कोविड-19 का तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव

सार्स-कोव-2 से संक्रमित रोगियों ने कई ऐसी तकलीफों का अनुभव किया है जिनका सम्बंध तंत्रिका तंत्र से हो सकता है। जैसे सिरदर्द, जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द, थकान, सोचने-समझने में परेशानी, गंध/स्वाद महसूस न होना वगैरह। कुछ गंभीर स्थितियों में तो मस्तिष्क में सूजन और स्ट्रोक के मामले भी सामने आए हैं। स्पष्ट है कि यह वायरस तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है। लेकिन कैसे?

एक व्याख्या यह थी कि शायद ये प्रतिरक्षा तंत्र के अति सक्रिय होने के परिणाम हैं। लेकिन ऐसे भी मामले सामने आए जिनमें रोगियों में थकान और सोचने-समझने की दिक्कतें तो थीं किंतु प्रतिरक्षा प्रणाली अनियंत्रित नहीं हुई थी। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ऐसे लक्षण प्रतिरक्षा प्रणाली के अति-सक्रिय होने के कारण हैं या फिर वायरस सीधे तंत्रिका तंत्र पर हमला करता है। यह भी संभव है कि ये लक्षण वायरस द्वारा उत्पन्न शरीर-व्यापी सूजन के परिणाम हों।

इस सवाल की खोज करने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ डैलास के तंत्रिका विज्ञानी थिओडोर प्राइस ने ऐसे कुछ लक्षणों पर ध्यान दिया। इन लक्षणों में गले में खराश, सिरदर्द, शरीर-व्यापी दर्द और गंभीर खांसी शामिल है। खांसी तो तंत्रिकाओं की उत्तेजना से होती है। कुछ मरीज़ों ने रासायनिक संवेदना की क्षति भी बताई थी और इसकी संवेदना स्वाद तंत्रिकाओं के ज़रिए नहीं बल्कि दर्द-तंत्रिकाओं द्वारा प्रेषित की जाती है। जब मामूली रोगियों में भी ऐसे लक्षण दिखें तो लगता है कि संवेदी तंत्रिकाएं सीधे प्रभावित हो रही हैं।

कोशिका पर ACE2 ग्राही की उपस्थिति से पता चलता है कि कोई कोशिका सार्स-कोव-2 से संक्रमित होगी या नहीं। आरएनए अनुक्रमण से पता चला कि मेरु-रज्जू के बाहर पाए जाने वाली कुछ तंत्रिका कोशिकाओं पर ACE2 ग्राही उपस्थित होते हैं।     

ऐसे न्यूरॉन्स के सिरे शरीर की सतहों जैसे त्वचा और फेफड़ों सहित आंतरिक अंगों पर केंद्रित होते हैं। यहां से इनके लिए वायरस को ग्रहण करना आसान होता है। प्राइस के अनुसार तंत्रिका संक्रमण कोविड के उग्र और स्थायी लक्षणों में से एक है।

लेकिन टीम का कहना है कि तंत्रिका सम्बंधी लक्षणों के लिए तंत्रिकाओं का वायरस संक्रमित होना ज़रूरी नहीं है। संक्रमित रोगियों में काफी मात्रा में साइटोकाइन्स नामक प्रतिरक्षा प्रोटीन्स मिले हैं जो न्यूरॉन को प्रभावित कर सकते हैं।

एक अन्य अध्ययन में पता चला कि सार्स-कोव-2 का कोशिकाओं में प्रवेश करने का कारण केवल ACE2 ग्राही नहीं बल्कि एक अन्य प्रोटीन NRP1 भी है। चूहों पर किए गए अध्ययन से मालूम चला है कि NRP1 वायरस के स्पाइक प्रोटीन के संपर्क में आने के बाद उसे कोशिकाओं में प्रवेश करने में मदद करता है। शायद यह एक सह-कारक के रूप में कार्य करता है।

इसके अलावा एक अन्य परिकल्पना है कि स्पाइक प्रोटीन NRP1 को प्रभावित करके रोगियों में नोसिसेप्टर्स को शांत कर सकता है जो संक्रमण की शुरुआत में दर्द-सम्बंधी लक्षणों को दबा देता है। यह प्रोटीन सार्स-कोव-2 से प्रभावित व्यक्ति में संवेदनाहारी प्रभाव प्रदान करता है जिससे वायरस अधिक आसानी से फैल सकता है।

अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि कोविड-19 तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि तंत्रिका कोशिकाएं संक्रमित होती हैं या नहीं। न्यूरॉन्स को संक्रमित किए बगैर भी यह वायरस कोशिकाओं के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 और भू-चुंबकत्व: शोध पत्र हटाया गया

ल्सवियर की एक पत्रिका में प्रकाशित एक पेपर में यह दावा किया गया था कि कोविड-19 रोग सार्स-कोव-2 वायरस से नहीं बल्कि चुंबकीय विसंगतियों के कारण हुआ है। यह पेपर 8 अक्टूबर को साइंस ऑफ दी टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशन के बाद से ही आलोचना का केंद्र रहा है। 29 अक्टूबर को इसे वेबसाइट से हटा लिया गया है।    

इस पेपर के प्रमुख लेखक और पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर मोसेज़ बिलिटी संक्रामक रोगों का अध्ययन करते हैं। दी साइंटिस्ट से चर्चा करते हुए वे बताते हैं कि इस अध्ययन की शुरुआत पिछले वर्ष हुई जब अचानक उनकी प्रयोशाला के चूहे बीमार हुए और उन्हें मारना पड़ा। बिलिटी ने चूहों के फेफड़ों तथा गुर्दों के ऊतकों में कुछ बदलाव देखे। बदलाव उन चोटों के समान थे जो मनुष्यों में वैपिंग (इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट से धूम्रपान) के कारण होते हैं।

