निमोनिया का बढ़ता प्रभाव और नाकाफी प्रयास – मनीष श्रीवास्तव

युनिसेफ की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार निमोनिया विश्व स्तर पर एक घातक बीमारी के रूप में उभर रही है। वर्ष 2018 में दुनिया भर में हर 39 सेकंड में एक बच्चे की निमोनिया से मौत हुई है। युनिसेफ के अनुसार 2018 में 8 लाख बच्चों की मौत निमोनिया से हुई। इस मामले में प्रथम स्थान पर नाइजीरिया (1,62,000 मृत्यु) के बाद दूसरे स्थान पर भारत (1,27,000 मत्यु) और तीसरे स्थान पर पाकिस्तान (58,000 मृत्यु) है। यहां बच्चों से आशय पांच साल से कम उम्र के बच्चों से है। निमोनिया से पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे सबसे ज़्यादा ग्रस्त हुए हैं। वर्ष 2018 में वैश्विक स्तर पर जन्म के पहले महीने में 1,53,000 बच्चों की मृत्यु हुई।

इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की असमय मौत चिंता का विषय है। भारत सरकार द्वारा स्वास्थ्य जागरूकता के कार्यक्रम चलाने तथा संसाधन उपलब्ध कराने के बावजूद, सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं के क्रियान्वयन में कहीं न कहीं बड़ी समस्या है जिसे जल्द से जल्द दूर करना ज़रूरी है।

युनिसेफ की उक्त रिपोर्ट में एक महत्वपूर्ण बात यह सामने आई है कि इतने भयावह आंकड़ों के बाद भी संक्रामक रोग अनुसंधान पर विभिन्न देश केवल तीन प्रतिशत ही खर्च करते हैं।

निमोनिया एक सांस सम्बंधी बीमारी है जो फेफड़ों को प्रभावित करती है। इसमें फेफड़ों के अल्वियोली (फेफड़ों में उपस्थित वायु प्रकोष्ठ) में मवाद व पानी भर जाता है जिससे सांस लेने में कठिनाई होने लगती है जो ऑक्सीजन की कमी का कारण बन जाती है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार कुछ कारण ऐसे हैं जिनकी पूर्ति न होने पर निमोनिया जैसी घातक बीमारी का प्रभाव बढ़ता जाता है:

  • साफ पेयजल का अभाव
  • पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल का अभाव
  • घरेलू और बाह्य वायु प्रदूषण 
  • कुपोषण

भारत के एक एनजीओ सेव दी चिल्ड्रन के अनुसार भारत में हर 4 मिनट में एक बच्चे की मौत निमोनिया की वजह से होती है। इसमें कुपोषण और प्रदूषण की बड़ी भूमिका है। बच्चों की निमोनिया से मौत में घर के अंदर के प्रदूषण की 22 प्रतिशत और बाह्य प्रदूषण की 27 प्रतिशत भूमिका है। इसलिए भारत में विविध राष्ट्रीय अभियान(जैसे – एमएए, यूआईपी, आईसीडीएस) के माध्यम से सामुदायिक कार्यकर्ता आशा/एएनएम/आंगनवाड़ी के द्वारा निमोनिया से बचाव, रोकथाम और उपचार को लेकर जागरूकता लाई जाती है।

कई बार बच्चों में नाक या गले में पाया जाने वाला वायरस सांस लेने के दौरान फेफड़ों में पहुंच जाता है। इससे निमोनिया होने की संभावना बढ़ जाती है। छींक या खांसी के साथ निकली बूंदों के माध्यम से भी यह रोग फैलता है। इसलिए इस रोग के मामले में बेहद सावधानी बरतने की आवश्यकता है। मौसम बदलने, फेफड़ों में चोट लगने से भी इस रोग की आशंका बढ़ जाती है। बच्चों में निमोनिया होने के संभावित लक्षण होते हैं कि उन्हें बुखार होने के साथ सांस लेने में कठिनाई महसूस होती है, वे ठीक से खाते-पीते नहीं है, उनमें बेहोशी और अकड़न महसूस होती है। 

ग्लोबल एक्शन प्लान के अंतर्गत कुछ उपाय सुझाए गए हैं जिनका पालन कर इस रोग से बच्चों को बचा जा सकता है।

  • छह माह तक स्तनपान 
  • पोषक आहार
  • स्वच्छ पेयजल
  • घरेलू वायु प्रदूषण न हो
  • हाथ साबुन से धोना

निमोनिया का टीका 2 साल से कम उम्र के बच्चों और 65 साल से ज़्यादा उम्र के बुज़ुर्गों को अवश्य लगवाना चाहिए। 2 साल से कम उम्र के बच्चों में निमोनिया की रोकथाम के लिए PCV13 टीका लगाया जाता है। यह करीब 13 तरह के निमोनिया से बचाता है और तीन साल तक असरदार होता है। वहीं अगर 2 साल से ज़्यादा उम्र के बच्चों में टीका लगाया जाता है तो PPSV23 लगता है। यह 23 तरह के निमोनिया से रक्षा करता है। 2 साल से बड़े बच्चों में सिर्फ खास परिस्थितियों में ही यह टीका लगाया जाता है। जैसे अगर बच्चे को कैंसर हो या लीवर या दिल की बीमारी वगैरह हो।

युनिसेफ ने रिपोर्ट में कहा है कि देश यह भूल गए हैं कि निमोनिया एक महामारी है। इसलिए युनिसेफ के साथ अन्य स्वास्थ्य और बाल संगठनों ने इस बीमारी के प्रति जागरूकता लाने के लिए वैश्विक कार्रवाई की अपील की है। सन 2020 के जनवरी माह में स्पेन में ‘ग्लोबल फोरम ऑन चाइल्डहुड निमोनिया’ विषय पर मंथन होगा, जिसमें दुनिया भर के प्रतिनिधि शामिल होंगे।

निमोनिया की रोकथाम और इसके प्रति जन जागरूकता लाने के लिए हर वर्ष 12 नवंबर को विश्व निमोनिया दिवस मनाया जाता है। वैश्विक संगठन, सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं तथा रिसर्च अकादमियों ने मिलकर इस दिन को विश्व निमोनिया दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत सन 2009 में की थी। इसमें यह लक्ष्य रखा गया था कि हर देश में इस दिन निमोनिया को लेकर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। लोगों को इसके उपचार और रोकथाम के उपाए बताए जाएंगे। सन 2013 में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन और युनिसेफ ने संयुक्त रूप से एक ग्लोबल एक्शन प्लान तैयार किया था जिसका लक्ष्य है कि सन 2025 तक प्रत्येक 1000 बच्चे के जन्म होने पर इस बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या तीन से कम की जा सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हम भाषा कैसे सीखते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

हम मनुष्यों ने अपने शरीर की जैविक विशेषताओं और उनकी कार्य-प्रणाली को समझने के लिए कई जंतुओं को मॉडल के तौर पर उपयोग किया है। जैसे फल मक्खी (ड्रॉसोफिला) का अध्ययन कई जीन्स की पहचान करने और यह जानने के लिए किया गया है कि उनमें होने वाले उत्परिवर्तनों के शारीरिक और जैव-रासायनिक प्रभाव क्या होते हैं। सेनोरेब्डाइटिस एलेगेन्स नामक एक पारदर्शी कृमि के कई जीन मनुष्यों के जीन की तरह कार्य करते हैं। चूहा, मूषक और खरगोश इनसे थोड़े उच्च स्तर के जानवर हैं, जिन पर अध्ययन करके शरीर की कार्य-प्रणाली को और बेहतर समझने मदद मिलती है। प्रयोगशाला में इन जानवरों को पालना भी आसान होता है। इसके अलावा एक फायदा यह होता है कि इनका जीवनकाल छोटा होता है जिसके चलते जन्म से लेकर युवावस्था, वृद्धावस्था और मृत्यु तक प्रत्येक चरण का अवलोकन छोटी-सी अवधि में किया जा सकता है।

लेकिन जब मस्तिष्क या तंत्रिका सम्बंधी कुछ कार्यों के बारे में जानने की बात आती है तब उपरोक्त मॉडल जंतु उतने बेहतर साबित नहीं होते। जैसे – हम कैसे बोलते हैं, गाते हैं या अन्य भाषाओं और शब्दों को बोलते और उनकी नकल करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने इन बातों को समझने के लिए हमारे करीबी चिम्पैंज़ी पर अध्ययन किए लेकिन ज़्यादा सफलता नहीं मिली। इसी तरह के एक अध्ययन में दो मनोवैज्ञानिकों सी. हेस और के. हेस ने एक मादा शिशु चिम्पैंज़ी (विकी) को गोद लिया और अपने बच्चे की तरह पाला और उसे इंसानी भाषा बोलना सिखाने की कोशिश की। लेकिन अफसोस कि विकी ‘मम्मा’, ‘पापा’, ‘अप’ और ‘कप’ बोलने की कोशिश करने के अलावा और कुछ नहीं बोल पाई। इस कोशिश के दौरान धीरे-धीरे जबड़ों और होंठों को आकार देकर बोलने की लाख कोशिश के बाद भी विकी इन शब्दों के अलावा और कुछ नहीं बोल पाई। इससे लगता है कि विकी अपने तंत्रिका तंत्र और शारीरिक संरचना के दम पर सिर्फ चिम्पैंज़ियों की ही आवाज़ निकाल सकती है, मनुष्य के बोलने की नकल नहीं कर सकती।

