ऑक्टोपस के फिंगरप्रिंट

पिग्मी ज़ेब्रा ऑक्टोपस प्रशांत महासागर के अमेरिकी तटीय क्षेत्र के मूल निवासी हैं। जैसा कि इनके नाम, पिग्मी ज़ेब्रा ऑक्टोपस, से झलकता है इनके शरीर पर ज़ेब्रा के समान धारियां होती हैं। अब, इन पर हुआ हालिया अध्ययन बताता है कि इनमें से प्रत्येक नन्हें सेफेलोपोड की ये धारियां अद्वितीय होती हैं, और संभवत: ये एक-दूसरे को पहचानने में मदद करती हैं।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में 25 नवजात पिग्मी ज़ेब्रा ऑक्टोपस (ऑक्टोपस चिरेचिए) की हर हफ्ते तस्वीरें लीं। फिर एडोब इलस्ट्रेटर की मदद से हरेक के शरीर की धारियों और धब्बों के पैटर्न देखे। प्लॉस वन में उन्होंने बताया है कि अंडे से निकलने के पांच दिन बाद ही उनमें धारियों के अद्वितीय पैटर्न दिखने लगते हैं और ये पैटर्न ताउम्र बने रहते हैं, भले ही उनकी त्वचा का रंग और बनावट बदल जाएं। हो सकता है कि ये ऑक्टोपस एक-दूसरे को इन धारियों से पहचानते हों।

मानव प्रतिभागी ऑक्टोपस के बीच उनकी धारियों की मदद से लगभग 85 प्रतिशत बार सही अंतर कर पाए। इससे लगता है कि जंतु अध्ययनों में टैटू या टैग लगाने की ज़रूरत नहीं होगी; इन धारियों की मदद से उनकी पहचान हो सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी के शिखर पर सूक्ष्मजीव – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

डॉ. एन. बी. ड्रेगोन और उनके साथियों द्वारा आर्कटिक, अंटार्कटिक और एल्पाइन नामक पत्रिका में एक अध्ययन प्रकाशित किया गया है : समुद्रतल से 7900 मीटर की ऊंचाई पर सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) के साउथ कोल पर फ्रोज़न सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने माउंट एवरेस्ट के दुर्गम ढलानों पर मनुष्यों के सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण किया है।

उन्होंने माउंट एवरेस्ट के दक्षिणी कोल में (समुद्र तल से 7900 मीटर ऊंचाई पर) पर्वतारोहियों द्वारा छोड़े गए सूक्ष्मजीवों को वहां की तलछट से निकाला।

साउथ कोल वह चोटी है जो माउंट एवरेस्ट को ल्होत्से से अलग करती है – ल्होत्से पृथ्वी का चौथा सबसे ऊंचा पर्वत है। इन दोनों चोटियों के बीच की दूरी केवल तीन किलोमीटर है। समुद्रतल से 7900 मीटर की ऊंचाई पर, दक्षिण कोल जीवन के लिए दूभर स्थान है – जुलाई 2022 में लू (हीट वेव) के दौरान यहां का सबसे अधिक तापमान ऋण 1.4 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था।

इंसानों को हटा दें तो यहां जीवन का नामोंनिशान नहीं दिखाई देता। जीवन का आखिरी निशान काफी नीचे, समुद्रतल से 6700 मीटर की ऊंचाई, पर दिखता है – जिसमें काई की कुछ प्रजातियां है और एक कूदने वाली मकड़ी है जो हवा में उड़कर आए फ्रोज़न कीड़ों को खाती है।

अधिक ऊंचाई पर, ऑक्सीजन कम होती है (समुद्र तल पर 20.9 प्रतिशत के मुकाबले 7.8 प्रतिशत), तेज़ हवाएं चलती हैं, तापमान आम तौर पर ऋण 15 डिग्री सेल्सियस रहता है और पराबैंगनी विकिरण का उच्च स्तर होता है। ये सभी चीज़ें जीवन को और मुश्किल बना देती हैं। चूंकि सभी पारिस्थितिक तंत्रों में सभी प्रजातियों-जीवों के बीच परस्पर निर्भरता है, यहां सूक्ष्मजीव भी जीवित नहीं रह सकते।

हवा और इंसान

लेकिन यहां सूक्ष्म जीव आते तो रहते हैं – पशु-पक्षियों या हवाओं के साथ। समुद्र तल से लगभग 6000 मीटर की ऊंचाई पर 20 माइक्रोमीटर से कम साइज़ के धूल के कण हवाओं के साथ उड़कर आ जाते हैं। इस धूल का कुछ हिस्सा मूलत: सहारा रेगिस्तान से आता है। इससे समझ में आता है कि इतनी ऊंचाई पर भी सूक्ष्मजीव संसार में इतनी विविधता कैसे है। 7000 मीटर की ऊंचाई पर मुख्यत: हवाएं और मनुष्य ही इनके वाहक का कार्य करते हैं।

राइबोसोमल आरएनए अनुक्रमण की परिष्कृत तकनीकों का उपयोग करके सूक्ष्मजीव विशेषज्ञों ने दक्षिण कोल पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीवों की पहचान कर ली है। यहां से एकत्रित किए गए सूक्ष्मजीवों में सर्वदेशीय मनुष्यों की छाप देखी गई है। इसके अलावा, यहां मॉडेस्टोबैक्टर अल्टिट्यूडिनिस और नागानिशिया फफूंद भी पाए गए हैं। इन्हें पराबैंगनी-प्रतिरोधी संस्करणों के रूप में जाना जाता है।

