यह सुनने में तो थोड़ा अजीब लगता है लेकिन रबर बैंड से भी
रेफ्रीजरेटर बनाया जा सकता है। इसका एक छोटा-सा अनुभव आप भी कर सकते हैं। रबर बैंड
को खींचते हुए अपने होंठों के पास लाइए, आप थोड़ी थोड़ी गर्माहट महसूस करेंगे। वापस
छोड़ने पर यह ठंडा भी हो जाता है। इसे इलास्टोकैलोरिक प्रभाव कहते हैं जो ठीक उसी
तरह गर्मी को स्थानांतरित करता है जिस तरह रेफ्रीजरेटर या एयर कंडीशनर में तरल को
दबाकर और फिर फैलाकर किया जाता है। वैज्ञानिकों ने इसका एक ऐसा संस्करण भी तैयार
किया है जिसमें रबर बैंड को खींचने के अलावा मरोड़ा या ऐंठा भी जाता है।
इस मरोड़ने की तकनीक पर आधारित फ्रिज पर
अध्ययन करते हुए चीन स्थित नंकाई युनिवर्सिटी,
तियांजिन के
इंजीनियरिंग स्नातक रन वांग और उनके सहयोगियों ने रबर फाइबर, नायलॉन, पॉलीएथिलीन
के तार और निकल-टाइटेनियम तारों की शीतलन शक्ति की तुलना की। प्रत्येक सामग्री के
3 सेंटीमीटर लचीले फाइबर को रोटरी उपकरण की मदद से मरोड़ा गया। ऐसा करने पर ऐंठन की
वजह से कुंडलियां बनीं और कुंडलियों से सुपर-कुंडलियां बन गर्इं। ऐसा करने पर
विभिन्न फाइबर 15 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हुए और ढीला छोड़ने पर उतने ही ठंडे भी
हो गए।
मरोड़ने पर गर्म होने की प्रक्रिया को समझने
के लिए शोधकर्ताओं ने प्रत्येक फाइबर की आणविक संरचना को देखने के लिए एक्स-रे का
उपयोग किया। मरोड़ने के बल ने अणुओं को अधिक व्यवस्थित कर दिया। चूंकि कुल व्यवस्था
में कोई बदलाव नहीं आता है, इसलिए आणविक कंपन में वृद्धि हुई और तापमान
बढ़ा।
इस प्रक्रिया की ठंडा करने की क्षमता देखने
के लिए शोधकर्ताओं ने मरोड़ने और खोलने की प्रक्रिया को पानी में करके देखा। रबर
फाइबर में उन्होंने लगभग 20 जूल प्रति ग्राम ऊष्मा विनिमय दर्ज किया। यह माप
मरोड़ने वाले उपकरण द्वारा खर्च की गई ऊर्जा की तुलना में आठ गुना अधिक था। अन्य
फाइबरों का प्रदर्शन भी ऐसा ही रहा। साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इनकी
दक्षता का स्तर मानक शीतलकों से तुलनीय है और बिना मरोड़े केवल खींचने से दो गुना
अधिक।
यह डिज़ाइन उन शीतलन तरलों की ज़रूरत को कम
कर सकती है जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देते हैं। हालांकि शीतलन उपकरणों में
ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन को तो खत्म किया जा चुका है लेकिन
उसकी जगह इस्तेमाल किए जाने वाले अन्य रसायन ग्रीनहाउस गैसों की श्रेणी में आते
हैं जो कार्बन डाईऑक्साइड से अधिक घातक हैं।
इस शोधपत्र के लेखक और युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास, डलास के भौतिक विज्ञानी रे बॉगमैन और उनकी टीम ने नमूने के तौर पर निकल टाइटेनियम तारों की मदद से बॉल पॉइंट पेन के आकार का एक छोटा फ्रिज तैयार किया है। इस ट्विस्टोकैलोरिक विधि की मदद से उन्होंने चंद सेकंड में पानी की थोड़ी-सी मात्रा को 8 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर दिया। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://hackaday.com/2016/08/25/a-refrigerator-cooled-by-rubber-bands/
विश्व चेचक मुक्त हो चुका है। और यह संभव हुआ है विश्व भर में
चेचक के खिलाफ चले टीकाकरण अभियान से। बहुत जल्द हमें पोलियो से भी मुक्ति मिल
जाएगी और ऐसी उम्मीद है कि पोलियो अब कभी हमें परेशान नहीं करेगा। और अब जल्द ही
टायफॉइड भी बीते समय की बीमारी कहलाएगी। यह उम्मीद बनी है हैदराबाद स्थित एक
भारतीय टीका निर्माता कंपनी – भारत बॉयोटेक – द्वारा टायफॉइड के खिलाफ विकसित किए
गए एक नए टीके की बदौलत। इस टीके को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मंज़ूरी दे दी है। नेचर
मेडिसिन पत्रिका के अनुसार यह “2018 की सुर्खियों में छाने वाले उपचारों” में
