मधुमक्खियों की भूमिगत दुनिया

पको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मधुमक्खियों की कई प्रजातियां अपना अधिकांश जीवन ज़मीन के नीचे बिताती हैं जहां वे छत्ते बनाती हैं। हाल ही में उन्नत एक्स-रे तकनीक की मदद से शोधकर्ताओं ने भूमिगत मधुमक्खियों की गुप्त दुनिया को खोज निकाला है। अब वे इन छत्तों के निर्माण और मिट्टी की सेहत पर इनके प्रभाव को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

लगभग 85 प्रतिशत मधुमक्खी प्रजातियां अपने छत्ते ज़मीन के नीचे बनाती हैं लेकिन इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि ये जटिल संरचनाएं कैसे बनाई जाती हैं। इनके अध्ययन के लिए छत्तों को खोदना पड़ता है। एक तरीका यह है कि छत्ते में टैल्कम पाउडर डालकर खुदाई की जाए ताकि छत्ते की दीवारें अलग चमकें। फिर मिट्टी की एक-एक परत हटाकर छत्ते का चित्र बनाते जाना होता है। एक अन्य तरीका यह रहा है कि मधुमक्खी को प्रयोगशाला में पालकर उसे भूमिगत छत्ता बनाने दिया जाए। लेकिन इन तकनीकों से घोंसलों के त्रि-आयामी आकार की केवल एक सीमित तस्वीर ही बन पाती है।

इनकी त्रि-आयामी संरचना को समझने के लिए स्वीडिश युनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज़ के मृदा वैज्ञानिक थॉमस केलर ने अस्पतालों में इस्तेमाल की जाने वाली सीटी स्कैनिंग तकनीक का उपयोग किया। इस तरह मधुमक्खियों की दो मुख्य प्रजातियों, खनिक मधुमक्खी (कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस) और स्वेद मधुमक्खी (लेज़ियोग्लॉसम मैलाचरम), के छत्तों का खुलासा किया गया। कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस एकाकी जीव है; हरेक मादा अपना घोंसला अकेले बनाती है, खुद ही पराग इकट्ठा करती है और छत्ता छोड़ने से पहले अंडे देती है। दूसरी ओर, लेज़ियोग्लॉसम मैलाचरम सामुदायिक रूप से प्रजनन करती है, कई पीढ़ियां साथ रहती हैं और यह समूह छत्ते को निरंतर विस्तार देता रहता है।

इन मधुमक्खियों का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने स्विट्जरलैंड के घास के मैदानों की विभिन्न प्रकार की मिट्टियों का चयन किया। उन्होंने ज़मीन के भीतर 20 सेंटीमीटर चौड़े प्लास्टिक के पाइप डाले जहां मधुमक्खियां सक्रिय थीं और एक महीने बाद लेज़ियोग्लोसम मैलाचरम इन पाइपों को बाहर निकालकर सीटी स्कैनर से छत्तों को स्कैन किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस का छत्ता सरल लंबवत था, जबकि लेज़ियोग्लोसम मैलाचरम का छत्ता कहीं अधिक जटिल था।

मधुमक्खियों की गतिविधियों का मिट्टी की संरचना पर महत्वपूर्ण प्रभाव दिखा। छत्तों में इल्लियों के लिए बनाए प्रकोष्ठ मिट्टी में उपस्थित अन्य छिद्रों (जैसे जड़ों या कृमियों द्वारा बनाए गए छिद्रों) की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ थे क्योंकि इन्हें पत्तियों और पंखुड़ियों का अस्तर लगाकर वॉटरप्रूफ किया गया था। एक सुराख तो 16 महीने के अध्ययन में महफूज़ रहा।

हालांकि इस प्रकार के अध्ययन के लिए बड़े सीटी स्कैनर का व्यापक स्तर पर उपयोग करना तो संभव नहीं है लेकिन आज की उन्नत तकनीकों की मदद से शोधकर्ता यह तो पता लगा ही सकते हैं कि क्या मधुमक्खियां अपने भूमिगत छत्ते की डिज़ाइन को मिट्टी की किस्म और जलवायु के अनुसार ढालती हैं। इसके अतिरिक्त, वे यह भी पता लगा सकते हैं कि क्या कुछ परिस्थितियां उनके प्रजनन में मददगार होती हैं। इस आधार पर इनके संरक्षण के प्रयास किए जा सकते हैं।

फिलहाल शोधकर्ताओं का उद्देश्य यह पता लगाना है कि खेतों की जुताई जैसी प्रथाएं मधुमक्खियों को कैसे प्रभावित करती हैं। उम्मीद है कि यह अध्ययन नीति निर्माताओं को जंगली मधुमक्खियों की आबादी को बढ़ावा देने सम्बंधी महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पतंगों की साइज़ के चमगादड़

हाल ही में शोधकर्ताओं ने फिजी के दूर-दराज द्वीप वनुआ बालावु पर पतंगों की साइज़ के चमगादड़ों का नया आवास खोज निकाला है। इस अभियान में शोधकर्ताओं को न सिर्फ प्रशांत द्वीप में सबसे अधिक चमगादड़ आबादी (तकरीबन 2000 से 3000) वाली गुफा मिली है बल्कि विलुप्ति की ओर अग्रसर इस जीव को बचाने के प्रति कुछ आशा भी जगी है।

गैर-मुनाफा संगठन कंज़र्वेशन इंटरनेशनल के नेतृत्व में किए गए इस अभियान में शोधकर्ता चमगादड़ों की गुफा तक स्थानीय लोगों की मदद से पहुंचे। यह एक गिरजाघर जितनी बड़ी कंदरा थी। यहीं उन्हें ठसाठस भरे म्यान जैसी पूंछ वाले चमगादड़ (एम्बालोनुरा सेमिकॉडैटा सेमीकॉडैटा) मिले।

इन चमगादड़ों के फर मुलायम, चॉकलेटी-भूरे रंग के होते हैं। ये चार सेंटीमीटर लंबे होते हैं और इनका वज़न अधिक से अधिक पांच ग्राम तक होता है। ये छोटे-छोटे कीटों को खाते हैं। मनुष्यों द्वारा प्रशांत महासागर पार करने और इन द्वीपों पर बसने से कुछ लाख साल पहले ये चमगादड़ उड़कर आए और यहां बस गए थे।