माउंट एवरेस्ट को ‘सागरमाथा’ नाम किसने दिया? नेपाल के विख्यात इतिहासकार स्वर्गीय बाबूराम आचार्य ने 1960 के दशक में इसे नेपाली नाम सागरमाथा दिया था।

कंचनजंगा चोटी

1847 में, भारत के ब्रिटिश महासर्वेक्षक एंड्रयू वॉग ने हिमालय के पूर्वी छोर में एक चोटी की खोज की थी जो कंचनजंगा से भी ऊंची थी – कंचनजंगा को उस समय दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। उनके पूर्वाधिकारी, सर जॉर्ज एवरेस्ट, ऊंची पर्वत-चोटियों में रुचि रखते थे और उन्होंने वॉग को नियुक्त किया था। सच्ची औपनिवेशिक भावना दर्शाते हुए वॉग ने इस चोटी को माउंट एवरेस्ट का नाम दिया था।

भारतीय गणितज्ञ और सर्वेक्षक, राधानाथ सिकदर, एक काबिल गणितज्ञ थे। वे यह दर्शाने वाले पहले व्यक्ति थे कि माउंट एवरेस्ट (तब यह चोटी-XV के नाम से जानी जाती थी) दुनिया की सबसे ऊंची चोटी है। जॉर्ज एवरेस्ट ने सिकदर को 1831 में सर्वे ऑफ इंडिया में ‘गणक’ के पद पर नियुक्त किया था।

सिकदर ने सन 1852 में एक विशेष उपकरण की मदद से ‘चोटी XV’ की ऊंचाई 8839 मीटर दर्ज की थी। हालांकि, इसकी ऊंचाई की आधिकारिक घोषणा मार्च, 1856 में की गई थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रतौंधी और शार्क की दृष्टि

व्हेल शार्क एक अति विशाल जीव है – लंबाई लगभग 18 मीटर और वज़न 2 हाथियों के बराबर। और यह भारी-भरकम जीव समुद्र में गहरे गोते लगाता है – सतह से लेकर 2 किलोमीटर की गहराई तक। इसमें समस्या यह है कि समुद्र सतह पर तो खूब रोशनी होती है लेकिन 2 किलोमीटर की गहराई पर घुप्प अंधेरा। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि व्हेल शार्क इतने गहरे गोते क्यों लगाता है लेकिन यह सवाल तो वाजिब है कि वह रोशन सतह और अंधकारमय गहराई दोनों जगह देखता कैसे है।

ऐसे तो कई प्राणि हैं जो निहायत कम रोशनी में देख सकते हैं। लेकिन व्हेल शार्क की विशेषता यह है कि वे दोनों परिस्थितियों में ठीक-ठाक देख लेते हैं।

तो जापान के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स के शिगेहिरो कुराकु और उनके साथियों ने पूरे मामले को जेनेटिक्स की दृष्टि से देखा। उन्होंने व्हेल शार्क और उसके एक निकट सम्बंधी ज़ेब्रा शार्क की जेनेटिक सूचना की तुलना की। पता चला कि व्हेल शार्क में डीएनए के दो स्थानों (क्रमांक 94 और 178) पर उत्परिवर्तन हुए हैं जिनकी वजह से रोडोप्सिन नामक प्रोटीन में अमीनो अम्लों का संघटन बदल गया है। गौरतलब है कि रोडोप्सिन एक प्रकाश संवेदी प्रोटीन है जो कम प्रकाश में भी रोशनी की उपस्थिति को भांप सकता है। यही वह प्रोटीन है जो मनुष्यों को भी कम रोशनी में देखने में मदद करता है।

और तो और, व्हेल शार्क का रोडोप्सिन नीली रोशनी के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होता है। आप समझ ही सकते हैं कि समुद्र की गहराई में कम प्रकाश पहुंचता है और वह भी अधिकांशत: नीला प्रकाश। तो रोडोप्सिन व्हेल शार्क को अपेक्षाकृत अंधकार और नीले प्रकाश की परिस्थिति में देखने में मदद करता है।

लेकिन एक दिक्कत है – यही रोडोप्सिन उथले पानी में भी नीले रंग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होगा और बाकी रंगों को देखने में बाधा बन जाएगा।

शोधकर्ताओं का मत है कि यहीं पर दूसरा उत्परिवर्तन (स्थान 178) काम आता है। उन्होंने पाया है कि व्हेल और ज़ेब्रा शार्क दोनों का रोडोप्सिन तापमान के प्रति संवेदनशील होता है। तापमान बढ़ने पर उनका रोडोप्सिन निष्क्रिय होने लगता है। जैसे ही शार्क व्हेल सतह पर आते हैं, उनका सामना वहां के अपेक्षाकृत उच्च तापमान से होता है और रोडोप्सिन निष्क्रिय हो जाता है। तब वह अन्य प्रकाश संवेदनाओं में बाधा नहीं डालता। समुद्र की गहराई में तापमान बहुत कम होता है जहां रोडोप्सिन सक्रिय होकर अंधेरे में देखने में मदद करता है। यही बात शोधकर्ताओं को दिलचस्प लगती है। यह एक ऐसा उत्परिवर्तन है जो प्रकाश-संवेदी रंजक को ठप करता है। जब मनुष्यों में यह रंजक काम करना बंद कर देता है रतौंधी की वजह बन जाता है। तो एक ऐसा उत्परिवर्तन आखिर बना क्यों रहेगा? (स्रोत फीचर्स)

