टूरेट सिंड्रोम विवश कर देता है – सीमा

ये हिचकियां निकालना बंद करो।

मैं नहीं कर सकती।

क्यों नहीं कर सकती?

क्योंकि ये हिचकियां नहीं, टूरेट सिंड्रोम है।

इन डायलॉग ने आपको हालिया रिलीज़ फिल्म हिचकी की याद दिला दी होगी। हिचकी फिल्म के आने से पहले मैं इस शब्द से वाकिफ नहीं थी। आप में से कइयों के लिए भी ये शब्द अनसुना रहा होगा। फिल्म देखी तो टूरेट सिंड्रोम के बारे में और जानने का मन हुआ। कंप्यूटर खोला और जुट गई नेट से जानकारी इकट्ठा करने में। आप भी टूरेट सिंड्रोम के बारे में जानना चाहेंगे

टूरेट सिंड्रोम यह नाम फ्रांसीसी चिकित्सक, जॉर्ज गिलेस डे ला टूरेट के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने पहली बार 19वीं सदी में इस बीमारी के लक्षणों का विवरण दिया था।

टूरेट सिंड्रोम एक तंत्रिका सम्बंधी विकार है। इसमें इंसान के मस्तिष्क के तंत्रिका नेटवर्क में कुछ गड़बड़ी हो जाती है जिससे वे अनियंत्रित हरकतें करते हैं या अचानक आवाज़ें निकालते हैं। इन्हें टिक्स कहा जाता है। बांह या सिर को मोड़ना, पलकें झपकाना, मुंह बनाना, कंधे उचकाना, तेज़ आवाज़ निकालना, गला साफ करना, बातों को बारबार कहने की ज़िद करना, चिल्लाना, सूंघना आदि टिक्स के प्रकार हैं।

टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्तियों में टिक्स के पहले अजीबसी उत्तेजना होती है और टिक्स हो जाने के बाद थोड़ी देर के लिए राहत मिलती है। पर कुछ देर बाद फिर वही उत्तेजना पैदा होने लगती है। इन लक्षणों पर उन लोगों का कोई नियंत्रण नहीं रहता।

टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति के बौद्धिक स्तर या जीवन प्रत्याशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन अपनी अनियंत्रित हरकतों के कारण उन्हें कई बार शर्मिंदगी और अपमान का सामना करना पड़ता है जिससे उनका रोज़मर्रा का कामकाज और सामाजिक जीवन बहुत ज़्यादा प्रभावित होता है।

टूरेट सिंड्रोम के कारणों के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। शोध के अनुसार, मानव के मस्तिष्क के बेसल गैंग्लिया वाले हिस्से में गड़बड़ी के कारण टूरेट सिंड्रोम के लक्षण विकसित होते हैं। बेसल गैंग्लिया शरीर की ऐच्छिक गतिविधियों, नियमित व्यवहार या दांत पीसने, आंखों की गति, संज्ञान और भावनाओं जैसी आदतों को नियंत्रित करने में मदद करता है।

कुछ अन्य शोध के अनुसार टूरेट सिंड्रोम के मरीज़ों में बेसल गैंग्लिया थोड़ा छोटा होता है और डोपामाइन तथा सेरोटोनिन जैसे रसायनों के असंतुलन के कारण भी यह समस्या उत्पन्न होती है। यह व्यक्ति के आसपास के वातावरण से भी प्रभावित होता है।

टूरेट सिंड्रोम में बिजली का झटका जैसा लगता है लेकिन यह सनसनाहट ज़्यादा देर तक नहीं रहती है बल्कि आतीजाती रहती है। डॉक्टर अभी भी निश्चित तौर पर यह नहीं समझ पाए हैं कि आखिर ऐसा क्यों होता है। टूरेट सिंड्रोम के आधे मरीजों में अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर (यानी एकाग्रता का अभाव और अति सक्रियता) के लक्षण दिखाई देते हैं जिसके कारण ध्यान देने, एक जगह बैठने और काम को खत्म करने में परेशानी होती है। टूरेट सिंड्रोम के कारण चिंता, भाषा सीखने की क्षमता में कमी (डिसलेक्सिया), विचारों और व्यवहार को नियंत्रित करने की क्षमता में कमी आदि समस्याएं भी हो सकती हैं। तनाव, उत्तेजना, कमज़ोरी, थकावट या बीमार पड़ जाना इस सिंड्रोम को और गंभीर बना देते हैं।

यह आनुवंशिक है यानी यदि परिवार में किसी व्यक्ति को टूरेट सिंड्रोम हो तो उसकी संतानों को भी टूरेट सिंड्रोम होने की संभावना रहती है। लेकिन टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित एक ही परिवार के व्यक्तियों में इसके लक्षण अलगअलग हो सकते हैं।

अमूमन कई बच्चों में ये टिक्स उम्र के साथ अपने आप चले जाते हैं पर लगभग 1 प्रतिशत बच्चों में ये स्थायी रूप में रह जाते हैं। लड़कियों की तुलना में लड़कों में ये ज़्यादा होते हैं।

वैसे तो टूरेट सिंड्रोम का कोई इलाज नहीं है, लेकिन टिक्स को नियंत्रित किया जा सकता है। दवाइयों को प्राथमिक उपचार के रूप में दिया जाता है। किंतु इन दवाइयों से थकावट, वज़न बढ़ना, संज्ञान सुस्ती जैसे दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं। दवाइयों के अलावा व्यवहारगत उपचार भी दिया जाता है जिससे टिक्स के प्रभाव और तीव्रता को कम किया जाता है।

व्यवहारगत उपचार में टिक्स के पैटर्न और आवृत्ति की निगरानी की जाती है और उन उद्दीपनों को पहचानने की कोशिश की जाती है जिनसे टिक्स उत्पन्न होते हैं। इसके बाद टिक्स को संभालने के विकल्प सुझाए जाते हैं (उदाहरण के लिए, गर्दन के झटके को कम करने के लिए ठुड्डी को नीचे करते हुए गर्दन को सीधा खींचना)। ऐसे उपाय टिक्स के कारण पैदा हुई उत्तेजनाओं से मुक्ति पाने में मददगार होते हैं। मरीज़ और उसके परिवार की काउंसलिंग की जाती है ताकि वे समाज और घर में भागीदार बन सकें।