गौरतलब है कि प्रशांत द्वीप समूहों पर चमगादड़ों की 191 प्रजातियां ज्ञात हैं; इनमें कीटभक्षी चमगादड़ से लेकर पेड़ों पर लटकने वाले और फलाहारी उड़न-लोमड़ी चमगादड़ तक रहते हैं। इस क्षेत्र में लोग चमगादड़ों की विष्ठा (गुआनो) उर्वरक के तौर पर इकट्ठा करते हैं तथा भोजन के लिए उनका शिकार करते हैं। यहां तक कि सोलोमन द्वीप के लोग इनके दांतों का उपयोग पारंपरिक मुद्रा के रूप में भी करते हैं। इसके अलावा, कीटभक्षी चमगादड़ अपने आसपास के पारिस्थितिक तंत्र में फसल के कीटों और रोग फैलाने वाले मच्छरों को नियंत्रित करके महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

म्यान जैसी पूंछ वाले चमगादड़ किसी समय प्रशांत क्षेत्र में सबसे अधिक पाए जाने वाले स्तनधारियों में से थे, लेकिन अब इन पर विलुप्ति का संकट सबसे अधिक है। करीब सौ साल पहले तक ये गुआम से लेकर अमेरिकी समोआ तक पाए जाते थे। लेकिन आज महज चार उप-प्रजातियां माइक्रोनेशिया और फिजी के ही कुछ द्वीपों पर बची हैं और इनकी संख्या लगातार घट रही है।

चमगादड़ों के कुछ महत्वपूर्ण बसेरे अब पूरी तरह से चमगादड़ विहीन हो गए हैं। 2018 में वनुआ बालावु से लगभग 120 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में तवेउनी द्वीप पर एक गुफा में लगभग 1000 ऐसे चमगादड़ मिले थे लेकिन 2019 तक जंगलों के सफाए के कारण चंद सैकड़ा ही बचे थे।

इस अभियान से जुड़ी संरक्षण विज्ञानी सितेरी टिकोका का कहना है कि वनुआ बालावु की गुफा में ऐसा भरा-पूरा चमगादड़ का बसेरा मिलना सुखद था; इसने इनके बचने की आशा को फिर से जगा दिया है। लेकिन तवेउनी की स्थिति से सबक लेना चाहिए, जहां हम देख चुके हैं कि सिर्फ एक वर्ष में ही स्थिति कितनी बदल सकती है। यदि हमने इनके संरक्षण के लिए ज़रूरी कदम तत्काल नहीं उठाए तो ये चमगादड़ पूरी तरह लुप्त हो जाएंगे। स्थानीय लोगों का सहयोग भी ज़रूरी है क्योंकि स्पष्ट है कि स्थानीय लोगों ने ही इस जगह, इन गुफाओं और चमगादड़ों की देखभाल की है और बचाए रखा है।(स्रोत फीचर्स)

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सिर्फ मनुष्य ही मोटे नहीं होते

मोटापे की समस्या हम मनुष्यों के लिए तो अब आम बात हो गई है। कई बार तो हमें सबसे मोटा प्राइमेट भी कहा जाता है और इसके लिए लंबे समय से वैज्ञानिक या तो हमारे उन जीन्स को दोष देते आए हैं जो हमें अधिक वसा संग्रहित करने में मदद करते हैं, या फिर हमारे मीठे और तले-भुने खाने की आदत को।

लेकिन यदि आप कांगो गणराज्य जाएंगे तो पाएंगे कि वहां चिम्पैंज़ी इतने मोटे होते हैं कि उन्हें पेड़ों पर चढ़ने में परेशानी होती है, या वर्वेट बंदर इतने मोटे मिलेंगे कि एक शाखा से दूसरी शाखा पर छलांग लगाते हुए वे हाफंने लगेंगे।

और अब गैर-मानव प्राइमेट्स की 40 प्रजातियों (छोटे माउस लीमर्स से लेकर हल्किंग गोरिल्ला तक) पर हुए एक नए अध्ययन में पाया गया है कि अतिरिक्त भोजन मिलने पर इन प्रजातियां में भी उतनी ही आसानी से वज़न बढ़ जाता है जितनी आसानी से हम मनुष्य मोटे हो जाते हैं।

कुछ वैज्ञानिकों का मानना था कि हमारी प्रजाति (होमो सैपिएन्स) ही मोटापे से ग्रसित है क्योंकि हमारे पूर्वज कैलोरी का भंडारण बहुत दक्षता से करने के लिए विकसित हुए थे। इस विशेषता से हमारे प्राचीन खेतिहर सम्बंधियों को अक्सर पड़ने वाले अकाल के समय इस संग्रहित वसा से मदद मिलती होगी। कहा यह गया कि इसी चीज़ ने हमें बाकी प्राइमेट्स से अलग किया।

लेकिन देखा जाए तो अन्य प्राइमेट भी मोटाते हैं। कांजी नामक बोनोबो वानर शोध-अनुसंधानों के दौरान केले, मूंगफली और अन्य व्यंजनों से पुरस्कृत होकर अपनी प्रजाति के औसत से तीन गुना अधिक वज़नी हो गया था। इसी प्रकार से, बैंकॉक की सड़कों पर अंकल फैटी नामक मकाक वानर भी इसी का उदाहरण है जो पर्यटकों द्वारा दिए गए मिल्कशेक, नूडल्स और अन्य जंक फूड खा-खाकर मोटा हो गया था; वज़न औसत से तीन गुना अधिक (15 किलोग्राम) था।

