कोविड-19 के एंडेमिक होने का मतलब

र्तमान महामारी के संदर्भ में एंडेमिक (स्थानिक) शब्द का काफी दुरूपयोग हुआ है और इसने काफी मुगालता पैदा किया है। इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि कोविड-19 का प्राकृतिक रूप से अंत हो जाएगा।

महामारी विज्ञानियों की भाषा में एंडेमिक संक्रमण उसे कहते हैं जिसमें संक्रमण की समग्र दर संतुलित रहती है। उदाहरण के तौर पर, साधारण सर्दी जुकाम, लासा बुखार, मलेरिया, पोलियो वगैरह एंडेमिक हैं। टीके की मदद से समाप्त किए जाने से पहले चेचक भी एंडेमिक था।

कोई बीमारी एंडेमिक होने के साथ-साथ व्यापक और घातक दोनों हो सकती है। 2020 में मलेरिया से 6 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी तथा टीबी से 1 करोड़ लोग बीमार हुए और 15 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। अर्थात एंडेमिक संक्रमण का मतलब यह नहीं होता कि सब कुछ नियंत्रण में है और सामान्य जीवन चल सकता है।

विशेषज्ञों के अनुसार नीति-निर्माता एंडेमिक शब्द का उपयोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के लिए करते हैं। जबकि ऐसे एंडेमिक रोगजनकों के साथ जीते रहने की बजाय स्वास्थ्य नीति सम्बंधी ठोस निर्णय लेना अधिक महत्वपूर्ण है।

वास्तव में किसी संक्रमण को एंडेमिक कहने से न तो यह पता चलता है कि वह स्थिर अवस्था में कब पहुंचेगा, मामलों की दर क्या होगी, और न ही यह पता चलता है कि बीमारी की गंभीरता या मृत्यु दर क्या होगी। इससे यह गारंटी भी नहीं मिलती कि संक्रमण में स्थिरता आ जाएगी।

वास्तव में स्वास्थ्य नीतियां और व्यक्तिगत व्यवहार ही कोविड-19 के रूप को निर्धारित कर सकते हैं। 2020 के अंत में अल्फा संस्करण के उभरने के बाद विशेषज्ञों ने यह कहा था कि जब तक संक्रमण को दबा नहीं दिया जाता तब तक वायरस का विकास काफी तेज़ और अप्रत्याशित ढंग से होगा। इसी विकास ने अधिक संक्रामक डेल्टा संस्करण को जन्म दिया और अब हम प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने वाले ओमिक्रॉन को झेल रहे हैं। बीटा और गामा संस्करण भी काफी खतरनाक थे लेकिन ये उस रफ्तार से फैले नहीं। 

वायरस का फैलाव और असर लोगों के व्यवहार, जनसांख्यिकी संरचना, संवेदनशीलता और प्रतिरक्षा और उभरते हुए वायरस संस्करणों पर निर्भर करता है। 

देखा जाए तो कोविड-19 विश्व की पहली महामारी नहीं है। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली निरंतर संक्रमण से निपटने के लिए विकसित हुई है और हमारे जीनोम में वायरल आनुवंशिक सामग्री के अवशेष इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कुछ वायरस अपने आप ही ‘विलुप्त’ तो हो गए लेकिन जाते-जाते उच्च मृत्यु दर का कारण भी रहे।  

एक व्यापक भ्रम यह फैला है कि वायरस समय के साथ विकसित होकर ‘भले’ या कम हानिकारक हो जाते हैं। ऐसा नहीं है और आज कुछ नहीं कहा जा सकता कि वायरस किस दिशा में विकसित होगा। सार्स-कोव-2 के अल्फा और डेल्टा संस्करण वुहान में पाए गए पहले स्ट्रेन की तुलना में अधिक खतरनाक साबित हुए। पूर्व में भी 1918 इन्फ्लुएंज़ा महामारी की दूसरी लहर पहली की तुलना में अधिक घातक थी। 

यह ज़रूर है कि इस विकास को मानवता के पक्ष में बदलने के लिए काफी कुछ किया जा सकता है। लेकिन सबसे पहले तो अकर्मण्य आशावाद को छोड़ना होगा। दूसरा, हमें मृत्यु, विकलांगता और बीमारी के संभावित स्तरों के बारे में यथार्थवादी होना पड़ेगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि वायरस के नए-नए संस्करणों के विकास की संभावना को कम करने के लिए संक्रमण को फैलने से रोकना ज़रूरी है। तीसरा, हमें टीकाकरण, एंटीवायरल दवाओं, नैदानिक परीक्षण जैसी तकनीकों का उपयोग करने के साथ-साथ मास्क के उपयोग, शारीरिक दूरी, वेंटिलेशन वगैरह के माध्यम से हवा से फैलने वाले वायरस को रोकना होगा। वायरस को जितना अधिक फैलने का मौका मिलेगा, नए-नए संस्करणों के उभरने की संभावना बढ़ती जाएगी। चौथा, हमें ऐसे टीकों में निवेश करना होगा जो एकाधिक वायरस संस्करणों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। इसके अलावा दुनिया भर में टीकों की समतामूलक उपलब्धता सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण होगा।

ऐसे में किसी वायरस को एंडेमिक समझना सिर्फ गलत नहीं, खतरनाक भी है। बेहतर होगा कि वायरस को हावी होने का अवसर न दें और वायरस के नए संस्करणों को उभरने का मौका न दें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हींग के आणविक जीव विज्ञान की खोजबीन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हींग (जिसे अंग्रेज़ी में एसाफीटिडा, तमिल में पेरुंगायम, तेलुगु में इंगुवा और कन्नड़ में इंगु कहते हैं) एक सुगंधित मसाला है जिसका हमारे पकवानों और पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग किया जाता रहा है। महाभारत काल से हम हींग के बारे में जानते हैं, और यह अफगानिस्तान से आयात की जाती है। भागवत पुराण में उल्लेख है कि देवताओं का पूजन करने से पहले हींग नहीं खाना चाहिए। भारतीय ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि हम ईसा पूर्व 12वीं शताब्दी से हींग का आयात करते रहे हैं। हींग के लिए अंग्रेज़ी शब्द Asafoetida (एसाफीटिडा) फारसी शब्द Asa (जिसका अर्थ है गोंद), और लैटिन शब्द foetidus (जिसका अर्थ है तीक्ष्ण बदबू) से मिलकर बना है। विकीपीडिया के अनुसार प्रारंभिक यहूदी साहित्य में इसका ज़िक्र मिश्नाहा के रूप में मिलता है। रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि वे कैसे ‘काबुलीवाला’ से मेवे खरीदते थे लेकिन उनकी रचनाओं में हींग का उल्लेख नहीं मिलता, जबकि निश्चित ही यह उनके घर की रसोई में उपयोग की जाती होगी!