पर सबसे ज़्यादा ज़रूरत है संवेदनशीलता की, टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति के साथ सामान्य व्यवहार करने की। हमारी संवेदनशीलता उन्हें एक सामान्य जीवन जीने में मदद कर सकती है। यह बात सिर्फ टूरेट के मामले में नहीं बल्कि हर भिन्नसक्षम व्यक्ति के मामले में लागू होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अनैतिकता के निर्यात पर रोक का प्रयास

नैतिकता का निर्यात यानी एथिकल डंपिंग शब्द युरोपीय आयोग ने 2013 में गढ़ा था। इसका आशय यह है कि कई देशों के शोधकर्ता नैतिक मापदंडों के चलते जो शोध अपने देश में नहीं कर सकते उसे किसी अन्य देश में जाकर करते हैं जहां के नैतिक मापदंड उतने सख्त नहीं हैं। यह स्थिति प्राय: विकसित सम्पन्न देशों और निर्धन देशों के बीच उत्पन्न होती है। अब युरोपीय संघ ने इस तरह के अनैतिकता के निर्यात पर रोक लगाने का फैसला किया है।

वैसे युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित शोध के संदर्भ में अनैतिकता के निर्यात की बात 2013 में ही शुरू हो गई थी किंतु उस समय इस संदर्भ में स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं होने के कारण प्रतिबंध को लागू नहीं किया जा सका था। अब आयोग ने दिशानिर्देश तैयार कर लिए हैं और युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित सारे अनुसंधान प्रोजेक्ट्स में इन्हें लागू किया जाएगा।

युरोपीय आयोग के नैतिकता समीक्षा विभाग का कहना है कि इस तरह से अन्य देशों में जाकर शोध के ढीलेढाले मापदंडों का उपयोग करने से वैज्ञानिक अनुसंधान की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। खास तौर से यह स्थिति जंतुओं पर किए जाने वाले अनुसंधान के संदर्भ में सामने आती है। इसके अलावा, कई मर्तबा यह भी देखा गया है कि जिन देशों में अनुसंधान किया जाता है, वहां के लोगों को पर्याप्त जानकारी देने के मामले में भी लापरवाही बरती जाती है। अनुसंधान में भागीदारी के जो मापदंड युरोप में लागू हैं, उनका पालन प्राय: नहीं किया जाता। दिशानिर्देशों में यह भी कहा गया है कि शोध परियोजनाओं में इस वजह से जानकारी छिपाना या कम जानकारी देना उचित नहीं कहा जा सकता कि वहां के लोग या स्थानीय शोधकर्ता उसे समझ नहीं पाएंगे। इसके अलावा एक मुद्दा यह भी है कि अन्य देशों में शोध करते समय वहां के नियमकानूनों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

अलबत्ता, कई लोगों का कहना है कि इस तरह की सख्ती से अन्य देशों में अनुसंधान करना मुश्किल हो जाएगा और इससे न सिर्फ वैज्ञानिक अनुसंधान का बल्कि उन देशों का भी नुकसान होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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पोलियो ने फिर सिर उठाया

बात भारत की नहीं, कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र की है। अलबत्ता, कहीं की भी हो मगर यह बात अंतर्राष्ट्रीय चिंता का विषय है कि पोलियो ने फिर से बच्चों को लकवाग्रस्त किया है।

कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र (संक्षेप में कॉन्गो) में पोलियो के कारण 29 बच्चे लकवाग्रस्त हो चुके हैं और गत 21 जून को एक और मामला सामने आया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने इसे अत्यंत चिंताजनक घटना घोषित किया है जो पोलियो उन्मूलन के हमारे प्रयासों को वर्षों पीछे धकेल सकती है।

कॉन्गो में उभरे नए मामले पोलियो उन्मूलन के प्रयासों के सबसे कठिन हिस्से की ओर संकेत करते हैं। कॉन्गो में पोलियो के ये मामले उस कुदरती वायरस के कारण नहीं हुए हैं, जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और शायद नाइजीरिया में अभी भी मौजूद है। कॉन्गो में लकवे के नए मामले ओरल पोलियो वैक्सीन (दो बूंद ज़िंदगी की) में इस्तेमाल किए गए दुर्बलीकृत वायरस के परिवर्तित रूप के कारण सामने आए हैं। वैक्सीन का यह दुर्बलीकृत वायरस प्रवाहित होता रहा और इसमें विभिन्न उत्परिवर्तन हुए और अंतत: इसने फिर से संक्रमण करने और लकवा पैदा करने की क्षमता अर्जित कर ली है।

वास्तव में मुंह से पिलाया जाने वाला पोलियो का टीका काफी सुरक्षित और कारगर माना जाता है और यही पोलियो उन्मूलन के प्रयासों का केंद्र बिंदु रहा है। इसकी एक खूबी है जो अब परेशानी का कारण बन रही है। टीकाकरण के बाद कुछ समय तक यह दुर्बलीकृत वायरस मनुष्य से मनुष्य में फैलता रहता है। इसके चलते उन लोगों को भी सुरक्षा मिल जाती है जिन्हें सीधे-सीधे टीका नहीं पिलाया गया था। मगर कई बार यह वायरस इस तरह से बरसों तक पर्यावरण में मौजूद रहकर उत्परिवर्तित होता रहता है और फिर से संक्रामक रूप में आ जाता है।

टीके से उत्पन्न पोलियो वायरस सबसे पहले वर्ष 2000 में खोजा गया था। इसकी खोज होते ही, विश्व स्वास्थ्य सभा ने घोषित किया था कि कुदरती वायरस के समाप्त होते ही मुंह से पिलाए जाने वाले टीके को बंद कर देना चाहिए। फिर 2016 में पता चला कि टीका-जनित पोलियो वायरस अब कहीं अधिक घातक हो चला है और यह कुदरती वायरस की अपेक्षा ज़्यादा लोगों को लकवाग्रस्त बना रहा है। उसके बाद से इसे एक वैश्विक समस्या मानते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने पोलियो उन्मूलन की रणनीति में कई बदलाव किए हैं और देशों को प्रसारित किए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि बदली हुई रणनीतियां कामयाब होंगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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बीमारियों के शहंशाह पर विजय – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कैंसर तब होता है जब स्वस्थ कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती है, उनमें अनियंत्रित विकास होता है जो स्वास्थ को प्रभावित करता है।

