इन तंत्रिकाओं को उकसा कर शोधकर्ता आंत में बैक्टीरिया की कमी वाले चूहों में भी व्यायाम की इच्छा जगाने वाले संकेत भेजने में सफल रहे।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में इन तंत्रिकाओं का विच्छेदन करके उन्हें आंत के बैक्टीरिया और उन बैक्टीरिया द्वारा बनाए जाने वाले अणुओं के संपर्क में रखा। सूक्ष्मजीव-रहित चूहों को जब फैटी एसिड एमाइड्स दिए गए तो चूहों के मस्तिष्क में डोपामाइन का स्तर बढ़ गया और वे व्यायाम करने लगे। फैटी एसिड एमाइड्स बनाने वाले जीन से लैस बैक्टीरिया देने पर इन चूहों में डोपामाइन का स्तर बढ़ा मिला।

अब सवाल है कि क्या ये नतीजे मनुष्यों पर भी लागू होंगे? शोधकर्ताओं के अनुसार इस मामले में सावधानी रखनी चाहिए क्योंकि कृंतक जीवों और मनुष्यों में कई अंतर होते हैं।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया है कि मैराथन धावकों की आंत में एक विशेष सूक्ष्मजीव का उच्च स्तर होता है, जिससे लगता है कि इसका व्यायाम से कोई सम्बंध है। यह भी देखा गया है कि व्यवहार को प्रेरित करने में डोपामाइन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तो उम्मीद है कि किसी दिन एक गोली ही हमसे व्यायाम करवा लेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीन में कोविड नीतियों में ढील

हाल ही में चीनी सरकार ने कोविड-19 नीतियों में ढील देने के दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशानिर्देशों के तहत जांच की आवश्यकता और यात्रा सम्बंधी प्रतिबंधों में ढील दी गई है तथा सार्स-कोव-2 से संक्रमित हल्के या अलक्षणी रोगियों को पहले की तरह सरकारी सुविधाओं की बजाय घर पर ही आइसोलेट होने की अनुमति दी गई है।

इन रियायतों से संक्रमण में वृद्धि का अंदेशा जताया गया है। विशेषज्ञों के अनुसार यह निर्णय स्पष्ट रूप से इस बात का संकेत है कि चीन अब ज़ीरो कोविड के लक्ष्य से दूर जा रहा है। सख्त तालाबंदी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के चलते कई शहरों में कोविड जांच और आवाजाही पर लगाए गए प्रतिबंधों में कुछ ढील दी गई थी। नए दिशानिर्देश इससे भी अधिक ढील प्रदान करते हैं।

एथेंस के जॉर्जिया विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य शोधकर्ता एडम चेन सरकार के इन निर्णयों को उचित मानते हैं। उनके अनुसार यह कमज़ोर स्वास्थ्य वाले लोगों को संक्रमण से बचाते हुए लॉकडाउन के आर्थिक और सामाजिक नुकसान को कम करने के लिए सबसे उचित है। दूसरी ओर, कुछ विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान निर्णय जल्दबाज़ी में लिए गए हैं जिसमें विचार-विमर्श करने का पर्याप्त समय भी नहीं मिला है।

नए दिशानिर्देशों के तहत समूचे शहरों में जांच की आवश्यकता नहीं रहेगी। लॉकडाउन को लेकर भी एक नपा-तुला दृष्टिकोण अपनाया गया है। पूरे शहरों को बंद करने के बजाय उच्च जोखिम वाली बस्तियों, इमारतों और परिवारों पर प्रतिबंध होंगे। नर्सिंग होम जैसे उच्च जोखिम वाले स्थानों को छोड़कर अब लोगों को आने-जाने के लिए नेगेटिव परीक्षण का प्रमाण दिखाने की आवश्यकता नहीं है। उन क्षेत्रों में टीकाकरण को बढ़ावा देने का निर्देश दिया गया है जहां वृद्धजनों में टीकाकरण की दर कम है।

कई शोधकर्ताओं का मानना है कि नए नियमों के कुछ पहलू अस्पष्ट हैं और स्थानीय सरकारें इनकी व्याख्या अपने अनुसार करेंगी। जैसे आउटब्रेक के दौरान परीक्षण कहां व कब कराए जाएं, उच्च जोखिम वाले क्षेत्र किन्हें कहा जाए और उनका प्रबंधन कैसे किया जाए वगैरह। अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों की जांच और क्वारेन्टाइन में कोई रियायत नहीं दी गई है।

चीन में काफी लोग मल्टी में रहते हैं जहां घनी आबादी के चलते संक्रमण को रोकना मुश्किल होगा। घर पर ही क्वारेन्टाइन करने से संक्रमण फैलेगा। शोधकर्ता लॉकडाउन खोलने के समय को भी सही समय नहीं मानते। सर्दी के मौसम में इन्फ्लुएंज़ा का प्रकोप सबसे अधिक होता है यानी अस्पतालों में रोगियों की संख्या अधिक होगी। इसी समय त्योहारों के लिए लोग यात्राएं करेंगे जिससे वायरस के प्रसार की संभावना अधिक होगी।

चीन के पास मज़बूत प्राथमिक चिकित्सा सेवा प्रणाली नहीं है। ऐसे में हल्के-फुल्के लक्षण वाले लोग भी अस्पताल पहुंचते हैं।

और तो और, विशेषज्ञों को लगता है कि अचानक प्रतिबंधों को हटा देने से काम-धंधे ठीक तरह से पटरी पर नहीं आ पाएंगे। 

शोधकर्ताओं को चिंता है कि जल्दबाज़ी में किए गए इन बदलावों से वृद्ध लोगों के बीच टीकाकरण को बढ़ाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाएगा। फिलहाल 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के लगभग 70 प्रतिशत और 80 वर्ष या उससे अधिक आयु के 40 प्रतिशत लोगों को ही टीके की तीसरी खुराक मिली है।