हींग एक गाढ़ा गोंद या राल है, जो अम्बेलीफेरी कुल के फेरुला वंश के बारहमासी पौधे की मूसला जड़ से मिलता है। इंडियन मिरर में एसाफीटिडा शीर्षक से प्रकाशित लेख में बताया गया है कि चिकित्सा के क्षेत्र में हींग का उपयोग तरह-तरह से होता है। यह भी कहा गया है कि हींग इन्फ्लूएंज़ा जैसे वायरस के विरुद्ध कारगर है। इसलिए वर्तमान समय के औषधि रसायनज्ञों और आणविक जीव विज्ञानियों द्वारा इसकी क्रियाविधि का अध्ययन सार्थक हो सकता है। (और, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन के प्रोफेसर एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने यह किया भी है)।

आयुर्वेद में शरीर में तीन तरह के दोष बताए गए हैं – वात, पित्त, और कफ। इन तीनों के अपने विशिष्ट कार्य हैं। वात दोष को शांत करने के लिए मसालों में हींग को सबसे अच्छा मसाला माना गया है। होम रेमेडीज़ फॉर हिक्कप नामक वेबसाइट बताती है कि हिचकी रोकने के लिए हींग उत्तम उपाय है! इसे मक्खन के साथ अच्छी तरह मिलाओ और निगल लो, और हिचकी बंद!

स्वदेशी?

हमें कब तक हींग आयात करनी पड़ेगी? ऐसा लगता है अब और नहीं! दी हिंदू के 10 नवंबर, 2020 के अंक में प्रकाशित और दी वायरसाइंस में उद्धृत एक रिपोर्ट में सीएसआईआर के इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोटेक्नोलॉजी (CSIR-IHBT) के निदेशक डॉ. संजय कुमार बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति की ठंडी रेगिस्तानी जलवायु ईरान और अफगानिस्तान की जलवायु से काफी मिलती-जुलती है। उन्होंने सोचा कि क्यों न हींग भारत में भी उगाई जाए। इस विचार ने IHBT को अफगानिस्तान से हींग के बीज आयात करके नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेस के मार्गदर्शन में IHBT अनुसंधान केंद्र में इसे उगाने को प्रेरित किया। प्रयोग सफल रहा और दो तरह की हींग राल प्राप्त हो गई – दूधिया सफेद किस्म की और लाल किस्म की। वे आगे बताते हैं कि चूंकि वर्तमान में हिमाचल प्रदेश में किसान आलू और मटर ही उगाते हैं इसलिए उन्हें हींग उगाने के लिए प्रेरित कर और तकनीकी सहायता प्रदान कर उनकी आय में वृद्धि की जा सकती है। डॉ. कुमार ने टाइम्स ऑफ इंडिया में ‘स्वदेशी हींग’ होना क्यों बड़ी बात है (Why ‘made-in-India’ heeng is a big thing) शीर्षक से एक लेख प्रकाशित भी किया है।

लंबा इतिहास

इस जड़ी बूटी के पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग का एक लंबा इतिहास रहा है। मिस्र के लोग लंबे समय से इसका उपयोग करते आ रहे हैं। आयुर्वेद के जानकार भी सदियों से इसके बारे में जानते हैं। प्रो. एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने फलमक्खी को एक मॉडल के रूप में उपयोग करके अध्ययन में पाया है कि शरीर में आयुर्वेदिक औषधियां प्रभावी हैं। इसी तरह जर्नल ऑफ एथ्नोफार्मेकोलॉजी में वर्ष 1999 में आइग्नर और उनके साथियों ने बताया था कि नेपाल की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों और आहार में हींग कैसे प्रभावी है। इस संदर्भ में फार्मेकोग्नॉसी रिव्यूज़ जर्नल के वर्ष 2012 के अंक में जयपुर की सुरेश ज्ञान विहार युनिवर्सिटी की डॉ. पूनम महेंद्र और डॉ. श्रद्धा बिष्ट द्वारा एक उत्कृष्ट और अद्यतन रिपोर्ट प्रकाशित की गई है, जिसका शीर्षक है फेरुला एसाफीडिटा: ट्रेडिशनल यूज़ एंड फार्मेकोलॉजिकल एक्टिविटी

हींग के रासायनिक घटकों के विश्लेषण से पता चलता है कि हींग के पौधे में लगभग 70 प्रतिशत कार्बोहायड्रेट, 5 प्रतिशत प्रोटीन, एक प्रतिशत वसा, 7 प्रतिशत खनिज होते हैं। इसके अलावा इसमें कैल्शियम, फास्फोरस, सल्फर के यौगिक और विभिन्न एलिफैटिक और एरोमेटिक अल्कोहल होते हैं। इसकी वसा में सल्फाइड होता है जिससे मलनुमा गंध आती है।

प्रयोगशाला में चूहों पर किए गए रासायनिक परीक्षणों से पता चलता है कि हींग पाचन में अहम भूमिका निभाती है। इसके अलावा शोधदल ने बताया है कि हींग का पौधा कैंसर-रोधी एजेंट के रूप में भी काम कर सकता है, और महिलाओं की कुछ बीमारियों के खिलाफ भी कारगर हो सकता है। उन्होंने हींग के लगभग 30 ऐसे अणुओं को सूचीबद्ध किया है जो एंटी-ऑक्सीडेंट, कैंसर-रोधी, जीवाणुरोधी, एंटीवायरल और यहां तक कि एड्स वायरस-रोधी की तरह काम करते हैं। इस सूची के मद्देनज़र देश भर के वैज्ञानिकों को आणविक जीव विज्ञान, प्रतिरक्षा विज्ञान और औषधि डिज़ाइन की नई तकनीकों का उपयोग करते हुए हींग से इन अणुओं को प्राप्त करके रोगों में इनकी निवारक भूमिका पर अध्ययन करना चाहिए। तो चलिए काम शुरू किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीकों को चकमा देता ओमिक्रॉन

प्रयोगशाला से प्राप्त डैटा से पता चला है कि व्यापक रूप से उपयोग किए जा रहे टीके तेज़ी से फैल रहे ओमिक्रॉन संस्करण के विरुद्ध न के बराबर सुरक्षा प्रदान करते हैं।

गौरतलब है कि कुछ टीकों में निष्क्रिय किए गए वायरस का उपयोग किया जाता है। ये टीके स्थिर होते हैं और इनका निर्माण अपेक्षाकृत रूप से आसान होता है। लेकिन प्रयोगों से यह साबित हुआ है कि ये ओमिक्रॉन के विरुद्ध अप्रभावी रहे हैं।

