जल संकट से समूचा विश्व जूझ रहा है – डॉ. आर.बी. चौधरी

भारत के जल संसाधनों के संकट की शुरुआत आंकड़ों से होती है। भारत में जल विज्ञान सम्बंधी आंकड़े संग्रह करने का काम मुख्यत: केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) करता है। सीडब्लूसी का नाम लिए बगैर नीति आयोग की रिपोर्ट भारत में जल आंकड़ा प्रणाली को कठघरे में खड़ी करती है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बातें तो खरी हैं: “यह गहरी चिंता की बात है कि भारत में 60 करोड़ से अधिक लोग ज़्यादा से लेकर चरम स्तर तक का जल दबाव झेल रहे हैं। भारत में तकरीबन 70 फीसदी जल प्रदूषित है, जिसकी वजह से पानी की गुणवत्ता के सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है।”

हमारे यहां पानी के इस्तेमाल और संरक्षण से जुड़ी कई समस्याएं हैं। पानी के प्रति हमारा रवैया ही ठीक नहीं है। हम इस भ्रम में रहते हैं कि चाहे जितने भी पानी का उपयोग/दुरुपयोग कर लें, बारिश से हमारी नदियों और जलाशयों में फिर से नया पानी आ ही जाएगा। यह रवैया सरकारी एजेंसियों का भी है और आम लोगों का भी। अगर किसी साल बारिश नहीं होती तो इसके लिए हम जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को ज़िम्मेदार ठहराने लगते हैं।

पानी के इस्तेमाल के मामले में घरेलू उपयोग की बड़ी भूमिका नहीं है लेकिन कृषि की है। 1960 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से कृषि में पानी की मांग बढ़ी है। इससे भूजल का दोहन हुआ है, जल स्तर नीचे गया है। इस समस्या के समाधान के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए जा रहे हैं। जब भी बारिश नहीं होती तब संकट पैदा होता है। नदियों के पानी का मार्ग बदलने से भी समाधान नहीं हो रहा है। स्थिति काफी खराब है। इस वर्ष अच्छी वर्षा होने का अनुमान है तो जल संचय के लिए अभी से ही कदम उठाने होंगे। लोगों को चाहिए कि पानी की बूंद-बूंद को बचाएं।

गर्मियां आते ही जल संकट पर बातें शुरू हो जाती हैं लेकिन एक पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट काफी डराने वाली है क्योंकि यह रिपोर्ट भारत में एक बड़े जल संकट की ओर इशारा कर रही है। भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में सिकुड़ते जलाशयों की वजह से इन चार देशों में नलों से पानी गायब हो सकता है। दुनिया के 5 लाख बांधों के लिए पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली बनाने वाले डेवलपर्स के अनुसार भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में जल संकट ‘डे ज़ीरो’ तक पहुंच जाएगा। यानी नलों से पानी एकदम गायब हो सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि भारत में नर्मदा नदी से जुड़े दो जलाशयों में जल आवंटन को लेकर प्रत्यक्ष तौर पर तनाव है।

पिछले साल कम बारिश होने की वजह से मध्य प्रदेश के इंदिरा सागर बांध में पानी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। जब इस कमी को पूरा करने के लिए निचले क्षेत्र में स्थित सरदार सरोवर जलाशय को कम पानी दिया गया तो काफी होहल्ला मच गया था क्योंकि सरदार सरोवर जलाशय में 3 करोड़ लोगों के लिए पेयजल है। पिछले महीने गुजरात सरकार ने सिंचाई रोकते हुए किसानों से फसल नहीं लगाने की अपील की थी।

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, जबकि इसके पास विश्व के शुद्ध जल संसाधन का मात्र 4 प्रतिशत ही है। किसी भी देश में अगर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1700 घन मीटर से नीचे जाने लगे तो उसे जल संकट की चेतावनी और अगर 1000 घन मीटर से नीचे चला जाए, तो उसे जल संकटग्रस्त माना जाता है। भारत में यह फिलहाल 1544 घन मीटर प्रति व्यक्ति हो गया है, जिसे जल की कमी की चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है। नीति आयोग ने यह भी बताया है कि उपलब्ध जल का 84 प्रतिशत खेती में, 12 प्रतिशत उद्योगों में और 4 प्रतिशत घरेलू कामों में उपयोग होता है।

हम चीन और अमेरिका की तुलना में एक इकाई फसल पर दो से चार गुना अधिक जल उपयोग करते हैं। देश की लगभग 55 प्रतिशत कृषि भूमि पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। ग्याहरवीं योजना के अंत तक भी लगभग 13 करोड़ हैक्टर भूमि को सिंचाई के अंतर्गत लाने का प्रवधान था। इसे बढ़ाकर अधिक-से-अधिक 1.4 करोड़ हैक्टर तक किया जा सकता है। इसके अलावा भी काफी भूमि ऐसी बचेगी, जहां सिंचाई असंभव होगी और वह केवल मानसून पर निर्भर रहेगी। भूजल का लगभग 60 प्रतिशत सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। 80 प्रतिशत घरेलू जल आपूर्ति भूजल से ही होती है। इससे भूजल का स्तर लगातार घटता जा रहा है।

लगातार दो वर्षों से मानसून की खराब स्थिति ने देश के जल संकट को गहरा दिया है। आबादी लगातार बढ़ रही है, जबकि जल संसाधन सीमित हैं। अगर अभी भी हमने जल संरक्षण और उसके समान वितरण के लिए उपाय नहीं किए तो देश के तमाम सूखा प्रभावित राज्यों की हालत और गंभीर हो जाएगी। नीति आयोग द्वारा समय-समय पर जल समस्या पर अध्ययन किए जाते हैं किंतु आंकड़े जिस सच्चाई का चित्रण करते हैं उस पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है।