से एक है। नेचर मेडिसिन पत्रिका ने अपने 24 दिसंबर 2018 से अंक में लिखा है
(जिस पर हम गर्व कर सकते हैं) कि “विश्व स्वास्थ्य संगठन ने टायफॉइड बुखार के
खिलाफ टायफॉइड कॉन्जुगेट वैक्सीन, संक्षेप में टाइपबार TCV,
नामक टीके को मंज़ूरी
दी है। और यह एकमात्र ऐसा टीका है जिसे 6 माह की उम्र से ही शिशुओं के लिए
सुरक्षित माना गया है। यह टीका प्रति वर्ष करीब 2 करोड़ लोगों को प्रभावित करने
वाले बैक्टीरिया-जनित रोग टायफॉइड के खिलाफ पहला संयुग्म टीका (conjugate vaccine) है।” इसमें एक बैक्टीरिया-जनित रोग (टायफॉइड) के दुर्बल
एंटीजन को एक शक्तिशाली एंटीजन (टिटेनस के रोगाणु) के साथ जोड़ा गया है ताकि शरीर
उसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने लगे।
भारत बायोटेक द्वारा टाइपबार TCV टीके के निर्माण और उसके परीक्षण को सबसे पहले 2013 में
क्लीनिकल इंफेक्शियस डीसीज़ जर्नल में प्रकाशित किया गया था। इस टीके का परीक्षण
ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के समूह द्वारा इंसानी चुनौती मॉडल पर किया गया था। इंसानी
चुनौती मॉडल का मतलब यह होता है कि कुछ व्यक्तियों को जानबूझकर किसी बैक्टीरिया की
चुनौती दी जाए और फिर उन पर विभिन्न उपचारों का परीक्षण किया जाए। परीक्षण में इस
टीके को अन्य टीकों (जैसे फ्रांस के सेनोफी पाश्चर द्वारा निर्मित टीके) से बेहतर
पाया गया। इस आधार पर इस टीके को अफ्रीका और एशिया के राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम
में शामिल करने की मंज़ूरी मिल गई।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत में ही
कई लोगों को यह मालूम नहीं है कि विश्व के एक तिहाई से अधिक टीके भारत की मुट्ठी
भर बॉयोटेक कंपनियों द्वारा बनाए जाते हैं और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप, अफ्रीका
और एशिया में उपलब्ध कराए जाते हैं। और ऐसा पिछले 30 वर्षों में संभव हुआ है। तब
तक हम विदेशों में बने टीके मंगवाते थे और लायसेंस लेकर यहां ठीक उसी प्रक्रिया से
उनका निर्माण करते थे। वह तो जब से बायोटेक कंपनियों ने बैक्टीरिया और वायरस के
स्थानीय प्रकारों की खोज शुरू की तब से आधुनिक जीव विज्ञान की विधियों का उपयोग
करके स्वदेशी टीकों का निर्माण शुरू हुआ। इस संदर्भ में डॉ. चंद्रकांत लहरिया ने
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अप्रैल 2014 के अंक में जानकारी से भरपूर एक
पर्चे में भारत में टीकों और टीकाकरण के इतिहास का विवरण प्रस्तुत किया है। इसे आप
ऑनलाइन (PMID: 24927336) पढ़ सकते हैं।
इसके पहले तक निर्मित टायफॉइड के टीके में
टायफॉइड के जीवित किंतु बहुत ही कमज़ोर जीवाणु को मानव शरीर में प्रविष्ट कराया
जाता था, जिससे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली इसके खिलाफ एंटीबॉडी
बनाने के लिए तैयार हो जाती थी। इसके बाद वैज्ञानिकों को इस बात का अहसास हुआ कि
जीवित अवस्था में जीवाणु का उपयोग करना उचित नहीं है क्योंकि इसके कुछ अनचाहे
दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। इसलिए उन्होंने टीके में जीवाणु के बाहरी आवरण पर
उपस्थित एक बहुलक का उपयोग करना शुरू किया। मेज़बान यानी हमारे शरीर का प्रतिरक्षा
तंत्र इसके खिलाफ वही एंटीबॉडी बनाता था जो शरीर में स्वयं जीवाणु के प्रवेश करने
पर बनती है। हालांकि यह उपचार उतना प्रभावशाली या प्रबल नहीं था जितनी हमारी इच्छा
थी। काश किसी तरह से मेज़बान की प्रतिरक्षा शक्ति को बढ़ाया सकता! इसके अलावा, टायफॉइड
जीवाणु के आवरण के बहुलक को वाहक प्रोटीन के साथ जोड़कर भी टीका बनाने की कोशिश की
गई थी। इस तरह के कई प्रोटीन-आधारित टायफॉइड टीकों का निर्माण हुआ जो आज भी
बाज़ारों में उपलब्ध हैं। हाल ही मे इंफेक्शियस डिसीसेज़ में प्रकाशित एस.
