एम्बर
(जीवाश्मित
रेजि़न) में
तिलचट्टों का मल सुरक्षित मिलना तो काफी आम है। लेकिन उत्तरी म्यांमार की हुकॉन्ग
घाटी से बरामद किए गए करीब 1 करोड़ वर्ष पुराने एम्बर नमूनों में तिलचट्टा (कॉकरोच) और उसका मल दोनों
साथ मिले हैं। एम्बर में किसी जीव का मल और सम्बंधित जीव दोनों का साथ मिलना काफी
दुर्लभ है।
नेचरविसेनशाफ्टेन (प्रकृति विज्ञान) में प्रकाशित अध्ययन
में शोधकर्ताओं ने मल का बहुत बारीकी से अवलोकन किया है। उन्हें कॉकरोच की विष्ठा
में संरक्षित परागकण दिखे, जिससे पता चलता है
कि साइकस वृक्षों के परागण में तिलचट्टों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। (साइकस वृक्षों से
ऐसा रस निकलता है जिसमें यह बदकिस्मत कॉचरोच फंस गया।) विष्ठा में शोधकर्ताओं को प्रोटोज़ोआ और
बैक्टीरिया भी मिले हैं जो आजकल की दीमक और कॉकरोच की आंतों में पाए जाने वाले
सूक्ष्मजीवों से मिलते-जुलते
हैं, जिससे लगता है कि कीट और उनकी आंत के
सूक्ष्मजीवों का साथ लगभग एक करोड़ वर्ष पहले से है।
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि यह अध्ययन अन्य वैज्ञानिकों को रेजि़न में फंसे जीवों की ही नहीं बल्कि उनकी विष्ठा का भी बारीकी से पड़ताल करने को प्रोत्साहित करेगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Cockroach_amber_1280x720_0.jpg?itok=TBpedvSa
एक
ताज़ा अध्ययन में पता चला है कि कुछ बैक्टीरिया ऐसे नैनो (अति-सूक्ष्म) तार बनाते हैं जिनमें से होकर बिजली बहती
है, हालांकि अभी शोधकर्ता यह नहीं जानते कि इस
बिजली का स्रोत क्या है। वैसे एक बात पक्की है कि ये बैक्टीरिया और उनके द्वारा
बनाए गए नैनो तार बिजली का उत्पादन तब तक ही करते हैं,
जब तक कि हवा में नमी हो। दरअसल ये नैनो तार और कुछ नहीं,
प्रोटीन के तंतु हैं जो इलेक्ट्रॉन्स को बैक्टीरिया से दूर
ले जाते हैं। इलेक्ट्रॉन का प्रवाह ही तो बिजली है।
यह
देखा गया है कि जब पानी की सूक्ष्म बूंदें ग्रेफीन या कुछ अन्य पदार्थों के साथ
अंतर्क्रिया करती हैं तो विद्युत आवेश पैदा होता है और इन पदार्थों में से
इलेक्ट्रॉन का प्रवाह होने लगता है। लगभग 15 वर्ष पूर्व मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के
सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डेरेक लवली ने खोज की थी कि जियोबैक्टर नामक
बैक्टीरिया इलेक्ट्रॉन्स को कार्बनिक पदार्थों से धात्विक यौगिकों (जैसे लौह ऑक्साइड) की ओर ले जाता है।
उसके बाद यह पता चला कि कई अन्य बैक्टीरिया हैं जो ऐसे प्रोटीन नैनो तार बनाते हैं
जिनके ज़रिए वे इलेक्ट्रॉन्स को अन्य बैक्टीरिया या अपने परिवेश में उपस्थित तलछट
तक पहुंचाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान बिजली पैदा होती है।
फिर
लगभग 2 वर्ष
पहले एक शोधकर्ता ने पाया कि इन नैनो तारों को बैक्टीरिया से अलग कर दिया जाए,
तो भी इनमें विद्युत धारा पैदा होती रहती है। देखा गया कि
जब नैनो तारों से बनी एक झिल्ली को सोने की दो चकतियों के बीच सैंडविच कर दिया
जाता है, तो इस व्यवस्था में
से 20 घंटे
तक बिजली मिलती रहती है। इस व्यवस्था में जुगाड़ यह करना पड़ता है कि ऊपर वाली
तश्तरी थोड़ी छोटी हो ताकि नैनो तार की झिल्ली नम हवा के संपर्क में रहे।
शोधकर्ताओं
को इतना तो समझ में आ गया कि इलेक्ट्रॉन का स्रोत सोने की चकती नहीं है क्योंकि
कार्बन चकतियों ने भी यही असर पैदा किया, जबकि
कार्बन आसानी इलेक्ट्रॉन से नहीं छोड़ता। दूसरी संभावना यह हो सकती थी कि नैनो तार
विघटित हो रहे हैं लेकिन पता चला कि वह भी नहीं हो रहा है। तीसरा विचार था कि हो न
हो, यह प्रकाश विद्युत प्रभाव के कारण काम कर
रहा है लेकिन यह विचार भी निरस्त करना पड़ा क्योंकि बिजली तो अंधेरे में भी बहती
रही। अंतत: लगता
है कि शायद नमी ही बिजली का स्रोत है। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में
शोधकर्ताओं ने कयास लगाया है कि संभवत: पानी के विघटन के कारण बिजली बन रही है।
अब शोधकर्ताओं ने जियोबैक्टर के स्थान पर आसानी से मिलने व वृद्धि करने वाले बैक्टीरिया ई. कोली की मदद से यह जुगाड़ जमाने में सफलता प्राप्त कर ली है। यह इतनी बिजली देता है कि मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का काम चल सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Nanowires_power_plant_1280x720.jpg?itok=OqgKSCRd
परिवर्तन
और बूढ़े होने की प्रक्रियाएं ही हैं जो हमें समय बीतने का एहसास कराती हैं। और समय
बीतने का एहसास न हो तो मानव विकास, कला
व सभ्यता काफी अलग होंगे।
प्रोसीडिंग्स
ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (पीएनएएस) में ए एंड एम विश्वविद्यालय,
एरिज़ोना स्टेट विश्वविद्यालय, चाइना
कृषि विश्वविद्यालय और स्कोल्वो विज्ञान व टेक्नॉलॉजी संस्थान के शोधकर्ताओं के एक
शोध पत्र में सजीवों में बुढ़ाने की प्रक्रिया की क्रियाविधि की एक समझ एक कदम आगे
बढ़ी है।
इस
कदम का सम्बंध कोशिकाओं में उपस्थित डीएनए के एक अंश से है,
जो कोशिकाओं के विभाजन और नवीनीकरण में भूमिका निभाता है।
यह घटक सबसे पहले ठहरे हुए पानी की एक शैवाल में खोजा गया था और आगे चलकर पता चला
कि यह अधिकांश सजीवों के डीएनए में पाया जाता है। पीएनएएस के शोध पत्र में टीम ने
खुलासा किया है कि यह घटक पौधों में कैसे काम करता है। धरती पर सबसे लंबी उम्र
पौधे ही पाते हैं, इसलिए इनमें इस घटक
की समझ को आगे चलकर अन्य जीवों और मनुष्यों पर भी लागू किया जा सकेगा।
सजीवों
में वृद्धि और प्रजनन दरअसल कोशिका विभाजन के ज़रिए होते हैं। विभाजन के दौरान कोई
भी कोशिका दो कोशिकाओं में बंट जाती हैं, जो
मूल कोशिका के समान होती हैं। यह प्रतिलिपिकरण कोशिका के केंद्रक में उपस्थित
डीएनए की बदौलत होता है। डीएनए एक लंबा अणु होता है जिसमें कोशिका के निर्माण का
ब्लूप्रिंट भी होता है और स्वयं की प्रतिलिपि बनाने का साधन भी होता है। डीएनए की
प्रतिलिपि इसलिए बन पाती है क्योंकि यह दो पूरक शृंखलाओं से मिलकर बना होता है। जब
ये दोनों शृंखलाएं अलग-अलग
होती हैं, तो दोनों में यह
क्षमता होती है कि वे अपने परिवेश से पदार्थ लेकर दूसरी शृंखला बना सकती हैं।
लेकिन
