क्या खब्बू होना विरासत में मिलता है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

यदि किसी व्यक्ति की मां खब्बू यानी बाएं हाथ से काम करने वाली हो, तो ज़्यादा संभावना होती है कि वह भी खब्बू हो।

म इन्सान दो पैरों पर चलते हैं यानी दोपाए हैं और अपने दो हाथों का उपयोग करते हैं। दोपाएपन का विकास हमारे पूर्वजों – प्रायमेट्स –  में लगभग 40 लाख पहले शुरू हो गया था। प्रायमेट जीवों ने न सिर्फ हमें हमारे रक्त समूह की सौगात दी, बल्कि दो पैर और दो हाथ भी दिए हैं। प्रायमेट्स में कई ऐसे लक्षण पाए जाते हैं जो उन्हें कम विकसित स्तनधारियों से अलग करते हैं। जैसे पेड़ों पर रहने (जैसा कि बंदर करते हैं) के लिए हुए अनुकूलन, बड़े मस्तिष्क, बेहतर दृष्टि संवेदना, उंगलियों के सामने आ जाने वाला (सम्मुख) अंगूठा जिसके चलते चीज़ों पर पकड़ बेहतर बनती है, और कंधों की ज़्यादा लचीली गतियां।

चार हाथों से दो तक

जापान के क्योटो विश्वविद्यालय के डॉ. तेत्सुरो मात्सुज़ावा लिखते हैं कि प्रायमेट्स के साझा पूर्वज पेड़ों पर चढ़े और उन्होंने अपने ज़मीनी पूर्वजों के चार पैरों से चार हाथ विकसित किए। यह वृक्ष-आधारित जीवन के लिए एक अनुकूलन था। इससे उन्हें पेड़ के तने और शाखाओं पर बढ़िया पकड़ बनाने में मदद मिलती थी। इसके बाद किसी समय प्रारंभिक मानव पूर्वज पेड़ों से उतरे और ज़मीन पर दो पैरों से लंबी-लंबी दूरियां तय करने लगे। इस तरह हमने अपने प्रायमेट पूर्वजों से विकास के दौरान चार हाथों से दो पैर और दो हाथ बना लिए।

यूएस के मिसौरी विश्वविद्यालय के मानव वैज्ञानिक कैरोल वार्ड बताते हैं कि कैसे हम मनुष्य इस दुनिया में जिस ढंग से विचरते हैं, वह किसी भी अन्य प्राणि से भिन्न है। हम ज़मीन पर दो पैरों पर सीधे खड़े होकर चलते हैं लेकिन एकदम अनोखे ढंग से: पहले एक पैर, फिर दूसरा पैर, अपने शरीर को एकदम सीधा रखकर गतियों के एक विशिष्ट क्रम में। लिहाज़ा, यह समझना एक बड़ी बात है कि हम इसी तरह क्यों चलते हैं और हमारा वंश (होमो) अपने वानर-सदृश पूर्वजों से इतना दूर कैसे निकल गया।

मानव मस्तिष्क हमारे सबसे निकट सम्बंधी – चिम्पैंज़ी – से लगभग तीन गुना बड़ा है। इसके अलावा हमारे मस्तिष्क के सेरेब्रल कॉर्टेक्स नामक हिस्से में चिम्पैंज़ी के उसी हिस्से के मुकाबले कोशिकाओं की संख्या दुगनी है। गौरतलब है कि सेरेब्रल कॉर्टेक्स याददाश्त, एकाग्रता और सोच-विचार में प्रमुख भूमिका निभाता है। यानी हम वनमानुषों से ज़्यादा स्मार्ट हैं।

तो क्या यह जीन्स में है

अब सवाल आता है हाथों के इस्तेमाल में वरीयता यानी हैंडेडनेस का। लगभग 10 प्रतिशत लोग वामहस्त (खब्बू) हैं। यह कैसे हुआ? यह आज भी गर्मागरम बहस का मुद्दा है। हो सकता है कि इसमें कुछ जेनेटिक अंश हो: आपके खब्बू होने की संभावना आपकी मां के खब्बू होने से ज़्यादा जुड़ी होती है बनिस्बत आपके पिता की स्थिति से। यदि आपके माता-पिता दोनों खब्बू हों तो आपके खब्बू होने की संभावना 50 प्रतिशत हो जाती है। पाकिस्तान के सरगोधा विश्वविद्यालय के एक दल ने जरनल ऑफ इंडियन एकेडमी ऑफ एप्लाइड सायकोलॉजी (JIAAP) में बताया है कि खब्बू सहभागी दाहिने हाथ वाले (दक्षिणहस्त) सहभागियों की तुलना में अधिक बुद्धिमान होते हैं।

लंदन विश्वविद्यालय के डॉ. क्रिस मैकमेनस ने 2019 में एक विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित किया था: ‘हाफ ए सेंचुरी ऑफ हैंडेडनेस रिसर्च: मिथ्स, ट्रुथ्स, फिक्शन्स, फैक्ट्स; बैकवर्ड्स बट मोस्टली फॉरवर्ड्स’। यह लेख ब्रेन एंड न्यूरोसाइंस एडवांसेज़ नामक जरनल में प्रकाशित हुआ था। उन्हें उम्मीद है कि जीन अनुक्रमण और मस्तिष्क स्कैनिंग तकनीकों में हर तरक्की के साथ हम आने वाले वर्षों में हैंडेडनेस के बारे में और अधिक जान पाएंगे।

