टेक्नॉलॉजी का सहस्राब्दी पुरस्कार – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

र्ष 2020 के सहस्राब्दी टेक्नॉलॉजी पुरस्कार की घोषणा मई में की गई। यह पुरस्कार डीएनए अनुक्रमण (सिक्वेंसिंग) की क्रांतिकारी तकनीक के विकास हेतु शंकर बालसुब्रमण्यन और डेविड क्लेनरमैन को दिया गया है। उनका काम विज्ञान और नवाचार का उत्कृष्ट संगम है। यह बहुत प्रासंगिक भी है क्योंकि वर्तमान महामारी के संदर्भ में हम सबने जीनोम अनुक्रमण के बारे में खूब सुना है।

नवाचार पर ज़ोर

यह पुरस्कार फिनलैंड की सर्वोच्च अकादमियों और उद्योगों के साथ मिलकर फिनलैंड गणतंत्र द्वारा दिया जाता है। सहस्राब्दी पुरस्कार में इक्कीसवीं सदी का नज़रिया है जिसमें नवाचार पर बहुत ज़ोर है। अतीत में इस पुरस्कार के विजेताओं में टिम बर्नर्स ली (वर्ल्ड वाइड वेब के क्रियांवयन के लिए) और फ्रांसिस अरनॉल्ड (प्रयोगशाला की परिस्थितियों में निर्देशित जैव विकास पर शोध के लिए) शामिल रहे हैं। एक गौरतलब बात है कि ग्यारह में से सात पुरस्कार विजेताओं को आगे चलकर नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। तो हम दिल थामकर बालसुब्रमण्यन और क्लेरमैन का इन्तज़ार करें।

शंकर बालसुब्रमण्यन का जन्म चेन्नै में हुआ था और उन्होंने अपना अधिकांश जीवन इंग्लैंड में बिताया। पीएच.डी. करने के बाद वे कैम्ब्रिज विश्वविशलय के रसायन विभाग से जुड़ गए। लगभग उसी समय क्लेरमैन भी विभाग में आए और दोनों की टीम बन गई। शुरुआती लक्ष्य तो एक ऐसा सूक्ष्मदर्शी बनाने का था जो इकलौते अणुओं को देख सके। बालसुब्रमण्यन की विशेष रुचि उस आणविक मशीनरी में थी जिसका उपयोग डीएनए अपनी प्रतिलिपि बनाने में करता है। बातचीत में कभी इस विचार का कीड़ा कुलबुलाया कि डीएनए की वर्णमाला को पढ़ने का कोई नया तरीका निकाला जाए ताकि डीएनए में संग्रहित सूचना तक आसानी से पहुंचा जा सके।

डीएनए (या कुछ वायरसों में आरएनए) सजीवों की जेनेटिक सामग्री होती है। यह चार क्षारों से बना होता है – ए, टी, जी और सी। आरएन के संदर्भ में टी का स्थान यू नामक क्षार ले लेता है। गुणसूत्र इन्हीं क्षारों की एक रैखीय दोहरी शृंखला होता है। डीएनए में क्षारों का क्रम ही सूचना होता है। यही जीवन की कुंडली है। जीवन अपनी प्रतिलिपि बना सकता है और डीएनए एक एंज़ाइम – डीएनए पोलीमरेज़ – की मदद से स्वयं की प्रतिलिपि बनाता है। इस एंज़ाइम की मदद से डीएनए का कोई भी सूत्र अपना पूरक सूत्र बना सकता है।

नवाचारी विचार

बालसुब्रमण्यन और क्लेरमैन का नवाचारी विचार यह था कि सूत्र के संश्लेषण की इस प्रक्रिया की मदद से डीएनए (या आरएनए) का अनुक्रमण किया जाए। उन्होंने चतुराई से ए, टी, जी और सी क्षारों को इस तरह बदला कि हरेक एक अलग रंग में चमकता था। जब प्रतिलिपि बनती तो डीएनए की ‘रंगीन’ प्रति के मात्र रंगों के आधार पर क्षारों का पता लगाया जा सकता था। इसके लिए सूक्ष्म प्रकाशीय व इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की ज़रूरत पड़ती थी।

उनके इस ‘नई पीढ़ी के अनुक्रमण’ (NGS) की महत्वपूर्ण बात यह है कि इसकी मदद से एक बार में डीएनए की बड़ी साइज़ का अनुक्रमण किया जा सकता है – एक बार में 10 लाख से ज़्यादा क्षार जोड़ियों का अनुक्रमण संभव है। इसका मतलब है कि एक बार में सैकड़ों जीन्स और किसी-किसी जीव के पूरे जीनोम का अनुक्रमण हो सकता है। यह संभव हो पाता है एक साथ डीएनए के सैकड़ों खंडों का अनुक्रमण करके। एक लंबे डीएनए अणु को बेतरतीबी से छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है। प्रत्येक टुकड़े में चंद सैकड़ा क्षार होते हैं। इन सबका अनुक्रमण एक साथ किया जाता है। इसके बाद इन अलग-अलग अनुक्रमों को किसी पहेली के समान आपस में जोड़कर पूरी शृंखला पता की जाती है।

बालसुब्रमण्यन और क्लेरमैन की पहल पर इस टेक्नॉलॉजी ने सोलेक्सा के रूप में व्यापारिक स्वरूप हासिल कर लिया है। इस निहायत सफल स्टार्टअप को बाद में बायोटेक कंपनी इल्यूमिना ने अधिग्रहित कर लिया।

घटती लागत

इस सारे अनुक्रमण की लागत की बात करते हैं। जब ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट ने पहला लगभग पूरा जीनोम अनुक्रमित किया था, तब उसकी अनुमानित लागत 3 अरब डॉलर थी। चूंकि हमारे सारे गुणसूत्रों में कुल मिलाकर 3 अरब क्षार जोड़ियां हैं, तो यह गणना आसान है कि अनुक्रमण की लागत 1 डॉलर प्रति क्षार जोड़ी थी। वर्ष 2020 तक NGS टेक्नॉलॉजी की बदौलत आपके पूरे जीनोम के अनुक्रमण की लागत घटकर चंद हज़ार डॉलर रह गई। जब यह टेक्नॉलॉजी भारत में प्रचलित होगी तब इसकी लागत चंद हज़ार रुपए होगी!

कोरोनावायरस के जीनोम में 3 अरब नहीं बल्कि मात्र 30,000 आरएनए क्षार हैं। तब कोई अचरज की बात नहीं कि हमारे पास नए कोरोनावायरस और उसके वैरिएन्ट्स के जीनोम को लेकर जानकारी का अंबार है। यूके में स्वास्थ्य अधिकारियों ने हर सोलह पॉज़िटिव व्यक्तियों में से 1 के वायरस जीनोम का अनुक्रमण किया है। लोकप्रिय जीनोम डैटा साझेदारी साइट GSAID पर 172 देशों से 20 लाख से ज़्यादा सार्स-कोव-2 जीनोम अनुक्रम उपलब्ध हैं। दुनिया भर में कोरोनावायरस के नए-नए संस्करणों के प्रसार और उत्पत्ति की निगरानी NGS के दम पर ही संभव हुई है।

शंकर बालसुब्रमण्यन आज भी एक बढ़िया प्रयोगशाला का संचालन करते हैं, जो ऐसे उपचारात्मक अणु की डिज़ाइन पर केंद्रित है जो कई जीन्स की बेलगाम अभिव्यक्ति को नियंत्रित करके कैंसर जैसी स्थितियों में उनके द्वारा किए जाने वाले नुकसान को रोक सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मल जीवाश्म में गुबरैले की नई प्रजाति