कैंसर विशेषज्ञ डॉ. सिद्धार्थ मुखर्जी की कैंसर पर लिखी किताब पुलित्ज़र पुरस्कार के लिए चुनी गई थी। उनकी इस किताब का नाम था एम्परर ऑफ ऑल मेलेडीज़ (बीमारियों का शहंशाह)। यह कैंसर जैसे शत्रु द्वारा प्रस्तुत चुनौती के प्रति विस्मय और खेल भावना से अपने शत्रु की प्रशंसा का मिलाजुला प्रस्तुतीकरण है। इससे पहले 1971 में अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने कैंसर पर युद्ध की घोषणा की थी और इसके लिए 1.4 अरब डॉलर की राशि प्रदान की थी। इन 47 वर्षों में अकेले यू.एस. राष्ट्रीय कैंसर संस्थान ने ही कैंसर पर युद्ध में 90 अरब डॉलर खर्च किए हैं। और विजय अभी हमारा मुंह चिढ़ा रही है।

प्रति वर्ष अमेरिका में 173 लाख नए कैंसर मरीज़ रिपोर्ट होते हैं। और हर 20 मिनिट में एक कैंसर मरीज़ की मृत्यु होती है। भारत में यह आंकड़ा 25 लाख है और हर 8 मिनिट में एक मृत्यु। इस प्रकार सभ्यता की शुरुआत से ही हमारे साथ चली आ रही इस घातक बीमारी का समाधान बेहद ज़रूरी और महत्वपूर्ण है।

कैंसर तब होता है जब शरीर में कोई स्वस्थ कोशिका क्षतिग्रस्त हो जाती है और अनियंत्रित वृद्धि करने लगती है जिससे स्वास्थ्य प्रभावित होता है। कोशिका में क्षति या तो कोशिका के जीन्स को प्रभावित करने वाली जन्मजात या आनुवंशिक त्रुटियों की वजह से हो सकती है या जीवन शैली और पर्यावरणीय कारकों के कारण हो सकती है। सामान्य कोशिका में यह शुरू से तय होता है कि वह एक निश्चित समय तक विभाजन करेगी और एक निश्चित आकार तक वृद्धि करेगी। लेकिन कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में क्षति के कारण वे बेलगाम वृद्धि करती रहती हैं जिसकी वजह से ट्यूमर (गठान) बनता है। कैंसर विशेषज्ञ दवाइयों या सर्जरी से इस ट्यूमर को हटा देते हैं। लेकिन बड़ी चुनौती इसका यह पहला उपचार नहीं है बल्कि यह है कि कैंसर फिर से सिर न उठाए या इसका मेटास्टेसिस (शरीर के दूसरे हिस्सों में पहुंचकर उन्हें नुकसान पहुंचाना) न होने पाए। अर्थात कैंसर से लड़ाई का मकसद इसकी जड़ तक पहुंचकर उसे उखाड़ फेंकना है।

इसी संदर्भ में हम अपने अंदर कुदरती रूप से मौजूद प्रतिरक्षा तंत्र का रुख करते हैं। प्रतिरक्षा तंत्र कोशिकाओं, ऊतकों और अणुओं का एक जटिल नेटवर्क है। यह तंत्र संक्रमण और अन्य बीमारियों के साथसाथ कैंसर से लड़ने में मदद करता है। श्वेत रक्त कोशिकाएं (लिम्फोसाइट्स) इसमें अहम भूमिका निभाती हैं। विशेष रूप से बीलिम्फोसाइट्स नामक कोशिकाएं हमलावरों में अणुओं की आकृति को पहचानती हैं और फिर एंटीबॉडीज़ बनाती हैं, जो हमलावरों को घेरकर शरीर से हटा देते हैं। (महत्वपूर्ण बात यह है कि लिम्फोसाइट इस आकृति को याद रखते हैं, और जब भी इस हमलावर द्वारा पुन: हमला हो तो बीलिम्फोसाइट तैयार रहते हैं।) कोशिकाओं का एक समूह टीकोशिकाओं का होता है जो कुछ रसायन छोड़ती हैं। ये रसायन हमलावर कोशिकाओं को आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं। इस प्रक्रिया में इन टीकिलर कोशिकाओं को टीहेल्पर कोशिकाओं की मदद मिलती है। इसके अलावा डेंड्राइटिक कोशिकाओं का एक और समूह होता है जो बीकोशिकाओं और टीकोशिकाओं दोनों को सक्रिय करने में मदद करता है, और वे विशिष्ट खतरे का जवाब देने में समर्थ हो जाती हैं।

प्रत्येक कोशिका की सतह पर एक छोटा मार्कर होता है, एक छोटे आण्विक पहचान पत्र के समान। इसे एंटीजन कहते हैं। ये छोटेछोटे अणु होते हैं जो कोशिका की सतह पर पाए जाते हैं। शरीर की सामान्य कोशिकाओं पर उपस्थित एंटीजन को शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकाएं अपनेके रूप में पहचानती है और उन्हें हाथ नहीं लगाती। लेकिन जैसे ही कोई अन्य कोशिका (जैसे हमलावर सूक्ष्मजीव या वायरस) इस तंत्र में घुसपैठ करने की कोशिश करती है तो उसके पराए एंटीजन का पता लगाया जाता है और बी और टी लिम्फोसाइट्स द्वारा हमलावर को शरीर से बाहर फेंक दिया जाता है।