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मानव मस्तिष्क ऑर्गेनॉइड का चूहों में प्रत्यारोपण

जकल ऑर्गेनॉइड्स (अंगाभ) अनुसंधान की एक प्रमुख धारा है। ऑर्गेनॉइड का मतलब होता है ऊतकों का कृत्रिम रूप से तैयार किया गया एक ऐसा पिंड जो किसी अंग की तरह काम करे। विभिन्न प्रयोगशालाओं में विभिन्न अंगों के अंगाभ बनाने के प्रयास चल रहे हैं। इन्हीं में से एक है मस्तिष्क अंगाभ।

सेल स्टेम सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मानव मस्तिष्क अंगाभ को चूहे के क्षतिग्रस्त मस्तिष्क में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिया है। और तो और, अंगाभ ने शेष मस्तिष्क के साथ कड़ियां भी जोड़ लीं और प्रकाश उद्दीपन पर प्रतिक्रिया भी दी।

शोध समुदाय में इसे एक महत्वपूर्ण अपलब्धि माना जा रहा है क्योंकि अन्य अंगों की तुलना में मस्तिष्क कहीं अधिक जटिल अंग है जिसमें तमाम कड़ियां जुड़ी होती हैं। इससे पहले मस्तिष्क अंगाभ को शिशु चूहों में ही प्रत्यारोपित किया गया था; मनुष्यों की बात तो दूर, वयस्क चूहों पर भी प्रयोग नहीं हुए थे। 

वर्तमान प्रयोग में पेनसिल्वेनिया की टीम ने कुछ वयस्क चूहों के मस्तिष्क के विज़ुअल कॉर्टेक्स नामक हिस्से का एक छोटा सा भाग निकाल दिया। फिर इस खाली जगह में मानव मस्तिष्क कोशिकाओं से बना अंगाभ डाल दिया। यह अंगाभ रेत के एक दाने के आकार का था। अगले तीन महीनों तक इन चूहों के मस्तिष्क की जांच की गई।

जैसी कि उम्मीद थी प्रत्यारोपित अंगाभों में 82 प्रतिशत पूरे प्रयोग की अवधि में जीवित रहे। पहले महीने में ही स्पष्ट हो गया था कि चूहों के मस्तिष्कों में इन अंगाभों को रक्त संचार में जोड़ लिया गया था और जीवित अंगाभ चूहों के दृष्टि तंत्र में एकाकार हो गए थे। यह भी देखा गया कि अंगाभों की तंत्रिका कोशिकाओं और चूहों की आंखों के बीच कनेक्शन भी बन गए थे। यानी कम से कम संरचना के लिहाज़ से तो अंगाभ काम करने लगे थे। इससे भी आगे बढ़कर, जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों की आंखों पर रोशनी चमकाई तो अंगाभ की तंत्रिकाओं में सक्रियता देखी गई। अर्थात अंगाभ कार्य की दृष्टि से भी सफल रहा था। लेकिन फिलहाल पूरा मामला मनुष्यों में परीक्षण से बहुत दूर है हालांकि यह सफलता आगे के लिए आशा जगाती है। (स्रोत फीचर्स)

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फल मक्खियां क्षारीय स्वाद पहचानती हैं

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हाल ही में शोधकर्ताओं ने फल मक्खियों (ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर) में एक नए प्रकार का स्वाद ग्राही खोज निकाला है जिससे वे क्षारीय पदार्थों का पता लगा सकती हैं। इस अद्भुत क्षमता से वे उच्च क्षारीयता वाले ज़हरीले भोजन और सतहों से स्वयं को बचा सकती हैं। इतने भलीभांति अध्ययन किए गए जंतु में एक नए स्वाद ग्राही का पता चलना आश्चर्यजनक है। नेचर मेटाबोलिज़्म में प्रकाशित रिपोर्ट अन्य जीवों में भी क्षारीय स्वाद ग्राही का पता लगाने की संभावना खोलती है।

अधिकांश जीव अम्ल और क्षार के एक संकीर्ण परास में कार्य करते हैं जो उनके अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। पिछले कुछ दशकों में खट्टे और अम्लीय स्वाद का पता लगाने वाले ग्राहियों, कोशिकाओं और तंत्रिका मार्गों का विस्तृत अध्ययन किया गया है लेकिन क्षारीय पदार्थों को लेकर समझ उतनी पुख्ता नहीं है।   

इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मक्खियों में उच्च क्षारीयता के लिए विशिष्ट ग्राहियों का पता लगाने का प्रयास किया। अम्लीयता-क्षारीयता को पीएच नामक एक पैमाने पर नापा जाता है – पीएच कम होने से अम्लीयता बढ़ती है और पीएच बढ़ने पर क्षारीयता।