सहरुाबुद्धे और टी. सलूजा का शोधपत्र बताता है कि क्लीनिकल परीक्षण
में टाइपबार-टीवीसी टीके के नतीजे सबसे
बेहतर मिले हैं, और इसलिए विश्व स्वास्थ संगठन ने इसे मंज़ूरी दे दी है और
युनिसेफ द्वारा इसे खरीदने का रास्ता खोल दिया है।
इसी कड़ी में यह जानना और भी बेहतर होगा कि
जस्टिन चकमा के नेतृत्व में कनाडा के एक समूह ने भारतीय टीका उद्योग के बारे में
क्या लिखा है। यह समूह बताता है कि कैसे हैदराबाद स्थित एक अन्य टीका निर्माता
कंपनी, शांता बायोटेक्नीक्स,
ने हेपेटाइटिस-बी का
एक सफल टीका विश्व को वहनीय कीमत पर उपलब्ध कराया है। उन्होंने इस सफलता के चार
मुख्य बिंदु चिन्हित किए हैं – चिकित्सा के क्षेत्र और मांग की मात्रा की पहचान, निवेश
और साझेदारी, वैज्ञानिकों और चिकित्सालयों के साथ मिलकर नवाचार, और
राष्ट्रीय और वैश्विक एजेंसियों के साथ जुड़ाव और इन सबके अलावा अच्छी उत्पादन
प्रक्रिया स्थापित करना।
भारत बॉयोटेक इन सभी बिंदुओं पर खरी उतरी
है। वास्तव में उसके द्वारा रोटावायरस के खिलाफ सफलता पूर्वक निर्मित टीका ‘टीम
साइंस मॉडल’ का उदाहरण है जिसमें चिकित्सकों,
वैज्ञानिकों, राष्ट्रीय
और वैश्विक सहयोग समूहों और सरकार को शामिल किया गया था। ‘टीम साइंस’ का एक और
उदाहरण जापानी दिमागी बुखार के खिलाफ विकसित जेनवेक टीका है।
और एक अंतिम बात – भारत सरकार द्वारा 1970 में लाए गए प्रक्रिया पेटेंट कानून की अहम भूमिका रही। इसके कारण विश्व भर में कम कीमत पर अच्छी गुणवत्ता वाली दवा उपलब्ध कराने वाली निजी दवा निर्माता कंपनियों का विकास हुआ (जैसे सिप्ला कंपनी के गांधीवादी डॉ. युसुफ हामिद जिन्होंने अफ्रीका में कम दाम पर एड्स-रोधी दवाइयां उपलब्ध कराई और बाइकॉन कंपनी के किरन मजूमदार शॉ जिन्होंने 7 रुपए प्रतिदिन की कीमत पर इंसुलिन उपलब्ध करवाया)। इसके अलावा, विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग और बॉयोटेक्नॉलॉजी विभाग द्वारा मान्यता, अनुदान और ऋण तथा भारत सरकार द्वारा दिए गए अनुसंधान अनुदान की भूमिका उत्प्रेरक और प्रशंसनीय रही है। इनकी वजह से ही हमारी टीका कंपनियां विश्व स्तर पर वैश्विक गुणवत्ता वाले टीके बहुत कम दामों पर उपलब्ध करा पाती हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/article22814217.ece/alternates/FREE_660/BACTERIA
16 साल की स्वीडिश पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा अर्नमैन थनबर्ग
का नाम आजकल पूरी दुनिया में चर्चा में है। वजह पर्यावरण को लेकर उसकी विश्वव्यापी
मुहिम है। अच्छी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के प्रति
लोगों को जागरूक करने के लिए ग्रेटा ने जो आंदोलन छेड़ रखा है, उसे अब व्यापक जनसमर्थन मिल रहा है। पर्यावरण बचाने के इस
आंदोलन में लोग जुड़ते जा रहे हैं। खास तौर से यह आंदोलन बच्चों और नौजवानों को खूब
आकर्षित कर रहा है।
बीते 20 सितंबर को शुक्रवार के दिन दुनिया
भर में लाखों स्कूली बच्चों ने जलवायु संकट की चुनौतियों से निपटने के कदम उठाने
का आह्वान करते हुए प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में उनके साथ बड़े लोग भी शामिल
हुए। ग्रेटा की इस मुहिम का असर दुनिया भर में इतना हुआ है कि अमेरिका में
न्यूयार्क के स्कूलों ने अपने यहां के 11 लाख बच्चों को खुद ही शुक्रवार की छुट्टी
दे दी ताकि वे ‘वैश्विक जलवायु हड़ताल’ में शामिल हो सकें। ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न
शहर में करीब 1 लाख लोग इस मुहिम से जुड़े। भारत में भी कई बड़े शहरों के अलावा
राजधानी दिल्ली में स्कूली बच्चों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जंतर-मंतर पर
प्रदर्शन कर लोगों का ध्यान इस समस्या की ओर दिलाया।
पर्यावरण के प्रति ग्रेटा थनबर्ग में
संवेदनशीलता और प्यार शुरू से ही था। महज नौ साल की उम्र में, जब वह तीसरी क्लास में पढ़ रही थी, उसने
जलवायु सम्बंधी गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। लेकिन ग्रेटा की ओर
सबका ध्यान उस वक्त गया, जब उसने पिछले साल
अगस्त में अकेले ही स्वीडिश संसद के बाहर पर्यावरण को बचाने के लिए हड़ताल का आगाज़
किया। ग्रेटा की मांग थी कि स्वीडन सरकार पेरिस समझौते के मुताबिक अपने हिस्से का
कार्बन उत्सर्जन कम करे। ग्रेटा ने अपने दोस्तों और स्कूल वालों से भी इस हड़ताल
में शामिल होने की अपील की, लेकिन सभी ने इन्कार