ये वानर अपवादस्वरूप मोटे हुए थे या इनमें भी मोटे होने की कुदरती संभावना होती है, यह जानने के लिए ड्यूक युनिवर्सिटी के जैविक नृविज्ञानी हरमन पोंटज़र ने चिड़ियाघरों, अनुसंधान केंद्रों और प्राकृतिक हालात में रहने वाले गैर-मानव प्राइमेट्स की 40 प्रजातियों के कुल 3500 जानवरों का प्रकाशित वज़न देखा और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि बंदी अवस्था (चिड़ियाघर वगैरह) में रखे गए कई जानवरों के वज़न औसत से अधिक थे। बंदी अवस्था में 13 प्रजातियों की मादा और छह प्रजातियों के नर जानवरों का वज़न प्राकृतिक की तुलना में औसतन 50 प्रतिशत अधिक था।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने पश्चिमी आहार पाने वाले लगभग 4400 अमेरिकी वयस्कों (मनुष्यों)का वज़न देखा। तुलना के लिए नौ ऐसे समुदाय के वयस्कों का वज़न देखा जो भोजन संग्रह और शिकार करते हैं, या अपना भोजन खुद उगाते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि कद को ध्यान में रखें तो अमेरिकी लोग इन समुदाय के लोगों से 50 प्रतिशत अधिक वज़नी हैं।

फिलॉसॉफिकल ट्रांज़ेक्शन ऑफ रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि हालांकि जेनेटिक कारणों से कुछ व्यक्तियों में मोटापे का खतरा बढ़ सकता है, लेकिन हमारा बज़न बढ़ना बाकी प्राइमेट्स से भिन्न नहीं है। पोंटज़र कहते हैं कि वज़न बढ़ने के पीछे कार्बोहाइड्रेट्स या किसी विशेष भोजन को दोष न दें। जंगली प्राइमेट अपने बंदी साथियों की तुलना में कहीं अधिक कार्बोहाइड्रेट खाते हैं, जबकि बंदी जानवर अधिक कैलोरी-अधिक प्रोटीन वाला भोजन खाते हैं। दोनों समूहों के दैनिक व्यायाम सम्बंधी गतिविधियों में अंतर के बावजूद दोनों समूह के जानवर प्रतिदिन समान मात्रा में कैलोरी खर्च करते हैं। इसलिए ऐसी बात नहीं है कि बंदी जानवर इसलिए मोटे हैं कि वे बस आराम से पड़े रहते हैं और खाते रहते हैं।

अध्ययन सुझाता है कि बंदी प्राइमेट मानव मोटापे को समझने के लिए अच्छे मॉडल हो सकते हैं, इनसे मोटापे के इलाज के नए तरीके खोजने में मदद मिल सकती है।(स्रोत फीचर्स)

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कोरल भी खेती करते हैं शैवाल की

बीगल नौका पर सवार होकर दक्षिणी प्रशांत महासागर से गुज़रते हुए डारविन इस सवाल से परेशान रहे थे: बंजर समुद्र में कोरल (मूंगा) फलते-फूलते कैसे हैं? इसे डारविन की गुत्थी भी कहा जाता है। और अब नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन ने हमें इसके जवाब के नज़दीक पहुंचा दिया है।

शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि कोरल पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति उन पर उगने वाली शैवाल को खाकर करते हैं। यह तो काफी समय से पता रहा है कि कोरल का उन एक-कोशिकीय शैवालों के साथ परस्पर लाभ का सम्बंध रहता है जो उन पर पनपते हैं और उन्हें अपना ‘घर’ मानते हैं। कोरल की पनाह में शैवाल समुद्र के कठिन वातावरण से सुरक्षा पाते हैं और कोरल के अपशिष्ट पदार्थों का उपयोग भोजन के रूप में करते हैं। बदले में ये शैवाल सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को भोज्य पदार्थों में बदलते हैं जिनका उपयोग वे स्वयं तथा अपने मेज़बान कोरल के पोषण हेतु करते हैं। इसके अलावा कोरल बहकर आने वाले जंतु-प्लवकों का भक्षण भी करते हैं।

लेकिन दुनिया भर में फैली विशाल कोरल चट्टानों का काम इतने भर से नहीं चलता। और सबसे बड़ी परेशानी यह है कि यहां नाइट्रोजन और फॉस्फोरस जैसे पोषक पदार्थों का अभाव होता है।

अलबत्ता, आसपास रहने वाले जीव-जंतु काफी मात्रा में अकार्बनिक नाइट्रोजन व फॉस्फोरस का उत्सर्जन करते हैं, जिसका उपभोग कोरल पर बसे शैवाल कुशलतापूर्वक कर सकते हैं। तो साउथेम्पटन विश्वविद्यालय के यॉर्ग वाइडेलमैन को विचार आया कि क्या शैवाल ये पोषक तत्व अपने कोरल मेज़बानों को प्रदान करते हैं।

जानने के लिए वाइडेलमैन की टीम ने कोरल (शैवाल सहित) नमूनों को कुछ टंकियों में रखा जिनमें कोई भोजन नहीं था। इनमें से आधी टंकियों में उन्होंने ऐसे अकार्बनिक पोषक तत्व डाले जिनका उपयोग कोरल पर बसने वाली शैवाल ही कर सकती थी। पोषक तत्वों से रहित टंकियों में कोरल की वृद्धि रुक गई और 50 दिनों के अंदर उनके लगभग आधे शैवाल साथी गुम हो गए। लेकिन जिन टंकियों में शैवाल को भोजन मिला था उनमें कोरल की वृद्धि उम्दा रही।

यह तो पहले से पता था कि शैवाल प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए कोरल को ऊर्जा उपलब्ध कराते हैं लेकिन उक्त परिणामों से लगता है कि वे अकार्बनिक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस को कोरल के लिए उपयुक्त रूप में बदल देते हैं। लेकिन वे ये पोषक तत्व कोरल को कैसे हस्तांतरित करते हैं, यह एक रहस्य ही बना रहा था।

विचार यह आया कि शायद कोरल इन शैवाल का भक्षण करते हैं। इसे समझने के लिए टीम ने यह हिसाब लगाया कि पोषक तत्वों की दी गई मात्रा से कोरलवासी शैवाल की आबादी में कितनी वृद्धि अपेक्षित है। फिर इसकी तुलना टंकियों में शैवाल कोशिकाओं की वास्तविक संख्या से की गई। इन कोशिकाओं की संख्या अपेक्षा से काफी कम थी। और तो और, जो कोशिकाएं नदारद थीं, उनके जितने नाइट्रोजन और फॉस्फोरस लगते, उतने ही कोरल को उतना बड़ा करने के लिए ज़रूरी थे। यानी कोरल्स शैवाल का शिकार कर रहे थे।