इसी तरह, एक अन्य वैज्ञानिक द्वय, गार्डनर दंपत्ति ने वाशो नामक चिम्पैंज़ी को अपने घर पर पाला। वाशो का प्रदर्शन विकी से इस मायने में थोड़ा बेहतर रहा कि वह एक विदेशी भाषा सीख सकी। यह विदेशी भाषा बोली जाने वाली भाषा नहीं बल्कि एक सांकेतिक भाषा थी – अमेरिकन साइन लैंग्वेज (ASL)। वाशो ने अधिकतम 250 ASL संकेत सीखे और इसी सांकेतिक भाषा में कुछ सवालों के जवाब भी दिए। इससे लगता है कि चिम्पैंज़ियों में बोलने सम्बंधी आवश्यक शारीरिक-संरचनात्मक ‘हार्डवेयर’ तो अनुपस्थित है लेकिन भाषा सीखने सम्बंधी ‘सॉफ्टवेयर’ कुछ हद तक मौजूद है। और हम मनुष्यों में इसके लिए उपयुक्त ‘हार्डवेयर’ और ‘सॉफ्टवेयर’ दोनों हैं।

जंतु मॉडल

लिहाज़ा, जंतुओं पर अध्ययन करके मनुष्य कैसे बोलते हैं, गाते हैं, विदेशी भाषा का उच्चारण करते और सीखते हैं, और इसी तरह की अन्य दिमागी गतिविधियों की कार्यप्रणाली को समझने के लिए हमें जैव विकास में और पीछे जाना होगा। हमें यह देखना होगा कि कौन-से अन्य जंतु इसी तरह की गतिविधियां करते हैं, उनके मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा इन गतिविधियों के लिए ज़िम्मेदार है, और मानव मस्तिष्क में इन समानताओं को पहचानना होगा। और इसके लिए सबसे बेहतर मॉडल जंतु हैं तोता, मैना, फिंच, हमिंगबर्ड जैसे गायक पक्षी (सॉन्गबर्ड)। हममें से कई लोग तोता पालते हैं और देखते हैं कि तोते ना सिर्फ स्वयं अपनी भाषा में शब्दों का उच्चारण करते, पुकारते या अपनी प्रजाति के गीत गाते हैं बल्कि वे हमारी भाषा के शब्दों और ध्वनियों की नकल करते हैं, दोहराते हैं और बात करने की भी कोशिश करते हैं। इससे लगता है कि पक्षियों के मस्तिष्क में एक ऐसा हिस्सा है जो उनमें ना सिर्फ उनकी अपनी प्रजातिगत भाषा (जो उन्हें अपने माता-पिता से वंशानुगत ढंग से मिलती है) बोलने-गाने की क्षमता विकसित करने के लिए ज़िम्मेदार है बल्कि अन्य भाषाओं की नकल करना सीखने के लिए भी ज़िम्मेदार है। इनसे हमें कुछ समझ और समांतर उदाहरण मिले हैं जो हमारे बोलने, गाना सीखने की क्षमता वगैरह पर प्रकाश डालते हैं।

इस संदर्भ में अमेरिकन साइंटिस्ट (1970:58:669-673) में प्रकाशित पीटर मार्लर का लेख पठनीय है (यह नेट पर उपलब्ध है)। बिल्ली हो या चिम्पैंज़ी, सभी जानवर अपनी प्रजाति की भाषा (जैसे घुरघुराना, इशारे) सीखने और सम्बंधित ध्वनियां उत्पन्न करने की निहित क्षमता रखते हैं, लेकिन सॉन्गबर्ड और मनुष्य अन्य भाषाएं बोलने और सीखने की क्षमता रखते हैं। सॉन्गबड्र्स लगभग पच्चीस करोड़ साल पहले अस्तित्व में आए थे जबकि मनुष्यों का पदार्पण 20-30 लाख साल पूर्व हुआ था। 

अन्य जानवरों की तरह, सॉन्गबर्ड भी अपनी भाषा प्रजाति के बड़े सदस्यों द्वारा उत्पन्न आवाज़ों की नकल करके सीखते हैं। इसके लिए वे अपनी आवाज़ को इस तरह परिवर्तित करते जाते हैं कि उनकी आवाज़ उन आवाज़ों से मेल खाए जो उन्होंने याद की हैं। नवजात सॉन्गबर्ड बड़बड़ाने जैसी आवाज़ें निकालते हैं, जो कुछ हफ्तों के बाद उनकी अपनी प्रजाति की भाषा में तब्दील हो जाती है। दूसरे शब्दों में, ये पक्षी-उपगीत आगे चलकर मुकम्मल पक्षी-गीत बन जाते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह मनुष्य का नवजात शिशु शुरुआत में कई तरह की आवाज़ें निकालता रहता है, जो आगे चलकर घर में बोली जाने वाली उसकी अपनी भाषा का रूप ले लेती हैं।

2005 में प्लॉस बायोलॉजी में एफ. नोटलबोम द्वारा प्रकाशित समीक्षा बताती है कि इसके पीछे मस्तिष्क के अलग-अलग स्पष्ट हिस्सों, जिन्हें नाभिक कहते हैं, का एक समूह होता है और उनको जोड़ने वाले तंत्रिका मार्ग होते हैं। इस पूरी व्यवस्था को गीत-तंत्र या गीत-नाभिक कहते हैं। हमिंगबर्ड (या तोते जैसे अन्य सॉन्गबर्ड) के मस्तिष्क में 7 अलग-अलग संरचनाएं होती हैं जो गाने के दौरान सक्रिय होती हैं। इससे पता चलता है कि ये संरचनाएं भौतिक व कार्यात्मक वाणी-नाभिक हैं। भाषा सीखने में सक्षम पक्षियों में उनके मस्तिष्क का अग्रभाग दो उप-पथों में बंटा हुआ लगता है: पहला, सीखी हुई आवाज़ें पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार क्रियाकारी हिस्सा और दूसरा एक लूप जो इन गीतों या आवाज़ों में परिवर्तन की गुंजाइश पैदा करता है। हमारे मस्तिष्क के अग्रभाग की संरचना भी इसी तरह की होती है।

इसी कड़ी में जापानी शोधकर्ता होंगदी वांग और उनके साथियों का एक दिलचस्प शोध पत्र प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने दो फिंच पक्षी, ज़ेब्राा फिंच (z) और ऑउल फिंच (o), के गीतों के पैटर्न और उनके गीत-नाभिक में अभिव्यक्त होने वाले जीन्स का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि दोनों प्रजातियों (z और o) के जीन के व्यवहार में लगभग 10 प्रतिशत अंतर था, जो उनके भिन्न प्रजाति गीत के लिए ज़िम्मेदार था। इसके बाद उन्होंने दोनों प्रजातियों के बीच प्रजनन करवा कर दो संकर प्रजातियां, zo और oz, विकसित कीं और उनके द्वारा गाए जाने वाले गीतों को रिकार्ड किया। उन्होंने पाया कि zo ने अपने माता-पिता दोनों की प्रजाति, ज़ेब्रा और आउल, के गीत गाए। इसी तरह oz ने भी दोनों प्रजातियों के गीत गाए। ऐसी अन्य प्रजातियों के बीच प्रजनन करवाकर इस बारे में बेहतर समझ बनाने में मदद मिल सकती है। लेकिन, मनुष्यों के साथ इस तरह के अध्ययन नहीं किए जा सकते। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सांसों का हिसाब – डॉ. सुशील जोशी

नोबेल पुरस्कार की एक खूबी यह है कि उनकी वजह से हम किसी विषय में हो रहे अनुसंधान के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इस वर्ष चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार इस अनुसंधान के लिए दिया गया है कि हमारा शरीर कोशिकाओं के स्तर पर ऑक्सीजन के उपयोग का नियमन कैसे करता है।

ऑक्सीजन वह गैस है जो आजकल के वायुमंडल में लगभग 20 प्रतिशत होती है और जंतुओं के लिए भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने में प्रमुख भूमिका निभाती है। वैसे इस बात की खोज अपने आप में महत्वपूर्ण थी कि ऑक्सीजन एक तत्व है और दहन व श्वसन में हवा का यही हिस्सा (ऑक्सीजन) भाग लेता है। श्वसन में ऑक्सीजन की भूमिका और ऑक्सीजन को एक तत्व के रूप में पहचानने का काम, काफी हिचकोलों के बाद, आज से करीब 200 साल पहले हुआ था। वह अपने-आप में एक रोचक कहानी है।