कर दिया। यहां तक कि ग्रेटा के माता-पिता भी पहले इस मुहिम के लिए मानसिक तौर पर
तैयार नहीं थे। उन्होंने अपनी तरफ से ग्रेटा को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह नहीं रुकी। ग्रेटा ने पहले ‘स्कूल स्ट्राइक फॉर
क्लाइमेट मूवमेंट’ की स्थापना की। खुद अपने हाथ से बैनर पैंट किया और स्वीडन की
सड़कों पर घूमने लगी। उसके बुलंद हौसले का ही नतीजा था कि लोग जुड़ते गए, कारवां बनता गया।
ग्रेटा थनबर्ग का यह आंदोलन बच्चों में
इतना कामयाब रहा कि आज आलम यह है कि पर्यावरण बचाने के इस महान आंदोलन में लाखों
विद्यार्थी शामिल हो गए हैं। इसी साल 15 मार्च के दिन, दुनिया
के कई शहरों में विद्यार्थियों ने एक साथ पर्यावरण सम्बंधी प्रदर्शनों में भाग
लिया और भविष्य में भी प्रत्येक शुक्रवार को ऐसा करने का फैसला किया है। अपने इस
अभियान को उसने ‘फ्राइडेज़ फॉर फ्यूचर’ (भविष्य के लिए शुक्रवार) नाम दिया है।
शुक्रवार के दिन बच्चे स्कूल जाने की बजाय सड़कों पर उतरकर अपना विरोध दर्ज करते
हैं ताकि दुनिया भर के नेताओं, नीति निर्माताओं का
ध्यान पर्यावरणीय संकट की तरफ जाए, वे इसके प्रति संजीदा
हों और पर्यावरण बचाने के लिए अपने-अपने यहां व्यापक कदम उठाएं। ज़ाहिर है, यह एक ऐसी मुहिम है जिसका सभी को समर्थन करना चाहिए।
क्योंकि यदि दुनिया नहीं बचेगी, तो लोग भी नहीं
बचेंगे। अपनी इस मुहिम से ग्रेटा ने जो सवाल उठाए हैं और वे जिस अंदाज़ में बात
करती हैं, उसका लोगों पर काफी असर होता है। वे अपने
भाषणों में बड़ी-बड़ी बातें नहीं कहतीं, छोटी-छोटी
बातों और मिसालों से उन्हें समझाती हैं। मसलन “हमारे पास कोई प्लेनेट-बी यानी
दूसरा ग्रह नहीं है, जहां जाकर इंसान बस जाएं। लिहाज़ा हमें हर
हाल में धरती को बचाना होगा।’’
पर्यावरण बचाने की ग्रेटा थनबर्ग की यह
बेमिसाल मुहिम अब स्कूल की चारदीवारी, बल्कि
देश की सरहदों से भी बाहर फैल चुकी है। स्टॉकहोम, हेलसिंकी, ब्रसेल्स और लंदन समेत दुनिया के कई देशों में जाकर ग्रेटा
ने अलग-अलग मंचों पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आवाज़ उठाई है। दावोस में विश्व
आर्थिक मंच के एक सत्र को भी ग्रेटा ने संबोधित किया। यही नहीं, पिछले साल दिसंबर में पोलैंड के काटोवाइस में आयोजित, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की
24वीं बैठक में उसने पर्यावरण पर ज़बर्दस्त भाषण दिया था।
इस मुहिम का असर आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, दिखने लगा है। आम लोगों से लेकर सियासी लीडर तक ग्रेटा की
इन चिंताओं में शरीक होने लगे हैं। ग्रेटा से ही प्रभावित होकर दुनिया भर के
तकरीबन 2000 स्थानों पर पर्यावरण को बचाने के लिए प्रदर्शन हो रहे हैं। अपना
कामकाज छोड़कर, लोग सड़कों पर निकल रहे हैं। ब्रिटेन में
पिछले दिनों लाखों लोगों ने ग्रेटा थनबर्ग के साथ सड़कों पर इस मांग के साथ
प्रदर्शन किया कि देश में जलवायु आपात काल लगाया जाए। इस प्रदर्शन का नतीजा यह रहा
कि ब्रिटेन की संसद को देश में जलवायु आपात काल घोषित करने का फैसला करना पड़ा। ब्रिटेन
ऐसा अनूठा और ऐतिहासिक कदम उठाने वाला पहला देश बन गया।
ग्रेटा अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए
सिर्फ उनके बीच ही नहीं जाती, बल्कि ट्विटर जैसे
सोशल मीडिया का भी जमकर इस्तेमाल करती है। उसे मालूम है कि आज का युवा अपना सबसे
ज़्यादा वक्त इस माध्यम पर बिताता है।
ग्रेटा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी
एक वीडियो संदेश भेजा था। इसमें गुज़ारिश की थी कि वे पर्यावरण बचाने और जलवायु
परिवर्तन के संकटों से उबरने के लिए अपने देश में गंभीर कदम उठाएं।
पर्यावरण बचाने की अपनी इस मुहिम से ग्रेटा
थनबर्ग का नाता सिर्फ सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि
वह अपने व्यवहार से कोशिश करती हैं कि खुद भी इस पर अमल करें। संयुक्त राष्ट्र की
जलवायु शिखर वार्ता में प्रमुख वक्ता के रूप में शामिल होने के लिए स्वीडन से
न्यूयॉर्क की लंबी यात्रा ग्रेटा ने यॉट (नौका) में सफर कर पूरी की ताकि वह अपने
हिस्से का कार्बन उत्सर्जन रोक सकें। ये छोटी-छोटी बातें बतलाती हैं कि यदि हम
जागरूक रहेंगे, तो पर्यावरण बचाने में अपना योगदान दे सकते
हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूकता फैलाने
के लिए ग्रेटा थनबर्ग को इतनी कम उम्र में ही कई सम्मानों और पुरस्कारों से नवाज़ा