ऐसे निष्क्रिय-वायरस आधारित टीकों की दोनों खुराकें मिलने के बाद भी ऐसे प्रतिरक्षा अणुओं का निर्माण नहीं हुआ जो ओमिक्रॉन संक्रमण का मुकाबला कर सकें। और तो और, तीसरी खुराक के बाद भी ‘न्यूट्रलाइज़िंग’ एंटीबॉडी का स्तर कम पाया गया जो कोशिकाओं को संक्रमण के खिलाफ शक्तिशाली सुरक्षा प्रदान करती हैं। दूसरी ओर, mRNA या प्रोटीन-आधारित टीकों की तीसरी खुराक ओमिक्रॉन के विरुद्ध बेहतर सुरक्षा प्रदान करती है।

ये निष्कर्ष निष्क्रिय-वायरस आधारित टीकों की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करने की ज़रूरत दर्शाते हैं।

पिछले वर्ष विश्वभर के टीकाकरण अभियान में निष्क्रिय -वायरस टीकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अब तक वितरित 11 अरब टीकों में से चीन द्वारा निर्मित सायनोवैक और सायनोफार्म की हिस्सेदारी 5 अरब रही है। इसके अलावा भारत में निर्मित कोवैक्सिन, ईरान द्वारा निर्मित कोविरॉन बरेकत और कज़ाकिस्तान द्वारा निर्मित क्वैज़वैक जैसे टीकों की भी 20 करोड़ से अधिक खुराकें वितरित की जा चुकी हैं। ये सभी टीके गंभीर बीमारी या मृत्यु से सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम रहे हैं।

हांगकांग के शोधकर्ताओं द्वारा कोरोनावैक टीका प्राप्त 25 लोगों के रक्त के विश्लेषण में एक भी व्यक्ति में ओमिक्रॉन संस्करण के विरुद्ध न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी नहीं पाई गई। शोधकर्ताओं का मत है कि इस टीके से ओमिक्रॉन संक्रमण का जोखिम बना रहता हैं। वैसे सायनोवैक ने अपने आंतरिक आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया है कि कंपनी का टीका प्राप्त करने वाले 20 में से 7 लोगों में ओमिक्रॉन को निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडी पाई गई हैं। भारत बायोटेक (कोवैक्सिन) और चीनी कंपनी सायनोफार्म (बीबीआईबीपी-कोरवी) ने भी ओमिक्रॉन के विरुद्ध निष्क्रिय -वायरस टीकों के कुछ हद तक प्रभावी होने का दावा किया है।

इस टीके की तीसरी खुराक से कई लोगों में न्यूट्रलाइज़िंग गतिविधि बहाल हुई है। शंघाई जियाओ टोंग युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में 292 लोगों पर किए गए एक अध्ययन में तीसरी खुराक मिलने पर 228 में न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी मिली हालांकि स्तर कम ही रहा।

इस सम्बंध में पोंटिफिकल कैथोलिक युनिवर्सिटी ऑफ चिली के मॉलिक्यूलर वायरोलॉजिस्ट राफेल मेडिना ने प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य भागों की भूमिका की ओर ध्यान दिलाया है।

विशेषज्ञों के अनुसार परिणाम भले ही दर्शाते हों कि निष्क्रिय-वायरस आधारित टीके ओमिक्रॉन से सुरक्षा प्रदान नहीं करते लेकिन ये कोविड-19 के गंभीर प्रभावों से रक्षा ज़रूर करते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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अंग दाएं-बाएं कैसे जम जाते हैं?

बाहर से देखने पर तो मनुष्य एकदम सुडौल, सममित लगते हैं यानी दाहिनी तरफ और बाईं तरफ एक से हाथ, पैर, आंखें, कान वगैरह होते हैं। लेकिन अंदर झांकेंगे तो मामला अलग होता है। सबको पता है कि दिल सीने में थोड़ा बाईं ओर होता है जबकि जिगर उदर में दाईं ओर। कुछ लोगों में ज़रूर इनमें से कुछ अंगों की स्थिति पलट जाती है। सवाल यह रहा है कि आखिर इन अंगों को अपनी सही स्थिति में पहुंचने का आदेश कहां से मिलता है। अब शोधकर्ताओं ने एक जीन खोज निकाला है जो इस व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार है।

भ्रूण के विकास का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को यह तो काफी समय से पता रहा है कि कुछ जीन्स ऐसे होते हैं जो भ्रूण की शुरुआती सममिति को तोड़ते हैं और अंगों को अपना पाला तय करने में मदद करते हैं। शोधकर्ता यह भी जानते थे कि दिल तथा कतिपय अन्य अंगों को मध्यरेखा से अलग स्थिति में पहुंचाने में कुछ कोशिकाओं की भूमिका है जिन्हें दायां-बायां व्यवस्थापक कहते हैं। 1998 में चूहों पर किए गए अध्ययनों के आधार पर जापान के वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि इनमें से कुछ व्यवस्थापक-कोशिकाओं में रोम होते हैं और इन रोग की गति कुछ ऐसी होती है कि वे भ्रूण के तरल को बाईं ओर भेजते हैं, दाईं ओर नहीं। तरल के असमान प्रवाह की वजह से अंग सही जगहों पर बनते हैं। तरल का यह असमान प्रवाह बाईं ओर की कोशिकाओं में कुछ जीन्स को सक्रिय कर देता है। आगे चलकर पता चला कि मछलियों और मेंढकों में भी ऐसा ही होता है।

लेकिन अचरज की बात यह रही कि कोशिकाओं का ऐसा समूह मुर्गियों और सुअरों के विकसित होते भ्रूण में नहीं पाया जाता जबकि इनके दिल भी एक बाजू ही बनते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि घुमावदार गति वाले रोम जंतु विकास में काफी प्राचीन काल में प्रकट हुए थे लेकिन फिर किसी कारण से कुछ जंतुओं में ये लुप्त हो गए – जैसे सुअरों, स्तनधारियों में और पक्षियों में। लेकिन मनुष्यों में ये बरकरार रहे।

तो सिंगापुर के जीनोम इंस्टीट्यूट के ब्रुनो रेवरसेड और पेरिस के इमेजिन इंस्टीट्यूट के क्रिस्टोफर गॉर्डन देखना चाहते थे इस बेडौल विकास के लिए क्या कोई नया जीन ज़िम्मेदार है। इन शोधकर्ताओं के दल ने यह देखना शुरू किया कि वे कौन-से जीन हैं जो चूहों, मछलियों और मेंढकों के विकासमान भ्रूणों में तो सक्रिय होते हैं लेकिन सुअरों के विकास की उस अवस्था में अक्रिय होते हैं जब तरल का प्रवाह नहीं हो रहा होता।