इसमें एक समस्या है। प्रतिलिपिकरण के दौरान ये शृंखलाएं लंबी हो सकती हैं या किसी
अन्य डीएनए से जुड़ सकती हैं। ऐसा होने पर जो अणु बनेगा वह अकार्यक्षम होगा और इस
तरह से बनने वाली कोशिकाएं नाकाम साबित होंगी। लिहाज़ा डीएनए में एक ऐसी व्यवस्था
बनी है कि ऐसी गड़बड़ियों को रोका जा सके। प्रत्येक डीएनए के सिरों पर कुछ ऐसी
रासायनिक रचना होती है जो बताती है कि वह उस अणु का अंतिम हिस्सा है। और डीएनए में
यह क्षमता होती है कि वह अपने सिरों पर यह व्यवस्था बना सके।
सिरे
पर स्थित इस व्यवस्था को टेलामेयर कहते हैं। यह वास्तव में उन्हीं इकाइयों से बना
होता है जो डीएनए को भी बनाती हैं। और यह टेलोमेयर एक एंज़ाइम की मदद से बनाया जाता
है जिसे टेलोमरेज़ कहते हैं। कोशिकाओं में किसी भी रासायनिक क्रिया के संपादन हेतु
एंज़ाइम पाए जाते हैं।
बुढ़ाने
की प्रक्रिया की प्रकृति को समझने की दिशा में शुरुआती खोज यह हुई थी कि कोई भी
कोशिका कितनी बार विभाजित हो सकती है, इसकी
एक सीमा होती है। आगे चलकर इसका कारण यह पता चला कि हर बार विभाजन के समय जो नई
कोशिकाएं बनती हैं, उनका डीएनए मूल
कोशिका के समान नहीं होता। हर विभाजन के बाद टेलोमेयर थोड़ा छोटा हो जाता है। एक
संख्या में विभाजन के बाद टेलोमेयर निष्प्रभावी हो जाता है और कोशिका विभाजन रुक
जाता है। लिहाज़ा, वृद्धि धीमी पड़ जाती
है, सजीव का कामकाज ठप होने लगता है और तब कहा
जाता है कि वह जीव बुढ़ा रहा है।
उपरोक्त
खोज 1980 में
एलिज़ाबेथ ब्लैकबर्न, कैरोल ग्राइडर और
जैक ज़ोस्ताक ने की थी और इसके लिए उन्हें 2009 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। अच्छी
बात यह थी कि इन शोधकर्ताओं ने एक एंज़ाइम (टेलोमरेज़) की खोज भी की थी जिसमें टेलोमेयर के विघटन
को रोकने या धीमा करने और यहां तक कि उसे पलटने की भी क्षमता होती है। टेलोमरेज़
में वह सांचा मौजूद होता है जो आसपास के परिवेश से पदार्थों को जोड़कर डीएनए का
टेलोमरेज़ वाला खंड बना सकता है। इसके अलावा टेलोमरेज़ में यह क्षमता भी होती है कि
वह पूरे डीएनए की ऐसी प्रतिलिपि बनवा सकता है, जिसमें
अंतिम सिरा नदारद न हो। इस तरह से टेलोमरेज़ विभाजित होती कोशिकाओं को तंदुरुस्त रख
सकता है।
टेलोमेयर
और टेलोमरेज़ की क्रिया कोशिका मृत्यु और कोशिकाओं की वृद्धि में निर्णायक महत्व
रखती है। वैसे किसी भी जीव की अधिकांश कोशिकाएं बहुत बार विभाजित नहीं होतीं,
इसलिए अधिकांश कोशिकाओं को टेलोमेयर के घिसाव या संकुचन से
कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन स्टेम कोशिकाओं की बात अलग है। ये वे कोशिकाएं होती हैं
जो क्षति या बीमारी की वजह से नष्ट होने वाली कोशिकाओं की प्रतिपूर्ति करती हैं।
उम्र बढ़ने के साथ ये स्टेम कोशिकाएं कम कारगर रह जाती हैं और जीव चोट या बीमारी से
उबरने में असमर्थ होता जाता है। दरअसल, कई
सारी ऐसी बीमारियां है जो सीधे-सीधे टेलोमरेज़ की गड़बड़ी की वजह से होती हैं। जैसे एनीमिया,
त्वचा व श्वसन सम्बंधी रोग।
इसके
आधार पर शायद ऐसा लगेगा कि टेलोमरेज़ को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजकर हम
वृद्धावस्था से निपट सकते हैं। लेकिन गौरतलब है कि टेलोमरेज़ का बढ़ा हुआ स्तर कैंसर
कोशिकाओं को अनियंत्रित विभाजन में मदद कर नई समस्याएं पैदा कर सकता है। अत: टेलोमरेज़ की
क्रियाविधि को समझना आवश्यक है ताकि हम ऐसे उपचार विकसित कर सकें जिनमें ऐसे साइड
प्रभाव न हों।
पीएनएएस के
शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि वैसे तो टेलोमरेज़ की भूमिका सारे जीवों में एक-सी होती है,
लेकिन यह सही नहीं है कि उसका कामकाजी हिस्सा भी सारे
सजीवों में एक जैसा हो। कामकाजी हिस्से से आशय टेलोमरेज़ के उस हिस्से से है जो
कोशिका विभाजन के दौरान डीएनए को टेलोमेयर के संश्लेषण में मदद देता है। इस घटक को
टेलोमरेज़ आरएनए (या
संक्षेप में टीआर) कहते
हैं। शोध पत्र में स्पष्ट किया गया है कि टीआर की प्रकृति को समझना काफी
चुनौतीपूर्ण रहा है क्योंकि विभिन्न प्रजातियों में टीआर की प्रकृति व संरचना बहुत
अलग-अलग
होती है।
टीम
ने अपना कार्य एरेबिडॉप्सिस थैलियाना नामक पौधे के टेलोमरेज़ के साथ प्रयोग और
विश्लेषण के आधार पर किया। एरेबिडॉप्सिस थैलियाना पादप वैज्ञानिकों के लिए पसंदीदा
मॉडल पौधा रहा है। शोध पत्र के मुताबिक अध्ययन से पता चला कि टीआर अणु में विविधता
के बावजूद इस अणु के अंदर दो ऐसी विशिष्ट रचनाएं हैं जो विभिन्न प्रजातियों में एक
जैसी बनी रही हैं। पिछले अध्ययनों से आगे बढ़कर वर्तमान अध्ययन में एरेबिडॉप्सिस
थैलियाना में टीआर का एक प्रकार पहचाना गया है जो संभवत: टेलोमेयर के रख-रखाव में मदद करता है और टेलोमेयर की एक उप-इकाई के साथ जुड़कर
टेलोमरेज़ की गतिविधि का पुनर्गठन करता है।
अध्ययन
में पादप कोशिका, तालाब में पाई जाने
वाली स्कम और अकशेरुकी जंतुओं के टीआर के तुलनात्मक लक्षण भी उजागर किए हैं। इनसे
जैव विकास के उस मार्ग का भान होता है जिसे एक-कोशिकीय प्राणियों से लेकर वनस्पतियों और
ज़्यादा जटिल जीवों तक के विकास के दौरान अपनाया गया है। इस मार्ग को समझकर हम यह
समझ पाएंगे कि टेलोमेयर के काम को किस तरह बढ़ावा दिया जा सकता है या रोका जा सकता
है।
टेलोमेयर घिसाव की प्रक्रिया अनियंत्रित कोशिका विभाजन को रोकने के लिए अनिवार्य है। इसी वजह से जीव बूढ़े होते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसीलिए जंतुओं की आयु चंद दशकों तक सीमित होती है। दूसरी ओर, ब्रिासलकोन चीड़ और यू वृक्ष हज़ारों साल जीवित रहते हैं। यदि हम यह समझ पाएं कि पादप जगत बुढ़ाने की प्रक्रिया से कैसे निपटता है, तो शायद हमें मनुष्यों की आयु बढ़ाने या कम से कम जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाने का रास्ता मिल जाए।(स्रोत फीचर्स)
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साल 1688 में एक आयरिश
दार्शनिक विलियम मोलेनो ने अपने सहयोगी जॉन लॉके से एक सवाल पूछा था: कोई जन्मजात
दृष्टिहीन व्यक्ति जिसने मात्र स्पर्श से चीज़ों को पहचानना सीखा है,
यदि आगे चलकर उसमें देखने की क्षमता आ जाए,
तो क्या वह सिर्फ देखकर चीज़ों को पहचान पाएगा?