मक्खियों की पसंद को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने उन्हें पेट्री डिश में मीठा जेल पेश किया। इसमें आधे जेल को उदासीन (पीएच 7) रखा गया जबकि बाकी आधे को क्षारीय (पीएच >7) बनाया गया था। प्रत्येक आधे जेल को लाल या नीले रंग से रंगा गया। पसंदीदा जेल का सेवन करने के बाद मक्खियों का पारभासी पेट लाल, नीला या बैंगनी रंग (यदि दोनों हिस्से खाएं) का हो जाएगा।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मक्खियों ने अधिक क्षारीय भोजन से परहेज़ किया। अलबत्ता मक्खियों का एक समूह ऐसा भी था जो दो प्रकार के भोजन के बीच अंतर करने में उतना अच्छा नहीं था। इन मक्खियों का अध्ययन करने से पता चला कि उनके जीन में एक उत्परिवर्तन हुआ था। यह जीन मक्खियों की सूंड के सिरे पर उपस्थित स्वाद तंत्रिकाओं के साथ-साथ उनके पैरों और एंटीना की कोशिकाओं में सक्रिय पाया गया।  

कोशिकाओं का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हुआ कि यह जीन एक ऐसा ग्राही प्रोटीन बनाता है जो क्षारीय घोल से संपर्क में आने पर सक्रिय होकर एक चैनल खोल देता है। इससे मक्खी के मस्तिष्क को तुरंत उस भोजन से बचने का संकेत मिलता है।  

शोधकर्ताओं के अनुसार अधिकांश संवेदना ग्राहियों में चैनल धनायन प्रवाहित करते हैं लेकिन इस मामले में ऋणायनों का प्रवाह देखा गया।

ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक से इस जीन से सम्बंधित कोशिकाओं को सक्रिय करने पर मक्खियों ने सूंड को पीछे खींच लिया यानी वह भोजन बहुत क्षारीय है। 

शोधकर्ताओं के अनुसार इन परिणामों को कशेरुकी जीवों पर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि उनमें यह जीन उपस्थित नहीं होता है। इस अध्ययन से यह भी समझा जा सकता है कि मक्खियां अंडे देने का स्थान कैसे चुनती हैं या कीट नियंत्रण के उपायों पर किस तरह से प्रतिक्रिया देंगी। (स्रोत फीचर्स)

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दो पिता की संतान

हिंदी फिल्मों में ‘एक बाप की औलाद’ की बात कई मर्तबा की जाती है और माना जाता है कि वही सच्ची औलाद होती है। लेकिन यहां बात उस संवाद के संदर्भ में नहीं बल्कि वैज्ञानिकों द्वारा नर की कोशिकाओं से अंडे के निर्माण की हो रही है।

लंदन में हाल ही में सम्पन्न तृतीय अंतर्राष्ट्रीय मानव जीनोम संपादन सम्मेलन में यह जानकारी दी गई कि शोधकर्ताओं ने नर चूहों की कोशिकाओं से अंडे बना लिए और जब उन्हें निषेचित करके मादा चूहे के गर्भाशय में रखा गया तो उनसे स्वस्थ संतान पैदा हुई और वे स्वयं संतानोत्पत्ति में सक्षम थीं।

यह करामात करने के लिए शोधकर्ता बरसों से प्रयास कर रहे थे। मसलन, 2018 में एक टीम ने खबर दी थी कि उन्होंने शुक्राणु या अंडाणु से प्राप्त स्टेम कोशिकाओं से पिल्ले पैदा किए थे जिनके दो पिता या दो मांएं थीं। दो मांओं वाले पिल्ले तो वयस्क अवस्था तक जीवित रहे और प्रजननक्षम थे लेकिन दो पिता वाले पिल्ले कुछ ही दिन जीवित रहे थे।

फिर 2020 में कात्सुहिको हयाशी ने बताया था कि किसी कोशिका को प्रयोगशाला के उपकरणों में परिपक्व अंडे में विकसित होने के लिए किस तरह के जेनेटिक परिवर्तनों की ज़रूरत होती है। इसी टीम ने 2021 में खबर दी कि वह चूहे के अंडाशय की परिस्थितियां निर्मित करके अंडे तैयार करने में सफल रही और इन अंडों ने प्रजननक्षम संतानें भी उत्पन्न कीं।

अब हयाशी और उनके साथियों ने कोशिश शुरू कर दी कि वयस्क नर चूहे की कोशिकाओं से अंडे विकसित किए जाएं। उन्होंने इन कोशिकाओं को इस तरह परिवर्तित किया कि वे प्रेरित बहुसक्षम कोशिकाएं बन गईं। टीम ने इन कोशिकाओं को कल्चर में पनपने दिया जब तक कि उनमें से कुछ कोशिकाओं ने स्वत: अपना वाय गुणसूत्र गंवा नहीं दिया। जैसा कि सब जानते हैं नर चूहों की कोशिकाओं में सामान्यत: एक वाय और एक एक्स गुणसूत्र होता है। इन कोशिकाओं को रेवर्सीन नामक एक रसायन से उपचारित किया गया। यह रसायन कोशिका विभाजन के समय गुणसूत्रों के वितरण में त्रुटियों को बढ़ावा देता है। इसके बाद टीम ने वे कोशिकाएं ढूंढी जिनमें एक्स गुणसूत्र की दो प्रतिलिपियां थी, अर्थात गुणसूत्रों के लिहाज़ से वे मादा कोशिकाएं थीं।

