पौधों के सूखे से निपटने में मददगार रसायन

पानी की कमी या सूखा पड़ने जैसी समस्याएं फसल बर्बाद कर देती हैं। लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित ताज़ा अध्ययन के अनुसार ओपाबैक्टिन नामक रसायन इस समस्या से निपटने में मदद कर सकता है। ओपाबैक्टिन, पौधों द्वारा तनाव की स्थिति में छोड़े जाने वाले हार्मोन एब्सिसिक एसिड (एबीए) के ग्राही को लक्ष्य कर पानी के वाष्पन को कम करता है और पौधों में सूखे से निपटने की क्षमता बढ़ाता है।

युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के पादप जीव वैज्ञानिक सीन कटरल और उनके साथियों ने 10 साल पहले पौधों में उन ग्राहियों का पता लगाया था जो एबीए से जुड़कर ठंड और पानी की कमी जैसी परिस्थितियों से निपटने में मदद करते हैं। लेकिन पौधों पर बाहर से एबीए का छिड़काव करना बहुत महंगा था और लंबे समय तक इसका असर भी नहीं रहता था। इसके बाद कटलर और उनके साथियों ने साल 2013 में क्विनबैक्टिन नामक ऐसे रसायन का पता लगाया था जो एरेबिडोप्सिस और सोयाबीन के पौधों में एबीए के ग्राहियों के साथ जुड़कर उनमें सूखे को सहने की क्षमता बढ़ाता है। लेकिन क्विनबैक्टिन के साथ भी दिक्कत यह थी कि वह कुछ फसलों में तो कारगर था लेकिन गेहूं और टमाटर जैसी प्रमुख फसलों पर कोई असर नहीं करता था। इसलिए शोधकर्ता क्विनबैक्टिन के विकल्प ढूंढने के लिए प्रयासरत थे।

इस प्रक्रिया में पहले तो उन्होंने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से लाखों रसायनों से लगभग 10,000 ऐसे रसायनों को छांटा जो एबीए ग्राहियों से उसी तरह जुड़ते हैं जिस तरह स्वयं एबीए हार्मोन जुड़ता है। इसके बाद पौधों पर इन रसायनों का छिड़काव करके देखा। और जो रसायन सबसे अधिक सक्रिय मिले उनके प्रभाव को जांचा।

पौधों पर ओपाबैक्टिन व अन्य रसायनों का छिड़काव करने पर उन्होंने पाया कि क्विनबैक्टिन और एबीए हार्मोन की तुलना में ओपाबैक्टिन से छिड़काव करने पर तनों और पत्तियों से पानी की हानि कम हुई और इसका प्रभाव 5 दिनों तक रहा। जबकि एबीए से छिड़काव का प्रभाव दो से तीन दिन ही रहा और सबसे खराब प्रदर्शन क्विनबैक्टिन का रहा जिसने टमाटर पर तो कोई असर नहीं किया और गेहूं पर इसका असर सिर्फ 48 घंटे ही रहा।

प्रयोगशाला में मिले इन नतीजों की पुष्टि खेतों में या व्यापक पैमाने पर करना बाकी है। इसके अलावा इसके इस्तेमाल से पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभाव और विषैलेपन की जांच भी करना होगी।

कटलर का कहना है कि पौधों में हस्तक्षेप कर उनकी वृद्धि या उपज बढ़ाने के लिए छोटे अणु विकसित करना, खासकर कवकनाशक, कीटनाशक और खरपतवारनाशक बनाने के लिए, अनुसंधान का एक नया क्षेत्र हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेज़न के जंगल बचाना धरती की रक्षा के लिए ज़रूरी – भारत डोगरा

व्यक्तिगत, ब्राज़ील के अमेज़न वर्षा वनों के व्यापक पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इन्हें बचाना सदा ज़रूरी रहा है, पर जलवायु बदलाव के इस दौर में तो यह पूरे विश्व के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इन घने जंगलों में बहुत कार्बन समाता है व इनके कटने से इतने बड़े पैमाने पर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन होगा कि विश्व स्तर के जलवायु सम्बंधी लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। अत: जब ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावन में क्षति की बात होती है तो पूरे विश्व के पर्यावरणविद चौकन्ने हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त अमेज़न वर्षावनों की रक्षा से ब्राज़ील के आदिवासियों का जीवन भी बहुत नज़दीकी तौर पर जुड़ा है। 274 भाषाएं बोलने वाले लगभग 300 आदिवासी समूहों की आजीविका और दैनिक जीवन भी इन वनों से नज़दीकी तौर पर जुड़े हुए हैं।

इस महत्व को देखते हुए ब्राज़ील के 1988 के संविधान में आदिवासी समुदायों के संरक्षित क्षेत्रों की पहचान व संरक्षण की व्यवस्था की गई थी। फुनाय नाम से विशेष सरकारी विभाग आदिवासी हकदारी की रक्षा के लिए बनाया गया। अमेज़न के आदिवासियों को इतिहास में बहुत अत्याचार सहने पड़े हैं, अत: बचे-खुचे लगभग नौ लाख आदिवासियों की रक्षा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जर्मनी और नार्वे की सहायता से इन वनों की रक्षा के लिए संरक्षण कोश भी स्थापित किया गया है।

जहां ब्राज़ील में कुछ महत्वपूर्ण कदम सही दिशा में उठाए गए थे, वहीं दूसरी ओर इससे भी बड़ा सच यह है कि अनेक शक्तिशाली तत्व इन वनों को उजाड़ने के पीछे पड़े हैं। इसमें मांस (विशेषकर बीफ) बेचने वाली बड़ी कंपनियां हैं जो जंगल काटकर पशु फार्म बना रही हैं। कुछ अन्य कंपनियां खनन व अन्य स्रोतों से कमाई करना चाहती हैं। पर इनका सामान्य लक्ष्य यह है कि जंगल काटे जाएं व आदिवासियों को उनकी वन-आधारित जीवन पद्धति से हटाया जाए।

इन व्यावसायिक हितों को इस वर्ष राष्ट्रपति पद पर जैर बोल्सोनारो के निर्वाचन से बहुत बल मिला है क्योंकि बोल्सोनारो उनके पक्ष में व आदिवासियों के विरुद्ध बयान देते रहे हैं। बोल्सोनारो के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासी हितों की संवैधानिक व्यवस्था को बहुत कमज़ोर किया गया है तथा वनों पर अतिक्रमण करने वाले व्यापारिक हितों को बढ़ावा दिया गया है।

उपग्रह चित्रों से प्राप्त आरंभिक जानकारी के अनुसार जहां वर्ष 2016 में 3183 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर वन उजड़े थे, वहीं इस वर्ष सात महीने से भी कम समय में 3700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर वन उजड़ गए हैं। वन विनाश की गति और भी तीव्र हो रही है। 2017 में जुलाई महीने में 457 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े थे, जबकि इस वर्ष जुलाई के पहले तीन हफ्तों में ही 1260 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े।

