जलवायु परिवर्तन से जीवों रंग कैसे बदलेगा?

न्नीसवीं सदी में किए गए एक दावे पर अब बहस छिड़ गई है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि जानवरों के रंग-रूप में किस तरह के बदलाव लाएगी।

1800 के दशक की शुरुआत में जीव विज्ञानियों ने इस सम्बंध में कुछ नियम दिए थे कि बदलते तापमान का पारिस्थितिकी और जैव विकास पर किस तरह प्रभाव पड़ेगा। इनमें से एक नियम था कि गर्म वातावरण में जानवरों के शरीर के उपांग (जैसे कान, चोंच) बड़े होंगे, ये शरीर की ऊष्मा को बाहर निकालने में मददगार होते हैं। एक अन्य नियम के अनुसार बड़े शरीर वाले जीव आम तौर पर ध्रुवों के आसपास रहते हैं, क्योंकि बड़ा शरीर ऊष्मा के संरक्षण में मदद करता है। और साल 1833 में जर्मन जीव विज्ञानी कॉन्स्टेंटिन ग्लोगर ने बताया था कि गर्म इलाकों में रहने वाले जीवों का बाहरी आवरण आम तौर पर गहरे रंग का होता है, जबकि ठंडे इलाकों में रहने वाले जीवों का बाहरी आवरण हल्के रंग का। स्तनधारियों में गहरे रंग की त्वचा और बाल हानिकारक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा देते हैं, इसलिए सूर्य के प्रकाश से भरपूर इलाकों में गहरा रंग फायदेमंद होता है। पक्षियों में भी गहरे रंग के पंखों में मौजूद विशिष्ट मेलेनिन रंजक बैक्टीरियल संक्रमण से सुरक्षा देते हैं।

जुलाई में, चाइना युनिवर्सिटी ऑफ जियोसाइंसेज़ के ली तियान और युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के माइकल बेंटन ने इन नियमों का उपयोग कर पूर्वानुमान लगाया कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन (तापमान में वृद्धि) जीवों के शरीर में किस तरह के बदलाव ला सकता है। इनके आधार पर उन्होंने बताया कि पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी होने पर अधिकांश जानवर गहरे रंग के हो जाएंगे।

लेकिन इस पर अन्य जीव विज्ञानियों का कहना है कि मामला इतना भर नहीं है। मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर ऑर्निथोलॉजी के पक्षी विज्ञानी कैस्पर डेल्हे पिछले कुछ वर्षों से ग्लोगर के नियम की जगह एक अधिक सटीक नियम देने की कोशिश में हैं। तियान और बेंटन के इस अध्ययन पर डेल्हे और उनके साथियों ने करंट बायलॉजी में अपनी प्रतिक्रिया दी है। इसमें वे कहते हैं कि ग्लोगर ने अपने नियम में तापमान और आर्द्रता दोनों कारकों को मिश्रित कर दिया है। आर्द्रता या नमी के बढ़ने पर पौधे हरे-भरे होते हैं, जो जीवों को शिकारियों से छिपने में मदद करते हैं। इसलिए नमी बढ़ने पर आसपास के परिवेश में घुलने-मिलने के लिए जीवों के शरीर का रंग गहरा होता है। कई गर्म स्थान वाष्प युक्त होते हैं, लेकिन तस्मानिया जैसे ठंडे वर्षा वनों में पक्षियों का रंग गहरा होगा।

डेल्हे कहते हैं यदि तापमान बढ़ने के साथ-साथ आर्द्रता नहीं बढ़ती यानी आर्द्रता नियंत्रित रहती है तो ग्लोगर के नियम के बिल्कुल उलट स्थिति बनेगी – गर्म वातावरण में जीवों का रंग हल्का होगा, खासकर ठंडे रक्त वाले जीवों का (यानी ऐसे जीव जिनके शरीर का तापमान बाह्य वातावरण पर निर्भर है)। कीट और सरीसृप गर्मी के लिए बाहरी स्रोत (सूर्य के प्रकाश) पर निर्भर होते हैं। ठंडी जगहों पर, इनकी त्वचा का रंग गहरा होता है जो उन्हें पर्याप्त मात्रा में ऊष्मा सोखने में मदद करता है। यदि जलवायु गर्म हुई तो उनके शरीर का रंग हल्का पड़ जाएगा। इसे डेल्हे ‘थर्मल मेलानिज़्म परिकल्पना’ कहते हैं।

तियान और बेंटन डेल्हे के स्पष्टीकरण को स्वीकार करते हैं। लेकिन फिर भी वे कुछ ऐसे स्थानों के उदाहरण देते हैं जहां गर्म जलवायु होने पर जीवों के रंग के बारे में की गई उनकी भविष्वाणी सही होगी। फिनलैंड में टावनी उल्लू दो तरह के रंग में पाए जाते हैं – गहरे कत्थई रंग में या सफेदी लिए हुए हल्के स्लेटी रंग में। हल्का स्लेटी रंग उल्लुओं को बर्फ की पृष्ठभूमि में छिपे रहने में मदद करता है। लेकिन फिनलैंड में हिमाच्छादन कम होने के साथ कत्थई रंग के उल्लुओं की संख्या बढ़ी है। 1960 के आसपास वहां गहरे रंग के उल्लुओं की आबादी लगभग 12 प्रतिशत थी जो 2010 में बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो गई।

शोधकर्ता यह भी मानते हैं कि यदि तापमान और आर्द्रता दोनों ही बदलती है तो जीवों में होने वाले जलवायु सम्बंधी रंग परिवर्तन को समझना थोड़ा पेचीदा होगा। मसलन, कुछ जलवायु मॉडल यह भविष्यवाणी करते हैं कि अमेज़ॉन के जंगल भविष्य में गर्म और शुष्क होते जाएंगे जिससे जीवों का रंग हल्का हो जाएगा, लेकिन साइबेरिया के बोरियल जंगल गर्म और नम होंगे तो वहां ये पूर्वानुमान ठीक नहीं बैठेंगे। बेंटन का कहना है कि भौतिकी या रसायन विज्ञान के विपरीत जीव विज्ञान में कोई भी नियम एकटम सटीक या निरपेक्ष नहीं हो सकता। यह गुरुत्वाकर्षण की तरह नहीं है, जो सभी जगह लागू होगा।

यदि किसी तरह के सामान्य रुझान दिखते भी हैं तब भी यह कहना मुश्किल ही होगा कि कोई विशिष्ट प्रजाति किसी परिवर्तन पर किस तरह प्रतिक्रिया देगी। वाशिंगटन विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी लॉरेन बकले ने अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तितली के रंग पर अध्ययन किया है। वे बताती हैं कि तितलियां धूप तापते हुए ऊष्मा सोखती हैं, लेकिन उनके पूरे पंखों की बजाए पंखों की निचली सतह पर मौजूद मात्र एक छोटे से हिस्से से ऊष्मा सोखी जाती है। इस स्थिति में तितलियों के पंखों का रंग चाहे कुछ भी रहे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ऊष्मा तो पंखों के एक छोटे हिस्से से सोखी जा रही है।

अगर हम यह नहीं जानते कि कोई जीव अपने आसपास के पर्यावरण से वास्तव में किस तरह संपर्क करता है, तो हम उसके बारे में किसी भी तरह के ठीक-ठाक अनुमान नहीं लगा पाएंगे। जीवों पर पर्यावरण के प्रभावों को समझने के लिए हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि कोई जीव अपने वातावरण के साथ किस प्रकार संपर्क करता है।

जीवों में रंग परिवर्तन जीवों की अपनी तापमान-नियंत्रक प्रणाली पर भी निर्भर करता है। आम तौर पर असमतापी जीवों का रंग हल्का होता जा रहा है, और पक्षियों और स्तनधारियों में विभिन्न तरह के प्रभाव दिखाई दिए हैं। बकले सुझाव देती हैं कि अपने अनुमानों को बेहतर करने के लिए हम संग्रहालय में रखे नमूनों का उपयोग कर सकते हैं क्योंकि ये लंबी अवधि में आए परिवर्तनों का अंदाज़ा दे सकते हैं। हालांकि समय के साथ इनके रंग बदलने की भी संभावना है। शोधकर्ताओं की अब भृंग और घोंघों को गर्म टैंकों में रखकर रंग परिवर्तन सम्बंधी अध्ययन करने की योजना है।

लेकिन जिस तेज़ी से पृथ्वी गर्म होती जा रही है उससे वैज्ञानिकों के पास जल्द ही इस विषय पर व्यापक डैटा उपलब्ध होगा। और यदि जीवों के प्राकृतिक आवास ही नष्ट हो गए और प्रजातियां विलुप्त हो गईं तो जीवों के बदलते स्वरूपों पर लगाए गए हमारे सारे पूर्वानुमान धरे के धरे रहे जाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0108NID_Tawny_Owl_online.jpg?itok=jYCr7luj

राष्ट्रीय सब्ज़ी का हकदार कौन? – डॉ. किशोर पवार

पिछले दिनों देश में राष्ट्रीय तितली के चयन के लिए मतदान किया गया था, जब मैंने अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों के बारे में जानना चाहा तो पता चला कि हमारे राष्ट्रीय पेड़ बरगद, राष्ट्रीय फूल कमल और राष्ट्रीय फल आम के अलावा एक राष्ट्रीय सब्ज़ी भी है – कद्दू – तो मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा क्योंकि यह मेरी पसंदीदा सब्ज़ी है।

परंतु मेरी खुशी तब काफूर हो गई जब एक  मित्र ने बताया कि कद्दू के राष्ट्रीय सब्ज़ी होने का भारत सरकार की वेबसाइट पर कोई ज़िक्र नहीं है। वैसे नेट पर सर्च करेंगे तो आपको राष्ट्रीय सब्ज़ी के नाम पर पंपकिन अर्थात कद्दू का नाम मिल जाएगा। मुझे लगा कि जब हमारा राष्ट्रीय फल (आम) है, फूल (कमल) है, पक्षी (मोर) है, जलीय जंतु (गंगा डॉल्फिन) है और यहां तक कि हमारा एक राष्ट्रीय सूक्ष्मजीव (लैक्टोबैसिलस डेलब्रुकी, जिसे बगैर सूक्ष्मदर्शी के देखा भी नहीं जा सकता) भी है, तो राष्ट्रीय सब्ज़ी तो बनती है।

