पतंगों का ध्वनि-शोषक लबादा

ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के ध्वनि जीव विज्ञानी मार्क होल्डरीड और उनकी टीम ने हाल ही में पता लगाया है कि पतंगों के ध्वनि-शोषक पंख उन्हें चमगादड़ों का शिकार बनने से बचाते हैं। पतंगों के पंख से जुड़ी शल्कों की परतें चमगादड़ द्वारा भेजी गई पराध्वनि (यानी ऊंची आवृत्ति की ध्वनि) को सोख लेती हैं। जिससे प्रतिध्वनि चमगादड़ों तक नहीं पहुंच पाती और पतंगे बच जाते हैं। गौरतलब है कि चमगादड़ आवाज़ें फेंकते हैं और किसी वस्तु से टकराकर आई उनकी प्रतिध्वनि की मदद से वस्तुओं की स्थिति का अनुमान लगाते हैं।

टीम को ये शल्की लबादे पतंगों की दो प्रजातियां, चीनी टसर मोथ (एंथेरा पेर्नी) और अफ्रीकी पतंगा डैक्टिलोसेरस ल्यूसिना, में दिखे। कांटे (फोर्क) जैसी संरचना वाले इन शल्कों की कई परतें पतंगों के पंखों की झिल्ली से जुड़ी होती हैं। शिकारी चमगादड़ों द्वारा छोड़ी गई अल्ट्रासाउंड आवृत्तियां जब इन शल्कों से टकराती हैं तो वे मुड़ जाते हैं और ध्वनि की ऊर्जा गतिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। इससे वापस चमगादड़ों तक पहुंचने वाली प्रतिध्वनि बहुत दुर्बल होती है। अर्थात ये पतंगे चमगादड़ों के सोनार से ओझल या लगभग ओझल रहते हैं और शिकार होने से बच जाते हैं। इन दो पतंगों के चयन का एक विशेष कारण यह भी था कि इनमें चमगादड़ों द्वारा प्रेषित आवाज़ को सुनने के लिए कान नहीं होते। इन पतंगों में यह क्षमता शायद इसलिए विकसित हुई होगी क्योंकि ये निकट आते शिकारी चमगादड़ की ध्वनि को सुन नहीं सकते।

ये शल्क एक मिलीमीटर से भी छोटे होते हैं, और इनकी मोटाई केवल चंद सौ माइक्रोमीटर होती है। प्रत्येक शल्क ध्वनि की एक विशेष आवृत्ति पर अनुनाद करता है। लेकिन दसियों हज़ार शल्क मिलकर ध्वनि के कम से कम तीन सप्तक को अवशोषित कर सकते हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि प्रत्येक शल्क एक खास आवृत्ति पर अनुनाद करके उसे सोख लेता है लेकिन इनकी जमावट कुछ ऐसी होती है कि सब मिलकर एक महा-अवशोषक की तरह काम करते हैं।

पंख पर उभरे फोर्क जैसे शल्क

यह ध्वनि-शोषक लबादा 20 किलोहर्ट्ज़ से 160 किलोहर्ट्ज़ आवृत्ति के बीच काम करता है। और यह सबसे बढ़िया काम उन निम्नतर आवृत्तियों पर करता है जो चमगादड़ अपने शिकार का पता करने के लिए उपयोग करते हैं। लबादे ने 78 किलोहर्ट्ज़ पर सबसे अधिक ध्वनि, लगभग 72 प्रतिशत का अवशोषण किया।

पहले ये शोधकर्ता दर्शा चुके हैं कि कुछ पतंगों के पंखों पर उपस्थित रोम भी ध्वनि को सोखकर बचाव में मदद करते हैं। अब उन्होंने यह नई तकनीक खोज निकाली है। उम्मीद है कि ध्वनि अवशोषण की नई तकनीक से बेहतर ध्वनि अवशोषक उपकरण बनाने में मदद मिलेगी। घरों-दफ्तरों में ध्वनि-अवशोषक पैनल का स्थान ध्वनि-अवशोषक वॉलपेपर ले सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नरों को युद्ध करने पर मज़बूर करती मादाएं – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

ब बेन्डेड नेवलों की दो सेनाएं आमने-सामने आती हैं तो उनके बीच वैसा ही युद्ध होता है जैसा मानव प्रतिद्वंद्वियों के बीच होता है। अक्सर विजेता समूह हारने वाले समूह के अड़ियल नेवलों को घेरकर खून से लथपथ कर देते हैं। जब नर युद्धरत होते हैं, एक मादा नेवला चुपके से अपने बच्चों के जीन में विविधता तथा जीवित रहने की संभावना बढ़ाने के लिए दुश्मन गुट में से अपना प्रजनन साथी तलाश लेती है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक अफ्रीकी बेन्डेड नेवलों (मंगोस मंगो) के गुटों में आपसी संघर्ष आम घटना है। परंतु आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इन लड़ाइयों के पीछे एक मादा नेवला होती है। नेवलों के इस झगड़े में हमेशा मादा के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। एक तो नरों के कत्लेआम के चलते उनकी आबादी संतुलित रहती है। दूसरा, मादा को दुश्मन गुट के बहादुर नरों से प्रजनन करके बेहतर जीन्स प्राप्ति का फायदा मिलता है।

उपरोक्त नतीजे युगांडा के क्वीन एलिज़ाबेथ नेशनल पार्क में 20 वर्षों के अध्ययन से मिले हैं। सवाना में पाए जाने वाले बेन्डेड नेवले औसतन 20-20 सदस्यों के समूहों में रहते हैं जिनमें नर, मादा एवं बच्चे सम्मिलित होते हैं। इनका आवास भूमिगत सुरंगों में होता है जिसके बहुत से द्वार होते हैं। ये अपने मूल गुट में बने रहते हैं। निष्कासन अथवा सदस्यों की अधिक संख्या के कारण समूह के कुछ सदस्य नए गुट बनाते हैं। मूल गुट के साथ बने रहने से सदस्यों की सुरक्षा तो होती है किंतु एक ही समूह में प्रजनन होने के कारण आनुवंशिक विविधता की हानि होती है। ऐसे में गुट की मादाएं प्रजनन के लिए दूसरे गुटों के नरों की ओर आकर्षित होती हैं। अपनी प्रजाति और संतति के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए मादा अक्सर प्रतिद्वंद्वी समूहों के उपयुक्त नरों से प्रजनन करने के लिए अपने समूह के नरों को दूसरों के इलाके में ले जाकर युद्ध शुरू करवा देती है।