जल संरक्षण एवं प्रबंधन के समय-समय पर कई सुझाव दिए जाते हैं किंतु विशेषज्ञों की राय में निम्नलिखित बातों का स्मरण रखा जाना अति आवश्यक है। जैसे, लोगों में जल के महत्व के प्रति जागरूकता पैदा करना, पानी की कम खपत वाली फसलें उगाना, जल संसाधनों का बेहतर नियंत्रण एवं प्रबंधन एवं जल सम्बंधी राष्ट्रीय कानून बनाया जाना इत्यादि। हांलाकि, संवैधानिक तौर पर जल का मामला राज्यों से संबंधित है लेकिन अभी तक किसी राज्य ने अलग-अलग क्षेत्रों को जल आपूर्ति सम्बंधी कोई निश्चित कानून नहीं बनाए हैं।

अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस की घोषणा ब्राज़ील के रियो दे जनेरो में 1992 में हुए पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीईडी) में हुई थी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने 22 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस के रूप में घोषित किया। 2005-2016 के दशक को संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय जल अभियान का दशक घोषित किया था। इसी दशक के तहत पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीकी शहर केप टाउन में पानी सूख जाने की खबर अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रही।

पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी का 2.6 फीसदी ही साफ पानी है। और इसका एक फीसदी पानी ही मनुष्य इस्तेमाल कर पाते हैं। वैश्विक पैमाने पर इसी पानी का 70 फीसदी कृषि में, 25 फीसदी उद्योगों में और पांच फीसदी घरेलू इस्तेमाल में निकल जाता है। भारत में साढ़े सात करोड़ से ज़्यादा लोग पीने के साफ पानी के लिए तरस रहे हैं। नदियां प्रदूषित हैं और जल संग्रहण का ढांचा चरमराया हुआ है। ग्रामीण इलाकों मे इस्तेमाल योग्य पानी का संकट हो चुका है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल उपयोग का प्रति व्यक्ति आदर्श मानक 100-200 लीटर निर्धारित किया है। विभिन्न देशों में ये मानक बदलते रहते हैं। लेकिन भारत की बात करें तो स्थिति बदहाल ही कही जाएगी, जहां औसतन प्रति व्यक्ति जल उपयोग करीब 90 लीटर प्रतिदिन है। अगर जल उपलब्धता की बात करें, तो सरकारी अनुमान कहता है कि 2025 तक प्रति व्यक्ति 1341 घन मीटर उपलब्ध होगा। 2050 में यह और कम होकर 1140 रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रकाश प्रदूषण का हाल एक क्लिक से

दि आपको आकाश-दर्शन का शौक है और आप निराश हैं कि आपके इलाके में उजाले की वजह से तारे बहुत कम नज़र आते हैं तो आप एक वेबसाइट की मदद से पता कर सकते हैं कि आप जहां खड़े हैं वहां रात में कितना उजाला है। आप यह भी पता कर सकते हैं कि आकाश का अच्छा नज़ारा देखने के लिए कहां जाना उपयुक्त होगा।

पॉट्सडैम स्थित जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइन्स के भौतिक शास्त्री क्रिस्टोफर कायबा ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार किया है जो पूरी धरती पर कहीं भी रात के समय उजाले की स्थिति बता सकता है। आपको बस इतना करना है कि Radiance Light Trends पर जाएं और अपने इलाके का नाम टाइप करें। तत्काल आपको उस जगह में रात के प्रकाश का अनुमान मिल जाएगा।

इस सॉफ्टवेयर को विकसित करने के लिए कायबा ने उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया है। ये उपग्रह पृथ्वी पर लगातार नज़र रखते हैं। इनसे प्राप्त सूचनाओं से पता चलता है कि किसी स्थान पर स्ट्रीट लाइट्स, नियॉन साइन्स या अन्य किसी स्रोत से रात के समय कितना प्रकाश पैदा होता है। मगर इन आंकड़ों को हासिल करना और इनका विश्लेषण करके रात्रि-प्रकाश का अंदाज़ लगाना खासा मुश्किल काम है। कायबा ने इस काम को आसान बना दिया है।

कायबा ने इसके लिए पिछले पच्चीस वर्षों के उपग्रह आंकड़ों को शामिल किया है। यह सॉफ्टवेयर किसी भी स्थान के लिए पिछले पच्चीस वर्षों के रात्रि-प्रकाश का ग्राफ प्रस्तुत कर देता है। वैसे आप चाहें तो पर्यावरण के अन्य कारकों के आंकड़े भी यहां से प्राप्त कर सकते हैं और उनका विश्लेषण कर सकते हैं। यह सॉफ्टवेयर युरोपीय संघ की मदद से जियोएसेंशियल प्रोजेक्ट के तहत विकसित किया गया है।

यह सॉफ्टवेयर कई तरह से उपयोगी साबित होगा। जैसे एक अध्ययन से पता चला है कि प्रकाश-प्रदूषण लगभग 80 प्रतिशत धरती को प्रभावित करता है। इसका असर जलीय पारिस्थितिक तंत्रों पर पड़ता है। कुछ अध्ययनों से यह भी संकेत मिला है कि प्रकाश प्रदूषण मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और यह संक्रामक रोगों के फैलने में भी भूमिका निभाता है। यह सॉफ्टवेयर इन सब मामलों में मददगार होगा। और शौकिया खगोल शास्त्री इसकी मदद से यह तय कर सकते हैं कि उनके आसपास आकाश को निहारने का सबसे अच्छा स्थान कौन-सा होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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90 दिनों का अंतरिक्ष अभियान जो 15 वर्षों तक चला – प्रदीप

