चाय पत्ती से जीवों की उपस्थिति के सुराग

र्षों से शोधकर्ता यह पता लगाते रहे हैं कि किसी क्षेत्र में कौन सी प्रजाति रहती हैं/थीं। इसके लिए वे कैमरा ट्रैप जैसे कई पारंपरिक तरीकों के अलावा हाल के वर्षों की नई विधियों का उपयोग करते हैं जो उन्हें उस क्षेत्र की हवा, पानी, मिट्टी वगैरह जैसी चीज़ों से भी जीवों के डीएनए (पर्यावरणीय डीएनए या ई-डीएनए) ढूंढने और निकालने में मदद करती हैं।

हाल ही में बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन में ई-डीएनए के एक सर्वथा नए स्रोत, पौधों की सूखी पत्ती वगैरह, के बारे में बताया गया है। शोधकर्ताओं को सूखी चाय पत्ती के पाउच के विश्लेषण से कीटों की सैकड़ों प्रजातियां की उपस्थिति का पता चला है।

ट्रायर युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकी आनुवंशिकीविद और अध्ययन के लेखक हेनरिक क्रेहेनविन्केल ने दी साइंटिस्ट को बताया है कि दरअसल यह समझने के लिए कि कीटों में परिवर्तन कैसे हुए हमें लंबे समय के डैटा की आवश्यकता है। जब कीटों की प्रजातियों में गिरावट सम्बंधी अध्ययन पहली बार प्रकाशित हुए थे, तो कई लोगों ने यह शिकायत की थी कि इसका कोई वास्तविक दीर्घकालिक डैटा नहीं है।

वे आगे बताते हैं कि ट्रायर युनिवर्सिटी में नमूना बैंक है जिसमें पिछले 35 सालों से जर्मनी के विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों से विभिन्न पेड़ों के पत्ते एकत्रित किए जा रहे हैं। विचार यह आया कि क्या इन पत्तों पर रहने वाले कीटों के डीएनए को इन पत्तों से प्राप्त किया जा सकता है? चूंकि ये नमूने तरल नाइट्रोजन में सहेजे गए थे इसलिए इनमें डीएनए अच्छी तरह संरक्षित होने की संभावना थी। इसलिए पहले तो इन नमूनों से डीएनए अलग किए गए, और इस डीएनए की मदद से इन पर आते-जाते रहने वाले संधिपादों (आर्थ्रोपोड) को पहचानकर उनका वर्गीकरण करने का प्रयास किया गया।

पूरी तरह से फ्रोज़न पत्तों से ई-डीएनए निकालने में सफलता के बाद सवाल आया कि क्या अन्य सतहों/परतों (सबस्ट्रेट्स) से भी डीएनए प्राप्त किए जा सकते हैं? और क्या अन्य तरह के सबस्ट्रेट्स पर डीएनए सलामत होंगे? कीटों में परिवर्तन कैसे हुए इसे समझने के लिए क्या संग्रहालयों में सहेजे गए पौधे मददगार हो सकते हैं? कई अध्ययन बताते हैं कि यदि कोई कीट पत्ती कुतरता है तो वह अपनी लार के माध्यम से डीएनए अवशेष उस पर छोड़ जाता है। परंतु कई अध्ययन यह भी बताते हैं कि ये डीएनए बहुत टिकाऊ नहीं होते; ये पराबैंगनी प्रकाश में खराब हो जाते हैं या बारिश में धुल जाते हैं। लेकिन हर्बेरियम में तो डीएनए को सहेजे रखने के लिए आदर्श स्थितियां होती हैं – सूखा और अंधेरा माहौल।

हर्बेरियम रिकॉर्ड पर काम शुरू करने से पहले शोधकर्ताओं ने सोचा कि किसी ऐसी चीज़ का अध्ययन करना चाहिए जो हर्बेरियम रिकॉर्ड जैसी ही हो। और संरचना के हिसाब से चाय (पत्ती) हर्बेरियम रिकॉर्ड के जैसी ही है। ये सूखी पत्तियां होती हैं जिन्हें अंधेरे में रखा जाता है।

परीक्षण में चाय पत्ती में काफी जैव विविधता दिखी। लगभग 100-150 मिलीग्राम के टी-बैग में कीटों की लगभग 400 प्रजातियों के डीएनए मिले। ये नतीजे चौंकाने वाले थे, क्योंकि ये नमूने महीन पावडर थे। तो चाय बागान के सभी हिस्सों के ईडीएनए पूरी चाय पत्ती में वितरित हो गए थे।

उम्मीद है कि इससे कीटों में हुए परिवर्तनों को समझने में मदद मिलेगी, और हमें ऐसे नए पदार्थ मिलेंगे जो अतीत के समय की जानकारी दे सकें। आप चाहें तो फूलों को इकट्ठा कर लें और इन्हें सिलिका जेल की मदद से सुखा लें। फूल को एक छोटे से लिफाफे में रखकर इसे ज़िपलॉक फ्रीज़र बैग में थोड़े से सिलिका जेल के साथ रखें तो एक दिन में फूल पूरी तरह सूख जाएगा। यानी सिद्धांतत: हम कमरे के तापमान पर भी नमूनों को सहेज सकते हैं, तरल नाइट्रोजन वगैरह की ज़रूरत नहीं होगी।

शोधकर्ता बताते हैं कि केवल यह जानना पर्याप्त नहीं है कि किसी क्षेत्र में कौन सी या कितनी प्रजातियां मौजूद थीं; यह भी पता लगाना होगा कि ये कीट किस तरह अंतर्क्रिया करते हैं और क्या खाते हैं। उदाहरण के लिए, हम जानते हैं कि कई कीट प्रजातियां बहुत विशिष्ट होती हैं, केवल एक निश्चित पौधे पर ही रहती हैं और यदि यह पौधा विलुप्त हो जाता है तो कीट प्रजाति भी उसके साथ विलुप्त हो जाती है। हैरानी की बात है कि हम इन अंतर्क्रियाओं के बारे में बहुत कम जानते हैं। फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों के बारे में तो हम यह अच्छे से जानते हैं, लेकिन बाकी कीट प्रजातियों के बारे में नहीं पता। यह तरीका पौधों से नमूना लेने और पौधे पर रहने वाले कीटों को पहचानने में मदद कर सकता है।

आम तौर पर हर्बेरियम संग्रह बहुत कीमती होते हैं और शोधकर्ता नमूनों को पीसकर नुकसान पहुंचाए बिना डीएनए को सावधानीपूर्वक निकालने के तरीके विकसित कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आधुनिक मनुष्य की आंत में घटते सूक्ष्मजीव