मनुष्यों में वैपिंग के कारण होने वाली क्षति और प्रायोगिक चूहों, दोनों के फेफड़ों में आयरन ऑक्साइड पाया गया। बिलिटी के अनुसार मनुष्यों में आयरन ऑक्साइड वैपिंग के कारण जमा हुआ था जो किसी तरह से धरती के चुंबकीय क्षेत्र से क्रिया करता है। इसी के कारण चुंबकीय उत्प्रेरण की प्रक्रिया सक्रिय हो गई। दूसरी ओर चूहे में कमज़ोर प्रतिरक्षा के चलते आयरन की मात्रा अनियंत्रित होने के कारण ऐसे परिणाम सामने आए।     

बिलिटी के समूह ने इस वर्ष फरवरी और मार्च में उसी तरह और चूहों को मृत पाया। उन्होंने इस घटना को अमेरिका में कोविड-19 के बढ़ रहे मामलों के साथ जोड़कर देखा और बताया कि यह वसंत विषुव है जिसमें भू-चुंबकीय परिवर्तन होते हैं और यही इस रोग का मुख्य कारण है। पेपर में कहा गया था कि सार्स-कोव-2 तो वास्तव में मानव जीनोम में पहले से ही उपस्थित था जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन के साथ फिर से जागृत हो गया है। कोविड-19 तो चुंबकीय क्षेत्र द्वारा उत्प्रेरित अन्य रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण हुआ है।

कैल्टेक के भू-विज्ञानी जो किर्शविंक के अनुसार इस पेपर में कई बुनियादी त्रुटियां है। यह सही है शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र रासायनिक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं लेकिन इसके लिए विसंगतियों का तीन-चार गुना अधिक होना ज़रूरी है। इसके अलावा इस अध्ययन में बिना किसी प्रायोगिक साक्ष्य के यह दावा किया गया है कि जेड तावीज़ के उपयोग से ऐसी विसंगतियों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। बिलिटी के अनुसार इसका उपयोग प्राचीन चीनी लोगों द्वारा उस समय किया जाता था जब भू-चुंबकत्व की स्थिति आज के समान थी। किर्शविंक जेड तावीज़ के चुंबकीय गुणों के वर्णन को गलत बताते हैं। इस तावीज़ में चुंबकत्व बहुत दुर्बल होता है जो कोई सकारात्मक परिणाम देने के लिए काफी नहीं है। 

इस अध्ययन की काफी आलोचना की जा रही है। कई वैज्ञानिकों ने इस पेपर को ‘छदम विज्ञान’ की संज्ञा दी है और निरस्त करने पर ज़ोर दिया है। इस पेपर के प्रकाशन-पूर्व समीक्षकों पर भी सवाल उठाए गए हैं। पिट्सबर्ग युनिवर्सिटी के प्रवक्ता ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इन्कार किया है लेकिन बिलिटी और सह-लेखक इस गलती की पूरी ज़िम्मेदारी ले रहे हैं। बिलिटी कहते हैं कि उनका उद्देश्य जन स्वास्थ्य अधिकारियों को नीचा दिखाना नहीं बल्कि आगे चर्चा और जांच के लिए एक परिकल्पना प्रस्तुत करना है। अब वे अकेले लेखक के रूप में, तावीज़ या पारंपरिक चीनी चिकित्सा का ज़िक्र किए बगैर, इसे पुन: प्रकाशित करने की योजना बना रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी ने हटाया सैकलर परिवार का नाम

हाल ही में अमेरिकी न्याय विभाग द्वारा ओपिओइड महामारी में पर्ड्यू फार्मा कंपनी की भूमिका के लिए तीन अपराधिक मामलों में दोषी करार दिया गया है। दोषी पाए जाने के बाद न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के लैंगोन मेडिकल सेंटर ने अपने संस्थान, इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेजुएट बायोमेडिकल साइंसेज़ से पर्ड्यू फार्मा कंपनी के संस्थापक सैकलर परिवार का नाम हटाने का फैसला लिया है।

ओपियोइड महामारी में अफीमनुमा दर्द निवारक दवाओं (जिनकी आदत पड़ जाती है) के चिकित्सा में अति में उपयोग और दुरुपयोग ने कई समस्याओं को जन्म दिया था और इनका अधिक इस्तेमाल लाखों लोगों की मौत का कारण बना था। अफीमी दवाओं में सबसे अधिक लिखी जाने वाली दवाएं हैं मेथाडॉन, ऑक्सीकोडोन (जो ऑक्सीकोन्टीन नाम से बेची जाती है), और पाइड्रोकोडोन।

पर्ड्यू फार्मा कंपनी ऑक्सीकोन्टीन नामक दर्द निवारक दवा बनाती है। पर्ड्यू फार्मा ने देश से धोखा करने और  रिश्वतखोरी कानून का उल्लंघन करने के दोष में आठ अरब डॉलर के भुगतान का समझौता किया है। अलबत्ता, इस भुगतान से ना तो कंपनी के अधिकारी और ना ही सैकलर परिवार आरोप से मुक्त होगा, उन पर आपराधिक जांच जारी रहेगी।

एसोसिएटेड प्रेस को दिए गए बयान में न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के अधिकारियों का कहना है कि पर्ड्यू फार्मा से सैकलर परिवार का सम्बंध और अफीमी दवाइयों के उपयोग को अधिकाधिक प्रोत्साहित करने में पर्ड्यू फार्मा की भूमिका को देखते हुए हमें लगता है कि संस्थान के साथ उनका नाम जोड़े रखना संस्थान के मूल्यों और उद्देश्य से मेल नहीं खाता।