जा चुका है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के ‘एम्बेसडर ऑफ कॉन्शिएंस अवॉर्ड, 2019’ के अलावा दुनिया की प्रतिष्ठित टाइम मैगज़ीन ने ग्रेटा
को साल 2018 के 25 सबसे प्रभावशाली किशोरों की सूची में शामिल किया। यही नहीं, तीन नॉर्वेजियन सांसदों ने पिछले दिनों ग्रेटा को नोबेल
शांति पुरस्कार के लिए नामित किया था।
इस समय पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के
गंभीर संकट से जूझ रही है। यूएन की एक रिपोर्ट बतलाती है कि दुनिया भर के 10 में
से 9 लोग ज़हरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। हर साल 70 लाख मौतें वायु
प्रदूषण की वजह से होती हैं। इनमें से 40 लाख एशिया के होते हैं। जलवायु परिवर्तन
की वजह से होने वाले खराब मौसम की वजह से हमारे देश में हर साल 3660 लोगों की मौत
हो जाती है। लैंसेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया
भर में जलवायु परिवर्तन के चलते 153 अरब कामकाजी घंटे बर्बाद हुए हैं जिसके चलते
उत्पादकता में भी भारी कमी आई है और पूरी दुनिया को 326 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचा
है। इसमें 160 अरब डॉलर का नुकसान तो सिर्फ भारत को ही हुआ है।
पर्यावरणविदों का मत है कि अगर समय रहते कार्बन उत्सर्जन कम करने के प्रयास नहीं किए गए, तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। ग्लोबल वार्मिंग का खतरा सभी देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है। इस गंभीर चुनौती से तभी निपटा जा सकता है, जब सभी, खास तौर से नई पीढ़ी इसके प्रति जागरूक हों और पर्यावरण बचाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करें। अपनी ज़िम्मेदारियों को खुद समझे और दूसरों को भी समझाए। जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही दुनिया के सामने, अपने जागरूकता अभियान से ग्रेटा थनबर्ग ने एक शानदार मिसाल पेश की है। दुनिया को बतलाया है कि अभी भी ज़्यादा वक्त नहीं बीता है, संभल जाएं। वरना पछताने के लिए कोई नहीं बचेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.snopes.com/tachyon/2019/09/GettyImages-1170491055-1.jpg?resize=865,452
लगभग साढ़े चार हज़ार साल पुरानी जर्मन कब्रगाहों के अवशेष और
उनमें मिले सामानों पर किए गए हालिया अध्ययन के नतीजों ने अध्ययनकर्ताओं को हैरत
में डाल दिया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजों के
मुताबिक इन पुरानी जर्मन कब्रगाहों में वयस्क बेटियों के शव नदारद हैं।
ये अवशेष तकरीबन 20 साल पहले दक्षिण
ऑग्सबर्ग में लेक नदी के किनारे आवास निर्माण के लिए चल रही खुदाई में मिले थे।
हार्वर्ड मेडिकल स्कूल की एलिसा मिटनिक और उनके साथी खुदाई में मिले करीब 104 शवों
के डीएनए, शवों के साथ मिली वस्तुओं के विश्लेषण, रेडियोकार्बन
डेटिंग और दांतो में मौजूद स्ट्रॉन्टियम आइसोटोप की मात्रा के आधार पर उनके
सामाजिक ढांचे का अध्ययन कर रहे थे। अध्ययन में उन्होंने पाया कि इन कब्रगाहों में
वयस्क बेटियों का एक भी शव नहीं था। इसके विपरीत बेटों को पिता की ज़मीन पर दफनाया
गया था और उनके साथ उनकी संपत्ति भी रखी गई थी।
रोडियोकार्बन डेटिंग में उन्होंने पाया कि
ये लोग वहां 4750 से 3300 वर्ष पूर्व रहते थे। 200 वर्ष की इस अवधि में चार से
पांच पीढ़ियों का जीवन रहा। शवों के साथ मिली वस्तुओं और बर्तनों के आकार के आधार
पर अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि शुरुआती पीढ़ी नव-पाषाण संस्कृति की थी। इसके बाद
की पीढ़ियों के लोग कांस्ययुग के थे, जिनके साथ उनकी कब्र में कांसे और तांबे के
खंजर, कुल्हाड़ी और छैनी मिली थी और इनमें पूर्व के लोगों के डीएनए
बरकरार थे। इनकी कब्र में दफन चीज़ों को देखकर पता चलता है कि ये उच्च श्रेणी के
लोग थे और धनवान थे। इनके वंशज आज भी युरोप में मौजूद हैं। इसके विपरीत कुछ लोगों
की कब्र में शव के साथ कोई सामान नहीं मिला है जिससे लगता है कि ये निम्न श्रेणी
के लोग थे। और इनके वाय गुणसूत्र उच्च श्रेणी के लोगों से भिन्न थे जिससे पता चलता
है कि वे अलग वंश के थे।
इसके अलावा एक तिहाई से भी अधिक महिलाएं
बहुत अधिक संपत्ति के साथ दफन की गई थीं। उनके डीएनए के विश्लेषण और स्ट्रॉन्टियम
आइसोटोप के विश्लेषण से पता चलता है कि ये महिलाएं मूलत: इस जगह की नहीं थी, किशोरावस्था
तक वे लेक नदी से दूर किसी अन्य स्थान पर रहती थीं। इन कब्रगाहों में इन महिलाओं