यही टीकाकरण की बुनियाद है। टीके में, हम रोग पैदा करने वाले रोगाणुओं (या तो मृत या अक्षम बनाए हुए) को शरीर में प्रवेश कराते हैं। इसे प्रतिरक्षा तंत्र पराएविदेशी एंटीजन के रूप में पहचानता है और उसे पकड़कर (एंटीबॉडी प्रोटीन की मदद से) शरीर से बाहर फेंक देता है। साथ ही प्रतिरक्षा तंत्र इस पराए एंटीजन को याद रखता है और जब भी हमलावर फिर से आता है, बी कोशिकाएं इसके खिलाफ एंटीबॉडीज़ बनाती हैं और इसे हटा देती हैं। इस प्रकार शरीर को लंबे समय तक सुरक्षा मिलती है। ह्रूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) जैसे कैंसरकारक वायरस और हेपेटाइटिस बी और सी के वायरस सहित कई बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण के पीछे यही आधार रहा है।

अन्य प्रकार के कैंसर के लिए इसका क्या महत्व है? कैंसर कोशिकाओं की सतह पर भी एंटीजन होते हैं। ये कैंसरसम्बंधी एंटीजन हैं। इनमें कुछ एंटीजन को शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा पहले नहीं देखा गया था। ये नवएंटीजन्स कहलाते हैं। ये शरीर के लिए पराए होते हैं जो हमलावर से आते हैं।

वर्तमान में कैंसर के इलाज को लेकर उत्साह के माहौल में, प्रतिरक्षा तंत्र का इस्तेमाल करके एक कैंसररोधी टीका बनाने का यह विचार सूची में सबसे आगे हैं। यह रोकथाम का टीका नहीं होगा (जैसे कि एचपीवी या हिपेटाइटिस के टीके होते हैं) बल्कि एक उपचारात्मक टीका होगा। इसमें पहले तो मौजूदा तरीकों से कैंसर का इलाज किया जाता है। इलाज के बाद कैंसर फिर से सिर न उठाए और न ही (मेटास्टेसिस के ज़रिए) अन्य अंगों में फैले, इसके लिए रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक का एक टुकड़ा लिया जाता है और इसमें नवएंटीजन की पहचान की जाती है। इसके बाद वैज्ञानिकों का एक समूह कंप्यूटर विधि का उपयोग यह जांचने के लिए करता है कि कौनसा टुकड़ा रोगी के प्रतिरक्षा तंत्र को कैंसर कोशिकाओं से लड़ने के लिए सबसे अच्छी तरह से सक्रिय करेगा। इस तरह चुने गए नवएंटीजन का इस्तेमाल करके टीका बनाया जाता है। और यह टीका मरीज़ों को दिया जाता है ताकि कैंसर की पुनरावृत्ति न हो। उम्मीद है कि इस प्रकार हमेशा के लिए कैंसर से निजात मिल जाएगी।

कैंसर के कुछ टीके तो बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। उदाहरण के लिए स्तन कैंसर के खिलाफ एचईआर-2, प्रोस्टेट कैंसर के खिलाफ प्रोवेन्ज और मेलानोमा के खिलाफ टीवीईसी। वैसे आजकल कुछ शोधकर्ता रोगी के पूरे जीनोम को पढ़ कर ट्यूमर के डीएनए या आरएनए के क्षारों का अनुक्रमण करना चाहते हैं ताकि उसमें हुए उत्परिवर्तन की पहचान करके हर मरीज़ के लिए व्यक्तिगत टीका बनाया जा सके। सम्राटहमला कर सकता है और घायल कर सकता है। लेकिन अब हम बॉय स्काउट का नारा अपना रहे हैं कि तैयार रहो, तो शायद सम्राट की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। (स्रोत फीचर्स)

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तीन पालकों वाले एक और बच्चे की तैयारी

 सिंगापुर शायद वह दूसरा देश होगा जहां तीन पालकोंदो मां और एक पिताकी संतान पैदा करने की अनुमति मिल जाएगी। इससे पहले युनाइटेड किंगडम में इसे कानूनन वैध घोषित किया गया था। और संभवत: इस वर्ष पहली तीनपालक संतान जन्म लेगी। तो यह मामला क्या है और एक बच्चे की दो मांएं कैसे हो सकती हैं? 

जब स्त्री के अंडाणु और पुरुष के शुक्राणु का निषेचन होता है तो दोनों की आधीआधी जेनेटिक सामग्री निषेचित अंडे में पहुंचती है। मगर कोशिका के एक खास अंग (माइटोकॉण्ड्रिया) पूरे के पूरे सिर्फ मां से आते हैं। माइटो­कॉण्ड्रिया कोशिका का वह अंग है जो ऑक्सीजन का उपयोग करके ग्लूकोज़ से ऊर्जा प्राप्त करने का काम करता है। मज़ेदार बात यह है कि माइटोकॉण्ड्रिया की अपनी स्वतंत्र जेनेटिक सामग्री होती है जो कोशिका के केंद्रक से अलग होती है। 

यदि मां के माइटोकॉण्ड्रिया की जेनेटिक सामग्री में कोई विकार हो तो वह बच्चे में भी पहुंच जाता है और बच्चे को श्वसन सम्बंधी रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। इसका प्रभाव मुख्य रूप से मस्तिष्क, हृदय और मांसपेशियों के काम पर होता है। इसलिए वैज्ञानिकों ने यह तकनीक विकसित की है कि ऐसे विकारग्रस्त माइटोकॉण्ड्रिया वाली स्त्री के अंडाणु के निषेचन के दौरान केंद्रक की जेनेटिक सामग्री तो उसकी अपनी रहे किंतु माइटोकॉण्ड्रिया किसी अन्य स्त्री का डाला जाए। तो उस बच्चे की दो मां होती हैंएक जिसके केंद्रक की जेनेटिक सामग्री अंडे में है और दूसरी जिसके माइटो­कॉण्ड्रिया बच्चे को मिले हैं।

इसे माइटोकॉण्ड्रिया प्रतिस्था­पन उपचार या माइटोकॉण्ड्रियल रिप्लेसमेंट थेरपी कहते हैं। और इसे अंजाम देने के कई वैकल्पिक तरीके हैं। इसके कई सामाजिक पक्ष हैं जिन पर विचार करना आवश्यक है। इसलिए सिंगापुर सरकार ने आम लोगों और धार्मिक समूहों को 15 जून तक का समय दिया था कि वे सिंगापुर की जैव आचार परामर्श समिति को अपनी राय बता सकते हैं। इसके आधार समिति अंतिम निर्णय लेगी। (स्रोत फीचर्स)