उनका यह सवाल मोलेनो समस्या के नाम से जाना जाता है। सवाल
मूलत: यह
है कि क्या मनुष्य में आकृतियां पहचानने की क्षमता जन्मजात होती है या क्या वे
देखकर, स्पर्श से और अन्य
इंद्रियों के माध्यम से इसे सीखते या अर्जित करते हैं?
यदि दूसरा विकल्प सही है, तो
इसमें बहुत समय लगना चाहिए।
कुछ
वर्ष पूर्व इस गुत्थी को सुलझाने के एक प्रयास में कुछ ऐसे बच्चे शामिल किए गए थे
जो जन्म से अंधे थे लेकिन बाद में उनकी दृष्टि बहाल हो गई थी। ये बच्चे तत्काल तो
देखकर आकृतियां नहीं पहचान पाए थे लेकिन बहुत समय भी नहीं लगा था। लेकिन कुछ तो
सीखना पड़ा था। यानी परिणाम अस्पष्ट थे। हाल ही में लंदन स्थित क्वीन मैरी
युनिवर्सिटी के लार्स चिटका और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश एक
बार फिर से की है।
प्रयोग
भंवरों पर किया गया। अपने अध्ययन में उन्होंने पहले भंवरों को उजाले में गोले और
घन में अंतर सीखने का प्रशिक्षण दिया – उजाले में, दो बंद पेट्री डिश
में गोले और घन आकृतियां रखी गर्इं और उनमें से किसी एक को चुनने पर शकर का इनाम
दिया गया। गोले और घन बंद पेट्री डिश में रखे थे इसलिए भंवरे उन्हें देख तो सकते
थे लेकिन छू नहीं सकते थे। देखा गया कि भंवरे उस आकृति के साथ ज़्यादा समय बिताते
हैं, जिसका सम्बंध शकर रूपी इनाम से है;
यानी वे उस आकृति को पहचानते हैं।
इसके
बाद उन्होंने यही जांच अंधेरे में की। यानी भंवरे वस्तुओं को छू तो सकते थे लेकिन
देख नहीं सकते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर का
पुरस्कार मिला था, उस आकृति के साथ
भंवरों ने अधिक समय बिताया।
इसके
बाद शोधकर्ताओं ने यही अध्ययन उल्टी तरह से किया – पहले उन्हें अंधेरे में प्रशिक्षित किया और
उजाले में जांच की। इसमें भी, दोनों ही स्थितियों
में जहां उन्हें वस्तु छूकर पहचानना था या देखकर, जिस
आकृति के लिए भंवरों को शकर दी गई थी उस आकृति के पास अधिक वक्त बिताया।
कीटों
में दृश्य पैटर्न को पहचानने की क्षमता का काफी अध्ययन हुआ है। शोधकर्ताओं को यह
तो पहले से पता था कि कीट फूलों और मनुष्य के चेहरों के पेचीदा रंग-विन्यास को पहचान
सकते हैं। लेकिन विन्यास पहचान के लिए ज़रूरी नहीं है कि मस्तिष्क में उस विन्यास
का कोई चित्र बने। तो सवाल यह था कि क्या हमारे मस्तिष्क के समान कीटों के
मस्तिष्क में भी वस्तु का कोई चित्रण बनता है।
लेकिन
शोधकर्ताओं का मत है कि उनके अध्ययन में ये कीट एक किस्म की संवेदना से प्राप्त
सूचना को किसी अन्य किस्म की संवेदना में तबदील करके वस्तु का चित्रण कर पाए। इसके
आधार पर उनका कहना है कि इन भंवरों ने मोलेनो के सवाल का जवाब दे दिया है। अर्थात
एक किस्म की संवेदना से निर्मित चित्र दूसरे किस्म की संवेदना द्वारा इस्तेमाल
किया जा सकता है।
अलबत्ता, अन्य वैज्ञानिक इस प्रयोग की वास्तविक दुनिया में वैधता के बारे में शंकित हैं। जैसे भंवरे फूलों को पहचानने के लिए दृष्टि और गंध दोनों संकेतों पर निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसे अध्ययन करना होंगे जो भंवरों की प्राकृतिक स्थिति से मेल खाएं। (स्रोत फीचर्स)
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कई
अस्पताल, खास तौर से निजी व
कार्पोरेट अस्पताल, अपने प्रवेश कक्ष और
मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों में आकर्षक तस्वीरें और कलाकृतियां रखते हैं। अधिकांश
लोग, और वास्तव में कई अस्पताल मालिक भी सोचते
हैं कि यह उनके कलाप्रेम का ढिंढोरा पीटने जैसा है। इसके विपरीत,
अधिकांश सार्वजनिक या सरकारी अस्पताल ऐसा कुछ नहीं करते और
अपनी दीवारों को सूना छोड़ देते हैं या उन पर तमाम सूचनाएं चस्पा कर देते हैं। इन
अस्पतालों के कमरे और गलियारे भद्दे लगते हैं। यह बात देश भर के अत्यंत प्रतिष्ठित
चिकित्सा संस्थानों पर भी लागू होती है। इसे देखते हुए,
यह बात आपको (और शायद इन निजी अस्पतालों के मालिकों को भी) आश्चर्यजनक लगेगी कि
अस्पतालों में मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों और वाड्र्स में कलाकृतियों का प्रदर्शन
मरीज़ों, डॉक्टरों,
नर्सों और देखभाल करने वाले लोगों के लिए अच्छा होता है।
डेनमार्क
के शोधकर्ताओं एस. एल. नीलसन व साथियों
द्वारा इंटरनेशनल जर्नल ऑफ क्वालिटेटिव स्टडीज़ ऑन हेल्थ एंड वेल–बीइंग
में प्रकाशित पर्चे ‘मरीज़
अस्पतालों में कला को कैसे महसूस करते हैं और उसका उपयोग करते है?’