जब कोई मादा नेवला प्रजननशील होती है तो गुट के चौकीदार उसकी चौबीसों घंटे सुरक्षा करते हैं और गुट का प्रमुख नर ही उससे प्रजनन करता है। चौकीदारों की उपस्थिति में मादा का बाहरी गुट के नरों से प्रजनन करना असंभव होता है। ऐसी परिस्थितियों में चौकीदार नरों को दुश्मन गुट के इलाके में ले जाकर मादा उन्हें युद्ध में झोंक देती है। वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रजननशील मादाएं गुट के फैसलों को नरों की तुलना में अधिक प्रभावित करती हैं। मादा के नरों के साथ इस अनुचित व्यवहार को वैज्ञानिक ‘शोषणमूलक नेतृत्व’ कहते हैं, जहां मादा को शायद ही कभी नुकसान होता है और कई बार बहुत सारे नर मारे जाते हैं। वयस्क नरों में से 10 प्रतिशत की मृत्यु अक्सर इसी प्रकार होती है। जैव विकास के नज़रिए से मादा की करतूत उचित लगती है। वैज्ञानिकों का आकलन है कि गुट के बाहर के नरों से उत्पन्न बच्चों के जीवित रहने की संभावना समूह के नरों से उत्पन्न बच्चों से अधिक होती है। अन्य किसी सामाजिक स्तनधारी में ऐसी घटना नहीं देखी गई है। प्लिस्टोसिन तथा होलोसिन युग के प्रारंभ में मानव की शिकारी आबादी में भी ‘शोषणमूलक नेतृत्व’ के कारण गुटीय युद्धों के दौरान 14-18 प्रतिशत नर मारे जाते थे। क्या अफ्रीकी बेन्डेड नेवले के समान मनुष्यों में भी शीर्ष नेतृत्व, बाकी समुदाय को युद्ध में भेजकर खुद सुरक्षित व फायदे में नहीं बना रहता?(स्रोत फीचर्स)

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क्या व्हेल नौकाओं पर हमला करती हैं?

पिछले दिनों स्पेन और पुर्तगाल के तटों पर किलर व्हेल द्वारा नौकाओं पर हमले की लगभग 40 घटनाएं रिपोर्ट हुई हैं। एक घटना में पुर्तगाल तट से 30 कि.मी. दूर नाविकों की शुरुआती जिज्ञासा तब डर में बदल गई जब किलर व्हेल लगभग 2 घंटों तक उनकी 45 फीट लंबी नौका के पेंदे में ज़ोरदार टक्कर मारती रहीं। किशोर व्हेल सबसे अधिक सक्रिय थीं। और लगता था कि वे जान-बूझकर नौकाओं पर हमला कर रही हैं। 

इस वर्ष जुलाई से अक्टूबर के दौरान स्पेन और पुर्तगाल के तटों पर इन जीवों द्वारा नौकाओं पर हमला करने के कई मामले सामने आए हैं। फॉरेंसिक समुद्र वैज्ञानिक अभी भी इन जटिल, बुद्धिमान और अत्यधिक सामाजिक समुद्री स्तनधारियों (तथाकथित ‘दुष्ट किलर व्हेल’) के इस व्यवहार को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

अटलांटिक में किलर व्हेल का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ये हज़ारों वर्षों से पुर्तगाल और स्पेन से सैकड़ों किलोमीटर के तट पर प्रवास करती ब्लूफिन ट्यूना मछलियों का शिकार करती हैं। लेकिन जब से मनुष्यों ने ब्लूफिन ट्यूना का शिकार करना शुरू किया है तब से किलर व्हेल्स के साथ हमारे सम्बंध काफी तनावपूर्ण हो गए हैं। स्पैनिश संरक्षण संगठन के अनुसार मनुष्यों द्वारा ब्लूफिन ट्यूना के शिकार के कारण 2011 में किलर व्हेल की संख्या घटकर 39 रह गई थी। लेकिन 2010 में अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के बाद से वार्षिक कैच में कमी के बाद से जैसे ही ब्लूफिन ट्यूना की संख्या में वृद्धि हुई वैसे ही किलर व्हेल की संख्या भी बढ़कर 60 हो गई। फिर भी यह विलुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में है।

सितंबर माह से शोधकर्ताओं ने कुछ तथ्य जुटाने का प्रयास शुरू किया। उन्होंने इन जीवों की पहचान करने के लिए संरक्षण संगठन द्वारा ली गई तस्वीरों का उपयोग किया। गौरतलब है कि प्रत्येक किलर व्हेल के पृष्ठीय पंख के पीछे एक विशिष्ट मटमैला पैच होता है जो फिंगरप्रिंट के रूप में काम करता है। इन तस्वीरों और वीडियो से अधिकांश घटनाओं में तीन युवा किलर व्हेल – ब्लैक ग्लैडिस, वाइट ग्लैडिस और ग्रे ग्लैडिस – को अधिक सक्रिय पाया गया। आम तौर पर किलर व्हेल (Orcinus orca) अपने परिवार के साथ काफी निकटता से जुड़े होते हैं। ये परिवार मातृ-प्रधान होते हैं और कई की अपनी बोली होती है। हालांकि अब तक के अध्ययन से शोधकर्ता यह नहीं बता पाए हैं कि ये तीन किस परिवार से सम्बंधित हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी देखा है कि वाइट ग्लैडिस के सिर पर गंभीर चोट है जो शायद नौका की पतवारों को टक्कर मारने के कारण हो सकती है। ऐसी खबरें आते ही सोशल मीडिया पर कहा जाने लगा कि ये किलर व्हेल ‘बदले की कार्रवाई’ कर रही हैं। अलबत्ता, वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि यह किलर व्हेल्स का एक खेल है जिसमें वे नौकाओं को टक्कर मारती हैं।