मारे सौरमंडल में मंगल ही इकलौता ऐसा ग्रह है जो कई मायनों में पृथ्वी जैसा है और भविष्य में पृथ्वी से बाहर मानव बस्ती बसाने के लिए भी सबसे उपयुक्त पात्र यही ग्रह नज़र आता है। इसके बारे में हमारे ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ वैज्ञानिकों और जनसाधारण की इसके प्रति रुचि में भी निरंतर वृद्धि हुई है। अंतरिक्ष खोजी अभियानों के लिहाज़ से भी अन्य ग्रहों-उपग्रहों और तारों की तुलना में मंगल सर्वाधिक उपयोगी और उपयुक्त ग्रह है। इसलिए पिछली सदी के उत्तरार्ध में शुरू हुए ज़्यादातर अंतरिक्ष के खोजी अभियानों का लक्ष्य मंगल ही रहा है। इस सदी की शुरुआत में मंगल अन्वेषण के मामले में जिस खोजी अभियान ने सबसे ज़्यादा सुर्खियां बटोरीं और जिसने वैज्ञानिकों और जनसाधारण को सबसे ज्यादा आकर्षित किया, वह निश्चित रूप से नासा का ‘अपॉर्चुनिटी रोवर मिशन’ था।

13 फरवरी 2019 को अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अपॉर्चुनिटी रोवर मिशन की समाप्ति की घोषणा की। हालांकि इसका निर्धारित जीवनकाल केवल 90 दिनों का था, फिर भी इसने लगभग 15 वर्षों तक अपनी भूमिका कुशलतापूर्वक निभाई। अपनी अनुमानित उम्र को 60 गुना से अधिक करने के अलावा, रोवर ने मंगल की धरती पर 45 किलोमीटर से अधिक की यात्रा की, जबकि योजना अनुसार इसे मंगल पर एक किलोमीटर ही चलना था।

अपॉर्चुनिटी रोवर को फ्लोरिडा के केप कैनावेरल एयरफोर्स स्टेशन से 7 जुलाई 2003 को प्रक्षेपित किया गया था। इसके लगभग सात महीने बाद 24 जनवरी, 2004 को अपॉर्चुनिटी रोवर  मंगल ग्रह के मेरिडियानी प्लायम नामक क्षेत्र में उतरा था। अपॉर्चुनिटी का जुड़वां स्पिरिट रोवर उससे 20 दिन पहले ही मंगल की सतह पर उतरा था और मई 2011 में अपने मिशन को पूरा करने से पहले स्पिरिट ने लगभग 8 किलोमीटर की दूरी तय की। इन दोनों रोबोटों ने इन्हें बनाने वालों की उम्मीदों से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया।

अंतरिक्ष के खोजी अभियानों की विशेषज्ञ और दी प्लेनेटरी सोसाइटी की सीनियर एडिटर एमिली लकड़ावाला के मुताबिक अपॉर्चुनिटी रोवर से आम लोगों के लिए बड़ा बदलाव यह आया है कि मंगल अब एक सक्रिय ग्रह बन गया है, एक ऐसी जगह जिसे आप हर रोज़ खोज सकते हैं। अपॉर्चुनिटी ने मंगल की सतह पर उतरने के बाद अपनी आधी ज़िंदगी वहां घूमते हुए बिताई। चपटी सतह पर घूमते-घूमते यह एक बार रेत के टीले में कई हफ्तों तक फंसा रहा। वहीं पर भूगर्भीय उपकरणों की मदद से इसने मंगल ग्रह पर कभी तरल रूप में पानी होने की पुष्टि की। इससे वहां सूक्ष्मजीवों के पनपने की संभावना को बल मिला। मंगल पर अपने जीवन के दूसरे चरण में अपॉर्चुनिटी एंडेवर क्रेटर की कगारों पर चढ़ गया और इसने वहां से शानदार तस्वीरें खींचीं।  इसके साथ ही इसने जिप्सम की भी खोज कर डाली जिससे मंगल पर कभी तरल रूप में पानी की मौजूदगी की बात को और मज़बूती मिली।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय में रोवर्स साइंस पेलोड के मुख्य अन्वेषक स्टीव स्क्विरेस के मुताबिक यदि अपॉर्चुनिटी और स्पिरिट दोनों की खोजों को जोड़कर देखें तो पता चलता है कि आज निर्जन, वीरान और ठंडा दिखाई देने वाला यह ग्रह, जिसका पर्यावरण जीवन के अनुकूल नहीं है, सुदूर अतीत में कितना अलग था। अपॉर्चुनिटी ने 15 साल के अपने जीवन में मंगल की सतह की 2,17,000 से अधिक विहंगम तस्वीरें पृथ्वी पर भेजीं। 

मंगल पर पिछले साल जून में रेतीला तूफान आया था। इससे अपॉर्चुनिटी के ट्रांसमिशन पर बुरा प्रभाव पड़ा। इस तूफान के कारण सौर ऊर्जा संचालित रोवर से हमारा संपर्क टूट गया और करीब आठ महीने तक इससे कोई संपर्क नहीं हो पाया। रोवर ने आखिरी बार 10 जून 2018 को पृथ्वी के साथ संपर्क किया था। अभियान की टीम के अनुसार, संभावना यह है कि अपॉर्चुनिटी रोवर ने ऊर्जा की कमी के कारण काम करना बंद कर दिया। हालांकि टीम के सदस्यों ने रोवर से तकरीबन 800 बार संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता न मिलने पर इसे मृत घोषित करने का फैसला किया गया। अपॉर्चुनिटी के प्रोजेक्ट मैनेजर जॉन कल्लास ने कहा, “अलविदा कहना कठिन है, लेकिन समय आ गया है। इसने इतने सालों में शानदार प्रदर्शन किया है जिसकी बदौलत एक दिन आएगा, जब हमारे अंतरिक्ष यात्री मंगल की सतह पर चल सकेंगे।”