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प्रयोगशाला बनी आंत की लंबाई बढ़ाने की कोशिश

 वैज्ञानिकों ने मानव स्टेम कोशिकाओं को संवर्धित करने की तकनीक को इतना परिष्कृत कर लिया है कि अब प्रयोगशाला में मानव अंगों के छोटे रूप बनाए जा सकते हैं। ये वास्तविक अंग की सूक्ष्म अनुकृति होते हैं और इन्हें अंगाभ या ऑर्गेनॉइड कहते हैं। ये उस अंग के कामकाज की अच्छी नकल कर लेते हैं और इनका उपयोग उस अंग के कामकाज और बीमारियों के अध्ययन हेतु किया जा सकता है। किंतु फिलहाल यह स्थिति नहीं आई है कि ऐसे अंगाभों का प्रत्यारोपण वास्तविक अंग की जगह किया जा सके। अब एक अध्ययन में पता चला है कि यदि मानव आंत के अंगाभ में कुछ स्प्रिंग का इस्तेमाल किया जाए तो उसकी लंबाई बढ़ने लगती है।

सामान्यत: शरीर में जब आंत का विकास होता है तो उसपर तमाम खिंचाव और तनाव के बल लगते हैं। इन बलों के प्रभाव से आंत लंबी होने लगती है। शोधकर्ताओं ने किया यह कि मानव स्टेम कोशिकाओं से ऊतक विकसित किया और उसे चूहे के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिया। जब चूहे के शरीर में 10 सप्ताह तक इसका विकास हो चुका था, तब उन्होंने इसके अंदर एक स्प्रिंग को जिलेटिन में लपेट कर डाला। शुरू में स्प्रिंग अच्छे से दबाकर जिलेटिन में लपेट दी गई थी। इस दबी स्प्रिंग को चूहे के शरीर में विकसित हो रहे आंतअंगाभ के अंदर डाला तो जिलेटिन घुल गया और स्प्रिंग फैलने लगी।

जब अंगाभ को बगैर स्प्रिंग के पनपाया गया था तो उसकी लंबाई 0.5 से.मी. हो पाई थी जब किस्प्रिंग की मदद से वह 1.2 से.मी. लंबी हुई। नेचर बायोमेडिकल जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र में टीम ने बताया है कि न सिर्फ इस अंगाभ की लंबाई ज़्यादा थी, इसमें आंत की कई अन्य रचनाएं भी विकसित हुईं। जैसे सामान्य आंत की अंदरुनी सतह पर उंगली जैसे उभार होते हैं जिन्हें विलाई कहते हैं। ये विलाई आंत की अंदरुनी सतह का क्षेत्रफल बढ़ादेते हैं और आंत अवशोषण का अपना काम कहीं बेहतर ढंग से कर पाती है। यह भी देखा गया कि इस अंगाभ में पाचन तंत्र के कुछ जीन्स की भी बेहतर अभिव्यक्ति हुई।

इस सबके बावजूद अभी भी यह अंगाभ वास्तविक अंग या उसके खंड का स्थान लेने के लिए पर्याप्त नहीं है। किंतु शोधकर्ताओं का ख्याल है कि यह प्रयोग चूहे के शरीर में किया गया था और चूहा अपेक्षाकृत छोटा जंतु है। यदि यही प्रयोग किसी बड़े जंतु में करेंगे तो उम्मीद है कि बेहतर नतीजे मिलेंगे और संभवत: एक दिन प्रत्यारोपण के लिए अंग बन पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया का इलाज बैक्टीरिया से – डॉ. अरविंद गुप्ते

तपेदिक यानी टीबी की बीमारी सदियों से अनगिनत इंसानों की मृत्यु का कारण बन चुकी है। किसी रोग का इलाज तभी हो सकता है जब उसके कारण का पता हो। उन्नीसवीं शताब्दी में पता चला कि टीबी का रोग फेफड़ों में रहने वाले एक बैक्टीरिया, म्युको­बैक्टीरियम टयुबरकूलोसिस, के कारण होता है। बीसवीं शताब्दी के मध्य में एन्टीबायोटिक दवाओं का आविष्कार हुआ और इनके कारण टीबी का इलाज आसान हो गया। 

इलाज तो संभव हुआ किंतु अब एक नई समस्या सामने गई है। इस बैक्टीरिया की कुछ किस्मों पर दवाओें का असर होना बंद हो गया है और मरीज़ फिर इस रोग के शिकार होने लगे हैं। संसार में वर्तमान में लगभग एक करोड़ टीबी मरीज़ों में से लगभग 5 लाख मरीज़ों पर टीबी उपचार के परम्परागत दवा मिश्रण रिफेम्पिसिन और आइसो­नियाज़िड का असर नहीं हो रहा है। डॉक्टरों और वैज्ञानिकों को यह डर सताने लगा है कि आने वाले दिनों में ये दवाप्रतिरोधी बैक्टीरिया महामारी का रूप धारण कर लेंगे और बड़ी संख्या में मौतें फिर होने लगेंगी। अतः टीबी की अधिक कारगर दवाओं की खोज तेज़ी से की जा रही है। हाल में इस खोज में आशा की एक धुंधलीसी किरण दिखाई दी है। इसे समझने के लिए थोड़ा विषयांतर करना होगा।