इन दिशानिर्देशों में टीकाकरण को बढ़ावा देने और लोगों की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के लिए मोबाइल क्लीनिक स्थापित करने और चिकित्सा कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने का भी प्रावधान है। लेकिन इन दिशानिर्देशों में स्थानीय सरकारों को टीकाकरण को बढ़ाने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं है। सवाल यही है कि क्या आने वाले समय में संक्रमण में वृद्धि से मौतों में वृद्धि होगी या सरकार इसे नियंत्रित कर पाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन मनुष्यों से मिला प्रतिरक्षा का उपहार

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ब आधुनिक मनुष्य पहली बार अफ्रीका से निकलकर दक्षिण-पश्चिमी प्रशांत के उष्णकटिबंधीय द्वीपों में गए तो उनका सामना नए लोगों और नए रोगजनकों से हुआ। लेकिन जब उन्होंने स्थानीय लोगों, डेनिसोवन्स, के साथ संतानोत्पत्ति की तो उनकी संतानों में कुछ प्रतिरक्षा जीन स्थानांतरित हुए जिन्होंने उन्हें स्थानीय बीमारियों से बचने में मदद की। अब एक नया अध्ययन बताता है कि इनमें से कुछ जीन्स आज भी पपुआ न्यू गिनी के निवासियों के जीनोम में मौजूद हैं।

वैज्ञानिक यह तो भली-भांति जानते थे कि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया में रहने वाले लोगों को 5 प्रतिशत तक डीएनए डेनिसोवन लोगों से विरासत में मिले हैं। डेनीसोवन लोग लगभग दो लाख साल पहले एशिया में आए थे और ये निएंडरथल मनुष्य के सम्बंधी थे। वैज्ञानिकों को लगता है कि इन जीन्स ने अतीत में आधुनिक मनुष्यों को स्थानीय बीमारियों से लड़ने में मदद करके फायदा पहुंचाया होगा। लेकिन सवाल था कि ये डीएनए अब भी कैसे मनुष्यों के डील-डौल, कार्यिकी वगैरह में बदलाव लाते हैं। और चूंकि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया के वर्तमान लोगों के डीएनए का विश्लेषण बहुत कम हुआ है इसलिए इस सवाल का जवाब मुश्किल था।

इस अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न की आइरीन गेलेगो रोमेरो और उनके साथियों ने एक अन्य अध्ययन का डैटा उपयोग करके इस मुश्किल को दूर किया है। उस अध्ययन में पपुआ न्यू गिनी के 56 लोगों के आनुवंशिक डैटा का विश्लेषण किया गया था। इन लोगों के जीनोम की तुलना डेनिसोवन और निएंडरथल डीएनए के साथ करने पर देखा गया कि डेनिसोवन लोगों से पपुआ लोगों को 82,000 ऐसे जीन संस्करण मिले थे जो जेनेटिक कोड में सिर्फ एक क्षार में बदलाव से पैदा होते हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने आगे का अध्ययन प्रतिरक्षा से सम्बंधित जीन संस्करणों पर केंद्रित किया जो अपने निकट उपस्थित जीन के प्रोटीन का उत्पादन बढ़ा सकते थे, या इसका कार्य ठप या धीमा कर सकते थे। यह नियंत्रण विशिष्ट रोगजनकों के प्रति प्रतिरक्षा प्रणाली को अनुकूलित होने या ढलने में मदद कर सकता है।

शोधकर्ताओं को पपुआ न्यू गिनी के लोगों में कई ऐसे डेनिसोवन जीन संस्करण मिले जो उन जीन्स के पास स्थित थे जो फ्लू और चिकनगुनिया जैसे रोगजनकों के प्रति मानव प्रतिरक्षा को प्रभावित करते हैं। इसके बाद उन्होंने विशेष रूप से दो जीन्स, OAS2 और OAS3, द्वारा उत्पादित प्रोटीन की अभिव्यक्ति से जुड़े आठ डेनिसोवन जीन संस्करण के कार्य का परीक्षण किया।

देखा गया कि इनमें से दो डेनिसोवन जीन संस्करण ने प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा साइटोकाइन्स का उत्पादन कम कर दिया था जिससे शोथ (सूजन) कम हो गई थी। इस तरह शोथ प्रतिक्रिया को शांत करने से पपुआ लोगों को इस क्षेत्र के नए संक्रमणों से निपटने में मदद मिली होगी।

प्लॉस जेनेटिक्स पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि इन प्रयोगों से पता चलता है कि डेनिसोवन जीन संस्करण प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया में छोटे-मोटे बदलाव कर इसे पर्यावरण के प्रति अनुकूलित बना सकते हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि उष्णकटिबंधीय इलाकों में, जहां संक्रमण का अधिक खतरा होता है, वहां प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को पूरी तरह हटाना तो उचित नहीं होगा लेकिन उसकी उग्रता को कम करना कारगर हो सकता है।

ये नतीजे वर्तमान युरोपीय लोगों में निएंडरथल जीन संस्करण की भूमिका पर हुए एक अन्य अध्ययन के नतीजों से मेल खाते हैं। दोनों ही अध्ययन दर्शाते हैं कि कैसे किसी क्षेत्र में नए आने वाले मनुष्यों का प्राचीन मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप उनमें लाभकारी जीन प्राप्त होने का एक त्वरित तरीका प्रदान करता है। अध्ययन बताता है कि इस तरह जीन का लेन-देन मनुष्यों को प्रतिरक्षा चुनौतियों के प्रति अनुकूलित होने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया था।

उम्मीद है कि आगे के अध्ययनों में यह पता चल सकेगा कि क्या डेनिसोवन जीन संस्करण पपुआ लोगों को किसी विशिष्ट रोग से बचने या उबरने में बेहतर मदद करते हैं?