इसके बाद टीम ने प्रेरित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाओं को वे जेनेटिक संकेत दिए जो अपरिपक्व अंडा बनाने के लिए ज़रूरी होते हैं। जब अंडा बन गया तो उसका निषेचन शुक्राणु से करवाया गया और निषेचित अंडों को मादा चूहे के गर्भाशय में डाल दिया गया।

हयाशी ने सम्मेलन में बताया कि इन निषेचित अंडों (भ्रूण) की जीवन दर बहुत कम रही – कुल 630 भ्रूण गर्भाशयों में डाले गए और उनमें से मात्र 7 का विकास पिल्लों के रूप में हो पाया। लेकिन ये 7 भलीभांति विकसित हुए और वयस्क होकर प्रजननक्षम रहे।

यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, लेकिन हयाशी का कहना है कि अभी इसे एक चिकित्सकीय तकनीक बनने में बहुत समय लगेगा क्योंकि मनुष्य और चूहों में बहुत फर्क होते हैं। अभी यह भी देखना बाकी है कि क्या मूल कोशिका में जो एपिजेनेटिक बदलाव किए गए थे वे नर कोशिका से बने अंडों में सुरक्षित रहते हैं या नहीं। और भी कई तकनीकी अड़चनें आएंगी।

बहरहाल, यदि ये अड़चनें पार कर ली जाएं, तो यह तकनीक संतानहीनता की कुछ परिस्थितियों में कारगर हो सकती है। जैसे टर्नर सिंड्रोम के मामले में जहां स्त्री के दो में से एक एक्स गुणसूत्र नहीं होता या आधा-अधूरा होता है। जापान के होकाइडो विश्वविद्यालय के जैव-नैतिकताविद तेत्सुया इशी का कहना है कि यह तकनीक पुरुष (समलैंगिक विवाहित) दंपतियों को भी संतान पैदा करने का अवसर दे सकती है; हां, उन्हें सरोगेट गर्भाशय की ज़रूरत तो पड़ेगी। इसके अलावा, शायद सूदूर भविष्य में अकेला पुरुष भी अपनी जैविक संतान पैदा कर सकेगा। इस संदर्भ में सिर्फ तकनीकी नहीं बल्कि सामाजिक मुद्दों पर विचार भी ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

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सांप की कलाबाज़ियां

गस्त 2019 में, कुछ शोधकर्ताओं को उत्तर-पश्चिम मलेशिया के एक विशाल चूना पत्थर पहाड़ के पास सड़क पार करता हुआ एक ड्वार्फ रीड सांप (स्यूडोरेब्डियन लॉन्गिसेप्स) दिखा। जैसे ही वे उसके पास गए तो पहले तो वह अपने बचाव के लिए हवा में ऊपर की ओर घूमा और फिर कुंडली की तरह गोल-गोल लपेटता हुआ नीचे आ गया। शोधकर्ताओं ने सांप को पकड़ लिया और उसे सड़क किनारे समतल जगह पर रख दिया। उसने यही बचाव करतब फिर कई बार दोहराया।

ड्वार्फ रीड सांप दिखने में गहरे रंग का, बौना और संटी सरीखा पतला सा होता है। यह निशाचर प्राणि है जो चट्टानों में छिप कर रहता है। शोधकर्ताओं ने इस सांप पर किए अपने अवलोकन को बायोट्रॉपिका में प्रकाशित किया है। सांपों में इस तरह की हरकत पहली बार देखी और दर्ज की गई है। हालांकि कई अन्य जानवर, जैसे पैंगोलिन और टेपुई मेंढक, भी इस तरह कुलांचे भर सकते हैं, लेकिन सरिसृपों की बात तो दूर, स्तनधारियों में भी शरीर को मरोड़ना (या बल देना) इतनी आम बात नहीं है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह सांप खतरे से जल्दी दूर भागने के लिए ऐसा करता है। उसका यह व्यवहार उसके शत्रुओं को भ्रमित भी कर सकता है। और क्योंकि उसकी यह कलाबाज़ी रेंगकर चलने की तुलना में उसके शरीर को ज़मीन से कम संपर्क में रखती है तो उसे सूंघ कर हमला करने वाले शिकारी भटक जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)  

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पेलिकन और रामसर स्थल – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

श्रीहरिकोटा द्वीप खारे पानी के एक लैगून – पुलिकट झील – के लिए एक ढाल का काम करता है। चूंकि यह इसरो का प्रक्षेपण स्थल है इसलिए इसका अधिकतर क्षेत्र पर्यटकों के लिए प्रतिबंधित है। इस क्षेत्र में जलीय पक्षियों की 76 प्रजातियां पाई जाती हैं। झील हालांकि लगभग 60 किलोमीटर लंबी है, लेकिन इसकी औसत गहराई केवल एक मीटर है।

ज्वार-भाटों के साथ समुद्र तटों की खुलती-ढंकती नम भूमि (टाइडल फ्लैट) और मीठे व खारे पानी की नमभूमियां भूरे पेलिकन या हवासील (spot-billed pelican) के लिए आदर्श आवास हैं।

जब हम जल पक्षियों के बारे में सोचते हैं तो अधिकतर यही पक्षी हमारे मन में उभरता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ने इसे रेड लिस्ट में शामिल किया है और इसे लगभग-संकटग्रस्त की श्रेणी में डाला है।