बहरहाल, मंगल की खोज निरंतर जारी है। नासा का इनसाइट लैंडर मंगल पर सफलतापूर्वक लैंडिंग कर चुका है और जल्दी ही लाल ग्रह की वैज्ञानिक जांच-पड़ताल शुरू करने जा रहा है। क्यूरियॉसिटी रोवर छह साल से अधिक समय से गेल क्रेटर की खोजबीन कर रहा है। और नासा का मार्स 2020 रोवर और युरोपियन स्पेस एजेंसी का एक्समर्स रोवर दोनों जुलाई 2020 में लॉन्च होंगे, और इस तरह यह पहला रोवर मिशन बन जाएगा, जिसे मुख्य रूप से लाल ग्रह पर अतीत के सूक्ष्मजीवी जीवन के संकेतों की तलाश के लिए बनाया गया होगा। अलविदा अपॉर्चुनिटी! (स्रोत फीचर्स)

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हथियारों की दौड़ को कम करना ज़रूरी – भारत डोगरा

भारत ही नहीं अनेक अन्य विकासशील देशों में भी प्राय: हथियार सौदों से जुड़ा भ्रष्टाचार सुर्खियों में छाया रहता है। यह भ्रष्टाचार ज़रूर एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, पर इससे एक कदम आगे जाकर यह मुद्दा भी उठाना चाहिए कि भ्रष्टाचार के साथ-साथ हथियारों की दौड़ को ही समाप्त करने के अधिक बुनियादी प्रयास होने चाहिए।

दक्षिण एशिया मानव विकास रिपोर्ट ने इस बारे में काफी हिसाब-किताब किया कि कुछ हथियारों के खर्च की विकास के मदों पर खर्च से क्या बराबरी है। इस आकलन के अनुसार:-

एक टैंक = 40 लाख बच्चों के टीकाकरण का खर्च

एक मिराज = 30 लाख बच्चों की एक वर्ष की प्राथमिक स्कूली शिक्षा

एक आधुनिक पनडुब्बी = 6 करोड़ लोगों को एक वर्ष तक साफ पेयजल

इसके बावजूद एक ओर तो अधिक हथियारों का उत्पादन हो रहा है, तथा दूसरी ओर उनकी विध्वंसक क्षमता बढ़ती जा रही है।

केवल सेना के उपयोग के लिए एक वर्ष में 16 अरब बंदूक-गोलियों का उत्पादन किया गया – यानी विश्व की कुल आबादी के दोगुनी से भी ज़्यादा गोलियां बनाई गर्इं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तैयार की गई ‘हिंसा व स्वास्थ्य पर विश्व रिपोर्ट’ के अनुसार, “अधिक गोलियां, अधिक तेज़ी से, अधिक शीघ्रता से व अधिक दूरी तक फायर कर सकती हैं और साथ ही इन हथियारों की विनाश क्षमता भी बढ़ी है।” एक एके-47 रायफल में तीन सेकंड से भी कम समय में 30 राउंड फायर करने की क्षमता है व प्रत्येक गोली एक कि.मी. से भी अधिक की दूरी तक जानलेवा हो सकती है।

पिछले सात दशकों में विश्व की एक बड़ी विसंगति यह रही है कि महाविनाशक हथियारों के इतने भंडार मौजूद हैं जो सभी मनुष्यों को व अधिकांश अन्य जीवन-रूपों को एक बार नहीं कई बार ध्वस्त करने की विनाशक क्षमता रखते हैं। परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए गठित आयोग ने दिसंबर 2009 में जारी अपनी रिपोर्ट में बताया था कि दुनिया में 23 हज़ार परमाणु हथियार मौजूद हैं, जिनकी विध्वंसक क्षमता हिरोशिमा पर गिराए गए एटम बम से डेढ़ लाख गुना ज़्यादा है। आयोग ने आगे बताया है कि अमेरिका और रूस के पास 2000 परमाणु हथियार ऐसे हैं जो बेहद खतरनाक स्थिति में तैनात हैं व मात्र चार मिनट में दागे जा सकते हैं। आयोग का स्पष्ट मत है कि जब तक कुछ देशों के पास परमाणु हथियार हैं, तब तक कई अन्य देश भी ऐसे हथियार प्राप्त करने का भरसक प्रयास करते रहेंगे।

आगामी दिनों में रोबोट हथियार या ए.आई. हथियार बहुत खतरनाक हथियारों के रूप में उभरने वाले हैं। अनेक विशेषज्ञों ने जारी चेतावनी में कहा है कि इससे जीवन के अस्तित्व मात्र का खतरा उत्पन्न हो सकता है। इन्हें आरंभिक स्थिति में ही प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए पर ऐसा प्रतिबंध लगाने में भी अनेक कठिनाइयां आ रही हैं। इस तरह के प्रतिबंधों के लिए ऐसे मुद्दों पर लोगों में जानकारी का प्रसार बहुत जरूरी है ताकि वे आगामी व वर्तमान खतरों की गंभीरता को समझ सकें।

अत: इन बढ़ते खतरों के बीच अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि विश्व स्तर पर सभी तरह के हथियारों व गोला-बारूद को न्यूनतम करने का एक बड़ा अभियान बहुत व्यापक स्तर पर निरंतरता से चले। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी पर वायुमंडल क्यों है?

मारी पृथ्वी का वायुमंडल काफी विशाल है। यह इतना बड़ा है कि इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन का मार्ग भी प्रभावित हो जाता है। लेकिन यह विशाल गैसीय आवरण कैसे बना? यानी सवाल यह है कि पृथ्वी पर वायुमंडल क्यों है?