आगे चलकर यह स्पष्ट हुआ कि कार्बोहाइड्रेट व अन्य पदार्थों के साथ ऑक्सीजन की क्रिया से ऊर्जा उत्पन्न करने का काम कोशिकाओं में माइटोकॉन्ड्रिया नामक उपांग में होता है। दरअसल माइटोकॉन्ड्रिया में ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण से एक पदार्थ बनता है – एडीनोसीन ट्राईफॉस्फेट (एटीपी) और यही एटीपी शरीर के लिए ऊर्जा का स्रोत है। इसके बाद पता चला था कि ग्लूकोज़ से एटीपी निर्माण की इस क्रिया का नियंत्रण कुछ एंज़ाइमों द्वारा किया जाता है। इस खोज के लिए 1931 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

ऑक्सीजन जीवन के लिए निर्णायक महत्व रखती है। इसलिए जैव विकास की प्रक्रिया में शरीर में ऐसी व्यवस्था का निर्माण हुआ है कि शरीर के ऊतकों और कोशिकाओं को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे। गर्दन में जो बड़ी-बड़ी रक्तवाहिनियां होती हैं, उनके नज़दीक एक रचना होती है – कैरोटिड निकाय। इस कैरोटिड निकाय की कोशिकाओं में रक्त में ऑक्सीजन स्तर को भांपने की क्षमता होती है। इस निकाय की खोज के साथ ही यह नोबेल सम्मानित खोज भी हुई थी कि ऑक्सीजन स्तर को भांपकर मस्तिष्क के ज़रिए श्वसन दर का नियमन यही कैरोटिड निकाय करता है। यानी यदि रक्त में ऑक्सीजन की कमी हो रही है और आपकी सांसें तेज़ चलने लगती हैं तो आपको कैरोटिड निकाय का शुक्रिया अदा करना चाहिए।

कैरोटिड निकाय तो पल-पल में होने वाले ऑक्सीजन के उतार-चढ़ाव को संभालता है। लेकिन यह भी देखा गया है कि यदि लगातार ऑक्सीजन का अभाव बना रहे तो शरीर में कुछ कार्यिकीय परिवर्तन भी होते हैं जो ज़्यादा दूरगामी असर दिखाते हैं।

ऑक्सीजन की कमी के प्रति ऐसी ही एक प्रमुख कार्यिकीय प्रतिक्रिया यह होती है कि शरीर में एक हारमोन एरिथ्रोपोएटीन (संक्षेप में ईपीओ) की मात्रा बढ़ने लगती है। इस हारमोन का उत्पादन हमारे गुर्दों या किडनी द्वारा किया जाता है। यह आम जानकारी का विषय नहीं रहा है कि गुर्दे रक्त को छानने के अलावा कई सारे हारमोन्स का उत्पादन भी करते हैं। यदि गुर्दे ठीक से काम नहीं करते तो एरिथ्रोपोएटीन का उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है जो एक किस्म के एनीमिया को जन्म देता है जिसे रीनल एनीमिया कहते हैं। बढ़े हुए ईपीओ का असर यह होता कि हमारी अस्थि मज्जा ज़्यादा मात्रा में लाल रक्त कोशिकाएं बनाने लगती हैं। लाल रक्त कोशिकाएं ही ऑक्सीजन को शरीर की कोशिकाओं तक पहुंचाने का काम करती हैं। यानी यह पता चल गया कि ऑक्सीजन की कमी होने पर हारमोन के ज़रिए लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण का नियंत्रण होता है लेकिन यह गुत्थी बनी रही कि ऑक्सीजन इस प्रक्रिया का नियमन कैसे करती है।

यहीं पर इस साल के नोबेल विजेताओं की भूमिका शुरू होती है। इस संदर्भ में जॉन्स हॉपकिन्स चिकित्सा विश्वविद्यालय के ग्रेग सेमेन्ज़ा ने इस बात का अध्ययन किया कि ईपीओ संश्लेषण के लिए ज़िम्मेदार जीन (ईपीओ जीन) कैसे काम करता है और ऑक्सीजन का स्तर इसके कामकाज को कैसे प्रभावित करता है। उन्होंने इस अध्ययन के लिए ऐसे चूहों का उपयोग किया जिनके जीन्स में फेरबदल किया गया था। इन अध्ययनों से पता चला कि ईपीओ जीन के नज़दीक के डीएनए खंड ऑक्सीजन-अभाव के प्रति संवेदी होते हैं और ईपीओ जीन पर असर इन खंडों के माध्यम से होता है।

इसी दौरान पीटर रैटक्लिफ भी ईपीओ जीन की ऑक्सीजन-निर्भरता का अध्ययन कर रहे थे। रैटक्लिफ एक गुर्दा विशेषज्ञ हैं और अपना अध्ययन उन्होंने ऑक्सफोर्ड के जॉन रैडक्लिफ अस्पताल तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के नफील्ड डिपार्टमेंट ऑफ क्लीनिकल मेडिसिन में किया था।

सेमेन्ज़ा और रैटक्लिफ दोनों ने पाया कि यह सही है कि सामान्यत: ईपीओ हारमोन गुर्दों में बनता है लेकिन ऑक्सीजन का स्तर भांपने की क्रियाविधि सिर्फ गुर्दों की कोशिकाओं में नहीं बल्कि लगभग सारे ऊतकों में पाई जाती है और कोशिकाओं की कई किस्मों में क्रियाशील होती है।

सेमेन्ज़ा चाहते थे कि यह समझ पाएं कि ऑक्सीजन के प्रति इस प्रतिक्रिया में कोशिका के कौन-से घटक शामिल हैं। लिहाज़ा उन्होंने कुछ लीवर कोशिकाओं को प्रयोगशाला में संवर्धित करके अध्ययन किया। उन्होंने एक प्रोटीन-संकुल खोज निकाला, जो ईपीओ के नज़दीक वाले डीएनए खंड के साथ ऑक्सीजन-निर्भर ढंग से जुड़ता है। यानी इस प्रोटीन संकुल का डीएनए से जुड़ना इस बात पर निर्भर करता है कि कोशिका में ऑक्सीजन का स्तर क्या है। सेमेन्ज़ा ने इस प्रोटीन-संकुल को एकदम उपयुक्त नाम दिया – हायपॉक्सिया-इंडयूसिबल फैक्टर यानी ऑक्सीजन-अभाव से प्रेरित कारक (एच.आई.एफ.)। सेमेन्ज़ा ने यह भी पता किया कि एच.आई.एफ. दरअसल दो ऐसे प्रोटीन से मिलकर बना है जो डीएनए से जुड़ते हैं – इनमें से एक को एच.आई.एफ.-1 अल्फा कहा गया जबकि दूसरे का नाम थोड़ा मुश्किल है – एराइल हाइड्रोकार्बन रिसेप्टर न्यूक्लियर ट्रांसलोकेटर। इसलिए इसका संक्षिप्त नाम ही मशहूर है – ए.आर.एन.टी.। तो स्पष्ट हुआ कि एच.आई.एफ.-1 अल्फा और ए.आर.एन.टी. का संकुल डीएनए से जुड़कर ईपीओ जीन को प्रभावित करता है और इस संकुल का डीएनए से जुड़ना ऑक्सीजन के स्तर पर निर्भर होता है।

इतना कुछ हो जाने के बाद यह समझने की शुरुआत हुई कि यह गोरखधंधा चलता कैसे है। इस संदर्भ में सबसे पहले तो यह पता चला कि जब ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में होती है तो कोशिकाओं में एच.आई.एफ. की मात्रा बहुत कम होती है। लेकिन जैसे ही ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है कोशिकाओं में एच.आई.एफ. की मात्रा बढ़ने लगती है। ऐसा होने पर यह डीएनए के खंड से जुड़ जाता है और ईपीओ जीन सक्रिय हो जाता है।

कई सारे शोध समूहों ने यह दर्शाया है कि सामान्य परिस्थिति कोशिकाओं में एच.आई.एफ. का विघटन काफी तेज़ी से होता है लेकिन ऑक्सीजन का अभाव हो तो किसी तरह से इसकी सुरक्षा की जाती है और यह कोशिका में काफी मात्रा में इकट्ठा हो जाता है। ऑक्सीजन का स्तर सामान्य हो तो एच.आई.एफ.-1 अल्फा को नष्ट करने का काम प्रोटिएसोम नामक मशीनरी द्वारा किया जाता है। होता यह है कि एक छोटा पेप्टाइड अणु (युबिक्विटीन) एच.आई.एफ.-1 अल्फा से जुड़ जाता है। युबिक्विटीन का काम ही यह है कि किसी प्रोटीन को विघटन के लिए चिंहित करना। तो प्रमुख सवाल यह हो गया कि युबिक्विटिन कब व कैसे एच.आई.एफ.-1 अल्फा से जुड़कर उसे विघटन के लिए चिंहित करता है।