यह तो हुई टंकियों की बात। इस परिघटना को प्रकृति में देखने के लिए टीम ने हिंद महासागर के चागोस द्वीपसमूह में कोरल चट्टानों की वृद्धि का अवलोकन किया। यहां के कुछ द्वीपों पर समुद्री पक्षियों का घनत्व काफी अधिक है। और पक्षियों की बीट में ऐसे अकार्बनिक पोषक पदार्थ होते हैं जिनका उपयोग शैवाल सीधे-सीधे कर सकते हैं लेकिन कोरल नहीं कर सकते। तीन वर्षों की अवधि में टीम ने देखा कि पक्षियों के अधिक घनत्व वाले द्वीपों पर कोरल की वृद्धि कम घनत्व वाले द्वीपों की अपेक्षा दुगनी थी। इसके अलावा, पक्षियों के उच्च घनत्व वाले द्वीपों के तटवर्ती कोरल में नाइट्रोजन का एक ऐसा रूप भी पुन: दिखने लगा था जो पक्षियों की बीट में तो होता है लेकिन जंतु-प्लवकों में नहीं। अर्थात यह ज़रूर शैवालों के ज़रिए कोरल को मिला होगा।

पूरे मामले की सबसे मज़ेदार बात यह है कि इस अध्ययन में एक सजीवों के बीच के जटिल जैविक सम्बंध की खोज करने के लिए वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों और प्रकृति में प्रत्यक्ष अवलोकनों का सुंदर मिला-जुला इस्तेमाल किया है।(स्रोत फीचर्स)

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गर्माते समुद्र पेंगुइन का प्रजनन दूभर कर सकते हैं

म्परर पेंगुइन अच्छी तरह जमी हुई समुद्री बर्फ वाले इलाकों में ही प्रजनन और अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। उनके प्रजनन क्षेत्रों के आसपास की बर्फ पिघल कर टूटने लगे तो वे स्थान बदल लेते हैं लेकिन इससे उनका प्रजनन प्रभावित होता है। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि हाल ही में जलवायु परिवर्तन के चलते अंटार्कटिका के आसपास के समुद्र गर्म होने से मौसम के पहले ही बर्फ टूटने लगी है, जिसके कारण पेंगुइन अपने प्रजनन स्थल से पलायन कर गए हैं।

ब्रिटिश अंटार्कटिका सर्वेक्षण लगभग पिछले 15 सालों से उपग्रह द्वारा अंटार्कटिका में पेंगुइन बस्तियों की निगरानी कर रहा है। पिछले साल रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ और भूगोलविद पीटर फ्रेटवेल और उनके साथियों ने अक्टूबर के अंत में कुछ स्थानों पर समुद्री बर्फ टूटते हुए देखी थी। एम्परर पेंगुइन प्रजनन के लिए इन स्थानों पर मार्च-अप्रैल में पहुंचते हैं। अगस्त-सितंबर के बीच उनके अंडों से चूज़े निकलते हैं और दिसंबर और जनवरी तक इनके पंख विकसित हो पाते हैं। यदि चूज़ों के परिपक्व होने के पहले ही समुद्री बर्फ टूट जाएगी तो बच्चे डूब जाएंगे या फ्रीज़ हो जाएंगे। यानी अक्टूबर में बर्फ का बिखरना पेंगुइन के लिए निश्चित खतरा होगा।

हुआ भी वही। उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि जब 2022 में समुद्री बर्फ टूटी तो अक्टूबर के अंत में पेंगुइन की एक बस्ती ने वह स्थान छोड़ दिया था। दिसंबर की शुरुआत में पेंगुइन के तीन अन्य समूह वहां से चले गए। सिर्फ सुदूर उत्तर में स्थित रोथ्सचाइल्ड द्वीप पर एक बस्ती बची रही और सफलतापूर्वक अपने चूज़ों को पाल पाई।

ऐसा अनुमान है कि अंटार्कटिका में एम्परर पेंगुइन के कुल प्रजनन जोड़े करीब 2,50,000 हैं। पिछले साल बेलिंगशॉसेन में लगभग 10,000 जोड़े प्रभावित हुए थे। वैसे तो यह आपदा उतनी बड़ी नहीं लगती। पेंगुइन की उम्र 20 साल होती है तो इनमें से अधिकांश पेंगुइन अगले साल फिर प्रजनन कर लेंगी। लेकिन लगातार ऐसी स्थिति रही तो हालात मुश्किल होंगे। मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर फ्रेटवेल का अनुमान है कि यह साल भी पांचों बस्तियों के लिए उतना ही बुरा होगा। पूर्व में भी समुद्री बर्फ की स्थिति बदलने के चलते ऐसी स्थितियां बनी हैं जब पेंगुइन के लिए प्रजनन मुश्किल हुआ है। कार्बन उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है, और कार्बन उत्सर्जन समुद्र के गर्माने में बड़ा योगदान देता है। हालात इसी तरह बदलते रहे तो यह पूरा का पूरा क्षेत्र ही पेंगुइन के लिए अनुपयुक्त हो जाएगा और उन्हें अपने लिए वैकल्पिक स्थान ढूंढना भी मुश्किल हो जाएगा। संभव है कि अगले कुछ वर्षों में उनकी कॉलोनियां विलुप्त हो जाएंगी।

यदि हम कार्बन उत्सर्जन को तत्काल कम करते हैं तो पेंगुइन के लिए महफूज़ बचे स्थान सलामत रहेंगे। साथ ही इस क्षेत्र में मछली पकड़ने पर रोक लगाकर पेंगुइन के लिए पर्याप्त भोजन संरक्षित रखा जा सकता है और पर्यटन को कम करके उनके लिए तनावमुक्त माहौल सुनिश्चित किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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फल मक्खियां झूला झूलने का आनंद लेती हैं!