खब्बू फायदे में

खेलकूद में हम देख ही सकते हैं कि खब्बू खिलाड़ी दाहिने हाथ वालों पर हावी हैं। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में लगभग 20 प्रतिशत उच्च स्तरीय बल्लेबाज़ खब्बू हैं। और ओपन-एरा विंबलडन प्रतियोगिता में 23 प्रतिशत बढ़िया खिलाड़ी खब्बू हैं। क्रिकेट में गौतम गंभीर और सौरभ गांगुली, टेनिस में राफेल नडाल और मार्टिना नवरातिलोवा, फुटबॉल में लियोनल मेसी। कहना न होगा कि महात्मा गांधी दोनों हाथों में निपुण (एम्बीडेक्स्ट्रस) थे, और आइज़ेक न्यूटन भी। इस फेहरिस्त में आप भी कई नाम जोड़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुछ कैनरी पक्षी खाने में माहिर होते हैं

कैनरी के लिए बीज खाना सीखना एक कठिन काम हो सकता है। लेकिन शोधकर्ताओं ने पिछले हफ्ते सम्पन्न हुई सोसायटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में बताया कि इनमें से कुछ पक्षी अपने साथी पक्षियों की तुलना में काष्ठ फलों की सख्त खोल को तोड़ने में चार गुना अधिक तेज़ होते हैं और उनके अंदर मौजूद पौष्टिक गरी तक पहुंच जाते हैं।

शोधकर्ताओं ने 90 कैनरी पक्षियों का बाज़ार में मिलने वाले उनके भोजन या सन के बीज खाते हुए वीडियो बनाया। इन बीजों की साइज़ सेब के बीज औैर तिल के बीच थी, और इनकी खोल सख्त थी। इस सबमें पक्षियों के लिए सबसे कठिन काम था बीजों को चोंच में सही जगह पर सही तरीके से रखना ताकि चोंच बड़े करीने से इसे फोड़ सके – बीज की खोल फूटकर छिटक जाए और गरी चोंच में बनी रहे।

फुर्तीली कैनरियों को बीज को चोंच में सही स्थिति में रखने और इसे फोड़ने में 4 सेकंड या उससे भी कम समय लगा, और इनमें से कुछ कैनरी ने लगभग 80 प्रतिशत बार सफलतापूर्वक बीज फोड़ लिए। लेकिन अन्य कैनरियों को केवल 40 प्रतिशत बार ही सफलता मिली।

आप इस अध्ययन का वीडियो यहां देख सकते हैं:

https://www.science.org/content/article/some-canaries-are-superstar-seed-crackers-watch-their-tricks?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_

शोधकर्ताओं के अनुसार जल्दी खाना जीवित रहने का एक ज़रूरी कौशल है: कोई पक्षी भरपेट खाने में जितना अधिक समय लगाएगा, उतना ही अधिक समय तक वह खुले में रहेगा, और उतना ही अधिक उसे शिकारियों का खतरा होगा और उसके पास उतना ही कम समय प्रजनन और अपने बच्चों की देखभाल के लिए बचेगा। शोधकर्ताओं का कहना है कि सबसे कुशल पक्षी जानते थे कि उनकी चोंच में बीज कहां है।

अब, आगे के अध्ययन में शोधकर्ता यह देखना चाहते हैं कि क्या यह समझ सीखी गई है या उन्हें विरासत में मिली है। (स्रोत फीचर्स)

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मधुमक्खियों के लिए टीका!

हाल ही में जॉर्जिया की एक बायोटेक कंपनी को मधुमक्खियों के लिए टीके की सशर्त स्वीकृति प्राप्त हुई है। इस टीके से वायरस और अन्य रोगजनकों को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी जो मधुमक्खियों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। यह कीटों के लिए विश्व का पहला टीका है।

डेलन एनिमल हेल्थ नामक कंपनी द्वारा विकसित टीका मधुमक्खियों को अमेरिकन फाउलब्रूड जैसे बैक्टीरिया से सुरक्षा प्रदान करता है। फिलहाल इस बैक्टीरिया से निपटने के लिए मधुमक्खियों की संक्रमित कॉलोनियों को जला दिया जाता है या एंटीबायोटिक्स का उपयोग किया जाता है।

गौरतलब है कि विश्व भर में मधुमक्खियों के करोड़ों छत्ते हैं लेकिन अन्य जीवों के विपरीत उनके लिए पर्याप्त स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं है। इस टीके की मदद से अब मधुमक्खियों की प्रतिरोध क्षमता में सुधार की संभावना है।

टीके की बात आते ही लगता है कि सिरिंज की मदद से रोगजनक का मृत/दुर्बलीकृत संस्करण मधुमक्खी के शरीर में इंजेक्ट किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है – वास्तव में यह टीका भोजन के रूप में दिया जाएगा। टीके को रॉयल जैली में मिला दिया जाएगा जो रानी मधुमक्खी को खिलाई जाती है। इसे निगलने पर यह टीका उनके अंडाशय में जमा हो जाएगा और नई पीढ़ी की इल्लियां प्रतिरक्षा के साथ पैदा होंगी।   

वैज्ञानिकों का मानना रहा है कि कीटों में एंटीबॉडी नहीं होती, इसलिए उनमें प्रतिरक्षा विकसित होना संभव नहीं है। एंटीबॉडी एक प्रकार के प्रोटीन होते हैं जिनकी मदद से कई जंतु बैक्टीरिया और वायरस को पहचानकर उनसे लड़ते हैं। अलबत्ता, एक बार यह समझ लेने के बाद कि कीट भी प्रतिरक्षा हासिल कर सकते हैं और अगली पीढ़ी को दे सकते हैं, वैज्ञानिकों ने इस दिशा में काम करना शुरू किया।