सिस्टिक फाइब्रोसिसनामक रोग के मरीज़ों के फेफड़ों और श्वसन तंत्र तथा शरीर के अन्य भागों में सामान्य से अधिक चिपचिपा पदार्थ श्लेष्मा भरा होता है। इस चिपचिपे पदार्थ की अधिकता के कारण मरीज़ों को केवल सांस लेने में बहुत तकलीफ होती है, बल्कि पाचन अन्य क्रियाओं में भी परेशानी होती है। इस श्लेष्मा में बर्खोल्डेरिया ग्लैडिओली नामक एक बैक्टीरिया बहुतायत से पाया जाता है। ब्रिटेन के कार्डिफ विश्वविद्यालय के डॉ. ईश्वर महेन्तिरालिंगम और ब्रिटेन के ही वॉरिक विश्वविद्यालय के डॉ. ग्रेग चैलिस ने इस बैक्टीरिया द्वारा बनाया जाने वाला एक रसायन खोजा है जिसे उन्होंने ग्लॅडिओलिन नाम दिया है। इस पदार्थ की विशेषता यह है कि यह अन्य बैक्टीरिया के जीवित रहने के लिए आवश्यक एक एंज़ाइम को निष्क्रिय करके उन्हें मार देता है। यह एंज़ाइम एक आरएनए पॉलीमरेज़ होता है। इससे टीबी के बैक्टीरिया की दवा प्रतिरोधक किस्में भी मारी जाती हैं। जाहिर है, ग्लैडिओलिन का असर स्वयं बर्खोल्डेरिया पर नहीं होता जो इसे बनाता है।

ग्लैडिओलिन के परीक्षण के दौरान एक रोचक तथ्य सामने आया। टीबी की परम्परागत दवा रिफेम्पिसिन और आइसोनियाज़िड ऐसे बैक्टीरिया के खिलाफकारगर होती हैं जिनमें इनके खिलाफ प्रतिरोध क्षमता विकसित नहीं हुई है। ग्लैडिओलिन इन बैक्टीरिया के खिलाफ कारगर नहीं होता। किंतु रिफेम्पिसिन और आइसोनियाज़िड जिन प्रतिरोधी बैक्टीरिया का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते, ग्लैडिओलिन उनके खिलाफ काफी असरकारक होता है।

इस शोध कार्यसे यह उम्मीद जागी है कि दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध क्षमता वाले बैक्टीरिया जनित टीबी का इलाज संभव हो सकेगा, किंतु इसका अंतिम परिणाम तभी सामने आएगा जब इस दवा का पर्याप्त परीक्षण हो जाएगा। सन 2007 में इसी प्रकार की एटान्जिन नामक एक दवा खोजी गई थी जो बैक्टीरिया के जीवन के लिए आवश्यक एंज़ाइम आरएनए पॉलिमरेज को निष्क्रिय कर देती है। किंतु बाद में किए गए परीक्षणों में यह पाया गया कि एटान्जिन रासायनिक रूप से अस्थायी होती है और इसी कारण इसे दवा के रूप में बाज़ार में नहीं लाया जा सकता। तो अभी इन्तज़ार करें। (स्रोत फीचर्स)

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एक बदनाम दवा की नई संभावनाएं

थेलिडोमाइड 195060 के दशक में बहुत बदनाम हुई थी और कई चिकित्सकीय मुकदमों का सबब बनी थी। यह दवा गर्भावस्था के दौरान होने वाली तकलीफों के लिए दी जाती थी किंतु इसके सेवन के बाद जो बच्चे पैदा हुए थे उनमें हाथपैरों का विकास ठीक से नहीं हुआ था और कई मामलों में तो भुजाविहीन बच्चों के जन्म भी हुए थे। मगर अब वैज्ञानिकों को लग रहा है कि थेलिडोमाइड दवाइयों की दुनिया में एक नई अवधारणा को जन्म दे सकती है।

पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों ने पाया है कि थेलिडोमाइड रक्त कैंसर मल्टीपल मायलोमा के खिलाफ काफी कारगर है। यह दवा अस्थि मज्जा में इस कैंसर की जड़ों को ही नष्ट कर देती है। हालांकि इसके प्रभाव की बात कई सालों से पता रही है किंतु यह पता नहीं चल पाया था कि शरीर में इसकी क्रिया कैसे होती है।

अब नए अनुसंधान से थेलिडोमाइड की क्रियाविधि का खुलासा होने के साथ ही वैज्ञानिकों को लग रहा है कि यह क्रियाविधि कई अन्य कैंसरों के अलावा अल्ज़ाइमर और पार्किंसन जैसे रोगों में काम कर सकती है।

दरअसल, थेलिडोमाइड की क्रियाविधि इस बात पर निर्भर है कि यह कोशिका के कचरानिपटान तंत्र को प्रभावित करती है। 2010 में शोधकर्ताओं ने पता लगाया था कि चूहों में थेलिडोमाइड एक ट्यूमर पैदा करने वाले प्रोटीन से जुड़ जाती है। इस जुड़ाव का परिणाम यह होता है कि कोशिका में उस अणु को कचरे के रूप में चिंहित कर दिया जाता है, जिसे हटाया जाना है।

इस मामले में विडंबना यह है कि थेलिडोमाइड इसी क्रियाविधि का इस्तेमाल करके भ्रूण में भुजाओं के विकास से सम्बंधित प्रोटीन से भी जुड़ जाती है और उसे भी कचरा घोषित करवा देती है। इसकी वजह से वह प्रोटीन भ्रूण के विकास में अपनी सामान्य भूमिका नहीं निभा पाता और भ्रूण के हाथपैरों का विकास बाधित होता है।

मगर थेलिडोमाइड की इस भूमिका के आधार पर उपचार की एक नई अवधारणा उभरी है प्रोटीनविघटन उपचार। इसका मतलब है कि आप उन प्रोटीन्स के सफाए का लक्ष्य रखें जो शरीर में विकार/रोग उत्पन्न करते हैं। हालांकि इसके सम्बंध में प्रयोग कैंसर से शुरू हुए हैं किंतु उम्मीद है कि अल्ज़ाइमर व पार्किंसन जैसे अन्य रोगों के संदर्भ में भी ऐसे प्रोटीन पहचाने जा सकेंगे। प्रोटीनविघटन उपचार की संभावनाओं को देखते हुए अचानक कई कंपनियां इस क्षेत्र में शोध कार्य करने लगी हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : Pure Chemicals