च्चे हों या बड़े झूला झूलने में मज़ा सबको आता है। और अब, हालिया अध्ययन से लगता है कि इसका मज़ा फल मक्खियां भी लेती हैं। एक अध्ययन में देखा गया है कि कुछ फल मक्खियां खुद से बार-बार चकरी जैसे गोल-गोल घूमते ‘झूले’ पर चढ़ रही थीं, जिससे लगता है कि उन्हें झूला झूलना अच्छा लग रहा था।

बायोआर्काइव्स प्रीप्रिंट में प्रकाशित यह अध्ययन अकशेरूकी जीवों में खेलकूद या मनोरंजन के प्रमाण भी देता है और कीटों में लोकोमोटर खेल का पहला उदाहरण है। लोकोमोटर खेल वे खेल होते हैं जिसमें स्वयं खिलाड़ी के शरीर में हरकत होती है जैसे दौड़ना, कूदना या झूलना। वैसे पूर्व में मधुमक्खियों को वस्तु के साथ खेल, और ततैया और मकड़ियों को सामाजिक खेल खेलते देखा गया है।

दरअसल कुछ साल पहले कॉन्सटेन्ज़ युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी वुल्फ हटरॉथ ने देखा था कि एक बत्तख तेज़ बहती नदी में बहते हुए कुछ दूरी बहने के बाद उड़कर लौटती और फिर बहकर नीचे चली जाती। वे सोचने लगे कि वह ऐसा व्यवहार क्यों करती है और क्या मक्खियां (या कीट) भी ऐसा करते हैं।

यह देखने के लिए हटरॉथ और उनके साथी टिलमन ट्रिफान ने चकरी जैसा घूमने वाला झूला बनाया। फिर उन्होंने प्रयोगशाला में में नर फल मक्खियों (ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर) को कूदकर झूले पर चढ़ने का मौका दिया। उन्होंने देखा कि कुछ फल मक्खियों ने झूले को नज़रअंदाज़ किया लेकिन कुछ फल मक्खियों का व्यवहार ऐसा था मानो वे डिज़्नीलैंड में हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों के एक समूह ने अपने दिन का 5 प्रतिशत या उससे अधिक समय झूले पर बिताया। और जब उन्होंने दो झूले रखे जो बारी-बारी घूमते थे तो कुछ फल मक्खियां उन झूलों पर चली जाती थीं जो घूम रहे होते थे। और एक मक्खी तो थोड़ी देर झूला झूलती, फिर उससे उतर जाती और फिर वापस थोड़ा और झूलने चली जाती थी।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों को स्थान के बारे में अच्छी समझ होती हैं, इसलिए यदि उन्हें गोल घूमना पसंद नहीं आएगा तो वे झूले की सवारी नहीं करेंगी, जैसा कि कुछ ने किया भी। लेकिन अधिकतर मक्खियां ऐसी थीं जिन्होंने न तो झूले का लुत्फ उठाया, न परहेज किया। इसलिए ऐसा लगता है कि (कम से कम कुछ) मक्खियां झूले पर सवारी का आनंद ले रही थीं।

बहरहाल, शोधकर्ता पक्के तौर पर यह कहने में झिझक रहे हैं कि मक्खियां को झूलने में मज़ा आता है क्योंकि वे अभी यह नहीं जान पाए हैं कि मक्खियां ऐसा क्यों करती हैं।

शोधकर्ता इस व्यवहार में शामिल तंत्रिका तंत्र को समझना चाहते हैं। इससे यह समझने में मदद मिल सकती है कि मक्खियों (या किसी अन्य जीव) को लोकोमोटर खेल से क्या फायदा हो सकता है? इस तरह के खेल व्यवहार का महत्व क्या है? क्या यह किसी भी चीज़ के लिए अच्छा है? वगैरह।(स्रोत फीचर्स)

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छत्ता निर्माण की साझा ज्यामिति

हाल ही में मधुमक्खियों और ततैयों पर किए गए एक अध्ययन से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए हैं। प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जैव विकास की राह में 18 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ने के बावजूद मधुमक्खियों और ततैयों दोनों समूहों ने छत्ता निर्माण की जटिल ज्यामितीय समस्या से निपटने के लिए एक जैसी तरकीब अपनाई है।

गौरतलब है कि मधुमक्खियों और ततैयों के छत्ते छोटे-छोटे षट्कोणीय प्रकोष्ठों से मिलकर बने होते हैं। इस प्रकार की संरचना में निर्माण सामग्री कम लगती है, भंडारण के लिए अधिकतम स्थान मिलता है और स्थिरता भी रहती है। लेकिन रानी मक्खी जैसे कुछ सदस्यों के लिए बड़े आकार के प्रकोष्ठ बनाना होता है और उनको समायोजित करना एक चुनौती होती है। यदि कुछ प्रकोष्ठ का आकार बड़ा हो जाए तो ये छत्ते में ठीक से फिट नहीं होंगे और छत्ता कमज़ोर बनेगा।

मामले की छानबीन के लिए ऑबर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मधुमक्खी और ततैया की कई प्रजातियों के छत्तों का विश्लेषण किया और पाया कि दोनों जीव इस समस्या के समाधान के लिए एक जैसी तरकीब अपनाते हैं। यदि छोटे और बड़े प्रकोष्ठ की साइज़ में अंतर बहुत अधिक न हो तो वे बीच-बीच में थोड़े विकृत मध्यम आकार के षट्कोणीय प्रकोष्ठ बना देते हैं। यदि आकार का अंतर अधिक हो तो वे बीच-बीच में प्रकोष्ठों की ऐसी जोड़ियां बना देते हैं जिनमें से एक प्रकोष्ठ पांच भुजाओं वाला और दूसरा सात भुजाओं वाला होता है।

शोधकर्ताओं ने इसका एक गणितीय मॉडल भी तैयार किया जो बड़े और छोटे षट्कोणों के आकार में असमानता के आधार पर बता सकता है कि प्रकोष्ठों की साइज़ में कितना अंतर होने पर पंचभुज व सप्तभुज प्रकोष्ठों की कितनी जोड़ियां लगेंगी। अत: भले ही मधुमक्खियों और ततैयों ने स्वतंत्र रूप से षट्कोणीय प्रकोष्ठों से छत्ता बनाने की क्षमता विकसित की हो लेकिन लगता है कि वे इन्हें बनाने के लिए एक जैसे गणितीय सिद्धांतों का उपयोग करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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गुदगुदी कहां से नियंत्रित होती है