वायुमंडल की उपस्थिति गुरुत्वाकर्षण की वजह से है। आज से लगभग 4.5 अरब वर्ष पहले जब पृथ्वी का निर्माण हुआ तब हमारा ग्रह तरल अवस्था में था और वायुमंडल न के बराबर था। स्मिथसोनियन एन्वायरमेंटल रिसर्च सेंटर के मुताबिक जैसे-जैसे पृथ्वी ठंडी होती गई, ज्वालामुखियों से निकलने वाली गैसों से इसका वायुमंडल बनता गया। यह वायुमंडल आज के वायुमंडल से काफी अलग था। उस समय के वायुमंडल में हाइड्रोजन सल्फाइड, मीथेन और आज की तुलना में 10 से 200 गुना अधिक कार्बन डाईऑक्साइड थी।

युनाइटेड किंगडम के साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय के भौतिक रसायन विज्ञानी प्रोफेसर जेरेमी फ्रे के अनुसार पृथ्वी का वायुमंडल पहले कुछ-कुछ शुक्र ग्रह जैसा था जिसमें नाइट्रोजन, कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन मौजूद थी। इसके बाद जीवन अस्तित्व में आया। लगभग यकीन से कहा जा सकता है कि यह किसी समुद्र के पेंदे में हुआ। फिर लगभग 3 अरब वर्षों बाद, प्रकाश संश्लेषण विकसित होने के बाद से एक-कोशिकीय जीवों ने सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करके कार्बन डाईऑक्साइड और पानी के अणुओं को शर्करा और ऑक्सीजन गैस में परिवर्तित किया। इसी के साथ ऑक्सीजन का स्तर बढ़ता गया।

पृथ्वी के वायुमंडल में आज लगभग 80 प्रतिशत नाइट्रोजन और 20 प्रतिशत ऑक्सीजन है। इसके साथ ही यहां आर्गन, कार्बन डाईऑक्साइड, जल वाष्प और कई अन्य गैसें भी मौजूद हैं। वायुमंडल में उपस्थित ये गैसें पृथ्वी को सूरज की तीक्ष्ण किरणों से बचाती हैं। प्रमुख ग्रीनहाउस गैसें हैं कार्बन डाईऑक्साइड, जल वाष्प, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड। इनका होना भी आवश्यक है वरना पृथ्वी का तापमान शून्य से भी नीचे जा सकता है। हालांकि, आज ग्रीनहाउस गैसें नियंत्रण से बाहर हैं। जैसे-जैसे हम अधिक कार्बन डाईऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ रहे है, पृथ्वी का ग्रीनहाउस प्रभाव और अधिक मज़बूत हो रहा है और धरती गर्म हो रही है।

देखा जाए तो सौर मंडल के किसी भी अन्य ग्रह पर पृथ्वी जैसा वायुमंडल नहीं है। शुक्र का वायुमंडल सल्फ्यूरिक एसिड और कार्बन डाईऑक्साइड से भरा हुआ है, हवा इतनी गर्म है कि कोई भी इंसान वहां सांस नहीं ले सकता। शुक्र की सतह का तापमान इतना अधिक है कि सीसे जैसी धातु को पिघला दे और वायुमंडलीय दबाव तो पृथ्वी से लगभग 90 गुना अधिक है। 

पृथ्वी का वायुमंडल हमारे लिए जीवन है जिसके बिना हमारा अस्तित्व नहीं है। जेरेमी फ्रे के अनुसार जीवन के पनपने के लिए पृथ्वी पर सही वातावरण होना आवश्यक था। जब यह वातावरण अस्तित्व में आया तब जीवन के लिए परिस्थितियां निर्मित हुर्इं। वायुमंडल जैविक प्रणाली का अभिन्न अंग है। (स्रोत फीचर्स)

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एक झील बहुमत से व्यक्ति बनी

संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा की सरहद पर एक झील है एरी झील। हाल ही में इस झील के किनारे बसे शहर टोलेडो (ओहायो प्रांत) के नागरिकों ने 61 प्रतिशत मतों से इसे एक व्यक्ति का दर्जा देने के कानून को समर्थन दिया है।

एरी झील अमेरिका की चौथी सबसे बड़ी और दुनिया भर की ग्यारहवीं सबसे बड़ी झील है। झील लगभग 25,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है। पिछले वर्षों में यह अत्यधिक प्रदूषित झीलों में से एक रही है। आसपास के खेतों से बहकर जो पानी इस झील में पहुंचता है उसमें बहुत अधिक मात्रा में फॉस्फोरस व नाइट्रोजन होते हैं। ये शैवाल के लिए उर्वरक का काम करते हैं और झील की पूरी सतह ज़हरीली शैवाल से ढंक जाती है। हालत यह हो गई थी कि इस झील का पानी पीने योग्य नहीं रह गया था। पिछले वर्ष गर्मियों में यहां के 5 लाख नागरिकों को पूरी तरह बोतल के पानी पर निर्भर रहना पड़ा था। यह झील इसके आसपास लगभग 875 कि.मी. के तट पर बसे विभिन्न शहरों के करीब 1 करोड़ लोगों के लिए पेयजल का स्रोत है।

झील की इस स्थिति से चिंतित होकर पिछले कई वर्षों से ओहायो में एक आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन ने एक कानून तैयार किया है जिसके तहत एरी झील को व्यक्ति का दर्जा दिया जाएगा। पिछले माह हुए मतदान में 61 प्रतिशत मतदाताओं ने इस कानून को समर्थन दिया है। इस कानून के तहत टोलेडो के नागरिकों को यह अधिकार मिल जाएगा कि वे एरी झील की ओर से प्रदूणकारियों पर मुकदमा चला सकेंगे।