व्हेल सैंक्चुअरी प्रोजेक्ट की प्रमुख और तंत्रिका वैज्ञानिक लोरी मरीनो और उनके सहयोगियों ने वर्ष 2004 में एक मृत किलर व्हेल के मस्तिष्क का अध्ययन किया था। लोरी बताती हैं कि हम अक्सर प्रजातियों के व्यवहार को अच्छे या बुरे, आक्रामक या चंचल जैसी सरल श्रेणियों में रखने का प्रयास करते हैं जो उनको समझने का गलत तरीका है। हम इन घटनाओं का विवरण देने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वही घटना को रंगत देती है। लोरी और उनकी टीम इन घटनाओं को हमला नहीं बल्कि अंतर्क्रिया का नाम देते हैं।

समुद्र वैज्ञानिक रेनॉड स्टेफैनिस कुछ अलग तरह के व्यवहारों का संकेत देते हैं। अपनी नौका में जाते समय वे बताते हैं कि एक किशोर किलर व्हेल उनकी नौका का ऐसे पीछा कर रहा था जैसे वह उसे अपने जैसा कोई जीव समझ रहा हो। ऐसा करते हुए वो अपने चेहरे को नौका के प्रोपेलर में धकेल रहा था। ऐसे व्यवहार का कारण जो भी हो लेकिन यह चिंता का विषय तो है क्योंकि यह स्वयं किलर व्हेल्स के लिए और मछुआरों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। रेनॉड का एक अंदाज़ा यह भी है कि ऐसी घटनाओं से इन जीवों का मछुआरों से सीधे संघर्ष भी हो सकता है क्योंकि मछुआरों को ये अपनी रोज़ी-रोटी और जान दोनों के लिए खतरा नज़र आएंगे। यह स्थिति वास्तव में ऐसी कई जगहों पर देखी जा सकती है जहां मनुष्य तेंदुओं, बाघों या भेड़ियों जैसे जीवों को अपने करीब होने पर मार देते हैं। यदि इस तरह की घटनाएं होती रहीं तो मनुष्य किलर व्हेल को भी अपने लिए जानलेवा मानते हुए उनकी जान ले सकते हैं।

अंत में यह एक ऐसी जैविक पहेली है जिसको हल करना काफी महत्वपूर्ण है। रेनॉड अभी भी किलर व्हेल द्वारा बदला लेने की भावना के आम विचार को खारिज करते हैं। वे दशकों के अनुसंधान का हवाला देते हुए कहते हैं की यह एक सांस्कृतिक बदलाव का हिस्सा हो सकता है जो वास्तव में जीवों को जीवित रहने में मदद करता है। उदाहरण के रूप में वे बताते हैं कि एक समय पर कुछ किलर व्हेल्स ने नौकाओं से ट्यूना चुराने का हुनर हासिल कर लिया था और ऐसे किलर व्हेल परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई थी। उनके पास कोई प्रमाण तो नहीं है, लेकिन हो सकता है कि उक्त ग्लैडिस उसी कुल के सदस्य हों।(स्रोत फीचर्स)

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एक बच्चा-चोर जंतु: नैकेड मोल रैट – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पूर्वी अफ्रीका के शुष्क घास के मैदानों के नीचे भूल-भूलैया जैसी सुरंगों में एक प्रकार की बदसूरत छछूंदर, नैकेड मोल रैट(Heterocephalusglaber) पाई जाती है। त्वचा पर बाल नहीं होते, इसलिए इन्हें नग्न मोल रैट कहते हैं। अधिकांश कृंतकों के विपरीत ये सामाजिक होती हैं। इनके समूहों में सदस्यों की संख्या 300 तक हो जाती है। पूरे समुदाय में केवल एक प्रजननशील जोड़ा रहता है और शेष सभी मज़दूर होते हैं।

हाल ही के शोध में पाया गया है कि चींटी और दीमकों के समान ही यह मोल रैट भी भोजन की उपलब्धता और इलाके में विस्तार करने के लिए आसपास मौजूद अन्य मोल रैट कॉलोनियों पर आक्रमण करते हैं और उनके बच्चों को चुराकर अपने समूह के मज़दूरों की संख्या में वृद्धि करते हैं। इनके इस व्यवहार से छोटी एवं कम एकजुटता वाली मोल रैट कॉलोनियां सिकुड़ती हैं और आक्रामक कॉलोनियों का विस्तार होता जाता है।

कीन्या के मेरु राष्ट्रीय उद्यान में शोध टीम को उपरोक्त व्यवहार नैकेड मोल रैट की गतिविधियों के अध्ययन के दौरान संयोगवश देखने को मिला।