में, और खासकर छोटे बच्चों को, गुदगुदी का खेल पसंद आता है। लेकिन गुदगुदी, खेल-मनोरंजन या स्तनधारियों के ऐसे ही सकारात्मक व्यवहारों को बहुत कम समझा गया है। इसके विपरीत आक्रामकता या डर जैसे व्यवहारों को समझने के लिए काफी अध्ययन हुए हैं।

हम्बोल्ट विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी माइकल ब्रेख्त की रुचि यह समझने में थी कि खेल के सुखद अहसास कहां से आते हैं। पूर्व में देखा जा चुका था कि कुछ कृंतकों को मनोरंजन पसंद होता है। और यदि वे अच्छे मूड और अनुकूल महौल में हैं तो गुदगुदी का आनंद लेते हैं, और इंसानों की हंसी के समान उच्च आवृत्ति की आवाज़ें निकालते हैं। न्यूरॉन में प्रकाशित हालिया अध्ययन के मुताबिक शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में इस आनंद के लिए ज़िम्मेदार क्षेत्र की पहचान कर ली है।

पूर्व अध्ययन बताते हैं कि चूहों में चेतना और अन्य उच्च श्रेणि के व्यवहार के लिए ज़िम्मेदार मस्तिष्क का क्षेत्र (कॉर्टेक्स) पूरा नष्ट हो जाने के बाद भी वे खेलकूद जारी रखते हैं। इससे पता चलता है कि डर की तरह खेल (या मनोरंजन) भी नैसर्गिक है। कुछ अध्ययन बताते हैं कि पेरिएक्वाडक्टल ग्रे (पीएजी) नामक एक संरचना की भी इसमें भूमिका हो सकती है जो ध्वनि, ‘लड़ो-या-भागो’ प्रतिक्रिया और अन्य व्यवहारों में भूमिका निभाती है। जब चूहे एक-दूसरे के साथ लड़ाई-लड़ाई खेलते हैं तो वे भय और आक्रामकता जैसा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। इसलिए ब्रेख्त को लगा कि पीएजी या मस्तिष्क का ऐसा ही कोई क्षेत्र मनोरंजन में भागीदार हो सकता है।

वे अपने पूर्व अध्ययन में देख चुके थे कि चूहे इंसानों की तरह पेचीदा खेल खेल सकते हैं। उनकी टीम कृंतकों को लुका-छिपी खेलना भी सिखा चुकी थी। खेल के शुरू में चूहे को एक बक्से में बंद कर शोधकर्ता कमरे में कहीं छिप गए। फिर रिमोट कंट्रोल की मदद से बक्सा खोलने पर चूहे ने बाहर आकर शोधकर्ता को ‘ढूंढना’ शुरू किया। जब चूहे ने छुपे हुए शोधकर्ता को ढूंढ लिया तो उसे गुदगुदी के रूप में पुरस्कार मिला। चूहों को भी छिपने का अवसर दिया गया था, और देखा गया कि चूहे छिपने की काफी नई-नई जगहें ढूंढ लेते हैं।

अपने अनुमान – खेल में पीएजी की भूमिका – की जांच के लिए ब्रेख्त की टीम ने पहले तो यह सुनिश्चित किया कि चूहे अपने अनुकूल और सहज माहौल में रहें। चूहों को मद्धम रोशनी वाली जगह सुहाती हैं, तेज़ रोशनी वाली और ऊंची जगहों पर वे परेशान होते हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने उनके साथ ‘हाथ पकड़ो’ खेल खेला। जब चूहे उनके हाथ तक पहुंच जाते थे तो शोधकर्ता उनकी पीठ और पेट पर गुदगुदी करते थे। गुदगुदी करने पर चूहे खुश होते थे और ‘खिलखिलाते’ थे। शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड लगाकर उनके मस्तिष्क की गतिविधि की निगरानी की। और अल्ट्रासोनिक माइक्रोफोन से उनकी हंसी भी रिकॉर्ड की।

पाया गया कि चूहे मनुष्यों के सुनने की क्षमता से बहुत अधिक आवृति पर ‘हंसते’ हैं। और, जब चूहे हंस रहे थे और खेल में व्यस्त थे तो उनके पीएजी के एक विशिष्ट क्षेत्र में हलचल देखी गई। इसके विपरीत जब चूहों को असहज जगह पर बैठाकर गुदगुदी की तो उन्होंने हंसना बंद कर दिया व उनके पीएजी का सक्रिय हिस्सा शांत हो गया। इससे लगता है कि विनोदभाव के लिए चूहों में पीएजी ज़िम्मेदार है। इसकी पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने पीएजी के उस हिस्से की तंत्रिकाओं को एक रसायन की मदद से शांत कर दिया। इसके बाद गुगगुदी करने पर चूहे नहीं हंसे और उनकी इंसानों और खेल में रुचि भी जाती रही। इससे लगता है कि गुदगुदी और खेल में पीएजी की महत्वपूर्ण भूमिका है।

ये नतीजे और भी महत्वपूर्ण इसलिए लगते हैं क्योंकि यह देखा जा चुका है कि जब कुछ चूहों को खेलने से वंचित कर दिया जाए तो वे मायूस हो जाते हैं, रिश्ते बनाने में असफल रहते हैं और तनावपूर्ण स्थितियों में कम लचीले हो जाते हैं। यह भी देखा गया है कि खेल की कमी से मस्तिष्क का विकास भी रुक जाता है।