राष्ट्रीय सब्ज़ी कई देशों में घोषित है। जैसे जापान में डॉइकॉन (एक किस्म की मूली), पाकिस्तान में भिंडी, चीन में एक प्रकार का पत्ता गोभी और अमेरिका में आर्टीचोक और यूके में मटर। गौरतलब है कि मेंडल ने अपने आनुवंशिकी सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोग मटर पर ही किए थे।

तो जब इतने सारे देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रीय सब्ज़ी है तो हमारी भी एक राष्ट्रीय सब्ज़ी होनी चाहिए। मेरे ख्याल से कद्दू को राष्ट्रीय सब्ज़ी घोषित किया जाना चाहिए। वैसे इस कार्य में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑॅफ हार्टिकल्चर और कृषि अनुसंधान परिषद को आगे आना चाहिए।

देखते हैं कि कद्दू में ऐसे क्या गुण हैं जो इसे राष्ट्रीय सब्ज़ी का दर्जा दिला सकते हैं। आगे बढ़ने से पहले जरा कद्दू से जान-पहचान कर लें – यह कद्दू है क्या? कहां से आया? भारतीय संस्कृति में, लोक रिवाज़ों में, पर्व-त्योहारों में इसका क्या महत्व है?

कहां से आया कद्दू

उत्तरी अमेरिका का मूल निवासी कद्दू सबसे पुराने पालतू बनाए गए पौधों में से एक है। इसका उपयोग 7500 से 5000 ईसा पूर्व से किया जा रहा है। कुकरबिटेसी कुल का कद्दू हर मौसम की फसल है। आम तौर पर हमारे यहां कद्दू जुलाई की शुरुआत में लगाया जाता है। यह एक बड़े-बड़े पत्तों वाली कमज़ोर बेल होती है जो ज़मीन पर रेंगकर आगे बढ़ती है। कद्दू में बड़े-बड़े नर और मादा फूल अलग-अलग खिलते हैं और इनका परागण आम तौर पर मधुमक्खियों द्वारा होता है। इन परागणकर्ताओं की कमी हो तो कृत्रिम परागण करना पड़ता है। अपरागित फूलों में लगता तो है कि फल बढ़ने लगे हैं लेकिन जल्दी ही खिर जाते हैं। इस प्राकृतिक घटना से जुड़ा रामचरितमानस का एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। बालकांड में शिवजी का धनुष टूटा देख परशुराम जी क्रोध से पूछते हैं कि यह धनुष किसने तोड़ा है। तब लक्ष्मण बोले हमें ना डराओ, बार-बार फरसा ना दिखाओ। यहां कोई कुम्हड़ की बतियां (छोटा कच्चा फल) नहीं है जो तर्जनी देखकर ही मर जाएगा।

ईहां कुम्महड़ बतियां कोऊ नाहीं।
जे तर्जनी देख मरि जाहीं।

बचपन में बुज़ुर्ग कहा करते थे कि फूलों को तर्जनी उंगली मत दिखाओ, नहीं तो वह खिर जाएगी, दिखाना ही है तो उंगली मोड़ कर दिखाओ। इसके मूल में रामचरित मानस की इसी चौपाई की भूमिका लगती है।

सबसे बड़ा अंडाशय

कद्दू के विशाल आकार को लेकर कई देशों में पंपकिन फेस्टिवल मनाया जाता है जहां सबसे बड़े कद्दू उत्पादक को पुरस्कृत किया जाता है। लगभग 1 टन वजन के भी कद्दू देखे गए हैं। दुनिया के सबसे भारी कद्दू (1190.5 किलोग्राम) का रिकॉर्ड 2016 में बेल्जियम में स्थापित हुआ था।

इतने बड़े फल उगाने के लिए इसके खोखले कमज़ोर तने में बड़ी-बड़ी पत्तियों द्वारा बनाए जाने वाले भोजन को फलों तक ले जाने वाले सवंहन बंडल में दूसरे पौधों की तुलना में दुगनी मात्रा में फ्लोएम नामक ऊतक पाया जाता है।

पौष्टिक कद्दू

पोषक तत्वों से भरपूर इस सब्ज़ी को हमारे यहां 30,600 हैक्टर में उगाया जाता है और इसका उत्पादन 35 लाख टन है। उत्पादन की दृष्टि से पूरी दुनिया में चीन के बाद दूसरा नंबर भारत का ही है। इसे सभी प्रांतों में उगाया जाता है। उत्पादन के लिहाज़ से उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश क्रमश: प्रथम,द्वितीय और तृतीय स्थान पर हैं,चौथे नंबर पर छत्तीसगढ़ है।

कद्दू बहुत ही पौष्टिक सब्ज़ी है। अन्य तत्वों के अलावा, यह प्रो-विटामिन ए,बीटा कैरोटीन और विटामिन ए का बढ़िया स्रोत है। विटामिन सी मध्यम मात्रा में पाया जाता है। इसके अलावा इसमें  विटामिन ए, विटामिन के, विभिन्न विटामिन बी और कैल्शियम, लौह, मैग्नीशियम, मैंग्नीज़, फॉस्फोरस, पोटेशियम तथा जस्ता जैसे महत्वपूर्ण खनिज तत्व पाए जाते हैं।

बहु उपयोगी कद्दू

कद्दू एक बहु उपयोगी पौधा है। कद्दू का हर भाग खाने योग्य है। इसकी मांसल खोल, इसके बीज, पत्ते और यहां तक कि फूल भी खाने योग्य हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में कद्दू लोकप्रिय थैंक्सगिविंग सामग्री के रूप में जाना जाता है। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में कद्दू मक्खन, चीनी और मसालों के साथ पकाया जाता है। कद्दू का हलवा एक स्वादिष्ट मिठाई है। सांभर बनाने में भी कद्दू का उपयोग किया जाता है।

क्यों राष्ट्रीय सब्ज़ी?

यह आसानी से पहचाने जाने वाली एक बड़ी सब्ज़ी है। भारतीय संस्कृति में इसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक पकाया-खाया जाता है। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम सभी राज्यों में उपयोग किया जाता है। उत्तर भारत में मनाए जाने वाले छठ त्यौहार में पहले दिन कद्दू की सब्ज़ी और भात विशेष रूप से पकाया जाता है। भारत के विभिन्न भागों में इसकी पत्तियों और फूलों का साग और कचोरी पकौड़ा भी तैयार किया जाता है। कद्दू की सब्ज़ी भी तरह-तरह से बनाई जाती है। इसकी शेल्फ लाइफ 6 से 8 महीने तक होती है। और कोई सब्जी ऐसी नहीं है जो तोड़ने के बाद इतने लंबे समय तक बिना किसी विशेष व्यवस्था के सलामत रहे। इसमें कीड़ा भी नहीं लगता। श्राद्ध में कद्दू का भरपूर उपयोग होता है। सस्ता भी है और कद्दू को लेकर सख्त पसंद-नापसंद की बात भी नहीं है।

कद्दू के बीज 

कद्दू के बीज को पेपिटस कहते हैं, जो खाद्य एवं पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। एक-डेढ़ सेंटीमीटर लंबे, चपटे, अंडाकार, हल्के हरे रंग के होते हैं कद्दू के बीज। इन्हें भूनकर खाया जाता है और मैग्नीशियम, तांबा व जस्ता के अच्छे स्रोत हैं। इसके बीजों में सेलेनियम भी पाया गया है जो फ्री रेडिकल को रोकने में मददगार है। इसके साथ ही इस में फॉस्फोरस विटामिन ए, बी 6, सी और विटामिन के भी हैं। कद्दू के कई नाम हैं – काशीफल, कद्दू, कोहरा, कुमड़ा, कोला, ग्रामीण कुष्मांड और कदीमा।

यानी कद्दू देश के साहित्य, रीति-रिवाज़ों, त्योहारों में काम आता है। बरसात से लेकर गर्मी तक उगाया जाता है। साल भर उपलब्ध उपलब्ध रहता है। और क्या चाहिए कद्दू को राष्ट्रीय सब्ज़ी घोषित करने के लिए?(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.static-collegedunia.com/public/image/420482e81a8659b111bd45f30359c395.webp?tr=w-700,h-400,c-force

कोरोना की चुनौतियों से जूझता विज्ञान जगत – चक्रेश जैन

विदा हो चुके वर्ष 2020 में कोविड-19 की विप्लवकारी चुनौतियों से वैज्ञानिक बिरादरी में चिंता व्याप्त रही। साल के पूर्वार्द्ध में दुनिया भर की सरकारों ने वैक्सीन के अभाव में ज़ोरदार जागरूकता अभियान चलाए, जिनके परिणामस्वरूप लाखों जाने बचीं। उत्तरार्द्ध में वैज्ञानिकों को वैक्सीन बनाने में मिली सफलता से लोगों ने राहत की सांस ली।

कोविड-19 महामारी का असर आर्थिक,सामाजिक,वैज्ञानिक,शैक्षणिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर पड़ा और अधिकांश आयोजन रियल से वर्चुअल प्लेटफार्म पर शिफ्ट हो गए। विज्ञान प्रयोगशालाओं में शोध कार्यों और परियोजनाओं में रुकावट आ गई। विज्ञान सम्मेलनों, बैठकों और संगोष्ठियों की जगह वेबिनारों का दौर शुरू हो गया।