एक दशक से चल रहे शोध में शोधकर्ताओं ने इनकी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए दर्जनों कॉलोनियों से मोल रैट पकड़-पकड़कर उनकी त्वचा के नीचे एक बहुत छोटी रेडियो फ्रिक्वेन्सी ट्रांसपॉन्डर चिप लगा दी थी। नई कॉलोनी के सदस्यों में चिप लगाने के दौरान शोधकर्ताओं को वहां पड़ोसी कालोनी के वे सदस्य दिखाई दिए जिन पर वे पहले ही चिप लगा चुके थे। आगे खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि नई कॉलोनी की रानी के चेहरे पर युद्ध के दौरान बने घाव थे। शोध से जुड़े सेन्ट लुईस की वाशिंगटन युनिवर्सिटी के स्टेन ब्राउडे के लिए यह बात आश्चर्यजनक और नई थी क्योंकि इनकी कॉलोनियों के बीच प्रतिस्पर्धा की कोई बात ज्ञात ही नहीं थी बल्कि उन्हें तो आपसी सहयोग की भावना से रहने वाले जीव ही माना जाता था। ब्राउडे और उनके साथियों ने शोध के दौरान पाया कि 26 कॉलोनियों ने अपनी सुरंग की सरहदों को विस्तार देकर पड़ोसी कॉलोनियों पर अधिकार जमा लिया है। आक्रमण के आधे मामलों में तो छोटी कॉलोनी के सभी मोल रैट बेदखल कर दिए गए थे तथा आधे मामलों में छोटी कॉलोनी के सदस्यों को सुरंगों के किनारों तक खदेड़ दिया गया था। इसी अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों को ऐसा लगा कि हमले के दौरान छोटी कॉलोनी के बच्चों को भी चुरा लिया गया है। परंतु तब उन्नत जेनेटिक तकनीक के अभाव में वंशावली ज्ञात कर पुख्ता तथ्य परखना कठिन था। लेकिन बाद के वर्षों में ज्ञात हुआ कि अन्य कॉलोनियों के बच्चे मज़दूर बनकर बड़ी कॉलोनी के अंग बन गए थे। वैज्ञानिकों ने इन पर निगाह रखी और इनके जेनेटिक विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि ये दूसरी कॉलोनी के चुराए हुए बच्चे थे। इन छछूंदरों के सामाजिक जीवन के अध्ययन से वैज्ञानिक यह जान पाए हैं कि इनके लिए सुरंगें बहुत मूल्यवान होती है। सुरंगों को खोदने के दौरान ही ज़मीन में पाए जाने वाले कंद इनका आहार होते हैं। कॉलोनी में जितने ज़्यादा मज़दूर होंगे सुरंगें उतनी ही बड़ी होंगी और अधिक भोजन उपलब्ध करा पाएंगी। इसलिए ये आस-पड़ोस की कॉलोनियों पर आक्रमण करके वयस्क सदस्यों को बेदखल कर देते हैं और केवल निश्चित उम्र के बच्चों को ही चुरा कर अपने समूह में सम्मिलित कर लेते हैं जो बड़े होकर इनके लिए मज़दूरी कर सकें।(स्रोत फीचर्स)

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घुड़सवारी ने बनाया बहुजातीय साम्राज्य

ब तक, श्यून्गनू लोगों के बारे में जो भी लिखित जानकारी मिलती है वह उनके शत्रुओं द्वारा किए गए वर्णन से मिलती है। चीन के 2200 साल पुराने रिकॉर्ड बताते हैं कि कैसे मैदानों (वर्तमान के मंगोलिया) से आकर घुड़सवार-तीरंदाज़ श्यून्गनू लोगों ने चीन की उत्तर-पश्चिमी सीमा से प्रवेश कर आक्रमण किया।

श्यून्गनू साम्राज्य ने अपने बारे में कोई लिखित रिकार्ड नहीं छोड़े हैं। लेकिन जीव विज्ञान अब श्यून्गनू साम्राज्य की और अन्य मध्य एशियाई संस्कृति की कहानी बयां कर रहा है।

हाल ही में हुए दो अध्ययनों ने मध्य एशिया में मनुष्यों के फैलाव और इसमें घुड़सवारी की भूमिका की पड़ताल की है। इनमें से एक अध्ययन 6000 साल की अवधि के 200 से अधिक मनुष्यों के डीएनए का व्यापक सर्वेक्षण है। दूसरा अध्ययन श्यून्गनू साम्राज्य के उदय के ठीक पहले के घोड़ों के कंकालों का विश्लेषण है।

ये अध्ययन बताते हैं कि घोड़ों ने मनुष्यों के आवागमन के पैटर्न को नए आयाम दिए और लोगों को कम समय में लंबी दूरी तय करने में सक्षम बनाया।

संभवत: वर्तमान के कज़ाकस्तान के पास बोटाई संस्कृति ने लगभग 3500 ईसा पूर्व घोड़ों को पालतू बनाया था। शुरुआत में इन्हें मुख्यत: मांस और दूध के लिए पाला जाता था, और बाद में इनका इस्तेमाल घोड़ा-गाड़ी में किया जाने लगा।

पहला अध्ययन सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। सियोल नेशनल युनिवर्सिटी के चून्गवॉन जिओंग और उनकी टीम ने पूरे मध्य एशिया में मानव प्रवास को समझने के लिए मंगोलिया से प्राप्त मानव अवशेषों के डीएनए नमूनों का अनुक्रमण किया। नमूने 5000 ईसा पूर्व से लेकर चंगेज़ खान के मंगोल साम्राज्य की घुड़सवार संस्कृति के उदय तक यानी 1000 ईस्वीं तक के हैं।

पश्चिमी युरोपीय लोगों के आनुवंशिक अध्ययन से पता चल चुका है कि लगभग 3000 ईसा पूर्व यामन्या संस्कृति के चरवाहों ने मैदानों से आज के रूस और यूक्रेन की ओर प्रवास किया था और युरोप में एक बड़े आनुवंशिक बदलाव की शुरुआत की थी। कांस्य युगीन मंगोलियन कंकालों से मालूम पड़ता है कि यामन्या लोगों ने पूर्व का रुख भी किया था और वहां अपनी पशुपालक जीवनशैली की स्थापना की थी। लेकिन ताज़ा अध्ययन बताता है कि उन्होंने मंगोलिया में अपनी कोई स्थायी आनुवंशिक छाप नहीं छोड़ी।

जबकि इसके लगभग हज़ार साल बाद घास के मैदानों (स्टेपीस) की एक अन्य संस्कृति, सिंतश्ता, ने वहां अपनी स्थायी छाप छोड़ी। पूर्व में किए गए पुरातात्विक अध्ययनों से पता चला था कि वे मंगोलिया में दूरगामी सांस्कृतिक परिवर्तन लाए थे। 1200 ईसा पूर्व में घोड़ों से सम्बंधित कई नवाचार दिखे। जैसे घोड़ों के अच्छे डील-डौल और क्षमता के लिए चयनात्मक प्रजनन, नियंत्रण के लिए लगाम या नकेल, घुड़सवारी की पोशाक और काठी (जीन)।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित दूसरा अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि इस समय मंगोलियाई लोग घुड़सवारी करने लगे थे। वर्तमान चीन के शिनजियांग प्रांत के तिआनशान पहाड़ों में मिले लगभग 350 ईसा पूर्व के ज़माने के घोड़े के कंकालों में घुड़सवारी के कारण होने वाले विकार दिखे। घुड़सवार के वज़न के कारण घोड़े की रीढ़ की हड्डी में चोट पहुंचती है और लगाम कसने और नकेल के कारण मुंह की हड्डियों का आकार बदल जाता है।