आगे ब्रेख्त यह देखना चाहते हैं कि पीएजी की खेल के अन्य पहलुओं, जैसे नियमों का पालन करने के व्यवहार में क्या भूमिका है। उनका अवलोकन था कि लुका-छिपी खेल में यदि मनुष्य बार-बार एक ही जगह छिपें या ठीक से छिपने में विफल रहें तो चूहों ने खेल में रुचि खो दी थी। उम्मीद है कि इस काम से सकारात्मक भावनाओं को समझने की दिशा में अधिक काम होगा और चिंता व अवसाद से पीड़ित रोगियों के लिए प्रभावी उपचार विकसित करने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रहस्यमय भारतीय चील-उल्लू – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारतीय चील-उल्लू (Bubo bengalensis) को कुछ वर्षों पूर्व ही एक अलग प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था और इसे युरेशियन चील-उल्लू (Bubo bubo) से अलग पहचान मिली थी। भारतीय प्रजाति सचमुच एक शानदार पक्षी है। मादा नर से थोड़ी बड़ी होती है और ढाई फीट तक लंबी हो सकती है, और उसके डैनों का फैलाव छह फीट तक हो सकता है। इनके विशिष्ट कान सिर पर सींग की तरह उभरे हुए दिखाई देते हैं। इस बनावट के पीछे एक तर्क यह दिया जाता है कि ये इन्हें डरावना रूप देने के लिए विकसित हुए हैं ताकि शिकारी दूर रहें। यदि यह सही है, तो ये सींग वास्तव में अपना काम करते हैं और डरावना आभास देते हैं।

निशाचर होने के कारण इस पक्षी के बारे में बहुत कम मालूमात हैं। इनके विस्तृत फैलाव (संपूर्ण भारतीय प्रायद्वीप) से लगता है कि इनकी आबादी काफी स्थिर है। लेकिन पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि ये बहुत आम पक्षी नहीं हैं। इनकी कुल संख्या की कभी गणना नहीं की गई है। हमारे देश में वन क्षेत्र में कमी होते जाने से आज कई पक्षी प्रजातियों की संख्या कम हो रही है। लेकिन भारतीय चील-उल्लू वनों पर निर्भर नहीं है। उनका सामान्य भोजन, जैसे चूहे, बैंडिकूट और यहां तक कि चमगादड़ और कबूतर तो झाड़-झंखाड़ और खेतों में आसानी से मिल जाते हैं। आसपास की चट्टानी जगहें इनके घोंसले बनाने के लिए आदर्श स्थान हैं।

मिथक, अंधविश्वास

मानव बस्तियों के पास ये आम के पेड़ पर रहना पसंद करते हैं। ग्रामीण भारत में, इस पक्षी और इसकी तेज़ आवाज़ को लेकर कई अंधविश्वास हैं। इनका आना या इनकी आवाज़ अपशकुन मानी जाती है। प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली ने लोककथाओं का दस्तावेज़ीकरण किया है जो यह कहती हैं कि चील-उल्लू को पकड़कर उसे पिंजरे में कैद कर भूखा रखा जाए तो यह मनुष्य की आवाज़ में बोलता है और लोगों का भविष्य बताता है।

उल्लू द्वारा भविष्यवाणी करने सम्बंधी ऐसे ही मिथक यूनानी से लेकर एज़्टेक तक कई संस्कृतियों में व्याप्त हैं। कहीं माना जाता है कि वे भविष्यवाणी कर सकते हैं कि युद्ध में कौन जीतेगा, तो कहीं माना जाता है कि आने वाले खतरों की चेतावनी दे सकते हैं। लेकिन हम उन्हें ज्ञान से भी जोड़ते हैं। देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू (उलूक) ज्ञान और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

भारतीय चील-उल्लू से जुड़े नकारात्मक अंधविश्वास हमें इनके घोंसले वाली जगहों पर इनकी उग्र सुरक्षात्मक रणनीति पर विचार करने को मजबूर करते हैं। इनके घोंसले चट्टान पर खरोंचकर बनाए गोल कटोरेनुमा संरचना से अधिक कुछ नहीं होते, जिसमें ये चार तक अंडे देते हैं। इनके खुले घोंसले किसी नेवले या इंसान की आसान पहुंच में होते हैं। यदि कोई इनके घोंसले की ओर कूच करता है तो ये उल्लू खूब शोर मचाकर उपद्रवी व्यवहार करते हैं, और घुसपैठिये के सिर पर पीछे की ओर से अपने पंजे से झपट्टा मारकर वार करते हैं।

खेती में लाभकारी

इन उल्लुओं की मौजूदगी से किसानों को निश्चित ही लाभ होता है। एला फाउंडेशन और भारतीय प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि झाड़-झंखाड़ के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लुओं की तुलना में खेतों के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लू संख्या में अधिक और स्वस्थ होते हैं। ज़ाहिर है, उन्हें चूहे वगैरह कृंतक जीव बड़ी संख्या में मिलते होंगे। और उल्लुओं के होने से किसानों को भी राहत मिलती होगी।

इन उल्लुओं का भविष्य क्या है? भारत में पक्षियों के प्रति रुचि बढ़ती दिख रही है। पक्षी निरीक्षण (बर्ड वॉचिंग),  जिसे एक शौक कहा जाता है, अधिकाधिक उत्साही लोगों को लुभा रहा है। ये लोग पक्षियों की गणना, सर्वेक्षण और प्रवासन क्षेत्रों का डैटा जुटाने में योगदान दे रहे हैं। लेकिन यह काम अधिकतर दिन के उजाले में किया जाता है जिसमें उल्लुओं के दर्शन प्राय: कम होते हैं। उम्मीद है कि भारतीय चील-उल्लू जैसे निशाचर पक्षियों के भी दिन (रात) फिरेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक अजूबा है चूहा हिरण – प्रमोद भार्गव

चूहा, हिरण और खरगोश – तीन प्राणि एक ही प्राणि में शामिल हैं? एकाएक यह बात विश्वसनीय नहीं लगती। परंतु दुनिया का यह सबसे छोटा हिरण प्रकृति का एक अजूबा है। बताते हैं कि विलुप्ति की कगार पर खड़े ये हिरण छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जि़ले में स्थित अचानकमार अभयारण्य और कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाते हैं। कांगेर घाटी अभयारण्य में इस दुर्लभ प्रजाति के हिरण का चित्र अचानक ही कैमरा में कैद हुआ है।