Chimpanzees eat their lunch at the Lwiro Primate Rehabilitation Center, 45 km from the city of Bukavu, February 14, 2022. – Alone or in groups, great apes jump from one branch to another, females carrying young on their backs make their way through the verdant reserve of the Lwiro Primate Rehabilitation Center (CRPL), in the east of the Democratic Republic of Congo. (Photo by Guerchom NDEBO / AFP) (Photo by GUERCHOM NDEBO/AFP via Getty Images)

मारी आंतों में उपस्थित असंख्य अच्छे बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीव भोजन को पचाने में मदद करते हैं। इतना ही नहीं, ये हमारी प्रतिरक्षा, चयापचय क्रियाओं और तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर हमारे शरीर को स्वस्थ भी रखते हैं। इनमें से कई सूक्ष्मजीव तो मनुष्यों के अस्तित्व में आने से पहले से मौजूद थे। इनमें से कई सूक्ष्मजीव लगभग सारे प्रायमेट प्राणियों में पाए जाते हैं जिससे संकेत मिलता है कि इन्होंने बहुत पहले इन सबके किसी साझा पूर्वज के शरीर में घर बनाया था।

लेकिन हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मनुष्यों में इन सूक्ष्मजीवों की विविधता घट रही है और जैसे-जैसे मनुष्य शहरों की ओर बढ़ रहे हैं उनकी आंतों में विभिन्न सूक्ष्मजीवों कि संख्या में और गिरावट आ रही है। इसका मनुष्यों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

हमारी आंतों में पाए जाने विभिन्न प्रजातियों के सूक्ष्मजीवों के समूचे समूह को माइक्रोबायोम यानी सूक्ष्मजीव संसार कहा जाता है। इस माइक्रोबायोम में बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस और अन्य सूक्ष्मजीव शामिल हैं जो किसी जीव (व्यक्ति या पौधे) में पाए जाते हैं। मनुष्यों और कई अन्य प्रजातियों में सबसे अधिक बैक्टीरिया आंतों में पाए जाते हैं। ये बैक्टीरिया रोगजनकों और एलर्जी के प्रति प्रतिरक्षा प्रणाली की प्रतिक्रिया को तो प्रभावित करते ही हैं, मस्तिष्क के साथ अंतर्क्रिया के ज़रिए हमारे मूड को भी प्रभावित करते हैं।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय के जीवविज्ञानी एंड्रयू मोएलर ने सबसे पहले बताया था कि आंत के सूक्ष्मजीवों और मनुष्यों के बीच सम्बंध लंबे समय में विकसित हुए हैं। उनके दल ने बताया था कि मनुष्य और प्रायमेट प्राणियों की आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच समानताएं हैं जिससे यह स्पष्ट हुआ कि इनकी उपस्थिति मनुष्यों की उत्पत्ति से भी पहले की है।

लेकिन इसके बाद किए गए अध्ययनों से पता चला है कि मानव आंत के माइक्रोबायोम में विविधता वर्तमान प्रायमेट्स की तुलना में काफी कम हो गई है। एक अध्ययन के अनुसार जंगली वानरों की आंतों में बैक्टेरॉइड्स और बाइफिडोबैक्टीरियम जैसे 85 सूक्ष्मजीव वंश उपस्थित हैं जबकि अमेरिकी शहरियों में यह संख्या केवल 55 है। कम विकसित देशों के लोगों में सूक्ष्मजीव समूहों की संख्या 60 से 65 के बीच है। ऐसे में यह अध्ययन शहरीकरण और सूक्ष्मजीव विविधता में कमी का सम्बंध दर्शाता है।      

युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन की सूक्ष्मजीव विज्ञानी रेशमी उपरेती के अनुसार शहरों में प्रवास के साथ शिकार-संग्रह आधारित आहार में बदलाव, एंटीबायोटिक का उपयोग, तनावपूर्ण जीवन और बेहतर स्वच्छता के कारण मनुष्यों के आंतों के सूक्ष्मजीवों में काफी कमी आई है। शोधकर्ताओं का मानना है कि आंत के माइक्रोबायोम में कमी के कारण दमा जैसी बीमारियां बढ़ सकती हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विशेष रूप से उन सूक्ष्मजीवों को खोजने का प्रयास किया है जो मनुष्यों की आंतों से गायब हो चुके हैं। उन्होंने अफ्रीकी चिम्पैंज़ी और बोनोबोस के कई समूहों के मल का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने मल के नमूनों से सूक्ष्मजीव डीएनए को अलग करके अनुक्रमित किया। इस अध्ययन के दौरान अन्य शोधकर्ताओं द्वारा पूर्व में एकत्रित गोरिल्ला और अन्य प्रायमेट्स के आंत के सूक्ष्मजीवों के डीएनए डैटा का भी उपयोग किया गया। इस तरह से कुल 22 मानवेतर प्रायमेट्स के डैटा का अध्ययन किया गया। कंप्यूटर की मदद से सूक्ष्मजीवों के पूरे जीनोम में डीएनए के टुकड़ों को अनुक्रमित किया गया। मनुष्यों के 49 समूहों से आंत के माइक्रोबायोम डैटा और मनुष्यों के जीवाश्मित मल से लिए गए डीएनए को प्रायमेट्स के साथ तुलना करने पर मोएलर विभिन्न सूक्ष्मजीव समूहों के बीच बदलते सम्बंधों को समझने में कामयाब हुए।

उन्होंने दर्शाया कि विकास के दौरान कुछ माइक्रोबायोम में विविधता आई जबकि कई अन्य गायब हो गए थे। इन सूक्ष्मजीवों में मनुष्य 100 में से 57 सूक्ष्मजीव गंवा चुके हैं जो वर्तमान में चिम्पैंज़ी या बोनोबोस में पाए जाते हैं। मोएलर ने यह भी अनुमान लगाने का प्रयास किया है कि ये सूक्ष्मजीव मनुष्य की आंतों से कब गायब हुए। इनमें से कई सूक्ष्मजीव तो कई हज़ारों वर्ष पहले गायब हो चुके थे जबकि कुछ हाल ही में गायब हुए हैं जिसमें से शहर में रहने वालों ने अधिक संख्या में इन सूक्ष्मजीवों को गंवाया है।

यह पता लगाना एक चुनौती है कि कोई सूक्ष्मजीव किसी मेज़बान की आंत से गायब हो चुका है। कई सूक्ष्मजीव इतनी कम संख्या में होते हैं कि शायद वे मल में प्रकट न हों। इस विषय में अध्ययन जारी है और शहर से दूर रहने वालों के माइक्रोबायोम को एकत्रित कर संरक्षित किया जा रहा है। वैसे कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह कोई बड़ी क्षति नहीं है। शायद अब मनुष्यों को उन सूक्ष्मजीवों की ज़रूरत ही नहीं है। अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार आवश्यक सूक्ष्मजीवों को दोबारा से हासिल करने के लिए उनकी पहचान करना सबसे ज़रूरी है। हो सकता है कि इन सूक्ष्मजीवों को प्रोबायोटिक्स की मदद से बहाल किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कॉकरोच का नया करतब