इसके साथ आदिवासी हितों पर हमले भी बढ़ गए हैं। हाल ही में वाइअपी समुदाय के मुखिया की हत्या कर दी गई। इस समुदाय के क्षेत्र में बहुत खनिज संपदा है। इस हत्या की संयुक्त मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कड़ी निंदा की है। इस स्थिति में ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावनों तथा यहां के आदिवासियों की आजीविका व संस्कृति की रक्षा की मांग को विश्व स्तर पर व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वनों में जीएम वृक्ष लगाने देने की अपील

ई देशों में आजकल लकड़ी से बनी चीज़ों पर इस बात का प्रमाण अंकित किया जाता है कि वह लकड़ी ऐसे जंगल से प्राप्त हुई है जिसका प्रबंधन टिकाऊ ढंग से किया जा रहा है। इस तरह का प्रमाणन जर्मनी में फॉरेस्ट स्टुआर्डशिप कौंसिल (एफएससी) करती है तो स्विटज़रलैंड में प्रोग्राम फॉर दी एंडोर्समेंट ऑफ फॉरेस्ट सर्टिफिकेशन (पीईएफसी) द्वारा किया जाता है। इस प्रमाणीकरण से पूर्व जंगल से सम्बंधित कई सारे पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को परखा जाता है। इन दो संस्थाओं ने मिलकर आज तक 44 करोड़ हैक्टर जंगल को टिकाऊ रूप से प्रबंधित जंगल का प्रमाण पत्र दिया है। इस वर्ष भारत में ऐसी एक व्यवस्था को अंतिम रूप दिया गया है और पीईएफसी ने इसका अनुमोदन कर दिया है।

प्रमाणन की एक शर्त यह है कि प्रमाणित वन में जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) पेड़ नहीं होने चाहिए। संस्थाओं के अनुसार यह शर्त इस आधार पर लगाई गई थी कि ऐसे पेड़ों के कारण पर्यावरणीय जोखिम अनिश्चित है। एफएससी के निदेशक स्टीफन साल्वेडोर का कहना है कि यह प्रतिबंध जेनेटिक इंजीयरिंग टेक्नॉलॉजी के प्रति गहरी आशंकाओं का भी द्योतक है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि टिकाऊ प्रबंधन का प्रमाण पत्र प्राप्त जंगलों में जीएम पेड़ लगाने की अनुमति न देने का मतलब है कि आप नई टेक्नॉलॉजी से हासिल हुए रोग-प्रतिरोधी वृक्षों को अनुमति नहीं दे रहे हैं। वैज्ञानिकों ने उक्त दो संस्थाओं को लिखे अपने पत्र में साफ किया है कि जीएम वृक्ष पर्यावरण की दृष्टि से उतने ही निरापद हैं जितने सामान्य संकर पेड़ होते हैं। और वे कई रोगों से लड़ने की क्षमता से भी लैस होते हैं। एक उदाहरण के रूप में वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक रोग के कारण अमेरिकन चेस्टनट (शाहबलूत) का लगभग सफाया हो गया था। अब इस पेड़ में जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे परिवर्तन किए गए हैं कि यह रोग प्रतिरोधी हो गया है। वैज्ञानिकों ने अपील की है कि प्रमाणित वनों में जीएम वृक्ष लगाने की अनुमति दी जाए। उनके मुताबिक प्रतिबंध के कारण शोध कार्य में दिक्कत आती है।

पीईएफसी के प्रवक्ता का कहना है कि प्रमाणन की शर्तों को हर पांच साल में संशोधित किया जाता है। अगला संशोधन 2023 में होगा। तब शर्तों में परिवर्तन के हिमायती संशोधन प्रक्रिया में भाग ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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पेड़ भोजन-पानी में साझेदारी करते हैं

न्यूज़ीलैण्ड से मिले एक समाचार के मुताबिक पेड़ एक-दूसरे के साथ पोषण और पानी जैसे संसाधन मिल-बांटकर इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, शोधकर्ताओं को न्यूज़ीलैण्ड के नॉर्थ आईलैण्ड के वाइटाकेरे जंगल में एक पेड़ का ठूंठ मिला। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उस ठूंठ में न तो कोई शाखा थी और न ही पत्तियां मगर वह जीवित था।

उपरोक्त कौरी पेड़ (Agathis australis) का ठूंठ पारिस्थिकीविद सेबेस्टियन ल्यूज़िंगर और मार्टिन बाडेर की नज़रों में संयोगवश ही आया था। वे देखना चाहते थे कि क्या यह ठूंठ आसपास के पड़ोसियों के दम पर ज़िन्दा है। वैसे वैज्ञानिक बरसों से यह सोचते आए हैं कि कई पेड़ों के ठूंठ अपने पड़ोसियों के दम पर ही बरसों तक जीवित बने रहते हैं मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं था।

शोधकर्ताओं के लिए यह उक्त विचार की जांच का अच्छा मौका था। एक बात तो उन्होंने यह देखी कि इस ठूंठ में रस का प्रवाह हो रहा था जिसकी अपेक्षा आप किसी मृत पेड़ में नहीं करते। जब उन्होंने उस ठूंठ और आसपास के पेड़ों में पानी के प्रवाह का मापन किया तो पाया कि इनमें कुछ तालमेल है। इससे लगा कि संभवत: आसपास के पेड़ों ने इस ठूंठ को जीवनरक्षक प्रमाणी पर रखा हुआ है। यह आश्चर्य की बात तो थी ही, मगर साथ ही इसने एक सवाल को जन्म दिया – आखिर आसपास के पेड़ ऐसा क्यों कर रहे हैं?

यह ठूंठ तो अब उस जंगल की पारिस्थितिकी का हिस्सा नहीं है, कोई भूमिका नहीं निभाता है, तो पड़ोसियों को क्या पड़ी है कि अपने संसाधन इसके साथ साझा करें। ल्यूज़िंगर के दल का ख्याल है कि इस ठूंठ का जड़-तंत्र आसपास के पेड़ों के साथ जुड़ गया है। पेड़ों में ऐसा होता है, यह बात तो पहले से पता थी। ऐसे जुड़े हुए जड़-तंत्र से पेड़ पानी व अन्य पोषक तत्वों का लेन-देन कर सकते हैं और पूरे समुदाय को एक स्थिरता हासिल होती है।

जीवित पेड़ों के बीच इस तरह की साझेदारी से पूरे समुदाय को फायदा होता है मगर एक ठूंठ के साथ साझेदारी से क्या फायदा। शोधकर्ताओं का मत है कि इस ठूंठ का यह जुड़ाव उस समय बना होगा जब वह जीवित पेड़ था। पेड़ के मर जाने के बाद भी वह जुड़ाव कायम है और ठूंठ को पानी मिल रहा है। है ना जीवन बीमा का मामला – जीवन में भी, जीवन के बाद भी। iScience शोध पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन से लगता है कि पेड़ों के बीच कहीं अधिक घनिष्ठ सम्बंध होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जंगल बसाए जा सकते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