में बताया गया था कि कैसे इससे मरीज़ों को सुलभता और देख-रेख का एहसास होता
है। इस रिपोर्ट को कई जगह उद्धरित किया जाता है।
शोधकर्ताओं
ने एक साझा देखभाल कक्ष में रखे गए मरीज़ों का कई सप्ताह तक अध्ययन किया था। पहले
सप्ताह में कक्ष की दीवारें खाली और सूनी थीं। हर मरीज़ अपनी ही चिकित्सकीय हालत (तकलीफ) में डूबा था। मरीज़
कक्ष में किसी और से बात भी नहीं करते थे।
आठवें
दिन देखभाल कक्ष की दीवारों पर कलाकृतियां – पेंटिंग, तस्वीरें,
फोटोग्राफ्स – लगा दी गर्इं। अधिकांश मरीज़ों ने इन्हें देखा और इनका
अध्ययन किया। पहले की आत्म-केंद्रिकता से उनका ध्यान बंटा और वे इन चीज़ों का विश्लेषण
करने लगे और अपने ढंग से उनकी व्याख्या करने लगे। वे कक्ष के अन्य लोगों से बातचीत
करने लगे और दोस्तियां बनार्इं, गैर-चिकित्सकीय विषयों
पर चर्चा करने लगे, नुक्ताचीनी करने लगे
और मेलजोल बढ़ा। यह भी देखा गया कि मरीज़ नर्सों, डॉक्टरों
और देखभाल करने वाले अन्य लोगों की बातें ज़्यादा ध्यान से सुनने लगे और उनका उपचार
बेहतर होता गया।
शोधकर्ताओं
का निष्कर्ष है कि कला एक ऐसा माहौल पैदा करती है जहां मरीज़ सुरक्षित महसूस करते
हैं, मेलजोल बढ़ाते हैं और अस्पताल की चारदीवारी
से बाहर की दुनिया से जुड़ते हैं। यह उनकी पहचान को भी सहारा देता है। कुल मिलाकर
अस्पताल में दृश्य कला स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में सुधार करती है। अपेक्षा तो
यह की जानी चाहिए कि यह बात खास तौर से आईसीयू में बंद मरीज़ों पर ज़्यादा लागू होगी
क्योंकि वहां तो पूरा परिवेश चिकित्सा उपकरणों से भरा होता है।
देखा
जाए, तो यह अध्ययन युरोपीय समाज में किया गया
था। क्या इसके परिणाम भारत के सार्वजनिक और सरकारी अस्पतालों के लिए भी सही होंगे?
कोई कारण नहीं कि ऐसा नहीं होगा लेकिन इसका नियोजन व रणनीति
स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए। लोग तो लोग होते हैं: वे बातचीत करना
चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उन
पर ध्यान दिया जाए, सिर्फ चिकित्सकीय
ध्यान नहीं बल्कि व्यक्तियों के रूप में ध्यान दिया जाए।
इसके
लिए डिज़ाइनर्स, समाज वैज्ञानिकों और
संवेदनशील कलाकारों को डॉक्टरों के साथ मिलकर उपलब्ध जगह के आधार पर कलाकृतियों का
चयन करना होगा। मरीज़ों के लिए उपलब्ध जगह और भीड़भाड़, काम
के बोझ से दबे डॉक्टर्स और देखभालकर्ता, स्थानीय
संस्कृति तथा अन्य कारकों का ध्यान रखना होगा। लेकिन यह किया जा सकता है। और यह
किया जाना चाहिए क्योंकि जैसा कि ऊपर कहा गया था, कला
स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में योगदान देती है और इसे स्वास्थ्य देखभाल का ही एक
विस्तार माना जाना चाहिए।
सवाल
यह है कि क्या अस्पताल में कला डॉक्टरों और नर्सों की मदद करती है?
कलाकृतियों को देखकर वे क्या सीख सकते हैं?
क्या इससे उन्हें बेहतर पेशेवर बनने में मदद मिलती है?
दरअसल ऐसा ही है। एन स्लोअन डेवलिन की पुस्तक Transforming the
Doctor’s office: Principles from Evidence-Based Design (डॉक्टर के दफ्तर में तबदीली: प्रमाण-आधारित डिज़ाइन से
कुछ सिद्धांत) में
कुछ सुराग मिलते हैं। और डॉक्टर रॉबर्ट ग्लैटर का आलेख Can studying art
help medical students become better doctors? (क्या
कला का अध्ययन चिकित्सा छात्रों को बेहतर डॉक्टर बनने में मदद करता है?)
इस बात के पक्ष में पुख्ता तर्क पेश करता है कि चिकित्सा
विद्यार्थियों के लिए ग्रे की एनाटॉमी से आगे जाकर कला का पाठ¬क्रम
रखा जाना चाहिए। और वास्तव में कुछ चिकित्सा अध्ययन शालाओं में ऐसा कोर्स जोड़ा गया
है और नौजवान छात्रों ने इसे पसंद भी किया है और उन्हें लगता है कि इससे उनकी
नैदानिक कुशलता बेहतर हुई है। एक छात्र का कहना था: “अब तक मैं चित्र के मध्य भाग को मुख्य
हिस्सा मानकर चल रहा था, लेकिन मुझे समझ में
आया है कि हाशियों पर जानकारी का खजाना है।”
तो, हमारे मेडिकल कॉलेज इसे आज़मा सकते हैं और समय-समय पर कलाकारों को आमंत्रित करके उनसे अपनी कला के बारे में बात करने को कह सकते हैं और छात्रों से उनकी प्रतिक्रिया बताने को कहा जा सकता है। समय-समय पर ऐसे सम्मेलन, चाहे वे पाठ¬क्रम का हिस्सा न हों, दिमाग को विस्तार देंगे और मशीनों से मिलने वाले चित्रों की व्याख्या करने और उनसे और अधिक जानकारी प्राप्त करने में मददगार होंगे। हैदराबाद के एक निजी मेडिकल कॉलेज ने अपने चिकित्सा व शोध सदस्यों तथा डॉक्टरों के लिए इस पर अमल भी किया है। कॉलेज ने मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्ष में, हर मंज़िल की दीवारों पर, बच्चों के देखभाल केंद्र में, दृष्टि सहायता चिकित्सालयों में पेंटिंग्स व अन्य कलाकृतियां रखी हैं। इस प्रकार से उन्होंने डेनमार्क के समूह द्वारा 2017 में सुझाए गए उपायों को अपनाया है। अस्पताल ने एक पूरी मंज़िल का बड़ा हिस्सा तो कला दीर्घा को समर्पित कर दिया है यहां कलाकारों, संगीतज्ञों, लेखकों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य विद्वानों को व्याख्यान देने तथा डॉक्टरों व वैज्ञानिकों के अलावा आम नागरिकों से भी बातचीत करने हेतु आमंत्रित किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/ntrq3b/article30951554.ece/ALTERNATES/FREE_960/01TH-SCIHOSPITAL-ART1
मनुष्यों
में अनुभवों, जानकारियों और
आंकड़ों के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता होती है। हाल के एक अध्ययन में सामने आया
है कि न्यूज़ीलैंड में पाए जाने वाले किआ तोते भी ऐसा कर सकते हैं। वानरों के अलावा