इससे पहले इक्वेडोर, न्यूज़ीलैंड, कोलंबिया और भारत में भी नदियों, और जंगलों को व्यक्ति का दर्जा दिया जा चुका है। संभावना जताई जा रही है कि यूएस की इस नज़ीर के बाद कई अन्य स्थानों पर भी ‘प्रकृति के अधिकारों’ का यह आंदोलन ज़ोर पकड़ेगा।

कानूनी विशेषज्ञ ऐसे किसी कानून को लेकर दुविधा में हैं। कुछ लोगों को लगता है कि यह कानून संवैधानिक मुकदमों में टिक नहीं पाएगा। उनको लगता है कि परिणाम सिर्फ यह होगा कि मुकदमेबाज़ी में ढेरों पैसा खर्च होगा।

दूसरी ओर, कई अन्य लोगों का मानना है कि चाहे यह कानून मुकदमेबाज़ी में उलझ जाए किंतु यहां नागरिकों ने यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि वे प्रकृति के अतिक्रमण को बर्दाश्त नहीं करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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नैनोपार्टिकल से चूहे रात में देखने लगे

वैज्ञानिकों ने माउस (एक किस्म का चूहा) की आंखों में कुछ परिवर्तन करके उन्हें रात में देखने की क्षमता प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। किया यह गया है कि इन चूहों की आंख में कुछ अतिसूक्ष्म कण (नैनोकण) जोड़े गए हैं जो अवरक्त प्रकाश को दृश्य प्रकाश में बदल देते हैं।

आंखों में प्रकाश को ग्रहण करके उसे विद्युतीय संकेतों में बदलने का काम रेटिना में उपस्थित प्रकाश ग्राही कोशिकाओं द्वारा किया जाता है। जब ये संकेत मस्तिष्क में पहुंचते हैं तो वहां इन्हें दृश्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। रेटिना पर विभिन्न किस्म के प्रकाश ग्राही होते हैं जो अलग-अलग रंग के प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं। मनुष्यों में तीन प्रकार के प्रकाश संवेदी रंजक पाए जाते हैं जो हमें रंगीन दृष्टि प्रदान करते हैं और एक रंजक होता है जो काले और सफेद के बीच भेद करने में मदद करता है। यह वाला रंजक खास तौर से कम प्रकाश में सक्रिय होता है। इसके विपरीत चूहों में तथा कुछ वानरों में मात्र दो रंगीन रंजक होते हैं और एक रंजक मद्धिम प्रकाश के लिए होता है।

पहले वैज्ञानिकों ने चूहों में तीसरे रंजक का जीन जोड़कर उन्हें मनुष्यों के समान दृष्टि प्रदान की थी। मगर यह पहली बार है कि किसी जंतु को अवरक्त यानी इंफ्रारेड प्रकाश को देखने में सक्षम बनाया गया है। आम तौर पर प्रकाश का अवरक्त हिस्सा गर्मी पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है।

हेफाई स्थित चीनी विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विश्वविद्यालय के ज़्यू तिएन ने मैसाचुसेट्स मेडिकल स्कूल के गांग हान के साथ मिलकर उपरोक्त अनुसंधान किया है। हान ने कुछ समय पहले ऐसे नैनोकण विकसित किए थे जो अवरक्त प्रकाश को नीले प्रकाश में तबदील कर सकते हैं। इस सफलता से प्रेरित होकर हान और ज़्यू ने सोचा कि यदि ऐसे नैनोकण चूहों के प्रकाश ग्राहियों में जोड़ दिए जाएं तो वे रात में भी देख सकेंगे।

अगला कदम यह था कि नैनोकणों में इस तरह के परिवर्तन किए गए कि वे अवरक्त प्रकाश को नीले की बजाय हरे प्रकाश में तबदील करें। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि जंतुओं के हरे प्रकाश ग्राही नीले की अपेक्षा ज़्यादा संवेदनशील होते हैं। इसके बाद इन नैनोकणों पर एक ऐसे प्रोटीन का आवरण चढ़ाया गया जो प्रकाश ग्राही कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित एक शर्करा अणु से जुड़ जाता है। जब ये नैनोकण चूहों के रेटिना के पिछले भाग में इंजेक्ट किए गए तो ये प्रकाश ग्राही कोशिकाओं से जुड़ गए और 10 हफ्तों तक जुड़े रहे। और परिणाम आशा के अनुरूप रहे। चूहों की आंखें अवरक्त प्रकाश के प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया देने लगी जैसी वह दृश्य प्रकाश के प्रति देती है। इसके अलावा रेटिना और मस्तिष्क के दृष्टि सम्बंधी हिस्से में विद्युतीय सक्रियता देखी गई। इसके बाद इन चूहों को सामान्य दृष्टि सम्बंधी परीक्षणों से गुज़ारा गया और यह स्पष्ट हो गया कि वे अंधेरे में देख पा रहे थे।

सेल में प्रकाशित इस पर्चे के निष्कर्षों की चर्चा करते हुए ज़्यू ने कहा है कि उन्हें यकीन है कि यह मनुष्यों में कारगर होगा और यदि होता है तो सैनिकों को रात में बेहतर देखने की क्षमता प्रदान की जा सकेगी। इसके अलावा यह आंखों की कुछ खास दिक्कतों के संदर्भ में उपयोगी साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या कोई जीव नींद के बिना जीवित रह सकता है?