सार रूप में, हज़ारों सालों पहले दो अलग तरह के मनुष्यों का मेल-मिलाप अब भी वर्तमान मनुष्यों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रजोनिवृत्ति यानी मेनोपॉज़ पर बात करना ज़रूरी है – सीमा

मेरी दोस्‍त पिछले कुछ दिनों से थोड़ा अजीब-सा व्‍यवहार कर रही थी। छोटी-छोटी बातों पर चिड़-चिड़ करने लगती थी। और फिर अपनी बेमतलब चिड़चिड़ाहट पर खुद ही परेशान हो जाती थी।

मेनोपॉज या रजोनिवृति महिलाओं के प्रजनन चक्र से जुड़ा मामला है। आम तौर पर किसी लड़की को 12-15 की आयु में मासिक स्राव शुरू होता है और यह अमूमन 45-50 की उम्र तक चलता है। मेनोपॉज़ का मतलब होता है मासिक स्राव का बंद हो जाना। यह कोई बीमारी नहीं है बल्कि जीवन के एक नए चरण की शुरुआत है। वास्तव में जन्म के समय ही किसी लड़की के अंडाशय में लाखों अंडाणु होते हैं। लगभग 12-13 वर्ष की उम्र में ये अंडाणु परिपक्व होना शुरू करते हैं। प्रति माह एक अंडाणु (कभी-कभी दो) परिपक्व होकर अंडाशय से निकलता है। इसका नियंत्रण एस्ट्रोजेन नामक हार्मोन करता है। एक अन्य हार्मोन प्रोजेस्टेरोन महिला के शरीर को गर्भावस्था के लिए तैयार करता है। प्रोजेस्टरोन के प्रभाव से गर्भाशय की दीवार पर रक्त वाहिनियों का एक अस्तर बनता है। यदि अंडे का निषेचन होकर गर्भ नहीं ठहरता तो यह अस्तर झड़ जाता है। यही खून मासिक स्राव के रूप में बहता है। और इसे मासिक धर्म कहते हैं। समय के साथ धीरे-धीरे महिलाओं के अंडाशय एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन का उत्पादन कम करने लगते हैं – इसे पेरिमेनोपॉज़ अवस्था कहते हैं। और जब इन हार्मोन्स का उत्पादन पूरी तरह समाप्त हो जाता है तब मासिक स्राव पूरी तरह बंद हो जाते हैं।  यही मेनोपॉज़ है।

काफी पूछने पर उसने बताया कि पिछले कुछेक महीनों से उसके पीरियड नियमित नहीं आ रहे हैं। 2-3 महीने में एक बार आते हैं और फिर जब आते हैं तो 15-15 दिनों तक रहते हैं। खून भी काफी जाता है। “बहुत जल्‍दी थक जाती हूं और बिना किसी बात के चिढ़ने लगती हूं। मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मेरे पीरियड तो बहुत आराम से हो जाते थे। किंतु अब…”

मैंने उसे बीच में ही रोककर पूछा, “तुमने किसी डॉक्‍टर से बात की?”

“नहीं, उसकी क्‍या ज़रूरत है, कुछ हुआ थोड़ी ना है।”

“तो और क्‍या होने का इंतज़ार कर रही हो… हम आज शाम ही डॉक्‍टर से मिलने चलेंगे।”

डॉक्‍टर साहिबा ने तो सवालों की झड़ी ही लगा दी – ऐसा कब से हो रहा है, और क्‍या-क्‍या परेशानियां होती है, डायबिटीज़ तो नहीं है, बीपी तो नहीं है, शादी हुई, बच्‍चे हैं क्‍या, तुम्‍हारी क्‍या उम्र होगी, जो तुम्हारे साथ आई हैं वे आपकी कौन हैं, वगैरह-वगैरह।

सब कुछ जान लेने के बाद उन्‍होंने मेरी दोस्‍त को सोनोग्राफी कराकर आने को कह दिया। सोनोग्राफी में निकलकर आया कि अंडाशय नीचे आ गए हैं यानी मेनोपॉज़ (रजोनिवृत्ति) की शुरुआत हो गई है। 

सोनोग्राफी की रिपोर्ट देखकर डॉक्‍टर साहिबा थोड़ी परेशान हो गईं, “अभी तो आप 40 की ही हुई हो, आपको बच्‍चे भी तो चाहिए होंगे। मैं ऐसा करती हूं आपको हार्मोनल गोलियां लिख देती हूं। नॉर्मल पीरि‍यड आने लगेंगे, चिंता की कोई बात नहीं है।”

हार्मोनल गोलियां खाने की बात सुनकर मेरी दोस्‍त थोड़ा घबरा गई। दवाई से तो वह हमेशा बचने की कोशिश करती थी।

उसने डॉक्‍टर से कहा, “अरे, नहीं, नहीं, मुझे बच्‍चे नहीं चाहिए। मेरे पीरियड जल्‍दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्‍दी शुरू हो गया होगा। हार्मोनल गोलियां मत लिखिए।”

“पीरियड जल्‍दी शुरू हो गए थे, उससे क्‍या होता है? पीरियड जल्‍दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्‍दी होगा ऐसा कोई नियम नहीं है। क्‍या तुम्‍हारी मां या बहन को भी इसी उम्र में मेनोपॉज़ शुरू हो गया था?”

डॉक्‍टर साहिबा के इस सवाल का मेरी दोस्‍त के पास कोई जवाब नहीं था। उसने कहा कि इस विषय पर उसकी अपनी मां या बहन से कभी कोई बातचीत ही नहीं हुई। पीरियड शुरू होने पर मां ने यह ज़रूर बताया था कि क्‍या करना चाहिए और क्‍या नहीं किंतु खुद अपने पीरियड के सम्बंध में उन्‍हें कभी किसी से बात करते नहीं सुना।

“ठीक है तो अब पूछ लेना।”