शोधकर्ताओं ने नेचर जेनेटिक्स जर्नल में बताया है कि उन्हें पांच ऐसे जीन मिले। वे जानते थे कि वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं क्योंकि इन पांच में से तीन जीन्स के बारे में पहले से ही पता था कि वे प्रवाह-प्रेरित सममिति भ्रंश के लिए ज़िम्मेदार हैं। शेष रहे दो जीन्स। इनमें से एक का नामकरण सिरॉप (CIROP) किया गया है।

शोधकर्ताओं ने इस जीन में एक ऐसा परिवर्तन कर दिया कि जब यह सक्रिय हो तो एक चमक पैदा करे। इसकी मदद से शोधकर्ताओं को यह पता चला कि सिरॉप जीन ज़ेब्रा मछली, चूहों और मेंढकों के भ्रूण में मात्र कुछ घंटों के लिए सक्रिय रहता है जब दायां-बायां व्यवस्थापक बनता है। जब इस जीन को निष्क्रिय कर दिया गया तो पता चला कि इसकी ज़रूरत भ्रूण के सिर्फ बाएं हिस्से में होती है ताकि दिल, आंतें व पित्ताशय सही जगह पर बन जाएं। यानी सिरॉप इन अंगों की स्थिति निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाता है।

मनुष्यों की बात करें तो हर 10 हज़ार में से एक व्यक्ति गलत जगह स्थित अंगों के साथ पैदा होता है। इसे हेटेरोटैक्सी कहते हैं। रेवरसेड की टीम ने हेटेरोटैक्सी से ग्रस्त 183 लोगों के सिरॉप जीन का अनुक्रमण किया और उन्हें 12 परिवारों के 21 व्यक्तियों में सिरॉप में उत्परिवर्तन देखने को मिले। वैसे सिरॉप की खोज से इस समस्या का इलाज करने में कोई मदद शायद न मिले लेकिन यह महत्वपूर्ण तो है ही। शोधकर्ताओं को कुछ अंदाज़ तो है कि यह जीन सममिति को कैसे तोड़ता है लेकिन वे और अध्ययन करना चाहते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19: वास्तविक मौतें आंकड़ों से कहीं अधिक

ह बात महामारी वैज्ञानिकों के बीच चर्चा का विषय रही है कि भारत में कोविड-19 की वजह से होने वाली मौतें वैश्विक आंकड़ों को देखते हुए काफी कम रही हैं। कुछ लोगों का मत था कि यही वास्तविक स्थिति है जबकि कुछ अन्य लोगों का मानना था कि यह अल्प-रिपोर्टिंग का परिणाम है। अब एक प्रमुख महामारी वैज्ञानिक टोरोंटो विश्वविद्यालय के प्रभात झा ने ताज़ा विश्लेषण के आधार पर बताया है कि संभवत: भारत में कोविड-19 मृत्यु दर शेष दुनिया के समान ही थी और इसकी वजह से भारत में लगभग 30 लाख मौंतें हुई थीं जो भारत सरकार द्वारा जारी की गई संख्या से छह गुना अधिक है। यदि यह सही है तो अन्य देशों के आंकड़ों की भी जांच की जा सकती है। मृतकों की वैश्विक संख्या डबल्यूएचओ द्वारा अनुमानित मृतकों की संख्या 54.5 लाख से भी अधिक हो सकती है। यह विश्लेषण साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

2021 के अंत तक भारत ने सार्स-कोव-2 संक्रमण से लगभग 4,80,000 मौतों की सूचना दी है। यानी 340 मौतें प्रति दस लाख आबादी। यह अमेरिका में प्रति व्यक्ति कोविड-19 मृत्यु दर का लगभग सातवां भाग है। झा और उनकी टीम ने शुरुआती अध्ययन में माना था कि भारत में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या असामान्य रूप से कम है लेकिन अधिक गहराई से जांच करने पर हैरतअंगेज़ परिणाम प्राप्त हुए।

टीम ने एक स्वतंत्र पोलिंग एजेंसी से डैटा प्राप्त किया जिसने देश भर में 1,40,000 लोगों का टेलीफोन सर्वेक्षण कर उनके परिवार में कोविड से मरने वाले लोगों की संख्या का पता लगाया था। उन्होंने सरकारी रिपोर्टों का भी विश्लेषण किया और अधिकारिक तौर पर पंजीकृत मौतों का पता लगाया। नतीजे में टीम ने पाया कि सितंबर 2021 तक भारत में प्रति दस लाख आबादी में 2300 से 2500 मौतें हुई थीं।

झा के अनुसार उनके शुरुआती निष्कर्ष संक्रमण की पहली लहर पर आधारित थे जो डेल्टा संस्करण की तुलना में कम घातक थी। 2021 की वसंत ऋतु में डेल्टा संस्करण के मामलों में सबसे अधिक उछाल आया। टीम ने उस समय शहरी क्षेत्रों की ओर अधिक ध्यान केंद्रित किया था जहां मृत्यु दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में कम हो सकती है। वैसे भी देश में मृत्यु पंजीकरण का मामला महामारी से पहले भी काफी उबड़-खाबड़ रहा है। झा का मानना है कि कोविड-19 से मृत्यु के कम आंकड़ों के पीछे ये कारण हो सकते हैं लेकिन अभी काफी कुछ समझना बाकी है।               

राजनीति भी एक कारण हो सकता है। झा का मानना है कि प्रशासन ने महामारी की वास्तविक तस्वीर को ओझल रखा है और कोविड से मृत्यु की परिभाषा के ज़रिए भी संख्या को दबाने का प्रयास किया गया है। एक मुद्दा यह भी है कि नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) के माध्यम से डैटा जारी नहीं किया गया जो नियमित रूप से जन्म और मृत्यु को ट्रैक करने के लिए भारत की आबादी के एक प्रतिशत का सर्वेक्षण करता है।

वैसे, प्रिंसटन युनिवर्सिटी के महामारी विज्ञानी और अर्थशास्त्री रमनन लक्ष्मीनारायण गणना में इस चूक को पूरी तरह से इरादतन नहीं मानते हैं। जैसे, एसआरएस डैटा तो 2018 से ही जारी नहीं किया गया है। वे यह भी मानते हैं कि लगभग हर देश कोविड-19 मृत्यु दर को कम दर्शाना चाहता है ताकि वैश्विक स्तर पर खुद को शर्मिंदगी से बचा सके। लिहाज़ा, लक्ष्मीनारायण भारत को अन्य देशों की तुलना में अलग नहीं देखते हैं। अलबत्ता, लक्ष्मीनारायण चैन्नै के एक अध्ययन के आधार पर लैंसेट में बता चुके हैं कि मौतें कम करके बताई गई हैं।