हवासील की हास्यास्पद चाल उसकी टांगों की कमज़ोर मांसपेशियों की ओर इशारा करती है, और इसी वजह ये पक्षी कोई माहिर तैराक नहीं हैं। और ये पानी की सतह के पास पाई जाने वाली मछलियां ही पकड़ते हैं। स्पॉट बिल्ड (यानी धब्बेदार चोंच वाला) पेलिकन, यह नाम इसे इसकी चोंच के किनारों पर पाए जाने वाले नीले धब्बों के कारण मिला है।

यह एक सामाजिक पक्षी है। कभी-कभी ये समूह में मछली पकड़ने जाते हैं, मिलकर अर्ध-वृत्ताकार चक्रव्यूह बना लेते हैं जो मछली को उथले पानी की ओर धकेलता है। हवासील छोटे पनकौवों के साथ भोजन साझा भी करते हैं।

पनकौवे कुशल गोताखोर होते हैं। उनके गोता लगाने के कारण गहराई में मौजूद मछलियां ऊपर सतह पर आ जाती हैं, जहां पेलिकन उन्हें पकड़ने के लिए घात लगाए होते हैं।

वयस्क हवासील का वज़न साढ़े चार-पांच किलोग्राम तक होता है। चोंच के नीचे एक थैली, जिसे गलास्थि कहते हैं, मछलियों को पकड़ने के लिए होती है। प्रजनन काल में, एक वयस्क भूरा पेलिकन एक बार में 2 किलो मछली पकड़ सकता है। भूरे पेलिकन अन्य जलीय पक्षियों के साथ टिकाऊ व मज़बूत कॉलोनी बनाते हैं। वे पेड़ों पर घोंसले बनाते हैं और एक बार में दो से तीन अंडे देते हैं। जब चूज़ों की उम्र लगभग एक महीने हो जाती है तो ये चूज़े घोंसलों को नष्ट कर देते हैं।

इनकी प्रजनन कॉलोनियां गांवों के बहुत करीब या गांवों के अंदर ही होती हैं। और ये पक्षी मानव गतिविधि से परेशान नहीं होते हैं। गांव के लोग पेलिकन और उनके घोंसलों का स्वागत करते हैं और उनकी रक्षा करते हैं। गांव के लोग भूरे पेलिकन की बीट का उपयोग उर्वरक के रूप में करते हैं। प्रजननकाल के बाद, भूरे पेलिकन की आबादी बहुत बड़े क्षेत्र में भोजन की तलाश में फैल जाती है।

2005 में फोर्कटेल में कन्नन और मनकादन द्वारा प्रकाशित एक व्यापक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में भूरे पेलिकन की संख्या लगभग 6,000-7,000 है। सर्वेक्षण में, दक्षिण भारत में तंजावुर के पास करैवेट्टी-वेट्टांगुडी, तमिलनाडु के तिरुनेलवेली के पास कुंतनकुलम, कर्नाटक में कोकरबेल्लुर (मांड्या ज़िला) और करंजी झील (मैसूर शहर), और आंध्र प्रदेश में गुंटूर के पास उप्पलपाडु और पुलीकट झील के पास नेलपट्टू में इनके प्रजनन स्थल पाए गए थे। आंध्र प्रदेश में हाल में कोलेरू झील में इन पक्षियों की एक बड़ी प्रजनन कॉलोनी नष्ट हो गई, जहां एक्वाकल्चर के चलते पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त हो गया था।

पुरावनस्पति विज्ञानी बताते हैं कि पुलिकट झील, जो अब एक खारा दलदल है, 16वीं शताब्दी में एक घना मैंग्रोव वन हुआ करती थी। नमभूमि का पारिस्थितिक तंत्र वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को ‘ब्लू कार्बन’ के रूप में सोख लेता है। कार्बन सिंक के रूप में, मैंग्रोव वन प्रति हैक्टर 1000 टन कार्बन संग्रहित कर सकते हैं।

वैश्विक महत्व की नमभूमियों को रामसर स्थल कहा जाता है। रामसर नाम ईरान के उस शहर के नाम पर पड़ा है जहां 1971 में वैश्विक नमभूमि संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह संधि 1975 में प्रभावी हुई थी। भारत में 75 रामसर स्थल हैं, जिनमें से 14 तमिलनाडु में हैं। इनमें तीन रामसर स्थल पिछले साल जोड़े गए हैं: करिकिली पक्षी अभयारण्य, पल्लीकरनई मार्श रिज़र्व फॉरेस्ट और पिचावरम मैंग्रोव। खुशकिस्मती से भूरे पेलिकन इन सभी रामसर स्थलों  पर पाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक सुपरजीन में परिवर्तन के व्यापक असर होते हैं

क चींटी होती है जिसे छापामार चींटी (Ooceraea biroi) कहते हैं। इनमें स्पष्ट श्रम विभाजन पाया जाता है। कुछ सदस्य श्रमिक होते हैं और उनका काम होता है अन्य चींटी प्रजातियों की बस्तियों पर छापा मारना और वहां से उनकी शिशु चींटियों को चुराकर अपनी बस्ती में ले आना। ये नन्ही चींटियां भोजन के रूप में काम आती हैं। आम तौर पर श्रमिक चींटियों के पंख नहीं होते। पंख तो सिर्फ रानी चींटी के होते हैं जो अपनी बस्ती से बाहर कदम तक नहीं रखतीं।