वर्ष 2015 में डेलाइल फ्राइटेक और उनके सहयोगियों ने उस विशिष्ट प्रोटीन की पहचान की जो संतानों में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा कर सकता है। यानी छत्ते की रानी मधुमक्खी की मदद से पूरे छत्ते की आबादी में प्रतिरक्षा विकसित की जा सकती है क्योंकि एक छत्ते में सारी संतानें एक ही रानी मधुमक्खी की होती हैं। वैज्ञानिकों का पहला लक्ष्य अमेरिकन फाउलब्रूड रोग था। इसके कारण मधुमक्खी के लार्वा भूरे होकर छत्ते में दुर्गंध उत्पन्न करने लगते हैं। यह मधुमक्खियों की कॉलोनियों को खत्म करने में भी सक्षम है।

यह टीका महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि खाद्य प्रणाली में मधुमक्खियां परागणकर्ता की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण कई फसलों के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार हैं। लेकिन कुछ समय से जलवायु परिवर्तन, कीटनाशकों, प्राकृतवासों के नष्ट होने और बीमारियों के कारण इनकी आबादी में कमी आई है। इस टीके को सशर्त अनुमोदन देने से कंपनियों को मधुमक्खियों के लिए टीके बनाने का प्रोत्साहन मिलेगा। खाद्य सुरक्षा के लिहाज़ से यह महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

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मच्छर के खून से संक्रमण का सुराग

कोई मच्छर आपका खून चूसे तो काफी तकलीफदायक होता है और कभी-कभी बीमारी की सौगात भी साथ लाता है। लेकिन हर चीज़ का एक सकारात्मक पक्ष भी होता है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि रक्तपान कर चुके मच्छर के खून का विश्लेषण करके पता लगाया जा सकता है कि उसने जिस व्यक्ति (अथवा जानवर को) काटा था उसके शरीर में कौन-कौन से संक्रमण मौजूद थे। वैसे यह रोग निदान की तकनीक तो साबित नहीं होगी लेकिन इससे किसी क्षेत्र में संक्रमणों का अध्ययन करने में मदद मिल सकती है। इसके अलावा इस तरीके की मदद से यह भी पता चल सकेगा कि किसी क्षेत्र में कौन-सा संक्रमण फैलने की आशंका है।

ऐसा नहीं है कि इस तरह का अध्ययन पहली बार किया गया है। लेकिन वे सभी स्वयं व्यक्ति के खून में एंटीबॉडीज़ की उपस्थिति पर टिके थे। एंटीबॉडीज़ शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र बनाता है और ये शरीर में कई महीनों तक टिकी रह सकती हैं। लेकिन हाल के अध्ययन में ब्रिसबेन स्थित क्यू.आई.एम.आर. बर्गहॉफर मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट की कार्ला विएइरा ने मच्छरों की मदद ली।

विएइरा ने अपना अध्ययन रॉस रिवर वायरस पर केंद्रित किया था। यह वायरस ऑस्ट्रेलिया और कुछ द्वीपों का स्थानिक है और काफी दुर्बलताजनक बीमारी का कारण बन सकता है। विएइरा और उनके साथियों ने 2021 और 2022 में ब्रिसबेन के बगीचों से करीब 55,000 मच्छर पकड़े। इनमें से जिन मच्छरों ने हाल ही में रक्तपान किया था, उनमें से शोधकर्ताओं ने लगभग 2-2 मिलीलीटर खून निचोड़ा और उसमें रॉस रिवर वायरस की एंटीबॉडी की जांच की। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने उस खून में से डीएनए के खंडों का अनुक्रमण करके यह भी पता किया कि किसी मच्छर ने किस मेज़बान (मनुष्य अथवा जानवर) का खून पीया था।

अध्ययन के प्रारंभिक नतीजों में बताया गया है कि पकड़े गए मच्छरों में से 480 खून से लबालब थे। इनमें से आधे से ज़्यादा ने मनुष्यों का खून पीया था जबकि शेष ने अन्य जानवरों का (जैसे 6 प्रतिशत गाय, 9 प्रतिशत कंगारू वगैरह)। मनुष्यों का खून पी चुके मच्छरों से प्राप्त नमूनों में आधे से ज़्यादा में रॉस रिवर वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी पाई गई।

इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन में मच्छरों द्वारा जानवरों के चूसे गए खून के नमूनों में कोविड वायरस और एक परजीवी (टॉक्सोप्लाज़्मा गोंडी) के विरुद्ध एंडीबॉडी मिलीं।

ऐसा लगता है कि यह तकनीक बीमारियों के प्रसार के अध्ययन में काफी उपयोगी साबित हो सकती है। लेकिन इसकी कुछ सीमाएं भी हैं। जैसे आंकड़ों से यह पता नहीं चलता कि जिस जानवर का खून मच्छर ने पीया था वह मच्छर पकड़े जाने के स्थान से कितना दूर था।

इसके अलावा एक दिक्कत यह है कि मच्छरों के खून में एंडीबॉडी मिलने के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि उतने ही अनुपात में संक्रमण भी आबादी में मौजूद है क्योंकि हो सकता है कि कई मच्छरों ने एक ही व्यक्ति को काटा हो। एक परेशानी यह बताई गई है कि खून पी चुका (चुकी) मच्छर को पकड़ना मुश्किल होता है क्योंकि खून पीने के बाद वह किसी अंधेरे स्थान में बैठकर उस खून को पचाती है। बहरहाल यह रोग प्रसार के संदर्भ में एक नई तकनीक तो है ही, जिसमें यह समस्या नहीं होगी कि आप एक-एक व्यक्ति के खून का नमूना एकत्रित करते फिरें। (स्रोत फीचर्स)