मानव भ्रूण में संयोजक कोशिकाएं पहचानी गई

प्रत्येक स्तनधारी, पक्षी और सरीसृप के भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था में कोशिकाओं का एक ऐसा समूह होता है जिनमें कुछ खास क्षमता होती है। कोशिकाओं का यह समूह अन्य कोशिकाओं को संकेत देता है कि उन्हें कौन-सा अंग बनना है। ये ‘संयोजक’ कोशिकाएं कहलाती   हैं। जीव विज्ञानियों ने अब तक मेंढक, पक्षियों और चूहों के भ्रूण में इन संयोजक कोशिकाओं का पता कर लिया था किंतु नैतिकता सम्बंधी नियमों के चलते मानव भ्रूण में इन संयोजक कोशिकाओं को देख पाना संभव नहीं हुआ था। हाल ही में प्रयोगशाला में मानव स्टेम कोशिकाओं में इन संयोजकों को देखा गया है।

1920 की शुरुआत में जर्मन भ्रूण विज्ञानी हैंस स्पैमैन और उनके स्नातक छात्र हिल्डे मैंगोल्ड इस पर अध्ययन कर रहे थे कि कैसे कशेरुकी जानवरों के भ्रूण, कोशिकाओं की खोखली गेंद से हाथ-पैर-सिर बनने वाली संरचना में परिवर्तित हो जाते हैं। परिवर्तन के दौरान भ्रूण एक संकरी नाली नुमा लकीर बनाता है जिसे प्रारंभिक लकीर कहते हैं। स्पैमैन और मैंगोल्ड को सेलेमैंडर के भ्रूण में प्रारंभिक लकीर के एक छोर पर कोशिकाओं का एक खास समूह दिखा। उन्होंने इन्हें जब सैलेमेंडर की एक अन्य प्रजाति के भ्रूण पर आरोपित किया तो इन कोशिकाओं ने अपने आसपास की अन्य कोशिकाओं को मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी बनने के संकेत दिए। यह अध्ययन वैकासिक जीव विज्ञान में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके लिए स्पैमैन को 1935 में कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था।

इसके बाद वैज्ञानिकों ने इसी तरह की संयोजक कोशिकाएं, जिन्हें ‘स्पैमैन संयोजक’ भी कहते हैं, मेंढक, पक्षियों और चूहों के भ्रूण में देखीं। लेकिन मानवों में इन्हें देखने के लिए भ्रूण को 14 दिन से ज़्यादा जीवित रखना होता है। यू.के. में नियमों के मुताबिक भ्रूण को 14 दिन तक ही रखा जा सकता है।

उक्त नियम से बचने के लिए न्यूयार्क स्थित रॉकफेलर विश्वविद्यालय के स्टेम कोशिका जीव विज्ञानी ब्रिवनलो की टीम ने प्रयोगशाला में मानव भ्रूण से ली गई स्टेम कोशिकाओं को कल्चर किया है। इस प्रयोग में शोधकर्ताओं ने कोशिकाओं का संपर्क भ्रूण विकास में महत्वपूर्ण दो प्रोटीन्स से कराया। इससे कुछ ऐसी कोशिकाएं विकसित हुर्इं जिनमें संयोजक कोशिका के आनुवंशिक लक्षण थे। इसके बाद उन्होंने इन संयोजक कोशिकाओं को चूज़े के भ्रूण पर आरोपित किया। ऐसा करने पर पाया गया कि चूज़े के अपने तंत्रिका तंत्र के साथ ही साथ तंत्रिका ऊतकों की एक और लकीर उभर रही थी। इसे शोधकर्ताओं ने नेचर पत्रिका में रिपोर्ट किया है। अध्ययन के वरिष्ठ लेखक ब्रिवनलो का कहना है कि यह काफी अश्चर्यजनक है कि दो अलग-अलग प्रजातियों की कोशिकाएं विकास सम्बंधी संकेतों या निर्देशों को साझा कर सकती है।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के विकास जीव विज्ञानी क्लॉडियो स्टर्न ने इसे  ‘एक अच्छी तकनीकी पहल’ की संज्ञा दी है। मानव भ्रूण के बाहर संयोजक कोशिकाओं को बनाने में मिली सफलता यह समझने में मदद कर सकती है कि इनमें अन्य कोशिकाओं को संकेत देने की क्षमता कहां से आती है। इससे भ्रूण विकास के समय कोशिकाओं की संकेत प्रणाली को समझने में भी मदद मिल सकती है। शोधकर्ता प्रयोगशाला में तैयार की गई भ्रूण कोशिकाओं के उपयोग से प्रारंभिक विकास के चरणों को समझने की तैयारी कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : Futura Science

 

पौधे की तरह दवा उत्पादन में खमीर की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पौधे औषधियों के समृद्ध स्रोत होते हैं। यह बात तब से ज्ञात है जब से मनुष्यों ने समुदायों के रूप में मिल-जुलकर रहना शुरू किया था। (वास्तव में, लगता तो यह है कि चिम्पैंज़ी भी दवा के रूप में चुनकर विशेष पौधे खाना पसंद करते हैं)। आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, आदिवासी औषधियां, प्राच्य चिकित्सा और होम्योपैथी में वनस्पति-आधारित यौगिकों का इस्तेमाल दवाइयों और टॉनिक के रूप में होता रहा है। कार्बनिक रसायन शास्त्र में खास तौर से प्राकृतिक उत्पाद और औषधि रसायन जैसी विशेष शाखाएं हैं। इस विधा में शोधकर्ता चुनिंदा पौधे इकट्ठा करते हैं और उनमें से विशेष अणुओं को अलग करने की कोशिश करते हैं। इसके बाद उनकी रासायनिक संरचनाओं का अध्ययन करके बीमारियों के खिलाफ उनकी प्रभाविता की जांच करते हैं (इस क्षेत्र को औषधि रसायन कहते हैं)।

किसी भी पौधे में हज़ारों अणु अलग-अलग मात्राओं उपस्थित होते हैं। अक्सर जिस दवा अणु की तलाश कर रहे हैं वह बहुत कम मात्रा में पाया जाता है। एक मायने में यह मात्र घास के ढेर में सुई ढूंढने जैसी समस्या नहीं है बल्कि मनचाहे यौगिक तक पहुंचने के लिए ऐसे कई ढेरों की ज़रूरत होती है ताकि काम करने के लिए ठीक-ठाक मात्रा (कुछ ग्राम) मिल सके। इस प्रकार प्राकृतिक उत्पाद रसायन काफी चुनौतीपूर्ण क्षेत्र रहा है और सफल शोधकर्ताओं को हीरो माना जाता है और सम्मान व पुरस्कार से नवाज़ा जाता है। इसका एक हालिया उदाहरण चीन की महिला वैज्ञानिक डॉ. यूयू तू का है। उन्हें 2015 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन्होंने दशकों के परिश्रम के बाद मलेरिया के लिए चीनी जड़ी-बूटी क्विंगहाओ से आर्टेमिसीनीन नामक अणु को अलग किया था।