इसके थोड़े समय बाद ही श्यून्गनू साम्राज्य उभरा। उन्होंने अपने घुड़सवारी के कौशल का युद्ध में उपयोग किया और दूर-दूर तक अपना साम्राज्य फैलाया। लगभग 200 ईसा पूर्व श्यून्गनू लोगों ने युरेशिया की एक घुमंतू जनजाति को दुर्जेय सेना में तब्दील कर दिया, जिसने घास के मैदानों को पड़ोसी चीन का मुख्य प्रतिद्वंदी बना दिया।

श्यून्गनू साम्राज्य की 300 साल की अवधि के 60 मानव कंकालों के डीएनए अध्ययन से पता चलता है कि कैसे यह क्षेत्र एक बहुजातीय साम्राज्य बना। जब मंगोलिया के मैदानों में तीन घुड़सवार संस्कृतियां पास-पास रहती थी तब लगभग 200 ईसा पूर्व तेज़ी से आनुवंशिक विविधता बढ़ी। पश्चिमी और पूर्वी मंगोलियाई लोगों का आपस में मेल हुआ और वे अपने जीन्स दूर-दूर तक ले गए, वर्तमान ईरान और मध्य एशिया तक भी। जिओंग का कहना है कि इसके पहले तक इतने बड़े स्तर पर लोगों में मेल-जोल नहीं हुआ था। श्यून्गनू लोगों में पूरी युरेशियन आनुवंशिक प्रोफाइल दिखती है।

इन परिणामों से पता चलता है कि घोड़ों ने मध्य एशिया के मैदान तक पहुंच संभव बनाई। श्यून्गनू के उच्च वर्ग के लोगों की कब्रों से मिली पुरातात्विक सामग्री – जैसे रोमन ग्लास, फारसी वस्त्र और यूनानी चांदी के सिक्के – बताती हैं कि उनकी पहुंच दूर-दूर तक थी। लेकिन आनुवंशिक साक्ष्य बताते हैं कि बात सिर्फ व्यापार तक सीमित नहीं थी बल्कि इससे अधिक थी। श्यून्गनू काल के ग्यारह कंकालों के अध्ययन से पता चला है कि इनकी आनुवंशिक छाप उन सरमेशियाई घुमंतू योद्धाओं जैसी है जिन्होंने काले सागर के उत्तर में राज किया था।

शोधकर्ता अब जीनोम विश्लेषण की मदद से पता लगाना चाहते हैं कि इस खानाबदोश साम्राज्य ने किस तरह काम किया।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोनावायरस के चलते मिंक के कत्ले आम की तैयारी

कुछ समय पहले डेनमार्क के स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा था कि मिंक और लोगों में सार्स-कोव-2 के उत्परिवर्तनों के चलते कोविड-19 टीकों की प्रभावशीलता खतरे में पड़ सकती है। इस खबर के मद्देनज़र डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने 4 नवंबर को घोषणा की कि मिंक-पालन समाप्त किया जाए और डेढ़ करोड़ से भी अधिक मिंक को मौत के घाट उतार दिया जाए। इस घोषणा से बहस छिड़ गई और वैज्ञानिकों द्वारा डैटा विश्लेषण किए जाने तक इस फैसले को स्थगित कर दिया गया। गौरतलब है कि मिंक एक प्रकार का उदबिलाव होता है जिसे विर्सक भी कहते हैं।

अब, डैटा की समीक्षा में युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की एस्ट्रिड इवर्सन का कहना है कि ये उत्परिवर्तन अपने आप में चिंताजनक नहीं हैं क्योंकि इस बात के बहुत कम सबूत हैं कि मिंक में हुए ये उत्परिवर्तन सार्स-कोव-2 वायरस को लोगों में आसानी से फैलने में मदद करते हैं,या वायरस को अधिक घातक बनाते हैं या चिकित्सा और टीकों की प्रभाविता को कम करते हैं।

लेकिन फिर भी कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि मिंक को मारना शायद आवश्यक है क्योंकि जून के बाद से 200 से अधिक मिंक फार्म में यह वायरस तेज़ी से और अनियंत्रित तरीके से फैला है। इसके चलते ये वायरस के स्रोत हो गए हैं जहां से वह लोगों को आसानी से संक्रमित कर सकता है। डेनमार्क में मिंक की संख्या वहां की लोगों की आबादी की तीन गुना है, और देखा गया है कि जिन फार्म के मिंक संक्रमित हुए हैं उन इलाकों के लोगों में कोविड-19 के मामले बढ़े हैं। अंतत: 10 नवंबर को डेनमार्क सरकार ने किसानों से मिंक का खात्मा करने का आग्रह किया।

40 मिंक फार्म से लिए गए नमूनों में वायरस के 170 संस्करण दिखे। और डेनमार्क के कुल कोविड-19 मामलों के 20 प्रतिशत मामलों में लगभग 300 संस्करण दिखे, ये संस्करण मिंक में भी देखे गए। अत: माना जा रहा है कि ये उत्परिवर्तन पहले मिंक में उभरे थे।

