कई बार हम स्वयं से बातें करते हैं – या तो मन-ही-मन में या
बोलकर। कुछ लोग ऐसा नियमित रूप से करते हैं तो कई अन्य ऐसा करके काफी अच्छा महसूस
करते हैं। लेकिन क्या खुद से बात करना सामान्य है?
स्वयं से बात करने का काफी अध्ययन हुआ है। कई लोग इसे एक मानसिक स्वास्थ्य
समस्या के रूप में देखते हैं लेकिन ऐसे सेल्फ-टॉक या सेल्फ-डायरेक्टेड टॉक (स्वगत
संभाषण) को मनोवैज्ञानिक सामान्य और कुछ परिस्थितियों में फायदेमंद भी मानते हैं।
इस व्यवहार के व्यवस्थित अध्ययन की शुरुआत 1880 के दशक में हुई थी।
वैज्ञानिकों की विशेष दिलचस्पी यह जानने की थी कि लोग स्वयं से क्या बात करते हैं, क्यों और किस उद्देश्य से करते हैं। शोधकर्ताओं ने सेल्फ-टॉक को आंतरिक मतों
या धारणाओं की मौखिक अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया है।
बच्चे अक्सर ऐसा करते हैं, और यह उनके भाषा के विकास, किसी कार्य में सक्रियता और प्रदर्शन को सुधारने का एक तरीका है। यह माता-पिता
के लिए चिंता का कारण नहीं होना चाहिए। और तो और, वयस्क
अवस्था में भी यह व्यवहार कोई समस्या नहीं है। यह फायदेमंद भी हो सकता है बशर्ते
कि कोई व्यक्ति मतिभ्रम जैसी मानसिक समस्या का अनुभव न करने लगे।
किसी कार्य के दौरान सेल्फ-टॉक से उस काम में नियंत्रण, एकाग्रता और प्रदर्शन में सुधार होता है और साथ ही समस्या-समाधान के कौशल में
भी बढ़ोतरी होती है। वर्ष 2012 में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि कैसे
सेल्फ-टॉक किसी वस्तु की तलाश के कार्य को प्रभावित करता है। इस अध्ययन में पता
चला कि जब हम किसी गुम वस्तु या सुपर मार्केट में किसी विशेष उत्पाद की तलाश करते
हैं तब सेल्फ-टॉक मददगार होता है। खेलकूद में भी सेल्फ-टॉक काफी फायदेमंद साबित
होता है। सब कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है सेल्फ-टॉक किस प्रकार का है:
1. सकारात्मक: इससे व्यक्ति को सकारात्मक सोच के लिए प्रोत्साहन और शक्ति
मिलती है। इससे चिंता में कमी और एकाग्रता एवं ध्यान में सुधार हो सकता है।
2. नकारात्मक: आलोचनात्मक और हतोत्साहित करने वाला संवाद होता है।
3. तटस्थ: यह न तो सकारात्मक होता है, न
नकारात्मक। यह निर्देशात्मक होता है, न कि किसी विशेष विश्वास
या भावना को प्रोत्साहित करने के लिए।
लेकिन मुख्य सवाल है कि सेल्फ-टॉक से लोगों को क्या फायदा होता है। शोधकर्ताओं
का निष्कर्ष है कि सेल्फ-टॉक से लोगों को भावनाओं को नियमित और संसाधित करने में
मदद मिलती है। जैसे, क्रोध और घबराहट की स्थिति में सेल्फ-टॉक
से भावनाओं को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। इसके अलावा 2014 में किए गए
अध्ययन से पता चला है कि दुश्चिंता से ग्रस्त लोगों के लिए सेल्फ-टॉक काफी
फायदेमंद होता है। तनावपूर्ण घटनाओं के बाद सेल्फ-टॉक से चिंता में भी कमी होती
है।
यदि सेल्फ-टॉक जीवन में खलल डालने लगे तो उसे कम करने के उपाय भी हैं। जैसे व्यक्ति सेल्फ-टॉक को एक डायरी में लिखने की आदत डाल ले तो इस आदत को नियंत्रित किया जा सकता है। वैसे स्वयं की आलोचना और नकारात्मक सेल्फ-टॉक से मानसिक स्वास्थ्य के प्रभावित होने की आशंका भी होती है। कभी कभी सेल्फ-टॉक के साथ मतिभ्रम होना शीज़ोफ्रेनिया का द्योतक होता है। ऐसी परिस्थितियों में मनोचिकित्सक से परामर्श करना बेहतर होगा। कुल मिलाकर, स्वयं से बात करना एक सामान्य व्यवहार है जो किसी मानसिक समस्या का लक्षण नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://swaddle-wkwcb6s.stackpathdns.com/wp-content/uploads/2020/02/Is-this-normal-i-talk-to-myself-out-loud.jpeg
पिछले 20 वर्षों से अंतरिक्ष यात्रियों का घर –
अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) – कुछ अनोखे बैक्टीरिया का मेज़बान भी बन गया
है। स्पेस स्टेशन पर पाए गए चार बैक्टीरिया स्ट्रेन में से तीन के बारे में पूर्व
में कोई जानकारी नहीं थी। फ्रंटियर्स इन माइक्रोबायोलॉजी जर्नल में
प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इन बैक्टीरिया स्ट्रेन्स का उपयोग भविष्य में लंबी
अंतरिक्ष उड़ानों के दौरान पौधे उगाने के लिए किया जा सकता है।
गौरतलब है कि कई वर्षों से पृथ्वी से पूरी तरह से अलग होने से स्पेस स्टेशन एक
अनूठा पर्यावरण है। ऐसे में यह जानने के लिए तरह-तरह के प्रयोग किए गए हैं कि यहां
कौन-से बैक्टीरिया मौजूद हैं। पिछले 6 वर्षों में स्पेस स्टेशन के 8 विशिष्ट स्थानों
पर निरंतर सूक्ष्मजीवों और बैक्टीरिया की वृद्धि की जांच की जा रही है। इन स्थानों
में वह स्थान भी शामिल है जहां सैकड़ों वैज्ञानिक प्रयोग किए जाते हैं, पौधों की खेती का प्रकोष्ठ भी शामिल है और वह जगह भी जहां क्रू-सदस्य भोजन और
अन्य अवसरों पर साथ आते हैं। इस तरह सैकड़ों नमूने पृथ्वी पर विश्लेषण के लिए आए
हैं और कई हज़ार अभी कतार में हैं।
पृथक किए गए बैक्टीरिया के चारों स्ट्रेन मिथाइलोबैक्टीरिएसी कुल से
हैं। मिथाइलोबैक्टीरियम प्रजातियां विशेष रूप से पौधों की वृद्धि में और
रोगजनकों से लड़ने में सहायक होती हैं। हालांकि इन चार में से एक (मिथाइलोरुब्रम
रोडेशिएनम) पहले से ज्ञात था जबकि छड़ आकार के तीन अन्य बैक्टीरिया अज्ञात थे।
इनके आनुवंशिक विश्लेषण में वैज्ञानिकों ने पाया कि ये बैक्टीरिया प्रजातियां मिथाइलोबैक्टीरियम
इंडीकम के निकट सम्बंधी हैं। अब इनमें से एक बैक्टीरिया का नाम भारतीय
जैव-विविधता वैज्ञानिक मुहम्मद अजमल खान के सम्मान में मिथाइलोबैक्टीरियम
अजमाली रखा गया है।
इस बैक्टीरिया के संभावित अनुप्रयोगों को समझने के लिए नासा जेट प्रपल्शन
लेबोरेटरी के वैज्ञानिक कस्तूरी वेंकटेश्वरन और नितीश कुमार ने इस शोध पर काम किया
है। वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि यह नया स्ट्रेन पौधों की वृद्धि में उपयोगी हो
सकता है। न्यूनतम संसाधनों वाले क्षेत्रों में यह जीवाणु मुश्किल परिस्थितियों में
भी पौधे के बढ़ने में सहायक होगा। पत्तेदार सब्ज़ियों और मूली को तो सफलतापूर्वक
अंतरिक्ष स्टेशन पर उगाया गया है लेकिन फसलों को उगाने में थोड़ी कठिनाई होती है।
ऐसे में मिथाइलोबैक्टीरियम इस संदर्भ में उपयोगी हो सकता है।
अभी इस बैक्टीरिया के सही उपयोग को समझने के लिए समय और कई प्रयोगों की ज़रूरत है। आईएसएस पर मिले ये तीन स्ट्रेन अलग-अलग समय पर और अलग-अलग स्थानों से लिए गए थे इसलिए आईएसएस में इनके टिकाऊपन और पारिस्थितिक महत्व का अध्ययन करना होगा। मंगल पर मानव को भेजा जाए, उससे पहले इस तरह के अध्ययन महत्वपूर्ण और ज़रूरी हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.pinimg.com/originals/f4/9f/28/f49f28e49021e82ac52857d828eaef58.jpg
ऑक्टोपस सपने देखते हैं या नहीं, यह तो
अभी पता नहीं चल पाया है लेकिन वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की ओर बढ़े हैं। आईसाइंस
(iScience) में प्रकाशित हालिया अध्ययन
बताता है कि मनुष्यों की तरह ऑक्टोपस भी नींद की दो अवस्थाओं का अनुभव करते हैं
-सक्रिय नींद और शांत नींद। लेकिन मनुष्यों और ऑक्टोपस, दोनों
में इस दो अवस्था वाली नींद का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ होगा, क्योंकि ये दोनों जैव-विकास में लगभग 50 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग हो चुके थे।
