स्वास्थ्य: चुनौतियां और अवसर – प्रतिका गुप्ता

देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इस अवसर पर प्रतिष्ठित स्वास्थ्य पत्रिका दी लैंसेट के संपादकीय में भारत की स्वास्थ्य प्रणाली के पुनर्गठन पर दी लैंसेट नागरिक आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा हुई है और विक्रम पटेल की टिप्पणी प्रकाशित की गई है। विक्रम पटेल पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया सहित कई स्वास्थ्य संस्थाओं से सम्बद्ध रहे हैं और हारवर्ड मेडिकल स्कूल के डिपार्टमेंट ऑफ ग्लोबल हेल्थ एंड सोशल मेडिसिन में प्रोफेसर हैं।

संपादकीय कहता है कि यद्यपि भारत में स्वतंत्रता के बाद शिशु मृत्यु दर जैसे कई स्वास्थ्य संकेतकों में पर्याप्त सुधार दिखा है लेकिन कई अन्य क्षेत्रों में प्रगति नाकाफी रही है। इस मामले में राज्यों और क्षेत्रों की स्थिति भी काफी अलग-अलग है। वर्तमान प्रधान मंत्री का दृष्टिकोण है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत एक बड़ी भूमिका निभाए, और वह अधिक कुशल, प्रतिस्पर्धी और लचीला बने। 2020 में राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने कहा था कि यदि देश खुद को ‘आत्मनिर्भर’ बना लेता है तो 21वीं सदी भारत की हो सकती है।

लेकिन इन महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारत को अपने नागरिकों की स्वास्थ्य और विकास सम्बंधी ज़रूरतों पर ध्यान देना होगा। करोड़ों भारतीय अब भी गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं। सुर्खियां बटोरने वाली नीतियों के बावजूद राज्य व उसके नेतागण बड़ी संख्या में अपने नागरिकों तक नहीं पहुंच सके हैं।

कोविड-19 ने भारत की कई क्षमताओं और कमज़ोरियों को उजागर किया। कोविड-19 से बुरी तरह प्रभावित होने वाले देशों में भारत एक था। इतने बड़े पैमाने पर फैली महामारी का प्रबंधन करने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली बिल्कुल तैयार नहीं थी और आवश्यक सुविधाओं/उपकरणों का अभाव था। महामारी के कारण सामान्य टीकाकरण, पोषण कार्यक्रम और गैर-संचारी रोगों की निगरानी जैसी स्वास्थ्य सेवाओं में आए व्यवधान के बाद अब बहाली योजनाओं की तत्काल आवश्यकता है।

देखा जाए तो भारत का कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम सफल रहा है और साथ-साथ डिजिटल प्रौद्योगिकी और टेलीमेडिसिन का विकास भी हुआ है जिसके चलते देश के कई इलाकों में स्वास्थ्य सुविधा पहुंचाने और निगरानी करने में मदद मिली है। सरकार अब स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे को विस्तार देने पर ध्यान दे रही है।

2018 के बाद से 1,20,000 से अधिक स्वास्थ्य और वेलनेस केंद्र खोले गए हैं जो प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं देते हैं। साल के अंत तक 1,50,000 केंद्र और तैयार हो जाएंगे। अलबत्ता समय ही बताएगा कि क्या ये केंद्र वाकई स्वास्थ्य में सुधार कर पाएंगे। सबसे बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि इन केंद्रों में स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता मौजूद हों। 2014 से 2022 के बीच चिकित्सा में स्नातक पदों में 75 प्रतिशत और स्नातकोत्तर पदों में 93 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन यह सुनिश्चित करने में समय लगेगा कि चिकित्सा केंद्रों में पर्याप्त पेशेवर कामकाजी चिकित्सक उपलब्ध हों। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त गैर-चिकित्सक स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं को प्रशिक्षित करना भी ज़रूरी है।

भारत में लिंग-भेद अब भी स्वास्थ्य और विकास में एक बड़ी बाधा है। लड़कियों (महिलाओं) के जीवित रहने में दिक्कतें और लैंगिक भेदभाव बरकरार है। कुपोषण और एनीमिया बहुत अधिक हैं और पूरक आहार कार्यक्रमों के बावजूद स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है और श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी में काफी गिरावट आई है। घरेलू हिंसा, बाल विवाह और स्कूल ड्रॉपआउट जैसे क्षेत्रों में जो तरक्की हुई थी वह महामारी के कारण पलट गई है।

आंकड़े बताते हैं कि बढ़ते एकल परिवार वाले समाज में खासी संख्या में बुज़ुर्ग महिलाओं – खास कर विधवा और अकेली महिलाओं – के पास सामाजिक सुरक्षा नहीं है। इन लैंगिक पूर्वाग्रहों को पलटने के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और संस्थागत मानदंडों में व्यापक बदलाव की ज़रूरत होगी। महिलाओं की स्वायत्तता को बेहतर बनाने के लिए बहुक्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाना महत्वपूर्ण है जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, पानी और स्वच्छता के साथ-साथ श्रम और रोज़गार जैसे क्षेत्र शामिल हों। लेकिन ऐसे राजनैतिक माहौल में कुछ भी नहीं बदलने वाला, जो इस अंतर को स्वीकार तक नहीं करता, इसे पाटने के लिए काम करने की बात तो छोड़ ही दें।

वर्ष 2023 के दौरान भारत शायद दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। युवा आबादी बढ़ने से जनांकिक लाभ मिला है, लेकिन अब प्रजनन दर थम रही है। नतीजतन, भारत के पास परिस्थिति से लाभ उठाने का सीमित समय है। और लाभ उठाने के लिए अपने लोगों के स्वास्थ्य और खुशहाली में निवेश की आवश्यकता होती है। मात्र राष्ट्रवादी आव्हानों से और ऐसी लुभावनी स्वास्थ्य देखभाल नीतियों से काम नहीं चलेगा जिनमें जवाबदेही का अभाव हो। सरकार को सभी नागरिकों के स्वास्थ्य के अधिकार और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल के अधिकार की रक्षा करनी होगी। सरकार को स्वास्थ्य में उपचार से रोकथाम के उपायों की ओर बढ़ना चाहिए। सिविल सोसायटी की भूमिका को अंगीकार करने की ज़रूरत है। युवाओं में निवेश करना चाहिए ताकि वे अर्थव्यवस्था और समाज में पूर्ण भागीदारी कर सकें। ज़रूरतमंदों के लिए सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए। सरकार को स्वास्थ्य के सामाजिक, राजनीतिक, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक निर्धारकों को संबोधित करना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि जब तक प्रत्येक भारतीय – लिंग, जाति, वर्ग, धर्म या क्षेत्र से स्वतंत्र – राज्य के समर्थन से सक्षम नहीं बनता और अपनी पूरी संभावनाओं को साकार नहीं करता, तब तक वैश्विक शक्ति बनने की उम्मीद एक मरीचिका ही रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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