मिंक और लोगों के सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन में भी कई उत्परिवर्तन देखे गए थे। यह वायरस स्पाइक प्रोटीन के ज़रिए ही कोशिकाओं में प्रवेश करता है। स्पाइक प्रोटीन में परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली की संक्रमण को पहचानने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है। कई टीके प्रतिरक्षा प्रणाली को स्पाइक प्रोटीन की पहचान करवाकर उसे अवरुद्ध करने पर आधारित हैं। विशेष रूप से स्पाइक प्रोटीन का क्लस्टर-5 नामक उत्परिवर्तन अधिक चिंता का विषय है। इसमें तीन एमिनो एसिड में बदलाव और दो स्पाइक प्रोटीन में दो एमिनो एसिड का विलोपन देखा गया। प्रारंभिक प्रयोगों में, कोविड-19 से उबर चुके लोगों की एंटीबॉडीज़ के लिए अन्य उत्परिवर्तित वायरस के मुकाबले क्लस्टर-5 उत्परिवर्तन वाले वायरस की पहचान करना ज़्यादा मुश्किल था। इससे लगता है कि इस संस्करण पर एंटीबॉडी उपचार या टीकों का कम असर पड़ेगा। और इसलिए मिंक को मारने की सलाह दी गई। मिंक में हुआ एक अन्य उत्परिवर्तन (Y453F) 300 से अधिक लोगों में दिखा था। इस संस्करण के भी स्पाइक प्रोटीन के एमिनो एसिड परिवर्तन में परिवर्तन हुआ है। और यह भी मोनोक्लोनल एंटीबॉडी से बच निकलता है। समीक्षकों का कहना है कि ये दावे संदेहास्पद हैं क्योंकि क्लस्टर-5 संस्करण बहुत कम मामलों में दिखा है – 5 मिंक फार्म और 12 लोगों में। जो संक्रमित लोग मिले हैं उनमें से कई मिंक फार्म पर काम करते थे और सितंबर के बाद से यह संस्करण दिखा भी नहीं है। लिहाज़ा टीकों और उपचार की प्रभाविता को लेकर कोई भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी। अलबत्ता, मिंकों की बलि तो चढ़ाई ही जाएगी।(स्रोत फीचर्स)

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कठफोड़वा में अखाड़ेबाज़ी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

दो जंतुओं में भोजन एवं प्रजनन के लिए झगड़ा होना आम बात है परंतु झगड़े से पूरे समुदाय का दो पक्षों में बंटवारा और गुटों का निर्माण जंतुओं के समाज में कम ही देखा गया है। कठफोड़वा (मेलानिर्पस फार्मिसिवोरस) समूह में रहने और प्रजनन करने वाले पक्षी हैं। शरद ऋतु के आगमन पर ये मेवे (नट्स) एकत्रित कर, पेड़ों में बनाए गए छेदों (भंडार) में रख देते हैं। इससे भीषण ठंड के समय भोजन की उपलब्धता उनके जीवित रहने की संभावना और प्रजननशीलता दोनों को बढ़ाती है। प्रजननकारी सदस्य की असामयिक मृत्यु और उसके इलाके को हथियाने के लिए नर या मादाओं के बीच सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। पड़ोसी दल भी इस गुटबाज़ी में शरीक हो जाते हैं।

हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक स्वचालित रेडियो-टेलीमेट्री प्रणाली का उपयोग कर कठफोड़वों में भोजन तथा प्रजनन के लिए संघर्ष, सत्ता परिवर्तन और सामाजिक ढांचे को बेहतर तरीके से समझा है। ओल्ड डोमेनियन युनिवर्सिटी के बायोलॉजिकल साइंस विभाग में कार्यरत डॉ. सहस बर्वे का शोध करंट बायोलॉजी नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। डॉ. बर्वे और उनकी टीम ने अपना शोध कार्य कैलिफोर्निया और दक्षिण-पश्चिम संयुक्त राज्य अमेरिका के तटीय जंगलों में किया।

कठफोड़वा का समाज जटिल होता है। प्रत्येक परिवार में अधिकतम 7 वयस्क नर होते हैं जो रिश्ते में भाई होते हैं। पूरा परिवार लगभग 15 एकड़ के शाहबलूत (ओक) पेड़ों के इलाके की रखवाली करके एक साथ रहता है। प्रत्येक नर एक से तीन मादाओं से प्रजनन करता है जो अक्सर दूर के रिश्ते की बहनें होती हैं। इनके परिवार में बाद में जन्मे सदस्य भी होते हैं जिन्हें हेल्पर या मददगार कहते हैं। मददगार सदस्य अपने मूल परिवार के साथ 5-6 वर्षों तक बने रहकर अपने सहोदरों के लिए दाई मां यानी पालन-पोषण का कार्य करते हैं। जब वे खुद का परिवार बनाने जितने बड़े हो जाते हैं तो नए इलाके खोजकर मूल परिवार से दूर चले जाते हैं। यदि हेल्पर दाई मां के कार्य छोड़कर उसी समूह में प्रजनन का प्रयास करते हैं तो सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। ऐसी परिस्थितियां तब निर्मित होती हैं जब मुखिया और उसकी मादाएं वृद्ध और कमज़ोर हो जाते हैं।

डॉ. बर्वे और उनकी शोध टीम ने 2018 से 2019 के बीच मादाओं के अभाव के कारण तीन कठफोड़वा परिवारों के सत्ता संघर्ष का नज़दीकी से अध्ययन किया। इलाके पर अपना अधिकार जमाने के लिए बलशाली मादा या नर कठफोड़वों के बीच आपस में युद्ध होता है। प्रतिदिन युद्ध प्रारंभ होने के पहले ही सभी कठफोड़वों को संदेश मिल जाता है और तमाशा-ए-युद्ध को देखने के लिए एक ही घंटे में दूर-दूर से अनेक तमाशबीन कठफोड़वा जमा हो जाते हैं। प्रत्येक कठफोड़वा पंख फैलाकर तथा चोंच से हमले कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता है और प्रतिद्वंदी को खून से लथपथ, अंधा तथा अपंग कर देता है। विजेता कठफोड़वा को दर्जन भर परिवारों की लगभग 50 मददगार मादाओं का साथ मिलता हैं।

नई वयस्क कठफोड़वा मादाएं प्रतिदिन आसपास के इलाकों से आकर युद्ध करती थीं और वापस अपने आवास में लौट जाती थीं। मादाएं कई बार चार दिनों तक लगातार दस-दस घंटों तक युद्ध करती थीं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि इस दौरान सभी तमाशबीन कठफोड़वा अपने समाज के सदस्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। दर्शकों के रूप में मौजूद रहने से उनके लिए सहोदरों के साथ नए गठजोड़, नए इलाके, योद्धाओं का स्वास्थ्य, इलाकों की संपन्नता आदि का आकलन करना संभव होता हैं। दर्शक के रूप में आए कठफोड़वा अपने अनाज के भंडार, इलाकों की रखवाली, रोज़मर्रा के कार्य और युद्ध-स्थल तक पहुंचने की थकान जैसे जोखिम भी मोल ले लेते हैं। ऐसा लगता है कि इतने जोखिम लेने के फायदे भी होंगे। वैज्ञानिकों को लगता है कि कठफोड़वा समाज के प्रत्येक सदस्य का व्यवहार पूरे समाज को प्रभावित करता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टार्डिग्रेड का सुरक्षा कवच है प्रतिदीप्ति