वर्ष 2020 विज्ञान जगत के इतिहास में कोरोनावायरस परिवार के सातवें सदस्य सार्स-कोव-2 की विनाशकारी सक्रियता के लिए याद रहेगा। अभी तक कोरोना वायरस परिवार में छह सदस्य (229 ई, एनएल 63, ओसी 43, एचकेयू1, सार्स-कोव और मर्स-कोव) थे।

साल अंत होते-होते ब्रिटेन में इसी वायरस का एक नया रूप (स्ट्रेन) सामने आ गया। बीते वर्ष कोविड-19 पर रिसर्च पेपर्स की बाढ़ आ गई और इसकी चुनौतियों से जूझने के लिए नवाचारों का विस्तार भी हुआ।

विज्ञान की प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस द्वारा वर्ष 2020 की टॉप टेन रिसर्च स्टोरीज़ में प्रथम स्थान कोरोनावायरस के विरुद्ध वैक्सीन की खोज और अनुसंधान कार्यों को मिला है। कोरोना परिवार का नया वायरस सार्स-कोव-2 अपने रिश्तेदारों की तुलना में कहीं अधिक संक्रामक साबित हुआ। यह वायरस चीन के वुहान प्रांत में संक्रमित लोगों के ज़रिए कई देशों में फैल गया। न्यूज़ीलैंड ने अपने देश में वायरस को नियंत्रित करके विश्व के सभी देशों को चकित कर दिया। न्यूज़ीलैंड की प्रधान मंत्री को इसके लिए नेचर ने 2020 के टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में शामिल किया है। प्रथम स्थान विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टेड्रोस एडहानोम गेब्रेयेसस को मिला है, जिन्होंने तत्परतापूर्वक इसे महामारी घोषित कर सरकारों को सचेत कर दिया।

मार्च में सबसे पहले लॉकडाउन का प्रस्ताव चीन की महामारी रोग विशेषज्ञ ली लंजुआन ने रखा था, जिसे चीन सहित कई देशों ने अपनाया। नेचर ने इस साल के दस विशिष्ट व्यक्तियों की सूची में ली लंजुआन को भी सम्मिलित किया है। इस सूची में नेचर ने चीनी वैज्ञानिक झांग योंग ज़ेन को भी स्थान दिया है जिनकी टीम ने सबसे पहले सार्स-कोव-2 का आरएनए अनुक्रम ऑनलाइन उपलब्ध कराया था।

गुज़रे साल कई देश सार्स-कोव-2 की वैक्सीन बनाने की स्पर्धा में शामिल रहे। आम तौर पर वैक्सीन विकसित करने में वर्षों लगते हैं और परीक्षण के तीन या चार चरणों से गुज़रना पड़ता है, लेकिन 11 अगस्त को ही रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पहली वैक्सीन तैयार करने की घोषणा की और पहला टीका उनकी पुत्री को लगाया गया।

इस वर्ष नीदरलैंड के कैंसर इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने मनुष्य के गले के ऊपरी हिस्से में नई लार ग्रंथियां खोजीं जिन्हें नासा-ग्रसनी (ट्यूबेरियल) लार ग्रंथियां नाम दिया गया है। इस नए अंग का पता प्रोस्टेट ग्रंथि के कैंसर पर रिसर्च के दौरान चला। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह खोज कैंसर की चिकित्सा में मददगार होगी।

इसी वर्ष इस्राइल की तेल अवीव युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने हेनेगुआ सालमिनिकोला परजीवी का पता लगाया, जिसमें माइटोकॉण्ड्रियल जीनोम नहीं मिला। यह पहला बहुकोशिकीय जीव है, जो पूरे जीवन ऑक्सीजन पर निर्भरता से मुक्त रहता है। इसे सांस लेने की आवश्यकता नहीं होती। अध्ययनों में यह भी पता चला कि इसका विकास माइटोकॉण्ड्रिया वाले जीवों की तरह हुआ था, लेकिन इसने धीरे-धीरे माइटोकॉण्ड्रिया गंवा दिया।

वैज्ञानिकों ने फास्ट रेडियो बर्स्ट (एफआरबी) का पता लगा कर बड़ी उपलब्धि हासिल की। दरअसल ये संकेत हमारी निहारिका (आकाशगंगा) के एक मैग्नेटर से आए थे। पहली बार 2007 में इन संकेतों को पकड़ा गया था, जो केवल कुछ मिलीसेकेंड तक ही दिखाई दिए थे। नेचर ने इसे टॉप टेन की सूची में सम्मिलित किया है।

वर्ष 2020 में नासा के सोफिया ने चंद्रमा की सतह पर मौजूद क्रेटर क्लेवियस में पानी के अणु की खोज की। क्लेवियस पृथ्वी से देखा जा सकने वाला गड्ढा है। यह चंद्रमा के दक्षिणी गोलार्द्ध पर स्थित है। यह खोज दर्शाती है कि पानी चन्द्रमा के सिर्फ छायादार स्थानों पर ही नहीं, कई स्थानों पर हो सकता है। अभी तक मान्यता थी कि चंद्रमा पर जल का तरल रूप नहीं है।

इस वर्ष जनवरी में विश्व के सबसे बड़े और शक्तिशाली सोलर टेलीस्कोप डेनियल के. इनोय की सहायता से असाधारण तस्वीर ली गई, जिसमें सूर्य की सतह मानव कोशिकाओं की संरचना की भांति दिख रही है। अनुसंधानकर्ताओं का दावा है कि इस तस्वीर की सहायता से आगे चलकर सूर्य की सतह के बारे में नई जानकारियां मिल सकती हैं। गैलीलियो टेलीस्कोप के बाद पृथ्वी से सूर्य के अध्ययन की दिशा में यह बहुत बड़ी छलांग है।

इसी महीने पार्कर सोलर प्रोब यान सूर्य के सबसे समीप पहुंचने वाला अंतरिक्ष यान बन गया। इसे नासा ने अगस्त 2018 में प्रक्षेपित किया था। यह सूर्य से मात्र एक करोड 87 लाख किलोमीटर की दूरी पर था। सूर्य से पृथ्वी की दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है। सोलर प्रोब सूर्य की सबसे बाहरी सतह कोरोना के बारे में नई सूचनाएं भेजेगा।

इस वर्ष 15 नवम्बर को दुनिया का पहला निजी अंतरिक्ष यान स्पेस एक्स अमेरिका के कैनेडी अंतरिक्ष केंद्र से चार अंतरिक्ष यात्रियों को लेकर रवाना हुआ और 27 घंटे के सफर के बाद अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पहुंचा। अंतरिक्ष यात्रियों में तीन अमेरिका और एक जापान का है। यह स्पेस एक्स की दूसरी मानव सहित उड़ान है। यह नासा का पहला मिशन है, जिसमें अंतरिक्ष यात्रियों को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजने के लिए किसी निजी अंतरिक्ष यान की सहायता ली गई है।

इसी साल 6 फरवरी को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री क्रिस्टीना कोच अंतरिक्ष में सबसे लंबे समय तक रहने वाली महिला का रिकॉर्ड अपने नाम कर सुरक्षित पृथ्वी पर लौट आईं। क्रिस्टीना कोच ने 328 दिन अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर गुज़ारे। उन्होंने छह बार अंतरिक्ष में चहलकदमी भी की। उन्होंने बिना किसी पुरुष सहयोगी के अंतरिक्ष में चहलकदमी करके एक नया अध्याय रचा।

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के अंतरिक्ष यान ओसीरिस एक्स ने 20 अक्टूबर को चार वर्षों की लंबी यात्रा के बाद क्षुद्र ग्रह बेनू का स्पर्श किया। यान के रोबोटिक हाथ ने क्षुद्र ग्रह के नमूने एकत्रित किए। माना जाता है कि बेनू का निर्माण सौर मंडल के उद्भव के दौरान हुआ था। इससे वैज्ञानिकों को सौर मंडल की आरंभिक अवस्था को समझने में मदद मिलेगी। साथ ही उन तत्वों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी, जिनसे पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई। अंतरिक्ष यान ओसीरिस रेक्स को सितंबर 2016 में रवाना हुआ था।

गुज़रे साल के अंत में जापान का अंतरिक्ष यान हयाबुसा-2 पहली बार किसी क्षुद्र ग्रह पर उतर कर वहां से नमूने लेकर पृथ्वी पर लौटा। हयाबुसा-2 का प्रक्षेपण 2014 में किया गया था।

दिसंबर में चीन का चंद्रयान चांग ई-5 चंद्रमा की सतह से नमूने लेकर सफलतापूर्वक पृथ्वी पर लौट आया। इस अभियान की शुरुआत 2004 में हुई थी। पिछले चार दशकों में चीन दुनिया का पहला देश है, जिसने चंद्रमा के नमूने पृथ्वी पर लाने के प्रयास किए थे। इसी महीने चीन के लांग मार्च-8 रॉकेट ने पांच उपग्रहों को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक विदाई दी।

वैज्ञानिकों ने मनुष्य में बुढ़ापे के जीन और उसे रोकने की प्रक्रिया के अनुसंधान में सफलता प्राप्त की। पत्रिका स्टेम सेल में प्रकाशित रिसर्च के अनुसार युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के डॉ. वॉन जू ली के अनुसार बुढ़ापा मेसेन्काइमल स्टेम कोशिकाओं (एमएससी) की गतिविधियों में कमी आने से होता है। नए शोध के अनुसार इसे दवाइयों और अन्य उपचारों के ज़रिए दूर किया जा सकेगा। इसके लिए कोशिकाओं की रिप्रोग्रामिंग की जाएगी।

इसी वर्ष सऊदी अरब की किंग अब्दुल्ला युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने सिंथेटिक त्वचा बना ली। इसकी विशेषता यह है कि यह अपने-आप रफू हो जाती है। इसे ई-स्किन नाम दिया गया है। सिंथेटिक त्वचा का उपयोग कृत्रिम अंगों के लिए भी किया जा सकता है।