किसी अन्य प्रजाति में पहली बार इस तरह का संज्ञान देखा गया है।
जैतूनी
भूरे रंग के ये तोते अपनी हरकतों के लिए बदनाम हैं। अतीत में ये चोंच का छुरी की
तरह उपयोग कर भेड़ों की चमड़ी को भेदते हुए उनकी रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द जमा वसा तक
पहुंच जाते थे। आजकल ये खाने के सामान के लिए लोगों के पिट्ठू बैग को चीर देते हैं,
और कार के वाइपर निकाल देते हैं।
यह
देखने के लिए कि क्या किआ तोतों की शैतानी के साथ बुद्धिमत्ता जुड़ी है,
युनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड की मनोविज्ञानी एमालिया बास्टोस और
उनके साथियों ने न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च के पास स्थित अभयारण्य के छह किआ
तोतों का अध्ययन किया। पहले तो शोधकर्ताओं ने तोतों को यह सिखाया कि काले रंग का
टोकन चुनने पर हमेशा स्वादिष्ट भोजन मिलता है जबकि नारंगी टोकन से कभी भोजन नहीं
मिलता। फिर उनके सामने पारदर्शी मर्तबानों में काले और नारंगी रंग के टोकन रखे गए।
जब शोधकर्ताओं ने बंद मुट्ठी में मर्तबान से टोकन निकाले तब किआ तोते ने अधिकतर उन
हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले थे जिनमें नारंगी टोकन की
तुलना में काले टोकन अधिक थे। ऐसा उन्होंने तब भी किया जब मर्तबानों में काले और
नारंगी टोकन के बीच अंतर बहुत कम था (63 काले और 57 नारंगी)।
अगले
परीक्षण में शोधकर्ताओं ने किआ तोतों के सामने दो पारदर्शी मर्तबान में दोनों
रंगों के टोकन बराबर संख्या में रखे। लेकिन मर्तबानों को एक शीट की मदद से ऊपरी व
निचले दो हिस्सों में बांटा गया था। हालांकि दोनों मर्तबानों में काले व नारंगी
टोकन बराबर संख्या में थे लेकिन एक में ऊपर वाले खंड में ज़्यादा काले टोकन थे।
शोधकर्ता मात्र ऊपर वाले खंड में हाथ डाल सकता था। इस स्थिति में किआ ने उन हाथों
को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले जिसके ऊपरी हिस्से में काले टोकन
अधिक थे। इसके बाद किए गए अंतिम परीक्षण में भी किआ तोते ने उस शोधकर्ता के हाथ से
टोकन लेना ज़्यादा पसंद किया जिसने काले टोकन अधिक बार निकाले थे।
इन
परीक्षणों के आधार पर नेचर कम्युनिकेशन पत्रिका में शोधकर्ताओं का कहना है
कि किआ तोतों में आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाने की क्षमता होती है। इससे लगता है
कि मनुष्यों की तरह किआ में भी कई किस्म की सूचनाओं को एकीकृत करने की बौद्धिक
क्षमता होती है। गौरतलब है कि पक्षियों और मनुष्यों के साझे पूर्वज लगभग 31 करोड़ वर्ष पूर्व थे,
और दोनों की मस्तिष्क की संरचना भी काफी अलग है। एक मत यह
रहा है कि इस तरह की बुद्धि के लिए भाषा की ज़रूरत होती है।
अलबत्ता, हार्वड युनिवर्सिटी की तोता संज्ञान विशेषज्ञ आइरीन पेपरबर्ग को लगता है कि किआ ने सहज ज्ञान का प्रदर्शन किया है ना कि सांख्यिकीय समझ का। लेकिन उन्हें यह भी लगता है यदि किआ में सांख्यिकीय अनुमान लगाने की क्षमता होती है तो इस तरह की क्षमता से लैस जानवर भोजन की मात्रा की उपलब्धता और प्रजनन-साथियों की संख्या का अंदाज़ा लगा पाएंगे जो फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)
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ऐसा
कहते हैं कि तनाव के कारण लोगों के बालों का रंग उड़ जाता है,
बाल सफेद हो जाते हैं। कहा जाता है कि मुमताज़ महल की मृत्यु
के बाद शाहजहां के बाल एकाध हफ्ते में ही सफेद हो गए थे। इसी तरह फ्रांस की रानी
मैरी एंतोनिएट के बाल उस रात सफेद हो गए थे जिसके अगले दिन उनका सिरकलम किया जाना
था। तो क्या यह संभव है?
हारवर्ड
स्टेम सेल रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता मामले की तह तक पहुंचना चाहते थे। बात
को समझने के लिए या-चिए
ह्सू और उनके साथियों ने अपने सारे प्रयोग चूहों पर किए हैं लेकिन उन्हें लगता है
कि परिणाम मनुष्यों पर लागू होंगे।
सबसे
पहले उन्होंने उन स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान केंद्रित किया जो मेलेनोसाइट (मेलेनीन रंजक युक्त
कोशिका) का
निर्माण करती हैं। ये मेलेनोसाइट प्रत्येक बाल में मेलेनीन पहुंचाती हैं जिसका रंग
काला होता है। मेलेनोसाइट बनानी वाली स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान जाना स्वाभाविक था
क्योंकि मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं की तादाद में फर्क पड़ने से बालों के रंग पर असर
पड़ता है।
पहले
तो शोधकर्ताओं ने इन चूहों को उनके डील-डौल के हिसाब से तनाव दिया। जैसे उनके
पिंजड़ों को झुकाकर रखा गया या उनके सोने की जगह को गीला रखा गया या रात भर लाइटें
चालू रखी गर्इं। शोधकर्ताओं ने देखा कि तनाव के कारण वास्तव में चूहों के बाल सफेद
हो जाते हैं।
विचार
बना कि शायद इन चूहों में तनाव बढ़ने पर उनकी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं
मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं पर आक्रमण कर रही हैं, जिसकी
वजह से इन स्टेम कोशिकाओं की संख्या कम होने लगी है। लेकिन जिन चूहों में
प्रतिरक्षा कोशिकाएं नहीं थीं, उनके भी बाल सफेद
हुए। निष्कर्ष: तनाव
के कारण बाल सफेद होने में प्रतिरक्षी कोशिकाओं का हाथ नहीं है।
अगला
विचार आया कि संभवत: इसमें
कॉर्टिसोल की भूमिका होगी। कॉर्टिसोल वह प्रमुख हारमोन है जो तनाव के समय बनता है।
यह बालों पर भी असर डालता है। लेकिन प्रयोगों में देखा गया कि बाल सफेद उन चूहों
में भी हुए जिनकी कॉर्टिसोल बनाने वाली ग्रंथि निकाल दी गई थी। तो अब क्या?