सैकलर परिवार के वकील डैनियल कोनोली ने न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के इस फैसले की आलोचना की है। उनका कहना है कि जैसे ही पर्ड्यू कंपनी के दस्तावेज़ उजागर किए जाएंगे, स्पष्ट हो जाएगा कि कंपनी और कंपनी के निदेशक सदस्यों, सैकलर परिवार, ने हमेशा नैतिक और कानूनी रूप से कार्य किया है। न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी का जल्दबाज़ी में फैसला लेना निराशजनक है।

1980 में उक्त संस्थान की स्थापना के समय से ही सैकलर परिवार के नाम पर संस्थान का नाम रखा गया था। लेकिन संस्थान ने पिछली गर्मियों से इस परिवार से औपचारिक रूप से डोनेशन लेना बंद कर दिया है।

संस्थानों से सैकलर का नाम हटाने वालों में लूवरे और टफ्ट्स युनिवर्सिटी के बाद अब न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी भी शामिल हो गई है। विश्वविद्यालयों पर काफी समय से दबाव रहा है कि वे अपने संस्थानों से सैकलर परिवार का नाम हटाएं और उससे अतीत में प्राप्त धनराशि लौटा दें।(स्रोत फीचर्स)

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अल्ज़ाइमर की संभावना बताएगी कृत्रिम बुद्धि

ल्द ही कृत्रिम बुद्धि किसी व्यक्ति में अल्ज़ाइमर होने के आसार के बारे में पहले ही पता लगा लेगी। आईबीएम की टीम ने लेखन में उपयोग किए गए शब्दों/वाक्यों के पैटर्न से अल्ज़ाइमर के शुरुआती संकेत पहचानने के लिए कृत्रिम बुद्धि को प्रशिक्षित किया है।

वैसे तो कई शोध दलों द्वारा मस्तिष्क स्कैन या शारीरिक जांच के डैटा का उपयोग करके अल्ज़ाइमर जैसी संज्ञानात्मक गड़बड़ियों की पूर्व-पहचान के लिए कृत्रिम बुद्धि को प्रशिक्षित किया जा रहा है। लेकिन यह अध्ययन इस मायने में अलग है कि इसमें प्रशिक्षण के लिए फ्रामिंगहैम हार्ट स्टडी का ऐतिहासिक डैटा लिया गया है। फ्रामिंगहैम हार्ट स्टडी वर्ष 1948 के बाद से अब तक लगभग तीन पीढ़ियों के 14,000 से अधिक लोगों के स्वास्थ्य पर नज़र रखे हुए है।

इस स्टडी में प्रतिभागियों से एक तस्वीर का वर्णन भी लिखवाया गया था। इन वर्णनों की सिर्फ डिजिटल प्रतियां उपलब्ध थी, हस्तलिखित मूल प्रतियां सहेजी नहीं गर्इं थीं।

अपने कृत्रिम बुद्धि मॉडल के प्रशिक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों के द्वारा लिखे गए इन विवरणों का डिजिटल ट्रांस्क्रिप्शन कृत्रिम बुद्धि को पढ़ाया। इस तरह मॉडल ने संज्ञानात्मक क्षति के शुरुआती भाषागत लक्षणों को पहचानना सीखा। जैसे गलत वर्तनी, कुछ शब्दों का बार-बार उपयोग और व्याकरण की दृष्टि से जटिल वाक्यों की जगह सरल वाक्यों का उपयोग।

मॉडल ने 70 प्रतिशत सही अनुमान लगाया कि किन प्रतिभागियों को 85 वर्ष की उम्र के पहले अल्ज़ाइमर से सम्बंधित स्मृतिभ्रंश की शिकायत हुई होगी।

एक तो यह घटित हो चुकी घटनाओं के अतीत के डैटा के आधार पर आकलन है। इस मॉडल की कुछ अन्य सीमाएं भी हैं। इस मॉडल में फ्रामिंगहैम स्टडी के मात्र वृद्ध प्रतिभागियों का डैटा शामिल किया गया था जो प्राय: एंग्लो-अमेरिकन गोरे लोग थे। इसलिए संपूर्ण अमेरिका और विश्व पर इन नतीजों का सामान्यीकरण मुश्किल है। इस मॉडल में विश्लेषण के लिए केवल 80 लोगों का डैटा लिया गया था – 40 ऐसे लोगों का जिन्हें अल्ज़ाइमर की समस्या हुई थी और 40 कंट्रोल समूह। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि मॉडल अधिक डैटा पर कैसा प्रदर्शन करेगा। इसके अलावा यह भी सवाल उठता है कि निदान पूर्व, अलग-अलग उम्र पर अल्ज़ाइमर की संभावना का अनुमान क्या इतनी ही सटीकता से लगा पाएगा?

यह मॉडल और भी सटीक हो सकता था यदि इसमें मूल लिखावट को शामिल किया जा सकता। इससे अल्ज़ाइमर की पहचान के कुछ अन्य संकेत शामिल हो जाते। जैसे लिखते समय हाथ हल्का कांपना, कहीं-कहीं प्रिंट और कहीं-कहीं कर्सिव में लिखना और बहुत बारीक अक्षर में लिखना। और यदि मौखिक भाषा का डैटा शामिल किया जाता तो बोलते-बोलते बीच में रुकने जैसे संकेतों को भी पहचाना जा सकता था, जो लेखन से संभव नहीं है। लेखन में सिर्फ साक्षर लोगों का डैटा होता है।

बहरहाल ये मॉडल लोगों के संज्ञानात्मक स्वास्थ्य की निगरानी बिना तकलीफ पहुंचाए कर पाएंगे। हालांकि लोगों की सहमति और डैटा की गोपनीयता का सवाल भी उठेगा क्योंकि हो सकता है कुछ लोग पहले से अपनी बीमारी के बारे में ना जानना चाहें।