माइकल फैराडे द्वारा बेंज़ीन की खोज के लगभग 200 वर्षों बाद रसायन विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं को इसकी जटिल इलेक्ट्रॉनिक संरचना को स्पष्ट करने में सफलता मिली। टिमथी श्मिट के नेतृत्व में वैज्ञानिक दल ने इसे सुलझाने के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग का उपयोग किया था। 1930 के दशक से ही रसायन शास्त्र के अध्येताओं के बीच बेंज़ीन की आधारभूत इलेक्ट्रॉनिक संरचना को लेकर बहस होती रही है। हाल के वर्षों में बहस का महत्व और बढ़ गया था, क्योंकि नवीकरणीय ऊर्जा और दूरसंचार तकनीक में इसकी अहम भूमिका सामने आई है।

21 दिसंबर को शनि और बृहस्पति ग्रहों का दुर्लभ मिलन हुआ। इसे खगोल विज्ञान की बड़ी और ऐतिहासिक घटनाओं में शामिल किया गया। लगभग आठ सौ वर्ष बाद दोनों ग्रह एक-दूसरे के बहुत करीब दिखे थे। दो खगोलीय पिंडों के नज़दीक दिखने को ‘कंजंक्शन’ और शनि तथा बृहस्पति के इस तरह के मिलन को ‘ग्रेट कंजंक्शन’ कहते हैं। सन् 1623 में भी शनि और बृहस्पति एक-दूसरे के पास नज़र आए थे। बृहस्पति 12 वर्ष और शनि 29 वर्ष में सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है। अब दोनों ग्रह साठ वर्ष बाद मार्च 2080 में पुन: इतने समीप दिखेंगे।

विदा हो चुके वर्ष में चीन के वैज्ञानिकों ने प्रकाश पर आधारित विश्व का पहला क्वांटम कंप्यूटर बनाने का दावा किया। यह पारंपरिक सुपर कंप्यूटर की तुलना में कई गुना तेज़ है। क्वांटम कंप्यूटर की मदद से कृत्रिम बुद्धि, चिकित्सा विज्ञान आदि क्षेत्रों में नई उपलब्धियां हासिल की जा सकेंगी।

वर्ष 2020 को राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष घोषित किया गया था, जिसका उद्देश्य पादप जगत एवं उसके संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करना था।

विदा हो चुके साल में रोबोट का जन्मशती वर्ष मनाया गया। विज्ञान कथाओं में रोबोट शब्द और विचार 1920 में सामने आया था। पिछले दशकों में बुद्धिमान रोबोट बनाने की दिशा में जमकर अनुसंधान हुआ है। बुद्धिमान रोबोट बनाने में कृत्रिम बुद्धि की अहम भूमिका है। बुद्धिमान रोबोट के आगमन ने मनुष्य के सामने अवसरों और अस्तित्व की नई चुनौती खड़ी कर दी है।

वर्ष 2020 के विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों में अमेरिका का वर्चस्व रहा। रसायन विज्ञान के इतिहास में पहली बार यह सम्मान महिला वैज्ञानिकों के खाते में पहुंचा। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए वैज्ञानिक हार्वे जे. आल्टर, चार्ल्स एम. राइस तथा माइकल हाटन को प्रदान किया गया। फिज़िक्स का नोबेल ब्लैक होल के रहस्यों की शानदार व्याख्या के लिए रॉजर पेनरोज़, राइनहार्ड गेनज़ेल और एंड्रिया गेज़ को दिया गया। रसायन शास्त्र का नोबेल इमैनुएल शार्पेची और जेनिफर ए. डाउडना को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। इन्होंने जीन संपादन तकनीक क्रिस्पर कास-9 विधि की खोज में विशेष योगदान किया है।

वर्ष 2020 में अमेरिकी विज्ञान कथा लेखक और जैव रसायनविद आइज़ैक एसीमोव की जन्मशती मनाई गई। उन्होंने लोकप्रिय विज्ञान की अनेक किताबें लिखी हैं तथा आई रोबोट सहित कई फिल्में भी बनाई हैं।

इसी वर्ष फरवरी में कंप्यूटर में जाने-माने ‘कट-कॉपी-पेस्ट’ कमांड के आविष्कारक लैरी टेस्लर का 74 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने कंप्यूटर के यूज़र इंटरफेज़ के विकास में अहम भूमिका निभाई थी। दिसंबर में संचार के क्षेत्र में वायरलेस कंप्यूटर नेटवर्क के जनक नार्मन अब्राामसन का निधन हो गया। उन्हें प्रारंभिक वायरलेस नेटवर्क एएलओएच नेट बनाने का श्रेय जाता है।

विलक्षण गणितज्ञ और नासा की महिला वैज्ञानिक कैथरीन कोलमैन गोबल जॉनसन का 24 फरवरी को 101 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष यात्राओं पर ले जाने और सुरक्षित वापसी के लिए अपनी बेजोड़ विशेषज्ञता का परिचय दिया था। उन्हें नासा लूनर आर्बिटर और 1997 में वर्ष का गणितज्ञ सम्मान मिला था।

अलविदा हो चुके वर्ष में ईरान के न्यूक्लियर साइंटिस्ट मोहसिन फखरीजादेह की उपग्रह द्वारा नियंत्रित हथियारों से हत्या कर दी गई। फखरीजादेह को ईरान के परमाणु कार्यक्रम की सबसे बडी शक्ति माना जाता था।

विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों और विश्लेषणकर्ताओं के अनुसार विदा हो चुके वर्ष 2020 में मूल विज्ञान की कोख से निकली प्रौद्योगिकी अथवा प्रयुक्त विज्ञान का समाज में वर्चस्व और विस्तार दिखाई दिया और मूलभूत विज्ञान हाशिए पर रहा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://acs-h.assetsadobe.com/is/image//content/dam/cen/98/14/WEB/09814-cover5-corona.jpg/?$responsive$&wid=700&qlt=90,0&resMode=sharp2

बदले हुए वायरस से खलबली

ठ दिसंबर को दक्षिण-पूर्वी इंग्लैंड स्थित केंट में अचानक कोविड-19 के मामलों में उछाल ने जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों को हैरत में डाल दिया। इनमें आधे से अधिक मामले ऐसे रोगियों के थे जिनमें सार्स-कोव-2 का एक विशिष्ट संस्करण पाया गया था। युनिवर्सिटी ऑफ बर्मिंगहैम के सूक्ष्मजीव-जीन विज्ञानी निक लोमन के अनुसार यह नया संस्करण उपलब्ध डैटा से काफी अलग था, जिसे पहले कभी नहीं देखा गया था।

दो हफ्ते से भी कम समय में नए संस्करण ने ब्रिटेन और युरोप के अन्य स्थानों पर खलबली मचा दी। इस कारण सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन (B.1.1.7) को फैलने से रोकने के लिए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने सख्त लॉकडाउन की घोषणा तक कर दी। इस घोषणा के बाद से नीदरलैंड, बेल्जियम, इटली के अलावा भारत ने भी फिलहाल यूके से यात्री उड़ानों को रोक दिया है।

वैज्ञानिक मनुष्यों में B.1.1.7 की संक्रामकता का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस नए स्ट्रेन में इतनी जल्दी 17 उत्परिवर्तन हो चुके हैं। इन उत्परिवर्तनों की प्रकृति की खोजबीन जारी है। 

गौरतलब है कि शोधकर्ताओं ने अन्य वायरसों की तुलना में सार्स-कोव-2 पर काफी अधिक अध्ययन किया है। निष्कर्ष यह है कि इस वायरस की उत्परिवर्तन दर एक या दो उत्परिवर्तन प्रति माह है। यानी जनवरी में चीन में प्राप्त शुरुआती जीनोम से आज के जीनोम में 20 विभिन्न बिंदुओं पर परिवर्तन हुए हैं। लेकिन कम परिवर्तनों वाले कई संस्करण भी उपस्थित हैं। वैज्ञानिकों ने किसी वायरस में एक बार में एक दर्जन से अधिक उत्परिवर्तन पहली बार देखे हैं। उनका मानना है कि यह किसी व्यक्ति में लंबे समय तक बने रहे संक्रमण के कारण हुआ होगा जिससे वायरस को तेज़ी से विकसित होने की गुंजाइश मिली होगी।

वायरस में हुए 17 उत्परिवर्तनों में से 8 तो उस जीन में हुए हैं जो वायरस के स्पाइक प्रोटीन का कोड है। इनमें से दो उत्परिवर्तन विशेष रूप से चिंताजनक हैं। एक है N501Y जो मानव कोशिकाओं के ACE2 प्रोटीन ग्राही से ज़्यादा मज़बूती से जुड़ जाता है और दूसरा 69-70del है जिसमें स्पाइक प्रोटीन में दो अमीनो अम्लों का लोप हुआ है। यह उन वायरस में पाया गया है जो दुर्बल प्रतिरक्षा वाले रोगियों की प्रतिरक्षा प्रक्रिया से बचकर निकल गए।

शुरुआती जानकारी से यह पता चला है कि यूके में वायरस के अन्य संस्करणों की तुलना में B.1.1.7 काफी तेज़ी से फैलता है। गौरतलब है कि एक आरटी-पीसीआर परीक्षण (Taqpath) सामान्य रूप से तीन जीनों का पता लगाता है। लेकिन पीसीआर परीक्षण 69-70del संस्करण वाले वायरसों को नहीं भांपता और यह केवल दो जीन को ही खोज पाता है। इस लिहाज़ से इस परीक्षण से B.1.1.7 को ट्रैक करने में मदद मिल सकती है।

यूके के मुख्य विज्ञान सलाहकार पैट्रिक वालेंस के अनुसार नवंबर में सामने आए कुल मामलों में से 26 प्रतिशत B.1.1.7 की वजह से हुए थे लेकिन 9 दिसंबर तक 60 प्रतिशत से अधिक मामलों में नया संस्करण पाया गया। अनुमान है कि इस उत्परिवर्तन के कारण वायरस की संक्रामकता में 70 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है।