इसके
बाद उनका ध्यान अनुकंपी तंत्रिका तंत्र पर गया। यही तंत्रिका तंत्र हारमोन के
प्रभाव से तनाव जनित व्यवहारों और ‘लड़ो या भागो’ प्रतिक्रिया को अंजाम देता है। इन अनुकंपी तंत्रिकाओं के
सिरे हर रोम के आसपास लिपटे होते हैं। जब टीम ने चूहों में इन कनेक्शन को काट दिया
तो जल्दी ही चूहों के बाल सफेद हो गए।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उम्र के साथ बाल सफेद होने की प्रक्रिया में भी अनुकंपी तंत्रिकाओं की भूमिका है लेकिन शोधकर्ताओं का ख्याल है कि सफेद बालों की समस्या के संदर्भ में कुछ तो आशा जगी है।(स्रोत फीचर्स)
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गंध से हमारा
बेहद करीबी रिश्ता रहा है। पकवानों की खुशबू से ही हम यह बता देते हैं कि पड़ोसी के
घर में क्या बना है। गरमा-गरम कचोरी, कढ़ाई से उतरती सेव व पकोड़े, पके आम व खरबूज़े की मीठी खुशबू हो या चंदन, गुलाब, मोगरा, चंपा आदि के
इत्र की मदहोश कर देने वाली गंध हमें दीवाना बनाने के लिए काफी है। अलबत्ता,
हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो तपेली में जलते हुए दूध,
बासी दाल और हींग जैसी तेज़ गंध को भी नहीं सूंघ पाते।
स्वाद की तरह गंध भी एक रासायनिक संवेदना है। हमारे आसपास
का वातावरण गंध के वाष्पशील अणुओं से भरा हुआ है। जब हम नाक से सांस खींचते हैं तो
गंध के अणु नाक के भीतर रासायनिक ग्राहियों से क्रिया करके संदेश को मस्तिष्क में
पहुंचा देते हैं। अभी तक यही समझा जाता था कि मस्तिष्क के कुछ विशेष हिस्से (जैसे
घ्राण बल्ब) गंध संदेशों की विवेचना कर हमें गंध का बोध कराते हैं। लेकिन कुछ ही
समय पहले एक शोध टीम ने कुछ ऐसी महिलाओं की खोज की है जिनकी सूंघने की क्षमता तो
सामान्य है परन्तु उनके मस्तिष्क में घ्राण बल्ब नहीं है।
विभिन्न जंतुओं में गंध को पहचानने वाले जीन्स की संख्या
अलग-अलग होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अक्सर गंध के जीन्स की संख्या का
सीधा सम्बंध गंध संवेदना से है – ज़्यादा जीन्स मतलब सूंघने की बेहतर क्षमता। विभिन्न प्रजातियों पर किए गए एक
अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि हाथी, भालू और शार्क कुछ ऐसे जंतु हैं जिनमें सूंघने की क्षमता बहुत विकसित होती है।
भालू की सूंघने की क्षमता बेहद तगड़ी है। ये सुगंध का पीछा करते-करते जंगलों से
बाहर मानव आवास, कैम्प स्थल
तथा कूड़ेदानों तक पहुंच जाते हैं। हालांकि भालू का मस्तिष्क मानव मस्तिष्क का केवल
एक तिहाई ही होता है परन्तु अग्र मस्तिष्क में स्थित घ्राण बल्ब मनुष्यों के
मुकाबले पांच गुना बड़े होते हैं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि मानव की तुलना
में भालू में गंध को ग्रहण करने की क्षमता 2000 गुना से भी बेहतर है। भालू न केवल
भोजन बल्कि यौन साथी की खोज, खतरे और शावकों पर नज़र रखने के लिए भी गंध का उपयोग करते हैं। कितने आश्चर्य
की बात है कि मादा भालू अपने बच्चों की निगरानी उन पर निगाह रखे बगैर भी कर सकती है।
मांसाहारी ध्रुवीय भालू बर्फ से ढंके विशाल भू-भाग में 150 कि.मी. की दूरी से
प्रणय को आतुर मादाओं की गंध पहचान लेते हैं। भारतीय जंगलों के भालू भी 30 कि.मी.
दूर से मृत जानवर की गंध पहचानकर उस ओर खिंचे चले आते हैं।
ग्रेट व्हाइट शार्क में घ्राण ग्रंथियां बेहद विकसित होती
हैं। कुत्तों के समान विकसित सूंघने की क्षमता के चलते इसे डॉग फिश भी कहा जाता
है। ग्रेट व्हाइट शार्क में तो मस्तिष्क का दो तिहाई हिस्सा गंध की संवेदनाओं के
लिए निर्धारित होता है। शार्क के नथुनों से लगातार पानी बहता रहता है और गंध के
अणु रिसेप्टर्स से जुड़कर संवेदना देते रहते हैं।
अफ्रीकन हाथियों में खुशबू लेने वाले जीन्स की संख्या 1948
होती है। गंध के जीन्स किस खूबी से हाथियों में कार्य करते हैं,
यह तब पता चलता है जब पानी को खोजते हुए हाथी 20 कि. मी.
दूर से आती गंध को पहचान कर उस स्थान पर पहुंच जाते हैं। बहु-उपयोगी सूंड में ही
गंध को पहचानने वाले रिसेप्टर्स पाए जाते हैं।
इरुााइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में शोधकर्ता ताली
वीस और नोआम सोबेल की टीम गंध एवं प्रजनन क्षमता के बीच सम्बंध की तलाश में
मस्तिष्क का एमआरआई देख रही थी। अनेक वालंटियर्स की जांच के दौरान उन्होंने पाया
कि एक महिला के मस्तिष्क में घ्राण बल्ब है ही नहीं। यह एक असामान्य घटना थी
परन्तु पूर्व के शोध भी बताते हैं कि 10,000 में से एकाध मनुष्य में घ्राण बल्ब
नहीं होता है और वे गंध नहीं सूंघ सकते।
उस महिला से पूछा गया कि क्या वह गंध नहीं पहचान सकती?