द्योगिक विकास और उपभोक्ता मांग के कारण बढ़ता वैश्विक तापमान दुनिया भर में तबाही मचा रहा है। विश्व में तापमान बढ़ता जा रहा है, दक्षिण चीन और पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ कहर बरपा रही है, बे-मौसम बारिश हो रही है, और विडंबना देखिए कि बारिश के मौसम में देर से और मामूली बारिश हो रही है। इस तरह के जलवायु परिवर्तन को थामने का एक उपाय है तापमान वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों, खासकर कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को कम करना। बढ़ते वैश्विक तापमान को सीमित करने के प्रयास में दुनिया के कई देश एकजुट हुए हैं। कोशिश यह है कि साल 2050 तक तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो।

कार्बन डाईऑक्साइड कम करने का एक प्रमुख तरीका है पेड़-पौधों की संख्या और वन क्षेत्र बढ़ाना। पेड़-पौधे हवा से कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, और सूर्य के प्रकाश और पानी का उपयोग कर (हमारे लिए) भोजन और ऑक्सीजन बनाते हैं। पेड़ों से प्राप्त लकड़ी का उपयोग हम इमारतें और फर्नीचर बनाने में करते हैं। संस्कृत में कल्पतरू की कल्पना की गई है – इच्छा पूरी करने वाला पेड़।

फिर भी हम इन्हें मार (काट) रहे हैं: पूरे विश्व में दशकों से लगातार वनों की कटाई हो रही है जिससे मौसम, पौधों, जानवरों, सूक्ष्मजीवों का जीवन और जंगलों में रहने वाले मनुष्यों की आजीविका प्रभावित हो रही है। पृथ्वी का कुल भू-क्षेत्र 52 अरब हैक्टर है, इसका 31 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र रहा है। व्यावसायिक उद्देश्य से दक्षिणी अमेरिका के अमेज़न वन का बड़ा हिस्सा काटा जा रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई से पश्चिमी अमेज़न क्षेत्र के पेरू और बोलीविया बुरी तरह प्रभावित हैं। यही हाल मेक्सिको और उसके पड़ोसी क्षेत्र मेसोअमेरिका का है। रूस, जिसका लगभग 45 प्रतिशत भू-क्षेत्र वन है, भी पेड़ों की कटाई कर रहा है। बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई ने ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दिया है।

खाद्य एवं कृषि संगठन (FOA) के अनुसार ‘वन’ का मतलब है कम से कम 0.5 हैक्टर में फैला ऐसा भू-क्षेत्र जिसके कम से कम 10 प्रतिशत हिस्से में पेड़ हों, और जिस पर कृषि सम्बंधी गतिविधि या मानव बसाहट ना हो। इस परिभाषा की मदद से स्विस और फ्रांसिसी पर्यावरणविदों के समूह ने 4.4 अरब हैक्टर में छाए वृक्षाच्छादन का विश्लेषण किया जो मौजूदा जलवायु में संभव है। उन्होंने पाया कि यदि मौजूदा पेड़ और कृषि सम्बंधित क्षेत्र और शहरी क्षेत्रों को हटा दें तो भी 0.9 अरब हैक्टर से अधिक भूमि वृक्षारोपण के लिए उपलब्ध है। नवीनतम तरीकों से किया गया यह अध्ययन साइंस पत्रिका के 5 जुलाई के अंक में प्रकाशित हुआ है। यानी विश्व स्तर पर वनीकरण करके जलवायु परिवर्तन धीमा करने की संभावना मौजूद है। शोधकर्ताओं के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक वनीकरण की संभावना 6 देशों – रूस, ब्राज़ील, चीन, यूएसए, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह भूमि निजी है या सार्वजनिक, लेकिन उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि 1 अरब हैक्टर में वनीकरण (10 प्रतिशत से अधिक वनाच्छादन के साथ) संभव है।

खुशी की बात यह है कि कई देशों के कुछ समूह और सरकारों ने वृक्षारोपण की ओर रुख किया है। इनमें खास तौर से फिलीपाइन्स और भारत की कई राज्य सरकारें (फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट और डाउन टू अर्थ के विश्लेषण के अनुसार) शामिल हैं।

भारत का भू-क्षेत्र 32,87,569 वर्ग किलोमीटर है, जिसका 21.54 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। वर्ष 2015 से 2018 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 6778 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। सबसे अधिक वन क्षेत्र मध्यप्रदेश में है, इसके बाद छत्तीसगढ़, उड़ीसा और अरुणाचल प्रदेश आते हैं। दूसरी ओर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में सबसे कम वन क्षेत्र है। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और उड़ीसा ने अपने वनों में वृक्षाच्छादन को थोड़ा बढ़ाया है (10 प्रतिशत से कम)। कुछ निजी समूह जैसे लुधियाना का गुरू नानक सेक्रेड फॉरेस्ट, रायपुर के मध्य स्थित दी मिडिल ऑफ द टाउन फॉरेस्ट, शुभेन्दु शर्मा का अफॉरेस्ट समूह उल्लेखनीय गैर-सरकारी पहल हैं। आप भी इस तरह के कुछ और समूह के बारे में जानते ही होंगे। (और, हम शतायु सालुमरदा तिमक्का को कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने लगभग 385 बरगद और 8000 अन्य वृक्ष लगाए, या उत्तराखंड के चिपको आंदोलन से जुड़े सुंदरलाल बहुगुणा को?)।

एक बेहतरीन मिसाल

लेकिन वनीकरण की सबसे उम्दा मिसाल है फिलीपाइन्स। फिलीपाइन्स 7100 द्वीपों का समूह है जिसका कुल भू-क्षेत्र लगभग तीन लाख वर्ग किलोमीटर है और आबादी लगभग 10 करोड़ 40 लाख। 1900 में फिलीपाइन्स में लगभग 65 प्रतिशत वन क्षेत्र था। इसके बाद बड़े पैमाने पर लगातार हुई कटाई से 1987 में यह वन क्षेत्र घटकर सिर्फ 21 प्रतिशत रह गया। तब वहां की सरकार स्वयं वनीकरण करने के लिए प्रतिबद्ध हुई। नतीजतन वर्ष 2010 में वन क्षेत्र बढ़कर 26 प्रतिशत हो गया। और अब वहां की सरकार ने एक और उल्लेखनीय कार्यक्रम चलाया है जिसमें प्राथमिक, हाईस्कूल और कॉलेज के प्रत्येक छात्र को उत्तीर्ण होने के पहले 10 पेड़ लगाना अनिवार्य है। कहां और कौन-से पौधे लगाने हैं, इसके बारे में छात्रों का मार्गदर्शन किया जाता है। (और जानने के लिए देखें –(news.ml.com.ph> of Manila Bulletin, July 16, 2019)। इस प्रस्ताव के प्रवर्तक गैरी एलेजैनो का इस बात पर ज़ोर था कि शिक्षा प्रणाली युवाओं में प्राकृतिक संसाधनों के नैतिक और किफायती उपयोग के प्रति जागरूकता पैदा करने का माध्यम बननी चाहिए ताकि सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार और जागरूक नागरिकों का निर्माण हो सके।