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राजहंस कैसे कीचड़ से भोजन छान लेता है

गुलाबी पंखों और लंबे डग भरने वाले फ्लेमिंगो (राजहंस) अन्य मामलों में भी बाकियों से अलग हैं। वे कीचड़ में से छोटे-छोटे झींगों, कीड़े-मकोड़ों और अन्य जीवों को छानने (या चुनने) में इतने माहिर हैं कि वे कम भोजन वाले उन इलाकों, जिनमें नमक के मैदान, क्षारीय झीलें और गर्म पानी के झरने शामिल हैं, में भी जीवित रहते हैं, जहां से अधिकांश पक्षी पलायन कर जाते हैं।

पिछले हफ्ते सोसाइटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में फ्लेमिंगो की खानपान की आदतों पर प्रस्तुत एक नवीन अध्ययन में बताया गया कि इस सफलता का कारण तरल यांत्रिकी में उनकी महारत है। वे पानी की भौतिकी की मदद से भोजन मुंह तक पहुंचाते हैं।

जॉर्जिया युनिवर्सिटी के विक्टर ओर्टेगा-जिमेनेज़ और उनके साथियों ने नैशविले चिड़ियाघर में चिली फ्लेमिंगो के पानी में चलने और खाने के व्यवहार का अध्ययन परिष्कृत इमेजिंग तकनीकों और कंप्यूटर प्रोग्राम की मदद से किया। फिर अपने अनुमानों की जांच उन्होंने फ्लेमिंगो के सिर के त्रि-आयामी मॉडल पर की।

उन्होंने पाया कि फ्लेमिंगो चोंच को गोल-गोल घुमाकर पानी में भंवर पैदा करते हैं जिससे भोजन उनकी पहंुच में आ जाता है। उदाहरण के लिए, राजहंस पैर पटकते हैं और छोटे गोले में चारों ओर घूमते हैं जिससे कीचड़ ऊपर उछलता है। फिर वे अपनी चोंच को पेंदे से सटाते हैं और अपने मुंह को बार-बार खोलते-बंद करते हैं जैसे पटर-पटर बात कर रहे हों, फिर तालाब के पेंदे से जीभ सटाकर अपनी जीभ को अंदर-बाहर खींचते हुए सक्शन पैदा करते हैं। बीच-बीच में, वे अचानक अपना सिर उठाते हैं जिससे एक भंवर पैदा होता है, जो भोजन को ऊपर उनके मुंह की ओर उठाता है। और आखिर में, जैसे ही फ्लेमिंगो आगे बढ़ते हैं, वे अपनी चोंच से पानी की सतह को पीछे की ओर फेंकते हैं, जिससे पानी में भंवर बन जाता है जो भोजन को ठीक उनकी चोंच के सिरे पर ले आता है। और भोजन सीधे पेट में पहुंचने को तैयार होता है। (स्रोत फीचर्स)

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कैरेबियन घोंघों का संरक्षण, मछुआरे की चिंतित

रानी घोंघा अपनी आकर्षक खोल (शंख) और स्वादिष्ट मांस के लिए प्रसिद्ध है। सदियों से इन्हें इनके मांस के लिए पकड़ा जा रहा है। इनके मांस की सबसे अधिक खपत संयुक्त राज्य अमेरिका में होती है। अमरीकी सरकार के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि इस आपूर्ति के लिए इनका अतिदोहन रानी घोंघो को विलुप्ति की ओर धकेल सकता है।

इस अध्ययन पर सार्वजनिक राय लेने के बाद अब इस बात पर विचार किया जा रहा है कि इन कैरेबियाई प्रजातियों को संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत जोखिमग्रस्त जीवों की सूची में शामिल किया जाए या नहीं।

इस कदम का कई देशों के मछुआरे विरोध कर रहे हैं – उनकी चिंता है कि इस तरह सूचीबद्ध करने से यूएस को घोंघे का मांस निर्यात करना मुश्किल हो जाएगा, जो उनका सबसे बड़ा बाज़ार है।

अध्ययन पर अंतर-सरकारी संगठन, कैरेबियन रीजनल फिशरीज़ मैकेनिज़्म, की मत्स्य विज्ञानी मैरेन हेडली का कहना है कि हमें नहीं लगता है कि इस समय संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत इन प्रजातियों को सूचीबद्ध करना उचित है, या इनकी रक्षा के लिए यही सर्वोत्तम विकल्प है। प्रजातियों को जोखिमग्रस्त सूची में शामिल करने से पड़ने वाले संभावित आर्थिक प्रभाव का हवाला देते हुए उनका कहना है कि हमारा उद्देश्य मत्स्य-संसाधनों का बेहतर प्रबंधन होना चाहिए।

ये घोंघे समूचे कैरबियाई सागर में समुद्री घास के झुरमुटों में रहते हैं। बहामास के तट पर पकड़े गए घोंघों की खोल का विशाल ढेर इनके अतिदोहन का गवाह है। ये तो गनीमत है कि इनमें से कुछ प्रजातियां अपनी कुछ खासियत की वजह से कभी-कभी शिकारी गोताखोरों से बच जाती हैं। कुछ घोंघे दुर्गम समुद्री इलाकों में या बहुत गहराई में रहने की वजह से सुरक्षित बच जाते हैं। वहीं वयोवृद्ध घोंघे, जो 35 सेंटीमीटर तक लंबे हो जाते है, उम्र के साथ उनकी खोल पर उगने वाले शैवाल या प्रवाल की वजह से शिकारियों से ओझल रहते हैं।