गुबरैले हर जगह पाए जाते हैं और लगभग हर रोज़ एक नई प्रजाति का पता चलता है। अब इनकी एक प्रजाति अजीबोगरीब जगह पर मिली है: डायनासौर के मल का जीवाश्म। पूरी तरह से सुरक्षित यह गुबरैला 23 करोड़ वर्ष पूर्व पाया जाता था। इसे नाम दिया गया है ट्राएमिक्सा कोप्रोलिथिका। पहली बार कोई संपूर्ण कीट मल के जीवाश्म (कोप्रोलाइट) में पाया गया गया है।

विश्व भर के संग्रहालयों और शोध संग्रहों में कोप्रोलाइट्स बड़ी संख्या में हैं। लेकिन कुछेक वैज्ञानिकों ने ही कोप्रोलाइट्स का विश्लेषण उनमें उपस्थित पदार्थों के लिहाज़ से किया है। मान्यता यह है कि इतने छोटे कीड़ों का पाचन तंत्र से साबुत गुज़रकर मल में पहचानने योग्य रूप में मिल पाना संभव नहीं है। अब तक जीवाश्म वैज्ञानिकों को कीटों के बारे में अधिकांश जानकारी एम्बर या रेज़िन जीवाश्मों से हासिल होती थी जो बदकिस्मती से इनमें फंस जाते थे। देखा जाए ये जीवाश्म अधिक पुराने नहीं होते; ऐसा सबसे प्राचीन जीवाश्म 14 करोड़ वर्ष पुराना है।    

कोप्रोलाइट्स में कीट अवशेषों के बारे में पता लगाने के लिए उपसला युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानी मार्टिन क्वार्नस्टॉर्म और उनके सहयोगियों ने पोलैंड के उस क्षेत्र के कोप्रोलाइट्स का अध्ययन किया जिसे 23 करोड़ वर्ष पुराने ट्राएसिक काल से सम्बंधित माना जाता है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कोप्रोलाइट का एक दो सेंटीमीटर का टुकड़ा चुना जो एक बड़े कोप्रोलाइट का टुकड़ा रहा होगा। सिंक्रोट्रॉन की मदद से इस पर तीव्र एक्स-रे किरणों की बौछार की और घुमा-घुमाकर उसका 3-डी मॉडल तैयार किया। नमूने में कीट उपस्थित थे – भलीभांति संरक्षित और पूर्ण रूप में। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इन कीटों का आकार 1.4 मिलीमीटर था। सिर, एंटीना और पैर के अंश भी दिखे।

यह मल संभवत: लगभग 2.3 मीटर लंबे चोंचवाले डायनासौर साइलेसौरस ओपोलेंसिस का है। कोप्रोलाइट एक ऐसा सूक्ष्म-वातावरण प्रदान करते हैं जहां मुलायम ऊतकों सहित कार्बनिक पदार्थ संरक्षित रहते हैं। ये जीवाश्म दबकर चपटे भी नहीं होते। इस अध्ययन में शामिल नेशनल सन येट-सेन युनिवर्सिटी के कीट विज्ञानी मार्टिन फिकासे के अनुसार यह विलुप्त गुबरैला मिक्सोफैगा नामक समूह से सम्बंधित हैं जो नम इलाकों में शैवाल पर पनपता था। शोधकर्ताओं की टीम ने उदर के भागों की संख्या या एंटीना की स्थिति जैसी  विशेषताओं के आधार पर इसे आधुनिक मिक्सोफैगा समूह में रखा है जिसके चार वंश आज भी जीवित हैं। वैसे आज तक कोई ऐसा जीवाश्म नहीं मिला था कि उसके आधार पर प्रजाति, वंश और परिवार के बारे में कुछ कहा जा सके।

इन नमूनों की मदद से पुनर्निर्मित तस्वीरों और मॉडलों से गुबरैले की न केवल नई प्रजाति का पता चला है बल्कि इसके भोजन और उन जीवों के वातावरण की जानकारी भी प्राप्त हुई है जिन्होंने इस कीट का भक्षण किया था। इस जानकारी से वैज्ञानिकों को प्राचीन खाद्य संजाल और प्राचीन डायनासौर के पारिस्थितिकी तंत्र को समझने में भी मदद मिल सकती है। शुरुआती और बाद के ट्राएसिक युग के कोप्रोलाइट्स के अध्ययन से कीट विकास के बारे में भी जानकारी मिलने की उम्मीद है। वैज्ञानिकों को अभी तक इसके विलुप्ति के कारणों की कोई जानकारी नहीं मिली है जबकि इसके निकटतम सम्बंधी आज भी जीवित हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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श्रवण यंत्रों की बैटरियां और अक्षय ऊर्जा का भविष्य

आजकल श्रवण यंत्रों में उपयोग होने वाली छोटी और डिस्पोज़ेबल जिंक बैटरियों को रीचार्ज करके पॉवर ग्रिड से जोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। इनका उपयोग सौर ऊर्जा और पवन उर्जा के भंडारण के लिए किया जा सकता है।

वर्तमान में नवीकरणीय उर्जा के भंडारण के लिए मुख्य रूप से लीथियम आयन बैटरियों का उपयोग किया जाता है, लेकिन ये काफी महंगी हैं। ज़िंक बैटरियां सस्ती होती हैं और पर्यावरण के लिए कम हानिकारक भी हैं। लेकिन इन्हें लंबे समय तक बार-बार रीचार्ज नहीं किया जा सकता। इस कमी को दूर करने के प्रयास चल रहे हैं।

सौर, पवन और अन्य नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि के साथ बैटरी भंडारण की आवश्यकता भी बढ़ गई है। ऊर्जा भंडारण की दृष्टि से लीथियम-आयन बैटरियों की क्षमता काफी अधिक होती है। लेकिन लीथियम एक दुर्लभ व महंगी धातु है। इसके अलावा लीथियम-आयन बैटरियों में एक तरल ज्वलनशील इलेक्ट्रोलाइट का भी उपयोग किया जाता है। मेगावॉट-क्षमता की बैटरियों में शीतलन और अग्नि-शमन की महंगी तकनीकों का भी उपयोग करना होता है।

ज़िंक के साथ इस तरह की कोई समस्या नहीं है। यह एक गैर-विषैली,  सस्ती और प्रचुरता से उपलब्ध धातु है। हाल ही में ज़िंक आधारित रीचार्जेबल बैटरियां बाज़ार में आई हैं लेकिन उनकी भंडारण क्षमता सीमित है। वैसे एक अन्य तकनीक ज़िंक फ्लो सेल बैटरियों में भी प्रगति हुई है लेकिन उनमें अधिक जटिल वाल्व, पंप और टैंकों की आवश्यकता होगी। इसलिए शोधकर्ता ज़िंक-एयर सेल पर कार्य कर रहे हैं।        