फिलहाल दोनों मॉडल, मौखिक और डिजिटल पेन की मदद से लिखित, को शामिल करने पर काम चल रहा है। आईबीएम का भी भविष्य में इसी तरह के मॉडल पर काम करने का इरादा है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 मौतों में वायु प्रदूषण का योगदान

हाल ही में किए गए अध्ययनों से कोविड-19 से होने वाली मौतों और वायु प्रदूषण के सम्बंध का पता चला है। शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक स्तर पर कोविड-19 से होने वाली 15 प्रतिशत मौतों का सम्बंध लंबे समय तक वायु प्रदूषण के संपर्क में रहने से है। जर्मनी और साइप्रस के विशेषज्ञों ने संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के वायु प्रदूषण, कोविड-19 और सार्स (कोविड-19 जैसी एक अन्य सांस सम्बंधी बीमारी) के स्वास्थ्य एवं रोग के आकड़ों का विश्लेषण किया है। यह रिपोर्ट कार्डियोवैस्कुलर रिसर्च नामक जर्नल में प्रकाशित हुई है।  

इस डैटा में विशेषज्ञों ने वायु में सूक्ष्म कणों की उपग्रह से प्राप्त जानकारी के साथ पृथ्वी पर उपस्थित प्रदूषण निगरानी नेटवर्क का डैटा शामिल किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि कोविड-19 से होने वाली मौतों के पीछे वायु प्रदूषण का योगदान किस हद तक है। डैटा के आधार पर विशेषज्ञों का अनुमान है कि पूर्वी एशिया, जहां हानिकारक प्रदूषण का स्तर सबसे अधिक है, में कोविड-19 से होने वाली 27 प्रतिशत मौतों का दोष वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर हुए असर को दिया जा सकता है। यह असर युरोप और उत्तरी अमेरिका में क्रमश: 19 और 17 प्रतिशत पाया गया। पेपर के लेखकों के अनुसार कोविड-19 और वायु प्रदूषण के बीच का यह सम्बंध बताता है कि यदि हवा साफ-सुथरी होती तो इन अतिरिक्त मौतों को टाला जा सकता था।

यदि कोविड-19 वायरस और वायु प्रदूषण से लंबे समय तक संपर्क एक साथ आ जाएं तो स्वास्थ्य पर, विशेष रूप से ह्रदय और फेफड़ों पर, काफी हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं। टीम ने यह भी बताया कि सूक्ष्म-कणों के उपस्थित होने से फेफड़ों की सतह के ACE2 ग्राही की सक्रियता बढ़ जाती है और ACE2 ही सार्स-कोव-2 के कोशिका में प्रवेश का ज़रिया है। यानी मामला दोहरे हमले का है – वायु प्रदूषण फेफड़ों को सीधे नुकसान पहुंचाता है और ACE2 ग्राहियों को अधिक सक्रिय कर देता है जिसकी वजह से वायरस का कोशिका-प्रवेश आसान हो जाता है।

अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि हवा में उपस्थित सूक्ष्म-कण इस रोग को बढ़ाने में एक सह-कारक के रूप में काम करते हैं। एक अनुमान है कि कोरोनावायरस से होने वाली कुल मौतों में से यू.के. में 6100 और अमेरिका में 40,000 मौतों के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।

देखने वाली बात यह है कि कोविड-19 के लिए तो टीका तैयार हो जाएगा लेकिन खराब वायु गुणवत्ता और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कोई टीका नहीं है। इनका उपाय तो केवल उत्सर्जन को नियंत्रित करना ही है।(स्रोत फीचर्स)

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मायोपिया से बचाव के उपाय – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मायोपिया (निकट-दृष्टिता) उस स्थिति को कहते हैं जब व्यक्ति को दूर का देखने में कठिनाई होती है। यह पूरे भारत में महामारी का रूप लेता जा रहा है; दक्षिण-पूर्वी एशिया में तो यह समस्या और भी गंभीर है। मायोपिया किन्हीं हानिकारक कीटाणुओं के संक्रमण की वजह से नहीं बल्कि संभवत: मायोपिक जीन्स की भूमिका और आसपास की परिस्थितियों (जैसे लंबे समय तक पास से देखने वाले काम करना और/या धूप से कम संपर्क) के कारण होता है। कोविड-19 की तरह इसने अभी वैश्विक महामारी का रूप नहीं लिया है लेकिन हमारी परिवर्तित जीवन शैली (कमरों में सिमटी जीवन शैली) और खुली धूप में बिताए समय और स्तर में आई कमी के कारण यह एक वैश्विक महामारी बन सकती है। वक्त आ गया है कि मायोपिया से मुकाबले के उपाय किए जाएं।

मायोपिया क्या है?

मायोपिया या निकट-दृष्टिता तब होती है जब कॉर्निया और लेंस की फोकस करने की क्षमता के मुकाबले आंखों का नेत्रगोलक बड़ा हो जाता है, जिससे फोकस रेटिना की सतह पर ना होकर उसके पहले कहीं होने लगता है। इस कारण दूर की चीज़ें साफ दिखाई नहीं देतीं जबकि नज़दीक की चीज़ें स्पष्ट दिखाई दे सकती हैं, जैसे पढ़ने या कंप्यूटर पर काम करने में कोई परेशानी नहीं आती (allaboutvision.com)। वर्ष 2000 में दुनिया की लगभग 25 प्रतिशत आबादी निकट-दृष्टिता से पीड़ित थी। वर्ष 2050 तक (यानी अब से 30 वर्ष बाद) 50 प्रतिशत से अधिक लोगों के मायोपिया-पीड़ित होने की संभावना है।