हालांकि, कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि उपलब्ध जानकारी के आधार पर B.1.1.7 की संक्रामकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। गौर करने वाली बात है कि इस नए संस्करण में एक अन्य वायरल जीन (ORF8) में भी परिवर्तन हुआ है जो वायरस के फैलने की क्षमता को कम करता है।

चिंता की बात यह भी है कि दक्षिण अफ्रीका के तीन प्रांतों में वायरस के स्पाइक जीन में N501Y उत्परिवर्तन पाया गया है। युनिवर्सिटी ऑफ क्वाज़ुलु-नैटल के वायरस विज्ञानी तूलियो डी ओलिवेरा के अनुसार दक्षिण अफ्रीका में पाया गया यह संस्करण काफी तेज़ी से फैल रहा है।

यह भी कहा जा रहा है कि B.1.1.7 के कारण गंभीर रूप से बीमार होने की संभावना है। अफ्रीका सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार दक्षिण अफ्रीकी संस्करण युवाओं को अधिक प्रभावित कर रहा है। लेकिन स्पष्ट निष्कर्ष के लिए और डैटा की आवश्यकता है। 

इस विषय में निश्चित उत्तर मिलने में काफी समय लग सकता है। फिलहाल एक रोगी में 69-70del उत्परिवर्तन के साथ एक अन्य उत्परिवर्तन D796H भी पाया गया है जो उस व्यक्ति में कई महीनों से मौजूद था और जिसके इलाज के लिए प्लाज़्मा दिया जा रहा था। हालांकि उस रोगी की मृत्यु हो गई लेकिन पाया गया कि दो उत्परिवर्तन वाला यह वायरस प्लाज़्मा उपचार के प्रति असंवेदनशील है। इस उत्परिवर्तन के कारण यह वायरस दुगना संक्रामक हो जाता है। इस मामले में और अध्ययन किए जा रहे हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि B.1.1.7 पहले ही काफी बड़े पैमाने पर फैल चुका है। नीदरलैंड के शोधकर्ताओं ने दिसंबर माह की शुरुआत में ही एक रोगी में वायरस का यह संस्करण पाया था। कई वैज्ञानिक अन्य देशों में भी इस संस्करण के पैदा होने की संभावना व्यक्त करते हैं। हो सकता है कि यूके में यह पहले इसलिए पता चला क्योंकि वहां सार्स-कोव-2 जीनोम की निगरानी करने के परिष्कृत उपकरण मौजूद हैं। ऐसी भी संभावना है कि B.1.1.7 की विकास प्रक्रिया की शुरुआत कहीं और हुई हो।

अब टीके बाज़ार में आने लगे हैं। तो वायरस के विभिन्न संस्करणों पर टीकों का दबाव बनेगा। ऐसी स्थिति में संभावना है कि वे संस्करण ज़्यादा बचे रहेंगे और संख्यावृद्धि करेंगे जो टीके को झेल जाते हैं। यानी वायरस के टीका-रोधी संस्करणों का प्रसार बढ़ सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/London_1280p_0.jpg?itok=Z8QdBSg6

विज्ञान नीति और कोरोना टीका बनाने की ओर बढ़ा भारत – चक्रेश जैन

विदा हो चुका वर्ष 2020 भारतीय विज्ञान जगत के लिए नई चुनौतियों और अपेक्षाओं का रहा। अदृश्य कोरोनावायरस से फैली कोविड-19 महामारी का विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक प्रभाव दिखाई दिया। साल के पूर्वार्ध में वैज्ञानिकों ने नए कोरोनावायरस (सार्स-कोव-2) का जीनोम अनुक्रम पता करने में सफलता प्राप्त की। इसी के साथ देश में ही टीका बनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। दरअसल किसी भी रोग से जंग के लिए टीकों का विकास बेहद जटिल और परीक्षणों के कई चरणों से गुज़रने वाली लंबी अनुसंधान प्रक्रिया है। लेकिन वैज्ञानिकों ने प्रयोगशालाओं में रात-दिन एक कर वर्ष के अंत तक कोविड-19 का टीका बनाकर अपनी कुशलता का परिचय दिया।

वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के झंडे तले कार्यरत तीन प्रयोगशालाओं – हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्युलर बायोलॉजी, नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी और चंडीगढ़ स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी के अनुसंधानकर्ताओं ने सार्स-कोव-2 का जीनोम अनुक्रम तैयार किया, जिसका उद्देश्य वायरस की उत्पत्ति और उसके बदलते स्वरूपों का पता लगाकर टीका निर्माण की राह बनाना था।

गुज़रे साल में देश की पांचवी विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार नीति-2020 (एसटीआईपी) का प्रारूप तैयार किया गया। देश में शोध और विकास को मूर्त रूप देने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। गौरतलब है कि स्वतंत्रता के बाद पहली विज्ञान नीति का निर्माण 1958 में किया गया था। वर्ष 2020 में बनाई जा रही नई विज्ञान नीति में आत्मनिर्भर भारत के विचार को केंद्र में रखकर स्वदेशी प्रौद्योगिकी, महिलाओं और पंचायतों के सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित किया गया है। विज्ञान मंत्रालय ने पहली बार नई विज्ञान नीति निर्माण में राज्यों की विज्ञान परिषदों सहित लगभग 15,000 लोगों की राय ली। नई विज्ञान नीति में स्थानीय से वैश्विक नवाचारों, आवश्यकता आधारित प्रौद्योगिकी तैयार करने और सतत विकास को बढ़ावा देने की कोशिश की गई है।

हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्युलर बायोलॉजी के अनुसंधानकर्ताओं को ततैया का जीनोम अनुक्रमण करने में सफलता मिली। ततैया का वैज्ञानिक नाम लेप्टोफिलिन बोलार्डी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ततैया का जीनोम अनुक्रमण ड्रॉसोफिला और ततैया के बीच होने वाले जैविक संघर्ष से सम्बंधित कारणों को समझने में सहायक होगा।

जनवरी में भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन का 107वां सालाना जलसा बैंगलुरू में संपन्न हुआ, जिसमें देश-विदेश के वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने ग्रामीण विकास में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भूमिका पर मंथन किया। वैज्ञानिकों का कहना था कि ग्रामीण विकास में प्रौद्योगिकी को व्यापक बनाने की आवश्यकता है। वर्ष 2006 में आयोजित भारतीय विज्ञान कांग्रेस के दौरान समेकित ग्रामीण विकास के विभिन्न मुद्दों पर विमर्श हुआ था।

17 जनवरी को फ्रेंच गुआना प्रक्षेपण केंद्र से जी-सैट संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में विदा किया गया। 7 नवंबर को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा श्रीहरिकोटा से पीएसएलवी-डीएल से दस उपग्रहों को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक भेजा गया। दस उपग्रहों में से नौ विदेशी हैं, जबकि राडार इमेजिंग उपग्रह अर्थ ऑब्जर्वेशन सेटैलाइट-1 स्वदेशी उपग्रह है। यह सामरिक निगरानी के साथ कृषि विज्ञान, वानिकी, भू-विज्ञान, तटीय निगरानी और बाढ़ जैसी आपदाओं के दौरान उपयोगी सिद्ध होगा। अंतरिक्ष विज्ञान की गतिविधियों और कार्यक्रमों में निजी क्षेत्र की सहभागिता के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ।

कोरोना महामारी का असर भारत के प्रथम मानव मिशन गगनयान पर भी पड़ा। गगनयान मिशन का प्रक्षेपण अब अगले वर्ष तक होने की उम्मीद है। गगनयान परियोजना में तीन भारतीय वैज्ञानिक भेजे जाएंगे, जो सात दिन अंतरिक्ष में बिताएंगे।

गुज़रे साल वैज्ञानिकों की टीम ने अगस्त में मेघालय में मशरूम की रात में चमकने वाली एक नई प्रजाति रोरीडोमाइसेज़ फायलोस्टेकायडीस खोजी। अंधेरे में यह हरे रंग की रोशनी से जगमगाता है। इसी कारण इसे ल्यूमिनिसेंट मशरूम कहते हैं। मेघालय में मशरूम की अलग-अलग प्रजातियों का पता लगाने के लिए एक प्रोजेक्ट चल रहा है।

इसी वर्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने 50 वें वर्ष में प्रवेश किया और स्वर्ण जयंती वर्ष आयोजनों की शुरुआत हुई। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की स्थापना 3 मई 1971 को की गई थी। इस विभाग की स्थापना का उद्देश्य देश में वैज्ञानिक गतिविधियों और परियोजनाओं को बढ़ावा देने में नोडल एजेंसी की भूमिका निभाना है।

विज्ञान समागम प्रदर्शनी का समापन 20 मार्च को दिल्ली में हुआ। यह अपने ढंग की अनोखी प्रदर्शनी थी, जिसमें आम लोगों को विज्ञान की प्रगत विधाओं से परिचित होने का मौका मिला। प्रदर्शनी मुम्बई, कोलकाता और बैंगलुरु के बाद दिल्ली पहुंची थी।

साल के उत्तरार्द्ध में भारत हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी प्राप्त करने वाला चौथा देश बन गया। इस तकनीक की सहायता से ध्वनि से छह गुना अधिक रफ्तार वाली मिसाइलें तैयार होंगी।

वर्ष के अंत में पहली बार वर्चुअल माध्यम से इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टीवल आयोजित किया गया, जिसमें इस बार 41 गतिविधियां शामिल की गर्इं। पहली बार महोत्सव में कृषि वैज्ञानिक सम्मेलन हुआ, जिसमें खेती-किसानी से सम्बंधित कार्यों के लिए कृत्रिम बुद्धि के उपयोग पर ज़ोर दिया गया। विज्ञान को उत्सव से जोड़ते इस कार्यक्रम की शुरुआत 2015 में नई दिल्ली से हुई थी।