लेकिन ऐसी एक बस्ती के अध्ययन में देखा गया कि कुछ श्रमिकों के पंख निकल आए थे और वे बस्ती के बाहर कदम रखने से कतराने लगी थी। कारण एक जेनेटिक उत्परिवर्तन था जिसके चलते वे सुस्त परजीवी बन गई थीं जो अंडे देने और अन्य चींटियों द्वारा लाए गए भोजन को चट करने के अलावा कुछ नहीं कर रही थी।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में खोजी गई ये चींटियां शायद इस बात का जीता-जागता प्रमाण हैं कि कैसे किसी सुपरजीन में उत्परिवर्तन एक साथ कई परिवर्तनों को रफ्तार दे सकता है। सुपरजीन ऐसे जीन्स के समूह को कहते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी में एक साथ पहुंचते हैं। जेनेटिक परिवर्तन की वजह से इस तरह के त्वरित विकास की संभावना लगभग एक दशक पूर्व जताई गई थी लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं था।  

अब लगता है कि Ooceraea biroi में इसे देख लिया गया है। मिलीमीटर लंबी ये छापामार चींटियां बांग्लादेश की मूल निवासी हैं लेकिन अब ये चीन, भारत व अन्य कई द्वीपों पर पाई जाती हैं। अधिकांश चींटी बस्तियों में एक रानी होती है, जो अंडे देती है और श्रमिक चींटियां उसके लिए, खुद के लिए तथा बस्ती की नन्ही चींटियों के लिए भोजन की व्यवस्था करती हैं। लेकिन इन छापामार चींटियों में रानी नहीं होती। इनमें श्रमिक अंडे देते हैं जिनमें से और श्रमिक पैदा होते हैं। इनकी गंध संवेदना काफी बढ़िया होती है जिसके दम पर ये अन्य बस्तियों पर छापे मारते समय ज़बर्दस्त सहयोग से काम करती हैं।

फिर 2015 में रॉकफेलर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने देखा कि ओकिनावा (जापान) से संग्रहित कुछ छापामार चींटियों में युवावस्था के शुरुआती दिनों में रानी चींटी के समान पंख हैं। और तो और, उनके बच्चों के भी पंख विकसित हुए। यानी यह गुण अगली पीढ़ी को भी हस्तांतरित हो जाता है। यह भी देखा गया कि पंख का उभरना उत्परिवर्तन का एकमात्र प्रभाव नहीं था। तो इसकी खोजबीन एक ज़ोरदार जासूसी कथा बन गई। आगे सात सालों तक कीट वैज्ञानिक वारिंग ‘बक’ ट्राइबल ने इनका अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि पंखदार छापामार चींटियां अपने बाकी साथियों की तुलना में अधिक अंडे देती हैं और अन्य चींटी बस्तियों पर छापे मारने के लिए बाहर भी कम निकलती हैं। एक मायने में ये परजीवी चींटियां हैं।

वैसे परजीवी चींटियां कोई असामान्य बात नहीं है। चींटियों की ऐसी 400 प्रजातियां हैं जो किसी अन्य चींटी (अन्य प्रजाति की चींटी) की बांबी में मज़े से रहती हैं। और तो और, उस बांबी के श्रमिक उन्हें और उनकी संतानों को खिलाते-पिलाते हैं और उनकी सुरक्षा करते हैं। लेकिन ऐसी अधिकांश चींटियां लाखों वर्षों से मुफ्तखोर रही हैं और शायद यह क्षमता विकसित करने में उन्हें हज़ारों साल लगे होंगे। तो पता करना मुश्किल है कि यह सफलता किन चरणों से होकर मिली होगी।

दूसरी ओर छापामार चींटियों में तो यह करिश्मा एक पीढ़ी में हो गया। ट्राइबल मानते हैं कि यह त्वरित संक्रमण एक सुपरजीन में उत्परिवर्तन का परिणाम है। इस सुपरजीन में कई सारे जीन्स हैं जो निर्धारित करते हैं कि श्रमिक कैसे दिखेंगे और कैसे व्यवहार करेंगे। एक खास बात यह है कि छापामार चींटी में सारे श्रमिक जेनेटिक रूप से एक जैसे यानी क्लोन होते हैं। इसलिए यह पता करना मुश्किल है कि इस उत्परिवर्तन के बगैर स्थिति क्या होगी। खैर, ट्राइबल के दल ने पता लगाया है कि अधिकांश अन्य परजीवी और उनकी मेज़बान चींटियों के डीएनए में फर्क इसी सुपरजीन में होता है।

ट्राइबल का तो यहां तक कहना है कि अधिकांश परजीवी चींटियां इसी तरह प्रकट हुईं और फिर कालांतर में वे अलग प्रजातियां बन गईं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दर्पण में कौन है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

बंदरों को जब पहली बार दर्पण दिखाया जाता है तो वे उसमें दिख रहे प्रतिबिंब को देखकर ऐसी मुद्रा बनाते हैं जैसे किसी के प्रति शत्रुता दिखा रहे हों – वे अपने दांत दिखाते हैं और लड़ने जैसी मुद्रा बना लेते हैं। हम मनुष्य दर्पण में अपने प्रतिबंब को इस रूप में पहचानते हैं कि यह तो ‘मैं’ ही हूं। वैसे, यह क्षमता सिर्फ मनुष्यों का विशिष्ट गुण नहीं है। चिम्पैंज़ी, डॉल्फिन, हाथी, कुछ पक्षी और यहां तक कि कुछ मछलियां भी ‘मिरर टेस्ट’ (दर्पण परीक्षण) में उत्तीर्ण रही हैं।