इस सवाल का जवाब एक अनपेक्षित रुाोत से मिला। जहां सेमेन्ज़ा और रैटक्लिफ ईपीओ जीन की क्रिया के नियंत्रण की क्रियाविधि पर शोध कर रहे थे, वहीं विलियम काएलिन जूनियर एक सर्वथा अलग समस्या पर अनुसंधान में भिड़े थे – वॉन हिप्पेल-लिंडाओ (वीएचएल) रोग। यह एक आनुवंशिक रोग है जिसमें वीएचएल जीन में उत्परिवर्तन की वजह से कुछ किस्म के कैंसर का खतरा बहुत बढ़ जाता है। यह रोग परिवारों में चलता है। काएलिन ने दर्शाया कि सामान्य वीएचएल जीन एक प्रोटीन का कोड है, और इसके द्वारा बनाया गया प्रोटीन कैंसर को रोकता है। काएलिन ने यह भी स्पष्ट किया कि जिन लोगों में क्रियाशील वीएचएल जीन नहीं होता उनमें ऑक्सीजन के अभाव से नियंत्रित जीन्स बहुत अधिक मात्रा में अभिव्यक्त होते हैं। यानी ये वे जीन्स हैं जिनकी सक्रियता ऑक्सीजन की कमी होने पर बढ़ती है। उन्होंने यह देखा कि यदि इन कैंसर कोशिकाओं में सामान्य वीएचएल जीन प्रविष्ट करा दिया जाए, तो उक्त जीन्स की अभिव्यक्ति भी सामान्य स्तर पर आ जाती है।

इस खोज से लगा कि शायद वीएचएल जीन ऑक्सीजन के अभाव के प्रति कोशिकाओं की प्रतिक्रिया में शामिल है। आगे अन्य समूहों द्वारा किए गए अनुसंधान कार्य से पता चला कि वीएचएल वास्तव में युबिक्विटिन के साथ एक संकुल का हिस्सा होता है और यह संकुल किसी भी प्रोटीन को विघटन के लिए चिंहित करने का काम करता है। इस समय रैटक्लिफ ने यह महत्वपूर्ण खोज की कि वीएचएल वास्तव में एच.आई.एफ.-1 अल्फा के साथ भौतिक रूप से जुड़ता है और ऑक्सीजन के सामान्य स्तर पर आई.एच.एफ. के विघटन के लिए ज़रूरी होता है। यानी बात यह बनी कि वीएचएल और एच.आई.एफ. मिलकर काम करते हैं। ऑक्सीजन का स्तर सामान्य हो तो वीएचएल एच.आई.एफ. का विघटन करवा देता है। तब एच.आई.एफ.-ए.आर.एन.टी. संकुल डीएनए खंड से जुड़कर ईपीओ जीन को सक्रिय नहीं कर पाता।

अब शेष क्रियाविधि तो स्पष्ट हो चुकी थी मगर अभी भी यह देखना शेष था कि ऑक्सीजन की मात्रा द्वारा वीएचएल और एच.आई.एफ.-1 अल्फा की परस्पर क्रिया का नियंत्रण कैसे किया जाता है।

इस तलाश में मुख्य फोकस एच.आई.एफ.-1 अल्फा प्रोटीन के एक विशेष खंड पर रहा। यह खंड वीएचएल के ज़रिए विघटन के लिए ज़रूरी लगता था। रैटक्लिफ और काएलिन दोनों को लगता था कि ऑक्सीजन का संवेदी हिस्सा इसी प्रोटीन में कहीं है। उन्होंने पाया कि ऑक्सीजन के सामान्य स्तर पर एच.आई.एफ.-1 अल्फा के दो विशिष्ट स्थानों पर हायड्रॉक्सिल समूह जुड़ जाते हैं। प्रोटीन में इस परिवर्तन का परिणाम यह होता है कि वीएचएल अब एच.आई.एफ.-1 अल्फा को पहचानकर उससे जुड़ जाता है। जब वीएचएल जुड़ जाता है तो एच.आई.एफ. अणु विघटन के लिए चिंहित हो गया, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है। अर्थात ऑक्सीजन का सामान्य स्तर एच.आई.एफ. के विघटन के लिए ज़रूरी है। ऑक्सीजन कम हुई और इसका विघटन रुक जाता है, कोशिका में इसकी मात्रा बढ़ने लगती है, वह जाकर डीएनए के उपयुक्त खंडों से जुड़कर ईपीओ जीन को सक्रिय कर देता है।

तो इस तरह खुलासा हुआ कि कोशिकाएं ऑक्सीजन का स्तर भांपकर कैसे ऑक्सीजन के अभाव हेतु खुद को तैयार करती हैं। जैसे कड़ी मेहनत या भारी व्यायाम के समय मांसपेशियों में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है तो वे कुछ समय के लिए अपना ढर्रा बदल देती हैं। यह भी देखा गया है कि यही प्रक्रिया नई रक्त नलिकाओं तथा अतिरिक्त मात्रा में लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण में भी काम आती है। भ्रूण के विकास में भी ऑक्सीजन स्तर भांपने की क्रिया महत्वपूर्ण पाई गई है। कैंसर कोशिकाएं इसी प्रक्रिया का लाभ उठाकर खुद के लिए रक्त नलिकाओं का निर्माण करती हैं। इस विषय में काफी उत्साह से शोध किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या पढ़ने की गति बढ़ाना संभव है?

आज के समय में, जब किताबों के अलावा अन्य स्रोतों जैसे इंटरनेट, ऐप्स वगैरह पर पढ़ने के लिए काफी सामग्री उपलब्ध है तब लोगों के पास पढ़ने के लिए पर्याप्त वक्त ही नहीं है। ऐसे में यदि आपके पढ़ने की गति बढ़ जाए तो क्या कहने। इसी इच्छा को पूरा करने का दावा कई कोचिंग क्लास, कोर्स, किताबें और ऐप्स कर रहे हैं। इनका दावा है कि वे आपके पढ़ने की गति बढ़ा सकते हैं। तेज़ गति से पढ़ने का मतलब है – पढ़ने की सामान्य गति की तुलना में कम से कम तीन गुना अधिक गति से, सही समझ के साथ पढ़ना। 

लेकिन इस मामले में, युनिवर्सिटी ऑफ साउथ फ्लोरिडा की संज्ञान विज्ञानी एलिज़ाबेथ शॉटर का कहना है कि वास्तव में पढ़ने की गति इतनी बढ़ाना संभव नहीं है। वे बताती हैं कि पढ़ना एक जटिल कार्य है जिसमें मस्तिष्क की कई कार्य-प्रणालियों के बीच तालमेल की आवश्यकता होती है। पढ़ने के लिए आंखें पहले शब्द देखती हैं; फिर उस शब्द का अर्थ और उससे जुड़ी अन्य जानकारियां निकाली जाती हैं; फिर वाक्य के साथ और व्यापक संदर्भ में उस शब्द का अर्थ जोड़ा जाता है; और इसके बाद तय किया जाता है आंखें अब कहां देखेंगी। पढ़ने में कभी-कभी पीछे जाकर दोबारा पढ़ने की भी ज़रूरत पड़ती है। यह सब काफी तेज़ गति से होता है। एक अच्छा पढ़ने वाला व्यक्ति प्रति मिनट 200 से 300 शब्द पढ़ सकता है।

असल में 1959 में एवलिन वुड्स ने एक रीडिंग डाएनामिक्स प्रोग्राम शुरू किया था जिसके अनुसार एक बार में पूरा पैराग्राफ को पढ़ने के लिए स्वयं को प्रशिक्षित कर, पढ़ने की गति को बढ़ाया जा सकता है। उस वक्त उनका यह प्रोग्राम इतना लोकप्रिय हुआ था कि राष्ट्रपति कैनेडी, निक्सन और कार्टर ने अपने स्टाफ को यह कोर्स करने के लिए भेजा था। और तब से अब तक कई किताबें, क्लास, कोर्स, ऐप्स वगैरह अलग-अलग तरीकों से पढ़ने की गति बढ़ाने की पेशकश करते हैं।

लेकिन कई अध्ययन यह बताते हैं कि आंखें पूरे दृश्य क्षेत्र के कुछ हिस्से को ही स्पष्ट देखती हैं। जिसके कारण एक बार में पूरा पैराग्राफ देखना और पढ़ पाना असंभव है। पढ़ने की समझ शब्दों को पहचानने की क्षमता है, इसलिए आंखों को तेज़ी से पाठ पर फेरने से पढ़ने की गति बढ़ाने मदद नहीं मिलेगी। इसके अलावा पढ़ने के लिए शब्दों को एक क्रम में देखने की ज़रूरत होती है इसलिए बेतरतीब देखने से पढ़ने की गुणवत्ता में कमी ही आएगी।

पढ़ने की गति बढ़ाने के एक अन्य तरीके में सिखाया जाता है कि पढ़ते समय आने वाली अपनी खुद की आवाज़ को दबा देना चाहिए ताकि वह आपके पढ़ने की गति को धीमा ना करे। लेकिन शोध कहते हैं कि आवाज़ को दबाने से जो आप जो पढ़ रहे हैं उसे समझने में मुश्किल होती है।

एक अन्य तरीके में, एक ऐप की मदद से निश्चित गति से एक के बाद एक शब्द दिखाए जाते हैं। इससे आंखें एक बार में एक शब्द पर ही केंद्रित होती हैं। लेकिन इस तरीके के साथ समस्या यह है कि कई बार आपको कोई शब्द या वाक्य दोबारा पढ़ने की ज़रूरत होती है।