फेडरल युनिवर्सिटी ऑफ रियो ग्रांड डो नोर्टे के सिडार्टा रिबेलियो और उनके
साथियों ने इस अध्ययन में ऑक्टोपस इंसुलेरिस (Octopus insularis) प्रजाति के चार ऑक्टोपस का
प्रयोगशाला के टैंक में सोते समय वीडियो बनाया। यह जांचने के लिए कि ऑक्टोपस सो
रहे हैं या जाग रहे हैं, शोधकर्ताओं ने ऑक्टोपस को टैंक
के बाहर से स्क्रीन पर जीवित केकड़ों का वीडियो दिखाया या रबर के हथौड़े से टैंक की
दीवार पर हल्के से ठोंका और देखा कि क्या ऑक्टोपस में प्रतिक्रिया स्वरूप कोई हलचल
हुई। देखा गया कि ‘शांत’ नींद के दौरान ऑक्टोपस की त्वचा की रंगत पीली थी, पुतलियां सिकुड़ गर्इं थी, वे शांत थे और उनके चूषक व
भुजाओं के छोर हल्के-हल्के हिल रहे थे। लेकिन ‘सक्रिय नींद’ के दौरान उनकी त्वचा
गहरे रंग की और कसी हुई थी, उन्होंने अपनी आंखें घुमाई और
मांसपेशीय ऐंठन ने उनके चूषकों और शरीर को सिकोड़ दिया था।
ऑक्टोपस में लगभग 40 सेकंड लंबी सक्रिय नींद सामान्यत: एक लंबी शांत नींद के
बाद आती है। हर 30-40 मिनट की शांत नींद के बाद उनमें सक्रिय नींद देखी गई।
ऑक्टोपस में नींद की ये दो अवस्थाएं स्तनधारियों की नींद की दो प्रमुख अवस्थाओं के
समान दिखती हैं। पहली, तीव्र नेत्र गति (या रेपिड आई मूवमेंट, REM) नींद। इस अवस्था में आंखें
तेज़ी से घूमती हैं और सपने आते हैं। और दूसरी है ‘मंद-तरंग’ नींद। इस अवस्था में
पूरे मस्तिष्क में विद्युत गतिविधि एक समान लय में चलती हैं। नींद की यह अवस्था
मस्तिष्क में स्मृतियों को सहेजने और फालतू जानकारी हटाने में अहम मानी जाती है।
फिर भी,
शोधकर्ता मनुष्यों और ऑक्टोपस की नींद में समानता देखने मे
सावधानी बरत रहे हैं क्योंकि ऑक्टोपस और स्तनधारियों के मस्तिष्क की बनावट बहुत
अलग-अलग है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि मनुष्यों में सपने आम तौर पर REM नींद के दौरान आते हैं, लेकिन ऑक्टोपस से तो यह नहीं पूछा जा सकता कि क्या वे सपने देख रहे हैं। फिर
भी शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जागते हुए जब वे कोई नई बात सीखते हैं तब उनकी
त्वचा की रंगत और विभिन्न अवस्थाओं में सोते हुए त्वचा की रंगत की तुलना करके पता
लगाया जा सकता है कि वे सपने देख रहे हैं या नहीं। यदि सपने नहीं भी देखते, तो भी यह तो माना जा सकता है कि वे इस दौरान कुछ तो अनुभव करते हैं। ऑक्टोपस
कठिन चुनौतियां हल करने के लिए जाने जाते हैं – मर्तबान का ढक्कन हटाना या
छद्मावरण बनाना। तो उनमें इस बात की जांच की जा सकती है कि नींद (या नींद में कमी)
उनकी सीखने की क्षमता को कैसे प्रभावित करती है, जो उनकी
स्मृतियों को ठीक से सहेजने में नींद की भूमिका स्पष्ट करेगी।
उनके मस्तिष्क में चलने वाली हलचल को इलेक्ट्रोड की मदद से मापा जाना चाहिए लेकिन यह मुश्किल होगा, क्योंकि वे शरीर पर लगी हर चीज़ को निकाल फेंकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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खरपतवार व फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट किसानों को
अपने दुश्मन लगते हैं। इनका सफाया करने के लिए वे रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग
करते हैं। लेकिन ये रसायन सिर्फ दुश्मनों का सफाया नहीं करते बल्कि वे मधुमक्खियों, मछलियों और क्रस्टेशियन जैसे निर्दोष जीवों को भी नुकसान पहुंचाते हैं।
हाल ही में एक विशाल अध्ययन ने हाल के दशकों में अमेरिका के किसानों द्वारा
कीटनाशकों के उपयोग में हुए बदलाव के चलते ऐसे प्रभावों में हुए परिवर्तनों का
विश्लेषण किया है। देखा गया कि कीटनाशकों के उपयोग में आए बदलाव से पक्षियों और
स्तनधारियों की स्थिति बेहतर रही, जबकि इससे परागणकर्ता जीव व
जलीय अकशेरुकी जीव बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
खरपतवारों में खरपतवारनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो जाने से किसानों
द्वारा इन रसायनों का उपयोग बढ़ा और इसके चलते भूमि पर उगने वाले पौधों में भी
विषाक्तता का प्रभाव बहुत बढ़ गया।
पिछले कुछ दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका में कीटनाशकों के उपयोग की मात्रा
में लगभग 40 प्रतिशत की कमी आई है। लेकिन इसके साथ अधिक शक्तिशाली और विषाक्त
रसायनों का उपयोग बढ़ा है। उदाहरण के लिए पायरेथ्रॉइड्स अत्यधिक प्रभावी कीटनाशक
समूह है। इनकी बहुत कम मात्रा भी अत्यधिक ज़हरीली होती है और ये तंत्रिका तंत्र को
प्रभावित करते हैं। पूर्व में उपयोग किए जाने वाले कीटनाशक (जैसे ऑर्गेनोफॉस्फेट
या कार्बेमेट) एक हैक्टर में कई किलोग्राम लगते थे, लेकिन
पायरेथ्रॉइड्स की महज़ 6 ग्राम मात्रा पर्याप्त होती है।
पारिस्थितिकी-विषाक्तता विज्ञानी रॉल्फ शुल्ज़ और उनके साथियों ने वर्ष 1992 से
2016 तक स्वयं किसानों द्वारा कीटनाशकों के उपयोग के बारे में दी गई जानकारी के
अमेरिकी भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण डैटा से शुरुआत की। फिर उन्होंने उपयोग किए गए सभी
यौगिकों (381 रसायनों) के लिए अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (ईपीए) द्वारा
निर्धारित विषाक्तता के स्तर (जितनी मात्रा में कोई पदार्थ या रसायन वनस्पतियों या
वन्यजीवों को नुकसान पहुंचा सकता है) और खेतों में उपयोग किए गए प्रत्येक कीटनाशक
की मात्रा की तुलना की और कुल प्रयुक्त विषाक्तता पता की।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार संभवत: पुराने
कीटनाशकों के उपयोग में आई कमी के कारण 1992 से 2016 तक पक्षियों और स्तनधारियों
के लिए कुल विषाक्तता में 95 प्रतिशत से अधिक की कमी आई है। मछलियों के लिए
विषाक्तता स्तर में एक-तिहाई की कमी आई है। मछलियों के लिए विषाक्तता में होने
वाली कमी का प्रतिशत कम दिखता है क्योंकि मछलियां पायरेथ्रॉइड्स के प्रति अधिक
संवेदनशील हैं और खेतों में इनका उपयोग बढ़ा है। लेकिन पायरेथ्रॉइड्स की वजह से
जलीय अकशेरुकी जीवों (जैसे प्लवक और कीट-लार्वा) के लिए विषाक्तता दुगनी हो गई है।
इसके अलावा निओनिकोटिनॉइड्स कीटनाशक ने मधुमक्खियों और भौंरों जैसे परागणकर्ताओं
के लिए विषाक्तता का जोखिम दुगना कर दिया है। इसी तरह के नतीजे एक छोटे अध्ययन में
भी देखने को मिले थे, जिसके अनुसार इस बदलाव से कशेरुकी जीव कम
प्रभावित हुए लेकिन अकशेरुकी जीवों को बहुत क्षति पहुंची है।
कुछ कीटनाशकों और प्रजातियों के लिए वास्तविक प्रभाव का अनुमान लगाना मुश्किल
है,
क्योंकि पौधों और जीवों को सिर्फ रसायन ही प्रभावित नहीं
करते बल्कि मौसम या वर्ष का समय जैसे कई अन्य कारक भी होते हैं। यह देखने के लिए
कि सिर्फ कीटनाशकों ने जलीय क्रस्टेशियन और कीटों को किस तरह प्रभावित किया, शोधकर्ताओं ने संयुक्त राज्य अमेरिका की 231 झीलों और नदियों का विषाक्तता
सम्बंधी डैटा खंगाला। जब इसकी तुलना उन्होंने उन क्षेत्रों के आसपास उपयोग किए गए
कीटनाशकों की मात्रा के साथ की तो उन्होंने पाया कि इनके बीच काफी सम्बंध है।
जीवों के अलावा विषाक्तता से पौधे भी प्रभावित हुए हैं। 2004 के बाद से थलीय
पौधों में खरपतवारनाशी रसायनों के कारण आई कुल विषाक्तता दुगनी हुई है। इस