अशोका युनिवर्सिटी के वायरस वैज्ञानिक शहीद जमील के अनुसार झा की टीम का देशव्यापी अनुमान दो अन्य स्वतंत्र अध्ययनों से मेल खाता है। उनका कहना है कि आंकड़ों में इस चूक का खामियाजा अगली लहर की तैयारी में कमी के रूप में भुगतना पड़ा है।

डैटा और विश्लेषण पर काम करने वाली डबल्यूएचओ की सहायक महानिदेशक समीरा अस्मा के अनुसार यह अध्ययन काफी सुदृढ है और देश-विशिष्ट अनुमान तैयार करने के लिए इस दृष्टिकोण को अपनाने का सुझाव देती हैं। इसके मद्देनज़र डबल्यूएचओ भी अपने अनुमानों को अपडेट कर रहा है और जल्द ही उन्हें जारी करने की योजना बना रहा है।

ई-लाइफ में 6 महीने पहले प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक महामारी के पहले और उसके दौरान सभी कारणों से होने वाली मृत्यु दर को दुनिया भर में कम रिपोर्ट किया गया था। उदाहरण के लिए, रूस में आधिकारिक आंकड़ों से 4.5 गुना अधिक मौतें हुई हैं। (स्रोत फीचर्स)

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खुजली तरह-तरह की – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पारंपरिक तौर पर खुजली को जिस तरह परिभाषित किया गया है उसके अनुसार खुजली एक असुखद एहसास (संवेदना) है जो खुजलाने की अनुक्रिया या अनैच्छिक प्रतिक्रिया पैदा करती है। खुजाने से उस कीड़े को भगाने में मदद मिलती है जो आपको कष्ट दे रहा था; लेकिन प्रुराइटस (खुजली का चिकित्सकीय नाम) यदि छह सप्ताह से अधिक समय तक बनी रहती है तो यह रोग की द्योतक है जो हर सात में से एक व्यक्ति के शारीरिक और/या मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालती है। अनुसंधानों ने इस एक ही प्रतीत होती तकलीफ (खुजली) के पीछे के कई क्रियाविधियों का खुलासा किया है।

जीर्ण खुजली (यानी लंबे समय तक चलने वाली खुजली) कई कारणों से हो सकती है। जैसे यह त्वचा-सम्बंधी हो सकती है (अक्सर हिस्टेमीन के स्राव के कारण होती है, जिसका उपचार बेनेड्रिल जैसी एंटीहिस्टेमीन दवाओं से किया जाता है)। यह तंत्रिका विकार सम्बंधी हो सकती है (दाद, तंत्रिका संपीड़न और मस्तिष्क रक्तस्राव जैसी समस्या), या तंत्रगत हो सकती है (कमज़ोर गुर्दे जैसी समस्या) या मनोवैज्ञानिक भी हो सकती है (जैसे जुनूनी-बाध्यकारी गड़बड़ी यानी OCD)।

बुज़ुर्ग विशेष रूप से जीर्ण समस्याओं से ग्रसित होते हैं जो खुजली के रूप में प्रकट होती हैं। वर्ष 2018 में जर्नल ऑफ दी इंडियन एकेडमी ऑफ जेरिएट्रिक्स में मणिक्कम और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित दक्षिण भारत के एक अध्ययन में साठ साल से अधिक आयु वर्ग के 29 प्रतिशत लोगो में एक्ज़िमा की समस्या देखी गई थी। दिल्ली कैंट के बेस अस्पताल में इसी उम्र वर्ग पर हुए एक अन्य अध्ययन में 56 प्रतिशत लोगों ने प्रुराइटस की शिकायत बताई थी। यह अध्ययन वर्ष 2019 में इंडियन डर्मेटोलॉजी ऑनलाइन जर्नल में प्रकाशित हुआ था। 2019 में ही इंडियन जर्नल ऑफ क्लीनिकल एंड एक्सपेरिमेंटल डर्मेटोलॉजी में प्रकाशित एक विश्लेषण में जीर्ण खुजली की शिकायत करने वाले 100 रोगियों में से 62 लोगों की समस्या के सम्बंधित कारणों को पहचाना जा सका, और इनमें मधुमेह, हाइपोथायरायडिज़्म, कई तरह के कैंसर और लौह की कमी शामिल थे।

खुजली पैदा करने वाले कारकों को प्रुराइटोजेन्स कहा जाता है। खुजली के प्रति संवेदनशील ऊतकों में त्वचा, श्लेष्मा झिल्लियां और आंख का कॉर्निया शामिल हैं। इन ऊतकों में कुछ तंत्रिका ग्राही (प्रुरिसेप्टर) प्रुराइटोजेन्स द्वारा उत्तेजित होते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न संदेश मेरु रज्जू में खुजली के संकेत देने वाली तंत्रिकाओं के ज़रिए मस्तिष्क तक ले जाए जाते हैं। प्रुराइटोजेन्स पर प्रतिक्रिया देने वाले कई अलग-अलग ग्राही और चैनल होते हैं। इनकी संख्या इतनी अघिक होती है कि चाहे जो भी हो, खुजली की अनुभूति आपके मस्तिष्क तक पहुंच ही जाती है।

जीर्ण खुजली का एक सामान्य उदाहरण है एटोपिक डर्मेटाइटिस। यह एक शोथ स्थिति है जो अक्सर एलर्जी के कारण होती है जिसमें त्वचा कटी-फटी दिखती है और खुजली होती है। उदाहरण के लिए, धूल में पाई जाने वाली घुन (हाउस डस्ट माइट) से होने वाली एलर्जी। यह घुन एक मिलीमीटर के एक तिहाई हिस्से के बराबर होती है, इसका भोजन हमारे शरीर से लगातार झड़ने वाली मृत त्वचा की पपड़ियां होती है। इस घुन के मल में एक तरह का प्रोटीन होता है जो एक शक्तिशाली प्रुराइटोजेन है। इस प्रुराइटोजेन के त्वचा के ग्राहियों से जुड़ने पर यह एटोपिक डर्मेटाइटिस या अस्थमा जैसी एलर्जी पैदा करता है। ये ग्राही उपचार के लिए अच्छे लक्ष्य हैं। इन ग्राहियों को लक्षित करके खुजली की संवेदना को मस्तिष्क तक पहुंचने से रोका जा सकता है। लेकिन साथ ही कोशिश करनी होती है कि शरीर की सुरक्षा के लिए ज़रूरी अन्य संवेदनाएं बाधित न हों।