इनके अतिदोहन के कारण 1975 में फ्लोरिडा में घोंघे पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इनकी घटती आबादी के कारण अन्य देशों ने भी इस पर प्रतिबंध लगाने का कदम उठाया। और 1992 में वन्य जीवों और वनस्पतियों की संकटग्रस्त प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की संधि (CITES) द्वारा घोंघों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को नियंत्रित किया गया। घोंघे के निरंतर अतिदोहन से चिंतित CITES ने 2003 में होंडुरास, हैती और डोमिनिकन गणराज्य से घोंघे के आयात पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी।

यूएस के नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) द्वारा की गई समीक्षा के अनुसार, वर्तमान में हर जगह इनकी संख्या कम है, और शेष स्थानीय आबादी में जीन प्रवाह बनाए रखने के लिए लार्वा पर्याप्त रूप से नहीं फैल रहे हैं। हालांकि बहामास, जमैका और कुछ अन्य स्थानों में घोंघे अभी फल-फूल रहे हैं, लेकिन आने वाले सालों में होने वाला दोहन इन्हें विलुप्ति की ओर ले जा सकता है। इन्हें संकटग्रस्त की सूची में डालने से भविष्य में अन्य देशों में इनके आयात पर प्रतिबंध को उचित ठहराया जा सकेगा, और घोंघा पालन के बेहतर प्रबंधन की राह आसान हो जाएगी। 2018 में अमेरिका ने 3.3 करोड़ डॉलर के घोंघे का मांस का आयात किया था। इसलिए इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करना एक स्पष्ट संदेश देगा कि यह प्रजाति खतरे में है।

लेकिन इससे सभी सहमत नहीं है। प्यूर्टो रिको विश्वविद्यालय के मत्स्य जीवविज्ञानी रिचर्ड एपलडॉर्न का कहना है कि उन्हें घोंघों की स्थिति उतनी भयानक नहीं लगती। जैसे, उनका कहना है कि उपरोक्त अध्ययन में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि घोंघे प्रजनन से पहले इकट्ठे होते हैं, इसलिए आबादी का फैलाव और घनत्व भ्रामक दिख सकता है। उनके अनुसार, घोंघे पकड़ने वाले समुदायों के ज्ञान को शामिल करने से बेहतर सर्वेक्षण हो सकता है। ऐसा ज़रूरी नहीं कि कुशल वैज्ञानिक घोंघे गिनने में भी माहिर हों।

कुछ देशों का कहना है कि वे घोंघों के शिकार का प्रबंधन करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। बेलीज़ मत्स्य विभाग के मौरो गोंगोरा ने बताया कि उनके देश में 15,000 लोग घोंघों से लाभान्वित होते हैं, खासकर तटवर्ती छोटे गांवों के मछुआरे, और यहां की घोंघो की आबादी अच्छी तरह से प्रजनन कर रही है। चूंकि हम घोंघों के महत्व को पहचानते हैं इसलिए हम इनके बेहतर प्रबंधन के भरसक प्रयास कर रहे हैं।

लेकिन इस पर एनओएए का कहना है कि कई कैरेबियाई देशों में संरक्षण सम्बंधी नियम-कायदों की कमी है। इनकी आबादी में गिरावट को रोकने के लिए अधिक कदम उठाने की ज़रूरत है।

जमैका के मत्स्य पालन निदेशक स्टीफन स्मिकले का कहना है कि घोंघों के अवैध और अनियंत्रित शिकार से निपटने के लिए अमेरिकी सरकार के अधिक समर्थन की ज़रूरत है। इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करने से वित्तीय मदद को बढ़ावा मिल सकता है। और इससे त्वरित संरक्षण और आबादी सुधार प्राथमिकता बन जाएगी।

अधिक वित्तीय सहयोग से कृत्रिम परिवेश में अंडों को सेकर घोंघों के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिल सकती है। लेकिन ऐसा करना एक बहुत गंभीर घाव की महज़ मलहम-पट्टी करने जैसा होगा। प्राकृतिक प्रजनन के माध्यम से घोंघो की आबादी में सुधार करना ही एकमात्र स्थायी तरीका है। (स्रोत फीचर्स)

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नर ततैया भी डंक मारते हैं

क जापानी कीटविज्ञानी मिसाकी त्सूजी को जब एक नर ततैया ने डंक मारा तो वे हैरान रह गईं। क्योंकि माना जाता है कि सिर्फ मादा ततैया और मधुमक्खियां ही दर्दनाक डंक मार सकती हैं। दरअसल वे जिस अंग से डंक मारती हैं वह अंडे देने के अंग (ओविपॉज़िटर) का परिवर्तित रूप होता है। इसलिए आम तौर पर माना जाता है कि नर डंक नहीं मार सकते।

इस अनुभव के बाद जिस ततैया, एंटरहाइंचियम गिबिफ्रॉन्स, ने डंक मारा था त्सूजी ने उसका बारीकी से अवलोकन किया। करंट बायोलॉजी में वे बताती हैं कि ततैया ने डंक मारने के लिए अपने नुकीले, दो कांटों वाले जननांग का उपयोग किया था।

यह जानने के लिए कि क्या नर ततैया के छद्म डंक उन्हें उनके शिकारियों से बचाते हैं, शोधकर्ताओं ने ए. गिबिफ्रॉन्स नर ततैया को उनके शिकारी (वृक्ष मेंढक) के साथ रखा। जब-जब मेंढक ने ततैया पर हमला किया ततैया ने अपने पैने शिश्न से पलटवार किया। नतीजतन मेंढक ने लगभग एक तिहाई दफा ततैया को बाहर थूक दिया। तुलना के तौर पर जिन नर ततैया के छद्म डंक हटा दिए गए थे वे मेंढक का भोजन बन गए थे।