नुसंधान बताता है कि कॉकरोचों ने मीठे के प्रति नफरत पैदा कर ली है और इसके चलते हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले कई कीटनाशक नुस्खे नाकाम साबित होने लगे हैं।

जब भी कोई नर कॉकरोच किसी मादा से संभोग करना चाहता है तो वह अपना पिछला भाग उसकी तरफ करके अपने पंख खोलता है और पंखों के नीचे छिपा मीठा भोजन उसे पेश कर देता है। यह भोजन एक रस होता है जिसे नर की टर्गल ग्रंथि स्रावित करती है। मादा जब इस भोजन को चट करने में व्यस्त होती है, उस दौरान नर उसे अपने एक शिश्न से पकड़े रखता है और दूसरे से अपने शुक्राणु उसके शरीर में पहुंचा देता है। इसमें लगभग 90 मिनट का समय लगता है।

लेकिन वर्ष 1993 में नॉर्थ कैरोलिना स्टेट विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पता लगाया था कि जर्मन कॉकरोच में ग्लूकोज़ नामक शर्करा के लिए कोई लगाव नहीं होता। यह थोड़ा अजीब था क्योंकि ग्लूकोज़ इन जंतुओं के लिए ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्रोत है। तो सवाल उठा कि ऐसे कॉकरोच क्यों और कहां से पैदा हुए।

ऐसा लगता है कि हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मीठे पावडरों और द्रवों ने यह असर किया है। इन मीठे पदार्थों में विष मिलाकर कॉकरोच पर नियंत्रण के प्रयास होते हैं। मिठास से आकर्षित होकर कॉकरोच इसका सेवन करते हैं और मारे जाते हैं। लेकिन कुछ कॉकरोच कुदरती रूप से ग्लूकोज़ के प्रति इतने लालायित नहीं थे; वे जीवित रहे, संतानोत्पत्ति करते रहे और यह गुण अगली पीढ़ी को सौंपते रहे।

अब कहानी में नया मोड़ आया है। नॉर्थ कैरोलिना स्टेट विश्वविद्यालय की कीट विज्ञानी आयको वाडा-कात्सुमाता ने कम्यूनिकेशंस बायोलॉजी में बताया है कि जो गुणधर्म मादा कॉकरोच को मीठे ज़हर से दूर रहने को उकसाता है, वही उसे सामान्य कॉकरोच नर के साथ संभोग करने से भी रोकता है।

कारण यह है कि कॉकरोच की लार नर के रस में उपस्थित जटिल शर्कराओं को तोड़कर उन्हें ग्लूकोज़ जैसी सरल शर्कराओं में बदल देती है। जैसे ही ग्लूकोज़ से नफरत करने वाली मादा कॉकरोच इस तोहफे का पहला निवाला लेती है, वह उसके मुंह में कड़वा हो जाता है और वह मैथुन से पहले ही भाग निकलती है।

आप शायद सोच रहे होंगे कि यह तो अच्छी बात है। कॉकरोच की आबादी स्वत: कम होती जाएगी। लेकिन ग्लूकोज़ से चिढ़ने वाले ये कॉकरोच प्रजनन का जुगाड़ जमा ही लेते हैं।

प्रयोगों के दौरान वाडा-कात्सुमाता ने देखा कि जंगली कॉकरोच के मुकाबले ग्लूकोज़ से दूर भागने वाले मादा कॉकरोच नर कॉकरोच से दूर रहना पसंद करते हैं। लेकिन साथ ही यह भी देखा गया कि ऐसे नर कॉकरोच अपने शुक्राणु कम समय में मादा को देने में माहिर हो गए हैं। और तो और, इन आबादियों में नर द्वारा मादा को पेश की जाने वाली पोषक सामग्री के रासायनिक संघटन में भी बदलाव आया है।

स्पष्ट है कि मनुष्य जंतुओं के विकास पर महत्वपूर्ण असर डालते हैं। और जंतु इस तरह के दबाव से निपटने की नई-नई रणनीतियां भी विकसित करते रहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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एक घोंघे में विचित्र लिंग निर्धारण

म तौर पर किसी भी प्रजाति में लिंग निर्धारण की एक ही विधि पाई जाती है – कुछ प्रजातियों में नर और मादा लिंग अलग-अलग होते हैं, कुछ में सारे जीव उभयलिंगी होते हैं जबकि कुछ प्रजातियों में जीव अपना लिंग बदल सकते हैं। उभयलिंगी होने का मतलब है कि प्रत्येक जीव नर और मादा दोनों भूमिकाएं निभा सकता है। लेकिन करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक हालिया शोध पत्र में ब्लैडर स्नेल में लिंग निर्धारण की जो विधि रिपोर्ट की गई है वह विविधता का एक नया आयाम दर्शाती है।

ब्लैडर स्नेल (Physa acuta) उभयलिंगी होते हैं। लेकिन सीएनआरएस, फ्रांस के शोधकर्ता पेट्रिस डेविड ने अपने अध्ययन के दौरान देखा कि इनमें से कुछ घोंघों में नर क्रिया पूरी तरह ठप हो गई थी जबकि सारे घोंघों का डीएनए एक जैसा था।

दरअसल डेविड और उनके साथी किसी अन्य वजह से घोंघों की आबादी में आणविक विविधता का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने पाया कि कुछ प्रजातियों में माइटोकॉण्ड्रिया में पाए जाने वाले डीएनए में बहुत अधिक विविधता है। माइटोकॉण्ड्रिया कोशिकाओं का एक उपांग होता है जो ऑक्सी-श्वसन में भूमिका निभाता है। गौरतलब है कि कोशिका के केंद्रक में उपस्थित डीएनए के अलावा माइटोकॉण्ड्रिया का अपना स्वतंत्र डीएनए होता है। माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए में फर्क के चलते फायसा एक्यूटा प्रजाति के कुछ सदस्य नर भूमिका निभाने में पूरी तरह असमर्थ थे।

केंद्रक के डीएनए की बजाय कोशिका द्रव्य में अन्यत्र उपस्थित डीएनए द्वारा लिंग निर्धारण को कोशिकाद्रव्य नर वंध्यता (सायटोप्लाज़्मिक मेल स्टेरिलिटी, सीएमए) कहते हैं और पौधों में इसकी खोज अट्ठारवीं सदी की शुरुआत में की जा चुकी थी। लेकिन जंतुओं में अब इसे पहली बार देखा गया है। और शोधकर्ताओं का ख्याल है कि ऐसा माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए के दम पर होता है।