की बेटियों के कोई प्रमाण या निशान नहीं मिले हैं जिससे लगता है कि शादी के बाद वे
अपना घर छोड़ देती होंगी। इस जगह जिन भी स्थानीय स्त्रियों के शव मिले हैं वे या तो
15-17 वर्ष से कम उम्र की थीं या गरीब स्त्रियां थीं। तीन पुरुषों के दांतों में
मिले स्ट्रॉन्टियम की मात्रा से पता चलता है कि वे किशोरावस्था में उस जगह से कहीं
और चले गए थे और वयस्क होने पर लौट आए। जिससे पुरुषों की जीवन शैली का अंदाज़ा लग
सकता है।
इस समय सामाजिक स्तर पर तो असमानता दिखती
है लेकिन राजसी पुरुषों की कब्र में लगभग एक जैसी चीज़े थीं, जिससे
अंदाजा लगता है कि संपत्ति सिर्फ बड़े बेटे को नहीं बल्कि सभी बेटों को बराबर मिलती
थी।
ये नतीजे एक ही जगह और एक ही समय के हैं। ज़्यादा सामान्य नतीजे पर पहुंचने के लिए इसी तरह के विश्लेषण अलग-अलग समयों और जगहों पर करना होगा। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/TB_Brons_migration1_F2_online.jpg?itok=TJwG85ds
1973 के ऊर्जा संकट ने ऊर्जा आपूर्ति और कीमतों को लेकर व्याप्त खुशफहमी को एक
झटके में दूर कर दिया था। विश्व ने इसका जवाब ऊर्जा दक्षता में सुधार और तेल के
विकल्पों के रूप में दिया। ग्लोबल वार्मिंग की चिंता ऊर्जा दक्षता और नवीकरणीय
ऊर्जा के विकास की ओर प्रोत्साहित कर रही है। इस लेख में ऊर्जा संकट के पहले और
उसके बाद पूरे विश्व और भारत के परिदृश्य की चर्चा की गई है। उपलब्ध आंकड़ों के
आधार पर आगे की कार्रवाई के लिए कुछ टिप्पणियां की गई हैं।
1973 के
अरब-इज़राइल युद्ध ने ऊर्जा संकट को जन्म दिया। इस ऊर्जा संकट ने विश्व को ऊर्जा, विशेष रूप से तेल, की सीमित उपलब्धता और बढ़ते मूल्य
के प्रति आगाह किया। विकसित दुनिया ने सुरक्षित ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने के
लिए 1974 में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) का गठन किया। 1973 और ऊर्जा संकट के 40 साल बाद
2014 के विश्व ऊर्जा परिदृश्य को देखना लाभदायक होगा। IEA ने अपना वार्षिक प्रतिवेदन “वल्र्ड एनर्जी
स्टेटिस्टिक्स 2016” (विश्व ऊर्जा सांख्यिकी) प्रकाशित कर दिया है। यह सारांश रूप
में भी उपलब्ध है। ये प्रकाशन 1973 में (ऊर्जा संकट से पहले) और 2014 में (ऊर्जा
संकट के बाद) विश्व ऊर्जा आपूर्ति और खपत के दिलचस्प ऊर्जा रुझान प्रस्तुत करते
हैं। यह लेख ऊर्जा संकट के पहले और बाद दुनिया में ऊर्जा आपूर्ति और उपयोग की कुछ
विशेषताओं का विश्लेषण करता है। इसमें भारत के लिए भी इसी प्रकार की तुलना की गई
है।
प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति
1973 में, विश्व ऊर्जा आपूर्ति 6101 एमटीओई थी। (एमटीओई यानी मिलियन टन तेल के समतुल्य, यह गणना एक कि.ग्रा. तेल = 10000 किलो कैलोरी पर आधारित है।) 2014 में यह
13,099 एमओटीआई हो गई थी। अर्थात 1973 की तुलना में 2014 में ऊर्जा आपूर्ति बढ़कर
2.25 गुना हो गई। तालिका 1 में विभिन्न र्इंधनों का योगदान दर्शाया गया है।
तालिका 1
प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न ईंधनों की भागीदारी
(प्रतिशत में)
ईंधन
1973
2014
तेल
46.2
31.3
कोयला
24.5
28.6
प्राकृतिक गैस
16.0
21.2
जैव ईंधन और कचरा
10.5
10.3
पनबिजली
1.8
2.4
नाभिकीय
0.9
4.8
अन्य (सौर, पवन, आदि)
0.1
1.4
तेल की कीमतों
में तेज़ी से वृद्धि के चलते इसके विकल्पों की खोज और कुशल उपयोग का मार्ग प्रशस्त
हुआ है। 1973 में कुल ऊर्जा आपूर्ति में तेल का हिस्सा 46 प्रतिशत था जबकि 2014
में केवल 31.3 प्रतिशत ऊर्जा आपूर्ति तेल से हुई। कोयले और गैस का उपयोग थोड़ा बढ़ा।
जलाऊ लकड़ी और कंडे जैसे जैव र्इंधन, जिनका उपयोग मुख्यत: भारत जैसे
विकासशील देशों में होता है, की ऊर्जा आपूर्ति में अभी भी 10
प्रतिशत भागीदारी है। जहां नाभिकीय ऊर्जा के हिस्से में तेज़ वृद्धि देखी गई, वहीं पनबिजली में काफी कम वृद्धि हुई। विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी में भी
नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी तालिका
2 में दिखाई गई है।
तालिका 2
ऊर्जा आपूर्ति में
क्षेत्रीय भागीदारी (प्रतिशत में)
क्षेत्र
1973
2014
ओईसीडी
61.3
38.40
गैर-ओईसीडी, यूरोप
(रूस एवं अन्य)
15.5
8.2
चीन
7
22.4
मध्य पूर्व
0.8
5.3
एशिया और अन्य
5.5
12.7
कुल
100
100
ओईसीडी में
युरोप, यूएसए, जापान और अन्य शामिल हैं। गैर