म अगर एक रात भी ठीक से नींद न ले सकें तो अगले दिन काम करने में काफी संघर्ष करना पड़ता है। लंबे समय तक ठीक से नींद न आए तो ह्मदय रोग और स्ट्रोक से लेकर वज़न बढ़ने और मधुमेह जैसे नकारात्मक प्रभाव दिखने लगते हैं। जानवर भी ऊंघते हैं। इससे तो लगता है कि सभी जानवरों के लिए नींद का कुछ महत्व है।

सवाल यह है कि नींद की भूमिका क्या है? क्या नींद मस्तिष्क को क्षति की मरम्मत और सूचना को सहेजने का अवसर देती है? क्या यह शरीर में ऊर्जा विनियमन के लिए आवश्यक है? वैज्ञानिकों ने नींद की कई व्याख्याएं की हैं लेकिन एक सटीक उत्तर का इंतज़ार आज भी है।

1890 के दशक में रूस की एक चिकित्सक मैरी डी मेनासीना नींद की एक गुत्थी से परेशान थीं। उनका ख्याल था कि जब हम जीवन को भरपूर जीना चाहते हैं तो क्यों अपने जीवन का एक-तिहाई भाग सोकर गुज़ार देते हैं। इस रहस्य को जानने के लिए उन्होंने जानवरों में पहला निद्रा-वंचना प्रयोग किया। मेनासीना ने पिल्लों को लगातार जगाए रखा और यह पाया कि नींद की कमी के कारण कुछ दिनों में उन पिल्लों की मृत्यु हो गई। बाद के दशकों में, अन्य जीवों जैसे कृंतकों और तिलचट्टों पर यह प्रयोग किया गया और परिणाम ऐसे ही रहे। लेकिन इन प्रयोगों में मौत का कारण और नींद से इसका सम्बंध अभी भी अज्ञात है।

नींद का अभाव जानलेवा होता है लेकिन कुछ प्राणी बहुत कम नींद लेकर भी जीवित रह सकते हैं। साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में फल मक्खियों के सोने-जागने पर नज़र रखी गई थी। इम्पीरियल कॉलेज लंदन में सिस्टम्स जीव विज्ञानी जियोर्जियो गिलेस्ट्रो के अनुसार उनके इस प्रयोग में कुछ मक्खियां शायद ही कभी सोई होंगी।

गिलेस्ट्रो और उनके सहयोगियों ने पाया कि 6 प्रतिशत मादा मक्खियां दिन में 72 मिनट से कम समय तक सोती थीं, जबकि अन्य मादाओं की औसत नींद 300 मिनट थी। एक मादा तो एक दिन में औसतन मात्र 4 मिनट सोती थी। आगे शोधकर्ताओं ने मक्खियों के सोने का समय 96 प्रतिशत कम कर दिया। लेकिन ये मक्खियां, पिल्लों की तरह असमय मृत्यु का शिकार नहीं हुर्इं। वे अन्य मक्खियों के बराबर जीवित रहीं। गिलेस्ट्रो व कई अन्य वैज्ञानिक सोचने लगे हैं कि शायद नींद उतनी ज़रूरी नहीं है, जितना पहले सोचा जाता था।

2016 के एक अध्ययन में, रैटनबोर्ग और उनके सहयोगियों ने गैलापागोस द्वीप समूह में फ्रिगेट बर्ड्स (फ्रेगेटा माइनर) के मस्तिष्क में विद्युत गतिविधि के मापन के आधार पर दिखाया था कि समुद्र पर उड़ान भरते समय पक्षियों के मस्तिष्क का एक गोलार्ध सो जाता है। और कभी-कभी एक साथ दोनों गोलार्ध भी सो जाते हैं। अध्ययन में पाया गया कि उड़ान भरने के दौरान फ्रिगेट बर्ड्स औसतन प्रति दिन केवल 42 मिनट सोए, जबकि आम तौर पर ज़मीन पर वे 12 घंटे से अधिक सोते हैं। उड़ते समय नींद अन्य पक्षी प्रजातियों के बीच भी आम बात हो सकती है। हालांकि वैज्ञानिकों के पास इसके लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है लेकिन सामान्य स्विफ्ट (एपस एपस) बिना रुके 10 महीने तक उड़ सकती है।

कुल मिलाकर अभी तक तो यही लगता है कि बिलकुल भी न सोने वाला कोई जीव नहीं है। चाहे थोड़ी-सी ही सही, मगर जैव विकास के इतिहास में नींद का बने रहने दर्शाता है कि इसकी कुछ अहम भूमिका है और न्यूनतम नींद अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

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परमाणु की एक पुरानी गुत्थी सुलझी

भौतिकी की एक गुत्थी रही है जिसे भौतिक शास्त्री 1983 से जानते हैं। यह तो जानी-मानी बात है कि परमाणु में एक केंद्रक होता है जिसके अंदर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन नामक कण होते हैं और इलेक्ट्रॉन केंद्रक के आसपास चक्कर काटते हैं। गुत्थी यह रही है कि प्रोटॉन और न्यूट्रॉन का व्यवहार केंद्रक के अंदर और बाहर बहुत अलग-अलग होता है।

यह थोड़ी विचित्र बात है क्योंकि चाहे केंद्रक के अंदर हों या बाहर प्रोटॉन और न्य़ूट्रॉन तो वही रहते हैं। प्रोटॉन और न्यूट्रॉन क्वार्क्स नामक कणों से बने होते हैं और इन कणों को साथ-साथ रखने का काम स्ट्रॉन्ग बल करते हैं। अवलोकन यह है कि जैसे ही क्वार्क्स केंद्रक के अंदर पहुंचते हैं, उनकी गति बहुत धीमी पड़ जाती है। क्वार्क्स की गति का निर्धारण मुख्य रूप से स्ट्रॉन्ग बल द्वारा होता है। दूसरी ओर, केंद्रक में न्यूट्रॉन व प्रोटॉन को साथ रखने का काम करने वाला बल अत्यंत दुर्बल होता है। तीसरा कोई बल होता नहीं जो क्वार्क्स को धीमा करे, लेकिन तथ्य यही है कि केंद्रक के अंदर क्वार्क्स की गति धीमी पड़ जाती है। भौतिकी समुदाय इसे ईएमसी प्रभाव कहता है। यह नाम उस समूह के नाम पर रखा गया है जिसने इसकी खोज की थी – युरोपियन म्युऑन कोलेबोरेशन। तो सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है।