खुजली और दर्द

खुजली और दर्द के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर खुजलाने की इच्छा का है। अचानक उठे तेज़ दर्द के कारण आप जल्दी से पीछे हट जाते हैं (या खुद को आगे बढ़ने से रोक लेते हैं) और इस तरह संभावित नुकसान से बच जाते हैं; लेकिन खुजलाना वास्तव में खुजली के कारण की ओर ध्यान दिलाता है। खुजलाना मेरु रज्जू में खुजली के संदेश देने वाली तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करता है। इससे मस्तिष्क तक पहुंचने वाली खुजली संवेदना में कमी आती है और राहत मिलती है! लेकिन यह राहत क्षणिक ही होती है। खुजलाकर हम असल में हल्का दर्द पहुंचा रहे होते हैं, और यह दर्द पल भर को हमारे मस्तिष्क में खुजली की अनुभूति को दबा सकता है। खुजलाना मस्तिष्क में पारितोषिक तंत्र की तरह भी काम कर सकता है, और खुजलाना एक सुखद एहसास बन सकता है। लेकिन जीर्ण खुजली वाले रोगियों के लिए खुजलाना एक अभिशाप हो सकता है, इससे त्वचा को नुकसान पहुंच सकता है और खुजली बढ़ सकती है।

आभासी खुजली

जिन लोगों ने (दुर्घटनावश) अपने हाथ या पैर गंवा दिए हैं, उन्हें अक्सर लगता है कि उनके ‘गुमशुदा अंग’ (आभासी अंग) में बहुत खुजली हो रही है। असल में, उनका मस्तिष्क समय के साथ कुछ नए परिपथ बना लेता लेता है और इस कारण शरीर के किसी अन्य हिस्से से मिलने वाले संदेश मस्तिष्क के उस हिस्से को मिलने लगते हैं जो पूर्व में उस अंग से मिला करते थे जो अब नहीं है।

कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी वी. एस. रामचंद्रन ने कई ऐसे प्रयोग किए जो लगते तो सरल हैं लेकिन यह सरलता बस कहने को है। इन प्रयोगों की मदद से उन्होंने दर्शाया कि जिन लोगों ने हाल ही में किसी दुर्घटना में अपना कोई अंग को गंवाया है और अक्सर उन्हें अपने उस ‘अनुपस्थित अंग में असहनीय खुजली’ की शिकायत रहती है तो वे अपने चेहरे के विभिन्न हिस्सों को खुजला कर राहत महसूस कर सकते हैं – जैसे ऊपरी होंठ को खुजला कर वे कट चुकी तर्जनी उंगली में राहत महसूस कर सकते हैं।

जीर्ण खुजली से निपटने के लिए नए चिकित्सीय तरीके त्वचा से लेकर केंद्रीय तंत्रिका तंत्र तक कई अलग-अलग बिंदुओं पर आज़माए जा रहे हैं। टाइप बी अल्ट्रा वायलेट प्रकाश त्वचा में प्रतिरक्षा कोशिकाओं से हिस्टेमीन का स्राव कम करने के लिए जाना जाता है, इसलिए फोटोथेरेपी खुजली में उपयोगी साबित हुई है। रोगाणुरोधी यौगिकों से लेपित रेशम के कपड़े भी एक तरीका है। लंबे समय तक बनी रहने वाली खुजली मस्तिष्क में खुजली से जुड़े हिस्सों में कार्यात्मक विसंगतियां पैदा करती है, और इसमें मस्तिष्क के वांछित हिस्से को विद्युत धारा से उत्तेजित करके राहत पहुंचाई जा सकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पेटेंट पूलिंग से दवाइयों तक गरीबों की पहुंच

हाल ही में अमेरिका के खाद्य व औषधि प्रशासन ने कोविड-19 के लिए दो अलग-अलग मुंह से दिए जाने वाले (ओरल) उपचारों को आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी दी है। इस निर्णय का मतलब यह है कि अब घर पर ही गोलियों से गंभीर कोविड-19 का उपचार संभव हो सकेगा। गौरतलब है कि इस ओरल उपचार को तैयार करने वाली दवा कंपनियों, फाइज़र और मर्क, ने जेनेरिक दवा निर्माताओं को कम-लागत के संस्करण बनाने की भी अनुमति दी है ताकि इनकी पहुंच गरीब देशों तक सुनिश्चित की जा सके।

इन दोनों उपचारों में 5 दिन तक दवाइयां लेनी होंगी। अमेरिकी सरकार ने इन दवाओं को फाइज़र से 530 डॉलर प्रति उपचार और मर्क से 712 डॉलर प्रति उपचार की दर पर खरीदा है। ज़ाहिर है कि यह अधिकांश देशों के लिए काफी महंगा है लेकिन दोनों ही कंपनियों के मेडिसिन पेटेंट पूल (एमपीपी) में शामिल होने से जेनेरिक दवा निर्माताओं को इस दवा के सस्ते संस्करण बनाने की अनुमति मिल गई है।

गौरतलब है कि एमपीपी की स्थापना 2010 में एक गैर-मुनाफा संस्था के रूप में इस उद्देश्य से की गई थी कि बड़ी दवा कंपनियों को जेनेरिक निर्माताओं को जेनेरिक संस्करण तैयार करने और कम दाम पर बेचने की अनुमति देने को तैयार किया जा सके। शुरुआत में यह विचार काफी बेतुका और अव्यावहारिक लगता था लेकिन वर्तमान में यह विचार काफी प्रभावी प्रतीत होता है। जेनेरिक निर्माताओं से उम्मीद है कि उनके द्वारा तैयार किए गए उपचार की लागत 20 डॉलर प्रति उपचार होगी जबकि व्यवस्था यह है कि फाइज़र और मर्क महंगी दवाओं को धनी देशों में बेचना जारी रखेंगी।

एमपीपी ने सबसे पहले एचआईवी के लिए एंटीरेट्रोवायरल औषधियों को कम आय वाले देशों के लिए सुलभ बनाने का काम किया और बाद में हेपेटाइटिस सी और टीबी की दवाइयों के लिए भी इसका विस्तार किया गया।

एमपीपी के संस्थापक और विशेषज्ञ सलाहकार समूह के सदस्य एलेन टी होएन ने बताया कि हालांकि वर्तमान में इस संदर्भ में जो समझौते हुए हैं, वे आदर्श नहीं हैं लेकिन इन्होंने दवाइयों की सुगम उपलब्धता के कुछ रास्ते तो खोले हैं। (स्रोत फीचर्स)