यह हमारे भारतीय छात्रों के लिए एक बेहतरीन मिसाल है। मैंने सिफारिश की है कि इस मॉडल को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में जोड़ा जाए, ताकि हमारे युवा फिलीपाइन्स के इस प्रयोग से सीखें और अपनाएं। (स्रोत फीचर्स)

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माजूफल: फल दिखता है, फल होता नहीं – डॉ. किशोर पंवार

माजूफल, जायफल, और कायफल भारत तथा एशिया के कई देशों में घरेलू चिकित्सा के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। पहले तो ये तीनों अपने मूल स्वरूप में हर घर में मिलते थे परंतु अब इनके उत्पाद मिलते हैं पावडर या कैप्सूल के रूप में। आइए देखते हैं कि ये फल वास्तव में कितने फल है।

पहले बात करते हैं जायफल की। अंग्रेज़ी में इसे नटमेग कहते हैं। वनस्पति विज्ञानी इसे मायरिस्टिका फ्रेगरेंस नाम से जानते हैं। नाम से ही पता चलता है कि यह कोई सुगंधित वस्तु है। संस्कृत साहित्य में इसे जाति फलम कहा गया है। इसके पेड़ जावा, सुमात्रा, सिंगापुर, लंका तथा वेस्ट इंडीज़ में अधिक पाए जाते हैं। हमारे यहां तमिलनाडु और केरल में इसके पेड़ लगाए गए हैं। जायफल का वृक्ष सदाबहार होता है। फूल सफेद और फल छोटे-छोटे, लगभग अंडाकार लाल-पीले होते हैं जो पकने पर दो भागों में फट जाते हैं। फटने पर सूखे हुए बीज को घेरे हुए सुर्ख लाल रंग की एक जाल सी रचना नज़र आती है। यह भूरा, अंडाकार तथा लगभग 2-5 सेंटीमीटर का बीज ही जायफल है।

फल का उपयोग सुगंध, उत्तेजक, मुख दुर्गंध नाशक और वेदनाहर के रूप में किया जाता है।

अब जरा जावित्री की बात कर लेते हैं। यह लाल नारंगी रंग की मोटी जाल समान रचना है जो टुकड़ों के रूप में बाज़ार में मिलती है। जावित्री दरअसल जायफल के बीज पर लगी एक विशेष रचना है, जो सुगंधित और तीखी होती है। इसमें मुख्य रूप से वाष्पशील तेल, वसा और गोंद होते हैं। इसके गुण भी जायफल की तरह होते हैं इसे हम बीज का तीसरा छिलका या विज्ञान की भाषा में एरील कहते हैं।

अब बात करें कायफल की। वनस्पति शास्त्र में मिरिका एस्कूलेंटा नाम से ज्ञात यह पेड़ हिमालय के उष्ण प्रदेशों में खासी पहाड़ियों में पाया जाता है। सिंगापुर में भी मिलता है। चीन तथा जापान में इसकी खेती की जाती है। इसके मध्यम ऊंचाई के वृक्ष सदाबहार होते हैं, छाल बादामी-धूसर और सुगंधित होती है। फल लगभग आधा इंच लंबे अंडाकार दानेदार बादामी होते हैं। यद्यपि वृक्ष का नाम कायफल है, तब भी औषधि के रूप में इसकी छाल का ही प्रयोग कायफल के नाम से किया जाता है। अत: यह फल नहीं, एक पेड़ की छाल है। इसकी छाल को सूंघने से छींक आती है, तथा पानी में डालने पर लाल हो जाती है। 

अब बात एक बिलकुल ही नकली फल – माजूफल – की। यह नकली फल क्वेर्कस इनफेक्टोरिया नामक एक ओक प्रजाति का है और गाल्स के रूप में बनता है। सदियों से एशिया महाद्वीप में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में इन गाल्स का उपयोग किया जाता रहा है। मलेशिया में इसे मंजाकानी कहते हैं। इसका उपयोग चमड़े को मुलायम करने और काले रंग की स्याही बनाने में वर्षो से हो रहा है। भारत में इसे माजूफल कहते हैं। 

क्वेर्कस इनफेक्टोरिया एक छोटा पेड़ है, जो एशिया माइनर का मूल निवासी है। पत्तियां चिकनी और चमकदार हरी होती हैं। जब ततैया शाखाओं पर छेद कर उनमें अपने अंडे देती है तो इन अंडों से निकलने वाले लार्वा और तने की कोशिकाओं के बीच रासायनिक अभिक्रिया होती है जिसके फलस्वरूप शाखाओं पर फल जैसी गोल-गोल कठोर रचनाएं बन जाती है, जो दिखने में खुरदरी होती हैं। इन्हें गाल कहते हैं और यही माजूफल है। 

इस गाल में अन्य रसायनों के अलावा टैनिन काफी मात्रा में पाया जाता है। भारत में माजूफल का उपयोग दंत मंजन बनाने, दांत के दर्द और पायरिया के उपचार में किया जाता है। इस गाल से मिलने वाला टैनिक एसिड गोल्ड सॉल बनाने के काम आता है। गोल्ड सॉल का उपयोग इम्यूनोसाइटोकेमेस्ट्री में मार्कर के रूप में किया जाता है। वर्तमान में इसका उपयोग खाद्य पदार्थों, दवा उद्योग, स्याही बनाने और धातु कर्म में बड़े पैमाने पर किया जाता है। माजूफल का उपयोग प्रसव के बाद गर्भाशय को पूर्व स्थिति में लाने के लिए भी किया जाता है।

तो हमने देखा कि ये तीन विचित्र चीज़ें हैं, जिनका उपयोग फल कहकर किया जाता है। इनमें से एक (जायफल) तो फल नहीं बीज है। दूसरा (कायफल) छाल है जबकि तीसरा (माजूफल) तो फलनुमा दिखने के बावजूद गाल नामक एक विशेष संरचना है। (स्रोत फीचर्स)

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पराग कण: सूक्ष्म आकार, बड़ा महत्व – डॉ. दीपक कोहली

मारे पर्यावरण में वनस्पतियों का स्थान सर्वोपरि है। ये सूर्य के प्रकाश में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन बनाते हैं तथा हमारे सामाजिक परिवेश में मुख्य घटक हैं। फूल पौधों के अभिन्न अंग हैं। यदि फूल नहीं होंगे, तो पौधों में लैंगिक प्रजनन नहीं हो सकेगा और केवल कायिक प्रवर्धन पर आधारित होने पर मनुष्य का भोजन केवल कन्द-मूलों तक ही सीमित रह जाएगा। पुष्प में पुमंग तथा जायांग लैंगिक प्रजनन के मूल आधार हैं। पुमंग में दो भाग होते हैं – पुतन्तु तथा परागकोश। परागकोश पुतन्तु के अग्रभाग प्रकोष्ठों से मिलकर बनता है। प्रत्येक प्रकोष्ठ में असंख्य पराग कण भरे होते हैं।