वर्तमान में भारत में मायोपिया के बढ़ते प्रसार के आधार पर एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि मायोपिया को नियंत्रित करने के उपाय न किए गए तो वर्ष 2050 तक भारत के सिर्फ शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 5-15 वर्ष की उम्र के लगभग 6.4 करोड़ बच्चे मायोपिया से पीड़ित होंगे।

इस समस्या की रोकथाम के कई उपायों के बारे में हम पहले से ही जानते हैं। लेकिन हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि बाहर या खुले में कम समय बिताने से मायोपिया हो सकता है। दिन के समय अंदर की तुलना में बाहर (खुले में) सूर्य का प्रकाश 10 से 100 गुना अधिक होता है। बाहर की रोशनी कई तरह से आंखों को मायोपिक होने से बचाने में मदद करती है। जैसे: (1) यदि आप किसी खुली जगह पर हैं और पास देखने वाला कोई काम नहीं कर रहे हैं तो आंखों पर ज़ोर कम पड़ता है। (2) बाहरी वातावरण रेटिना के किनारों के विभिन्न भागों को एक समान प्रकाश देता है और बाहर के परिवेश में इंद्रधनुष के सभी रंगों (तथाकथित vivgyor) से समान संपर्क होता है, जबकि अंदर के कृत्रिम प्रकाश में कुछ विशिष्ट तरंगदैर्ध्य नहीं होतीं। (3) सूर्य के तेज़ प्रकाश में आंखों की पुतली छोटी हो जाती है जो धुंधलापन कम करती है, और फोकस रेंज बढ़ाती है। (4) सूर्य के प्रकाश के संपर्क से अधिक विटामिन डी बनाने में मदद मिलती है। (5) अधिक प्रकाश का संपर्क डोपामाइन हार्मोन स्रावित करता है जो नेत्रगोलक की लंबाई नियंत्रित करता है; यह छोटा रहेगा तो मायोपिया नहीं होगा। (इस सम्बंध में, करंट साइंस में प्रकाशित रोहित ढकाल और पवन के. वर्किचार्ला का पेपर देखें: बाहर रहने का वक्त बढ़ाकर भारत के स्कूली बच्चों में मायोपिया के बढ़ते प्रसार को थामा जा सकता है)।

परिवार और शिक्षकों की तरफ से बच्चों पर पढ़ाई में श्रेष्ठ प्रदर्शन का बढ़ता दबाव, अत्यधिक होमवर्क, प्रवेश परीक्षाओं के लिए देर शाम या स्कूल के पहले की कोचिंग क्लासेस हाई स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों से सूरज की रोशनी छीन रहे हैं जिससे मायोपिया महामारी फैल रही है, और मध्य और पूर्वी एशियाई उपमहाद्वीप में एक उप-वैश्विक महामारी का रूप ले रही है।

सुझाव                                                             

एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट में मायोपिया का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं, रोहित ढकाल और पवन वर्किचार्ला, ने सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के कुछ सुझाव दिए हैं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ इन सुझावों को अभी लागू किया जा सकता है। ये सुझाव हैं: सभी स्कूलों में प्रायमरी से लेकर हाई स्कूल तक के सभी छात्रों के लिए हर दिन एक घंटे का अवकाश (रेसेस) हो, जिस दौरान कक्षाओं के कमरे बंद कर दिए जाएं ताकि बच्चे धूप के संपर्क में रह सकें। रेसेस पाठ्यक्रम का व्यवस्थित अंग हो। स्कूलों में खेल का पर्याप्त मैदान अनिवार्य हो। पालकों में स्वस्थ दृष्टि के महत्व और स्मार्टफोन जैसी पास से देखी जाने वाली डिवाइसेस के उपयोग पर नियंत्रण के बारे में जागरूकता पैदा की जाए। प्रत्येक इलाके के सामुदायिक केंद्र के लिए सप्ताह में एक बार या कम से कम महीने में दो बार बाहर के कार्यक्रम आयोजित करने की सिफारिश की जाए/प्रचार किया जाए।

ये सभी बहुत सामान्य से सुझाव हैं मगर आर्थिक, वित्तीय, भवन सम्बंधी और सामाजिक कारणों से अब तक इन पर अमल नहीं किया गया है। लेकिन राज्य और केंद्र सरकारों के अधीन स्कूलों और कॉलेजों में तो कम से कम ये प्रयास किए जाने चाहिए। भविष्य हमें निहार रहा है – कहीं ऐसा ना हो कि हम एक से अधिक मायनों में दूरदर्शिता के अभाव से ग्रसित हो जाएं।

हाल ही में साइंटिफिक रिपोर्ट्समें एक्स. एन. लियू द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि चीन में स्कूल जाने वाले बच्चों में देर से सोना मायोपिया का एक कारण हो सकता है। इस पेपर में शोधकर्ता बताते हैं कि कई वर्षों के अध्ययन से मायोपिया के लिए ज़िम्मेदार कई कारकों के बारे में पता चला है। जैसे, फैमिली हिस्ट्री, जेनेटिक कारण, शहरी जीवन शैली या परिवेश। अध्ययन यह भी बताता है कि सोने की कम अवधि और अच्छी नींद ना होना भी मायोपिया को जन्म दे सकते हैं। ये शरीर की सर्केडियन लय (जैविक घड़ी) में बाधा डालते हैं, खासकर मस्तिष्क में, और रेटिना को तनाव देते हैं। जल्दी सोना और गहरी नींद लेना मायोपिया की रोकथाम के उपाय हैं।