इन बैटरियों में एक ज़िंक एनोड और  किसी सुचालक पदार्थ (जैसे रंध्रमय कार्बन) का कैथोड होता है और एक इलेक्ट्रोलाइट घोल इनके बीच भरा होता है। इलेक्ट्रोलाइट में पोटेशियम हायड्रॉक्साइड या कोई अन्य क्षार भी मिला होता है। डिस्चार्ज के दौरान, हवा में उपस्थित ऑक्सीजन कैथोड पर पानी के साथ अभिक्रिया करके हायड्रॉक्साइड आयन का उत्पादन करती हैं। ये आयन एनोड की ओर जाते हैं जहां ज़िंक से अभिक्रिया करके ज़िंक ऑक्साइड का निर्माण करते हैं। इस अभिक्रिया में उत्पन्न इलेक्ट्रॉन एक बाहरी सर्किट के माध्यम से एनोड से कैथोड की ओर प्रवाहित होते हैं। रीचार्जिंग का मतलब होता है करंट के प्रवाह को उलट देना ताकि एनोड पर ज़िंक धातु पुन: बन सके।

एक समस्या यह है कि ज़िंक बैटरियां इस विपरीत दिशा में ठीक से काम नहीं करती हैं। एनोड की सतह पर अनियमितताओं के कारण कुछ स्थानों पर विद्युत क्षेत्र अधिक हो जाता है जिसके चलते उन स्थानों पर ज़िंक अधिक मात्रा में जमा होने लगता है। बार-बार ऐसा हो तो वहां उभार बन जाते हैं जो बैटरी को शॉर्ट कर देते हैं। दूसरी समस्या यह है कि इलेक्ट्रोलाइट में उपस्थित पानी एनोड से अभिक्रिया करके ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस उत्पन्न करता है जिससे सेल के फटने की आशंका रहती है।

शोधकर्ता इन समस्याओं पर काफी गंभीरता से काम कर रहे हैं। वर्ष 2017 में कुछ शोधकर्ताओं ने ज़िंक एनोड इस तरह तैयार किया कि उस पर छोटे-छोटे खाली स्थान थे। सतह का क्षेत्रफल बढ़ जाने से स्थानीय विद्युत क्षेत्र कम हो गए जिससे उभार बनने की संभावना कम हो गई और पानी के अणुओं के विघटन की आशंका भी।

इसी प्रकार से, मैरीलैंड वि·ाविद्यालय के चुनशेंग वांग की टीम ने इलेक्ट्रोलाइट में फ्लोरीन युक्त लवण मिलाया है। यह ज़िंक से अभिक्रिया करके एनोड के चारों ओर ठोस ज़िंक फ्लोराइड का आवरण बना देता है। चार्जिंग-डिस्चार्जिंग के दौरान आयन तो इसमें से गुज़र जाते हैं लेकिन उभारों में वृद्धि रुक जाती है और पानी के अणु एनोड तक पहुंच नहीं पाते। वांग के अनुसार ऐसा करने से यह उपकरण काफी धीरे-धीरे डिस्चार्ज होता है। अभिक्रिया को तेज़ करने के लिए टीम कैथोड पर उत्प्रेरक जोड़ने का प्रयास कर रही है।

इसी तरह की एक रणनीति हैनयैंग युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भी अपनाई है। उन्होंने कॉपर, फॉस्फोरस और सल्फर के मिश्रण से एक तंतुमय कैथोड बनाया है जो उत्प्रेरक का भी काम करता है और पानी के साथ ऑक्सीजन की अभिक्रिया को भी तेज़ करता है। इन प्रयासों से ऐसी बैटरियों का निर्माण किया जा सकता है जिनको काफी तेज़ी से चार्ज-डिस्चार्ज किया जा सकता है और उनकी क्षमता 460 वॉट-घंटे प्रति किलोग्राम तक हो सकती है। ये बैटरियां चार्ज और डिस्चार्ज के हज़ारों चक्रों के बाद भी स्थिर रहेंगी।

इन प्रयासों से ऐसी उम्मीद है कि जल्द ही ज़िंक-एयर बैटरियां लीथियम की जगह लेने वाली हैं। कच्चा माल सस्ता होने की वजह से ग्रिड-पैमाने की ज़िंक-एयर बैटरियों की लागत लगभग 7000 रुपए प्रति किलोवॉट घंटा होगी जो आज के समय की सबसे सस्ती लीथियम-आयन बैटरियों के आधे से भी कम है। हालांकि, इस क्षेत्र में काफी काम करने की आवश्यकता है और शोधकर्ताओं को छोटे आकार की बैटरियों के उत्पादन से आगे बढ़ते हुए बड़े आकार की प्रणालियां विकसित करना होगा। ज़ाहिर है, इसमें कई वर्षों का समय लगेगा। (स्रोत फीचर्स)

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डेल्टा संस्करण और महामारी का नया दौर

कोरोनावायरस का डेल्टा संस्करण सबसे पहले दिसंबर 2020 में महाराष्ट्र में देखे जाने के बाद कुछ ही महीनों में दिल्ली में इसके विनाशकारी परिणाम देखने को मिले और अप्रैल के अंत तक इसके प्रतिदिन लगभग 30,000 मामले दर्ज हुए। इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के प्रमुख अनुराग अग्रवाल के अनुसार यह संस्करण काफी प्रभावी रहा जिसने अल्फा संस्करण को बाहर कर दिया है।

वैसे दिल्ली में अधिकांश लोगों के पहले से संक्रमित होने या टीकाकरण हो जाने के चलते बड़े प्रकोप की संभावना नहीं थी लेकिन डेल्टा संस्करण की अधिक संक्रामकता और प्रतिरक्षा से बच निकलने की क्षमता के कारण ये सुरक्षा अप्रभावी प्रतीत हुई। यह संस्करण दिल्ली से निकलकर अन्य देशों में भी काफी तेज़ी से फैल गया और एक नई लहर के जोखिम को बढ़ा दिया।

यूके में 90 प्रतिशत मामलों में डेल्टा संस्करण पाया गया है। इस कारण एक बार फिर कोविड-19 के मामलों में वृद्धि हुई है जिसके चलते विभिन्न देशों में सुरक्षा के उपाय बढ़ा दिए गए। यह चेतावनी दी गई है कि अगस्त के अंत तक युरोपीय यूनियन के कुल मामलों में 90 प्रतिशत डेल्टा संस्करण के होंगे। इसे ‘चिंताजनक संस्करण’ की श्रेणी में रखा गया है।

संभावना है कि गर्मियों के मौसम में यह अत्यधिक फैलेगा और विशेष रूप से उन युवाओं को लक्षित करेगा जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है। ऐसे हालात में गैर-टीकाकृत लोगों के लिए यह जानलेवा भी हो सकता है। ऐसे में इसके प्रभाव, उत्परिवर्तन के पैटर्न जैसे पहलुओं को समझना आवश्यक है।

इसमें सबसे पहले बात आती है टीकों की। इंग्लैंड और स्कॉटलैंड से प्राप्त डैटा से संकेत मिलते हैं कि फाइज़र-बायोएनटेक और एस्ट्राज़ेनेका टीके अल्फा संस्करण की तुलना में इस नए संस्करण के प्रति थोड़ी कम सुरक्षा प्रदान करते हैं। लेकिन कोविड-19 के बारे में बहुत कम जानकारी के कारण वि·ा भर में उपयोग किए जाने वाले अन्य टीकों द्वारा सुरक्षा प्रदान करने के संदर्भ में कोई स्पष्टता नहीं है।    

डेल्टा संस्करण के संदर्भ में दो बातों, अधिक संक्रामकता और प्रतिरक्षा को चकमा देने, को महत्वपूर्ण माना जा रहा है। माना जा रहा है कि डेल्टा संस्करण मूल संस्करण के मुकाबले दुगनी रफ्तार से फैल सकता है।                              