गुज़रे वर्ष भारतीय वैज्ञानिक नेशनल सुपर कंप्यूटिंग मिशन के अंतर्गत देश में ही सुपरकंप्यूटरों की शृंखला तैयार करने में जुटे रहे। अंतरिक्ष, उद्योग और मौसम सम्बंधी पूर्वानुमानों में सुपरकंप्यूटरों की अहम भूमिका है।

10 जुलाई को रीवा अल्ट्रा मेगा सौर परियोजना राष्ट्र को समर्पित की गई। यह विश्व की बड़ी परियोजनाओं में से एक है। यह पहली सौर योजना है, जिसे विश्व बैंक और क्लीन टेक्नोलॉजी फंड से धनराशि मिली है। इस सौर परियोजना से हर साल 15.7 लाख टन कार्बन उत्सर्जन रोका जा सकेगा।

बीते साल ‘अम्फन’ और ‘निसर्ग’ जैसे विनाशकारी तूफान आए, लेकिन उपग्रहों से प्राप्त सटीक पूर्वानुमानों के आधार पर लाखों लोगों का जीवन बचा लिया गया।

विज्ञान के विभिन्न विषयों में मौलिक और उत्कृष्ट अनुसंधान के लिए 14 वैज्ञानिकों को शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनमें दो महिला वैज्ञानिक भी शामिल हैं। अभी तक 560 वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया जा चुका है। इनमें 542 पुरुष और 18 महिला वैज्ञानिक हैं।

इसी वर्ष सितंबर में विख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन का जन्मशती वर्ष मनाया गया। इसरो ने विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए और अंतरिक्ष में उनके असाधारण योगदान का स्मरण किया। प्रोफेसर धवन का जन्म 25 सितंबर 1920 को हुआ था। प्रोफेसर धवन 1972 में इसरो के अध्यक्ष बने थे।

इसी वर्ष सर पैट्रिक गेडेस द्वारा भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु पर लिखी किताब के सौ साल पूरे हुए।

विदा हो चुके वर्ष में कोरोनावायरस पर बनाए गए विज्ञान कॉर्टूनों पर केंद्रित किताब बाय बाय कोरोना प्रकाशित हुई। पुस्तक के लेखक जाने-माने वैज्ञानिक और सांइटूनिस्ट डॉ. प्रदीप कुमार श्रीवास्तव हैं। यह विश्व की विज्ञान कॉर्टूनों पर प्रकाशित अपनी तरह की पहली किताब है।

दिसंबर में भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गया, जहां चालकरहित मेट्रो ट्रेनों का संचालन हो रहा है। देश में इसकी शुरुआत दिल्ली से हुई। चालकरहित मेट्रो की यात्रा कम्युनिकेशन बेस्ड ट्रेन कंट्रोल सिग्नलिंग सिस्टम पर आधारित है। बीते साल देश में ही तैयार ज़मीन से हवा में प्रहार करने वाली आकाश मिसाइल के निर्यात का मार्ग प्रशस्त हो गया। आकाश मिसाइल लड़ाकू विमानों, क्रूज़ मिसाइलों और ड्रोन पर सटीक निशाना लगा सकती है।

26 जनवरी 2020 को रोटावायरस वैक्सीन के खोजकर्ता और जैव प्रौद्योगिकी विभाग के पूर्व सचिव डॉ. एम.के. भान का निधन हो गया। 13 फरवरी को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ. राजेंद्र कुमार पचौरी नहीं रहे। उनके नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल ने जलवायु परिवर्तन पर 2007 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था। श्री पचौरी आईपीसीसी के अध्यक्ष और टेरी के महानिदेशक रहे। उन्होंने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से जुड़े संस्थानों में सक्रिय भूमिका निभाई थी। 2001 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।

18 अप्रैल 2020 को जाने-माने कृषि विज्ञानी और आनुवंशिकीविद प्रो. वी. एल. चोपड़ा का 83 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उन्होंने भारत में गेहूं की पैदावार बढ़ाने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान किया। उन्हें कृषि के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए प्रतिष्ठित बोरलाग अवॉर्ड और 1985 में पद्मभूषण से अलंकृत किया गया था। वे योजना आयोग के सदस्य रहे। उन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक पद को सुशोभित किया। 

इस वर्ष 15 मई को प्रसिद्ध भौतिकीविद डॉ. एस. के. जोशी का निधन हो गया। उन्हें भौतिकी में विशेष योगदान के लिए प्रतिष्ठित शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार मिला था।

22 जून 2020 को कोलकाता में अमलेंदु बंद्योपाध्याय का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने खगोल विज्ञान को आम लोगों में लोकप्रिय बनाने में विशेष योगदान दिया था। उन्होंने आठ किताबें और लगभग 2500 लेख लिखे। उन्हें विज्ञान संचार में विशेष योगदान के लिए राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद ने राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था।

विख्यात गणितज्ञ सी. एस. शेषाद्रि का 17 जुलाई को 88 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें ‘शेषाद्रि कांस्टेंट’ के लिए अत्यधिक ख्याति मिली। उन्हें पद्मभूषण और शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसी साल हमने प्रसिद्ध रेडियो खगोलविद प्रो. गोविन्द स्वरूप को खो दिया। सितंबर में विख्यात परमाणु वैज्ञानिक और परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व निदेशक डॉ. शेखर बसु का निधन हो गया।

इसी वर्ष 7 सितंबर को जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. नरेन्द्र सहगल का निधन हो गया। उन्हें विज्ञान संचार के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने भारत में विज्ञान संचार की गतिविधियों के विस्तार में अहम भूमिका निभाई थी। डॉ. सहगल राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद और विज्ञान प्रसार के संस्थापक निदेशक थे।

इसी वर्ष 14 दिसंबर को प्रसिद्ध एयरोस्पेस वैज्ञानिक आर. नरसिंहा का देहांत हो गया। उन्होंने लाइट कॉम्बैट एयरक्रॉफ्ट (एलसीए) और तेजस की डिज़ाइन एवं विकास में अहम भूमिका निभाई थी। प्रो. नरसिंहा को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।

विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के संपादक मंडल ने इस बार बीते साल को यादगार बनाने वाले व्यक्तियों और अनुसंधान कथाओं का चयन कर एक सूची बनाई है, जिसमें कोविड-19 के टीकों के अनुसंधान और विकास को शामिल किया गया है। हमारे देश के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टीवल में अपने संबोधन के दौरान विदा हो चुके साल 2020 को ‘विज्ञान वर्ष’ की संज्ञा दी है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.technologyforyou.org/wp-content/uploads/2020/04/covid-updates1.jpg

सूक्ष्मजीव को ब्रेड बनाने के लिए पालतू बनाया था

ब भी मनुष्यों द्वारा पालतूकरण की बात होती है तो अक्सर पहला ख्याल गाय, कुत्तों या कुछ ऐसे ही अन्य जानवरों का आता है, खमीर यानी यीस्ट का नहीं। हाल ही में करंट बायोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि मनुष्यों ने यीस्ट (एक तरह की फफूंद) के विकास में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। ब्रेड बनाने में उपयोग की जाने वाली यीस्ट, सेक्रोमाइसेस सेरेविसे, पर मनुष्यों का चयनात्मक दबाव रहा। इसके फलस्वरूप इसका विकास दो भिन्न समूहों में हुआ – एक तरह के यीस्ट का उपयोग उद्योगों में बड़े पैमाने पर ब्रेड बनाने में किया जाता है और दूसरे तरह की यीस्ट का उपयोग पारंपरिक खमीरी ब्रेड बनाने में किया जाता है। उद्योगों में उपयोग किया जाने वाला यीस्ट जहां किण्वन की प्रक्रिया बहुत तेज़ी से करता है वहीं पांरपरिक खमीरी ब्रेड में प्रयुक्त यीस्ट में माल्टोज़ के चयापचय के लिए ज़िम्मेदार जीन की प्रतियां अधिक होती हैं – माल्टोज़ के चयापचय की प्रक्रिया किण्वन के बाद होती है जो आटे को ‘उठाने’ में मदद करती है।

फ्रेंच नेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर की वैकासिक आनुवंशिकीविद डेल्फीन सिकार्ड बताती हैं कि सदियों से सभी जगह ब्रेड बनाई और उपयोग की जाती रही है। लेकिन अब यीस्ट स्टार्टर (खमीर उठाने वाला घोल या सूखा खमीर) का बड़े पैमाने पर उद्योगों में उत्पादन किया जाना लगा है। सिकार्ड की टीम समझना चाहती थी कि इस बदलाव ने यीस्ट के विकास को किस तरह प्रभावित किया।

शोधकर्ताओं ने फ्रांस, बेल्जियम और इटली से खमीरी ब्रेड बनाने के लिए घरेलू स्तर पर उपयोग किए जाने वाले यीस्ट के 198 संस्करण, और स्टार्टर किट या अंतर्राष्ट्रीय यीस्ट संग्रह से औद्योगिक यीस्ट के 31 संस्करण प्राप्त किए। प्रत्येक नमूने में फ्लो साइटोमेट्री का उपयोग कर यीस्ट कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या पता की, और माइक्रोसेटेलाइट मार्कर विश्लेषण का उपयोग करके गुणसूत्र समूह की संख्या के आधार पर उनकी आनुवंशिक विविधता जांची। इसके बाद शोधकर्ताओं ने हाल ही में अनुक्रमित किए गए बेकरी यीस्ट के 17 संस्करण और अन्य एस. सेरेविसे यीस्ट के 1011 संस्करण का विश्लेषण किया। फिर इसका एक वंश वृक्ष (फाइलोजेनेटिक ट्री) तैयार किया और इस पर यीस्ट में गुणसूत्रों की प्रतियों की संख्या में विविधता दर्शाई।