पराग कण पौधों की सूक्ष्म जनन इकाइयां हैं, जो अपने व अपनी ही प्रजाति के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंच कर निषेचन का कार्य सम्पन्न करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप फलों का निर्माण होता है और इनके बीजों द्वारा नवीन संततियों का जन्म होता है।

परिपक्व पराग कण एक, दो, चार या अनेक समूहों में मिलते हैं, इनका आकार प्रकार तथा ध्रुवीयता सुनिश्चित होती है। पराग कणों का आकार अत्यन्त सूक्ष्म (10 माइक्रॉन से लेकर 250 माइक्रॉन तक) होता है। पराग कणों के चारों ओर सुरक्षा के लिए दो परतें होती हैं – पहली बाह्र परत या एक्सॉन, जो स्पोरोपोलेनिन नामक एक रसायन से बनी होती है। इस पर्त में तेज़ाब, क्षार, ताप, दाब आदि सहने की क्षमता होती है एवं यह कोशिका की रक्षा करती है।

पराग कण जल, थल, वायु आदि सभी स्थानों पर पाए जाते हैं। इनका इतिहास पुरातनकालीन चट्टानों में करीब 30 करोड़ वर्ष से लेकर आज तक के पर्यावरण में मिलता है। पराग कणों के अध्ययन को परागाणु विज्ञान कहते हैं। परागाणु विज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है – प्राथमिक परागाणु विज्ञान तथा व्यावहारिक परागाणु विज्ञान। प्राथमिक परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों तथा बीजाणुओं की संरचना, उनके रासायनिक तथा भौतिक विश्लेषण और कोशिका विज्ञान, आकार वर्गिकी आदि का अध्ययन किया जाता है। व्यावहारिक परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों के व्यावहारिक उपयोग एवं महत्व का अध्ययन किया जाता है। व्यावहारिक परागाणु विज्ञान का आगे वर्गीकरण भी किया जा सकता है – भूगर्भ परागाणु विज्ञान, वायु परागाणु विज्ञान, शहद परागाणु विज्ञान, औषधि परागाणु विज्ञान, मल-अवशेष परागाणु विज्ञान तथा अपराध परागाणु विज्ञान।                              

मिट्टी तथा चट्टानों के बनने की प्रक्रिया के समय पाई जाने वाली वनस्पतियां दबकर जीवाश्म के रूप में परिरक्षित होती हैं एवं इन चट्टानों की लक्षणात्मक इकाइयां बनकर चट्टानों की आयु बताने में समर्थ होती हैं। कोयले की खानों तथा तैलीय चट्टानों में दबे पराग कण एवं बीजाणुओं के अध्ययन से उनकी आयु के साथ-साथ उनके पार्श्व एवं क्षैतिज विस्तार की भी जानकारी प्राप्त होती है। ऐसा अनुमान है कि जलीय स्थानों में तेल की उत्पत्ति कार्बनिक पदार्थों के विघटन के फलस्वरूप होती है। तदुपरान्त इसका जमाव जगह-जगह पर चट्टानों में होता है, खनिज तेल की खोज तथा कोयला भण्डारों की जानकारी प्राप्त करने में इन सूक्ष्म इकाइयों का विशेष योगदान है। ऐसे जीवाश्मीय पराग कणों के अध्ययन को भूगर्भ परागाणु विज्ञान कहते हैं।

वनस्पतियों के अवशेष चट्टानों में दबे हुए मिलते हैं जिनसे पुराकालीन जलवायु, वनस्पतियों तथा उनके आसपास की जलवायु तथा भौतिक दशाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी प्रकार झील तथा दलदली स्थानों के विभिन्न गहराइयों से लिए गए मृदा के नमूनों से लुप्त होती वनस्पतियों, सिमटते तथा फैलते समुद्र के इतिहास का पता आसानी से लगाया जा सकता है। इस प्रकार, भूगर्भ परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत जीवाश्मित पराग कण व बीजाणु व इनके समतुल्य जनन इकाइयों के द्वारा प्राचीनकाल के पाई वाली पुरावनस्पतियों तथा पुरावातावरण की जानकारी प्राप्त होती है।

वायु परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत वायु में पाए जाने वाले पराग कणों तथा इनके समतुल्य जनन इकाइयों का अध्ययन किया जाता है। वायु में पेड़-पौधों के असंख्य पराग कण सदैव विद्यमान रहते हैं। कुछ पौधों के पराग कण संवेदनशील व्यक्तियों में सांस के रोग उत्पन्न करते हैं। इनमें दमा, मौसमी ज़ुकाम, एलर्जी, त्वचा रोग आदि प्रमुख हैं।

पराग कण जब सर्वप्रथम नाक के द्रव के सम्पर्क में आते हैं, तो पहले-पहले कोई लक्षण प्रकट नहीं होते, परन्तु जब नाक का द्रव संवेदित हो जाता है तो शरीर में विजातीय तत्व के विरुद्ध प्रतिरक्षा तत्व (इम्यूनोग्लोब्यूलिन) पैदा हो जाते हैं। जब वही विजातीय तत्व (एलर्जेन) नासिका द्रव पर पुन: हमला करता है तो पहले से उपस्थित अवरोधक तत्व उस विजातीय तत्व को नष्ट कर देता है जिससे नासिका की कोशिकाओं का नाश होता है और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हिस्टामिन नामक रसायन एलर्जी के लक्षणों का कारण बनता है। इसके मुख्य लक्षण हैं – तालू व गले में खराश, नाक का बन्द हो जाना, तेज़ जुकाम के साथ छींकें आना, आंखों में जलन, सांस फूलना, सिरदर्द आदि। मुख्यत: वायु द्वारा विसरित परागकण ही इन बीमारियों को जन्म देते हैं। वायु परागाणु विज्ञान केवल एलर्जी की नहीं बल्कि मनुष्य, जानवरों तथा पेड़-पौधों के विकास से जुड़े अन्य कई विषयों की भी विस्तृत जानकारी देता है। जैसे, वायु प्रदूषण, कृषि विज्ञान, वानिकी, जैव विनाश, जैव गतिविधि, मौसम विज्ञान आदि।

शहद परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत शहद के नमूनों में पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। शहद के गुणों तथा प्रभाव से सभी परिचित हैं। शहद की चिकित्सकीय उपयोगिता मुख्यत: पराग कणों के कारण ही होती है। मानव को आदिकाल से ही इसकी उपयोगिता का ज्ञान है। शहद और पराग कणों का पारस्परिक सम्बंध अटूट है। शहद की शुद्धता तथा गुणवत्ता उसमें निहित पराग कणों के द्वारा परखी जाती है। शहद एक ही प्रकार के फूलों के पराग कणों या अनेक प्रकार के फूलों के पराग कणों का मिश्रण है। शहद का वैज्ञानिक विश्लेषण करने से ऋतु-सम्बंधी जानकारी भी प्राप्त होती है। मधुमक्खियां मकरन्द व पराग कणों को फूलों से एकत्र करती हैं। बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ में हुए एक शोध के अनुसार, शहद के एक नमूने में 45 किस्म के परागकण विद्यमान थे।