इसके साथ ही, अल्फा संस्करण की तुलना में डेल्टा संस्करण से बिना टीकाकृत लोगों के अस्पताल में पहुंचने की संभावना ज़्यादा है। अस्पताल में भर्ती होने का जोखिम दुगना तक हो सकता है।

वैज्ञानिक डेल्टा संस्करण की घातकता को समझने का प्रयास कर रहे हैं। वे वायरस की सतह के स्पाइक प्रोटीन (जो वायरस को मानव कोशिका से जुड़ने में मदद करता है) के जीन में नौ उत्परिवर्तनों के सेट पर अध्ययन कर रहे हैं। ऐसा एक उत्परिवर्तन P681R है जो ऐसे स्थान पर एमिनो एसिड में बदलाव करता है जो वायरस के कोशिका-प्रवेश की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण चरण है। अल्फा संस्करण के उत्परिवर्तन ने इसे अधिक कुशल बनाया था जबकि डेल्टा संस्करण में यह और सुगम हो गया है। यानी ये परिवर्तन वायरस को अधिक संक्रामक बनाते हैं।   

वैसे जापानी शोधकर्ताओं द्वारा प्रयोगशाला में बनाए गए कूट-वायरस में किए गए ऐसे ही उत्परिवर्तनों से संक्रामकता में कोई वृद्धि नहीं हुई। भारत में भी समान उत्परिवर्तनों वाले अन्य कोरोनावायरस डेल्टा जैसे सफल साबित नहीं हुए। लगता है कि इसके जीनोम में कुछ अन्य परिवर्तन भी हो रहे हैं। 

कुछ वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि डेल्टा संस्करण प्रतिरक्षा को चकमा कैसे देता है। सेल में प्रकाशित एक पेपर में एक स्पॉट को ‘सुपरसाइट’ के रूप में पहचाना गया है। बीमारी से स्वस्थ हो चुके लोगों में अति-प्रबल एंटीबॉडी इसी सुपरसाइट को लक्षित करती हैं। डेल्टा के विशिष्ट उत्परिवर्तनों के चलते एंटीबॉडी को वायरस से जुड़ने के लिए सीधा रास्ता समाप्त हो जाता है।  कई एक अन्य उत्परिवर्तन भी एंटीबॉडीज़ को चकमा देने में मदद करते हैं। इसे समझने के लिए डेल्टा संस्करण के स्पाइक प्रोटीन में परिवर्तनों की और गहराई से जांच करना होगी।

वैज्ञानिकों का मत है कि नए संस्करण को तेज़ी से फैलने से रोकने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम ज़रूरी हैं। टीकाकरण के प्रयासों में तेज़ी लाने की आवश्यकता है, विशेष रूप से ऐसे क्षेत्रों में जहां डेल्टा संस्करण के मामलों में तेज़ी से वृद्धि हो रही है। इसके साथ ही कोविड-19 से बचने के लिए आवश्यक सावधानियां जारी रखना भी ज़रूरी है।

ऐसे प्रयासों से जानें तो बचेंगी ही बल्कि वायरस को और अधिक विकसित होने से भी रोका जा सकेगा। उत्परिवर्तन के माध्यम से वायरस ज़्यादा संक्रामक और घातक हो सकता है, इसलिए यदि इसे फैलने का मौका मिला तो भविष्य में और ज़्यादा खतरनाक वायरस सामने आ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मुंह के कैंसर का बढ़ता संकट – भारत डोगरा

यह गहरी चिंता का विषय है कि भारत में मुंह का कैंसर तेज़ी से बढ़ रहा है। वैश्विक कैंसर वेधशाला (ग्लोबो-कैन) के अनुसार वर्ष 2012-18 के बीच ही इसके मामलों में 114 प्रतिशत की वृद्धि हुई। भारत व उसके पड़ोसी देश पाकिस्तान व बांग्लादेश अब विश्व स्तर पर मुंह के कैंसर के सबसे बड़े केंद्र माने जाते हैं। भारत में पुरुषों को होने वाले कैंसर में 11 प्रतिशत मामले मुंह के कैंसर के हैं जबकि महिलाओं को होने वाले कैंसर में मुंह के कैंसर 4 प्रतिशत से कुछ अधिक हैं। एक अध्ययन के अनुसार बांग्लादेश में प्रति वर्ष कैंसर के कुल नए मामलों में से 20 प्रतिशत मुंह के कैंसर के होते हैं। पाकिस्तान में भी ऐसी ही स्थिति है। यह गंभीर चिंता का विषय है कि दक्षिण एशिया में यह कैंसर इतना क्यों बढ़ गया है, और बढ़ रहा है।

टाटा मेमोरियल सेंटर के हाल के अध्ययन के अनुसार मुंह के कैंसर के इलाज पर वर्ष 2020 में भारत में 2386 करोड़ रुपए खर्च किए गए। इससे पता चलता है कि यह इलाज कितना महंगा पड़ रहा है। इसके ठीक होने की अधिक संभावना आरंभ में ही होती है, पर प्राय: दक्षिण एशिया में इसका निदान व इलाज बाद के चरणों में होता है। इसका कारण यह है कि अपेक्षाकृत निर्धन लोग इससे अधिक प्रभावित होते हैं।

स्पष्ट है कि बचाव पर ही अधिक ध्यान देना बेहतर है क्योंकि बचाव के उपायों को भलीभांति अपना कर मुंह के कैंसर के खतरे को काफी कम किया जा सकता है। इस रोग के बढ़ने के मुख्य कारणों की पहचान करके कमी लाने का प्रयास करना चाहिए।

इस रोग का सबसे बड़ा कारण विभिन्न रूपों में तंबाकू का उपयोग है, जैसे सिगरेट, बीड़ी, गुटखा, आदि। मुंह के कैंसर के 80 प्रतिशत मामलों में तंबाकू की कुछ न कुछ भूमिका होती है, हालांकि बहुत से मामलों में साथ में अन्य कारक भी होते हैं। भारत में तंबाकू का उपयोग (या दुरुपयोग) करने वाले 60 प्रतिशत लोग धूम्र रहित तंबाकू (पावडर या किसी सूखे रूप में) का उपयोग करते हैं। गुटखे का उपयोग बहुत तेज़ी से बढ़ा है तथा दक्षिण एशिया में मुंह के कैंसर में गुटखे की मुख्य भूमिका है।

गुटखे में तंबाकू के अलावा कई अन्य पदार्थ होते हैं। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों पर एक अदालत द्वारा केंद्रीय समिति से जांच करवाई गई थी। समिति ने इसके स्वास्थ्य गंभीर संकटों के मद्दे नज़र इस पर प्रतिबंध की संस्तुति की। कुछ राज्य सरकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रतिबंध लगाए, पर यह करोड़ों का व्यवसाय बन चुका है। अत: इसमें कठिनाई आई व बिक्री जारी रखने के रास्ते निकाल लिए गए। एक रास्ता यह था कि तंबाकू व अन्य पदार्थों को अलग-अलग पाउचों में बेचा जाए।

गुटखे में तंबाकू, प्रोसेस्ड चूना, कत्था, सुपारी, मिठास-ताज़गी-सुगंध के पदार्थ होते हैं। तीखापन बढ़ाने के लिए अनेक हानिकारक पदार्थों के होने के आरोप लगते रहे हैं। प्रतिदिन करोड़ों की संख्या में इसके पाउच इधर-उधर फेंके जाने, इसे थूकने से गंदगी व स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं। गुटखे को देर तक मुंह में रखने, चूसते रहने की आदत कई लोगों पर इतनी हावी हो जाती है कि वे दिन की शुरुआत तक इससे करते हैं।