चूंकि सोनोग्राफी में कुछ गड़बड़ नहीं निकली थी इसलिए मेरी दोस्‍त तो डॉक्‍टर साहिबा के साथ हुई बातचीत को भूल ही गई, मैं भी भूल गई। फिर कुछ महीनों बाद मुझे मेनोपॉज़ के बारे में एक लेख पढ़ने को मिला – Why Menopause Matters in the Academic Workplace (मेनोपॉज़ अकादमिक कार्यस्थल पर क्या महत्व रखता है)। इस लेख में बताया गया था कि मेनोपॉज़ के दौरान औरतें किन-किन परेशानियों से गुज़रती हैं, मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के लिए काम की जगह को कैसे फ्रेंडली बनाया जा सकता है, वगैरह-वगैरह। इस लेख को पढ़ते हुए मुझे मेरी दोस्‍त व डॉक्‍टर साहिबा की बातचीत याद आ गई – उन्‍होंने मेरी दोस्‍त से कितने तो सवालात किए पर मेनोपॉज़ में किस-किस तरह की परेशानियां आ सकती हैं, उसका एक मर्तबा भी ज़िक्र नहीं किया।

इस लेख को पढ़ने से पहले मुझे भी एहसास नहीं था कि मेनोपॉज़-पूर्व (पेरि-मेनोपॉज़) से गुज़र रही महिलाओं को इतनी तकलीफें होती हैं। कभी मां, बहन या किसी दोस्‍त ने अपने अनुभव साझा ही नहीं किए और न ही इस बारे में कहीं कुछ पढ़ने को मिला। वर्कशॉप में या दोस्‍तों से बातचीत के दौरान माहवारी के अनुभवों पर तो काफी बातें हुईं लेकिन माहवारी समाप्त होने (मेनोपॉज़) पर चर्चा करने का कभी कोई मौका नहीं मिला। और वहीं से यह लेख लिखने का ख्याल पनपा ताकि लोग इस प्रक्रिया को समझ सकें और संवेदनशील हो सकें व खुद के साथ-साथ दूसरों को भी जागरूक कर सकें।

मेनोपॉज़ को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं; जैसे, मेनोपॉज़ शुरू होने के बाद महिलाओं को सेक्‍स करने की इच्‍छा नहीं होती, वो एक तरह से बुढ़ा जाती हैं, चीज़ें भूलने लगती हैं, आदि-आदि।

अमूमन मेनोपॉज़ 45 से 55 की उम्र के बीच शुरू होता है। इस प्रक्रिया के दौरान अंडाशयों से निकलने वाले सेक्‍स हॉर्मोन्स में कमी आने लगती है और इस वजह से पीरियड अनियमित हो जाते हैं। आपको कई तरह के शारीरिक, मानसिक व भावनात्‍मक बदलाव महसूस होते हैं।

इस उम्र में अधिकतर महिलाएं अपने करियर के ऊंचे पड़ाव या नेतृत्व की भूमिका में होती हैं। काम की अधिकतर जगहों पर मेनोपॉज़ – और उस वक्‍त होने वाले शारीरिक, मानसिक व भावनात्‍मक बदलाव – को इस तरह से नहीं देखा जाता कि उसके लिए कोई सपोर्ट सिस्‍टम निर्मित किया जाए। और महिलाएं भी इस डर से कुछ नहीं बोलतीं कि उन पर आलसी होने, बहानेबाज़ी या अकेले काम न कर पाने, समस्‍या खड़ी कर देने वाली का ठप्‍पा लगा दिया जाएगा। कुछ बोलने की बजाय वे छुट्टियां लेकर घर में वक्‍त बिताना पसंद करती हैं। कभी-कभी नौकरी छोड़ देती हैं या फिर प्रमोशन नहीं लेतीं।

मज़दूर तबके की औरतों या घरेलू कामगार महिलाओं के पास तो ये सुविधाएं भी नहीं होतीं। अगर छुट्टी ली तो उन्‍हें तो काम से ही हाथ धोना पड़ जाएगा। और इस वजह से सिर्फ महिलाएं ही मुश्किलें नहीं झेल रही होतीं बल्कि संस्थान भी एक सीनियर महिला के अनुभवों से महरूम रह जाते हैं।

मेनोपॉज़ शुरू होने पर या सही शब्‍दों में कहें तो पेरि-मेनोपॉज़ के दौरान जब आप डॉक्‍टर से सलाह लेने पहुंचती हैं तो वे भी सिर्फ कैल्शियम की गोलियां और खान-खुराक की ही बात करते हैं, या ज्‍़यादा हुआ तो परिवार की हिस्‍ट्री जानकर सोनोग्राफी कराने की सलाह देते हैं। लेकिन इस बारे में कोई बात नहीं करते कि उस दौरान सेक्‍स हार्मोन में कमी आने से किस तरह की शारीरिक या मानसिक दिक्‍कतें हो सकती हैं, जैसे – मूड में उतार-चढ़ाव, एकदम से गर्मी लगने लगना या पसीना आना वगैरह।

दफ्तर में साथ काम करने वाले लोगों या घर के लोगों को कोई अंदाज़ा ही नहीं होता कि औरतें किस परिस्थिति से गुज़र रही हैं, और ऐसे में हम उनकी तकलीफों को और बढ़ा देते हैं। हम यह तो कहते हैं कि आजकल मैडम बहुत चिड़चिड़ी हो गई हैं और छोटी-छोटी बात पर भड़क जाती हैं लेकिन ऐसा क्‍यों हो रहा है कभी जानने-समझने की कोशिश नहीं करते।

मेनोपॉज़ उन व्‍यक्तियों के लिए ज़िंदगी की एक प्राकृतिक अवस्‍था है जिनको अंडाशय व गर्भाशय होते हैं और जिनको माहवारी होती है। जैसे कि औरतें, कुछ ट्रांसजेंडर आदमी, नॉन-बाइनरी लोग।