अंत में, हम जानते हैं कि वेब कक्षाओं के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षण और टेलीविज़न के माध्यम से पढ़ाई मुश्किल हो रही है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब बच्चों के लिए जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है। यह पद्धति लॉकडाउन के दिनों के लिए तो मुनासिब हो सकती है लेकिन हमेशा के लिए शिक्षण की पद्धति नहीं बनना चाहिए। स्कूल खोले जाने चाहिए और दिन में कक्षाएं लगना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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कुछ टीकों से एड्स जोखिम में वृद्धि की चेतावनी

हाल ही में दी लैंसेट पत्रिका में शोधकर्ताओं के एक समूह ने आगाह किया है कि कोविड-19 के कुछ टीकों से लोगों में एड्स वायरस (एचआईवी) के प्रति संवेदनशीलता बढ़ सकती है।

दरअसल साल 2007 में एडिनोवायरस-5 (Ad5) वेक्टर का उपयोग करके एचआईवी के लिए एक टीका बनाया गया था, जिसका प्लेसिबो-नियंत्रित परीक्षण किया गया था। परीक्षण में यह टीका असफल रहा और पाया गया कि जिन लोगों में एचआईवी संक्रमण की उच्च संभावना थी, टीका दिए जाने के बाद वे लोग एड्स के वायरस की चपेट में अधिक आए। इन नतीजों को देखते हुए दक्षिण अफ्रीका में चल रहे इसी टीके के अन्य अध्ययन को भी रोक दिया गया था।

अब, कोविड-19 की रोकथाम के लिए जो टीके बनाए जा रहे हैं उनमें से कुछ टीकों को बनाने में अलग-अलग एडिनोवायरस का उपयोग किया जा रहा है। विभिन्न एडिनोवायरस मामूली सर्दी-जुकाम, बुखार, डायरिया से लेकर तंत्रिका सम्बंधी समस्याओं तक के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। लेकिन कोविड-19 के चार प्रत्याशित टीकों में वेक्टर के रूप में एडिनोवायरस-5 का उपयोग किया गया है। इनमें से एक टीका चीन की केनसाइनो कंपनी द्वारा बनाया गया है, जिसका परीक्षण रूस और पाकिस्तान में लगभग 40,000 लोगों पर चल रहा है। इसके अलावा सऊदी अरब, ब्राज़ील, चिली और मेक्सिको में भी इसका परीक्षण करने का विचार है। एक अन्य टीका रूस के गेमालेया रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा तैयार किया गया है जिसमें उन्होंने Ad5 और Ad26 वेक्टर के संयोजन का उपयोग किया है। इम्यूनिटीबायो नामक कंपनी द्वारा बनाए गए Ad5 आधारित टीके को भी अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा मानव परीक्षण की मंज़ूरी मिल गई है। दक्षिण अफ्रीका में भी इसका परीक्षण होने की संभावना है।

चूंकि पूर्व में Ad5 आधारित टीके से लोगों में एचआईवी संक्रमण का जोखिम बढ़ गया था और अब कोविड-19 के लिए बने Ad5 आधारित टीकों का परीक्षण जल्द ही दक्षिण अफ्रीका जैसी उन जगहों पर भी शुरू होने की संभावना है जहां एचआईवी का प्रसार अधिक है, इसलिए एचआईवी टीके के अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं ने कोविड-19 के इन टीकों से एचआईवी संक्रमण का जोखिम बढ़ने की चेतावनी दी है। कोविड-19 रोकथाम नेटवर्क में शामिल लॉरेंस कोरे का मत है कि यदि कोविड-19 टीके के अन्य विकल्प हैं तो एचआईवी के जोखिम वाली जगहों पर ऐसे टीके नहीं चुनना चाहिए जिनसे एचआईवी का जोखिम और बढ़े। हालांकि यह तो पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि Ad5 आधारित टीका कैसे एचआईवी का जोखिम बढ़ाता है लेकिन लैंसेट में बताया गया है शायद यह एचआईवी इम्यूनिटी कम कर देता है, एड्स वायरस की प्रतियां बनाना बढ़ा देता है या अधिक कोशिकाएं मार गिराता है।

वहीं, इम्यूनिटीबायो कंपनी का कहना है कि पूर्व अध्ययन के परिणाम अस्पष्ट थे। नए टीके में Ad5 वायरस से चार ऐसे जीन्स हटा दिए गए हैं जो इस संभावना को ट्रिगर कर सकते हैं। उपयुक्त Ad5 वायरस 90 प्रतिशत उत्परिवर्तित है। इम्यूनिटीबायो ने दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिकों और नियामकों के साथ वहां अपने टीके का परीक्षण करने के जोखिमों पर चर्चा की है। और उन्हें लगता है कि कम जोखिम वाले लोगों पर इसका परीक्षण किया जा सकता है। हो सकता है टीका वास्तव में प्रभावी हो।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र से मधुमेह के उपचार की संभावना

ब तक मधुमेह के उपचार में औषधियों का या इंसुलिन का उपयोग किया जाता है। लेकिन अब सेल मेटाबॉलिज़्म पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन एक अन्य तरीके से मधुमेह के उपचार की संभावना जताता है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित चूहों को स्थिर विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में लाने पर उनमें इंसुलिन संवेदनशीलता बढ़ गई और रक्त शर्करा के स्तर में कमी आई। टाइप-2 मधुमेह वह स्थिति होती है जब शरीर में इंसुलिन बनता तो है लेकिन कोशिकाएं उसका ठीक तरह से उपयोग नहीं कर पातीं। दूसरे शब्दों में कोशिकाएं इंसुलिन-प्रतिरोधी हो जाती हैं, इंसुलिन के प्रति उनकी संवेदनशीलता कम हो जाती है।