शॉटर का कहना है कि सभी के पढ़ने की गति अलग-अलग होती है। कई कारणों से कुछ लोगों के पढ़ने की गति ज़्यादा तेज़ होती है। मगर पढ़ने की गति तिगुनी करने या प्रति मिनट 15,000 शब्द पढ़ने के दावे संदेहपूर्ण हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वॉम्बेट की विष्ठा घनाकार क्यों होती है? -डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

नोबेल पुरस्कारों की घोषणा के बाद हर बार की तरह इस बार के इगनोबेल पुरस्कार की भी घोषणा की गई। 1991 से हर वर्ष इगनोबेल पुरस्कार भी उन वैज्ञानिकों को दिए जाते हैं जिनकी खोज पहले तो सबको हंसाती है और फिर गंभीर चिंतन करने पर विवश करती है। इस वर्ष तस्मानिया में कार्यरत ऑस्ट्रेलिया के शोधार्थी को इस खोज के लिए पुरस्कृत किया गया कि वॉम्बेट नामक जंतु की विष्ठा घनाकार (क्यूब) क्यों होती है। पुरस्कार प्राप्त करने वाली पैट्रेशिया यंग और 5 साथियों को यह पुरस्कार भौतिकी में प्राप्त हुआ।

विश्व के अनेक वैज्ञानिक जंतुओं की विष्ठा पर शोध करके आंकड़े बटोरते हैं। उदाहरण के लिए कई बार वैज्ञानिकों को डायनासौर्स की विष्ठा (कोप्रेलाइट) के 6 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्म प्राप्त होते हैं। विष्ठा का बारीकी से अध्ययन करके यह बताया जा सकता है कि वे मांसाहारी थे या शाकाहारी या सर्वाहारी थे और भोजन में क्या खाते थे – फल-फूल खाते थे, घास खाते थे या छाल खाते थे।

हाल ही में विष्ठा पर शोध के लिए ‘इन विट्रो’ एवं ‘इन विवो’ की तर्ज़ पर एक नया शब्द गढ़ा गया है: ‘इन-फिमो’। जब शोध टेस्ट ट्यूब, बीकर या पेट्री डिश जैसे कांच के बर्तन में होता है तो उसे ‘इन विट्रो’ कहते हैं और जब प्रयोग जीवित प्राणी में होता है तो ‘इन विवो’। ‘फिमो’ शब्द लेटिन भाषा के शब्द ‘फिमस’ से लिया गया है जिसका मतलब ‘गोबर’ है।

विष्ठा की बातें करना अधिकांश लोगों को बेकार लग सकता है। कुछ एक बीमारी के प्रकरणों में तो डॉक्टर ने भी आपसे मल के नमूने एकत्रित कर प्रयोगशाला में टेस्ट करने भेजे ही होंगे। इसलिए कुछ वैज्ञानिकों के लिए विष्ठा या मल से प्राप्त आंकड़े सोने की खदान हो सकते हैं।

पैट्रेशिया यंग अटलांटिक जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में जानवरों में तरल पदार्थ यांत्रिकी का अध्ययन करती हैं। वे उन वैज्ञानिकों में से नहीं है जो झक सफेद एप्रन पहनकर साफ-सुथरी प्रयोगशाला में काम करते हैं। वे चिड़ियाघर पहुंचकर वॉम्बेट को घनाकार विष्ठा करते देखना चाहती थीं और वे देखते ही तुरंत ही समझ गई कि इस प्राणी की आंत में तरल यांत्रिकी की कोई परेशानी है जिसे वह अध्ययन कर बता सकती हैं।

यंग ने इससे पहले शरीर के अनेक तरल पदार्थों जैसे लिम्फ, रक्त, मूत्र और विष्ठा पर अध्ययन किया है। पर वॉम्बेट की विष्ठा के घनाकार आकार से वे आश्चर्य चकित थी। विष्ठा दो मुख्य आकृतियों में त्यागी जाती है। पहले समूह में वे जंतु आते हैं जिनमें बेलनाकार विष्ठा त्यागी जाती है। इस समूह में मानव, कुत्ते एवं बिल्ली परिवार हैं। एक दूसरा समूह हिरण, बकरी तथा खरगोश का है जिनमें विष्ठा गोल आकार (मिंगनी) की होती हैं। वॉम्बेट में हमें तीसरा आकार – घन – देखने को मिलता है।

कौन है वॉम्बेट?

ये ऑस्ट्रेलिया के चार पैर वाले नाटे कद के तगड़े भालू जैसे दिखने वाले मार्सुपियल्स हैं (जिनके बच्चे पैदा होने के बाद कुछ अवधि के लिए पेट पर स्थिति एक थैली में विकसित होते हैं)। सिर के अगले सिरे से लेकर पूंछ तक की लंबाई 1 मीटर के करीब होती है। कुतरने वाले जंतुओं जैसे सामने के बड़े दांत और शक्तिशाली पंजों से ये जमीन में बहुत फैली हुई सुरंग जैसा बिल बनाते हैं। निशाचर होने के कारण ये जंगलों में अक्सर दिखते तो नहीं है परंतु इनकी विष्ठा को पहचानकर इनकी मौजूदगी का आभास हो जाता है। ये शाकाहारी जंतु हैं और पत्तियां, घास, जड़ें तथा छाल खाते हैं। इनके जबड़ों में केनाइन दांत अनुपस्थित रहते हैं तथा ये अन्य घास खाने वाले जंतुओं की तरह जुगाली भी करते हैं।

मादा वॉम्बेट प्रजनन काल में केवल एक बच्चे को जन्म देती है। मात्र 21 दिनों तक बच्चादानी में पलकर बच्चे अविकसित अवस्था में ही शरीर से बाहर निकल आते हैं पर मादा उन्हें बाकी के सात महीने पेट से लगी थैली में रखकर पालती है। वहीं ये वॉम्बेट मां का दूध चाटकर बड़े होते हैं।

विचित्र विष्ठा

विष्ठा पर शोध करने वाली यंग को तुरंत समझ आ गया कि शरीर की बनावट एवं कार्यिकी के आधार पर घनाकार विष्ठा सही नहीं है और अत्यंत दुर्लभ मामला है। समुद्री घोड़ा (सी हार्स नामक मछली) की दुम के अलावा जंतुओं में वर्गाकार या घनाकार संरचना देखने को ही नहीं मिलती है। सूर्य, पृथ्वी, चंद्रमा और अन्य ग्रह भी गोलाकार ही हैं। आखिरकार पहेली को सुलझाने के लिए दुर्घटना में मरे दो वॉम्बेट की आंत निकालकर यंग के पास भेजी गईं। वॉम्बेट की आंत सभी शाकाहारी जानवरों के समान ही लंबी थी। 19 फीट लंबी आंत का अंतिम 5 फीट का आकार असामान्य रूप से बेलनाकार ना होकर घनाभ था। अमाशय से लुगदी के समान भोजन जब आंत में आता था तो लसलसा व नरम गूंथे हुए आटे के समान होता है और अंतिम 5 फीट में पहुंचने से पूर्व भी वह नरम एवं बेलनाकार ही होता है। परंतु अन्तिम पांच फीट में आंत इस विष्ठा को 2न्2 सेंटीमीटर के घन में बदल देती है।

सवाल था कि आंत कैसे इन घनों को कम घर्षण करते हुए शरीर से त्यागती है और अगर विष्ठा को निकालने वाला बल एक समान रूप से न लगे तो क्या होगा? प्रश्नों के उत्तर के लिए वैज्ञानिकों ने एक जुगत लगाई। उन्होंने वॉम्बेट के आंत के आकार जैसा एक गुब्बारा लिया और आंत के अन्दर फिट कर दिया। आंत के घन बनाने वाले हिस्सों पर निशान बनाए गए। हवा भरने पर गुब्बारे ने वही आकार लिया जो आंत की दीवारों का था। अब यह देखा गया कि विष्ठा आगे बढ़ने के दौरान पूरी आंत एक जैसी है या नहीं। वैज्ञानिकों ने पाया कि आंत के अंतिम 5 फीट की लंबाई में सारे ऊतक एक जैसे नहीं है। आंत में कुछ हिस्सा नरम है तो कुछ कठोर है और खिंचता नहीं है। जब आंत विष्ठा को मल द्वार की ओर भेजने के लिए सिकुड़ती है तो पूरी लंबाई में समान रूप से कार्य नहीं कर पाती है। आंत के कुछ भाग में विष्ठा को आगे बढ़ा दिया जाता है और कुछ में नहीं। इससे किनारों वाले टुकड़े घनाकार बनते हैं।

क्यों वॉम्बेट घनाकार विष्ठा बनाते हैं? इसका सबसे प्रचलित कारण यह माना जाता है कि इससे वे अपने अधिकार क्षेत्र (इलाके) की निशानदेही कर सकते हैं। घनाकार विष्ठा लुढ़केगी भी नहीं और लंबे समय तक गंध के ज़रिए अधिकार क्षेत्र का विज्ञापन भी करती रहेगी। किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। यद्यपि विष्ठा की गंध अधिकार क्षेत्र को जताती है पर जहां-जहां वॉम्बेट अपना जीवन व्यतीत करते हैं वह सूखा क्षेत्र होता है। आंत का आखरी भाग हमेशा भोजन से पानी की हर बूंद को सोखकर शरीर में पानी की कमी को पूरा करने की कोशिश करता है। चिड़ियाघर में जहां इन्हें भरपूर पानी मिलता है घनाकार विष्ठा के किनारे अक्सर गोलाकार होने लगते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नया डॉन ट्यूमर को भूखा मार देता है