अगर किसी व्‍यक्ति को लगातार एक साल तक पीरियड नहीं आएं तो कहा जा सकता है कि मेनोपॉज़ हो गया है। लेकिन मेनोपॉज़ तक पहुंचने के दौरान जो शारीरिक, मानसिक व भावनात्‍मक बदलाव होते हैं उनको पेरि-मेनोपॉज़ अवस्‍था कहा जाता है। इसमें अंडाशय से निकलने वाले एस्‍ट्रोजन व प्रोजेस्टेरोन हार्मोन की मात्रा कम होने लगती है। पेरि-मेनोपॉज़ अवस्‍था कई सालों तक रह सकती है। इसमें अनियमित या अत्यधिक रक्तस्राव, मूड में उतार-चढ़ाव होना, नींद आने में दिक्कत, अचानक गर्मी लगना या पसीना आना (hot flushes), भूलने लगना, योनि में सूखापन, वज़न बढ़ना, डिप्रेशन, सेक्‍स करने की इच्‍छा न होना आदि लक्षण होते हैं। इसके अलावा, कुछ स्‍वास्‍थ्‍य सम्बंधी दिक्‍कतें जैसे – अस्थिछिद्रता, हृदय रोग भी हो सकते हैं।

दुनिया भर में कार्यस्‍थलों पर मेनोपॉज़ के अनुभवों को लेकर जानकारी बहुत कम ही है। 2015 में Menopause में प्रकाशित हुई यूएस की एक स्‍टडी में बताया गया था कि हॉट फ्लशेज़ (शरीर के ऊपरी हिस्से में अचानक गर्मी महसूस होना) और रात में पसीना आना (नाइट स्वेट्स) की वजह से ऐसी औरतों ने अन्य औरतों की तुलना में 60 फीसदी ज्‍़यादा काम के दिन गंवाए हैं। लंदन में जेंडर-बराबरी पर काम करने वाले संगठन फॉसिट सोसाइटी की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि मेनोपॉज़ से गुज़र रहीं आधी से ज्‍़यादा औरतों और ट्रांसजेंडर आदमियों ने इस दौरान होने वाली परेशानियों की वजह से प्रमोशन के लिए एप्‍लाई नहीं किया।

ऑस्‍ट्रेलिया में, स्‍वास्‍थ्‍य व उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के एक सर्वे में पता चला था कि कई औरतें ठीक से काम न कर पाने के लिए खुद को दोषी मानती हैं। कइयों ने यह भी कहा कि वे अपने स्‍वास्‍थ्‍य व काम के संतुलन को बेहतर करने के लिए अपने काम के घंटे कम करना चाहती हैं।

जापान ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन ने पिछले साल मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं का एक सर्वे किया था। इस सर्वे में लगभग 20 फीसदी महिलाओं ने नौकरी छोड़ने, प्रमोशन न लेने, काम के घंटे कम करने या पदावनति करने की बात कही।

साइंस, टेक्‍नॉलॉजी, इंजीनियरिंग व मेथ (STEM) के क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को लगता है कि अगर वे अपने बॉस या साथी स्‍टाफ के साथ मेनोपॉज़ की दिक्‍कतों के बारे में बात करेंगी तो वे महिलाओं के खिलाफ और भी पूर्वाग्रहों से भर जाएंगे। परिणाम यह होता है कि वे रिसर्च की बजाय प्रशासनिक काम ज़्यादा पसन्‍द करती हैं।

कार्यस्‍थलों के लिए मेनोपॉज़ नीति बनाने की सख्‍त ज़रूरत है। और ऐसी नीति बनाते वक्‍त महिलाओं को भागीदार बनाना तथा उनसे सुझाव लेना ज़रूरी होगा। काम करने की व्‍यवस्‍था को लचीला बनाया जाए। जैसे, वे महिलाएं कुछ घंटों की छुट्टी लेकर डॉक्‍टर से मिल सकें, घर से काम कर सकें, ऑफिस में एक ऐसी जगह हो जहां हालत बिगड़ने पर कुछ देर आराम कर सकें, ऐसा माहौल हो कि वे अपनी परेशानियों के बारे में किसी व्‍यक्ति या फोरम में खुलकर बात कर सकें।

यूके और यूएस जैसे देशों में तो इस दिशा में प्रयास शुरू भी हो गए हैं। मेनोपॉज़ गाइडेंस, मेनोपॉज़ नेटवर्क, मेनोपॉज़ काफे वगैरह बनाने की पहल हुई हैं। सेलेब्रेटी भी इस पर खुलकर बातें कर रहे हैं।

तो आइए, हम जहां भी काम करते हैं वहां प्री-मेनोपॉज़ पर संवाद शुरू करें। काम की जगहों को प्री-मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं के अनुकूल बनाने की कोशिश करें। मेनोपॉज़ को एक बीमारी या विकार की तरह न देखकर ज़िंदगी के एक दौर की तरह देखें।

कार्यस्‍थलों पर औरतों की संख्‍या जितनी बढ़ेगी, मेनोपॉज़, गर्भावस्था, स्तनपान जैसी चीज़ों पर लोगों के पूर्वाग्रह उतने ही कम होंगे और लोग संवेदनशील भी बनेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर कोशिकाएं गाढ़े द्रव में तेज़ चलती हैं

कैंसर फैलने में अहम मोड़ मेटास्टेसिस चरण में आता है, जब कोशिकाएं प्रारंभिक ट्यूमर से अलग होकर शरीर में फैलने लगती हैं और नए ट्यूमर बनाने लगती हैं। लेकिन कैंसर कोशिकाओं को आगे बढ़ने के लिए शरीर में मौजूद तरल माध्यम से गुज़रते हुए उसके प्रतिरोध का सामना पड़ता है। पूर्व में हुए प्रयोगशाला अध्ययनों में पता चला था कि (सहज बोध के विपरीत) ये कोशिकाएं गाढ़े द्रव में अधिक तेज़ी से आगे बढ़ती हैं।

अब, नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला है कि कैंसर कोशिकाएं शारीरिक द्रव के गाढ़ेपन को भांप लेती हैं और उसके मुताबिक प्रतिक्रिया देती हैं। सिरप जैसे द्रव में रखे जाने पर देखा गया कि कोशिकाएं अपनी बनावट में ऐसे परिवर्तन करती हैं जो उन्हें बाहरी प्रतिरोध में अधिक कुशलता से आगे बढ़ने में मदद करते हैं। यहां तक कि वे द्रव के गाढ़ेपन की स्मृति को सहेजकर रखती हैं और अपेक्षाकृत पतले द्रव में लौटने पर भी तेज़ी से आगे बढ़ना जारी रखती हैं।