जीव जगत में ऐसा पहली बार देखा गया है जब नर जननांग द्वारा रक्षात्मक भूमिका निभाई जा रही हो। शोधकर्ताओं को लगता है कि इसी तरह की रणनीति अन्य ततैया में भी पाई जाती होगी। शोधकर्ता आगे इसी का अध्ययन की तैयारी में हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चींटियों के प्यूपा ‘दूध’ देते हैं

चींटियों और उनकी कॉलोनी का अवलोकन शोधकर्ताओं के लिए हमेशा ही रोमांचक रहा है। देखा गया है कि वे अपनी बांबी की सफाई, खाद्य-भंडारण, पशुपालन और खेती जैसे कार्य तक करती हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने पहली बार देखा है कि चींटियों के प्यूपा दूध जैसा तरल पदार्थ स्रावित करते हैं, जिससे कॉलोनी की चींटियां पोषण लेती हैं। यह खोज प्यूपा के कॉलोनी में योगदान के बारे में बनी धारणा को तोड़ती है और चींटियों द्वारा शिशु-पालन का एक तरीका प्रस्तुत करती है।

गौरतलब है कि चींटियों, तितलियों, मच्छरों वगैरह कई कीटों के जीवन चक्र में तीन अवस्थाएं होती हैं। अंडे में से इल्ली या लार्वा निकलता है। एक समय बाद यह लार्वा प्यूपा में बदल जाता है। प्यूपा निष्क्रिय होता है – न कुछ खाता-पीता है और न ही चलता-फिरता है। इसके आसपास एक खोल चढ़ी होती है। कॉलोनी की बाकी चींटियां ही प्यूपा को इधर-उधर सरकाती हैं। कुछ दिनों बाद यह खोल फटती है और अंदर से वयस्क कीट निकलता है।

इसी निष्क्रियता की वजह से, प्यूपा को अब तक कॉलोनी के लिए फालतू माना जाता था लेकिन ताज़ा शोध बताता है कि ऐसा नहीं है।

रॉकफेलर युनिवर्सिटी की जीवविज्ञानी ओर्ली स्निर इस बात का अध्ययन कर रहीं थी कि क्या चीज़ है जो चींटियों की कॉलोनी को एकीकृत रखती है। इसके अध्ययन के लिए उन्होंने क्लोनल रैडर (ऊसेरिया बिरोई) चींटियों के जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं को अलग-अलग रखकर उनका अध्ययन किया। शोधकर्ता यह देखकर हैरान थे कि प्यूपा के उदर से दूध जैसे सफेद तरल की बूंदें रिस रही थीं, और प्यूपा के आसपास जमा हो रहीं थी। प्यूपा इस तरल में डूबकर मर गए। लेकिन जब तरल उनके आसपास से हटा दिया गया तो वे बच गए थे।

सवाल यह था कि यह तरल जाता कहां हैं। यह पता करने के लिए शोधकर्ताओं ने प्यूपा में खाने वाला नीला रंग प्रविष्ट कराया और देखा कि वह रंग कहां-कहां जाता है। पाया गया कि तरल पदार्थ के स्रावित होते ही वयस्क चींटियां इसे पी जाती हैं। और तो और, वे लार्वा को प्यूपा के पास ले जाकर इसे पीने में मदद करती हैं। नेचर पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि एक मायने में वयस्क चींटियां पालकीय देखभाल दर्शा रही हैं – प्यूपा के आसपास तरल जमा होने से रोककर और लार्वा को पोषण युक्त तरल पिलाकर। यदि व्यस्क चींटियां और लार्वा इस तरल का सेवन न करें तो इसमें फफूंद लग जाती है और प्यूपा मर जाते हैं। और लार्वा की वृद्धि और जीवन इस तरल पर उसी तरह निर्भर होता है, जिस तरह स्तनधारी नवजात शिशु मां के दूध पर।

शोधकर्ताओं के अनुसार यह एक ऐसा तंत्र है जो कॉलोनी को एकजुट रखता है, चींटियों के विकास की अवस्थाओं – लार्वा, प्यूपा और वयस्क – को एक इकाई के रूप में बांधता है।

शोधकर्ताओं ने तरल की आणविक संरचना का भी परीक्षण किया। उन्हें उसमें 185 ऐसे प्रोटीन मिले जो सिर्फ इसी तरल में मौजूद थे, साथ ही 100 से अधिक मेटाबोलाइट्स (जैसे अमीनो एसिड, शर्करा और विटामिन) भी इसमें पाए गए। पहचाने गए यौगिकों से पता चलता है कि यह दूध निर्मोचन द्रव से बनता है जब प्यूपा में परिवर्तित होने के दौरान लार्वा अपना बाहरी आवरण त्यागते हैं।

शोधकर्ताओं ने चींटियों के पांच सबसे बड़े उप-कुलों की प्रजातियों में भी पाया कि उनके प्यूपा तरल स्रावित करते हैं। इससे लगता है कि इस तरल की चींटियों के सामाजिक ढांचे के विकास में कोई भूमिका होगी।

शोधकर्ता अब देखना चाहते हैं कि इस तरल के सेवन का वयस्क चींटियों और लार्वा के व्यवहार और शरीर विज्ञान पर क्या असर पड़ता है। हो सकता है कि लार्वा बड़े होकर रानी चींटी बनेंगे या श्रमिक चींटी यह इस बात पर निर्भर करता हो कि उन्हें कितना दूध सेवन के लिए मिला।