ट्यूमर ऊतक असामान्य कोशिकाओं का समूह होता है। ये कोशिकाएं खाऊ होती हैं और पोषक तत्वों को निगलकर विकसित होती रहती हैं। कई वर्षों से शोधकर्ता ऐसी दवा विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं जिससे इन कोशिकाओं की भोजन की आपूर्ति को बंद किया जा सके। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार एक असफल कैंसर दवा का एक अद्यतन संस्करण न केवल ट्यूमर को आवश्यक पोषक तत्वों के उपयोग से रोकता है बल्कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं को भी प्रेरित करता है कि वे ट्यूमर को खत्म कर दें।    

कैंसर कोशिकाएं जीवित रहने और विभाजन के लिए न सिर्फ ज़रूरी अणु सोखती हैं, अपने खाऊ व्यवहार के चलते वे आसपास के परिवेश को अम्लीय और ऑक्सीजन-विहीन कर देती हैं। इसके चलते प्रतिरक्षा कोशिकाएं ठप पड़ जाती हैं और ट्यूमर को बढ़ने से रोकने में असफल रहती हैं। ट्यूमर को प्रचुर मात्रा में ग्लूटामाइन नामक एमिनो एसिड की आवश्यकता होती है जो डीएनए, प्रोटीन और लिपिड जैसे अणुओं के निर्माण के लिए ज़रूरी होता है।     

1950 के दशक में शोधकर्ताओं ने ट्यूमर की ग्लूटामाइन निर्भरता को उसी के खिलाफ तैनात करने की कोशिश की थी जिसके बाद इसके चयापचय को अवरुद्ध करने वाली दवा का विकास हुआ। उदाहरण के लिए बैक्टीरिया से उत्पन्न एक यौगिक (DON) कई ऐसे एंज़ाइम्स की क्रिया को रोक देता है जो कैंसर कोशिकाओं को ग्लूटामाइन का उपयोग करने में समर्थ बनाते हैं। परीक्षण के दौरान मितली और उलटी की गंभीर समस्या के कारण इसे मंज़ूरी नहीं मिल सकी थी।  

पॉवेल और उनकी टीम ने अब DON का एक ऐसा संस्करण तैयार किया है जो पेट के लिए हानिकारक नहीं है। इसमें दो ऐसे रासायनिक समूहों को जोड़ा गया है जो ट्यूमर के नज़दीक पहुंचने तक इसे निष्क्रिय रखते हैं। जब यह ट्यूमर के पास पहुंचता है तो वहां उपस्थित एंज़ाइम इन आणविक बेड़ियों को हटा देते हैं और दवा कैंसर कोशिकाओं पर हमला कर देती है।   

इस नई दवा का परीक्षण करने के लिए पॉवेल और उनकी टीम ने चूहों में चार प्रकार की कैंसर कोशिकाएं इंजेक्ट कीं। इसके बाद उन्होंने कुछ चूहों को नव विकसित DON का डोज़ दिया। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस दवा ने चारों ट्यूमर के विरुद्ध कार्य किया। जिन चूहों को यह उपचार नहीं दिया गया था उनका ट्यूमर 3 सप्ताह में लगभग 5 गुना बढ़ गया जबकि DON उपचारित चूहों में ट्यूमर सिकुड़ता हुआ धीरे-धीरे खत्म हो गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि यह दवा न केवल ग्लूटामाइन चयापचय को कम करती है बल्कि कोशिकाओं की ग्लूकोज़ के उपयोग करने की क्षमता को भी बाधित करती है। 

कैंसर औषधियों की एक बड़ी समस्या यह होती है कि ये प्रतिरक्षा कोशिकाओं तथा अन्य सामान्य कोशिकाओं को भी प्रभावित कर सकती हैं। लेकिन DON का नया संस्करण कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने के साथ-साथ प्रतिरक्षा तंत्र की टी-कोशिकाओं को उग्र भी बनाता है। DON द्वारा ग्लूटामाइन से वंचित टी-कोशिकाएं डीएनए और अन्य प्रमुख अणुओं को संश्लेषित करने के लिए वैकल्पिक रुाोत खोज लेती हैं जबकि ट्यूमर कोशिकाएं ऐसा नहीं कर पातीं।

पॉवेल का ऐसा मानना है कि जब इसका परीक्षण इंसानों पर किया जाएगा तब हम कुछ बेहतर भविष्य की उम्मीद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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दो अरब लोग दृष्टि की दिक्कतों से पीड़ित हैं

विश्व दृष्टि दिवस के मौके पर आई विश्व स्वास्थ संगठन (WHO) की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया भर में कम से कम 2.2 अरब लोग दृष्टि सम्बंधी समस्याओं से पीड़ित हैं। और इनमें से तकरीबन एक अरब लोग दृष्टि सम्बंधी ऐसी दिक्कतों (जैसे ग्लोकोमा, मोतियाबिंद, निकट और दूर-दृष्टिदोष) से पीड़ित हैं जिनसे या तो बचा जा सकता है, या चश्मा लगाकर, मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाकर या अन्य तरीकों से जिन्हें ठीक किया जा सकता है।

रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं तथा कुछ अन्य आबादियों में दृष्टि सम्बंधी समस्याएं अधिक हैं। जैसे ग्रामीण इलाकों, वृद्धों, विकलांगों और निम्न और मध्यम आय वाले देशों में। रिपोर्ट के मुताबिक

  • निम्न और मध्यम आय वाले इलाकों में दूरदृष्टि दोष की समस्या उच्च आय वाले इलाकों से चार गुना अधिक हैं।
  • उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया के गरीब इलाकों के लोगों में अंधेपन की समस्या उच्च आमदनी वाले देशों से आठ गुना अधिक है।
  • मोतियाबिंद और बैक्टीरिया संक्रमण की समस्या निम्न और मध्यम आय वाले देशों की महिलाओं में अधिक हैं। यह अंधत्व का प्रमुख कारण है।
  • शहरी जीवन शैली में निकट-दृष्टि (मायोपिया यानी दूर का देखने में समस्या) अधिक दिखाई देती है।

रिपोर्ट दृष्टिदोष बढ़ने के कारणों के बारे में भी बात करती है। रिपोर्ट के अनुसार अक्सर राष्ट्रीय रोकथाम नीतियां और अन्य नेत्र सुरक्षा योजनाएं उन समस्याओं पर केन्द्रित होती हैं जिनके कारण अंधापन या गंभीर दृष्टि दोष हो सकते हैं, जैसे मोतियाबिंद, रोहे और अपवर्तन दोष। लेकिन जो समस्याएं गंभीर दृष्टि समस्याओं में तब्दील नहीं होतीं वे उपेक्षित ही रही हैं (जैसे आंखों में सूखापन, आंख आना) जबकि इन्हीं समस्याओं से बचाव और उपचार की लोगों को अधिक आवश्यकता पड़ती है। इसके अलावा –

  • अधिक समय कमरे या सीमित जगह में बिताने से या नज़दीक से देखने वाले कार्य करने से मायोपिया (निकट दृष्टि) की समस्या बढ़ी है। सुझाव है कि बाहर या खुले में समय बिताने से मायोपिया होने की संभावना को कम किया जा सकता है।
  • लोगों में बढ़ता मधुमेह खास (तौर से टाइप-2) दृष्टि सम्बंधी समस्याओं को जन्म देता है। मधुमेह से पीड़ित मरीज़ को कभी ना कभी किसी ना किसी स्तर की रेटिना विकृति की समस्या का सामना करना पड़ता है। आंखों की नियमित जांच और मधुमेह पर नियंत्रण से इसे कम किया जा सकता है।
  • कमज़ोर और घटिया स्वास्थ्य सेवाओं के कारण कई लोग आंखों की नियमित जांच से वंचित रह जाते हैं। इसलिए समस्या देर से पता चलती है और रोकथाम व उपचार मुश्किल हो जाते हैं।

संभावना है कि आने वाले वर्षों में विश्व की आबादी की उम्र बढ़ने के साथ, तथा अधिक लोगों के शहरों की ओर पलायन के साथ उपेक्षित दृष्टि समस्याओं की संख्या में भी वृद्धि होगी।

इस सम्बंध में रिपोर्ट सिफारिश करती है कि दृष्टि सम्बंधी देखभाल को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक उपेक्षित दृष्टि दोषों से बचाव या उपचार में तकरीबन 1400 अरब रुपए से अधिक निवेश की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)

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नाभिकीय उर्जा को ज़िन्दा रखने के प्रयास – एस. अनंतनारायण

1970 के दशक में, तेल संकट की शुरुआत से ही दुनिया भर में नाभिकीय उर्जा संयंत्रों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई। साथ ही पवन और सौर उर्जा को भी जीवाश्म र्इंधन के विकल्प के रूप में देखा गया। इन सभी रुाोतों ने बिजली पैदा करने के लिए कम कार्बन उत्सर्जन का आश्वासन भी दिया।