मुंह के कैंसर के अतिरिक्त गुटखे से अनेक दर्दनाक स्थितियां व स्वास्थ्य समस्याएं भी जुड़ी हैं। जैसे ओरल सबम्यूकस फायब्राोेसिस। इस स्थिति में मुंह खोलने की क्षमता निरंतर कम होती जाती है व अंत में ऐसी स्थिति आ सकती है कि कुछ पीने के लिए मात्र एक नली ही कठिनाई से मुंह में डाली जा सकती है।

तंबाकू के अतिरिक्त मुंह के कैंसर की एक बड़ी वजह शराब का सेवन है। बहुत लंबे समय तक धूप में रहना भी होंठ के कैंसर का कारण बन सकता है। मुख की स्वच्छता की कमी भी कैंसर का कारण बन सकती है, विशेषकर उन वृद्धों में जो लगभग 15 वर्ष से बत्तीसी उपयोग कर रहे हैं। पांचवा कारण एच.पी.वी.-16 (एक यौन संचारित वायरस) है। अंतिम कारण है सब्ज़ी व फल कम खाना तथा जंक फूड अधिक मात्रा में खाना।

इन सभी कारकों को कम करने के प्रयासों से मुख कैंसर में कमी आएगी। अलबत्ता, सबसे अधिक भूमिका तंबाकू, गुटखे व शराब को कम करने की है। यह ऐसी राह है जिससे अनेक अन्य समस्याएं भी कम होंगी। अत: इस बचाव की राह को जन अभियान का रूप देते हुए मुख कैंसर में कमी लाने की ओर बढ़ना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन मानव और आधुनिक मानव साथ-साथ रहे थे

एक दशक पहले साइबेरिया की डेनिसोवा गुफा में मानव विज्ञानियों को एक मानव (अब विलुप्त, उस समय अज्ञात प्रजाति) का जीवाश्म मिला था। यह उसकी सबसे छोटी उंगली की हड्डी का था। जहां यह जीवाश्म मिला था उस जगह के नाम पर इन्हें ‘डेनिसोवन’ नाम दिया गया। अब, इस गुफा की मिट्टी से प्राप्त डीएनए के विश्लेषण से पता चलता है कि इस गुफा ने आधुनिक मनुष्यों की भी मेज़बानी की थी, और संभवत: इस गुफा में कुछ समय के लिए आधुनिक मनुष्य, डेनिसोवन्स और निएंडरथल साथ-साथ रहे थे।

यह तो पहले से पता था कि डेनिसोवा गुफा में निएंडरथल और डेनिसोवन्स सहित मनुष्य कम से कम तीन लाख साल तक रहे थे। खुदाई में मिले आठ जीवाश्मों में एक छोटी उंगली की हड्डी का जीवाश्म, तीन निएंडरथल मनुष्यों की हड्डियों के जीवाश्म, और एक ऐसे बच्चे का जीवाश्म था जिसकी माता निएंडरथल व पिता डेनिसोवन था। गुफा के अपेक्षाकृत बाद के प्रस्तरों में पत्थर के परिष्कृत औज़ार और थोड़े आधुनिक समय के आभूषण भी थे। लेकिन यहां आधुनिक मनुष्य का कोई जीवाश्म नहीं मिला था। खुदाई में मिली वस्तुओं और हड्डियों से प्राप्त डीएनए का विस्तृत अध्ययन, और पूर्व में मिट्टी से प्राप्त डीएनए के अध्ययन ने मानव विकास को समझने में इस गुफा का महत्व और भी पुख्ता किया है।

लेकिन इसे समझने के लिए सिर्फ आठ जीवाश्म का अध्ययन काफी नहीं था। इसलिए मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर इवॉल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी की इलेना ज़वाला और उनके साथियों ने तीन कक्ष वाली इस गुफा की मिट्टी में डीएनए की पड़ताल की। वैसे तो 40 से अधिक वर्षों से मिट्टी से डीएनए हासिल कर अध्ययन किया जा रहा है लेकिन विगत चार साल में ही प्राचीन समय की मिट्टी से विलुप्त मनुष्यों के डीएनए हासिल किए जा सके हैं।

गुफा से प्राप्त विभिन्न काल की मिट्टी के 728 नमूनों का अनुक्रमण करने पर 175 में मानव डीएनए मिले। नेचर पत्रिका में प्रकाशित विश्लेषण के अनुसार विभिन्न समयों पर गुफा में विभिन्न मानव समूह आए और गए। गुफा में सबसे पहले (लगभग तीन लाख साल पहले) डेनिसोवन मनुष्य आए थे, जो आज से लगभग 1,30,000 साल पहले गुफा से चले गए थे। इसके लगभग 30,000 साल बाद डेनिसोवन्स का एक भिन्न समूह गुफा में आया जिन्होंने पत्थर के औज़ार बनाए। निएंडरथल मानव लगभग 1,70,000 साल पहले इस गुफा में आए, और इसके बाद विभिन्न कालखंड में इनके विभिन्न समूह इस गुफा रहे। निएंडरथल किसी समय पर डेनिसोवन्स के साथ रहे होंगे।

सबसे अंत में, लगभग 45,000 साल पहले, आधुनिक मनुष्य इस गुफा में आए। कुछ प्रस्तर ऐसे भी हैं जिनकी मिट्टी में तीनों समूहों के डीएनए के नमूने मिले हैं। लेकिन यह प्रस्तर इतने बड़े कालखंड का है कि पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि तीनों मानव समूह किसी समय में साथ रहे थे या नहीं। बाद के समय की मिट्टी में मिले आभूषण और परिष्कृत वस्तुएं देख कर शोधकर्ताओं का विचार तो था कि वहां आधुनिक मनुष्य रहा करते थे। लेकिन यह अंदाज़ा नहीं था वे 45,000 साल पहले ही वहां पहुंच गए थे।

बहरहाल, यह अध्ययन जीवाश्म और मिट्टी के नमूनों, दोनों के जीनोमिक डैटा का समन्वय है जो वास्तव में नई दिशा देता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पौधे और कीट के बीच जीन का स्थानांतरण

सेल पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में एक पौधे और कीट के बीच जीन हस्तांतरण का मामला रिपोर्ट हुआ है। मामला यह है कि एक सफेद मक्खी (व्हाइटफ्लाई, बेमिसिया टेबेकी) जिन पौधों से पोषण लेती है, उनमें से एक पौधे से एक जीन सफेद मक्खी में स्थानांतरित हुआ है। यह जीन (BtPMaT1) कीट को फिनॉलिक ग्लायकोसाइड समूह के रसायनों से सुरक्षा प्रदान करता है। कई पौधे कीटों के हमले से स्वयं की रक्षा के लिए ये रसायन बनाते हैं। यह जीन मिल जाने के बाद यह मक्खी इस पौधे को बगैर किसी नुकसान के खा सकती है।

अलग-अलग प्रजातियों के बीच आपस में लैंगिक प्रजनन के बिना जीन्स का लेन-देन क्षैतिज जीन स्थानांतरण कहलाता है। क्षैतिज जीन स्थानांतरण पूर्व में एक-कोशिकीय जीवों, तथा कवक व गुबरैलों जैसे कुछ बहुकोशिकीय जीवों में भी देखा गया था। यह कई तरीकों से हो सकता है। एक तो आनुवंशिक सामग्री किसी वायरस के माध्यम से एक से दूसरे जीव में स्थानांतरित हो सकती है, वहीं कुछ जीव पर्यावरण में मुक्त पड़े डीएनए भी ग्रहण कर सकते हैं।