यह जानने के लिए कि कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में कैसे आगे बढ़ती हैं, पोम्पे फेबरा युनिवर्सिटी के आणविक जीव विज्ञानी मिगुएल वेल्वरडे और उनके साथियों ने कोशिकाओं की चाल पता करने के लिए उपयोग किए गए अपने गणितीय मॉडल को थोड़ा बदलकर इसे गाढ़े द्रव के लिए अनुकूलित किया।

संशोधित मॉडल ने बताया कि बाहरी प्रतिरोध कोशिकाओं को उनके अग्रभाग की ओर एक्टिन को पुनर्गठित करने के लिए उकसाता है – एक्टिन एक प्रोटीन है जो कोशिका का आंतरिक कंकाल बनाता है। इसके बाद NHE1 नामक परिवहन प्रोटीन झिल्ली पर इकट्ठा होने लगता है और पानी के अवशोषण में मदद करता है। इससे कोशिका फूल जाती है, जिसकी वजह से झिल्ली में तनाव पैदा हो जाता है। इस तनाव के परिणामस्वरूप TRPV4 आयन चैनल खुल जाता है। इससे कैल्शियम आयन कोशिका में भर जाते हैं जो इसे सिकुड़ने के लिए उकसाते हैं। इससे एक बल उत्पन्न होता है जो कोशिका को अधिक गाढ़े द्रव के प्रतिरोध का सामना करके आगे बढ़ने में मदद करता है।

पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को अत्यधिक आवर्धन क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शी से देखा। पाया गया कि जब कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में होती हैं तो उनके अग्रभाग पर एक्टिन जमा होता है। फिर शोधकर्ताओं ने व्यवस्थित रूप से प्रत्येक घटक की जांच करके घटनाओं के क्रम की पुष्टि की। उदाहरण के लिए, NHE1 रहित कोशिकाओं में जब TRPV4 को सक्रिय किया गया तो कोशिकाओं में तेज़ी से चलने की क्षमता बहाल हो गई, जिससे पता चलता है कि TRPV4 चैनल तरल के बहाव की विपरीत दिशा में कार्य करता है। ये नतीजे इस मान्यता को चुनौती देते हैं कि बाहरी चीज़ों के प्रति प्रतिक्रिया देने की शुरुआत आयन चैनल करती हैं।

यह भी देखा गया कि गाढ़े द्रव की परिस्थितियों की स्मृति कोशिकाएं बरकरार रखती है: मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को गाढ़े द्रव में छह दिनों तक रखकर फिर पानी जितनी सांद्रता वाले में माध्यम में स्थानांतरित करने पर पाया गया कि इन कोशिकाओं ने अपनी गति बरकरार रखी। इसी तरह, लसलसे तरल में कोशिकाओं को पनपाने के बाद जब इन्हें चूहों के शरीर में डाला गया तो इन कोशिकाओं ने कम लसलसे तरल में पनपाई गई कोशिकाओं की तुलना में अधिक व्यापक मेटास्टेसिस किया। इसी तरह के नतीजे ज़ेब्राफिश और भ्रूण-चूज़े में भी देखे गए।

ऐसा लगता है कि इस स्मृति का विकास TRPV4 पर निर्भर करता है। कोशिकाओं को एक लसलसे घोल में छह दिन तक रखने के बाद पानी के समान द्रव में स्थानांतरित किया गया तो पता चला कि जिन कोशिकाओं में आयन चैनल व्यक्त नहीं हुआ था उन्होंने चूहों में तुलनात्मक रूप से कम ट्यूमर बनाए। इससे पता चलता है कि आयन चैनल के अभाव में गाढ़ापन गति को प्रभावित नहीं करता।

शोधकर्ताओं का कहना है कि कैंसर के मेटास्टेसिस को अवरुद्ध करने के लिए TRPV4 एक संभावित लक्ष्य हो सकता है। लेकिन अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि पहले सामान्य कोशिकाओं में TRPV4 की भूमिका को पूरी तरह समझना ज़रूरी है। यदि यह कोई खास भूमिका निभाता होगा तो इसे अवरुद्ध करने के घाटे भी हो सकते हैं। इसके अलावा, निष्कर्षों की सावधानीपूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए। कोशिकाएं गाढ़े घोल में तेज़ चलती हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अधिक कैंसर गठानें (द्वितियक कैंसर) बनाएंगी; ट्यूमर मेटास्टेसिस एक बहुत ही जटिल घटना है जिसके कई चरण होते हैं, इनमें से कुछ चरण कोशिका के विचरण से स्वतंत्र हैं।

बहरहाल, भले ही ये नतीजे सीधे तौर पर कैंसर चिकित्सा में मदद न करें लेकिन ये कोशिका-आधारित कैंसर अनुसंधान में बदलाव ला सकते हैं। फिलहाल अधिकांश अध्ययन पानी जैसी सांद्रता वाले द्रवों में किए जाते हैं। शरीर के तरल जैसी सांद्रता वाले द्रव का उपयोग मेटास्टेसिस-अवरुद्ध करने वाले लक्ष्य पहचानने में अधिक मदद कर सकते हैं। कृत्रिम वातावरण जितना अधिक शरीर के वातावरण के समान होगा उतने सटीक परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नींद क्यों ज़रूरी है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब मेरे जैसे अति-बुज़ुर्ग बच्चे हुआ करते थे तब हमें रात 8 बजे तक सो जाना पड़ता था। फिर सुबह 4 बजे उठकर मंजन करना, नहाना, फिर बचा-खुचा होमवर्क पूरा करना, नाश्ता करना और टिफिन बॉक्स लेकर स्कूल के लिए निकल जाना होता था।