सूक्ष्मजीव टार्डिग्रेड (या जलीय भालू) के बारे में अब तक हमें यह तो पता था कि ये जीवन के लिए घातक परिस्थितियों जैसे अत्यधिक गर्मी, विकिरण और अंतरिक्ष के निर्वात में भी जीवित रह सकते हैं। और अब, वैज्ञानिकों को टार्डिग्रेड की एक ऐसी प्रजाति मिली है जो इतने घातक अल्ट्रावायलेट विकिरण को भी झेल सकती जिनका उपयोग उन वायरस और बैक्टीरिया को मारने के लिए किया जाता है जिनका खात्मा आसानी से नहीं किया जा सकता।

दरअसल बैंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के शोधकर्ता टार्डिग्रेड्स पर अत्यंत कठोर परिस्थितियों के प्रभाव देख रहे थे। ये टार्डिग्रेड्स उन्होंने इंस्टीट्यूट के परिसर से ही एकत्रित किए थे। उनकी प्रयोगशाला में कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए अल्ट्रावायलेट (यूवी) लैंप भी था। तो उन्होंने टार्डिग्रेड्स पर इसका प्रभाव भी देखा। उन्होंने पाया कि प्रति वर्ग मीटर एक किलोजूल यूवी विकिरण से लगातार 15 मिनट का संपर्क बैक्टीरिया और गोल कृमि को सिर्फ पांच मिनट में मार देता है और हिप्सिबियस एग्ज़ेमप्लेरिस प्रजाति के अधिकांश टार्डिग्रेड्स भी 15 मिनट के संपर्क से मारे गए। लेकिन जब विकिरण की इतनी ही मात्रा टार्डिग्रेड्स की लाल-भूरे रंग की एक अज्ञात प्रजाति पर डाली गई तो सब के सब जीवित बचे रहे। और तो और, जब विकिरण की मात्रा चार गुना बढ़ा दी तब भी लगभग 60 प्रतिशत से अधिक लाल-भूरे टार्डिग्रेड्स 30 दिन से अधिक समय तक जीवित रहे।

इस परिणाम के आधार पर शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि उन्हें टार्डिग्रेड्स की एक नई प्रजाति मिली है। यह पैरामैक्रोबायोटस जीनस की सदस्य है। शोधकर्ता समझना चाहते थे कि दीवार पर लगी काई में रहने वाली टार्डिग्रेड्स की यह नई प्रजाति इतने घातक यूवी विकिरण के बाद भी जीवित कैसे रह पाती है। इसकी जांच के लिए उन्होंने इंवर्टेड फ्लोरेसेंट माइक्रोस्कोप का उपयोग किया। देखा गया कि लाल-भूरे रंग के ये टार्डिग्रेड यूवी प्रकाश में नीले रंग के हो गए थे। बायोलॉजी लैटर्स में शोधकर्ता बताते हैं कि टार्डिग्रेड्स की त्वचा के नीचे मौजूद फ्लोरेसेंट रंजक यूवी प्रकाश को हानिरहित नीली रोशनी में बदल देते हैं। और जिन पैरामैक्रोबायोटस टार्डिग्रेड्स में कम फ्लोरोसेंट रंजक थे उनकी यूवी प्रकाश के संपर्क में आने के लगभग 20 दिन बाद मृत्यु हो गई।

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड्स से फ्लोरोसेंट रंजक निकाले और एच. एग्ज़ेमप्लेरिस टार्डिग्रेड्स और कई सीनोरेब्डाइटिस एलिगेंस कृमियों पर इन रंजकों का लेप किया और फिर इन्हें यूवी प्रकाश में रखा। पाया गया कि जिन जीवों को फ्लोरेसेंट रंजक का सुरक्षा कवच चढ़ाया गया था वे ऐसे सुरक्षा कवच रहित जीवों की तुलना में यूवी प्रकाश में दोगुना समय तक जीवित रहे। इन परिणामों से शोधकर्ता संभावना जताते हैं कि दक्षिण भारत के गर्म दिनों के तीव्र यूवी विकिरण से बचने के लिए टार्डिग्रेड्स में फ्लोरेसेंस सुरक्षा विकसित हुई होगी।(स्रोत फीचर्स)

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चीन के दुर्लभ पक्षियों के बदलते इलाके

चीन में शौकिया पक्षी प्रेमियों की बढ़ती संख्या ने जलवायु परिवर्तन के नए पहलू को उजागर किया है। एक नए अध्ययन में पिछले 2 दशकों से अधिक समय से चीन के नागरिक-वैज्ञानिकों द्वारा एकत्रित डैटा की मदद से पक्षियों की लगभग 1400 प्रजातियों का एक नक्शा तैयार किया गया है। इसमें लुप्तप्राय रेड-क्राउन क्रेन से लेकर पाइड फाल्कोनेट प्रजातियां शामिल हैं। इस डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं ने 2070 तक के हालात का अनुमान लगाया गया है। इस नक्शे में प्रकृति संरक्षण के लिहाज़ से 14 क्षेत्रों को प्राथमिकता की श्रेणी में रखा गया है।    

गौरतलब है कि पक्षी प्रेमी नागरिकों द्वारा उपलब्ध कराए गए वैज्ञानिक डैटा का पहले भी शोधकर्ताओं ने उपयोग किया है लेकिन चीन में पहली बार इसका उपयोग राष्ट्रव्यापी स्तर पर किया जा रहा है। देखा जाए तो चीन में पिछले 20 वर्षों में पक्षी प्रेमियों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। कई विश्वविद्यालयों में भी इनकी टीमें तैयार की गई हैं। पक्षी प्रेमी अपने अनुभवों को bird report नामक वेबसाइट पर दर्ज करते हैं, जिसकी सटीकता और प्रामाणिकता की जांच अनुभवी पक्षी विशेषज्ञ करते हैं।