महिला इस बात पर दृढ़ रही कि उसकी गंध सूंघने की क्षमता
बेहतरीन है। शंका से भरे वैज्ञानिकों ने महिला की गंध पहचानने की क्षमता पर अनेक
परीक्षण किए और आश्चर्यजनक रूप से महिला ने गंध पहचानने की उत्तम क्षमता का परिचय
दिया। आम तौर पर घ्राण बल्ब और उससे निकले न्यूरॉन्स गंध की पहचान में महत्वपूर्ण
माने जाते हैं। शोध के दौरान कुछ ही समय में एक और ऐसी महिला मिली जिसकी सूंघने की
क्षमता तो बेहतरीन थी परन्तु गंध के अणुओं को ज्ञात करने वाला मस्तिष्क का भाग
अनुपस्थित था।
शोधकर्ताओं ने शंका के समाधान के लिए ह्यूमन कनेक्टोम
प्रोजेक्ट की ओर रुख किया जो प्रतिभागियों के गंध स्कोर एकत्रित करता है। 600
महिलाओं और 500 पुरुषों से प्राप्त आंकड़ों में खोजबीन करने पर तीन महिलाएं ऐसी
निकलीं जिनकी सूंघने की शक्ति तो बहुत अच्छी थी परन्तु उन सबके मस्तिष्क में घ्राण
बल्ब का अभाव था। ऐसी महिलाओं का प्रतिशत केवल 0.6 था।
उपरोक्त तीनों महिलाओं में से एक लेफ्ट हेण्डेड थी। आंकड़े
और खंगालने तथा एमआरआई एवं गंध परीक्षण करने पर तीन और महिलाएं मिलीं जिनमें से एक
ऐसी थी जिसके मस्तिष्क में घ्राण बल्ब नहीं था और सूंघने की क्षमता भी नहीं थी।
बाकी दोनों अन्य सामान्य व्यक्तियों के समान ही अधिकांश गंधों को पहचान सकती थीं।
अब यह देखने की कोशिश की गई कि प्रतिभागी कौन-सी गंधों को पहचानते हैं। इसके लिए
लगभग समान आयु की 140 महिलाओं को दो गंध सुंघाकर यह पता लगाया गया कि क्या वे अंतर
कर पाती हैं? फिर बगैर
घ्राण बल्ब वाली महिलाओं और बाकी सभी सामान्य महिलाओं में सूंघने की क्षमता में
तुलनात्मक अंतर देखा गया। घ्राण बल्ब रहित महिलाएं बाकी सभी के विपरीत एक जैसी गंध
पहचानती थीं। पूरे शोध से दो निष्कर्ष प्राप्त हुए। एमआरआई के आंकड़ों में से केवल
महिलाएं ही ऐसी थीं जिनमें घ्राण बल्ब नहीं थे और वे भी ऐसी थी जो लेफ्ट हेण्डेड
(खब्बू) थीं। इस विषय पर शोध कार्य कर रहे वैज्ञानिक सोबेल ने पाया कि ब्रोन स्केन
के आंकड़े लेते समय लेफ्ट हेण्डेड महिलाओं को छोड़ ही दिया गया था क्योंकि उनकी वजह
से आंकड़ों में असमानता एवं भिन्नता उत्पन्न हो रही थी।
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि बगैर घ्राण बल्ब के इन महिलाओं में गंध पहचानने की क्षमता कैसे विकसित हो गई। एक परिकल्पना के अनुसार घ्राण बल्ब के बगैर पैदा होने के बाद शैशवावस्था में ही मस्तिष्क ने गंध को पहचानने का अन्य तरीका निकाल लिया और उसका एक अन्य हिस्सा इस कार्य को करने लगा। या शायद हमें घ्राण बल्ब की आवश्यकता सूंघने, गंध पहचानने और गंध में अंतर करने में पड़ती ही नहीं है। तो शायद अभी तक हम जैसा समझते थे, घ्राण बल्ब वैसा सूंघने का कार्य करते ही नहीं है। यह भी हो सकता है कि वे घ्राण बल्ब बताते है कि गंध किस दिशा से आ रही है। इसलिए आप खाने की गंध कहां से आ रही है तुरंत बता देते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.brainfacts.org/thinking-sensing-and-behaving/smell/2015/making-sense-of-scents-smell-and-the-brain
भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने हाल में एक परामर्श पत्र जारी किया है जिसमें उसने लंबे समय से चले आ रहे एक अधिकारिक मत को दोहराया है: “आयुर्वेद के सिद्धांतों, अवधारणाओं और तरीकों की तुलना आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से कदापि नहीं की जा सकती।” यह मत इन दो प्रणालियों के बीच स्पष्ट विभाजन को व्यक्त करता है और परोक्ष रूप से वैज्ञानिक पद्धति की सार्वभौमिकता पर सवाल खड़े करता है। इस आलेख में यह बताने की कोशिश की गई है कि आयुर्वेद की दुनिया में इस मत को व्यापक मान्यता कैसे मिली है।
अंधविश्वास
काफी दिलचस्प हो सकते हैं, खास तौर से तब जब वे
प्रभावशाली लोगों के दिमाग में बसे हों। यह कहानी एक ऐसे ही अंधविश्वास की है जो
बीसवीं सदी के सारे आयुर्वेदिक विचारकों पर हावी रहा है।
जिस अंधविश्वास की बात हो रही
है,
वह मोटे तौर पर निम्नानुसार है: प्राचीन भारतीय ऋषियों
(मनीषियों),
जिन्होंने विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों का प्रतिपादन किया, के पास विशेष यौगिक शक्तियां थीं; इन विशेष शक्तियों ने
उन्हें प्रकृति को नज़दीक से जांचने-परखने तथा उसके रहस्यों को उजागर करने में
समर्थ बनाया था। इसके बाद इन रहस्यों को उन्होंने अपने दर्शन के ग्रंथों में
सूक्तियों के रूप में संहिताबद्ध किया। कहने का आशय यह है कि भारतीय ऋषियों ने
विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए खोजबीन की बाह्र तकनीकों का सहारा न लेकर आंतरिक
यौगिक पद्धतियों का सहारा लिया, जो सिर्फ उन लोगों की पहुंच
में थीं जिन्होंने इनकी साधना की हो। अत: भारतीय दार्शनिक साहित्य उन्नत वैज्ञानिक
ज्ञान से भरा है जिसमें से काफी सारे की पुष्टि तो आधुनिक भौतिक शास्त्र की
विधियों से हो ही चुकी है। यदि किसी मामले में पुष्टि नहीं हुई है तो समझदारी इसी
में है कि प्रतीक्षा करें।
यह तो ज़ाहिर है कि यह अंधविश्वास
क्यों है। एक प्राचीन संस्कृत श्लोक (शांतारक्षिता का तत्वसंग्रह, अध्याय 26,
श्लोक 3149) इस विचारधारा की समस्या को बखूबी उभारता है:
सुगतो यदि सर्वज्ञ: कपिलो नेति का प्रमा।, अथोभावपि
सर्वज्ञौ मतभेदस्तयो: कथम।। (“यदि बुद्ध को सर्वज्ञाता माना गया है, तो कपिल को क्यों नहीं? यदि ये दोनों बराबर के
सर्वज्ञाता हैं,
तो ये आपस में असहमत क्यों हैं?”)
सीधा-सा तथ्य यह है कि एक ही
विषय को लेकर दार्शनिकों में अलग-अलग मत पाए जाते हैं। इससे यह स्वयंसिद्ध है कि
उनके निष्कर्ष अंतिम होने का दावा नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में, जब यौगिक पद्धति तक सबकी पहुंच आसान नहीं है, तो
किसी मत को मानना दार्शनिक विशेष के प्रति निजी प्रीति का मामला रह जाता है, न कि उसके दर्शन में सत्य का परिमाण।
ऐसे में, सहज बुद्धि का स्थान अथॉरिटी ले लेती है और प्रत्यक्ष खोजबीन का स्थान लिखित
शब्द ले लेते हैं। अटकलों को, यहां तक सुविचारित अटकलों को
भी यौगिक अंतज्र्ञान का जामा पहनाने की प्रवृत्ति का परिणाम सहज बुद्धि के निजीकरण
और संपूर्ण बौद्धिक अशक्तिकरण के रूप में सामने आता है। ये दोनों ही संजीदा
विज्ञान कर्म का गला घोंटने के लिए पर्याप्त हैं।
आयुर्वेद के क्षेत्र में इस
विज्ञान-निषेध विश्व दृष्टि की ऐतिहासिक जड़ों की खोज करना लाभप्रद होगा। कहानी
लगभग 100 वर्ष पहले की है। 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी की तत्कालीन सरकार ने एक