सफेद मक्खियां पौधों में बीमारियां फैलाती हैं और फसलों को तबाह भी कर डालती हैं। इसलिए चाइनीज़ एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज़ के यूजुन झैंग और उनके साथी यह समझना चाह रहे थे कि पौधों द्वारा अपने बचाव में रुाावित रसायनों से सफेद मक्खियां कैसे बच निकलती हैं।

यह जानने के लिए शोधकर्ता सफेद मक्खी के जीनोम में उस जीन की तलाश कर रहे थे जो उसे पौधों द्वारा छोड़े गए कीटनाशक के खिलाफ लड़ने में मदद करता है। सफेद मक्खियों के जीनोम की तुलना उन्होंने उन अन्य कीटों के जीनोम से की जो इन पौधों के विषाक्त रसायनों को झेल नहीं पाते थे और मर जाते थे। उन्हें BtPMaT1 नामक जीन मिला जो इसी कीट में है और एक ऐसा प्रोटीन बनाता है जो फिनॉलिक ग्लायकोसाइड को बेअसर कर देता है।

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नॉलॉजी इंफॉर्मेशन डैटाबेस का उपयोग कर इस जीन के विकास के बारे में पता किया। उन्हें किसी भी अन्य कीट में यह जीन या इसके समान कोई अन्य जीन नहीं मिला। इसका मतलब है कि सफेद मक्खी में यह जीन कहीं और से आया था।

आखिरकार, उन्हें एक ऐसा जीन मिल गया। लेकिन वह जीन किसी कीट में न होकर पौधे में था। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि साढ़े तीन करोड़ वर्ष पहले किसी वायरस ने पौधे में उस जीन का भक्षण कर लिया होगा और किसी सफेद मक्खी ने उस वायरस-संक्रमित पौधे को खा लिया होगा। वायरस ने वह जीन सफेद मक्खी के जीनोम में स्थानांतरित कर दिया होगा, जहां से वह सफेद मक्खी की पूरी आबादी में आ गया होगा। यह दर्शाता है कि अन्य जीवों से स्थानांतरित हुए जीन किसी जीव को बेहतर तरीके से जीवित रहने में मदद कर सकते हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने सफेद मक्खियों में BtPMaT1 जीन को निष्क्रिय करने की योजना बनाई। इसके लिए उन्होंने विषैले टमाटर के पौधों को जेनेटिक रूप से संशोधित कर ऐसी व्यवस्था की कि वे एक ऐसा आरएनए बनाने लगें जो BtPMaT1  को निष्क्रिय कर देता है। जब सफेद मक्खियों ने टमाटर के इन पौधों को खाया तो जीन के काम न कर पाने के कारण वे मारी गर्इं। उक्त जीन से रहित एक अन्य कीट को जब ये पौधे खिलाए गए तो उनकी मृत्यु दर अपरिवर्तित रही। इससे लगता है कि ऐसे पौधे विकसित किए जा सकते हैं जो सफेद मक्खियों के लिए हानिकारक हों लेकिन अन्य प्रजातियों को नुकसान न पहुंचाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गरीबी कम करने से ऊर्जा की मांग में कमी

म समझ है कि गरीबी कम होने से ऊर्जा उपयोग में वृद्धि होगी। लेकिन हाल ही में नेपाल, वियतनाम और ज़ाम्बिया में किए गए अध्ययन से विपरीत परिणाम सामने आए हैं, जिसमें गरीबी में कमी का सम्बंध ऊर्जा के कम उपयोग से देखा गया है।

अत्यधिक गरीबी को खत्म करने की वर्तमान रणनीतियां इस सोच पर टिकी हैं कि इसके लिए आर्थिक विकास ज़रूरी है। तभी तो परिवारों और सरकार की खर्च करने की क्षमता बढ़ेगी और हम अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन कर पाएंगे। इस तरह गरीबी की ‘पहचान’ आय के आधार पर करने से ‘समाधान’ आर्थिक विकास के रूप में उभरता है।

हालांकि, बढ़ती असमानताओं और विश्व के अधिकांश भागों में स्वच्छता संकट के चलते आर्थिक विकास के फायदे शायद न मिल पाएं। ज़ाहिर है कि गरीबी का सम्बंध सिर्फ आय से नहीं बल्कि विभिन्न अधिकारों और सेवाओं से वंचना से है। यानी लोग इसलिए गरीब नहीं है क्योंकि उनके पास प्रतिदिन गरीबी सीमा से अधिक खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं बल्कि उनके पास स्वच्छता, शिक्षा या स्वास्थ्य प्रदान करने वाली वस्तुओं या सेवाओं तक पहुंच नहीं है। वास्तव में आय में वृद्धि के बाद भी इन सेवाओं तक पहुंच बना पाना काफी मुश्किल होता है। वर्तमान में सवा अरब लोगों को स्वच्छता और साफ पानी मयस्सर नहीं है जबकि तीन अरब लोगों के पास स्वच्छ र्इंधन भी नहीं है। यह सही है कि गरीबी अभावों का निर्धारण करती है लेकिन सिर्फ आय एकमात्र कारक नहीं है।

इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ लीड्स में स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरनमेंट की शोधकर्ता मार्टा बाल्ट्रुज़ेविक्ज़ और उनके सहयोगियों ने बहुआयामी गरीबी के अन्य कारणों को समझने और कम संसाधनों से इसका समाधान करने पर अध्ययन किया। इसमें मुख्य रूप से दो सवालों पर अध्ययन किया: अच्छे जीवन के लिए क्या चाहिए, और इसमें कितनी ऊर्जा खर्च होती है? शोधकर्ताओं ने यह पता लगाने का भी प्रयास किया है कि इन संसाधनों का किस प्रकार उपयोग किया जाता है, किसके द्वारा किया जाता है, किस उद्देश्य से किया जाता है और इससे गरीबी पर किस प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। इसके साथ ही साफ पानी, भोजन, बुनियादी शिक्षा और आधुनिक ईंधन तक पहुंच से सम्बंधित अभावों का भी अध्ययन किया गया है। अध्ययन में खर्च और जीवन स्तर के आंकड़े राष्ट्रीय पारिवारिक सर्वेक्षणों से और ऊर्जा खपत की जानकारी इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी द्वारा जारी किए गए आकड़ों से ली गई। इनकी मदद से वे यह देख पाए कि कोई परिवार बिजली, ईंधन, यातायात के लिए पेट्रोल तथा सेवाओं और सामान वगैरह के रूप में कितनी ऊर्जा का उपयोग करता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन घरों में स्वच्छ ईंधन, सुरक्षित पानी, बुनियादी शिक्षा और पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध है, यानी जो लोग अत्यधिक गरीब की श्रेणी में नहीं आते हैं, वे देश के राष्ट्रीय औसत से सिर्फ आधी ऊर्जा का उपयोग करते हैं। यह निष्कर्ष इस तर्क के एकदम विपरीत है कि अत्यधिक गरीबी से बचने के लिए अधिक संसाधनों और ऊर्जा की ज़रूरत है। ऊर्जा खपत में कमी का सबसे बड़ा कारण खाना बनाने के लिए लकड़ी, कोयला या चारकोल जैसे पारंपरिक ईंधन से हटकर अधिक कुशल और कम प्रदूषण करने वाले र्इंधनों (बिजली या गैस) का उपयोग करना है।