केंद्रक में उपस्थित किन्हीं भी दो कणों को बांधकर रखने वाला बल करीब 80 लाख इलेक्ट्रॉन वोल्ट के बराबर होता है। दूसरी ओर न्यूट्रॉन या प्रोटॉन के अंदर क्वार्क्स को आपस में जोड़े रखने वाला बल 10,000 लाख इलेक्ट्रॉन वोल्ट के बराबर होता है। तो ऐसा तो नहीं हो सकता कि क्वार्क्स को आपस में बांधे रखने वाले इतने सशक्त बल को केंद्रक का हल्का-सा बल प्रभावित कर दे।

सापेक्षता का सिद्धांत कहता है कि किसी भी वस्तु के साइज़ पर उसकी गति का असर पड़ता है। यह असर कम गति से हलचल कर रही स्थूल वस्तुओं के संदर्भ में इतना कम होता है कि पता ही नहीं चलता। मगर क्वार्क्स के पैमाने पर यह काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। जैसे सोने के केंद्रक को देखें तो उसके अंदर उपस्थिति प्रोटॉन व न्यूट्रॉन स्वतंत्र प्रोटॉन व न्यूट्रॉन की अपेक्षा 20 प्रतिशत तक छोटे होते हैं।

इस ईएमसी प्रभाव की व्याख्या के लिए भौतिक शास्त्रियों ने तमाम मॉडल विकसित किए हैं मगर आज तक कोई भी मॉडल इस विसंगति की संतोषजनक व्याख्या नहीं कर सका है। अब एमआईटी के भौतिक शास्त्री ओर हेन और उनकी टीम ने इसकी एक व्याख्या प्रस्तुत की है। उनका कहना है कि अधिकांश परिस्थितियों में केंद्रक में उपस्थित प्रोटॉन और न्यूट्रॉन एक दूसरे पर व्याप्त नहीं होते। किंतु कभी-कभी वे एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। शोधकर्ताओें का कहना है कि किसी भी क्षण केंद्रक के 20 प्रतिशत प्रोटॉन/न्यूट्रॉन इस अवस्था में रहते हैं। ऐसा होने पर क्वार्क्स के बीच ऊर्जा का विशाल प्रवाह होता है और यह प्रवाह उनकी संरचना और व्यवहार को बदल देता है। यही ईएमसी प्रभाव का कारण है। टीम ने कुछ प्रयोग भी किए और उनके परिणाम उपरोक्त व्याख्या के अनुरूप ही मिले हैं। कुल मिलाकर हेन की टीम का मत है कि ईएमसी प्रभाव कुछ न्यूट्रॉन/प्रोटॉन की इस विशेष अवस्था का परिणाम है। (स्रोत फीचर्स)

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बेकार है छुट्टियों की लंबी नींद

फ्ते भर की व्यस्त दिनचर्या के कारण लोगों को पूरी नींद नहीं मिल पाती है। नींद की कमी से डायबिटीज़ और दिल की बीमारी जैसी कई स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। अक्सर लोग सप्ताह के अंत में देर तक सोकर हफ्ते भर की नींद की कसर पूरी करते हैं। लेकिन क्या सेहत पर पड़े असर की भरपाई एक-दो रोज़ की भरपूर नींद लेने से हो पाती है?

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक सिर्फ छुट्टियों में देर तक सोना या भरपूर नींद लेना, नींद की कमी के कारण सेहत पर पड़े नकारात्मक प्रभाव की भरपाई नहीं करते।

युनिवर्सिटी ऑफ कोलोरेडो बोल्डर के केनेथ राइट और उनके साथियों ने छुट्टियों में देर तक सोने वाले लोगों पर स्वास्थ्य सम्बंधी अध्ययन किया। उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि रोज़ाना की नींद की कमी के कारण सेहत पर पड़े नकारात्मक प्रभाव की भरपाई छुट्टियों में देर तक सोने से होती है या नहीं?

इस अध्ययन में उन्होंने युवाओं के तीन समूह बनाए। प्रत्येक समूह में 14 युवा प्रतिभागी थे। पहले समूह (समूह क) के प्रतिभागियों को हर दिन सिर्फ 5 घंटे की नींद लेनी थी। दूसरे समूह (समूह ख) में प्रतिभागियों को रोज़ तो सिर्फ 5 घंटे सोना था लेकिन उन्हें यह छूट थी कि वे छुट्टी के दिन भरपूर नींद ले सकते हैं। जबकि तीसरे समूह (समूह ग) को हर रोज़ भरपूर नींद (लगभग 9 घंटे) लेने को कहा गया। यह सिलसिला 9 दिन तक चला।

उन्होंने पाया की रोज़ाना नींद की कमी वाले समूह क के प्रतिभागियों ने भरपूर नींद वाले समूह ग की तुलना में ज़्यादा खाया, उनका वज़न भी बढ़ गया और वे इंसुलिन के प्रति कम संवेदनशील दिखे। इसके बाद समूह ख (जो रोज़ाना कम सोए थे मगर छुट्टी के दिन भरपूर सो सकते थे) के प्रतिभागियों के स्वास्थ्य की जांच की तो शोधकर्ताओं ने पाया इस समूह के स्वास्थ्य पर पड़े असर पहले समूह जैसे ही हैं। यानी सप्ताह की नींद की भरपाई सप्ताहांत में ज़्यादा सोकर नहीं हो पाई थी। सेहतमंद रहने के लिए रोज़ाना भरपूर नींद ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

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