विषाक्तता को बढ़ाने में सबसे अधिक योगदान ग्लायफोसेट नामक खरपतवारनाशी का है। कुछ
खरपतवारों ने ग्लायफोसेट के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर लिया, और किसान उनके सफाए के लिए अधिकाधिक मात्रा में ग्लायफोसेट का छिड़काव करने
लगे। इससे मेड़ों पर उगने वाले पौधों और उन पर आश्रित जीवों के लिए खतरा बढ़ गया।
कीटनाशकों का उपयोग कम करने के लिए मक्का की एक किस्म को जेनेटिक रूप से
परिवर्तित करके उसमें कीटनाशक रसायन बीटी जोड़ा गया था। इसके चलते विषाक्त
रसायनों का उपयोग कम होना था लेकिन देखा गया कि पिछले एक दशक में बीटी मक्का और
सामान्य मक्का दोनों में डाली गई विषाक्तता में प्रति वर्ष 8 प्रतिशत की बढ़ोतरी
हुई है।
शुल्ज़ को उम्मीद है कि ये नतीजे नीति निर्माताओं और अन्य लोगों को कीट और
खरपतवार नियंत्रण की जटिलता पर और जंगली प्रजातियों को बेवजह होने वाली क्षति को
कम करने के लिए सोचने में मदद करेंगे। अमेरिका में कीटनाशक के उपयोग के पैटर्न और
विषाक्तता सम्बंधी डैटा से बाकी दुनिया को सबक लेना चाहिए, जहां
कीट नियंत्रण के लिए पर्यावरण हितैषी तरीकों की बजाय कीटनाशकों का उपयोग किया जा
रहा है।
कीटनाशक उपयोग सम्बंधी फैसले इस पर भी निर्भर करते हैं कि किसी समाज या समुदाय के लिए कौन-सी प्रजातियां महत्व रखती हैं। जैसे युरोपीय संघ में नियामकों ने नियोनिकोटिनॉइड्स के उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया ताकि परागणकर्ताओं को नुकसान न हो। लेकिन संभवत: अब किसान अन्य कीटनाशकों का उपयोग करेंगे जो अन्य प्रजातियों को जोखिम में डाल सकता है, या पैदावार घट जाएगी और खाद्यान्न की कीमतें आसमान छूएंगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/bee_1280p_3.jpg?itok=4GeLXZHp
लगभग एक वर्ष पूर्व भारत में लॉकडाउन को अपनाया गया था। उसके
बाद से अर्थव्यवस्था को लगातार ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ रही है। इस लॉकडाउन के सामाजिक
व आर्थिक असर आज भी दिख रहे हैं।
इस लॉकडाउन ने भारत के सभी वर्गों को किसी न किसी स्तर पर प्रभावित किया है।
कुछ लोगों के लिए लॉकडाउन एक सुनहरा मौका रहा जहां वे अपने परिवार के साथ एक लंबी
छुट्टी का आनंद ले सके, वहीं अन्य लोगों के लिए यह बेरोज़गारी, भुखमरी,
पलायन और कुछ के लिए जान के जोखिम से भरा दौर रहा। आइए हम
उन नुकसानों का पता लगाने का प्रयास करते हैं जो सख्त लॉकडाउन के कारण देश को
झेलने पड़े। हम यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि लॉकडाउन से किस हद तक वायरस
संक्रमण रोका जा सका।
व्यापक अर्थ व्यवस्था
कोरोनावायरस जीवन और आजीविका के नुकसान के केंद्र में रहा। लॉकडाउन के एक वर्ष
बाद भी भारत में जन स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था दोनों को ही पटरी पर लाने के प्रयास
किए जा रहे हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार भारत में लॉकडाउन से अनुमानित 26-33
अरब डॉलर का नुकसान हुआ। गौरतलब है कि अधिकांश अनुमान पिछले वर्ष प्रकाशित
रिपोर्टों के आधार पर लगाए गए हैं जब लॉकडाउन से होने वाले नुकसान ठीक तरह से
स्पष्ट नहीं थे। देखा जाए तो इन गणनाओं में उन कारकों को ध्यान में नहीं लिया गया
जिन्हें धन के रूप में बता पाना मुश्किल या असंभव था लेकिन नुकसान में इनका हिस्सा
काफी था।
लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था को कई प्रकार की रुकावटों का सामना करना पड़ा।
इसे ऐसे समय में अपनाया गया जब अर्थव्यवस्था पहले से ही संघर्ष के दौर से गुज़र रही
थी। विभिन्न क्षेत्रों का व्यापार पहले से ही प्रभावित हो रहा था और लॉकडाउन के कारण
जांच उपकरणों सहित आवश्यक वस्तुओं की खरीद पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
विदेश यात्रा और परिवहन पर प्रतिबंध ने परोक्ष रूप से आयात-निर्यात के व्यवसाय
को प्रभावित किया। यह आय का एक प्रमुख स्रोत है। इसके अलावा, हवाई और रेल यात्रा पर प्रतिबंध के कारण पर्यटन उद्योग को झटका लगा जो आमदनी
का एक बड़ा स्रोत है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेषता बड़ी संख्या में असंगठित खुदरा बाज़ार हैं।
लॉकडाउन ने इन्हें भी झकझोर दिया। इसके चलते ऑनलाइन खुदरा बाज़ार पर दबाव बढ़ा जिसे
कंपनियों ने चुनौती के रूप में स्वीकार किया और परिणामस्वरूप डिजिटल भुगतान की सुविधा
प्रदान करने वाली कंपनियों ने अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन किया।
अधिकारिक स्रोतों से उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर इस वर्ष पर नज़र डालें, तो हालात गंभीर दिखाई देते हैं। यह डैटा अगस्त के अंत में जारी किया गया था।
सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियांवयन मंत्रालय की रिपोर्ट ने अप्रैल से जून तिमाही
में जीडीपी में 23.9 प्रतिशत की गिरावट के संकेत दिए हैं। लेकिन यह समस्या कम करके
आंकती है क्योंकि इसमें अनौपचारिक क्षेत्र को ध्यान में नहीं रखा गया है जिसे
लॉकडाउन का सबसे अधिक खामियाजा उठाना पड़ा था। यह इतिहास में दर्ज अत्यंत खराब
गिरावटों में से है और पिछले चार-पांच दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है।
भारत के प्रमुख सांख्यिकीविद जाने-माने अर्थशास्त्री प्रणब सेन का मानना है कि
यदि हम सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियांवयन मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आकड़ों में
अनौपचारिक क्षेत्र को भी शामिल करते हैं तो जीडीपी में गिरावट बढ़कर 33 प्रतिशत तक
हो जाएगी। सेन के अनुसार लॉकडाउन के बाद भारत की आर्थिक स्थिति गंभीर है और भविष्य
में और बदतर होने की संभावना है। उनका अनुमान है कि मार्च 2021 के अंत तक भारत की
जीडीपी में 10 प्रतिशत की और कमी हो सकती है।
जन स्वास्थ्य
अर्थव्यवस्था का गंभीर रूप से प्रभावित होना तो एक समस्या रही ही, लोगों की जान के जोखिम को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है जिसके चलते जन
स्वास्थ्य सेवा इस अभूतपूर्व स्थिति में सबसे आगे आई। महामारी से पहले भी जन स्वास्थ्य
सेवा तक पहुंच एक प्रमुख चिंता रही है। गौरतलब है कि प्रत्येक देश में एक
स्वास्थ्य सेवा क्षमता होती है जिससे यह पता चलता है किसी देश में एक समय पर कितने
रोगियों को संभाला जा सकता है। 1947 के बाद से भारत की स्वास्थ्य सेवा क्षमता कभी
भी उल्लेखनीय नहीं रही है।
वर्ष 2018 से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारत
का अनुमानित सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय लगभग 1.6 लाख करोड़ रुपए है। अधिकांश लोगों
के लिए सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं सबसे सस्ता विकल्प हैं। देखा जाए तो ग्रामीण
क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों के सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की
उपलब्धता अनुपातिक रूप से अधिक है। महामारी के दौरान सरकार ने वायरस की पहचान और
उससे निपटने में मदद के लिए कई सरकारी और निजी जांच प्रयोगशालाओं को आवंटन किया
था।
विश्व भर के मंत्रालय रोकथाम के उपायों के माध्यम से ‘संक्रमण ग्राफ को समतल’