आयोवा युनिवर्सिटी की वाल शेफील्ड लैब में कार्यरत केल्विन कार्टर कुछ समय पूर्व शरीर पर ऊर्जा क्षेत्र के प्रभाव का अध्ययन कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने ऐसे उपकरण बनाए जो ऐसा चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करें जो पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से 10 से 100 गुना अधिक शक्तिशाली और एमआरआई के चुम्बकीय क्षेत्र के हज़ारवें हिस्से के बीच का हो। चूहे इन धातु-मुक्त पिंजरों में उछलते-कूदते और वहां एक स्थिर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र बना रहता। इस तरह चूहों को प्रतिदिन 7 या 24 घंटे चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया।

एक अन्य शोधकर्ता सनी हुआंग को मधुमेह पर काम करते हुए चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापने की ज़रूरत थी। इसलिए कार्टर ने अपने अध्ययन के कुछ चूहे, जिनमें टाइप-2 मधुमेह पीड़ित चूहे भी शामिल थे, हुआंग को अध्ययन के लिए दे दिए। हुआंग ने जब चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापा तो पाया कि जिन चूहों को विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया था उन चूहों के रक्त में अन्य चूहों की तुलना में ग्लूकोज़ स्तर आधा था।

कार्टर को आंकड़ों पर यकीन नहीं आया। तब शोधकर्ताओं ने चूहों में शर्करा स्तर दोबारा जांचा। लेकिन इस बार भी मधुमेह पीड़ित चूहों की रक्त शर्करा का स्तर सामान्य निकला। इसके बाद हुआंग और उनके साथियों ने मधुमेह से पीड़ित तीन चूहा मॉडल्स में विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का प्रभाव देखा। तीनों में रक्त शर्करा का स्तर कम था और वे इंसुलिन के प्रति अधिक संवेदनशील थे। और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि चूहे विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में सात घंटे रहे या 24 घंटे।

पूर्व में हुए अध्ययनों से यह पता था कि कोशिकाएं प्रवास के दौरान विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग करती हैं, जिसमें सुपरऑक्साइड नामक एक अणु की भूमिका होती है। सुपरऑक्साइड आणविक एंटीना की तरह कार्य करता है और विद्युत व चुंबकीय संकेतों को पकड़ता है। देखा गया है कि टाइप-2 डायबिटीज़ के मरीज़ों में सुपरऑक्साइड का स्तर अधिक होता है और इसका सम्बंध रक्त वाहिनी सम्बंधी समस्याओं और मधुमेह जनित रेटिनोपैथी से है।

आगे जांच में शोधकर्ताओं ने चूहों के लीवर से सुपरऑक्साइड खत्म करके उन्हें विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में रखा। इस समय उनके रक्त शर्करा के स्तर और इंसुलिन की संवेदनशीलता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे लगता है कि सुपरऑक्साइड कोशिका-प्रवास के अलावा कई अन्य भूमिकाएं निभाता है।

शोधकर्ताओं की योजना मनुष्यों सहित बड़े जानवरों पर अध्ययन करने और इसके हानिकारक प्रभाव जांचने की है। यदि कारगर रहता है तो यह एक सरल उपचार साबित होगा।(स्रोत फीचर्स)

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कान बजने का झटकेदार इलाज

टिनिटस या कान बजने की समस्या से पीड़ित लोगों को लगातार कुछ बजने या भिनभिनाहट की आवाज़ सुनाई देती है। अब तक इसका कारण समझना और इलाज करना मुश्किल रहा है। लेकिन वैज्ञानिकों ने अब इसके पीड़ितों को कुछ खास ध्वनियां सुनाने के साथ जीभ में बिजली का झटका देकर लक्षणों को कम करने में सफलता पाई है। इलाज का असर साल भर रहा।

कुछ तरह की टिनिटस की समस्या में वास्तव में लोगों को कोई आवाज़ सुनाई देती है जैसे कान की मांसपेशियों में बार-बार संकुचन की आवाज़। लेकिन कई लोगों में इस समस्या का दोष मस्तिष्क का होता है, जो उन आवाज़ों को सुनता है जो वास्तव में होती ही नहीं हैं। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि श्रवण शक्ति कमज़ोर होने पर मस्तिष्क उन आवृत्तियों की कुछ अधिक ही पूर्ति करने लगता है जो व्यक्ति सुन नहीं सकता, परिणामस्वरूप कान बजने की समस्या होती है।

मिनेसोटा युनिवर्सिटी के बायोमेडिकल इंजीनियर ह्यूबर्ट लिम कुछ साल पहले 5 रोगियों की सुनने की क्षमता बहाल करने के लिए डीप ब्रेन स्टीमुलेशन तकनीक का परीक्षण कर रहे थे। मरीज़ों के मस्तिष्क में जब उन्होंने पेंसिल के आकार के इलेक्ट्रोड को सीधे प्रवेश कराया तो उनमें से कुछ इलेक्ट्रोड लक्षित क्षेत्र से थोड़ा भटक गए, जो एक आम बात है। मस्तिष्क पर प्रभाव जांचने के लिए जब डिवाइस शुरू की तब उनमें से एक मरीज़, जो कई सालों से कान बजने की समस्या से परेशान था, उसके कानों ने बजना बंद कर दिया।

इससे प्रेरित होकर लिम ने गिनी पिग पर अध्ययन किया और पता लगाया कि टिनिटस बंद करने के लिए शरीर के किस अंग को उत्तेजित करने पर सबसे बेहतर परिणाम मिलेंगे। उन्होंने कान, गर्दन सहित अन्य अंगों पर परीक्षण किए और पाया कि जीभ इसके लिए सबसे उचित स्थान है।