औषधि परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों से विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण सम्बंधी अध्ययन किए जाते हैं। आदिकाल से मनुष्य तथा जानवरों के लिए पराग कणों की महत्ता जैव उद्दीपक के रूप में रही है। स्वीडन की सिरनेले कम्पनी सन 1952 से पराग कणों का सत बना रही है जिससे पोलेन-टूथपेस्ट, पोलेन फेस क्रीम, पोलेन एनिमल फीड तथा पोलेन टेबलेट्स आदि का उत्पादन होता है। इस कम्पनी को 14 करोड़ टेबलेट्स बनाने के लिए करीब 20 टन पराग कण आसपास के क्षेत्र से एकत्र करने पड़ते हैं। कहते हैं सर्निटिन  एक्सट्रेक्ट दीर्घ आयु तथा स्वस्थ जीवन प्रदान करने वाले सभी तत्वों से भरपूर होता है। यह विभिन्न प्रकार के पौधों के पराग कणों से तैयार किया जाता है।

ओर्टिस पोलेनफ्लावर नामक दवा मधुमक्खियों की सहायता से एकत्रित पराग कणों से बनाई जाती है, जिसमें स्वस्थ शरीर बनाए रखने के लिए शक्तिवर्धक तत्व मौजूद होते हैं। पोलेन-बी के नाम से प्रसिद्ध औषधियां धावकों तथा अन्य खिलाड़ियों द्वारा शक्तिवर्धक की तरह प्रयोग की जाती है।

प्रोस्टेट ग्रन्थि बढ़ने पर जिस दवा का प्रयोग किया जाता है, उसमें तीन-चार प्रकार के पराग कणों का सत होता है, जिसमें विटामिन-बी तथा स्टीरॉयड की प्रचुर मात्रा होती है। साइकस सर्सिनेलिस पौधे के पराग कणों को नींद की दवा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। टाइफा लैक्समानी पौधे के पराग कणों को रक्तचाप नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

मल-अवशेष परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत मनुष्यों तथा जानवरों के मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। पाषाण युग में कंदराओं और गुफाओं में रहने वाले शिकारी, खानाबदोश पूर्वजों तथा उनके काफिलों के पालतू जानवरों के खानपान, जलवायु तथा वनस्पतियों का लेखा-जोखा पराग कणों के माध्यम से पता किया जा सकता है। मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों के परीक्षण से भोज्य वनस्पतियों की किस्मों, ऋतुओं, जलवायु आदि का अनुमान लगाया जा सकता है। भेड़-बकरियों, चमगादड़ों तथा मनुष्यों के मल-अवशेषों का अध्ययन ही अभी तक प्रमुख रूप से किया गया है।

डॉ. ब्रयन्ट ने टेक्सास के सेमिनोल कैन्यन में रहने वाले 9000 वर्ष पूर्व के मानव के भोजन में प्रयोग किए गए पौधों का उल्लेख अपने एक शोध पत्र में किया है। मल-अवशेषों के पराग कण के अध्ययन से उस समय के पर्यावरण का भी अन्दाज़ा लगाया गया है।

डॉ. लीशय गोरहन ने गुफाओं में रहने वाले निएन्डरथल मानव के कंकाल के नीचे से मिली मिट्टी तथ अन्य अवशेषों के आधार पर 50,000 वर्ष तक पुरानी वनस्पतियों के इतिहास को उजागर किया। उन्होंने यहां तक प्रमाणित किया कि शव को एफेड्रा नामक वृक्ष की शाखाओं पर मई-जून के महीने में दफनाया गया था। इस प्रकार आदि-मानव के इतिहास को जानने में यह परागाणु विज्ञान अत्यन्त कारगर सिद्ध हुआ है।

अपराध परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत अपराधों की जांच-पड़ताल में पराग कणों के उपयोग का अध्ययन किया जाता है। वर्ष 1969 में प्रसिद्ध परागाणु विज्ञानी एर्टमैन ने स्वीडन तथा ऑस्ट्रिया में हुए दो अपराधों का पता पराग कणों के माध्यम से लगाकर दुनिया को अचंभित कर दिया था। उन्होंने वारदातों की गुत्थियां सुलझाने के लिए प्रमाण के तौर पर कपड़ों तथा जूतों की धूल से प्राप्त पराग कणों का विश्लेषण किया और तत्पश्चात अपराधियों को ढूंढ निकालने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। इसके अलावा बन्दूक पर चिपके पराग कणों की सहायता से वे एक मामले मे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हत्या संदिग्ध बन्दूक से नहीं बल्कि किसी अन्य बन्दूक का प्रयोग किया गया था। इस प्रकार आपराधिक मामलों की खोजबीन में परागाणु विज्ञान उपयोगी है।

भोजन के रूप में भी पराग कणों की उपयोगिता सिद्ध हुई है। पराग कणों को संतुलित भोजन की श्रेणी में रखा गया है। पराग कणों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों ने इसके चमत्कारी गुणों को पहचान कर हेल्थ फूड नाम दिया है। इनमें जीवन प्रणाली को सुचारु रूप से चलाने वाले सभी पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जैसे प्रोटीन, विभिन्न विटामिन तथा खनिज तत्व।

टाइफा पौधे की करीब 9 प्रजातियों के पराग कणों का भोज्य पदार्थ के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इनके पराग कणों को आटे के साथ मिलाकर केक व अन्य बेकरी पदार्थ बनाने में प्रयुक्त किया जाता है। सूप को गाढ़ा करने में तथा गरम दूध के साथ इनका सेवन किया जाता है। मक्का के पराग कणों का आकार बड़ा होता है और वे खाने की सूची में विशिष्ट स्थान रखते हैं। कई देशों में पराग कणों का प्रयोग नवजात शिशु के प्रथम आहार के तौर पर भी किया जाता है। अनेकानेक गुणों के साथ पराग कणों का एक अवगुण भी है, जो एलर्जी के रूप में नज़र आता है।

पराग कणों के गुणों-अवगुणों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि पराग कणों के गुणों का पलड़ा बहुत भारी है। पराग कण पेड़-पौधों के लिए जितने जरूरी हैं उतने ही मानव के लिए भी आवश्यक हैं। यदि समग्र रूप में पराग कणों के महत्व का मूल्यांकन किया जाए, तो ये निसन्देह मानव जीवन के लिए अपरिहार्य हैं तथा इनके अभाव में मानव के अस्तित्व की कल्पना भी कर पाना असम्भव है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैफीन-रहित चाय का पौधा – डॉ. अरविंद गुप्ते