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न्यूज़ीलैंड में सिगरेट बिक्री पर प्रतिबंध की तैयारी

न्यूज़ीलैंड में नया नियम यह बनने जा रहा है कि 2008 के बाद जन्मा कोई भी व्यक्ति आजीवन सिगरेट या अन्य तंबाकू उत्पाद नहीं खरीद सकेगा। मकसद यह है अगली पीढ़ी को तंबाकू उत्पाद न बेचे जा सकें। न्यूज़ीलैंड की स्वास्थ्य मंत्री आयशा वेराल का कहना है कि “हम चाहते हैं कि युवा लोग धूम्रपान शुरू ही न करें।” डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने सरकार के इस कदम का स्वागत किया है। बहरहाल, आलोचकों की भी कमी नहीं है।

आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान में न्यूज़ीलैंड की लगभग 13 प्रतिशत वयस्क आबादी धूम्रपान करती है और अधिकारियों का लक्ष्य इसे घटाकर 5 प्रतिशत करना है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का अनुमान है कि हर चार में से एक कैंसर धूम्रपान की वजह से होता है और यह मृत्यु का एक प्रमुख कारण है।

तुलना के लिए देख सकते हैं कि भारत में लगभग 30 प्रतिशत वयस्क लोग (47 प्रतिशत पुरुष और 14 प्रतिशत महिलाएं) धूम्रपान करते हैं या तंबाकू चबाते हैं।

न्यूज़ीलैंड की आबादी 50 लाख से कुछ अधिक है और यहां सिगरेट बेचने के लिए अधिकृत दुकानें हैं। फिलहाल ऐसी अधिकृत दुकानों की संख्या 8000 है जिसे घटाकर 500 से कम करने का भी लक्ष्य रखा गया है।

सरकार ने इतना सख्त कदम उठाने का निर्णय पूर्व में किए गए उपायों (जैसे सिगरेट की कीमतें बढ़ाना) की सीमाओं के मद्देनज़र लिया है। इसके साथ ही यह व्यवस्था भी की जाएगी कि देश में मात्र कम निकोटिन वाली सिगरेटें ही बेची जा सकें।

जहां कई देश न्यूज़ीलैंड के इस कदम को सतर्कतापूर्वक देख रहे हैं, वहीं आलोचकों का कहना है कि इस निर्णय का परिणाम मात्र यही होगा कि सिगरेट का काला बाज़ार अस्तित्व में आ जाएगा और भ्रष्टाचार का एक नया अड्डा बन जाएगा। यह भी कहा जा रहा है कि इससे बेरोज़गारी भी बढ़ेगी।

दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ता न्यूज़ीलैंड के इस कदम के परिणामों की समीक्षा करके देखना चाहेंगे कि क्या यह शेष देशों के लिए एक मॉडल बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिचकी से तुरंत राहत का उपाय

हिचकी आते ही है तमाम तरह की सलाह मिलने लगती है; कोई सांस रोकने को कहता है, कोई अचानक डराता है तो कोई पानी पीने कहता है। अब, वैज्ञानिकों ने हिचकी रोकने का एक बेहतर समाधान ढूंढ लिया है: पानी पीने की स्ट्रॉ।

जब हिचकी (या चिकित्सा की भाषा में सिंगल्टस) आती है तो सीने का मध्यपाट (डायफ्राम) और पसलियों के बीच की मांसपेशियां अचानक सिकुड़ती हैं और सीने में अंदर का आयतन बढ़ जाता है। बढ़े हुए आयतन की वजह से दबाव कम होता है और हवा अंदर आती है। इस तरह अचानक अंदर आई हवा के कारण स्वर यंत्र के बीच की जगह (ग्लॉटिस) बंद हो जाती है, नतीजतन ‘हिच्च’ की आवाज़ (हिचकी) आती है।

इसे रोकने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास हेल्थ साइंस सेंटर के डॉ. अली सैफी ने एक स्ट्रॉ बनाई है जिसे उन्होंने ‘फोर्स्ड इंस्पिरेटरी सक्शन एंड स्वॉलो टूल (FISST)’ कहा है जिसका ब्रांड नाम हिक्कअवे है। लगभग 1000 रुपए की कीमत वाली L-आकार की यह स्ट्रॉ सख्त प्लास्टिक से बनी है। इसके एक सिरे को मुंह में रखते हैं और इसके दूसरे सिरे पर छोटे से छेद के रूप में प्रेशर वाल्व और एडजस्टेबल कैप है, जिससे पानी की मात्रा को कम-ज़्यादा किया जा सकता है। हिचकी आने पर बस इससे पानी पीना है!

यंत्र के पीछे का विचार यह है कि पानी खींचने में मध्यपाट के संकुचन के लिए फ्रेनिक तंत्रिका सक्रिय होती है, और पानी गटकने में वेगस तंत्रिका सक्रिय होती है। और ये दोनों ही तंत्रिकाएं हिचकी के लिए भी ज़िम्मेदार हैं। इसलिए इन दोनों तंत्रिकाओं को पानी पीने में व्यस्त रखकर हिचकी से बचा जा सकता है।

यंत्र की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने 249 प्रतिभागियों की प्रतिक्रिया पूछी। अधिकांश प्रतिभागियों को महीने में कम से कम एक बार हिचकी आती थी। जामा नेटवर्क ओपन पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार इस स्ट्रॉ से पानी पीने से लगभग 92 प्रतिशत मामलों में हिचकी रुक गई। 90 प्रतिशत से अधिक प्रतिभागियों ने कहा कि अन्य घरेलू उपायों की तुलना में यह अधिक सुविधाजनक लगा, जबकि 183 ने कहा कि उन्हें इससे बेहतर परिणाम मिले। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह यंत्र तुरंत काम करता है और इसका प्रभाव कई घंटों तक रहता है।

अध्ययन की कुछ सीमाएं भी हैं। पहली, अध्ययन में कोई तुलनात्मक समूह नहीं रखा गया था और दूसरी, निष्कर्ष लोगों के बताए अनुभवों पर आधारित हैं।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि यह समाधान एक ऐसी समस्या के लिए तैयार किया गया है जिसकी कोई मांग नहीं थी। इसके अलावा, इस समस्या के प्रभावी और कम लागत वाले विकल्प मौजूद हैं – जैसे किसी सामान्य स्ट्रॉ से पानी पीते समय दोनों कान कसकर बंद कर लेना। जो कुछ भी छाती फुलाने और गटकने में मदद करेगा – ‘भों’ करके डराना या कुछ और – वह काम करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत ने ‘जनसंख्या बम’ को निष्क्रिय किया