करने की बात कर रहे हैं लेकिन यह दशकों से स्वास्थ्य सेवा में अपर्याप्त निवेश की
ज़िम्मेदारी से बचने का तरीका भर है। यह सच है कि महामारी के कारण विश्व के विकसित
देश भी काफी उलझे रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि उनमें से किसी भी देश को अपनी
स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ के डर से भारत की तरह सख्त लॉकडाउन को अपनाना
नहीं पड़ा। वैसे भी, महामारी से निपटने में विकसित देशों की
स्वास्थ्य सेवाओं की नाकामी न तो हमारी तैयारी में कमी और न ही हमारे खराब
प्रदर्शन का बहाना होना चाहिए। आदर्श रूप से तो किसी भी देश की स्वास्थ्य सेवा
क्षमता इतनी होनी चाहिए कि वह अपनी आधी आबादी को संभाल पाए।
वर्ष 2021 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने 2021-22 के केंद्रीय बजट में
स्वास्थ्य और कल्याण के लिए 2.23 लाख करोड़ रुपए व्यय करने का प्रस्ताव रखा था जो
पिछले वर्ष में स्वास्थ्य सेवा पर खर्च किए गए 94,452 करोड़ रुपए के बजट से 137
प्रतिशत अधिक है।
वित्त मंत्री ने अगले वित्त वर्ष में कोविड-19 टीकों के लिए 35,000 करोड़ रुपए
खर्च करने का भी प्रस्ताव रखा है। इसके साथ ही न्यूमोकोकल टीकों को जारी करने की
भी घोषणा की गई है। उनका दावा है कि इन टीकों की मदद से प्रति वर्ष 50,000 से अधिक
बच्चों को मौत से बचाया जा सकता है।
स्वास्थ्य सेवा के आवंटन में वृद्धि के शोरगुल के बीच इस तथ्य को अनदेखा नहीं
किया जा सकता कि इनमें से कुछ खर्च एकबारगी किए जाने वाले खर्च हैं – जैसे 13,000
करोड़ का वित्त आयोग अनुदान और कोविड-19 टीकाकरण के लिए 35,000 करोड़ रुपए। गौरतलब
है कि पानी एवं स्वच्छता के लिए आवंटित 21,158 करोड़ का बजट भी स्वास्थ्य सेवा खर्च
में शामिल किया गया है जिसके परिणामस्वरूप कुल 137 प्रतिशत की वृद्धि नज़र आ रही
है।
सच तो यह है कि बजट में इस तरह के कुछ आवंटन केवल वर्तमान महामारी से निपटने
के लिए हैं जिनसे स्वास्थ्य सेवा में समग्र सुधार में कोई मदद नहीं मिलेगी। इसलिए
स्वास्थ्य सेवा आवंटन में तीन गुना वृद्धि वास्तविक नहीं है। अगले कुछ वर्षों में
स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए निरंतर प्रयास करना आवश्यक है। इसके लिए अनुसंधान
और विकास पर निवेश बढ़ाना होगा। स्वास्थ्य सेवा के संदर्भ में देखा जाए तो हमारी
स्वास्थ्य सेवा प्रणाली वैश्विक महामारी से निपटने के लिए न तो तैयार थी और न ही
ठीक तरह से सुसज्जित। ऐसी स्थित में लॉकडाउन एक फौरी उपाय ही था।
आम आदमी
जून में प्रकाशित ग्लोबल अलायंस फॉर मास एंटरप्रेन्योरशिप की एक रिपोर्ट के अनुसार
महामारी के पूर्व कई सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम
‘अनौपचारिकता और कम उत्पादकता के दुष्चक्र में स्थायी रूप से फंसे हुए थे’ और
‘विकसित नहीं हो रहे थे’। लॉकडाउन के बाद सरकार का मुख्य उद्देश्य सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को व्यवसाय के लिए एक विशेष ऋण शृंखला तैयार करना रहा।
ऐसे समय में जब नौकरी की कोई गारंटी नहीं है, लोग
खर्च करने के अनिच्छुक हैं और मांग में कमी है, तब कई
सूक्ष्म,
लघु और मध्यम उद्यमों के सुचारु रूप से काम करने की संभावना
सवालों के घेरे में हैं। ऐसे में विशेष ऋण लेने की क्षमता प्रदान करना अधिक सहायक
नहीं लगता है। अर्थव्यवस्था में मांग और आपूर्ति दोनों की गंभीर कमी के चलते
सूक्ष्म,
लघु और मध्यम उद्यमों के लिए अधिक ऋण निरर्थक ही हैं।
ग्लोबल अलायंस फॉर मास एंटरप्रेन्योरशिप की रिपोर्ट का अनुमान है कि कोविड-19
छोटे अनौपचारिक व्यवसायों के लिए सामूहिक-विलुप्ति की घटना बन सकता है और लगभग
30-40 प्रतिशत सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के अंत की संभावना
है। इन संख्याओं का मतलब है कि भारत में बहुत कम समय में उद्योग और खुदरा व्यापारी
अपने व्यवसाय खो चुके होंगे। ये छोटी स्व-रोज़गार इकाइयां भारतीय अर्थव्यवस्था की
एक विशेषता है। इनमें से कई इकाइयां किराए पर दुकान लेती हैं, नगर पालिकाओं को भुगतान करती हैं और इन पर अन्य कई वित्तीय दायित्व होते हैं।
वैसे भी अपने छोटे स्तर के व्यवसाय के कारण उनकी आय अधिक नहीं होती है और लॉकडाउन
के कारण उन्हें अपने व्यवसाय को कई महीनों तक पूरी तरह बंद रखना पड़ा जबकि उनके
वित्तीय दायित्व तो निरंतर जारी रहे। चूंकि इन्हें मोटे तौर पर अनौपचारिक आर्थिक
गतिविधियों में वर्गीकृत किया जाता है, व्यापक अर्थ व्यवस्था के
नुकसान के हिसाब-किताब में इन्हें हुए नुकसान को इन्हें शामिल नहीं किया गया। यह
लॉकडाउन के दौरान होने वाले नुकसान का अदृश्य रूप है।
आजीविका ब्यूरो के अनुसार प्रवासी महिलाओं पर होने वाला प्रभाव अधिक अदृश्य और
हानिकारक रहा है। यह एक ऐसी श्रेणी है जिसे लॉकडाउन में भारी नुकसान चुकाना पड़ा है
लेकिन इस नुकसान को वित्तीय शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है क्योंकि महिलाएं
देखभाल के अवैतनिक कार्य का सबसे बड़ा स्रोत हैं।
आजीविका ब्यूरो ने यह भी पाया कि भारत के कपड़ा केंद्र अहमदाबाद में घरेलू और
वैश्विक व्यवसाय द्वारा महिलाओं को घर-आधारित श्रमिकों के रूप में रखा जाता है।
महामारी से पहले भी वहां की महिलाएं औसतन 40 से 50 रुपए प्रतिदिन कमा रही थीं
(किसी प्रकार के श्रम अधिकार, आश्रय या रोज़गार एवं स्वास्थ्य
सुरक्षा के बगैर)। लॉकडाउन के बाद वे केवल 10 से 15 रुपए प्रतिदिन कमा रही थीं। कई
महिलाएं इसलिए भी काम जारी रखना चाहती हैं ताकि वे अपने पति की हिंसा से बच सकें।
घर में किसी भी तरह से आय लाने में असमर्थ होने पर उन्हें हिंसा का सामना करना
पड़ता है। इसके अलावा, काम छोड़ देने का मतलब अपने ठेकेदार से
सम्बंध खो देना जिसे वे किसी भी हाल में खोना नहीं चाहती हैं।
नारीवादी अर्थशास्त्री अश्विनी देशपांडे ने लॉकडाउन के कारण नौकरी जाने के
मामले में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत बदतर पाई है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कई
वर्षों से रोज़गार में महिला भागीदारी दर में गिरावट देखी जा रही है। अश्विनी
देशपांडे का अनुमान है कि लॉकडाउन के दौरान दस में से चार महिलाओं ने अपनी नौकरी
खो दी है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी ने बेरोज़गारी से जुड़े कुछ और चौंकाने वाले
आंकड़े प्रकाशित किए हैं। लॉकडाउन के महीनों में नौकरी गंवाने के आंकड़ों को देखिए:
अप्रैल
2020 में 177 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार खो दिया।
मई
2020 में 10 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
जून
2020 में 39 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
जुलाई
2020 में 50 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
कुल मिलाकर भारत में केवल चार महीनों में 1.9 करोड़ लोग नौकरियों से हाथ धो
बैठे। गौरतलब है कि ये आंकड़े औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के हैं, अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को तो उनके नियोक्ता की इच्छा पर नौकरी पर रखा
और निकाला जाता है।
लॉकडाउन के कारण भोजन खरीदने के लिए आय की कमी और खाद्य पदार्थों के वितरण में
अक्षमताओं के कारण कई क्षेत्रों में भुखमरी और अकाल जैसे हालात उत्पन्न हुए। गांव