भारत में पाए जाने वाले हिरणों की 12 प्रजातियों में से एक प्रजाति चूहा-हिरण (Moschiola indica) की भी है। इसे विश्व का सबसे छोटा हिरण माना जाता है। इन अभयारण्यों के वन प्रांतरों में भारी-भरकम, खतरनाक और मांसाहारी वन्य प्राणियों के बीच यह छोटा एवं अत्यंत चंचल जीव कब तक बचा रहेगा, यह तो वक्त ही तय करेगा। हिरण और चूहे की शारीरिक बनावट व आदतों वाले इस नन्हे जंतु को हिंदी में ‘चूहा-हिरण’ संस्कृत में ‘मूषक-मृग’ और अंग्रेज़ी में माउस डियर कहते हैं। यह ट्रेगुलिडी कुल में आता है। वैसे बिलासपुर क्षेत्र के स्थानीय लोग इसे खरगोश की एक प्रजाति मानते आए हैं। इसलिए वे इसे ‘खरहा’ कहकर पुकारते हैं।

यहां के आदिवासी इसे घेरकर लाठियों से आसानी से मार लेते हैं। यदि यह लाठी की मार में नहीं आता तो वे इसे विष बुझे तीरों से निशाना भी बनाते हैं। दुर्लभ प्राणियों की श्रेणी में सूचीबद्ध होने के कारण इसके शिकार पर पूरी तरह प्रतिबंध है, संभवत: इसीलिए इसका अस्तित्व अभी तक बचा हुआ है। अब जागरूकता के चलते आदिवासी भी इसका शिकार नहीं करते हैं।

कुदरत का यह अजीब नमूना शक्ल-सूरत में खरगोश की तरह दिखता है, पर इसका मुंह एकदम चूहे से मिलता-जुलता है। इसकी त्वचा गहरा हरापन लिए भूरी-सी होती है। इससे इसे हरियाली के बीच छिपने में मदद मिलती है। अन्य हिरणों की तरह इसकी सूंघने व सुनने शक्ति तेज़ होती है। इससे यह दुश्मन को दूर से ही ताड़ लेता है और भागकर हरी घास अथवा झाड़ियों में छिप जाता है। इस तरह यह प्राणि हिंसक जीवों से अपनी रक्षा स्वयं कर लेता है।

इसकी त्वचा पर पेट के दोनों तरफ दो-दो चकत्तों में सफेद धारियां होती हैं। यही धारियां इसकी खास पहचान हैं तथा खरगोश व इसमें भेद करती हैं। इसका मुंह कुछ लंबा और कान छोटे होते हैं। इसके सिर पर सींग नहीं पाए जाते हैं, इसलिए यह एंटिलोप समूह का हिरण नहीं है। सींग की बजाय इसके मुंह पर ऊपरी जबड़े में दो कैनाइन दांत होते हैं। ये दांत कस्तूरी मृग में भी पाए जाते हैं। इन्हीं दांतों की सहायता से यह आहार को तोड़ता व चबाता है। इसके पैर गोल होने के साथ खुरों से युक्त होते हैं। खुर दो हिस्सों में विभाजित रहते हैं।

इनका रहवास विशेष रूप से घनी झाड़ियों और नमी वाले नमक्षेत्र होते हैं। अधिकतर ज़्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। शरीर की लंबाई 57.5 सेंटीमीटर तक होती है और पूंछ करीब 2.5 से.मी. लंबी होती है। इस तरह से यह कुल लगभग 61 से.मी. लंबा होता है। इसकी ऊंचाई 35 से.मी. तक होती है और वज़न तीन से सात किलोग्राम तक होता है। यह जंगलों में आठ से बारह वर्ष तक जीवित रह सकता है। यह पूरी तरह शाकाहारी प्राणि है और हिरण की अन्य प्रजातियों की तरह घास और फूल-पत्तियां ही खाता है।

भारत, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत अन्य दक्षिण एशियाई और पूर्व एशियाई देशों के उष्णकटिबंधीय नमी वाले क्षेत्रों में भी ये पाए जाते हैं। बिना सींगों वाले हिरणों का यह एकमात्र समूह है। शर्मीले और निशाचर होने के कारण इन पर भारत में ज़्यादा अध्ययन नहीं हुए हैं, इसीलिए इनके बारे में विशेष जानकारी भारतीय प्राणि विशेषज्ञों के पास भी नहीं है।

इनका प्रजनन काल पूरे साल चलता है। मादा साल में दो मर्तबा बच्चे जनती है। आम तौर पर एक बार में एक ही बच्चा जनती है, पर कभी-कभार दो बच्चे भी जनती है। ये बच्चे पैदा होने के 24 घंटे बाद चलने-फिरने व दौड़ने लगते हैं। चूहा हिरण की रफ्तार खरगोश से बहुत तेज़ होती है। अन्य हिरणों की भांति यह कुलांचे भरने में भी निपुण होता है। चूहा हिरण से कुछ बड़ा चिलियन हिरण पुडू पुडा (Pudu puda) होता है जो हमारे देश में नहीं पाया जाता। चिलियन पुडू पुडा की लंबाई 85 सेंटीमीटर और ऊंचाई 45 सेंटीमीटर तक होती है। शोरगुल, यांत्रिक कोलाहल व मानवीय हलचल से दूर ये हिरण नितांत एकांत पसंद करते हैं। मनुष्य का हस्तक्षेप, भले ही वह इसके संरक्षण के लिए ही क्यों न हो, इसके प्रजनन पर प्रतिकूल असर डालता है। इसलिए चिड़ियाघरों में यह हिरण ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहता। लिहाज़ा, अब बड़े चिड़ियाघरों ने इसे पालना बंद कर दिया है।

छत्तीसगढ़ में चूहा हिरण को पहली बार 1905 में एक अंग्रेज़ नागरिक ने रायपुर में देखा था। इसके संरक्षण के बेहतर प्रयास छत्तीसगढ़ से अधिक तेलंगाना प्रांत में हो रहे हैं। तेलंगाना के जंगलों में अब तक चूहा हिरण के 17 जोड़े छोड़े गए हैं। लेकिन इस हिरण के उचित संरक्षण हेतु इसकी आदतों और नैसर्गिक प्रक्रियाओं का विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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