इसके बाद लिम ने टिनिटस से पीड़ित 326 लोगों पर परीक्षण किया। 12 हफ्तों के उपचार के दौरान पीड़ितों की जीभ पर एक-एक घंटे के लिए एक छोटा प्लास्टिक पैडल लगाया। पैडल में लगे छोटे इलेक्ट्रोड से जीभ पर बिजली का झटका देते हैं जिससे मस्तिष्क उत्तेजित होता है और विभिन्न सम्बंधित हिस्सों में हलचल होती है। जीभ पर ये झटके सोडा पीने जैसे महसूस होते हैं।

झटके देते वक्त मस्तिष्क की श्रवण प्रणाली को लक्षित करने के लिए प्रतिभागियों को हेडफोन भी पहनाए गए। जिसमें उन्होंने ‘इलेक्ट्रॉनिक संगीत’ जैसे पार्श्व शोर पर विभिन्न आवृत्तियों की खालिस ध्वनियां सुनी, जो एक के बाद एक तेज़ी से बदल रहीं थीं। झटकों के साथ ध्वनियां सुनाने के पीछे कारण था मस्तिष्क की संवेदनशीलता बढ़ाकर उसे भटकाना, ताकि वह उस गतिविधि को दबा दे जो कान बजने का कारण बनती है।

साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस उपचार से मरीज़ों में कान बजने के लक्षणों में नाटकीय रूप से सुधार हुआ। जिन लोगों ने ठीक से उपचार के निर्देशों का पालन किया उनमें से 80 प्रतिशत से अधिक लोगों में सुधार देखा गया। 1 से 100 के पैमाने पर उनमें टिनिटस की गंभीरता में लगभग 14 अंकों की औसत गिरावट देखी गई। और 12 महीनों बाद जांच करने पर भी लगभग 80 प्रतिशत लोगों में टिनिटस की गंभीरता कम दिखी, तब उनमें 12.7 से लेकर 14.5 अंक तक की गिरावट थी। लेकिन कुछ शोधकर्ता ध्यान दिलाते हैं कि अध्ययन में कोई नियंत्रण समूह नहीं था, जिसके बिना यह बताना असंभव है कि सुधार किस कारण से हुआ।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोनावायरस की जांच अब सिर्फ 5 मिनट में

न हाल ही में शोधकर्ताओं ने CRISPR तकनीक की मदद से एक ऐसा नैदानिक परीक्षण विकसित किया है जिससे केवल 5 मिनट में कोरोनावायरस का पता लगाया जा सकता है। और तो और, इसके निदान के लिए महंगे उपकरणों की आवश्यकता भी नहीं होगी और इसे क्लीनिक, स्कूलों और कार्यालय भवनों में स्थापित किया जा सकता है।

युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के आणविक जीव विज्ञानी मैक्स विल्सन इस खोज को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं। वास्तव में CRISPR तकनीक की मदद से शोधकर्ता कोरोनावायरस जांच को गति देने की कोशिश करते रहे हैं। इससे पहले इसी तकनीक से जांच में 1 घंटे का समय लगता था जो पारंपरिक जांच के लिए आवश्यक 24 घंटे की तुलना में काफी कम था।     

CRISPR परीक्षण सार्स-कोव-2 के विशिष्ट 20 क्षार लंबे आरएनए अनुक्रम की पहचान करता है। पहचान के लिए वे ‘गाइड’ आरएनए का निर्माण करते हैं जो लक्षित आरएनए के पूरक होते हैं। जब यह गाइड लक्ष्य आरएनए के साथ जुड़ जाता है तब CRISPR-Cas13 सक्रिय हो जाता है और अपने नज़दीक इकहरे आरएनए को काट देता है। इस काटने की प्रक्रिया में परीक्षण घोल में फ्लोरेसेंट कण मुक्त होते हैं। इन नमूनों पर जब लेज़र प्रकाश डाला जाता है तब फ्लोरेसेंट कण चमकने लगते हैं जो वायरस की उपस्थिति का संकेत देते हैं। हालांकि, प्रारंभिक CRISPR जांचों में शोधकर्ताओं को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी जिसमें आरएनए को काफी आवर्धित करना पड़ता था। ऐसे में इस प्रयास में जटिलता, लागत, समय तो लगा ही साथ ही दुर्लभ रासायनिक अभिकर्मकों पर भी काफी दबाव रहा।

लेकिन, इस वर्ष की नोबेल पुरस्कार विजेता और CRISPR की सह-खोजकर्ता जेनिफर डाउडना ने एक ऐसा CRISPR निदान खोज निकला है जिसमें कोरोनावायरस आरएनए को आवर्धित नहीं किया जाता। डाउडना की टीम ने इस जांच की प्रभाविता बढ़ाने के लिए सैकड़ों गाइड आरएनए को आज़माया। उन्होंने दावा किया था कि प्रति माइक्रोलीटर घोल में मात्र 1 लाख वायरस हों तो भी पता चल जाता है। एक अन्य गाइड आरएनए जोड़ दिया जाए तो प्रति माइक्रोलीटर में मात्र 100 वायरस होने पर भी पता चल जाता है।   

यह जांच पारंपरिक कोरोनावायरस निदान के समान नहीं है। फिर भी उनका ऐसा मानना है कि इस नई तकनीक से 5 नमूनों के एक बैच में परिणाम काफी सटीक होते हैं और प्रति परीक्षण मात्र 5 मिनट का समय लगता है जिसके लिए पहले 1 दिन या उससे अधिक समय लगता था।

विल्सन के अनुसार इस परीक्षण में फ्लोरेसेंट सिग्नल की तीव्रता वायरस की मात्रा को भी दर्शाती है, जिससे न केवल पॉज़िटिव मामलों का पता लगता है बल्कि रोगी में वायरस की मात्रा का भी पता लग जाता है। फिलहाल डाउडना और उनकी टीम अपने परीक्षणों को मान्यता दिलवाकर बाज़ार में लाने के प्रयास कर रही है।(स्रोत फीचर्स)

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