जकल चाय सही अर्थ में आम आदमी का पेय बन गया है। गरीब से गरीब व्यक्ति मेहमाननवाज़ी के लिए चाय ही पिलाता है। चाय का पौधा मूल रूप से चीन का निवासी है। एक दंतकथा के अनुसार 2732 ईसा पूर्व (आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व) चीन का बादशाह शेन नुंग शिकार के लिए जंगल गया था। वहां खाना बनाते समय एक जंगली झाड़ी की कुछ पत्तियां उबलते पानी में गिर गर्इं। बादशाह को उस पानी का स्वाद पसंद आया और इस प्रकार उस पौधे की पत्तियों से चाय बनाने की शुरुआत हुई। उस समय चाय का सेवन प्रमुख रूप से एक दवा के रूप में किया जाता था। किंतु पेय के रूप में चाय का उपयोग वहां लगभग 1500 से 2000 वर्ष पूर्व के बीच होने लगा। 16वीं शताब्दी में पुर्तगाल के पादरी और व्यापारी चाय को युरोप लाए। 17वीं शताब्दी में ब्रिाटेन में चाय पीने का फैशन चल पड़ा और अंग्रेज़ों ने भारत में चाय के बागान लगा कर इसका उत्पादन शुरू किया।

चाय पीने से ताज़गी क्यों आती है? इसका कारण यह है कि चाय में कैफीन होता है जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित कर देता है। कैफीन के अलावा चाय में थियोब्रोमीन और थियोफायलीन जैसे तंत्रिका उत्तेजक पदार्थ होते हैं जो कैफीन की तुलना में कम मात्रा में होते हैं। चाय और कॉफी के पौधों में कैफीन की उपस्थिति उन्हें कीटों से बचाती है क्योंकि यह एक कीटनाशक भी होता है। कैफीन के विषैले होने के कारण इसके अत्यधिक सेवन से मृत्यु तक हो सकती है।   

चाय या कॉफी पीने का एक नकारात्मक पहलू यह होता है कि तंत्रिका तंत्र के उत्तेजित हो जाने से नींद नहीं आती। जब नींद नहीं आती तब अकारण चिंता बढ़ती है। इसलिए कई लोग बिना कैफीन वाली कॉफी पीते हैं। कॉफी के समान चाय से भी कैफीन को हटाया जा सकता है किंतु इसके लिए चाय की पत्तियों को खौलते पानी में काफी देर तक रखना पड़ता है। इस प्रक्रिया से कैफीन के साथ चाय में मौजूद लाभदायक रसायन भी निकल जाते हैं। बिना कैफीन की कॉफी या चाय अगर तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित न करे तो ताज़गी महसूस नहीं होगी। फिर उन्हें पीने से क्या फायदा? इसके अलावा, कैफीन और अन्य रसायन हट जाने से इनका स्वाद भी बदल जाता है।

यदि चाय का ऐसा पौधा मिल जाए जिसमें कैफीन बिलकुल न हो या बहुत कम हो तो सोने में सुहागा वाली स्थिति बन जाएगी – चाय का स्वाद बना रहेगा और इससे होने वाले हानिकारक परिणामों से भी बचा जा सकेगा। 2011 में चीन के गुआंगडांग प्रांत में चाय का एक ऐसा पौधा मिला था जिसमें कैफीन नहीं था। इस पौधे की खोज के बाद चीनी वनस्पतिशास्त्रियों ने ऐसे ही अन्य चाय के पौधों की तलाश शुरू की। परिणामस्वरूप उन्हें दक्षिण चीन के फुजियान प्रांत में भी चाय का कैफीन-रहित पौधा मिला है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि कैफीन की अनुपस्थिति का कारण इन पौधों के कैफीन का निर्माण करने वाले जीन में परिवर्तन था। सन 2003 में कॉफी के भी दो ऐसे पौधे पाए गए थे जिनमें कैफीन प्राकृतिक रूप से अनुपस्थित था, किंतु इन्हें बड़े क्षेत्र में लगाना संभव नहीं हो पाया। संभव है कि बिना कैफीन वाले चाय के पौधों के साथ भी ऐसा ही हो। फिलहाल यह पहेली बनी हुई है कि यदि कैफीन कीटनाशक के रूप में पौधों की कीटों से रक्षा करता है तो इन पौधों ने ऐसे लाभदायक रसायन को क्यों त्याग दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हवा में टंगे आलू – डॉ. किशोर पंवार

ल की बात है माली ने मेरी टेबल पर एक विचित्रसी वस्तु लाकर रख दी। किसी ने कहा बड़ा सुंदर पेपर वेट है तो किसी ने लकड़ी की गठान तक कह दिया। दरअसल इस पर बड़ी सुंदर लगभग षट्कोणीय रचनाएं बनी हुई थीं। लगभग गोल गहरे बादामी रंग की यह  रचना देखने में बड़ी सुंदर थी।

मैंने उससे पूछा यह कहां से लाए हो तो उसने कहा, सर पीछे बगीचे में ज़मीन पर ढेर सारे पड़े हैं। मैंने वहां जाकर देखा तो एक बेल बबूल के पेड़ पर चढ़ी थी जिसके पत्ते बड़ेबड़े पान जैसे थे। ध्यान से देखने पर पत्तों का रूप रंग कुछकुछ जाना पहचाना लगा। सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा तो नज़र आया कि बेल की प्रत्येक पत्ती और तने के बीच ऐसी कई गठानें वहां लटकी हुई हैं। पत्तों को देखकर लगा कि हो ना हो यह गराडू की बेल है। परंतु गराडू तो ज़मीन के अंदर लगते हैं वह भी बहुत बड़ेबड़े और बेडौल। यह तो लगभग गोल मटोल रचना है। खोजबीन करने पर पता चला कि यह बेल तो एयर पोटैटो यानी हवाई आलू की है।

इसका नाम ज़रूर आलू है पर यह समोसे में डालने वाला आलू तो कतई नहीं है। असली आलू यानी ज़मीनी आलू तो एक ऐसा कंद है जो तने का रूपांतरण माना जाता है। जबकि इस हवाई आलू को बुलबिल कहा जाता है। वैज्ञानिक इसे डायोस्कोरिया बल्बिफेरा कहते हैं। हिंदी में इसे गेठी, वाराही कंद और डुक्कर कंद आदि भी कहते हैं। हिंदी   नाम से ही पता चलता है कि यह सूअर (वराह) को बड़ा पसंद है।

यह एकबीजपत्री पौधा है जो अपवाद स्वरूप बेल है और पत्तियां भी अपवाद स्वरूप दोबीजपत्री पौधों की तरह बड़ीबड़ी और जालीदार शिरा विन्यास वाली हैं। यानी सब कुछ गड़बड है। हमारे द्वारा बनाए गए नियमों से दूर है यह हवाई आलू की बेल।