उन्होंने पाया कि खमीरी ब्रेड के यीस्ट में उन जीन्स की प्रतियां काफी अधिक संख्या में थीं, जो उन प्रोटीन्स का कोड हैं जो माल्टोज़ और आइसोमाल्टोज़ शर्करा को तोड़ने वाले एंज़ाइम्स (माल्टेज़ और आइसोमाल्टेज़) का परिवहन करते हैं और उनका नियमन करते हैं। इनमें ये एंज़ाइम भी ज़्यादा मात्रा में मिले। वैसे तो जीन की प्रतियों की संख्या में घट-बढ़ कोशिकाओं के लिए हानिकारक हो सकती है, लेकिन शोधकर्ता बताते हैं कि संख्या में यह घट-बढ़ सख्त चयन के दबाव में त्वरित अनुकूलन में मदद कर सकती है। जैसे, उच्च-माल्टोज़ और आइसोमाल्टोज़ युक्त आटे (या मैदे) के विषाक्त पर्यावरण में तेज़ी से वृद्धि करने में।

शोधकर्ताओं ने पाया कि खमीरी ब्रेड के आटे जैसे कृत्रिम परिवेश (जिसमें कार्बन रुाोत के रूप में सिर्फ माल्टोज़ था) में उपरोक्त जीन्स की कम प्रतियों वाले यीस्ट की तुलना में अधिक प्रतियों वाले यीस्ट किण्वन के अंत में अधिक संख्या में मौजूद थे। चाहे मनुष्यों के चयन के कारण हो या यीस्ट के अनुकूलन के कारण, परिणाम यह रहा है कि अधिक प्रतियों वाले यीस्ट से खमीरी ब्रेड अच्छी बनने लगी।

इसी दौरान औद्योगिक बेकर्स ने उन यीस्ट को चुना जो अधिक तेज़ी से किण्वन करते थे। अध्ययन में खमीरी ब्रेड के यीस्ट की तुलना में औद्योगिक यीस्ट को एक ग्राम कार्बन डाईऑक्साइड बनाने में औसतन आधा घंटा कम लगा। औद्योगिक यीस्ट अधिक जटिल और देरी से टूटने वाली शर्करा माल्टोज़ और आइसोमाल्टोज़ की जगह ग्लूकोज़ के किण्वन को प्राथमिकता देते हैं।

चूंकि खमीरी यीस्ट स्टार्टर में अन्य सूक्ष्मजीव, जैसे लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और अन्य यीस्ट, भी होते हैं जो एस. सेरिविसे के सहायक होते हैं इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि एस. सेरेविसे के पालतूकरण में अन्य सूक्ष्मजीवों की क्या भूमिका है?

लेकिन सवाल है कि क्या यह वास्तव में यीस्ट का पालतूकरण है, या हमने प्रकृति में विद्यमान विविधता का फायदा लिया है, या यीस्ट हमारे दिए अनुकूल वातावरण में अच्छे से फल-फूल गया? औद्योगिक यीस्ट के त्वरित किण्वन के प्रमाण बताते हैं कि सभी जगह पाया जाने वाला एस. सेरेविसे किसी पेड़ की छाल, मिट्टी या अन्य माहौल में इस तरह नहीं पनपता जिस तरह यह इन परिस्थितियों में पनप सका।

सिकार्ड चिंता जताती हैं कि उद्योगों में ब्रेड बनाए जाने से यीस्ट की विविधता कम हो सकती है। लेकिन पिछले एक दशक, खासकर कोविड-19 महामारी के दौर में घर में ब्रेड बनाने का चलन बढ़ा है, तो उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में हम इस विविधता को बनाए रख सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/68256/aImg/40677/thumb-l.jpg

कोविड-19 की गंभीरता बढ़ाता पुरातन जीन

विभिन्न कारकों के चलते कोविड-19 संक्रमण गंभीर रूप ले सकता है। अब बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन संभावना जताता है कि शरीर में एक निएंडरथल जीन के संस्करण की मौजूदगी कोविड-19 की गंभीरता चार गुना तक बढ़ा सकती है। गौरतलब है कि निएंडरथल एक प्राचीन मानव प्रजाति थी जो करीब सवा लाख से 35 हज़ार वर्ष पूर्व तक अस्तित्व में थी और आधुनिक मनुष्यों का उनके साथ प्रजनन संपर्क भी होता था। इसी का परिणाम है आधुनिक मनुष्यों में 2.6 प्रतिशत तक निएंडरथल जीन्स पाए जाते हैं।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि डाइपेप्टीडाइल पेप्टीडेज़-4 (DPP4) नामक प्रोटीन मिडिल ईस्ट रेस्पेरेटरी सिंड्रोम (MERS) संक्रमण के लिए ज़िम्मेदार एक अन्य कोरोनावायरस को मानव कोशिका से बंधने और उसमें प्रवेश करने में मदद करता है। अब, कोविड-19 के मरीज़ों में DPP4 जीन के एक परिवर्तित संस्करण का विश्लेषण बताता है कि यह प्रोटीन सार्स-कोव-2 को ACE2 ग्राहियों के अलावा कोशिका में प्रवेश करने का एक और मार्ग उपलब्ध करा देता है।

दरअसल पूर्व में हुए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने बताया था कि DPP4 सार्स-कोव-2 वायरस को मानव कोशिका से जुड़ने में मददगार हो सकता है। अलबत्ता, एक अन्य अध्ययन ने इस संभावना को खारिज करते हुए बताया था कि यह वायरस DPP4 के माध्यम से कोशिका से नहीं जुड़ता।

एक बार फिर मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर इवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी के वैकासिक आनुवंशिकीविद स्वान्ते पैबो और उनके साथियों ने DPP4 जीन की भूमिका की संभावना जताई है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में जांचा कि क्या DPP4 जीन का निएंडरथल संस्करण असंक्रमित लोगों की तुलना में कोविड-19 के गंभीर मामलों वाले लोगों में अधिक दिखता है। इसके लिए उन्होंने कोविड-19 होस्ट जेनेटिक्स इनिशिएटिव द्वारा जारी किए गए नवीनतम डैटा का अध्ययन किया, जिसमें कई लोगों के जीनोम और कोविड-19 की स्थिति के बारे में जानकारी थी। उन्होंने पाया कि कोविड-19 से गंभीर रूप से संक्रमित 7885 लोगों के जीनोम में DPP4 का निएंडरथल संस्करण नियंत्रण समूह की तुलना में अधिक था। यदि किसी व्यक्ति में निएंडरथल संस्करण की एकल प्रति है तो उसमें गंभीर संक्रमण का जोखिम दो गुना है और अगर दोनों प्रतियां निएंडरथल संस्करण की हैं तो गंभीर संक्रमण का जोखिम चार गुना है।

DPP4 जीन कोशिका में ग्लूकोज़ या शर्करा को तोड़ने में भूमिका निभाता है। इसलिए मधुमेह की कुछ दवाएं DPP4 जीन को लक्षित करती हैं। अध्ययन सुझाता है कि मधुमेह की दवाएं कोविड-19 के इलाज में मदद कर सकती है। वैसे तो DPP4 जीन का निएंडरथल संस्करण एंज़ाइम के आकार और कार्य को प्रभावित नहीं करता क्योंकि यह परिवर्तन जीन के प्रमोटर में है। इसका प्रभाव इस बात पर होता है कि यह जीन शरीर में कहां और कितना सक्रिय होगा। अध्ययन पर कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि कोविड-19 में निएंडरथल जीन से कितना जोखिम है इसे समझने के लिए इसकी तुलना गरीबों और स्वास्थ्य सुविधा की पहुंच से दूर वाले लोगों में कोविड-19 के गंभीर संक्रमण के जोखिम से करके देखना चाहिए। कोविड-19 का संक्रमण गंभीर स्थिति में पहुंचाने में आनुवंशिक कारक से अधिक भूमिका सामाजिक-आर्थिक कारकों की होगी। नतीजे अभी इस जीन की भूमिका की संभावना ही व्यक्त करते हैं, पुष्टि होना अभी बाकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/wuhan_1280p.jpg?itok=qxcZBWiJ

कृत्रिम बुद्धि को भी नींद चाहिए

शीनों की खासियत है कि उन्हें हम मनुष्यों (और अन्य प्राणियों) की तरह सोने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन कैसा हो यदि आपका फ्रिज, कार या अन्य कोई उपकरण कुछ देर की नींद चाहे। ऐसा हो भी सकता है यदि इन उपकरणों में बिल्कुल मानव मस्तिष्क के समान कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस) हो। लॉस अलामोस नेशनल लेबोरेटरी के शोधकर्ताओं का कहना है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को भी ठीक से काम करते रहने के लिए थोड़ी नींद की ज़रूरत होती है।

इस ज़रूरत का पता शोधकर्ताओं को तब चला जब वे एक ऐसा न्यूरल नेटवर्क तैयार कर रहे थे जो बिल्कुल जीवित मस्तिष्क की तरह काम करता हो। वे न्यूरल नेटवर्क को मनुष्यों और अन्य जीवों की तरह सीखने के लिए तैयार कर रहे थे, जिसमें उन्होंने नेटवर्क को बगैर किसी पूर्व डैटा या प्रशिक्षण के वस्तुओं को वर्गीकृत करने के लिए तैयार किया। ठीक वैसे ही जैसे यदि कोई किसी छोटे बच्चे को कुछ जानवरों की तस्वीरें देकर समूह बनाने कहे तो वह बना देगा हालांकि वह उनके नाम नहीं जानता। बच्चा हिरण जैसे जानवरों की तस्वीर हिरण के साथ रखेगा, शेर या पेंगुइन के साथ नहीं।