डेविड और उनके साथी ब्लैडर स्नेल के एक जीन (COI) की मदद से उनमें विविध जीनोटाइप का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने पाया कि इनमें से 15 प्रतिशत स्नेल में COI का एक भिन्न रूप पाया जाता है। इन घोंघों में उपस्थित जीन अन्य सदस्यों की अपेक्षा पूरा 26 प्रतिशत भिन्न था। इसे उन्होंने मायटोटाइप-डी कहा। टीम को लगा कि इतनी विविधता थोड़ी अचंभे की बात है और इसकी ज़रूर कोई भूमिका होगी।

शोधकर्ताओं ने मायटोटाइप-डी के सदस्यों का प्रजनन सामान्य घोंघों से करवाया, यह देखने के लिए कि क्या वे आपस में संतानोत्पत्ति कर सकते हैं। वैसे तो प्रजनन के दौरान उभयलिंगी जीव नर या मादा कोई भी भूमिका अपना सकते हैं लेकिन इस मामले में उन्होंने देखा कि कुछ मायटोटाइप-डी सदस्य नर भूमिका अपनाने में पूर्णत: अक्षम थे। वे दूसरे घोंघों पर चढ़ते नहीं थे, जबकि उन्हें अपने ऊपर आने देते थे। और तो और, इनमें शुक्राणु का उत्पादन बिलकुल भी नहीं होता था या सामान्य घोंघों की तुलना में बहुत कम होता था। यहां माइटोकॉण्ड्रियल डीएनए में फर्क होने से नर वंध्यता पैदा हो रही है, जो जंतुओं में सायटोप्लाज़्मिक मेल स्टेरिलिटी का पहला उदाहरण है।

फिलहाल इसकी आणविक क्रियाविधि का खुलासा नहीं हुआ है, लेकिन शोधकर्ताओं को लगता है कि मायटोटाइप-डी में यह उत्परिवर्तन किसी तरह से नर भूमिका को बाधित कर देता है ताकि मादा कार्य के लिए ज़्यादा गुंजाइश बन सके। मज़ेदार बात यह है कि किसी जंतु में माइटोकॉण्ड्रिया और उसके जीन्स शुद्धत: मां का योगदान होते हैं। अर्थात ऐसे जीन्स का होना सदस्य को मात्र मादा के रूप में प्रजनन करने को तैयार करता है। यह तो केंद्रकीय जीन्स के साथ टकराव की स्थिति है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि जंतुओं में इसकी और तलाश की जानी चाहिए। हो सकता है यह काफी आम हो और शोध व टेक्नॉलॉजी की दृष्टि से उपयोगी साबित हो। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन से वायरल प्रकोपों में वृद्धि की संभावना

हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन से अगले 50 वर्षों में स्तनधारी जीवों के बीच वायरस संचरण के 15,000 से अधिक नए मामले सामने आ सकते हैं। ऐसा अनुमान है कि ग्लोबल वार्मिंग से वन्यजीवों के प्राकृतवासों में परिवर्तन होगा जिससे रोगजनकों की अदला-बदली करने में सक्षम प्रजातियों के आपस में संपर्क की संभावना बढ़ेगी और वायरस संचरण के मामलों में वृद्धि होगी। इस अध्ययन से यह भी देखा जा सकेगा कि कोई वायरस विभिन्न प्रजातियों के बीच संभवतः कितनी बार छलांग लगा सकता है।

गौरतलब है कि कोविड-19 महामारी की शुरुआत एक कोरोनावायरस के किसी जंगली जीव से मनुष्यों में प्रवेश के साथ हुई थी। प्रजातियों के बीच ऐसे संक्रमणों को ज़ुओनॉटिक संचरण कहते हैं। यदि प्रजातियों के बीच संपर्क बढ़ता है तो ऐसे ज़ुओनॉटिक संचरणों में भी वृद्धि होगी जो मनुष्यों व पशुओं के स्वास्थ्य के लिए खतरा होगा। ऐसे में सरकारों और स्वास्थ्य संगठनों को रोगजनकों की निगरानी और स्वास्थ्य-सेवा के बुनियादी ढांचे में सुधार करना ज़रूरी है।

अध्ययन का अनुमान है कि नए वायरस के संचरण की संभावना सबसे अधिक तब होगी जब बढ़ते तापमान के कारण जीवों का प्रवास ठंडे क्षेत्रों की ओर होगा और वे स्थानीय जीवों के संपर्क में आएंगे। यह संभावना ऊंचाई वाले क्षेत्रों और विभिन्न प्रजातियों से समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्रों में सबसे अधिक होगी। ऐसे क्षेत्र विशेष रूप से अफ्रीका और एशिया में पाए जाते हैं जिनमें मुख्य रूप से सहेल, भारत और इंडोनेशिया जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्र शामिल हैं। कुछ जलवायु विशेषज्ञों का मत है कि यदि पृथ्वी का तापमान पूर्व-औद्योगिक तापमान से 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा तो प्रजातियों के बीच प्रथम संपर्क की घटनाएं वर्ष 2070 तक दुगनी हो जाएंगी। ऐसे क्षेत्र वायरस संक्रमण के हॉटस्पॉट बन जाएंगे।

इस अध्ययन के लिए जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी के रोग विशेषज्ञ ग्रेगोरी अल्बेरी और उनके सहयोगियों ने एक मॉडल विकसित किया और लगभग 5 वर्षों तक कई अनुकृतियों के साथ परीक्षण किए। जलवायु-परिवर्तन के विभिन्न परिदृश्यों में वायरस संचरण और प्रजाति-वितरण के मॉडल्स को जोड़कर देखा। प्रजाति-वितरण मॉडल की मदद से यह बताया जा सकता है कि पृथ्वी के गर्म होने की स्थिति में स्तनधारी जीव किस क्षेत्र में प्रवास कर सकते हैं। दूसरी ओर, वायरस-संचरण मॉडल से यह देखा जा सकता कि प्रथम संपर्क होने पर प्रजातियों के बीच वायरस के छलांग लगाने की क्या संभावना होगी।

गौरतलब है कि इस तरह के पूर्वानुमान लगाने के लिए कभी-कभी अवास्तविक अनुमानों को शामिल करना होता है। जैसे एक अनुमान यह भी लगाना पड़ा कि जलवायु परिवर्तन के चलते प्रजातियां कितनी दूर तक फैल सकती हैं। लेकिन यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि स्तनधारी जीव अपने मूल आवास के साथ कितना अनुकूलित हो जाएंगे या उन्हें भौगोलिक बाधाएं पार करने में कितनी मुश्किल होगी। ये दोनों बातें प्रवास को प्रभावित करेंगी।

इस अध्ययन में चमगादड़ों पर विशेष ध्यान दिया गया। चमगादड़ वायरसों के भंडार के रूप में जाने जाते हैं और कुल स्तनधारियों में लगभग 20 प्रतिशत चमगादड़ हैं। इसके अलावा चमगादड़ उड़ने में भी सक्षम होते हैं इसलिए उन्हें प्रवास में कम बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