वाशिंगटन के जेफ जॉनसन ने अमेरिकन केमिकल सोसाइटी की पत्रिका केमिकल एंड इंजीनियरिंग न्यूज़ में प्रकाशित अपने लेख में इन गैर-जीवाश्म र्इंधन आधारित संसाधनों की धीमी वृद्धि और कोयले एवं तेल पर हमारी निर्भरता को तेज़ी से कम करने के लिए विशेष उपाय करने की ज़रूरत की ओर ध्यान आकर्षित किया है। जेफ जॉनसन, पेरिस स्थित एक स्वायत्त अंतर-सरकारी संगठन, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहते हैं कि यदि सरकारें हस्तक्षेप नहीं करती हैं तो 1990 के दशक में नाभिकीय उर्जा का जो योगदान 18 प्रतिशत था वह 2040 तक घटकर मात्र 5 प्रतिशत तक रह जाएगा।

डैटा से पता चलता है कि नवीकरणीय संसाधनों पर ध्यान देने और उनकी बढ़ती उपस्थिति की रिपोर्ट्स के बावजूद विभिन्न प्रकार के ऊर्जा उत्पादन में जीवाश्म र्इंधन की हिस्सेदारी लगभग आधी सदी से अपरिवर्तित रही है। दिए गए रेखाचित्र से पता चलता है कि नवीकरणीय संसाधनों में काफी धीमी वृद्धि हुई है, इसी तरह नाभिकीय उर्जा की हिस्सेदारी भी कम हुई है, कोयले का उपयोग अपरिवर्तित रहा है और तेल की जगह प्राकृतिक गैस का उपयोग होने लगा है।

स्थिति तब और अधिक भयावह नज़र जाती है जब हम देखते हैं कि गैर-जीवाश्म बिजली में कोई बदलाव न होने के पीछे बिजली की मांग में स्थिरता का कारण नहीं है। आंकड़ों से पता चलता है कि बिजली खपत की दर में तेज़ी से वृद्धि हुई है जो आने वाले दशकों में और अधिक होने वाली है।

यह तो स्पष्ट है कि यदि कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के उपयोग में कमी करनी है तो उसकी भरपाई नवीकरणीय संसाधनों और नाभिकीय उर्जा में तेज़ वृद्धि से होनी चाहिए। नवीकरणीय ऊर्जा में पनबिजली, पवन ऊर्जा और सौर उर्जा शामिल हैं। पनबिजली संयंत्र नदियों पर उपयुक्त स्थल पर निर्भर करते हैं और नए संयंत्र लगाने का मतलब आबादियों और पारिस्थितिक तंत्र को अस्त-व्यस्त करना है। पवन ऊर्जा की काफी गुंजाइश है लेकिन इसका प्रसार इसकी सीमा तय करता है। साथ ही इसे स्थापित करने के लिए निवेश की काफी आवश्यकता होती है और समय भी लगता है। सौर पैनल अब पहले की तुलना में और अधिक कुशल हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर इन्हें स्थापित करने के लिए काफी ज़मीन की ज़रूरत होगी और ज़मीन पर वैसे ही काफी दबाव है।

इसलिए विकल्प के रूप में हमें नाभिकीय उर्जा को बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इसके कोई दुष्परिणाम नहीं हैं। इसके साथ रेडियोधर्मी अपशिष्ट का उत्पन्न होना, दुर्घटना का जोखिम और भारी लागत जैसी समस्याएं भी हैं। हालांकि, नवीकरणीय संसाधनों की भौतिक सीमाओं को देखते हुए और जीवाश्म र्इंधन को आवश्यक रूप से कम करने के लिए, अपशिष्ट के निपटान और सुरक्षा के मानकों के सबसे बेहतरीन उपायों के साथ, नाभिकीय उर्जा ही एकमात्र रास्ता है।

इसी संदर्भ में हमें देखना होगा कि वर्ष 2018 में कुल विश्व उर्जा में नाभिकीय घटक की भागीदारी केवल 10 प्रतिशत रह जाएगी। इसके लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं। एक महत्वपूर्ण कारक की ओर अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा संगठन (आईईए) ने ध्यान दिलाया है। आईईए के अनुसार उत्पादन क्षमता का निर्माण तो हुआ है लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा काफी पुराना हो गया है जिसे प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है। विकसित देशों में कुल बिजली उत्पादन में नाभिकीय उर्जा की भागीदारी 18 प्रतिशत है। 500 गीगावॉट के कुल उत्पादन में से अमेरिका अपने 98 नाभिकीय संयंत्रों से 105 गीगावॉट का उत्पादन करता है। फ्रांस अपने 58 नाभिकीय संयंत्रों से 66 गीगावॉट का उत्पादन करता है जो कुल बिजली उत्पादन का 70 प्रतिशत है। इसकी तुलना में, भारत में 7 स्थानों पर स्थित 22 नाभिकीय संयंत्रों से 6.8 गीगावॉट का उत्पादन होता है जबकि यहां बिजली का कुल उत्पादन 385 गीगावॉट है।     

आईईए की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका, युरोपीय संघ और रूस के अधिकांश संयंत्र 35 वर्षों से अधिक पुराने हैं। ये संयंत्र या तो अपना 40 वर्षीय जीवन पूरा कर चुके हैं या फिर उसके करीब हैं। विकसित देशों में पुराने संयंत्रों के स्थान पर नए संयंत्र स्थापित करना कोई विकल्प नहीं है। समय लगने के अलावा, नए संयंत्रों से बिजली उत्पादन की लागत मौजूदा संयंत्रों की तुलना में काफी अधिक होगी। इसके साथ ही नए संयंत्र प्रतिस्पर्धा में असमर्थ होंगे जिसके परिणामस्वरूप जीवाश्म आधारित बिजली का उपयोग बढ़ जाएगा। एक ओर जहां परमाणु संयंत्रों को अपशिष्ट निपटान और सुरक्षा के विशेष उपायों की लागत वहन करना होती है, वहीं जीवाश्म र्इंधन आधारित उद्योग को पर्यावरण क्षति के लिए कोई लागत नहीं चुकानी पड़ती है। 

इसलिए विकसित देशों में केवल 11 नए संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं जिनमें से 4 दक्षिण कोरिया में और एक-एक 7 अन्य देशों में हैं। हालांकि, आईईए के अनुसार विकासशील देशों में से, चीन में 11 (46 गीगावॉट की क्षमता वाले 46 मौजूदा संयंत्रों के अलावा), भारत में 7, रूस में 6, यूएई में 4 और कुछ अन्य देशों में स्थापित किए जा रहे हैं। सारे के सारे संयंत्र शासकीय स्वामित्व में हैं। 

चूंकि कम लागत वाले नए संयंत्रों के किफायती निर्माण के लिए अभी तक कोई मॉडल मौजूद नहीं है, विकसित देश मौजूदा संयंत्रों को पुनर्निर्मित और विस्तारित करने के लिए कार्य कर रहे हैं। आईईए के आकलन के अनुसार, एक मौजूदा संयंत्र के जीवनकाल को 20 वर्ष तक बढ़ाने की लागत आधे से एक अरब डॉलर बैठेगी। यह लागत, नए संयंत्र को स्थापित करने की लागत या पवन या सौर उर्जा संयंत्र स्थापित करने की लागत से कम ही होगी और इसको तैयार करने के लिए ज़्यादा समय भी नहीं लगेगा। अमेरिका में 98 सक्रिय संयंत्रों के लाइसेंस को 40 साल से बढ़ाकर 60 साल कर दिया गया है।     

जॉनसन के उक्त लेख में एमआईटी के समूह युनियन ऑफ कंसन्र्ड साइंटिस्ट के पेपर दी न्यूक्लियर पॉवर डिलेमा का भी ज़िक्र किया गया है। यह पेपर, नाभिकीय उर्जा के प्रतिकूल अर्थशास्त्र और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को थामने में इसके निहितार्थ को लेकर आइईए की चिंता को ही प्रतिध्वनित करता है। एमआईटी का थिंक टैंक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप से कार्बन क्रेडिट की प्रणाली को लागू करने और कार्बन स्तर को कम करने वाले मानकों के लिए प्रलोभन देने की सिफारिश करता है। इसके साथ ही कम कार्बन उत्सर्जन वाली टेक्नॉलॉजी के लिए सब्सिडी की सिफारिश भी करता है ताकि वे प्रतिस्पर्धा कर सकें।    

कितनी बिजली चाहिए?