शोधकर्ताओं ने देखा कि लगातार इस तरह का वर्गीकरण करते रहने से नेटवर्क अस्थिर हो गया था। नेटवर्क की हालत लगभग मतिभ्रम की समस्या जैसी हो गई थी जिसमें वह बहुत सारी छवियां बनाए जा रहा था। शुरुआत में शोधकर्ताओं ने नेटवर्क को स्थिर करने के विभिन्न प्रयास किए। उन्होंने नेटवर्क को कई तरह के संख्यात्मक शोर का अनुभव कराया जो कुछ वैसा था जैसा रेडियो की चैनल बदलते वक्त बीच में खर-खर की आवाज़ होती है। थक-हार कर शोधकर्ताओं ने जब नेटवर्क को उन तरंगों का अनुभव कराया जो बिल्कुल वैसी ही थीं जैसे नींद के वक्त हमारा मस्तिष्क अनुभव करता है तो नेटवर्क स्थिर हो गया। उन्हें सबसे अच्छा परिणाम तब मिला जब इस शोर में विभिन्न आवृत्तियों और आयाम की तरंगे थीं। न्यूरल नेटवर्क के लिए यह अनुभव वैसा ही था जैसे उसे एक अच्छी और लंबी नींद दी गई हो। इन परिणामों से लगता है कि कृत्रिम और प्राकृतिक बुद्धि, दोनों में गहरी नींद यह सुनिश्चित करने का कार्य करती है कि न्यूरॉन्स अस्थिर ना हों और मतिभ्रम की स्थिति ना बनें।

वैसे, सभी तरह के आर्टिफिशियल नेटवर्क को नींद की ज़रूरत नहीं पड़ती। यह ज़रूरत सिर्फ उन नेटवर्क को पड़ती है जिन्हें वास्तविक मस्तिष्क की तरह प्रशिक्षित किया जा रहा हो, या नेटवर्क खुद से कोई वास्तविक प्रणाली को सीख रहा हो। मशीन लर्निंग, डीप लर्निंग और एआई को इसकी ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि ये मूलत: गणितीय संक्रियाओं पर निर्भर होते हैं।

न्यूरल नेटवर्क में नींद की अवस्था पारंपरिक कंप्यूटर के ‘स्लीप मोड’ से अलग है। कंप्यूटर के स्लीप मोड में जाने पर उसमें कुछ समय के लिए गतिविधियां रुक जाती हैं। आईटी एक्सपर्ट हमेशा से सलाह देते रहे हैं कि यदि आपका कंप्यूटर नखरे करने लगे तो उसे बंद करके फिर से चालू कीजिए।

लेकिन अस्थिर न्यूरल नेटवर्क में इस तरह का ‘स्लीप मोड’ कोई मदद नहीं कर सकता। और नेटवर्क को बंद करके वापिस चालू करना बात और बिगाड़ सकता है, बिजली की सप्लाई बंद करने से नेटवर्क रीसेट हो जाएगा और सारे पूर्व प्रशिक्षण को भुला देगा। न्यूरल नेटवर्क और प्राणियों की नींद का मतलब पूरी तरह निष्क्रिय होना नहीं है बल्कि इनमें नींद एक अलग तरह की अवस्था है जो न्यूरॉन्स को सुचारु रूप से काम करते रहने में मदद करती है।

अब शोधकर्ता नेटवर्क को कृत्रिम नींद देने के फायदों की पड़ताल रहे हैं। इसका एक लाभ उन्होंने पाया कि अक्सर ऐसा होता है कि सिमुलेशन शुरू करने पर कुछेक न्यूरॉन्स अपना कार्य नहीं करते, कृत्रिम नींद देने पर नेटवर्क के वे न्यूरॉन्स भी कार्यशील हो गए थे। जैसे-जैसे शोधकर्ता बिल्कुल जीवित तंत्रों जैसा न्यूरल नेटवर्क बनाते जा रहे हैं, इसमें आश्चर्य नहीं कि उन्हें भी नींद की ज़रूरत पड़ती है। उम्मीद है कि परिष्कृत न्यूरल नेटवर्क हमें हमारी नींद और अन्य प्रणालियों को और भी बेहतर समझने में मदद करेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://live.staticflickr.com/65535/50694445983_e8be6800c4_o.jpg

नई लार ग्रंथियों की खोज – स्निग्धा दास

भी-कभी ऐसा होता है कि हम करने कुछ जाते हैं और करके कुछ और आते हैं। हाल ही में ऐसा ही कुछ नीदरलैंड्स के डॉक्टरों के साथ हुआ। प्रोस्टेट कैंसर में रेडिएशन द्वारा उपचार के दुष्प्रभाव का अध्ययन करने वाले इन डॉक्टरों ने एक नया अंग खोज निकाला है।

नीदरलैंड्स कैंसर इंस्टिट्यूट के रेडियो ऑन्कोलॉजी संकाय के डॉक्टरों ने हाल ही में एक जोड़ी नई लार ग्रंथियों की खोज का दावा किया है। चिकित्सा क्षेत्र में स्कैन सम्बंधी तकनीकों में लगातार उन्नति के चलते यह खोज संभव हुई। रेडियोलॉजिस्ट वूटर वी. वोगल एवं सर्जन मैथियास एस. वेलस्टर और उनके साथियों ने लार ग्रंथियों के इस नए जोड़े को नाक एवं गले के बीच नासाग्रसनी के पास स्थित पाया है। इन्हें ट्यूबेरियल लार ग्रंथि नाम दिया गया है।

सिर एवं गले के कैंसर में रेडिएशन उपचार के लार ग्रंथियों पर प्रभाव के अध्ययन के दौरान इन ग्रंथियों की उपस्थिति की पुष्टि की गई। इस खोज का विवरण जर्नल ऑफ रेडियोथेरेपी में प्रकाशित हुआ है। इससे यह संभावना बढ़ जाती है कि हमारे शरीर के अंदर कई और अंग होंगे जिनकी जानकारी हमें नहीं है।

लगभग चार सेंटीमीटर लंबी इन लार ग्रंथियों से म्यूकस का स्राव होता है। नासाग्रसनी व उसके आसपास के हिस्से का चिकनापन बनाए रखने, निगलने व खाने में इन ग्रंथियों की भूमिका है। यह बहुत महत्वपूर्ण खोज है क्योंकि इससे कैंसर के मरीज़ों के जीवन की गुणवत्ताा बढ़ाई जा सकती है।

हमारे मुंह में तीन जोड़ी बड़ी एवं हज़ारों छोटी लार ग्रंथियां हैं। लार में लगभग 98 प्रतिशत पानी, कुछ एंज़ाइम्स, इलेक्ट्रोलाइट आदि पाए जाते हैं। किसी व्यक्ति की लार ग्रंथियों के रेडिएशन से क्षतिग्रस्त होने पर मुंह में लार बनने की प्रक्रिया मंद पड़ जाती है। अत: मुंह सूख-सा जाता है। स्वाद अनुभव करने, पाचन, निगलने एवं बोलने की प्रक्रिया प्रभावित होती है एवं मुंह में संक्रमण की संभावना भी बढ़ जाती है।

शोधकर्ताओं ने सिर एवं गले के कैंसर के 723 मरीज़ों में रेडिएशन के प्रभावों का अध्ययन करने पर पाया कि ट्यूबेरियल लार ग्रंथियां क्षतिग्रस्त होने से मरीज़ों में मुंह सूख जाना, भोजन निगलने व बात करने में दिक्कत होना जैसे ही दुष्प्रभाव नज़र आते हैं। 100 मरीज़ों के स्कैन एवं दो शवों के विच्छेदन से इन अंगों की उपस्थिति की पुष्टि की गई है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/68068/aImg/40055/salivary-thumb-l.png

शोरगुल में साफ सुनने की तकनीक

वैसे तो हमारा मस्तिष्क काफी शोर भरे माहौल में भी किसी एक आवाज़ पर ध्यान केंद्रित कर सकता है, और उसे ठीक-ठीक सुन सकता है। लेकिन जब हमारे आसपास शोर ही शोर हो, या वृद्धावस्था हो, तो किसी एक आवाज़ को ठीक से सुन पाना मुश्किल हो जाता है। अब शोधकर्ताओं ने मशीन लर्निंग की मदद से इसका समाधान ढूंढ लिया है जिसे उन्होंने कोन ऑफ साइलेंस (खामोश शंकु) नाम दिया है।

कंप्यूटर विज्ञानियों ने मानव मस्तिष्क के समान संरचना वाले न्यूरल नेटवर्क को एक कमरे में कई लोगों द्वारा बोली जा रही आवाज़ों का स्रोत पता लगाने और उन आवाज़ों को अलग-अलग करने के लिए प्रशिक्षित किया। नेटवर्क ने यह इस आधार पर सीखा किकमरे के बीचों-बीच रखे गए कुछ माइक्रोफोन से कोई आवाज़ कितनी देर बाद टकराती है।

इस तरह प्रशिक्षित नेटवर्क को जब शोघकर्ताओं ने अत्यधिक शोर भरे माहौल में जांचा तो पाया गया कि नेटवर्क ने 3.7 डिग्री कोण वाले शंकुनुमा दायरे के भीतर आने वाली सिर्फ दो ही आवाज़ो को चिंहित किया और उन्हें ही सुनाना जारी रखा। इस तरह बाकी आवाज़ें बहुत मंद पड़ गर्इं, और वांछित आवाज़ ठीक से सुनाई पड़ी। शोधकर्ताओं द्वारा ये नतीजे न्यूरल इंफॉरमेशन प्रोसेसिंग सिस्टम पर हुए एक सम्मेलन में प्रस्तुत किए गए हैं।

भविष्य में इस तकनीक की श्रवण यंत्र, निरीक्षण प्रणाली, स्पीकरफोन, या लैपटॉप में उपयोग की जाने की संभावना है। यह तकनीक चलती-फिरती आवाज़ें भी पहचान कर उन्हें अलग कर सकती है, अत: यह पार्श्व में हो रहे शोर जैसे बाहर की आवाज़ें, बच्चों की आवाज़ें या अन्य शोर-शराबे को भी हटाकर सिर्फ वक्ता की आवाज़ सुना सकता है। इस तरह इसकी मदद से ज़ूम कॉल बेहतर किए सकते हैं। बहरहाल इस तकनीक को बाज़ार तक पहुंचने में अभी काफी पड़ाव पार करने बाकी हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/listen_1280p.jpg?itok=uPSfILuw