हालांकि कई विशेषज्ञों ने इस अध्ययन की सराहना की है लेकिन साथ ही उन्होंने इसके आधार पर मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों का निष्कर्ष निकालने को लेकर चेतावनी भी दी है। स्तनधारी जीवों से मनुष्यों में वायरस की छलांग थोड़ा पेचीदा मसला है क्योंकि यह एक जटिल पारिस्थितिकी और सामाजिक-आर्थिक वातावरण में होता है। इसके अलावा, स्वास्थ्य सेवा में सुधार या किसी वजह से वायरस द्वारा मनुष्यों के संक्रमित न कर पाना जैसे कारक मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले जोखिम को कम कर सकते हैं। फिर भी शोधकर्ता इस विषय में जल्द से जल्द ठोस कार्रवाई के पक्ष में हैं। देखा जाए तो पृथ्वी पहले से ही पूर्व-औद्योगिक तापमान से 1 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो चुकी है जिसके नतीजे में विभिन्न प्रजाति के जीवों में प्रवास और रोगाणुओं की अदला-बदली जारी है। सुझाव है कि खासकर दक्षिण पूर्वी एशिया के जंगली जीवों और ज़ुओनॉटिक रोगों की निगरानी की प्रक्रिया को तेज़ करना चाहिए। स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार लाना भी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स) 

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कबूतर 4 साल तक रास्ता नहीं भूलते

ह बात आम तौर मानी जाती है कि हरकारे कबूतर (होमिंग पिजन) एक बार जिस रास्ते को अपनाते हैं, उसे याद रखते हैं। अब एक अध्ययन ने दर्शाया है कि ये कबूतर अपना रास्ता 4 साल बाद भी नहीं भूलते।

देखा जाए तो मनुष्यों से इतर जंतुओं में याददाश्त का परीक्षण करना टेढ़ी खीर है। और यह पता करना तो और भी मुश्किल है कि कोई जंतु किसी जानकारी को याददाश्त में दर्ज करने के कितने समय बाद उसका उपयोग कर सकता है। प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित शोध पत्र में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्राणि विज्ञानी डोरा बायरो और उनके साथियों ने घरेलू होमिंग पिजन्स के इस तरह के अध्ययन की जानकारी देते हुए बताया है कि याददाश्त दर्ज करने और पुन:उपयोग करने के बीच 4 साल तक अंतराल हो सकता है।

बायरो और उनके साथियों ने इसके लिए 2016 में किए गए एक प्रयोग के आंकड़ों की मदद ली। 2016 के प्रयोग में इन कबूतरों को रास्ते सिखाए गए थे। इन कबूतरों ने ये रास्ते या तो अकेले उड़ते हुए सीखे थे या साथियों के साथ। कभी-कभी साथी ऐसे होते थे जिन्हें रास्ता पता होता था या कभी-कभी साथी भी अनभिज्ञ होते थे। तो इन कबूतरों ने अपनी अटारी से लेकर करीब 6.8 किलोमीटर दूर स्थित एक खेत तक का अपना रास्ता 2016 में स्थापित किया था।

2019 और 2020 में बायरो की टीम ने इन कबूतरों का अध्ययन किया। इनकी पीठ पर जीपीएस उपकरण लगा दिए गए और इन्हें उसी खेत से छोड़ दिया गया। कुछ कबूतर अपने कुछ लैंडमार्क्स को चूके ज़रूर लेकिन अधिकांश ने इस यात्रा में लगभग ठीक वही रास्ता पकड़ा, जो उन्होंने 2016 में इस्तेमाल किया था। और तो और, 3-4 साल के इस अंतराल में ये कबूतर उस स्थल पर दोबारा गए भी नहीं थे।

शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कबूतर ने 2016 में वह रास्ता अकेले उड़कर तय किया था या झुंड में। लेकिन 2016 के प्रयोग में शामिल कबूतरों का प्रदर्शन अन्य ऐसे कबूतरों से बेहतर रहा जो 2016 की उड़ान में शरीक नहीं थे।

कई शोधकर्ताओं का मानना है कि यह अध्ययन संज्ञान के मामले में मानव-केंद्रित नज़रिए को थोड़ा शिथिल करने में मददगार होगा। (स्रोत फीचर्स)

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क्या लाल रंग की बोतल कुत्तों को भगाती है? – श्रुति कालूराम शर्मा

क दिन एक परिचित से मिलने जाना हुआ। मैंने देखा कि उनके गेट के पास लाल रंग के तरल से भरी एक बोतल रखी हुई है। नज़र थोड़ा बाईं ओर गई तो देखा कि हर घर के बाहर लाल पानी की बोतल रखी है। मैंने उत्सुकतावश पूछा कि बोतल में क्या है और क्यों रखी है? उन्होंने आत्मविश्वास के साथ बताया कि ये बोतल कुत्तों को भगाने का एक चमत्कारी उपाय है। उनका और उनकी तरह कई अन्य का मानना है कि इस बोतल को देखकर कुत्ते डर जाते हैं और इस वजह से घरों के बाहर गंदा (मल त्याग) नहीं करते।

अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग रंगों से भरी बोतलें घरों के बाहर देखी जा सकती हैं। कहीं जामुनी, कहीं नीली, तो कहीं लाल बोतलें घरों और दुकानों के बाहर देखी जा सकती हैं। इन बोतलों को देखकर मन में सवाल उठता है कि इन बोतलों में आखिर भरा क्या जाता है? इस चलन के शुरुआती दौर में जब लोगों से पूछा गया कि इसमें क्या भरा है तो उनका कहना था कि एक केमिकल बाज़ार में आया है। कुछेक लोगों ने लाल रंग के लिए घर पर ही महावर या आल्ता पानी में घोलकर पारदर्शी बोतल में भरकर रख दिया था।

आखिर लोग इतने यकीन से कैसे कह रहे हैं कि कुत्ते लाल रंग की बोतल देखकर उस जगह को गंदा नहीं करते। इसलिए मैंने इस मसले को समझने के लिए कई तरह से जांच-पड़ताल की और प्रयोग किए।

प्रयोग – 1

जिन लोगों के घरों के बाहर ये बोतल रखी थी, उनसे पूछने पर पता चला कि कॉलोनी की किराना दुकान में एक टेबलेट मिलती है। टेबलेट दिखने में तो हरे रंग की होती है, लेकिन जब इसको पानी में डालते हैं तो ये धीरे-धीरे पानी को लाल कर देती है। कुछ लोगों का कहना है की ये टेबलेट महावर, या जिसे आल्ता कहते हैं उसकी है। मेरी टोली के बच्चों ने इस टेबलेट को देखा और कहा दीदी ये आल्ते की टेबलेट तो बिलकुल नहीं हो सकती, ये टेबलेट होली के पक्के रंग की लगती है!