1960 के दशक में भारत ने जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि का सामना किया था। उस समय प्रजनन दर लगभग छह बच्चे प्रति महिला थी। इसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने परिवार नियोजन कार्यक्रम को विस्तार दिया जिसमें पुरुषों और महिलाओं दोनों को नसबंदी के लिए नकद प्रोत्साहन की पेशकश की गई।

अगले 60 वर्षों तक भारत ने नसबंदी के साथ-साथ गर्भ-निरोधकों और बालिका-शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया। अब स्वास्थ्य अधिकारियों का दावा है कि भारत ने अंतत: जनसंख्या विस्फोट पर नियंत्रण हासिल कर लिया है। हाल ही में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि देश की प्रजनन दर पहली बार 2.1 संतान प्रति महिला के ‘प्रतिस्थापन स्तर’ से नीचे आ गई है। पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की निदेशक पूनम मुतरेजा के अनुसार भारत की महिलाएं अब कम बच्चे पैदा करने को उचित मान रही हैं।

हालांकि, जनसंख्या फिलहाल बढ़ती रहेगी क्योंकि पूर्व की उच्च प्रजनन दर के कारण भारत की दो-तिहाई आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है और एक बड़ा समूह बच्चे पैदा करने की उम्र में पहुंच रहा है। लिहाज़ा, प्रतिस्थापन-दर पर भी जनसंख्या में वृद्धि जारी रहेगी और शायद अगले साल ही भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा।

फिर भी भारत की जनसंख्या लगभग 3 दशकों में घटने की संभावना है जिससे भारत बांग्लादेश और इंडोनेशिया जैसे कई अन्य विकासशील देशों के रास्ते पर चल पड़ेगा। लेकिन प्रजनन दर में गिरावट के मामले में भारत चीन (1.7 बच्चे प्रति महिला) से काफी पीछे है।

विशेषज्ञों का मत है कि जन्म दर में गिरावट के संदर्भ में सरकारी परिवार नियोजन कार्यक्रम प्रमुख कारक रहा है। एनएफएचएस सर्वेक्षण के अनुसार 55 प्रतिशत दंपति आधुनिक गर्भ-निरोधकों का उपयोग करते हैं। इनमें से बीस प्रतिशत कंडोम और दस प्रतिशत गोलियों का उपयोग करते हैं। अलबत्ता, सभी गर्भनिरोधकों में से कम से कम दो-तिहाई तो महिला नसबंदी है।

भारत में नसबंदी कार्यक्रम का इतिहास काफी उबड़-खाबड़ रहा है। 1970 के दशक के मध्य में राज्यों को अनिवार्य नसबंदी शिविर संचालित करने के आदेश दिए गए थे। इस दौरान लगभग 1.9 करोड़ लोगों की नसबंदी की गई जिनमें से दो-तिहाई पुरुष थे। वर्तमान में सरकारी नसबंदी क्लीनिकों का ध्यान मुख्य रूप से महिला नसबंदी पर केंद्रित है। कुल गर्भ निरोधकों में से मात्र 0.5 प्रतिशत हिस्सा पुरुष नसबंदी का होता है। आम तौर पर महिलाओं की नसबंदी औसतन 25 की उम्र के आसपास की जाती है जिनके पहले से बच्चे हैं। नसबंदी के लिए नकद प्रोत्साहन के अलावा जबरन नसबंदी की शिकायतें भी मिलती रहती हैं।                        

वैसे तो भारत में शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाएं अधिक बच्चे पैदा करती हैं लेकिन दोनों ही समूहों की प्रजनन दर में लगातार कमी आई है। इसके साथ ही 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर घटकर 34 (प्रति 1000 जीवित जन्म) रह गई है जो 1960 में 241 थी। बच्चों के लंबी उम्र तक जीवित रह पाने के आश्वासन के चलते महिलाएं परिवार नियोजन को ज़्यादा स्वीकार करने लगी हैं।

छोटा परिवार रखने के लिए प्रोत्साहित करने में शिक्षा की भी बड़ी भूमिका रही है। 1960 के दशक में महिलाओं में निरक्षरता दर लगभग 90 प्रतिशत थी जो 2011 में घटकर 35 प्रतिशत रह गई। इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर पापुलेशन साइंस की शोधकर्ता मिलन दास के विश्लेषण के अनुसार 2005 के बाद के दशक में बेहतर शिक्षा के कारण प्रजनन दर में 47 प्रतिशत की कमी आई है। मुतरेजा के अनुसार भारत की महिलाओं की आकांक्षाओं में भी बदलाव आया है। वे अब शादी और बच्चे पैदा करने की बजाय बेहतर नौकरी के अवसरों की तलाश कर रही हैं।     

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रजनन दर भी शिक्षा की भूमिका को दर्शाती है। केरल की साक्षरता दर सबसे अधिक है। केरल ने 1988 में ही प्रतिस्थापन प्रजनन दर हासिल कर ली थी। दूसरी ओर, राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के अनुसार बिहार जैसे सबसे कम साक्षर राज्य में 2039 तक प्रतिस्थापन प्रजनन दर प्राप्त करना मुश्किल होगा।

कुछ भारतीय राजनेता अभी भी जनसंख्या विस्फोट पर चर्चा कर रहे हैं और उत्तर प्रदेश में तो दो से अधिक बच्चे वाले परिवारों को सरकारी नौकरी या राज्य की कल्याण योजनाओं से वंचित रखने का प्रस्ताव है। आलोचकों के अनुसार इस तरह के बयान अक्सर देश के मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए दिए जाते हैं। लेकिन 2015-16 के एनएफएचएस सर्वेक्षण के अनुसार हिंदू महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं के औसतन 0.5 प्रतिशत अधिक बच्चे हैं। स्पष्ट है कि प्रजनन सम्बंधी फैसलों में धर्म एक छोटा कारक है।

लेकिन भारत की प्रजनन दर कितनी कम हो सकती है? विशेषज्ञों के अनुसार कम प्रजनन दर वाले राज्यों की दर 1.6 से 1.9 बच्चे प्रति महिला पर स्थिर है। यदि देश में महिला सशक्तिकरण की नीतियों को जारी रखा जाए तो यह दर 1.4 या उससे नीचे जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र के 2019 के जनसंख्या अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या 2050 तक 1.64 अरब तक पहुंच कर इस सदी के अंत तक 1.45 अरब रह जाएगी। एक चिंता यह भी व्यक्त की गई है कि यदि प्रजनन दर में तेज़ी से गिरावट आती है तो अर्थव्यवस्था को नुकसान भी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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