समिति का गठन किया था। इस समिति को देसी चिकित्सा प्रणाली को मान्यता तथा
प्रोत्साहन देने के सवाल पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का काम सौंपा गया था। मुहम्मद
उस्मान की अध्यक्षता में इस समिति ने अनुकरणीय काम किया और एक विस्तृत रिपोर्ट
तैयार की,
जो आज भी आयुर्वेदिक कामकाज का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत
करने की दृष्टि से मूल्यवान है। कैप्टन जी. श्रीनिवास मूर्ति समिति के सचिव थे। वे
आधुनिक चिकित्सा में प्रशिक्षित एक प्रतिष्ठित चिकित्सक थे। उनके द्वारा प्रस्तुत
मेमोरेंडम समिति की रिपोर्ट में संलग्न था। यह संभवत: आयुर्वेद को पाश्चात्य
चिकित्सा प्रणाली और आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के रूबरू खड़ा करने का पहला औपचारिक
प्रयास था। विडंबना यह है कि यह उपरोक्त विज्ञान-विरोधी नज़रिए को संस्थागत स्वरूप
देने का भी प्रयास था। लगभग 100 साल पहले मूर्ति ने अनजाने में जो बात लिखी थी, वह आज आयुर्वेद जगत का प्रचलित नज़रिया बन गई है: “हिंदुओं ने जिस पद्धति से
चीज़ों को जानने की कोशिश की वह ज्ञानेंद्रियों के दायरे से परे है और वह पश्चिम के
तरीके से एक खास मायने में भिन्न है; आधुनिक विज्ञान में हम
अपनी ज्ञानेंद्रियों की सीमाओं से पार पाने के लिए सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी और वर्णक्रमदर्शी जैसे बाह्र उपकरणों का सहारा लेते हैं; दूसरी ओर हिंदुओं ने वही प्रभाव प्राप्त करने के लिए अपनी ज्ञानेंद्रियों को
बाह्र साधनों का सहारा न देकर, अपने आंतरिक संवेदी अंगों को
उन्नत बनाने की कोशिश की, ताकि उनकी अनुभूति का दायरा
किसी भी वांछित सीमा तक बढ़ जाए; और यह उन्नति लाने का तरीका यह
था कि अपनी इंद्रियों का अभ्यास गुरू द्वारा शिष्य को बताए गए विशेष तरीके से किया
जाए।” भारतीय दार्शनिक विचारों और आधुनिक भौतिकी के बीच कुछ समानताएं बताने का
प्रयास करने के उपरांत वे उम्मीद जताते हैं कि “जब हम देखते हैं कि कैसे इनमें से
कई सिद्धांतों को आधुनिक विज्ञान की ताज़ा घटनाओं ने सही साबित कर दिया है, तो हम यह महसूस करने से इन्कार नहीं कर सकते कि जिस तरह से कुछ सिद्धांत सही
साबित हो चुके हैं, वही अन्य सिद्धांतों को लेकर भी होगा।”
इस बात को न तो संजीदा विज्ञान
का समर्थन हासिल है और न ही संजीदा दर्शन शास्त्र का, लेकिन
आयुर्वेद जगत में इसे पूरी स्वीकृति मिल गई है। अचंता लक्ष्मीपति और पंडित शिव
शर्मा जैसे नामी-गिरामी लोगों ने इस विचार का समर्थन किया है। आजकल के ज़माने का
नया ‘फितूर’ है कि क्वांटम भौतिकी के विचारों को भारतीय दार्शनिक साहित्य में
‘खोज’ निकाला जाए। इससे भी उपरोक्त धारणा को समर्थन मिला है।
और तो और, आयुर्वेद का पाठ¬क्रम
भी इसी आधार पर बनाया गया और इसके चलते उक्त धारणा आयुर्वेद का अधिकारिक नज़रिया बन
गई। इस धारणा का सबसे गंभीर परिणाम यह हुआ कि आयुर्वेदिक सिद्धांतों को वैज्ञानिक
छानबीन के दायरे से बाहर रखा गया और वह भी इस काल्पनिक उम्मीद में कि विज्ञान को
अभी पर्याप्त प्रगति करनी है, उसके बाद ही वह इन सिद्धांतों
की जांच के काबिल हो पाएगा। इस तरह से अधिकारिक आयुर्वेद वैज्ञानिक पद्धति की
सार्वभौमिकता के साथ बेमेल हो गया।
रिचर्ड फाइनमैन ने कहा था, “विशेषज्ञों की अज्ञानता में विश्वास का नाम विज्ञान है।” आयुर्वेद को संस्थागत अंधवि·ाास की जकड़न से मुक्त कराना इसी बात पर निर्भर है कि क्या आयुर्वेद के विद्यार्थी इस विश्वास में समर्थ हैं। आयुर्वेद का एक प्राक्विज्ञान से आगे बढ़कर एक पूर्ण विज्ञान बनना इसी बात पर निर्भर है कि इन संस्थागत अंधविश्वासों को कितने कारगर ढंग से चुनौती दी जाती है। यदि चुनौती नहीं दी गई तो यह महान चिकित्सकीय विरासत एक छद्म विज्ञान में विघटित हो जाएगी। हमें इस आसन्न खतरे के प्रति सचेत होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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पृथ्वी
के सबसे ऊंचे पहाड़ों के घास के मैदानों में विशेष प्रकार के भेड़िए पाए जाते हैं।
उत्तरी भारत,
नेपाल, और चीन में पाए जाने वाले ये
भेड़िए अपनी लंबी थूथन, हल्के रंग की ऊनी खाल और मोटी आवाज़ के लिए
जाने जाते हैं। लेकिन हालिया अध्ययन से पता चला है कि ये रंग-रूप में ही नहीं
बल्कि आसपास के इलाकों में पाए जाने वाले अन्य मटमैले भेड़ियों से जेनेटिक रूप से
भी अलग हैं। ये जेनेटिक परिवर्तन उनको 4000 मीटर ऊंचाई की विरल हवा में जीने में
मदद करते हैं।
इस अध्ययन के प्रमुख और
कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के कैनाइन विकास विशेषज्ञ बेन सैक्स के अनुसार यह इन
हिमालयी भेड़ियों को विशिष्ट बताने वाले प्रथम प्रमाण हैं। यह खोज इस बात का समर्थन करती है कि इन्हें एक अलग
प्रजाति के रूप में पहचाना जाना चाहिए। नए अध्ययन से यह भी पता चला है कि इस भेड़िए
का इलाका पहले के अनुमान से दुगना है।
हिमालयी भेड़िए अन्य मटमैले
भेड़ियों की तुलना में अधिक ऊंचाई पर रहते हैं और इनकी आदतें भी अलग हैं। ये पूर्वी
चीन,
मंगोलिया और किर्गिज़स्तान के इलाकों में पाए जाते हैं।
मटमैले भेड़िए जहां चूहे, गिलहरी आदि जीवों का शिकार
करते हैं वहीं हिमालयी भेड़िए इनके साथ कभी-कभी तिब्बती चिकारों का भी शिकार करते
हैं। इनकी गुर्राहट मटमैले भेड़ियों की तुलना में छोटी अवधि की और भारी आवाज़ वाली
होती है।
अब किर्गिज़स्तान, चीन के तिब्बतीय पठार और ताजीकस्तान के भेड़ियों के मल से प्राप्त नमूनों के
विश्लेषण से इनके एक अलग नस्ल होने का जेनेटिक प्रमाण मिला है। शोधकर्ताओं ने 86
हिमालयी भेड़ियों के मल में डीएनए का अध्ययन किया। विश्लेषण से पता चला कि मटमैले
भेड़ियों की तुलना में हिमालयी भेड़ियों में कुछ विशेष जीन होते हैं जो उन्हें
ऑक्सीजन की कमी से निपटने में मदद करते हैं। ये जीन उनके ह्मदय को भी मज़बूत करते
हैं और रक्त के ज़रिए ऑक्सीजन के प्रवाह को बढ़ाते हैं। जर्नल ऑफ बायोजियोग्राफी में
प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार इसी प्रकार के अनुकूलन तिब्बती लोगों और उनके पालतू
कुत्तों और याक में भी पाए जाते हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार ऊंचे इलाकों में रहने वाले इस जीव को एक अलग प्रजाति के रूप में देखा जाना चाहिए। कम से कम, इसे जैव विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण इकाई तो माना ही जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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