पहला काम किया कि बोतल में लाल रंग बनाकर अपने घर के बाहर रख ही दिया।

प्रयोग – 2

हमने अपने और अपने घर के आसपास के घरों के बाहर कुछ अलग-अलग रंगों – लाल, हरे, बैंगनी, नीले और पीले – के वाटर कलर से पोती गई एक-एक बोतल रख दी। अलग-अलग रंगों से प्रयोग करने का मकसद सिर्फ यह जानना था कि कुत्ते इन अलग-अलग रंगों के प्रति कैसी प्रतिक्रिया देते हैं।

प्रयोग 1 और 2 के दौरान हमने जो अवलोकन किए उसमें देखा गया कि कुत्ते इन रंगों वाली बोतलों के पास आकर बैठ रहे थे। उन्हें रंग भरी या रंगों से पोती गई बोतलों से कोई फर्क नहीं पड़ा था।

दूसरा, कुछ लोगों के घर के सामने एक नहीं बल्कि कई सारी बोतलें रखी थीं, जिन्हें देखकर लगा कि कुत्ते यहां इसलिए भी नहीं फटकते होंगे क्योंकि उनकी जगह तो ढेरों बोतलों ने घेर रखी थी। और घर मालिकों को लग रहा था कि कुत्ते रंगों भरी इन चमत्कारी बोतलों से डरकर भाग रहे हैं।

प्रयोग – 3

अलग-अलग रंगों के प्रति कुत्तों की प्रतिक्रिया देखने के लिए सिर्फ बोतल से काम नहीं चलने वाला था। तो मैंने और बच्चों की टोली ने विचार किया कि हमें कुत्तों के खाने की चीज़ों को रंग करके देखना होगा।

हम पालतू जानवरों की दुकान (पेट शॉप) में गए और कुत्ते के लिए कैल्शियम से बनी हड्डियां लेकर आए। सफेद वाली हड्डियों को अलग-अलग खाद्य रंगों से रंग दिया। एक हड्डी को सफेद ही रहने दिया। इन हड्डियों को एक-एक करके हमारी गली के कुत्तों को खाने को दिया।

पहले सफेद हड्डी खिलाई जिसको कुत्ता एक पल में चट कर गया। थोड़ी-थोड़ी देर बाद लाल, हरी, नीली और फिर पीली हड्डियां खिलाई। हमने देखा किसी भी रंगीन हड्डी को कुत्ते वैसे ही खा रहे थे जैसे बिना रंग की हुई हड्डी को खाया था। फर्क सिर्फ इतना था कि रंगीन हड्डियों को खाने में उन्हें थोड़ा समय लगा।

एक वजह जो हमने सोची वह यह थी कि शायद जिन हड्डियों को रंगा गया था उनकी गंध की वजह से कुत्ते इन हड्डियों को खाने में थोड़ा ज़्यादा समय ले रहे हैं। कई कुत्तों के अवलोकनों में यही देखने को मिला।

यहां यह देखना लाज़मी होगा कि कुत्ते दुनिया को किन रंगों में देखते हैं।

आंख के पिछले हिस्से में रेटिना नामक पर्दे में दो प्रकार की संवेदी कोशिकाएं होती हैं, जो प्रकाश और रंग को भांपने का काम करती हैं। ये संवेदी कोशिकाएं दो प्रकार की होती हैं – छड़ और शंकु (रॉड्स और कोन्स)। इन संवेदी कोशिकाओं की संख्या लाखों में होती है। विभिन्न प्रजातियों में विभिन्न प्रकार की प्रकाश संवेदी कोशिकाएं होती हैं। प्रकाश को भांपने वाली संवेदी कोशिकाओं को छड़ (रॉड) कहा जाता है। रंग को पहचानने वाली संवेदी कोशिकाओं को शंकु (कोन) कहा जाता है। दरअसल, जैसा इनका आकार है वैसा ही इनका नाम है। शंकु संवेदियों की दो विशेषताएं होती हैं: रंग और बारीक विवरण को भांपना। जब प्रकाश छड़़ या शंकु कोशिकाओं से टकराता है, तो वे सक्रिय हो जाती हैं और मस्तिष्क को संकेत भेजती हैं।

सामान्यतः मनुष्य त्रिवर्णी (ट्राइक्रोमेटिक) होते हैं। अर्थात मनुष्य में तीन प्रकार के शंकु होते हैं। दूसरी ओर कुत्तों की दृष्टि द्विवर्णी (डाइक्रोमेटिक) होती है – उनकी आंख में दो प्रकार के शंकु होते हैं। इसका मतलब है कि मनुष्य में हरे, नीले व लाल और इनके मिश्रण से बने अनेक रंगों को देखने की क्षमता होती है, जबकि कुत्तों में दो (पीले और नीले) रंगों की पहचान करने की क्षमता होती है।

कुत्ते की नज़र से दुनिया

पशु चिकित्सकों का मानना था कि कुत्ते केवल काले और सफेद रंग को ही देख सकते हैं। यह भी कहा जाता है कि कुत्ते वर्णांध होते हैं। लेकिन असल बात यह है कि कुत्तों के पास वास्तव में कुछ रंग की दृष्टि तो है। लेकिन उन्हें हरे, लाल और कभी-कभी नीले रंग में भी अंतर समझ में नहीं आता है।

अक्सर कलर ब्लाइंडनेस (वर्णांधता)  के बारे में माना जाता है कि वह व्यक्ति सिर्फ काला और सफेद ही देख पाता है। असल में वर्णांधता का मतलब है कि आंखें सामान्य रूप में रंगों को नहीं देख पातीं। इसे कलर डेफिशिएंसी भी कहा जाता है। वर्णांधता का मुख्य कारण आम तौर पर आंखों के भीतर शंकु के उत्पादन में दोष होता है। मनुष्यों में कलर ब्लाइंडनेस का कारण तीन रंग संवेदी कोशिकाओं (शंकु) में से एक का सही ढंग से काम न करना है। इस प्रकार की वर्णांधता को द्विवर्णिता (डाइक्रोमेसी) के नाम से जानते हैं।

कुत्तों की दृष्टि द्विवर्णी होती है। अगर हम सरल तरीके से यह समझना चाहते हैं कि कुत्ते दुनिया को कैसे देखते होंगे तो हम एक वर्णांध मनुष्य की दृष्टि की तुलना एक सामान्य कुत्ते की दृष्टि से कर सकते हैं। वर्णांध मनुष्य और एक सामान्य कुत्ते दोनों की ही आंखों में दो प्रकार के शंकु पाए जाते हैं। इस आधार पर हम कुत्तों को कलरब्लाइंड कहते हैं – यह कोई विकार नहीं है बल्कि कुत्तों की आंख सामान्य रूप से ऐसी ही होती है।