कनेक्शन द्वारा लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण संकट पर एक रिपोर्ट में काफी निराशाजनक
आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। तालाबंदी के दौरान:
35
प्रतिशत परिवारों को कई बार या फिर कभी-कभी पूरे दिन के लिए भोजन प्राप्त नहीं हो
सका।
38
प्रतिशत परिवारों को कई बार या फिर कभी-कभी दिन में एक समय का भोजन प्राप्त नहीं
हो सका।
46
प्रतिशत परिवारों ने अक्सर या कभी-कभी अपने भोजन में से कुछ चीज़ें कम कर दीं।
68
प्रतिशत ग्रामीण भारतीयों को मौद्रिक संकट से गुज़रना पड़ा।
78 प्रतिशत
लोग ऐसे थे जिनके आमदनी प्राप्त करने वाले काम पूरी तरह रुक गए।
23
प्रतिशत लोगों को अपने घर के खर्चे चलाने के लिए उधार लेना पड़ा।
8
प्रतिशत लोगों को अपनी आवश्यक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपनी बहुमूल्य संपत्ति
जैसे मोबाइल फोन या घड़ी बेचना पड़ी।
एक और बात जिसे बहुत लोग अनदेखा कर देते हैं, यह है
कि लॉकडाउन के कारण नुकसान सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे के लोगों का नहीं हुआ है। उन
लोगों ने भी नुकसान उठाया है जो गरीबी रेखा के ठीक ऊपर हैं और सरकारी कल्याणकारी
योजनाओं के दायरे से बाहर हैं। वैश्विक महामारी जैसी कठिन परिस्थितियों में इस
वर्ग को अत्यंत विकट समस्याओं का सामना करना पड़ता है। और तो और, सरकारी योजनाओं में पात्रता की कमी हालात और बिगाड़ देती है। एक मायने में ये
परिवार सरकार द्वारा अधिकारिक रूप से पहचाने गए असुरक्षित परिवारों की तुलना में
कहीं अधिक असुरक्षित हैं।
विकल्प
अब तक यह तो स्पष्ट है कि भारत ने लॉकडाउन को अपनाकर एक भारी कीमत चुकाई है।
ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल यह है कि क्या लॉकडाउन के दौरान होने वाले आर्थिक
नुकसान को उचित ठहराया जा सकता है? दावा किया गया था कि वायरस को
फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन आवश्यक है। लेकिन वायरस अभी भी काफी तेज़ी से फैल
रहा है और रोज़ नए मामले सामने आ रहे हैं। इसलिए लॉकडाउन और इसके कारण होने वाले
नुकसान को उचित नहीं ठहराया जा सकता। हमें लॉकडाउन को अपनाने के लिए कम से कम एक
महीने और इंतज़ार करना चाहिए था। यदि लॉकडाउन से वास्तव में संक्रमण की दर में कमी
आई थी तो सख्त लॉकडाउन को अपनाने का पक्ष सही ठहराया जा सकता है। हम लॉकडाउन में
थोड़ा विलंब करके अर्थव्यवस्था को बेहतर तरीके से संगठित कर सकते थे। लोगों को अपने
घर जाने,
आवश्यक वस्तुओं को स्टॉक करने और यदि राशन कार्ड नहीं है तो
बनवाने के लिए कहा जा सकता था। इस तरह से मध्य-लॉकडाउन प्रवास के कारण बड़ी संख्या
में लोगों की जान बचाई जा सकती थी। यदि पुनरावलोकन किया जाए तो एक महीने इंतज़ार
करने पर कुछ भयावह नहीं हुआ होता।
एक और तरीका जो ऋण आधारित प्रोत्साहन के स्थान पर अपनाया जा सकता था। यह
पोर्टेबल राशन कार्ड के माध्यम से किया जा सकता था। हम राशन कार्ड का डिजिटलीकरण
कर सकते थे ताकि कोई व्यक्ति राशन कार्ड की हार्ड कॉपी के बिना भी उसका लाभ उठा
सके।
हम आधार कार्ड को एकीकृत करके आधार आधारित बैंक-लिंक्ड मनी ट्रांसफर सिस्टम
तैयार कर सकते थे जिसे विभिन्न उपकरणों द्वारा एक्सेस किया जा सके। इस तरीके से
सभी सुरक्षा नियमों का पालन करते हुए तेज़ी और सुरक्षित रूप से धन का स्थानांतरण
किया जा सकता है। लॉकडाउन के दौरान ऐसे कई लोग थे जिनके पास किसी प्रकार की आय का
सहारा नहीं था। इस प्रणाली से उपयोगकर्ता से उपयोगकर्ता और सरकार से उपयोगकर्ता को
सीधे तौर पर पैसा भेजने की सुविधा मिल पाती। यह उन लोगों को काफी फायदा पहुंचा
सकता था जो लॉकडाउन के दौरान जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे थे।
हम और अधिक पैसा छाप सकते थे। भारत की आर्थिक स्थिति के बावजूद हम इसे वहन कर
सकते थे। अमेरिका ने ज़रूरतमंद लोगों तक धन पहुंचाने के लिए तीन ट्रिलियन डॉलर की
अतिरिक्त मुद्रा छापने का काम किया। जर्मन सेंट्रल बैंक ने यूरोप के लोगों को सीधे
धन पहुंचाने के लिए लगभग एक बिलियन डॉलर छापने की अनुमति दी। यदि भारत ने अपने
जीडीपी की 3 प्रतिशत रकम भी छापी होती तो आज अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में होती।
यह लॉकडाउन के दौरान एक बड़ा अंतर पैदा कर सकता था जिसका अब कोई फायदा नहीं है।
क्योंकि अब तो अर्थव्यवस्था वापस पूर्ण रोज़गार की ओर बढ़ रही है इसलिए अधिक पैसा
छापने से मुद्रास्फीति में वृद्धि होगी।
निष्कर्ष
लॉकडाउन से हमें क्या नुकसान हुआ है? इस सवाल का जवाब देने के
लिए सवाल करना चाहिए कि हम नुकसान को कैसे परिभाषित करते हैं। यदि हम इसे केवल
मौद्रिक नुकसान के रूप में परिभाषित करते हैं तो लॉकडाउन के कारण हमें लगभग 26-33
अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। लेकिन यहां अर्थशास्त्र के साथ एक समस्या है – इसने
लोगों के जीवन,
उनकी मृत्यु और उनकी पीड़ा को संख्याओं के रूप में देखा है।
इसके बावजूद बहुत सी चीज़ों को ध्यान में नहीं रखा है जिन्हें मौद्रिक रूप से
व्यक्त किया जा सकता है।
और इसलिए नुकसान की हमारी परिभाषा और व्यापक होनी चाहिए है। क्योंकि लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा, उन परिवारों की पीड़ा जिन्हें खाली पेट सोना पड़ा, उन प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा जिन्हें शहर की सीमाओं पर पुलिस की बदसलूकी झेलते हुए सैकड़ों किलोमीटर पैदल या साइकलों पर अपने घरों के लिए निकलना पड़ा। वास्तव में ये नुकसान के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें व्यक्त कर पाना अर्थशास्त्र की क्षमताओं से परे है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.toiimg.com/imagenext/toiblogs/photo/blogs/wp-content/uploads/2020/04/TheGreatEconomicChallenge.jpg
युनीक्योर (uniQure) कंपनी ने स्पष्ट किया है कि हीमोफीलिया की जीन थेरेपी के
एक क्लीनिकल ट्रायल के दौरान एक मरीज़ में देखा गया लीवर कैंसर एडीनो-एसोसिएटेड
वायरस (एएवी) की वजह से नहीं हुआ है। गौरतलब है कि जीन थेरेपी में किसी जीन को
शरीर में पहुंचाने के लिए एएवी को वाहक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
युनीक्योर कंपनी हीमोफीलिया के उपचार में जीन थेरेपी का क्लीनिकल परीक्षण कर
रही थी। इस परीक्षण के दौरान दिसंबर 2020 में एक मामला सामने आया जिसमें देखा गया
कि मरीज़ के लीवर में कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि सक्रिय हो गई। ऐसा माना गया कि यह
जीन थेरेपी में इस्तेमाल किए गए एएवी की वजह से हुआ है। लेकिन युनीक्योर द्वारा
मरीज़ की ट्यूमर कोशिकाओं का परीक्षण करने पर पाया गया गया कि एएवी के जीनोम के अंश
मरीज़ की मात्र 0.027 प्रतिशत कैंसर कोशिकाओं में बेतरतीब ढंग से मौजूद थे। यदि
एएवी ने कैंसर कोशिकाओं को उकसाया होता तो वायरल डीएनए कई सारी ट्यूमर कोशिकाओं
में दिखना चाहिए था, जैसा कि नहीं हुआ।
इसके अलावा अध्ययन में मरीज़ की ट्यूमर कोशिकाओं में कई ज्ञात कैंसर
उत्परिवर्तन भी दिखे। साथ ही मरीज़ लंबे समय से हेपेटाइटिस बी और हेपेटाइटिस सी के
संक्रमण से ग्रसित भी था जो लीवर कैंसर के जोखिम को बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं।