एक बार जब प्राकृतिक उत्पाद रसायनज्ञ दवा के अणु को अलग करके उसकी रासायनिक संरचना को निर्धारित कर लेता है, तब वह इस अणु को प्रयोगशाला में बनाने (संश्लेषण) का प्रयास करता है। अभी तक यह एक चुनौतीपूर्ण और कमरतोड़ काम रहा है। चूंकि अणु का आकार त्रि-आयामी होता है तो इसमें परमाणुओं की जमावट काफी जटिल हो सकती है। प्रयोगशाला में इस तरह के जटिल अणुओं का निर्माण कुछ हद तक एक आर्किटेक्ट के काम के समान है जो र्इंट-गारा जोड़कर इमारत बनाता है। इस मामले में भी हीरो को सम्मान दिया जाता है।

ऐसे ही एक हीरो हारवर्ड के स्वर्गीय प्रोफेसर रॉबर्ट वुडवर्ड थे जिन्होंने दशकों तक सफलतापूर्वक कई जटिल अणुओं का संश्लेषण किया था और इस काम के लिए उन्हें 1965 में रसायन में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। आर्किटेक्ट उपमा को आगे बढ़ाते हुए महान कार्बनिक रसायनज्ञ स्वर्गीय प्रोफेसर सुब्रामण्य रंगनाथन ने एक मोनोग्राफ लिखा था जिसका शीर्षक था ‘दी आर्ट ऑफ आर्गेनिक सिंथेसिस’ (कार्बनिक संश्लेषण की कला)।

क्विंगहाओ आर्टेमिसीनीन कैसे बनाता है? पूरी प्रक्रिया एक दर्जन से ज़्यादा चरणों में सम्पन्न होती है। इनमें से कई चरण एंज़ाइम द्वारा उत्प्रेरित होते हैं जो प्रोटीन अणु होते हैं। हमने इनमें से प्रत्येक चरण का खुलासा कर लिया है और यह भी समझ लिया है कि पादप कोशिकाओं में इन एंज़ाइम्स को बनाने में कौन से जीन्स शामिल हैं (दरअसल यह जीन का पूरा समूह है)। अब इस जानकारी के दम पर, और जेनेटिक्स और जेनेटिक इंजीनियरिंग में हुई प्रगति की मदद से क्या हम कार्बनिक रसायन की विधियों की बजाय जेनेटिक इंजीनियरिंग की विधियों का इस्तेमाल करके आर्टेमिसिनिन को प्रयोगशाला में बना सकते हैं? और यदि हम इस जीन समूह को किसी सूक्ष्मजीव (जैसे खमीर) में प्रविष्ट कराएं तो क्या वह आर्टेमिसिनिन बनाने लगेगा? यदि ऐसा कर पाते हैं तो हमें टनों जड़ी-बूटी उगाने और काटने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी; खमीर के विशाल कल्चर में किलोग्राम के हिसाब से दवा बनाई जा सकेगी।

आर्टेमिसिनिन बनाने के लिए किसी सूक्ष्मजीव का इस्तेमाल एक नवाचारी विचार है। यदि हमें सफलता मिलती है तो हम खमीर को एक पौधे में तबदील कर देंगे जिसका इस्तेमाल हम कम से कम पांच सहस्त्राब्दियों से घरों और बेकरियों में करते आए हैं। लेकिन इसके लिए खमीर कोशिकाओं में उनके अपने जीनोम के साथ-साथ पौधे में उस दवा को बनाने के लिए ज़िम्मेदार जीन समूह भी होना चाहिए।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे. केसलिंग और एमायरिस कंपनी के डॉ. नील रेनिंगर का तर्क है कि जेनेटिक्स और जेनेटिक इंजीनियरिंग में हुई प्रगति की बदौलत अब यह विचार बड़बोलापन नहीं है बल्कि काम करने के लायक है। गेट्स फाउंडेशन के अनुदान से उनकी टीम ने दवा उत्पादन के लिए पौधे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पूरे जीन समूह का रासायनिक संश्लेषण किया और उसे खमीर कोशिकाओं के अनुरूप संशोधित किया, और खमीर कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया। उन्होंने प्रयोगशाला में इस जेनेटिक रूप से परिवर्तित खमीर का कल्चर बनाया और पाया कि वह खमीर आर्टेमिसिनिन बना सकता है। इस समूह ने 2013 तक इस विधि में काफी सुधार करके प्रति लीटर कल्चर माध्यम से 25 ग्राम एंटी-मलेरिया दवा का उत्पादन किया है।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान, कई अन्य दवाइयों, जो प्राकृतिक रूप से पौधों और जड़ी-बूटियों में मिलती है, का उत्पादन खमीर की मदद से किया गया है। हाल ही में पीएनएएस पत्रिका में ली व साथियों ने अपने शोध पत्र में उन्होंने बताया है कि उन्होंने खमीर की मदद से कैंसर-रोधी दवा नोस्केपाइन का उत्पादन किया है। यह कुदरती रूप से अफीम के पौधे में पाई जाती है। तिकड़म यह है कि पादप कोशिका में यह अणु बनाने वाले जीन समूह की पहचान की जाए, इन्हें प्रयोगशाला में बनाकर खमीर में डाल दिया जाए और अनुकूल परिस्थितियां निर्मित की जाएं। तब यह पौधा-रूपी खमीर उस अणु का उत्पादन करेगा। पांच हज़ार से अधिक वर्षों से जाना-माना जो खमीर ब्रोड और शराब बनाने के काम आता रहा है, अब एक नई भूमिका निभाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट : यह लेख वेबसाइट पर 7 जून 2018 तक ही उपलब्ध रहेगा|