चूंकि कुत्ते की आंखों में नीले और पीले रंग के शंकु ही होते हैं, इसलिए वे रंगों के लगभग 10,000 विभिन्न संयोजन देख सकते हैं। दूसरी ओर मनुष्य के लाल, हरे और नीले शंकु मिलकर रंगों की एक करोड़ छटाएं देख सकते हैं।

खास बात यह है कि कुत्ते लाल व हरे रंगों को नहीं देख पाते। लाल और हरे रंग शायद कुत्ते को भूरे की अलग-अलग छटा जैसे दिखते हैं। वे गुलाबी, बैंगनी और नारंगी जैसे रंगों को भी नहीं देख सकते हैं।

यदि आप देखना चाहें कि आपकी कोई तस्वीर कुत्ते की आंखों से कैसी दिखती होगी तो निम्नलिखित वेबसाइट्स पर जाएं:

https://www.livescience.com/34029-dog-color-vision.html

https://www.sciencealert.com/how-dogs-see-the-world-compared-to-humans

https://play.google.com/store/apps/details?id=fr.nghs.android.cbs.dogvision&hl=en_US&gl=US

आंखों में रंग संवेदी शंकु प्रकाश की तरंग लंबाई को तंत्रिका संकेतों में बदल देते हैं। ये संकेत दिमाग में पंहुचते हैं जहां उस वस्तु व उसके रंग की सही मायनों में तस्वीर बनती है। ज़ाहिर है कि जिन जंतुओं में शंकु कोशिकाएं नहीं होती उन्हें रंग नहीं दिखाई देते। कुत्तों के पास केवल 20 प्रतिशत प्रकाश-संवेदी शंकु कोशिकाएं होती हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ बारी के मार्सले सिंसिंशी ने कुत्तों के प्रशिक्षकों को सलाह दी है कि कुत्तों को घास में प्रशिक्षण देते समय लाल कपड़े पहनने से बचें। इससे उन्हें घास व प्रशिक्षक में अंतर करने में परेशानी होती है। वहीं, शोधकर्ताओं ने मालिकों को सलाह दी है कि यदि कुत्ते को घास के मैदान में फ्रिस्बी या बॉल खेलाने ले जा रहे हैं तो कोशिश करें कि खिलौने नीले रंग के हों न कि लाल रंग के।

अब इससे यह तो तय बात है कि रंगीन बोतलों से कुत्तों के डरने या भागने का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वन्य-जीवों के प्रति बढ़ते अपराधों पर अंकुश ज़रूरी – अली खान

हाल में, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) द्वारा तैयार स्टेट ऑफ इंडियाज़ एन्वायरमेंट-2022 रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2005 से 2021 के दौरान देश में 579 बाघ, और 2015 से 2021 के बीच 696 हाथी मारे गए। 2016 और 2021 में सर्वाधिक बाघ (50-50) और 2015 तथा 2018 में सर्वाधिक हाथी (113-115) मौत का शिकार हुए। इसी तरह 2005 से 2021 के दौरान 2639 तेंदुए भी काल का ग्रास बने। स्पष्ट है कि पिछले कुछ सालों में वन्य जीवों के प्रति अपराध बढ़े हैं। लिहाजा, सरकारों को बढ़ते अपराधों पर अंकुश लगाने और वन्य जीवों के संरक्षण व संवर्धन की कोशिशों में इज़ाफा करना होगा‌ और गैर-सरकारी संगठनों को साथ लेकर ठोस पहल करनी होगी। वन्य जीव संरक्षण से सम्बंद्ध योजनाओं का बजट बढ़ाने की भी आवश्यकता है। अन्यथा वन्य जीवों की आबादी और मौतों का संतुलन गड़बड़ाने में ज़्यादा देरी नहीं लगेगी।

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के मुताबिक भारत में 2021 में कुल 126 बाघों की मौत हुई, जो एक दशक में सबसे ज़्यादा है। इनमें से 60 बाघ संरक्षित क्षेत्रों के बाहर शिकारियों, दुर्घटनाओं और मानव-पशु संघर्ष के शिकार हुए हैं। हकीकत यही है कि पिछले कुछ सालों में मानव और पशु संघर्ष बड़े स्तर पर बढ़ा है। इसी के चलते वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए विशेषज्ञों ने कठोर संरक्षण प्रयासों, विशेष रूप से वन रिज़र्व जैसे स्थानों को और अधिक सुरक्षित बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। पिछले एक दशक से यह अनुभव किया गया है कि जनसंख्या वृद्धि, औद्योगिक विकास और अनियंत्रित शहरीकरण के कारण वन्य जीवों का क्षेत्र सिमट रहा है। परिणामस्वरूप आसपास रहने वाले लोग वन्य जीवों की चपेट में आ रहे हैं।

पश्चिम बंगाल के मैंग्रोव जंगलों के तेज़ी से घटने पर चिंता जताते हुए कहा गया था कि हालात पर अंकुश नहीं लगाया गया तो वर्ष 2070 तक सुंदरबन में वन्य जीवों के रहने लायक जंगल नहीं बचेगा। पश्चिमी बंगाल के मैंग्रोव वन बाघों के निवास के तौर पर सबसे अनुकूल माने जाते हैं। इस इलाके में भोजन की तलाश में बाघ अक्सर जंगल से बाहर निकलकर नज़दीकी बस्तियों में पहुंच जाते हैं और अपनी जान बचाने के लिए लोग कई बार इन जानवरों को मार देते हैं। चिंता की बात है कि हाल के वर्षों में सरकार ने वन क्षेत्रों में परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन से जुड़ी मंज़ूरी की प्रक्रिया को आसान कर दिया है, जिसके कारण वन क्षेत्रों के निकट औद्योगिक गतिविधियों में वृद्धि हुई है।

हमें यह समझना होगा कि पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित बनाए रखने के लिए वन्य जीव बेहद महत्वपूर्ण हैं। वन्य जीव पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में सहायक होते हैं। हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि किसी एक प्रजाति पर आने वाला संकट मानव समेत अन्य प्रजातियों में भी असंतुलन की स्थिति पैदा कर देता है। लिहाजा, वन्य-जीवों का संरक्षण और संवर्धन बेहद ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गंधबिलाव का क्लोन अपनी प्रजाति को बचाएगा

म्मीद है कि इस वर्ष कोलोरेडो स्थित नेशनल ब्लैक-फुटेड फेरेट कंज़र्वेशन सेंटर द्वारा विकसित काले पैरों वाले गंधबिलाव का एकमात्र क्लोन प्रजनन करके अपनी प्रजाति को विलुप्त होने से बचा लेगा।