चिल्ड्रंस हॉस्पिटल ऑफ फिलाडेल्फिया के डेनिस सबेतीनो बताते हैं कि हीमोफीलिया
के उपचार के लिए जीन थेरेपी में उपयोग किया जाने वाला एएवी लीवर ट्यूमर के लिए
ज़िम्मेदार नहीं पाया जाना इस क्षेत्र में आगे के कार्यों के लिए सकारात्मक साबित
होगा।
युनीक्योर के साथ ही ब्लूबर्ड कंपनी ने भी अपने एक क्लीनिकल परीक्षण के दौरान सामने आए मामले को स्पष्ट किया है – सिकल सेल रोग के उपचार के लिए जीन थेरेपी में उपयोग किया जाने वाला वायरस, लेंटीवायरल वेक्टर, मरीज़ में ल्यूकेमिया का जोखिम नहीं बढ़ाता। गौरतलब है कि उपरोक्त मामलों के मद्देनज़र सिकल सेल और हीमोफीलिया, दोनों के उपचार में जीन थेरेपी के क्लीनिकल परीक्षण पर रोक लगा दी गई थी। इन नतीजों से अब दोनों कंपनियों को उम्मीद है कि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन इन परीक्षणों पर लगी रोक को हटा लेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/rbc_1280p_0.jpg?itok=LifcU22w
हाल ही में विभिन्न कुलों के सूक्ष्मजीवों के आनुवंशिक
विश्लेषण से पता चला है कि ऑक्सीजन में सांस लेने वाले या कम से कम इसका उपयोग
करने वाले सबसे पहले जीव 3.1 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। यह खोज इसलिए
चौंकाती है क्योंकि पृथ्वी को ऑक्सीजनमय करने वाली महान ऑक्सीकरण घटना तो इसके
लगभग 50 करोड़ वर्ष बाद शुरू हुई थी।
ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले प्रोटीनों का अस्तित्व में आना, ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीवों के उद्भव में एक महत्वपूर्ण कदम था।
और अनॉक्सी जीवों से लदी पृथ्वी का अधिकांशत: ऑक्सी जीवों वाली पृथ्वी में परिवर्तित
होना जीवन का एक अहम नवाचार था।
वैज्ञानिक इस बात से तो सहमत हैं कि पृथ्वी का प्रारंभिक वायुमंडल और महासागर
ऑक्सीजन रहित थे। लेकिन ऐसे संकेत मिले हैं जो बताते हैं कि इस समय भी पृथ्वी पर
कुछ मात्रा में तो ऑक्सीजन मौजूद थी। जैसे वैज्ञानिकों ने लगभग 3 अरब साल पहले के
ऐसे खनिज भंडार खोजे हैं जो सिर्फ ऑक्सीजन की उपस्थिति में बन सकते थे। इसके अलावा
कुछ साक्ष्य बताते हैं कि अपशिष्ट उत्पाद के रूप में ऑक्सीजन छोड़ने वाले सबसे पहले
प्रकाश संश्लेषक जीव, सायनोबैक्टीरिया, भी 3.5
अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। वे इस ऑक्सीजन का उपयोग नहीं करते थे।
लेकिन इस पर आपत्ति यह है कि यदि ऑक्सीजन उत्पादक और उपयोगकर्ता इतनी जल्दी आए
होते तो वे पूरी पृथ्वी पर तेज़ी से फैल गए होते, क्योंकि
ऑक्सीजन का उपयोग भोजन से अधिक ऊर्जा प्राप्त करने में मदद करता है। लेकिन महान
ऑक्सीकरण की घटना 2.4 अरब साल पूर्व से पहले शुरू नहीं हुई थी।
ताज़ा अध्ययन में वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जैव-रसायनज्ञ डैन तौफीक और
उनके साथियों ने केंद्रक-पूर्व जीवों के 130 कुलों के जीनोम का विश्लेषण किया।
उन्होंने एक वंश वृक्ष बनाया जो लगभग 700 ऑक्सीजन निर्माता या उपयोगकर्ता एंज़ाइम्स
पर आधारित था। इससे उन्होंने प्रोटीन में उत्परिवर्तन दर पता की और इसकी मदद से एक
आणविक घड़ी तैयार की ताकि यह देखा जा सके कि प्रत्येक एंज़ाइम कब विकसित हुआ था। 130
कुलों में से सिर्फ 36 कुलों के विकसित होने का समय निर्धारित किया जा सका।
नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि 3
अरब से 3.1 अरब साल पहले ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीव कुलों में अचानक
उछाल आया था। इस समय 36 कुल में से 22 कुल के सूक्ष्मजीव विकसित हुए जबकि 12 कुल
के सूक्ष्मजीव इसके बाद और दो कुल के सूक्ष्मजीव इसके पहले अस्तित्व में आए थे। और
इन्हीं सूक्ष्मजीवों से ऐसे सूक्ष्मजीव विकसित हुए जो ऑक्सीजन का उपयोग कर भोजन से
अधिक ऊर्जा हासिल करने में सक्षम थे।
यदि यह बदलाव लगभग 3 अरब साल पहले आया था तो स्पष्ट है कि ऑक्सीजन का उपयोग
करने वाले जीव तुरंत ही पूरी पृथ्वी पर नहीं फैले थे, बल्कि
ऑक्सीजन के उपयोग की क्षमता छोटे-छोटे इलाकों में विकसित हुई थी जो धीरे-धीरे
करोड़ों सालों के दरम्यान फैलती गई।
फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि आणविक घड़ी से काल निर्धारण का विज्ञान अभी विकसित ही हो रहा है इसलिए घटनाओं का क्रम शायद सही हो सकता है, लेकिन घटनाओं का वास्तविक समय भिन्न हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.ucsfhealth.org/-/media/project/ucsf/ucsf-health/medical-tests/hero/aerobic-bacteria-2x.jpg
कोरोनावायरस के उभरते संस्करणों को लेकर शंका जताई जा रही है
कि ये मूल वायरस से अधिक संक्रामक हो सकते हैं। लेकिन मानव-वायरस के इस खेल में
वैज्ञानिकों ने कुछ आशाजनक परिणाम देखे हैं।
कोविड से स्वस्थ हुए लोगों और टीकाकृत लोगों के खून की जांच से पता चला है कि
हमारे प्रतिरक्षा तंत्र की कुछ कोशिकाओं – जो पूर्व में हुए संक्रमण को याद रखती
हैं – में बदलते वायरस के अनुसार बदलकर उनका मुकाबला करने की क्षमता विकसित हो
सकती है। इसका मतलब हुआ कि प्रतिरक्षा तंत्र नए संस्करणों से निपटने की दिशा में
विकसित हुआ है।
रॉकफेलर युनिवर्सिटी के प्रतिरक्षा विज्ञानी मिशेल नूसेनज़्वाइग के अनुसार
हमारा प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: वायरस से आगे रहने का प्रयास कर रहा है। नूसेनज़्वाइग
का विचार है कि हमारा शरीर मूल प्रतिरक्षी कोशिकाओं के अलावा एंटीबॉडी बनाने वाली
कोशिकाओं की आरक्षित सेना भी तैयार रखता है। समय के साथ कुछ आरक्षित कोशिकाएं
उत्परिवर्तित होती हैं और ऐसी एंटीबॉडीज़ का उत्पादन करती हैं जो नए वायरल
संस्करणों की बखूबी पहचान कर लेती हैं। अभी यह देखना बाकी है कि क्या उत्परिवर्तित
सार्स-कोव-2 से सुरक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त आरक्षित कोशिकाएं और
एंटीबॉडीज़ उपलब्ध हैं या नहीं।
पिछले वर्ष अप्रैल माह के दौरान नूसेनज़्वाइग और उनके सहयोगियों को कोविड से
ठीक हुए लोगों के रक्त में पुन: संक्रमण और घटती हुई एंटीबॉडीज़ के संकेत मिले थे
जो चिंताजनक था। तो वे देखना चाहते थे वायरस के विरुद्ध प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा
जवाब देने की क्षमता कितने समय तक बनी रहती है।
इसलिए उन्होंने सार्स-कोव-2 की चपेट में आए लोगों के ठीक होने के एक महीने और
छह महीने बाद रक्त के नमूने एकत्रित किए। इस बार काफी सकारात्मक परिणाम मिले। बाद
की तारीखों में एकत्रित नमूनों में कम एंटीबॉडी पाई गई लेकिन यह अपेक्षित था
क्योंकि अब संक्रमण साफ हो चुका था। इसके अलावा कुछ लोगों में एंटीबॉडी उत्पन्न
करने वाली कोशिकाएं (स्मृति बी कोशिकाएं) समय के साथ स्थिर रही थीं या फिर बढ़ी हुई
थीं। संक्रमण के बाद ये कोशिकाएं लसिका ग्रंथियों में सुस्त पड़ी रहती हैं और इनमें
वायरस को पहचानने की क्षमता बनी रहती है। यदि कोई व्यक्ति दूसरी बार संक्रमित होता
है तो स्मृति बी कोशिकाएं सक्रिय होकर जल्द से जल्द एंटीबॉडीज़ उत्पन्न करती हैं जो
संक्रमण को रोक देती हैं।
आगे के परीक्षणों में वैज्ञानिकों ने आरक्षित बी कोशिकाओं के क्लोन तैयार किए
और उनकी एंटीबॉडी का परीक्षण किया। इस परीक्षण में सार्स-कोव-2 को नए संस्करण की