देखा जाए तो ज़ाम्बिया, नेपाल और वियतनाम में आमदनी और सामान्य खर्च और मनोरंजन पर किए जाने वाले खर्चों की अपेक्षा आधुनिक ऊर्जा संसाधनों का वितरण बहुत असमान है। इसके परिणामस्वरूप, अमीर परिवारों की तुलना में गरीब परिवारों को अधिक मलिन ऊर्जा का उपयोग करना पड़ता है जिसके स्वास्थ्य तथा जेंडर सम्बंधी कुप्रभाव होते हैं। अकुशल ईंधन के उपयोग से खाना पकाने में बहुत अधिक ऊर्जा की खपत भी होती है।

ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या उच्च आय और अधिक ऊर्जा उपकरणों के उपयोग करने वाले परिवारों के पास गरीबी से बचने की बेहतर संभावना होती है? कुछ परिवारों के लिए यह सही हो सकता है लेकिन उच्च आय या फिर मोबाइल फोन होना न तो बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की शर्त हैं और न ही इसकी गारंटी। बिजली और स्वच्छता तक पहुंच के अभाव में कई अपेक्षाकृत सम्पन्न परिवार भी बच्चों के कुपोषण या कोयले के उपयोग से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं से बच नहीं पाते। यह विडंबना है कि अधिकांश परिवारों के लिए स्वच्छ र्इंधन की तुलना में मोबाइल फोन प्राप्त करना ज़्यादा आसान है। ऐसे में घरेलू आय के माध्यम से विकास को मापने से गरीबी और उसके अभावों की अधूरी समझ ही प्राप्त हो सकती है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि वे यह नहीं कह रहे हैं कि गरीब देशों में विकास के लिए अधिक ऊर्जा का उपयोग न किया जाए। उनका कहना है कि कुल ऊर्जा खपत की बजाय गरीबी से निजात पाने के लिए सामूहिक सेवाओं पर अधिक निवेश किया जाए।

इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि गरीब देशों के पास इन सेवाओं में निवेश करने की इतनी कम क्षमता क्यों है। वास्तव में गरीबी होती नहीं, बल्कि निर्मित की जाती है – संरचनात्मक समायोजन या राष्ट्रीय ऋण पर ऊंचे ब्याज जैसी धन निष्कर्षण की सम्बंधित प्रणालियों के माध्यम से।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से अमीर अल्पसंख्यक वर्ग ज़िम्मेदार है जो अधिक ऊर्जा का उपयोग करता है, लेकिन दुर्भाग्य से इसके परिणाम गरीब बहुसंख्यक वर्ग के लोगों को वहन करना पड़ते हैं। इस नज़रिए से देखें तो मानव विकास न सिर्फ आर्थिक न्याय का बल्कि जलवायु न्याय का भी मुद्दा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में अंधत्व की समस्या – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व आबादी के बुढ़ाने की दर में तेज़ी से बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप वर्ष 2019 में विश्व की लगभग 9.1 प्रतिशत आबादी (70.3 करोड़ लोग) 65 वर्ष या उससे अधिक उम्र की थी। और अनुमान है कि वर्ष 2050 तक यह संख्या बढ़कर डेढ़ अरब (आबादी का 15.3 प्रतिशत) हो जाएगी। जैसे-जैसे आबादी की औसत उम्र बढ़ रही है, दृष्टि सम्बंधी विकारों का दबाव भी बढ़ रहा है। इन विकारों को टाला जा सकता है यदि अंधेपन या मध्यम से लेकर गंभीर दृष्टि दोष के कुछ आम कारण – जैसे मोतियाबिंद, निकट या दूर दृष्टि दोष, ग्लूकोमा (कांचबिंदु) और मधुमेहजनित रेटिनोपैथी – को प्रारंभिक अवस्था में पहचानने और उपचार करने का तंत्र मौजूद हो। नेत्र रोगों से बचाव और उन्हें बहाल करने के लिए उपचार मुहैया कराना बहुत ही नेक कार्य होगा। वास्तव में, विश्व के कई देश इस दिशा में जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं, वे बड़ी मुस्तैदी के साथ दृष्टि को बहाल करने में जुटे हैं। हम कल्पना कर सकते हैं कि यह कितना बड़ा कार्य है।

फरवरी 2021 में लैंसेट में नेत्र रोग के वैश्विक बोझ पर प्रकाशित एक बड़े अध्ययन में पिछले 30 सालों के आंकड़े बताते हैं कि भले ही इस दौरान अंधेपन की समस्या को कम करने के प्रयासों में काफी प्रगति हुई है, लेकिन अब भी इस दिशा में काफी काम करने की ज़रूरत है। लक्ष्य अभी दूर है, और अलग-अलग देशों की स्थिति में काफी भिन्नता है।

वर्तमान में पूरे विश्व में 50 वर्ष से अधिक उम्र के 1.5 करोड़ से अधिक लोग मोतियाबिंद से ग्रसित हैं। इसके अलावा लगभग साढ़े आठ करोड़ लोग लेंस सम्बंधी विकारों से पीड़ित हैं, जिनका उपचार उचित चश्मा पहनाकर किया जा सकता है। यह आवश्यक है कि अधिक से अधिक देश अपने क्षेत्र में इन समस्याओं को दूर करने के प्रयास करें ताकि अनावश्यक ही अंधेपन का शिकार हो रहे लोगों की संख्या में कमी आए और अधिक से अधिक लोग 20-20 दृष्टि का आनंद ले सकें।

प्रायद्वीपीय भारत (जिसमें कर्नाटक, महाराष्ट्र का पूर्वी हिस्सा, तेलंगाना, तमिलनाडु, पुडुचेरी, आंध्र प्रदेश और ओडिशा आते हैं) की आबादी लगभग 36 करोड़ है। इनमें से लगभग 13 लाख लोग नेत्रहीन हैं, और 76 लाख लोग इलाज-योग्य नेत्र समस्याओं, जैसे मोतियाबिंद और कमज़ोर नज़र, से पीड़ित हैं। यदि हम विभिन्न तरीकों से (या स्तरों पर) उपचार मुहैया करवाकर अनावश्यक अंधापन कम करने के लिए एक कारगर प्रणाली स्थापित कर पाएं तो यह अंधेपन के भार को कम करने की दिशा में बड़ी प्रगति होगी।

दरअसल, प्रायद्वीपीय भारत में तीन उल्लेखनीय केंद्र हैं – मदुरै स्थित अरविंद आई केयर सिस्टम, चेन्नई (और बैंगलुरु) स्थित शंकर नेत्रालय और हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद नेत्र संस्थान। पहले दो केंद्र शहर और उसके उपनगरों में नेत्रहीन लोगों का उपचार (देखभाल) करते हैं, और अरविंद आई केयर सिस्टम तमिलनाडु के कई ज़िलों में चलित सुविधाओं के माध्यम से देखभाल और ज़रूरतमंदों के लिए मुफ्त इलाज मुहैया कराता है। इसी तरह शंकर नेत्रालय भी चेन्नई व उसके उपनगरों में और बैंगलुरू व उसके उपनगरों में चलित सुविधा के माध्यम से उपचार और ज़रूरतमंद गरीबों को मुफ्त उपचार देता हैं। एल. वी. प्रसाद नेत्र संस्थान ने समूचे तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा राज्यों (और महाराष्ट्र के नांदेड़) के लिए ग्रामीण नेत्र स्वास्थ्य पिरामिड प्रणाली (स्तरित प्रणाली) स्थापित की है। इस पिरामिड में सबसे निचले स्तर पर 208 से अधिक ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण ‘दृष्टि केंद्र’ स्थापित किए गए हैं। इनमें से प्रत्येक केंद्र लगभग 500-500 स्थानीय लोगों की मुफ्त नेत्र देखभाल कर रहे हैं। जैसे चश्मा उपलब्ध करवाकर, मोतियाबिंद उपचार के लिए नज़दीकी रोग विशेषज्ञ से उपचार कराने की सलाह देकर वगैरह। समुदायों से संपर्क की महत्वपूर्ण कड़ी ‘दृष्टि रक्षकों’ की एक बड़ी फौज है। इन्हें अपने क्षेत्रों में लोगों के साथ जुड़ने और उनके साथ नेत्र स्वास्थ्य और देखभाल पर बात करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है।