गैर-ओईसीडी युरोप में रूस और इसके पूर्व सहयोगी युक्रेन, तुर्कमेनिस्तान आदि शामिल हैं। एशिया में भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका और अन्य शामिल हैं। तालिका से पता चलता है कि चीन और मध्य पूर्व
में ऊर्जा उत्पादन में प्रभावशाली वृद्धि हुई है और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा
युरोप में ऊर्जा आपूर्ति में गिरावट आई है। ऊर्जा आपूर्ति में एशिया की भागीदारी
भी बढ़ी है।
तालिका 3 में
2014 और 1973 में ऊर्जा के मूल्यों को वास्तविक इकाइयों में दर्शाया गया है और
2014 व 1973 में उनका अनुपात दिया गया है। तालिका से स्पष्ट है कि इस अवधि में तेल
में अपेक्षाकृत कमी आई है, जबकि गैस और कोयले के साथ-साथ
नाभिकीय बिजली और पनबिजली में भी वृद्धि हुई है। गौरतलब है कि पनबिजली का उत्पादन
(3833/2535) नाभिकीय से 31 प्रतिशत अधिक है, लेकिन IEA जिस तरीके से
गणना करता है उसके आधार पर पनबिजली (2.4 प्रतिशत) की तुलना में नाभिकीय ऊर्जा का
योगदान अधिक है (4.8 प्रतिशत) है।
तालिका 3
ईंधनवार ऊर्जा की आपूर्ति (वास्तविक यूनिट)
ईंधन
1973
2014
2014/1973
कच्चा तेल (दस लाख
टन, एमटी)
2869
4331
1.509
प्राकृतिक गैस (1
करोड़ घन मीटर-बीसीएम
1224
3590
2.933
कोयला(एमटी)
3074
7709
2.507
नाभिकीय (टेरावॉट
घंटा, टीडबल्यूएच)
203
2535
12.48
पनबिजली(टीडबल्यूएच)
1296
3983
3.078
कुलप्राथमिकऊर्जा(एमटीओई)
6106
13,699
2.245
कुल बिजली
(टीडबल्यूएच)
6131
23,816
3.88
जनसंख्या, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और ऊर्जा उपयोग की तीव्रता को देखना काफी दिलचस्प
हो सकता है (जीडीपी और जनसंख्या के आंकड़े विश्व बैंक की वेबसाइट से लिए गए हैं)।
यह देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति की तुलना में जीडीपी काफी तेज़ी से बढ़ रहा है
जिसका श्रेय ऊर्जा दक्षता में वृद्धि और अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन को
जाता है।
तालिका 4
क्षेत्र अनुसार विश्व और ओईसीडी की अंतिम ऊर्जा खपत
क्षेत्र
विश्व 1973
एमटीओई(%)
विश्व2014
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
उद्योग
1534.49(32.9)
2751.17(29.19)
958.18(34)
808.49(22.28)
परिवहन
1081.26(23.19)
2627.02(27.87)
695.32(24.6)
1215.16(33.49)
घरेलू और व्यवसायिक
सेवाएं, अन्य
1758.88(37.73)
3218.98(34.15)
942.43(33.4)
1262.19(34.78)
गैर-ऊर्जा उपयोग
286.50(6.14)
827.52(8.78)
220.63(7.8)
343.03(9.45)
कुल खपत (एमटीओई)
4661.19
9424.69
2815.6
3828.16
इसके
परिणामस्वरूप औद्योगिक ऊर्जा खपत में कमी आती है और परिवहन, आवासीय एवं वाणिज्यिक सेवाओं में ऊर्जा की खपत में वृद्धि होती है। तालिका 4
में 1973 और 2014 में विभिन्न क्षेत्रों द्वारा अंतिम ऊर्जा खपत को दर्शाया गया
है। विशेष रूप से ओईसीडी देशों में औद्योगिक ऊर्जा खपत में गिरावट के रुझान तथा
परिवहन और आवासीय ऊर्जा खपत में वृद्धि नज़र आती है। मैन्यूफेक्चरिंग ओईसीडी से
एशिया की ओर चला गया है। 1973 और 2014 में अंतिम ऊर्जा खपत और कुल ऊर्जा आपूर्ति
के अनुपात की ओर ध्यान देना उपयोगी होगा।
1973 में, अंतिम ऊर्जा खपत/ कुल ऊर्जा आपूर्ति = 4661/6101 यानी 76 प्रतिशत थी। 2014
में, अंतिम ऊर्जा खपत/कुल ऊर्जा आपूर्ति = 9424/13,699
यानी 68 प्रतिशत थी।
यह ऊर्जा उपयोग
में बिजली के अधिक इस्तेमाल का संकेत देता है। इसके चलते बिजली के उत्पादन के
दौरान अधिक नुकसान होता है जिसका परिणाम यह होता है कि आपूर्ति की तुलना में अंतिम
उपयोग कम हो जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि जहां 1973 की तुलना में 2014
में विश्व ऊर्जा की खपत दोगुनी से भी अधिक हो गई, वहीं ओईसीडी की
ऊर्जा खपत में केवल 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई । भारत में 1973 और 2014 ऊर्जा
परिदृश्य पर नज़र डालना भी उपयोगी हो सकता है। देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति
में नाटकीय वृद्धि हुई है और ऊर्जा दक्षता में सुधार हुआ है।
सारांश और टिप्पणियां
विश्व ऊर्जा
आपूर्ति 1973 से 2014 के बीच दोगुनी से भी अधिक हो गई है। तेल उत्पादन केवल 50
प्रतिशत बढ़ा है। यह र्इंधन दक्षता और तेल की जगह अन्य र्इंधन के उपयोग में
उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाता है। बिजली उत्पादन एवं अन्य उपयोगों के लिए तेल की
जगह कोयले और गैस का उपयोग किया जाने लगा है। तेल का उपयोग मुख्य रूप से परिवहन