अन्य शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि इस तरल का चींटियों के आंतों के सूक्ष्मजीव संसार और भोजन को पचाने में क्या योगदान है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धनेश पक्षियों का आकर्षक कुनबा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

हाल ही में नागालैंड में हुए धनेश (हॉर्नबिल) उत्सव में भारत की आगामी जी-20 अध्यक्षता के प्रतीक चिन्ह (लोगो) का आधिकारिक तौर पर अनावरण किया गया। नागालैंड का यह लोकप्रिय उत्सव वहां की कला, संस्कृति और व्यंजनों को प्रदर्शित करता है। यह हमारे देश के कुछ सबसे बड़े, सबसे विशाल पक्षियों के कुल की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है।

विशाल धनेश (Buceros bicornis) हिमालय की तलहटी, पूर्वोत्तर भारत और पश्चिमी घाट में पाया जाता है। यह अरुणाचल प्रदेश और केरल का राज्य पक्षी है। पांच फीट पंख फैलाव वाले विशाल धनेश का किसी टहनी पर उतरना एक अद्भुत (और शोरभरा) नज़ारा होता है।

धारीदार चोंच वाला धनेश (Rhyticeros undulatus), भूरा धनेश (Anorrhinus austeni) और भूरी-गर्दन वाला धनेश (Aceros nipalensis) साइज़ में थोड़े छोटे होते हैं, और ये केवल पूर्वोत्तर भारत में पाए जाते हैं। उत्तराखंड का राजाजी राष्ट्रीय उद्यान पूर्वी चितकबरे धनेश (Anthracoceros albirostris) को देखने के लिए एक शानदार जगह है। मालाबार भूरा धनेश (Ocyceros griseus) का ज़ोरदार ‘ठहाका’ पश्चिमी घाट में गूंजता है। सबसे छोटा धनेश, भारतीय भूरा धनेश (Ocyceros birostris), भारत में थार रेगिस्तान को छोड़कर हर जगह पाया जाता है और अक्सर शहरों में भी देखा जा सकता है – जैसे चेन्नई में थियोसोफिकल सोसाइटी उद्यान।

धनेश की बड़ी और भारी चोंच कुछ बाधाएं भी डालती हैं – संतुलन के लिए, पहले दो कशेरुक (रीढ़ की हड्डियां) आपस में जुड़े होते हैं। नतीजा यह होता है कि धनेश अपना सिर ऊपर-नीचे हिलाकर हामी तो भर सकता है, लेकिन ‘ना’ करने (बाएं-दाएं सिर हिलाने) में इसे कठिनाई होती है। मध्य और दक्षिण अमेरिका के टूकेन की भी चोंच बड़ी होती हैं। यह अभिसारी विकास का एक उदाहरण – दोनों ही पक्षियों का भोजन एक-सा है।

लंबे वृक्षों को प्राथमिकता

धनेश अपने घोंसले बनाने के लिए ऊंचे पेड़ पसंद करते हैं। इन पक्षियों और जिन पेड़ों पर ये घोंसला बनाते हैं उनके बीच परस्पर सहोपकारिता होती है। बड़े फल खाने वाले धनेश लगभग 80 वर्षावन पेड़ों के बीजों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। धनेश की आबादी घटने से कुछ पेड़ (जैसे कप-कैलिक्स सफेद देवदार – Dysoxylum gotadhora) के बीजों की मूल वृक्ष से दूर फैलने में 90 प्रतिशत की गिरावट आई है, जो वनों की जैव विविधता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।

दक्षिण पूर्व एशिया के विशाल तौलांग वृक्ष का ज़िक्र लोककथाओं में इतना है कि इस वृक्ष को काटना वर्जित माना जाता है। यह हेलमेट धनेश (Rhinoplax vigil) का पसंदीदा आवास है। इसके फलने का मौसम और धनेश के प्रजनन का मौसम एक साथ ही पड़ते हैं। पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान बीजों को फैलाने में धनेश के महत्व पर ज़ोर देता है, जिसके अनुसार इसके बीज धनेश द्वारा खखारकर फैलाए जाते हैं। एक कहावत है, “जब बीज अंकुरित होते हैं, तब धनेश के चूज़े अंडों से निकलते हैं।”

शिकार के मारे

दुर्भाग्य से, अवैध कटाई के लिए नज़रें लंबे पेड़ों पर ही टिकी होती हैं। इसलिए धनेश की संख्या में धीमी रफ्तार से कमी आई है, जैसा कि पक्षी-गणना से पता चला है। रफ्तार धीमी इसलिए है कि ये पक्षी लंबे समय तक (40 साल तक) जीवित रहते हैं। इनका बड़ा आकार इनके शिकार का कारण बनता है। सुमात्रा और बोर्नियो के हेलमेट धनेश गंभीर संकट में हैं क्योंकि इनकी खोपड़ी पर हेलमेट जैसा शिरस्त्राण, जिसे लाल हाथी दांत कहा जाता है, बेशकीमती होता है। सौभाग्य से, विशाल धनेश का शिरस्त्राण नक्काशी के लिए उपयुक्त नहीं है।

दक्षिण भारत में धनेश की आबादी बेहतर होती दिख रही है। मैसूर के दी नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन ने डैटा की मदद से दिखाया है कि प्लांटेशन वाले जंगल धनेश की आबादी के लिए उतने अनूकूल नहीं हैं जितने प्राकृतिक रूप से विकसित वर्षावन हैं, हालांकि कभी-कभी सिल्वर ओक के गैर-स्थानीय पेड़ पर इनके घोंसले बने मिल जाते हैं। धनेश का परिस्थिति के हिसाब से ढलने का यह स्वभाव भोजन में भी दिख रहा है; वे अफ्रीकन अम्ब्रेला पेड़ के फलों को खाने लगे हैं। ये पेड़ हमारे कॉफी बागानों में छाया के लिए लगाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बढ़ी आबादी ने किया विशाल जीवों का सफाया