तरह तैयार किया गया था लेकिन इसमें संख्या-वृद्धि की क्षमता नहीं थी। इस वायरस के
स्पाइक प्रोटीन में कुछ उत्परिवर्तन भी किए गए थे। जब शोधकर्ताओं ने इस
उत्परिवर्तित वायरस के विरुद्ध आरक्षित कोशिकाओं का परीक्षण किया तो कुछ कोशिकाओं
द्वारा बनाई गई एंटीबॉडीज़ उत्परिवर्तित स्पाइक प्रोटीन से जाकर चिपक गर्इं। नेचर
में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एंटीबॉडीज़ समय के साथ परिवर्तित हुर्इं।
हाल ही में नूसेनज़्वाइग और उनकी टीम ने जेनेटिक रूप से परिवर्तित विभिन्न
वायरसों का 6 महीने पुरानी बी कोशिकाओं के साथ परीक्षण किया। प्रारंभिक अध्ययन से
पता चला है कि इन एंटीबॉडीज़ ने परिवर्तित संस्करणों को पहचानने और प्रतिक्रिया
देने की क्षमता दिखाई है। यानी प्रतिरक्षा कोशिकाएं विकसित होती रहती हैं।
यह बात काफी दिलचस्प है कि जो कोशिकाएं थोड़ी अलग किस्म की एंटीबॉडी बनाती हैं
वे रोगजनकों पर हमला तो नहीं करतीं लेकिन फिर भी शरीर में बनी रहती हैं।
लेकिन क्या ये आरक्षित एंटीबॉडी पर्याप्त मात्रा में हैं और क्या वे नए वायरल
संस्करणों को बेअसर करके हमारी रक्षा करने में सक्षम हैं? फिलहाल
इस सवाल का जवाब दे पाना मुश्किल है। वैसे वाल्थम स्थित एडैजियो थेराप्यूटिक्स की
प्रतिरक्षा विज्ञानी लौरा वॉकर के साइंस इम्यूनोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन
के अनुसार करीब पांच महीने बाद एंटीबॉडी की वायरस को उदासीन करने की क्षमता में 10
गुना कमी देखी गई। लेकिन नूसेनज़्वाइग की टीम के समान वॉकर और उनकी टीम ने भी
स्मृति बी कोशिका की संख्या में निरंतर वृद्धि देखी।
वॉकर की टीम ने कई प्रकार की स्मृति बी कोशिकाओं के क्लोन बनाकर विभिन्न वायरस
संस्करणों के विरुद्ध उनकी एंटीबॉडी का परीक्षण किया। वॉकर के अनुसार कुछ नए
संस्करण एंटीबॉडीज़ से बच निकलने में सक्षम रहे जबकि 30 प्रतिशत एंटीबॉडीज़ नए वायरस
कणों से चिपकी रहीं। यानी बी कोशिकाओं द्वारा एंटीबॉडी उत्पादन बढ़ने से पहले ही
नया संक्रमण फैलना शुरू हो सकता है। लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी बी कोशिका इस
वायरस को कुछ हद तक रोक सकती है और गंभीर रोग से सुरक्षा प्रदान कर सकती है। लेकिन
इन एंटीबॉडी की पर्याप्तता पर अभी भी सवाल बना हुआ है। वॉकर का मानना है कि
एंटीबॉडी की कम मात्रा के बाद भी अस्पताल में दाखिले या मृत्यु जैसी संभावनाओं को
रोका जा सकता है।
वैसे गंभीर कोविड से बचाव के लिए सुरक्षा की एक और पंक्ति सहायक होती है जिसे
हम टी-कोशिका कहते हैं। ये कोशिकाएं रोगजनकों पर सीधे हमला नहीं करती हैं बल्कि एक
किस्म की टी-कोशिकाएं संक्रमित कोशिकाओं की तलाश करके उन्हें नष्ट कर देती हैं।
प्रतिरक्षा विज्ञानियों के अनुसार टी कोशिकाएं रोगजनकों की पहचान करने में सामान्य
तरीके को अपनाती हैं। ये बी कोशिकाओं की तरह स्पाइक-विशिष्ट आक्रमण के विपरीत, वायरस के कई अंशों पर हमला करती हैं जिससे अलग-अलग संस्करण के वायरस उन्हें
चकमा नहीं दे पाते हैं।
हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में प्रतिरक्षा विज्ञानियों ने सार्स-कोव-2 से
ग्रसित लोगों की टी-कोशिकाओं का परीक्षण किया। वायरस के विभिन्न संस्करणों के
खिलाफ टी-कोशिकाओं की प्रतिक्रिया कम नहीं हुई थी। शोधकर्ताओं के अनुसार एक कमज़ोर
बी कोशिका प्रतिक्रिया के चलते वायरस को फैलने में मदद मिल सकती है लेकिन
टी-कोशिका वायरस को गंभीर रूप से फैलने से रोकने में सक्षम होती हैं।
आने वाले महीनों में, शोधकर्ता नव विकसित जीन अनुक्रमण उपकरणों और क्लोनिंग तकनीकों का उपयोग करके इन कोशिकाओं पर नज़र रखेंगे ताकि वायरस के विभिन्न संस्करणों और नए टीकों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया का पता लग सके। इन तकनीकों की मदद से प्रतिरक्षा विज्ञानियों को बड़ी जनसंख्या में व्यापक संक्रमण का अध्ययन और निगरानी करने की नई क्षमताएं मिलती रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.google.com/search?q=Your+Immune+System+Evolves+to+Fight+Coronavirus+Variants&source=lnms&tbm=isch&sa=X&ved=2ahUKEwj886-kwv_vAhUPeisKHTklAbQQ_AUoAXoECAEQAw&biw=1366&bih=625#imgrc=cjm9Wm6AR17nvM
भारत में लगभग सितंबर 2020 से कोविड मामलों में निरंतर गिरावट
से ऐसा माना जा रहा था कि अब महामारी का प्रभाव कम हो रहा है। लेकिन फरवरी माह के
मध्य में देशव्यापी मामलों की संख्या 11000 प्रतिदिन से बढ़कर मार्च के अंतिम
सप्ताह में 50,000 प्रतिदिन हो गई। इन बढ़ते मामलों से निपटने के लिए नए प्रतिबंधों
के साथ टीकाकरण अभियान भी चलाया जा रहा है लेकिन इसकी गति धीमी है।
एंटीबॉडी सर्वेक्षण का निष्कर्ष था कि दिल्ली और मुंबई जैसे घनी आबादी वाले
क्षेत्रों में लगभग झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त कर ली गई है। महामारी के जल्द अंत की
उम्मीद की जाने लगी थी लेकिन 700 ज़िलों में किए गए सर्वेक्षण में केवल 22 प्रतिशत
भारतीय ही वायरस के प्रभाव में आए हैं। इस दौरान कई नियंत्रण उपायों में काफी ढील
दी गई।
इस महामारी के दोबारा पनपने का कारण वायरस में उत्परिवर्तन बताया जा रहा है।
10,000 से अधिक नमूनों के जीनोम अनुक्रमण पर 736 में अधिक संक्रामक बी.1.1.7
संस्करण पाया गया है। यह संस्करण सबसे पहले यूके में पाया गया था। वर्तमान में
वैज्ञानिक अत्यधिक मामलों वाले ज़िलों में पाए गए दो उत्परिवर्तित संस्करणों का
अध्ययन कर रहे हैं – E484Q और L452L। ये दोनों उत्परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली से बच निकलने, एंटीबॉडी को चकमा देकर संक्रमण में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार माने जा रहे हैं
लेकिन अभी स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि नए मामलों में वृद्धि इन संस्करणों के कारण
हुई है।
जलवायु की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार
जिस तरह युरोप और अमेरिका में लोग ठंड के मौसम में अधिकांश समय घरों में बिताते
हैं उसी तरह भारत के लोग गर्मियों में घरों के अंदर रहना पसंद करते हैं। बंद
परिवेश में वायरस अधिक तेज़ी से फैलता है।
टीकाकरण के मामले में 5 प्रतिशत से कम भारतीयों को कम से कम टीके की पहली
खुराक मिल पाई है। कोविशील्ड और कोवैक्सीन दोनों ही टीकों की दो खुराक आवश्यक है।
वर्तमान में प्रतिदिन 20 से 30 लाख टीके दिए जा रहे हैं जिसे बढ़ाने के निरंतर
प्रयास जारी हैं। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के महामारी विज्ञानी गिरिधर
बाबू के अनुसार सरकार को प्रतिदिन एक करोड़ टीके का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए
ताकि 30 करोड़ लोगों को जल्द से जल्द कवर किया जा सके।
हालांकि अधिकारियों के अनुसार टीकों की आपूर्ति कोई समस्या नहीं है लेकिन
रॉयटर के अनुसार भारत ने घरेलू मांग को पूरा करने के लिए एस्ट्राज़ेनेका टीके के
निर्यात पर रोक लगा दी है। भारत ने जनवरी से लेकर अब तक ‘टीका कूटनीति’ के तहत 80
देशों को 6 करोड़ खुराकों का निर्यात किया है। वैसे सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने
चेतावनी दी है कि अमेरिका द्वारा निर्यात पर अस्थायी रोक से टीके के लिए आवश्यक