छवि (या प्रतिबिंब) को स्वयं के रूप में पहचानने का परीक्षण काफी सरल है। चुपके से व्यक्ति (या जंतु) के चेहरे पर किसी ऐसी जगह एक चिन्ह (मसलन, एक बड़ा लाल बिंदु) बना दिया जाता है कि वह चिन्ह उसे दिखाई न दे। जब किसी शिशु या छोटे बच्चे के माथे पर लाल बिंदी बनाई जाती है तो दर्पण में यह बच्चे का ध्यान खींचती ही है। लगभग 18 महीने तक की उम्र तक बच्चे आईने के प्रतिबिंब में इस अपरिचित बिंदी को दर्पण में छूने की कोशिश करते हैं। 18 महीने की उम्र के बाद बच्चों की दर्पण प्रतिबिंब पर प्रतिक्रिया यह होती है कि वे खुद अपने माथे पर उस बिंदी को छूने की कोशिश करते हैं। लगता है कि जैसे वे खुद से पूछ रहे हों, “यह बिंदी मेरे चेहरे पर कैसे आ गई?”

बड़े बच्चों की हरकत यकीनन स्वयं को पहचानने का संकेत है। लेकिन क्या यह आत्म-भान होने का भी संकेत है? आखिरकार, वयस्क लोग तक दर्पण के प्रति तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं देते हैं। कुछ लोग दर्पण दिखने पर उसके सामने ठहरे बिना मानते नहीं, और कुछ लोग उस पर ध्यान दिए बिना सामने से गुज़र जाते हैं।

आत्म-पहचान

हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में जापानी शोधकर्ताओं ने दर्पण में स्वयं को पहचानने को लेकर कुछ नए निष्कर्ष प्रकाशित किए हैं। उन्होंने ये नतीजे ब्लूस्ट्रीक क्लीनर रासे मछली पर अध्ययन कर निकाले हैं; यह दर्पण में स्वयं को पहचानने के लिए जानी जाती है। उष्णकटिबंधीय महासागरों में इस छोटी मछली का बड़ी मछलियों से एक परस्पर सम्बंध होता है। इनका भोजन बड़ी मछली के शरीर पर चिपके परजीवी होते हैं। क्लीनर मछलियां नियत स्थानों पर बड़ी मछलियों का इंतज़ार करती हैं, और परजीवी-ग्रस्त मछलियां परजीवियों को हटवाने के लिए उनके पास जाती हैं। यहां तक कि परजीवी-ग्रस्त मछलियां अपने शरीर की अजीब-अजीब मुद्राएं बनाती हैं ताकि क्लीनर मछलियां परजीवियों तक पहुंच सकें। यह कुछ वैसे ही दिखता है जैसे किसी हज्जाम की दुकान पर दाढ़ी या बगलों की हजामत करवाने बैठा व्यक्ति ठोढ़ी या बांह ऊपर करके बैठा होता है ताकि हज्जाम अपना काम कर सके।

अध्ययन में एक्वैरियम में, एक बार में एक क्लीनर मछली के साथ प्रयोग किए गए। पहले पानी में एक दर्पण रखा गया, या स्क्रीन पर मछली की तस्वीर दिखाई गई। शुरुआती कुछ दफा जब मछली ने दर्पण में अपनी छवि या तस्वीर देखी तो उनकी प्रतिक्रिया आक्रामक रही। लेकिन समय के साथ उनमें स्वयं की छवि की पहचान आ गई, और इन मछलियों ने दर्पण-टेस्ट पास कर लिया। अब वे केवल अजनबी की छवियों के प्रति आक्रामक थीं। और तो और, वे अपने शरीर पर बनाए गए चमकीले निशानों को भी पहचानने लगीं और पास की किसी भी सतह पर रगड़कर उन्हें मिटाने की कोशिश करने लगीं।

और जब तस्वीर में फेरबदल करके, उनका चेहरा किसी अन्य मछली के शरीर पर लगाकर, तस्वीर दिखाई गई तो भी मछलियों ने आक्रामक व्यवहार नहीं दर्शाया। लेकिन जब मछली के स्वयं के शरीर पर किसी अजनबी मछली के चेहरे वाली तस्वीर दिखाई गई तो उन्होंने शत्रुता का व्यवहार दर्शाया। इससे ऐसा लगता है कि क्लीनर मछली अपने चेहरे की याद रखती है।

मनुष्यों के बच्चों की बात पर वापिस आते हैं, हमने देखा है कि बच्चे जैसे-जैसे बड़े होने लगते हैं उनमें आत्म-भान आने लगता है। दर्पण में प्रतिबिंब को देखकर पूरी तरह से ये ‘मैं’ हूं की समझ 18 महीने की उम्र में आती है। यह वह उम्र भी है जिस पर बच्चे अपने बारे में बात करना शुरू करते हैं, और पिछली घटनाओं को याद करते हैं, जैसे “मैंने इसे खा लिया”)। क्या इसे आत्म-भान कहा जा सकता है? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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