स्कूल और खेलने के बाद हम शाम 6 बजे तक घर वापस आ जाते थे। वापिस आकर अपना होमवर्क करते, रेडियो सुनते, अखबार पढ़ते, रात का खाना खाते और रात 8 बजे तक बिस्तर पर गिरते और सो जाते। लेकिन अफसोस कि आजकल चीज़ें बदल गई हैं।

आईआईटी या आईआईएम जैसे पेशेवर संस्थानों में दाखिला पाने की चाह रखने वाले विद्यार्थियों के लिए सेवा निवृत्त प्रोफेसरों द्वारा चलाई जा रही कोचिंग क्लासेस (जो अल्सुबह – आम तौर पर सुबह 4 या 5 बजे) शुरू होती हैं, के चलते नींद का समय कम हो गया है जबकि यह उनके लिए ज़रूरी है।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन ने सिफारिश की है कि 6-12 साल के बच्चों को रोज़ाना 9-12 घंटे की नींद लेनी चाहिए। और 13-18 साल के किशोरों के लिए रोज़ाना 8-10 घंटे की नींद ज़रूरी है।

लेकिन हम देख रहे हैं कि आजकल के बच्चों को इतनी नींद नहीं मिल रही है, क्योंकि वे पूरे दिन कक्षाओं में रहते हैं। और तो और, उनके ‘प्रशिक्षक’ भी पर्याप्त नींद नहीं ले पाते हैं, जो आम तौर पर 40-70 साल के होते हैं, और स्वस्थ जीवन के लिए उन्हें सात घंटे की नींद की ज़रूरत है।

हाल ही में डॉ. जे. एलन हॉब्सन ने नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक समीक्षा का आकर्षक शीर्षक दिया है: ‘नींद दिमाग की, दिमाग के द्वारा, दिमाग के लिए होती है’ (Sleep is of the brain, by the brain and for the brain)। इसमें वे बताते हैं कि हमारी नींद के दो चरण होते हैं। एक जिसे रैपिड आई मूवमेंट (REM) कहा जाता है, और दूसरा गैर-REM कहलाता है। REM नींद कुल नींद के लगभग 20 प्रतिशत समय होती है और इसमें सपने आते हैं, जबकि गैर- REM नींद कुल नींद के लगभग 80 प्रतिशत समय होती है और इसे सुदृढ़ता लाने, याददाश्त को मज़बूत करने और नई चीजें सीखने के लिए जाना जाता है।

पोषण और नींद

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की वेबसाइट मेडिसिन प्लस बताती है कि पोषण का सम्बंध स्वस्थ और संतुलित आहार लेने से है। भोजन और पेय आपको स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक ऊर्जा और पोषक तत्व प्रदान करते हैं। पोषण सम्बंधी इन बातों को समझने से आपके लिए भोजन के बेहतर विकल्प चुनना आसान हो सकता है।

यूएस का स्लीप फाउंडेशन बताता है कि आहार और पोषण आपकी नींद की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं, और कुछ फल और पेय आपके लिए आवश्यक नींद लेने को मुश्किल बना सकते हैं। कैल्शियम, विटामिन A, C, D, E और K जैसे प्रमुख पोषक तत्वों की कमी के कारण नींद की समस्या हो सकती है।

रात के भोजन में उच्च ग्लायसेमिक सूचकांक वाले कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन (जैसे, पॉलिश किया हुआ चावल या मैदा. शकर), शराब या तम्बाकू के सेवन से व्यक्ति उनींदा बन सकता है। यह बार-बार जगाकर आवश्यक नींद की अवधि कम कर सकता है।

स्लीप फाउंडेशन आगे बताता है कि हमें मेडिटेरेनियन आहार अपनाना चाहिए, जिसमें वनस्पति आधारित खाद्य, वसारहित मांस, अंडे और उच्च फाइबर वाले खाद्य पदार्थ शामिल हैं। ऐसा आहार न केवल व्यक्ति के हृदय की सेहत में सुधार करता है बल्कि नींद की गुणवत्ता में भी सुधार लाता है।

खुशी की यह बात है कि अधिकांश भारतीय भोजन मेडिटेरेनियन आहार का ही थोड़ा बदला हुआ रूप है। और हमें यह सलाह भी दी जाती है कि अच्छी नींद लेने के लिए पर्याप्त भोजन करना चाहिए। तो आइए हम कामना करते हैं कि सभी को स्वस्थ और ‘अच्छी’ नींद आए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है पर्याप्त निद्रा – डॉ. आर. बी. चौधरी

साइंस डेली में छपे एक अध्ययन के अनुसार 5 घंटे से कम सोने से शरीर में कई बीमारी पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। दी न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, 50 साल की उम्र के आसपास पांच घंटे या उससे कम सोने वालों को सात घंटे सोने वालों की तुलना में कहीं अधिक बीमारियों घेर लेती हैं।

एक अध्ययन में पाया गया कि 50 प्रतिशत से कम नींद किसी भी व्यक्ति के लिए बड़ा खतरा हो सकती है। ब्रेन कम्यूनिकेशंस के अनुसार नींद की कमी से अल्ज़ाइमर विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है। इसी प्रकार, वाशिंगटन स्टेट युनिवर्सिटी के एक अध्ययन में भी बताया गया है कि नींद की गुणवत्ता का सीधा प्रभाव महिलाओं के मूड, उनकी महत्वाकांक्षा और करियर आगे बढ़ने पर पड़ता है। इसके विपरीत, नींद की गुणवत्ता पुरुषों की भावनाओं पर ज़्यादा असरकारी नहीं पाई गई।

कई सर्वेक्षणों में स्पष्ट हुआ है कि कोरोना की महामारी ने हमारे सोने के पैटर्न को गड़बड़ा दिया है। सोशल मीडिया कम्यूनिटी प्लेटफॉर्म द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि अध्ययन में शामिल 52 प्रतिशत भारतीयों ने यह स्वीकार किया कि महामारी के बाद उनकी नींद के पैटर्न में बदलाव आया है।