काले पैरों वाला गंधबिलाव (मुस्टेला निग्रिप्स) आधा मीटर लंबे और छरहरे शरीर वाला शिकारी जानवर है, जिसके शिकार प्रैरी (घास के मैदान) के कुत्ते हुआ करते थे। लेकिन 1970 के दशक तक पशुपालकों, किसानों और अन्य लोगों द्वारा प्रैरी कुत्तों की कॉलोनियों को बड़े पैमाने पर तहस-नहस करने के कारण गंधबिलाव की आबादी खतरे में पड़ गई। तब ज्ञात गंधबिलाव की अंतिम कॉलोनी के भी लुप्त हो जाने पर कुछ जीव विज्ञानियों ने मान लिया था कि यह प्रजाति विलुप्त हो गई है। लेकिन 1981 के अंत में तकरीबन 100 गंधबिलाव मिले। लेकिन कुछ ही वर्षों में वे भी संकट में पड़ गए और मात्र कुछ दर्जन गंधबिलाव ही बचे रह गए। फिर 1985 में, संरक्षित माहौल में प्रजनन कराने की पहल की गई। इसके लिए 18 गंधबिलावों को संरक्षित स्थलों पर रखा गया लेकिन प्रजनन के लिए केवल सात ही गंघबिलाव बच सके। इससे उनमें अंतःप्रजनन का खतरा पैदा गया।

कुछ समय पहले संरक्षण के लिहाज़ से ही गंधबिलाव का क्लोन तैयार किया गया था। 14 महीने का यह क्लोन गंधबिलाव एक मादा है जिसे एलिज़ाबेथ एन नाम दिया गया है। वैज्ञानिकों की योजना इस वसंत में एलिज़ाबेथ एन के प्रजनन की है।

हालांकि एलिज़ाबेथ एन भी शत-प्रतिशत काले पैरों वाली गंघबिलाव नहीं है। दरअसल जिस तरीके (कायिक कोशिका नाभिक स्थानांतरण) से एलिज़ाबेथ एन को विकसित किया गया है उसमें एक पालतू गंघबिलाव का उपयोग सरोगेट मां के रूप में किया गया था। इस प्रक्रिया में क्लोन संतानों में मां (पालतू गंघबिलाव) का माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए आ जाता है। पालतू गंधबिलाव से आए इस जीन को हटाने के लिए वैज्ञानिकों की योजना (यदि क्लोन से सफल प्रजनन हो सका तो) एलिज़ाबेथ एन की नर संतान और काले पैरों वाली मादा गंघबिलाव के प्रजनन की है।

बहरहाल, यदि एलिज़ाबेथ एन क्लोन का प्रजनन सफल रहता है तो यह अन्य जोखिमग्रस्त जानवरों के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त कर देगा। लेकिन कई वैज्ञानिकों को लगता है कि यह प्रक्रिया बहुत मंहगी है, इसमें नैतिक समस्याएं हैं और इसका उपयोग सीमित है। इसके अलावा यह जानवरों के प्राकृतवासों के विनाश सम्बंधी मुद्दे से भी ध्यान हटा सकता है, जो वास्तव में जंतु विलुप्ति का एक प्रमुख कारण है। (स्रोत फीचर्स)

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मछलियां जोड़ना-घटाना सीख सकती हैं

म धारणा है कि मछलियां जोड़ना-घटाना कैसे करेंगी, क्योंकि उनके पास हमारी तरह जोड़ने-घटाने के साधन (यानी उंगलियां) नहीं हैं। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि वे कम से कम छोटी संख्याओं के साथ ऐसा कर सकती हैं।

मछलियों में जोड़ने-घटाने की क्षमता जांचने के लिए बॉन विश्वविद्यालय की प्राणी विज्ञानी वेरा श्यूसल और उनके साथियों ने हड्डियों वाली सिक्लिड्स (स्यूडोट्रॉफियस ज़ेब्रा) और उपास्थि वाली स्टिंग रे (पोटामोट्रीगॉन मोटरो) को चुना।

प्रशिक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने एक टैंक में प्रत्येक मछली को 5 तक वर्ग, वृत्त और त्रिभुज की छवियां दिखाईं जो सभी या तो नीले रंग की थीं या पीले रंग की। मछली को इन आकृतियों की संख्या और रंग याद करने के लिए 5 सेकंड का समय दिया गया। फिर टैंक का द्वार खोला गया, जिसमें मछलियों को दो दरवाज़ों में से एक दरवाज़े को चुनना था: एक दरवाज़ा वह था जिसमें पहले दिखाई गई आकृतियों से एक अधिक थी जबकि दूसरे दरवाज़े में एक आकृति कम थी।

नियम सरल थे: यदि पहले दिखाई गई आकृतियां नीले रंग की थीं, तो एक अतिरिक्त आकृति वाला दरवाज़ा चुनना था; और यदि आकृतियां पीले रंग की थीं, तो एक कम आकृति वाला दरवाज़ा चुनना था। सही दरवाज़ा चुनने पर मछलियों को इनाम स्वरूप भोजन मिलता था।

आठ सिक्लिड में से छह और आठ स्टिंग रे में से सिर्फ चार ने सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा किया। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ताओं ने बताया है कि जितनी भी मछलियां परीक्षण के चरण से गुज़रीं उनके प्रदर्शन की व्याख्या मात्र संयोग कहकर नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, परीक्षण में जब मछलियों को तीन नीली आकृतियां दिखाई गईं तो स्टिंग रे और सिक्लिड ने क्रमशः 96 प्रतिशत और 82 प्रतिशत सटीकता से चार आकृति वाला दरवाज़ा चुना। देखा गया कि दोनों प्रजातियों की मछलियों के लिए जोड़ की तुलना में घटाना थोड़ा अधिक कठिन था; बच्चों को भी जोड़ने की अपेक्षा घटाने में कठिनाई होती है।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि मछलियां सिर्फ पैटर्न याद नहीं रख रहीं हैं, शोधकर्ताओं ने अगले परीक्षणों में आकृतियों की संख्या और साइज़ बदल दिए। उदाहरण के लिए एक परीक्षण में, तीन नीली आकृतियां दिखाने पर मछलियों को चार या पांच आकृतियों वाले दरवाज़ों में से एक दरवाज़े को चुनना था – यानी उनके सामने ‘एक जोड़ने’ और ‘एक घटाने’ के विकल्प के अलावा ‘एक जोड़ने’ और ‘दो जोड़ने’ के विकल्प भी थे। देखा गया कि मछलियों ने सिर्फ यह नहीं किया बड़ी संख्या को चुन लें, बल्कि हर बार उन्होंने ‘एक जोड़ने’ वाले निर्देश का पालन किया – यानी मछलियां वांछित सम्बंध समझती हैं।

पहले देखा गया था कि मछलियां छोटी-बड़ी संख्या/मात्रा में अंतर कर पाती हैं। लेकिन यह अध्ययन उससे एक कदम आगे जाता है। सिक्लिड्स और उपास्थि वाली स्टिंग रे विकास में 40 करोड़ वर्ष पहले पृथक हो गई थीं। यानी यह क्षमता उससे पहले विकसित हुई होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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