पिरामिड के दूसरे स्तर पर, 21 ग्रामीण नेत्र देखभाल चिकित्सालय खोले गए हैं जो ज़िला स्तर पर लोगों की देखभाल या उपचार करते हैं। तीसरे स्तर पर तीन केंद्र स्थापित किए गए हैं (हरेक की अपनी शाखाएं हैं)। ये केंद्र इलाज के नियमित कार्यों के अलावा नेत्र विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान भी करते हैं। और पिरामिड के शीर्ष पर हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद नेत्र संस्थान है जो विभिन्न स्तरों पर किए जा रहे कार्यों पर लगातार (चौबीसों घंटे) निगरानी रखता है, और ज़रूरत पड़ने पर उनमें सुधार करता है।

सबसे अधिक सराहनीय यह है स्थानीय व्यापारी और अन्य सभी स्तरों पर मौजूद सेवाभावी लोग ग्रामीण नेत्र स्वास्थ्य पिरामिड के कार्यों में मदद के लिए तत्पर हैं – ग्रामीण स्तर (पिरामिड के सबसे निचले स्तर) पर लगभग 1000 लोग और ज़िला स्तर के द्वितीयक केंद्रों पर लगभग दर्जन भर लोग कार्य कर रहे हैं। ये स्थानीय स्तर के गेट्स या टाटा फाउंडेशन हैं, हम उनके इस परोपकार के तहेदिल से आभारी हैं।

भारत के अन्य नेत्र विज्ञान केंद्रों की क्या स्थिति है? मुंबई स्थित आदित्य ज्योत केंद्र मुंबई, खास कर धारावी (जहां दो वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में एक लाख लोग रहते हैं) में सेवा देता है। प्रोजेक्ट प्रकाश दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, अहमदाबाद, हरियाणा और अन्य जगहों पर कार्य कर रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे पिरामिड मॉडल का विश्लेषण कर रहे हैं, उसे बेहतर बना रहे हैं। और स्थानीय भौगोलिक व जनांकिक स्थितियों के आधार पर इसमें बदलाव कर इसे लागू करेंगे। हम उनका स्वागत करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मदद भी करते हैं। दरअसल, हमें समूचे भारत में अधिकाधिक पिरामिडों की ज़रूरत है ताकि देश में कोई भी अनावश्यक ही अंधा न हो; पूरा भारत 20-20 दृष्टि का आनंद ले! (स्रोत फीचर्स)

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एक नई गैंडा प्रजाति के जीवाश्म

हाल ही में उत्तर-पश्चिमी चीन के गान्सु प्रांत में पाए गए जीवाश्मों से विशाल गैंडा की एक नई प्रजाति पहचानी गई है। यह प्रजाति लगभग 2.65 करोड़ वर्ष पूर्व ओलिगोसीन युग के दौरान पाई जाती थी। नई प्रजाति (पैरासेराथेरियम लिनज़िएंज़) विलुप्त हो चुके सींगरहित गैंडा वंश से सम्बंधित है।

विशाल गैंडे को पृथ्वी के अब तक के सबसे बड़े स्तनधारियों में गिना जाता है। चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंस के प्रोफेसर टाओ डेंग और उनके सहयोगियों के अनुसार इसकी खोपड़ी और पैर अब तक ज्ञात सभी स्तनधारियों की तुलना में लंबे हैं लेकिन इसके पैर की बड़ी हड्डी बहुत विशाल नहीं है।

डेंग आगे बताते हैं कि इस जीव का आकार आर्द्र या शुष्क जलवायु वाले खुले जंगली क्षेत्रों के लिए उपयुक्त था। पूर्वी युरोप, एनाटोलिया और कॉकेशस में पाए गए कुछ अवशेषों को छोड़कर, विशाल गैंडे मुख्य रूप से एशिया में चीन, मंगोलिया, कज़ाकस्तान और पाकिस्तान के क्षेत्रों में रहते थे। गौरतलब है कि मध्य इओसीन युग से ओलिगोसीन युग के अंत तक विशाल गैंडे के सभी छह वंश चीन के उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रों में पाए जाते थे। इनमें पैरासेराथेरियम वंश के गैंडे सबसे अधिक संख्या में थे। इनकी उपस्थिति के अधिकांश प्रमाण पूर्वी और मध्य एशिया के क्षेत्रों में मिले हैं जबकि पूर्वी युरोप और पश्चिमी एशिया में इनके खंडित नमूने प्राप्त हुए हैं। केवल तिब्बती पठार के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में पैरासेराथेरियम बगटिएन्स प्रजाति के पर्याप्त और स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

गौरतलब है कि पैरासेराथेरियम लिनज़िएंज़ के जीवाश्मों में एक पूर्ण खोपड़ी, कुछ रीढ़ की हड्डियां और जबड़े की हड्डी प्राप्त हुए हैं। विश्लेषण से पता चला है कि पैरासेराथेरियम लिनज़िएंज़ अपने वंश की सबसे विकसित प्रजाति थी। 

कम्युनिकेशन्स बायोलॉजी में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ओलिगोसीन युग की शुरुआत में पैरासेराथेरियम प्रजातियां पश्चिम की ओर कज़ाकस्तान की ओर फैली जबकि इनके वंशजों का विस्तार दक्षिण एशिया में हुआ। इसके बाद ओलिगोसीन युग के आगे के दौर में पैरासेराथेरियम तिब्बती क्षेत्र को पार करते हुए उत्तर की ओर लौटे और पश्चिम में कज़ाकस्तान में पूर्व में लिंज़िया घाटी की ओर उभरे। गौरतलब है कि ओलिगोसीन युग के आखरी दौर की उष्णकटिबंधीय परिस्थितियों ने विशालकाय गैंडे को मध्य एशिया की ओर आकर्षित किया जो इस बात के संकेत देता है कि उस समय तक तिब्बत का क्षेत्र ऊंचे पठार के रूप में विकसित नहीं हुआ था। अनुमान है कि ओलिगोसीन युग के दौरान, विशाल गैंडे शायद तिब्बत को पार करते हुए या टेथिस महासागर के पूर्वी तट के रास्ते मंगोलियाई पठार से दक्षिण एशिया तक फैले थे। इस विशाल गैंडे के तिब्बती क्षेत्र पार करके भारत-पाकिस्तान उपमहाद्वीप तक पहुंचने के अन्य साक्ष्य मौजूद हैं। एक बात तो साफ है कि तिब्बत का पठार उस समय तक इन बड़े स्तनधारी जीवों के विचरण में बाधा नहीं बना था। (स्रोत फीचर्स)

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