प्रत्येक 2 भारतीयों में से 1 ने कहा कि उसे हर रात 6 घंटे से भी कम नींद आती है जबकि 4 में से 1 व्यक्ति 4 घंटे से कम सो रहा है। कोविड से प्रभावित लोग मानसिक और शारीरिक रूप से तनावग्रस्त होते हैं। यह काफी हद तक नींद के पैटर्न को प्रभावित करता है। मन में भय पैदा हो जाता है और ऐसे लोग अलग-थलग पड़ जाते हैं और सामान्य दिनचर्या नहीं व्यतीत कर पाते हैं। यह सब बहुत अधिक मानसिक दबाव के कारण होता है। अध्ययन में यह भी बताया गया है कि अगर कोई ठीक से नहीं सोता है तो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता और मस्तिष्क की संज्ञानात्मक क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

अच्छी नींद तंदुरुस्ती बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। जिसके लिए रात का खाना समय पर लेना चाहिए और सोने तथा अंतिम भोजन के बीच कम से कम 2 घंटे का अंतराल होना चाहिए। सोने से कम से कम 1 घंटे पहले से मोबाइल फोन, लैपटॉप का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जिस बिस्तर पर सोते हैं उसे केवल सोने के लिए ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए; कार्यालय के काम के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। दिन के दौरान झपकी से बचना चाहिए। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार रोज़ाना व्यायाम ज़रूरी है तथा हल्का भोजन करना चाहिए। अच्छी नींद के लिए शराब और कैफीन का सेवन नहीं करना चाहिए। ये सामाजिक सम्बंधों को प्रभावित कर सकते हैं और कार्डियोवैस्कुलर और चयापचय सम्बंधी जटिलताओं और बीमारियों में वृद्धि का कारण बन सकते हैं। इनसे शरीर में कमज़ोरी आती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता लगातार घटती जाती है।

दिन का करीब एक तिहाई हिस्सा सोने के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। 1950 के दशक से पहले, ज़्यादातर लोगों का मानना था कि नींद एक ऐसी अवस्था है जिसके दौरान शरीर क्रिया और मस्तिष्क निष्क्रिय रहता है। इस दौरान मस्तिष्क कई प्रक्रियाओं से गुज़रता है और मस्तिष्क में होने वाली गतिविधियों का सीधा सम्बंध हमारी दिनचर्या से होता है। शोधकर्ता इन प्रक्रियाओं के बारे में अधिक जानने की कोशिश कर रहे हैं ताकि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके। नींद पर अनुसंधान कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सोते समय मस्तिष्क दो अलग-अलग प्रकार की निद्राओं के माध्यम से मस्तिष्क की प्रक्रिया के कई चक्रों को पूरा करता है। इसमें रैपिड-आई मूवमेंट (आरईएम) नींद और गैर-आरईएम नींद को प्रमुख माना जाता है।

इस चक्र का पहला भाग गैर-आरईएम नींद है, जो चार चरणों से बना है। पहला चरण जागने और सो जाने के बीच आता है। दूसरा है हल्की नींद, जब हृदय गति और श्वास नियंत्रित होते हैं और शरीर का तापमान गिर जाता है। तीसरा और चौथा चरण है गहरी नींद। हालांकि आरईएम नींद को पहले सीखने और स्मृति के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण माना जाता था, नए आंकड़ों से पता चलता है कि इन कार्यों के लिए गैर-आरईएम नींद अधिक महत्वपूर्ण है। साथ ही अधिक आरामदायक नींद और पुनर्स्थापना चरण की नींद भी शामिल है। जैसे ही कोई व्यक्ति नींद में जाता है तो आंखें बंद होने लगती हैं और आंखों की पुतलियां पलकों के पीछे तेज़ी से गति करती हैं। हालांकि, मस्तिष्क तरंगें जागृत अवस्था के समान होती हैं। जब कोई व्यक्ति सपना देखता है तो सांस की गति बढ़ जाती है और शरीर अस्थायी रूप से शून्य जैसी अवस्था में चला जाता है। यह चक्र कई बार दोहराया जाता है। इस प्रकार सामान्यत: रात में चार या पांच चक्र होते हैं।

अमेरिका की जॉन्स हापकिंस युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2014 में फ्रूट फ्लाई पर किए गए प्रयोगों के माध्यम यह पता लगाया था कि न सो पाने वाली फ्रूट फ्लाई के अंदर एक खास उत्परिवर्ती जीन नींद का नियंत्रण करता है। इस जीन को उन्होंने वाइड अवेक नाम दिया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि यह उत्परिवर्ती वाइड अवेक जीन जैविक घड़ी को अनियमित करके नींद उड़ाने का काम करता है। उन्होंने पाया था कि यह सामान्य वाइड अवेक जीन एक प्रोटीन बनाता है जो रात में नींद के लिए ज़िम्मेदार होता है और नींद के चक्र को नियंत्रित करता है।

इसी क्रम में यह भी पाया गया कि मनुष्यों और चूहों में भी ऐसा ही निद्रा जीन मौजूद होता है। हमारे अंदर एक जैविक घड़ी होती है जिसके द्वारा मस्तिष्क को समय की सूचना मिलती है। इसका काफी सम्बंध हमें मिलने वाले प्रकाश से होता है जैसे भोजन के बिना हमें भूख लगती है और उसकी आपूर्ति ज़रूरी हो जाती है, उसी प्रकार से नींद की कमी की दशा में पूरे दिन नींद की इच्छा बनी रहती है और हमें सोने की ज़रूरत महसूस होती है। अलबत्ता, नींद और भूख के बीच एक अंतर भी है। भूख लगने पर हमारा शरीर भोजन के लिए सीमा से परे मजबूर नहीं कर सकता है। लेकिन थका व्यक्ति सोने को बाध्य हो जाता है। आंखें अपने आप बंद होने लगती हैं। भले ही आंखें खुली हो लेकिन नींद पूरी न होने की दशा में कुछ मिनट के लिए झपकी मजबूरन आ जाती है। पर्याप्त नींद स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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