कच्चे माल की कमी से टीका आपूर्ति प्रभावित हो सकती है।
देखा जाए तो टीका लगवाने वालों में मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों की संख्या
अधिक है और निम्न वर्ग के लोगों की संख्या काफी कम है। इसका मुख्य कारण जागरूकता
में कमी और श्रमिकों द्वारा दिन भर के काम से समय न निकाल पाना हो सकता है।
हालांकि मुंबई की झुग्गी बस्तियों में टीकाकरण शिविर लगाए जा रहे हैं लेकिन
टीकाकरण के भय को दूर करने के लिए बड़े पैमाने पर समुदाय-आधारित कार्यक्रम चलाने की
ज़रूरत है। टीकाकरण के प्रति शंका का एक कारण कोवैक्सीन को जल्दबाज़ी में दी गई
मंज़ूरी भी है।
इसके अलावा परीक्षणों के दौरान सहमति के उल्लंघन के समाचार और अपर्याप्त
पारदर्शिता ने भी लोगों के आत्मविश्वास को डिगाया है। मार्च में 29 डॉक्टरों और
शोधकर्ताओं के एक समूह ने जनवरी में शुरू हुए टीकाकरण अभियान के बाद से 80 लोगों
के मरने की सूचना दी है। यह मान भी लिया जाए कि मौतें टीके के कारण नहीं हुई हैं
तो भी याचिकाकर्ताओं के अनुसार सरकार को इसकी जांच करके निष्कर्षों का खुलासा करना
चाहिए। भारत ने अभी तक कोविशील्ड के उपयोग को रोका नहीं है जबकि क्लॉटिंग के गंभीर
मामलों के चलते 20 युरोपीय देशों ने इसके उपयोग को रोक दिया है।
फिलहाल दूसरी लहर को रोकने के लिए कई राज्यों और शहरों में सामाजिक समारोहों
पर रोक और अस्थायी तालाबंदी लगाई गई है। इसके साथ ही परीक्षण और ट्रेसिंग की
प्रक्रिया को भी अपनाया जा रहा है। हरिद्वार में महाकुम्भ आयोजन में कई प्रतिबंध
लगाए गए हैं। देखना यह कि पालन कितना हो पाता है। यहां 30 लाख से ज़्यादा लोगों के
शामिल होने का अनुमान है।
एक बात तय है कि यह वायरस अभी भी मौजूद है और समय-समय पर नए संस्करणों के साथ हमें आश्चर्यचकित करता रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/mumbai_1280p.jpg?itok=sPh5mCRF
प्लास्टिक एक बड़ी पर्यावरण समस्या है। सामान्य प्लास्टिक बनाने
में एथीलीन और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसे जिन शुरुआती पदार्थों का उपयोग होता है
उन्हें बनाने में जीवाश्म र्इंधन की काफी खपत होती है और काफी मात्रा में कार्बन
डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी होता है। हालिया वर्षों में रसायनज्ञों ने ऐसे विद्युत
रासायनिक सेल तैयार किए हैं जो नवीकरणीय बिजली का उपयोग करते हुए पानी और औद्योगिक
प्रक्रियाओं से प्राप्त अपशिष्ट कार्बन डाईऑक्साइड से प्लास्टिक के लिए कच्चा माल
प्रदान कर सकते हैं। लेकिन इसे पर्यावरण अनुकूल बनाने में अभी भी काफी समस्याएं
हैं। आम तौर पर ये सेल काफी मात्रा में क्षारीय पदार्थों की खपत करते हैं जिन्हें
बनाने में काफी उर्जा खर्च होती है।
इसके लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रसायनज्ञ पायडोंग यैंग की टीम और एक
अन्य समूह ने इस क्षारीय बाधा को हल करने के प्रयास किए। एक टीम ने दो विद्युत
रासायनिक सेल को जोड़कर समस्या को हल किया है, वहीं
दूसरे समूह ने क्षारों के बिना वांछित रसायन प्राप्त करने के लिए एंज़ाइमनुमा
उत्प्रेरक प्रयुक्त किया है।
वर्तमान में कंपनियां पेट्रोलियम के बड़े हाइड्रोकार्बन से उच्च दाब में अत्यधिक
गर्म भाप का उपयोग करके मीठी-महक वाली एथीलीन गैस का उत्पादन करती हैं। इस
प्रक्रिया का उपयोग कई दशकों से किया जा रहा है जिससे एथीलीन का उत्पादन लगभग
72,000 रुपए प्रति टन के हिसाब से होता है। लेकिन इससे प्रति वर्ष 20 करोड़ टन
कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी होता है जो वैश्विक उत्सर्जन का लगभग 0.6
प्रतिशत है। विद्युत-रासायनिक सेल अधिक पर्यावरण अनुकूल विकल्प प्रदान करते हैं।
ये उत्प्रेरकों को बिजली प्रदान करते हैं जो वांछित रसायनों का निर्माण करते हैं।
दोनों सेल में दो इलेक्ट्रोड और उनके बीच इलेक्ट्रोलाइट भरा होता है जो आवेशित
आयनों को एक से दूसरे इलेक्ट्रोड तक पहुंचाता है। विद्युत-रासायनिक सेल में कार्बन
डाईऑक्साइड और पानी कैथोड पर प्रतिक्रिया करके एथीलीन और अन्य हाइड्रोकार्बन बनाते
हैं। सेल के इलेक्ट्रोलाइट में पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड मिलाया जाता है ताकि कम
वोल्टेज पर ही रसायनिक परिवर्तन हो सके और ऊर्जा दक्षता बढ़ सके। इससे अधिकांश
बिजली का उपयोग हाइड्रोकार्बन निर्माण में हो पाता है।
लेकिन स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के इलेक्ट्रोकेमिस्ट मैथ्यू कानन ने पोटेशियम
हाइड्रॉक्साइड के उपयोग को लेकर एक समस्या की ओर ध्यान खींचा है। वास्तव में कैथोड
पर हाइड्रॉक्साइड आयन कार्बन डाईऑक्साइड के साथ क्रिया करके कार्बोनेट का निर्माण
करता है। यह कार्बोनेट ठोस पदार्थ के रूप में जमा होता रहता है। इस कारण
हाइड्रॉक्साइड की निरंतर पूर्ति करना पड़ती है। दिक्कत यह है कि हाइड्रॉक्साइड के
निर्माण में काफी उर्जा खर्च होती है।
इसके समाधान के लिए कानन और उनके सहयोगियों ने कार्बन डाईऑक्साइड की जगह
कार्बन मोनोऑक्साइड का उपयोग किया जो हाइड्रॉक्साइड से क्रिया करके कार्बोनेट में
परिवर्तित नहीं होती है। उन्होंने इस सेल को अधिक कुशल पाया। इसमें उत्प्रेरक को
प्रदत्त 75 प्रतिशत इलेक्ट्रॉन ने एक कार्बनिक यौगिक एसीटेट का निर्माण किया जिसे
औद्योगिक सूक्ष्मजीवों के आहार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इसमें बस एक
समस्या है कि कार्बन मोनोऑक्साइड के लिए जीवाश्म र्इंधन की आवश्यकता होती है जो
पर्यावरण के लिए हानिकारक है।
इसके बाद युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के रसायनयज्ञ और उनकी टीम ने कुछ प्रयास किए
हैं। उन्होंने बाज़ार में उपलब्ध ठोस ऑक्साइड विद्युत-रासायनिक सेल का उपयोग किया
जो उच्च तापमान पर कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बन मोनोऑक्साइड में परिवर्तित करती है
और नवीकरणीय बिजली का उपयोग करती है। इस प्रक्रिया में विद्युत-रासायनिक सेल के
उत्प्रेरक को इस तरह तैयार किया जाता है कि वे कार्बन मोनोऑक्साइड के संपर्क में
आने पर एथीलीन का निर्माण करें। यह एसीटेट से अधिक उपयोगी रसायन है। जूल
में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह सेल हाइड्रॉक्साइड का उपयोग नहीं करती और
एथीलीन का निर्माण होता है।
इसके अलावा यैंग और उनके सहयोगियों ने क्षारीयता की समस्या को सुलझाने का एक
और तरीका खोजा है। उन्होंने क्षारीय विद्युत-रासायनिक सेल के उत्प्रेरक को इस तरह
से डिज़ाइन किया है कि पानी और हाइड्रॉक्साइड कार्बन डाईऑक्साइड के टूटने के स्थान
पर नहीं पहुंच पाते। तो कार्बोनेट भी नहीं बनता। लेकिन ये सेल अभी भी कार्बन
मोनोऑक्साइड और पानी से प्राप्त हाइड्रोजन को एथीलीन व अन्य हाइड्रोकार्बन में
परिवर्तित नहीं करती।
लेकिन इस शोध का पूरा दारोमदार सिर्फ विद्युत रासायनिक सेल पर नहीं है। जैसे-जैसे पवन/सौर उर्जा का उत्पादन बढ़ रहा है, नवीकरणीय ऊर्जा सस्ती होती जा रही है। सस्ती ऊर्जा से विद्युत रासायनिक सेल की दक्षता में सुधार होगा और यह एथीलीन उत्पादन के मामले में जीवाश्म र्इंधन के समकक्ष आ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0226NID_Polyethylene_Production_online.jpg?itok=Rq4_L0n4