यह बेल अफ्रीका, एशिया और उत्तरी ऑस्ट्रेलिया की मूल निवासी है। इसकी व्यापक पैमाने पर खेती भी की जाती है एवं दुनिया के कई क्षेत्रों, जैसे लैटिन अमेरिका, वेस्टइंडीज़ और दक्षिणी अमेरिका में यह अपना प्राकृतिक स्थान बना चुकी है। यह आधार पर घड़ी की विपरीत दिशा में घूमघूम कर लिपट कर आगे बढ़ती है। ऐसी लताओं को वामावर्त लता कहते हैं। यह बहुत ही तेज़ी से वृद्धि करती है और 50 फीट ऊंचाई तक चढ़ सकती है। लगभग 20 सेंटीमीटर प्रतिदिन के मान से यह पेड़ों पर चढ़ कर उन पर छा जाती है। इसका हवाई तना ठंड में सूख जाता है परंतु अगली बारिश में पुन: अपने ज़मीनी कंदों से फूटकर नई बेल बनाता है ।

इसमें पुष्प मंजरियों में निकलते हैं। मादा पुष्प की मंजरियां नर से ज़्यादा लंबी होती हैं। इसमें प्रजनन का मुख्य तरीका पत्तियों के कक्ष में बने बुलबिल (कंद) होते हैं। यही बुलबिल बेल का बिखराव करते हैं और नएनए पौधों को जन्म देते हैं। मादा फूलों से बने फल कैप्सूल प्रकार के होते हैं।

कुछ कंदों का स्वाद कसैला होता है जो आग में भूनने से समाप्त हो जाता है। आलू और रतालू की तरह इससे तरहतरह कें व्यंजन बनाए जा सकते हैं। यह हवाई आलू याम प्रजातियों में सबसे ज़्यादा खाई जाने वाली प्रजाति है। ये फ्लोवोनॉइड्स के अच्छे स्रोत हैं जो शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट का काम करते हैं और सूजन को कम करते हैं। 

एशियाई देशों में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में अतिसार, गले की खराश और पीलिया आदि रोगों के उपचार के काम में लाया जाता है। इनमें एक प्रकार का स्टेरॉइड डायोसजेनिन पाया जाता है जिसे गर्भ निरोधक हॉर्मोन बनाने के काम में लाया जाता है। मूलत: एशिया और अफ्रीका का यह पौधा अब लगभग पूरी दुनिया में जहाज़ों और लोगों के द्वारा फैलाया जा चुका है। आज भी ये हवाई आलू एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, हवाई, टेक्सास, लुसियाना और वेस्टइंडीज़ के बाज़ारों में बेचे जाते हैं। मैंने भी होशंगाबाद के हाट से एक बार मेरे मित्र प्रमोद पाटिल के साथ इसे खरीदा था। वहां इसे कचालू कहते हैं। देश में इसकी सुलभ और भरपूर उपलब्धि के मद्देनज़र इसका व्यावसायिक उपयोग किया जाना चाहिए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में यह महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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उजड़े वनों में हरियाली लौट सकती है – भारत डोगरा

मारे देश में बहुत से वन बुरी तरह उजड़ चुके हैं। बहुतसा भूमि क्षेत्र ऐसा है जो कहने को तो वनभूमि के रूप में वर्गीकृत है, पर वहां वन नाम मात्र को ही है। यह एक चुनौती है कि इसे हराभरा वन क्षेत्र कैसे बनाया जाए। दूसरी चुनौती यह है कि ऐसे वन क्षेत्र के पास रहने वाले गांववासियों, विशेषकर आदिवासियों, की आर्थिक स्थिति को टिकाऊ तौर पर सुधारना है। इन दोनों चुनौतियों को एकदूसरे से जोड़कर विकास कार्यक्रम बनाए जाएं तो बड़ी सफलता मिल सकती है।

ऐसी किसी परियोजना का मूल आधार यह सोच है कि क्षतिग्रस्त वन क्षेत्रों को हराभरा करने का काम स्थानीय वनवासियोंआदिवासियों के सहयोग से ही हो सकता है। सहयोग को प्राप्त करने का सबसे सार्थक उपाय यह है कि आदिवासियों को ऐसे वन क्षेत्र से दीर्घकालीन स्तर पर लघु वनोपज प्राप्त हो। वनवासी उजड़ रहे वन को नया जीवन देने की भूमिका निभाएं और इस हरेभरे हो रहे वन से ही उनकी टिकाऊ आजीविका सुनिश्चित हो।

आदिवासियों को टिकाऊ आजीविका का सबसे पुख्ता आधार वनों में ही मिल सकता है क्योंकि वनों का आदिवासियों से सदा बहुत नज़दीकी का रिश्ता रहा है। कृषि भूमि पर उनकी हकदारी व भूमिसुधार सुनिश्चित करना ज़रूरी है, पर वनों का उनके जीवन व आजीविका में विशेष महत्व है।

प्रस्तावित कार्यक्रम का भी व्यावहारिक रूप यही है कि किसी निर्धारित वन क्षेत्र में पत्थरों की घेराबंदी करने के लिए व उसमें वन व मिट्टी संरक्षण कार्य के लिए आदिवासियों को मज़दूरी दी जाएगी। साथ ही वे रक्षानिगरानी के लिए अपना सहयोग भी उपलब्ध करवाएंगे। जल संरक्षण व वाटर हारवेस्टिंग से नमी बढ़ेगी व हरियाली भी। साथसाथ कुछ नए पौधों से तो शीघ्र आय मिलेगी पर कई वृक्षों से लघु वनोपज वर्षों बाद ही मिल पाएगी।

अत: यह बहुत ज़रूरी है कि आदिवासियों के वन अधिकारों को मज़बूत कानूनी आधार दिया जाए। अन्यथा वे मेहनत कर पेड़ लगाएंगे और फल कोई और खाएगा या बेचेगा। आदिवासी समुदाय के लोग इतनी बार ठगे गए हैं कि अब उन्हें आसानी से विश्वास नहीं होता है। अत: उन्हें लघु वन उपज प्राप्त करने के पूर्ण अधिकार दिए जाएं। ये अधिकार अगली पीढ़ी को विरासत में भी मिलने चाहिए। जब तक वे वन की रक्षा करेंे तब तक उनके ये अधिकार जारी रहने चाहिए। जब तक पेड़ बड़े नहीं हो जाते व उनमें पर्याप्त लघु वनोपज प्राप्त नहीं होने लगती, तब तक विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत उन्हें पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलती रहनी चाहिए ताकि वे वनों की रक्षा का कार्य अभावग्रस्त हुए बिना कर सकें।

प्रोजेक्ट की सफलता के लिए स्थानीय व परंपरागत पेड़पौधों की उन किस्मों को महत्व देना ज़रूरी है जिनसे आदिवासी समुदाय को महुआ, गोंद, आंवला, चिरौंजी, शहद जैसी लघु वनोपज मिलती रही है। औषधि पौधों से अच्छी आय प्राप्त हो सकती है। ऐसी परियोजना की एक अन्य व्यापक संभावना रोज़गार गारंटी के संदर्भ में है। एक मुख्य मुद्दा यह है कि रोज़गार गारंटी योजना केवल अल्पकालीन मज़दूरी देने तक सीमित न रहे अपितु यह गांवों में टिकाऊ विकास व आजीविका का आधार तैयार करे। प्रस्तावित टिकाऊ रोज़गार कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत कई सार्थक प्रयास संभव हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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