करीबन दो हज़ार साल पहले मानव जितने बड़े लीमर और विशाल एलिफेंट-बर्ड मेडागास्कर में विचरते थे। इसके एक हज़ार साल बाद ये यहां से लगभग विलुप्त हो गए थे। अब एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि इस सामूहिक विलुप्ति का समय मेडागास्कर में मानव आबादी में उछाल के साथ मेल खाता है, जब मनुष्यों के दो छोटे समूह आपस में घुले-मिले और पूरे द्वीप पर फैल गए।

वर्ष 2007 में शोधकर्ताओं के एक दल ने मलागासी लोगों की वंशावली समझने के लिए मेडागास्कर आनुवंशिकी और नृवंशविज्ञान प्रोजेक्ट शुरू किया था। यद्यपि मेडागास्कर द्वीप अफ्रीका के पूर्वी तट से मात्र 425 किलोमीटर दूर स्थित है, लेकिन वहां बोली जीने वाली मलागासी भाषा 7000 किलोमीटर दूर तक हिंद महासागर क्षेत्र में बोली जाने वाली ऑस्ट्रोनेशियन भाषाओं के समान है। ऑस्ट्रोनेशियन भाषा समूह में मलय, सुडानी, जावानी तथा फिलिपिनो भाषाएं शामिल हैं। अलबत्ता, लंबे समय से यह एक रहस्य रहा है कि कौन लोग, कब और कैसे मेडागास्कर पहुंचे? और इन आगंतुकों ने कैसे बड़े पैमाने पर जीवों के विलुप्तिकरण को प्रभावित किया।

यह समझने के लिए मेडागास्कर आनुवंशिकी और नृवंशविज्ञान परियोजना के तहत शोधकर्ताओं ने 2007 से 2014 के बीच द्वीप के 257 गांवों से लोगों के लार के नमूने, संगीत, भाषा और अन्य समाज वैज्ञानिक डैटा एकत्र किया। 2017 में शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि आधुनिक मलागासी लोग पूर्वी अफ्रीका के बंटू-भाषी लोगों और दक्षिण-पूर्व एशिया में दक्षिणी बोर्नियो के ऑस्ट्रोनेशियन-भाषी लोगों से सबसे अधिक निकट से सम्बंधित हैं।

हालिया अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने लार का आनुवंशिक विश्लेषण किया और कंप्यूटर मॉडल की मदद से मलागासी वंशावली तैयार की और अनुमान लगाया कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी आबादी कैसे बदली।

शोधकर्ताओं ने पाया कि आधुनिक मलागासी आबादी सिर्फ चंद हज़ार एशियाई लोगों की वंशज है, जिन्होंने लगभग 2000 साल पहले अन्य समूहों के साथ घुलना-मिलना बंद कर दिया था।

हालांकि यह रहस्य तो अब भी है कि एशियाई लोग वास्तव में मेडागास्कर कब पहुंचे? लेकिन ये लोग 1000 साल पहले तक मेडागास्कर में फैल चुके थे। करंट बायोलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि इस आगंतुक आबादी ने यहां की लगभग इतनी ही बड़ी अफ्रीकी आबादी के साथ घुलना-मिलना शुरू किया था, और लगभग 1000 साल पहले विशाल जीवों के विलुप्तिकरण के समय इनकी आबादी बढ़ने लगी थी।

पुरातात्विक प्रमाण बताते हैं कि मेडागास्कर की आबादी में विस्फोट के साथ लोगों की जीवनशैली भी बदली थी। पहले, मनुष्य वन्यजीवों के साथ रहते थे और शिकार वगैरह करते थे। लेकिन इस समय वे बड़ी बस्तियां बनाने लगे थे, धान उगाने लगे थे, और मवेशी चराने लगे थे।

इन सभी के आधार पर शोधकर्ताओं को लगता है कि जनसंख्या वृद्धि, जीवनशैली में परिवर्तन और गर्म व शुष्क जलवायु के मिले-जुले प्रभाव ने संभवतः विशाल जीवों का सफाया शुरू कर दिया था।

अन्य शोधकर्ता मानव आबादी में बढ़त और जीवों के विलुप्तिकरण के समय से तो सहमत हैं लेकिन उनका मानना है कि जीवों के विलुप्तिकरण में बदलती जलवायु की भूमिका इतनी अधिक नहीं रही। इसके अलावा वर्तमान आबादी के डैटा की मदद से इतिहास के बारे में कुछ कहने की अपनी सीमाएं हैं। यदि कब्रगाहों में से प्राचीन लोगों के डीएनए खोज कर उनका विश्लेषण किया जाता तो लोगों के मेडागस्कर पहुंचने और उनके स्थानीय लोगों से घुलने-मिलने के समय के बारे में कुछ पुख्ता तौर पर कहा जा सकता था।

बहरहाल, मेडागास्कर में विशाल जीवों के विलुप्तिकरण में मनुष्यों की भूमिका को समझना वर्तमान समय में ज़रूरी है, विशेष रूप से जब आज हाथी और गैंडे जैसे जीव खतरे में हैं। वास्तविक कारणों को जानकर हम इन जीवों के संरक्षण के बेहतर प्रयास कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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