इस डैटा का उपयोग करते हुए पेकिंग युनिवर्सिटी के रुओचेंग हू और उनके सहयोगियों ने 1000 से अधिक प्रजातियों के फैलाव क्षेत्र के नक्शे तैयार किए। इसके बाद उन्होंने दो परिदृश्यों, वर्ष 2100 तक 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और 3.7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक की वृद्धि, के साथ उनके फैलाव में आने वाले बदलाव को देखने के लिए एक मॉडल तैयार किया। इस मॉडल में उन्होंने दैनिक और मासिक तापमान, मौसमी वर्षा और ऊंचाई जैसे परिवर्तियों को शामिल किया है। प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार तापमान में अधिक वृद्धि होने से कई पक्षी उत्तर की ओर या अधिक ऊंचे क्षेत्रों की ओर प्रवास कर जाएंगे। हालांकि लगभग 800 प्रजातियां ऐसी होंगी जिनके इलाके में विस्तार होगा, लेकिन इनमें से अधिकांश क्षेत्र सघन आबादी वाले और औद्योगिक क्षेत्र होंगे जो पक्षियों के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं। मोटे तौर पर 240 प्रजातियों के इलाके में कमी आएगी।

ऐसे में सबसे अधिक प्रवासी पक्षी और सिर्फ चीन में पाए जाने वाली पक्षी प्रभावित होंगे। इस पेपर के लेखकों के अनुसार प्रतिष्ठित रेड-क्राउन क्रेन का इलाका भी सिमटकर आधा रह जाएगा। चीन के मौजूदा राष्ट्रीय आरक्षित क्षेत्र इन पक्षियों के प्राकृत वासों की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है। इस विनाश से बचने के लिए अध्ययन में इंगित 14 प्राथमिकता वाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

नए आरक्षित क्षेत्रों के विकास में भी काफी चुनौतियों का सामना करना होगा। इसके लिए स्थानीय हितधारकों को आश्वस्त करना होगा और भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में सीमाओं को तय करना होगा। विशेषकर ऐसे नए तरीकों का पता लगाना होगा जिससे शहरी उद्यानों और कृषि क्षेत्रों को पक्षियों के अनुकूल बनाया जा सके।(स्रोत फीचर्स)

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मैडागास्कर के विशालकाय जीव कैसे खत्म हो गए

क समय मैडागास्कर में एलीफैंट बर्ड, विशाल कछुए और यहां तक कि विशालकाय लीमर रहा करते थे। लेकिन आज इस क्षेत्र में सिर्फ छोटे जीव ही पाए जाते हैं। शोधकर्ताओं के बीच इस बात को लेकर काफी बहस होती रही है कि दोष मनुष्यों का है या जलवायु परिवर्तन का। लेकिन हाल ही में हिंद महासागर के एक द्वीप की गुफाओं से प्राप्त तलछट से इसके जवाब के संकेत मिले हैं: सूखे की परिस्थितियों ने विशालकाय जीवों के लिए जीवन काफी कठिन ज़रूर बना दिया था लेकिन एलीफैंट बर्ड के ताबूत में आखरी कील तो मनुष्यों ने ही ठोंकी है।    

अफ्रीका के दक्षिण-पूर्वी तट से 425 किलोमीटर दूर मैडागास्कर मनुष्यों द्वारा बसाया गया सबसे आखिरी स्थान माना जाता था। लेकिन दो वर्ष पहले शोधकर्ताओं को 10,500 वर्ष पुरानी हाथियों की हड्डियां मिलीं हैं जिनकी हत्या की गई थी। यह इस बात का संकेत है कि मनुष्य और विशालकाय जीव हज़ारों वर्षों साथ-साथ रहे थे लेकिन ये विशाल जीव लगभग 1500 वर्ष पहले विलुप्त हो गए।

इस क्षेत्र की जलवायु का इतिहास समझने के लिए शियान जियाटोंग युनिवर्सिटी के भू-वैज्ञानिक हई चेंग और उनके स्नातक छात्र हांग्लिंग ली ने मैडागास्कर से 1600 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे टापू रॉड्रिग्स पर गुफाओं का रुख किया। यह टापू काफी दूर और अलग-थलग स्थित है, जिसकी वजह से यह प्राचीन जलवायु की जानकारी एकत्रित करने के लिए बढ़िया स्थान था। मानव गतिविधियां न होने से अभी भी यहां स्टैलैक्टाइट तथा स्टैलैग्माइट सलामत थे।

सबसे पहले शोधकर्ताओं ने तलछट के खंडों का काल निर्धारण किया। कई जगहों पर तो वे पिछले 8000 वर्षों के लिए दशक-दशक तक की परिशुद्धता से काल निर्धारण कर पाए। इसके बाद उन्होंने परत-दर-परत ऑक्सीजन और कार्बन के भारी समस्थानिकों तथा सूक्ष्म मात्रा में पाए गए तत्वों का विश्लेषण किया जिससे अतीत में जलवायु में नमी के स्तर का पता लगाया जा सके। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर ने इस दौरान चार बड़े सूखों का सामना किया था। इनमें से सूखे की एक घटना 1500 वर्ष पूर्व बड़े स्तर पर विलुप्तिकरण की घटना के साथ भी मेल खाती है। चेंग का मानना है कि इसके पूर्व में होने वाली सूखे की घटनाओं से भी ये जीव बच निकले थे। इससे ऐसा लगता है कि मनुष्यों द्वारा अत्यधिक शिकार और आवास स्थल नष्ट करना निर्णायक रहा।

इस अध्ययन से अन्य शोधकर्ताओं को मैडागास्कर और आसपास के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों के बारे में स्पष्ट जानकारी प्राप्त हुई है। लेकिन अध्ययन मात्र एक छोटे टापू पर किया गया है जबकि यह क्षेत्र काफी विशाल है और यहां अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों के अलावा अलग-अलग मानव सभ्यताएं भी मौजूद रही होंगी। ऐसे में विभिन्न स्थानों में विलुप्त होने की परिस्थितियां भी काफी अलग-अलग हो सकती हैं।(स्रोत फीचर्स)

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