एक ओर तो इंजीनियर और अर्थशास्त्री बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए हरित ऊर्जा के उत्पादन के तरीकों पर चर्चा कर रहे हैं, वहीं हमें अपने द्वारा उपयोग की जाने वाली उर्जा कम करने के तरीके भी खोजना होगा। यह निश्चित रूप से एक कठिन काम है क्योंकि ऊर्जा हमारी व्यापार प्रणालियों का आधार है, और ऐसे परिवर्तन जिनका थोड़ा भी भौतिक प्रभाव है वे राजनैतिक रूप से असंभव होंगे। नाभिकीय उर्जा का कोई विकल्प नहीं है और उसमें भी कई बाधाएं हैं, यह विश्वास शायद आईईए और एमआईटी जैसी शक्तिशाली लॉबियों को मजबूर करे कि वे उत्पादन समस्या का समाधान खोजने की रट लगाना छोड़कर उपभोग कम करने का संदेश फैलाने का काम करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या आपका डीएनए सुरक्षित है?

शायद पहली बार एक यूएस न्यायाधीश ने सार्वजनिक डीएनए डैटाबेस, GED match, को आदेश दिया है कि वह पुलिस को उसके पास उपलब्ध 13 लाख डीएनए प्रोफाइल को खंगालने दे। वास्तव में यह अनुमति एक आदतन बलात्कारी को पकड़ने के लिए दी गई है। पुलिस चाहती है कि बलात्कारी व्यक्ति के दूर के रिश्तेदारों की जानकारी प्राप्त हो जाए ताकि संदिग्ध व्यक्ति को पहचाना जा सके।     

उपभोक्ताओं का मानना है कि इस तरह के अधिकार मिलने से ancestry.com और 23and Me ग्ड्ढ जैसी डीएनए साइट्स पर भी पुलिस द्वारा खोज की संभावना बन सकती है। गौरतलब है कि कंपनी की इन साइट्स पर लोग स्वेच्छा से अपने डीएनए का नमूना जमा करते हैं और यह जानकारी गोपनीय रहती है।

पुलिस ने पहले भी अपराध स्थल से मिले डीएनए की GEDmatch डैटाबेस से तुलना करके कई अन्य मामलों को सुलझाया है। लेकिन उपभोक्ताओं में इसकी वास्तविक चिंता डैटा की गोपनीयता को लेकर है। साथ ही ऐसी आशंका भी है कि जिन रिश्तेदारों ने कभी डीएनए परीक्षण नहीं करवाया है वो भी संदेह के दायरे में आ सकते हैं। ज्ञात रहे कि इससे पहले GEDmatch केवल उन्हीं लोगों के डीएनए प्रोफाइल उपलब्ध कराती थी जिसकी सहमति खुद लोगों ने दी थी। यू.एस. डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस ने भी एक संशोधन जारी करके केवल हिंसक अपराधों और उपभोक्ताओं की अनुमति से ही जानकारी देने की व्यवस्था कर दी। ताज़ा आदेश इस सबको अनदेखा करके आया है।      

मेरीलैंड केरी स्कूल ऑफ लॉ की प्रोफेसर नताली रैम से साक्षात्कार में कुछ बातें सामने आई हैं। इस मामले को एक विशेष परिस्थिति के रूप में लिया जा सकता है। लेकिन यदि 13 लाख लोगों के डैटाबेस में 60 प्रतिशत युरोपीय मूल के अमेरिकी हैं जिनका दूर का चचेरा भाई या बहन या कोई करीबी रिश्तेदार इस डैटाबेस में है तो उसको ट्रैक करना काफी आसान हो जाएगा। इस संदर्भ में केवल डीएनए के आधार पर कुछ गुनहगारों को पकड़ने के लिए पुलिस एजेंसियों के हाथ कई बेगुनाह लोगों का डीएनए होगा।

हालांकि GEDmatch तो एक छोटा मोटा डैटाबेस है लेकिन 23and Me और ancestry.com जैसी अन्य कंपनियों के पास यदि कोई ऐसा वारंट आता है तो वे इसे चुनौती देने के लिए तैयार हैं।

यदि कोई कंपनी इस वारंट का अनुपालन करने से मना कर देती है तब इस वारंट पर और अधिक कार्य किया जाएगा ताकि इसको वैध बनाया जा सके। वैकल्पिक रूप से यदि कंपनियां जानकारी दे भी देती हैं और किसी व्यक्ति के अभियोजन की संभावना भी बनती है तो व्यक्ति गैर-कानूनी खोज के खिलाफ आवाज़ उठाकर वारंट पर ही सवाल उठा सकता है। नताली का मानना है कि यह प्रक्रिया काफी जटिल है। इस विषय में यह स्पष्ट नहीं है कि डीएनए कंपनी या अपराधी गोपनीयता के अधिकार के तहत इस वारंट को चुनौती दे सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में प्रभावी ढंग से वारंट को चुनौती देना मुश्किल है।

नताली का ऐसा मानना है कि यदि इस तरह के वारंट जारी होते रहे तो डीएनए डैटा रखने वाली साइट्स को काफी परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इसमें सबसे पहले तो सार्वजनिक आक्रोश का सामना करना पड़ सकता है। एक रास्ता है कि एक कानून बना दिया जाए जिसके तहत शासकीय एजेंसियों द्वारा फॉरेंसिक वंशावली खोजों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस द्वारा आनुवंशिक वंशावली की खोज पर कुछ सीमाएं लगाई जा सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऊंचे सुर और ऊंचे स्थान का सम्बंध

ब तक हुए कई अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हम मनुष्य आम तौर पर उच्च तारत्व (या आवृत्ति) वाली ध्वनियों यानी तीखी आवाज़ों, जैसे सीटी की आवाज़ के साथ किसी ऊंची जगह की कल्पना करते हैं। और अब बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि कुत्ते भी ऐसा ही करते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार यह अध्ययन इस बात को समझने में मदद कर सकता है कि क्यों हम कुछ आवाज़ों को खास भौतिक लक्षणों से जोड़कर देखते हैं।

दरअसल कई अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हम उच्च तारत्व की ध्वनियों के साथ ऊंचाई, उजली या छोटी वस्तुओं की कल्पना करते हैं। लेकिन अब तक वैज्ञानिक आवाज़ के साथ इनके जुड़ाव के कारण की कोई तार्किक व्याख्या नहीं कर पाए हैं। जैसे अध्ययन कहते हैं कि संभवत: ध्वनि और स्थान, आकार या रंग आदि का यह जुड़ाव अनुभव से बना है। उदाहरण के तौर पर चूहे और पक्षियों जैसे छोटे जीव आम तौर पर तीखी (पतली) आवाज़ निकालते हैं जबकि भालू जैसे बड़े जानवर भारी (निम्न तारत्व वाली) आवाज़ें निकालते हैं। या यह भी हो सकता कि यह सम्बंध इसलिए बन गया कि अंग्रेजी में ‘हाई’ और ‘लो’ शब्दों का इस्तेमाल आवाज़ और ऊंचाई दोनों के लिए होता है।

युनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स की जीव व्यवहार विज्ञानी ऐना कोर्ज़ेनिवोस्का और उनके साथियों का कुत्तों पर किया गया एक अध्ययन इस बात को और समझने में मदद कर सकता है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 101 कुत्तों को एक गेंद के ऊपर-नीचे जाने का एनीमेशन दिखाया और कभी-कभी गेंद की गति के साथ ध्वनियां सुनाई गर्इं। कभी गेंद के ऊपर जाने के साथ ध्वनि का तारत्व बढ़ता और नीचे आने के साथ कम होता या, कभी इसके विपरीत होता। 64 प्रयोगों के बाद उन्होंने पाया कि जब गेंद के ऊपर जाने के साथ तारत्व बढ़ता है तो  कुत्तों ने गेंद को 10 प्रतिशत अधिक वक्त तक देखा। इससे लगता है कि जानवर आवाज़ का तारत्व बढ़ने को ऊंचे स्थान से जोड़कर देखते हैं। इस निष्कर्ष के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि आवाज़ के प्रकार के साथ स्थान का सम्बंध भाषा की वजह से नहीं बल्कि जन्मजात होता है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता है।

बर्मिंगहैम युनिवर्सिटी के संज्ञान विज्ञानी मार्कस पर्लमेन का कहना है कि इस अध्ययन की डिज़ाइन तो उचित है लेकिन संभावना है कि कुछ अन्य कारक भी नतीजों पर असर डाल रहे हों। जैसे प्रयोग के दौरान कुत्तों के मालिक नज़दीक बैठे थे, हो सकता है गेंद के ऊपर जाने और उसके साथ उच्च तारत्व वाली आवाज़ बजने के वक्त अनजाने में उन्होंने कुत्तों को कुछ संकेत दिए हों। या हो सकता है कि कुत्तों के मालिकों ने पहले कभी कुत्तों को आवाज़ पर प्रतिक्रिया देने के लिए प्रशिक्षित किया हो।

लिहाज़ा, पर्लमैन का सुझाव है कि एक अन्य अध्ययन किया जाना चाहिए जिसमें कुत्ते के मालिक ऐसी भाषा बोलते हों जिसमें ध्वनि के तारत्व को स्थान सम्बंधी शब्द से संबोधित ना किया जाता हो, जैसे फारसी। फारसी भाषा में उच्च तारत्व की आवाज़ को पतली आवाज़ और निम्न तारत्व की आवाज़ को मोटी आवाज़ कहते हैं।

बहरहाल इस सम्बंध की व्याख्या के लिए आगे और विस्तार से अध्ययन करने की आवश्कता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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