क्षेत्र द्वारा किया जा रहा है।
भारत में तेल की मांग में 800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि विश्व में यह वृद्धि 50 प्रतिशत है।
ऊर्जा आपूर्ति दुगनी होने के साथ बिजली उत्पादन में लगभग 4 गुना वृद्धि हुई है। यह एक विद्युत-आधारित विश्व के प्रति रुझान को दर्शाता है। 65 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयला और गैस द्वारा किया जाता है।
ऊर्जा की उत्पादकता (दक्षता) में नाटकीय सुधार हुआ है। विश्व जीडीपी में 17 गुना और ऊर्जा आपूर्ति में मात्र 2.25 गुना वृद्धि हुई है। मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो जीडीपी में वास्तविक वृद्धि इससे 10 गुना अधिक होगी।
भारत ने भी ऊर्जा के सभी रूपों – कोयला, गैस, और बिजली उत्पादन – में प्रभावशाली प्रगति की है। भारत ने ऊर्जा के कुशल उपयोग और संरचनात्मक परिवर्तन की बदौलत ऊर्जा उत्पादकता में काफी सुधार किया है। सेवा क्षेत्र अब जीडीपी का 50 प्रतिशत से अधिक प्रदान कर रहा है जबकि उद्योगों की भागीदारी 70 प्रतिशत से घटकर 25 प्रतिशत हो गई है।
भारत में ऊर्जा परिदृश्य की दो प्रमुख समस्याएं हैं तेल की बढ़ती मांग और बायोमास के उपयोग की कमतर दक्षता। कच्चे तेल का उपयोग आठ गुना बढ़ गया है। उचित नीतियों से इसे टाला जा सकता था।
तेल की बढ़ती मांग पर अंकुश लगाने के लिए सड़क की जगह रेल परिवहन को तथा निजी वाहनों की जगह सार्वजनिक वाहनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इन दोनों उपायों की तत्काल आवश्यकता है।
पारंपरिक बायोमास र्इंधन 40 साल पहले 50 प्रतिशत ऊर्जा की आपूर्ति करता था, उसकी तुलना में अभी भी 25 प्रतिशत ऊर्जा इसी से मिलती है। इन र्इंधनों का उपयोग मुख्य रूप से खाना पकाने के लिए किया जाता है। उन्नत चूल्हे उपलब्ध होने के बाद भी खाना पकाने के चूल्हों की दक्षता 8-10 प्रतिशत ही है। एलईडी लैंप और नवीकरणीय ऊर्जा की तर्ज़ पर खाना पकाने के कुशल चूल्हों और सोलर कुकर को बढ़ावा देने के लिए बड़े कार्यक्रमों की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे एक कार्यक्रम के तहत जनवरी 2018 तक 28 करोड़ एलईडी बल्ब वितरित किए जा चुके थे।
कोयला बिजली उत्पादन के लिए मुख्य ऊर्जा रुाोत बने रहना चाहिए।
हाल में सरकारी कार्यक्रम द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन सही दिशा में एक कदम है। ऊर्जा दक्षता के लिए भी इसी तरह के कार्यक्रमों की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://mpng.pngfly.com/20180821/plp/kisspng-non-renewable-resource-renewable-energy-fossil-fue-free-press-wv-5b7c3057bd1c11.0485077115348654957746.jpg
ज़्यादातर गिलहरियां ठंड के मौसम के लिए अपने घोसलों में पहले से
भोजन की व्यवस्था करके रखती है और सर्दियां अपने घोसले में ही बिताती हैं। लेकिन
यू.एस. मिडवेस्ट में पाई जाने वाली तेरह धारियों वाली एक गिलहरी (Ictidomys
tridecemlineatus)
ऐसा करने की बजाय ठंड बढ़ने पर शीतनिद्रा (हाइबरनेशन) में चली जाती है। इसकी
शीतनिद्रा की अवधि लगभग आठ महीने की होती है जो प्राणि जगत में सबसे लंबी अवधि है।
और वैज्ञानिकों ने अब यह पता लगा लिया है कि वह भोजन-पानी के बगैर इतनी लंबी
शीतनिद्रा कैसे कर पाती है।
शीतनिद्रा करने वाले भालू जैसे अन्य जीवों
की तरह हाइबरनेशन के दौरान गिलहरी के दिल की धड़कन,
चयापचय प्रक्रिया और
शरीर का तापमान नाटकीय रूप से बहुत कम हो जाते हैं। इस दौरान गिलहरी अपनी प्यास को
दबाए रखती है, जिसका एहसास होने पर वे शीतनिद्रा की अवस्था से जाग सकती
हैं। लेकिन वे अपनी प्यास पर काबू कैसे रख पाती हैं?
इस बात का पता लगाने
के लिए शोधकर्ताओं ने दर्जनों गिलहरियों के रक्त सीरम को जांचा। सीरम रक्त के तरल
अंश को कहते हैं। उन्होंने गिलहरियों को तीन समूहों में बांटा। एक समूह में
गिलहरियां सक्रिय अवस्था में थीं, दूसरे समूह की गिलहरियां मृतप्राय
शीतनिद्रा की अवस्था थीं, जिसे तंद्रा कहते हैं और तीसरे समूह की
गिलहरियां शीतनिद्रा और सक्रियता के बीच की अवस्था में थीं।
सामान्य तौर पर मनुष्यों सहित सभी जानवरों
में प्यास का एहसास सीरम गाढ़ा होने पर होता है। येल विश्वविद्यालय की लीडिया
हॉफस्टेटर और साथियों द्वारा किए गए इस अध्ययन में शीतनिद्रा अवस्था की गिलहरियों
में सीरम कम गाढ़ा पाया गया जिसके उन्हें प्यास का एहसास नहीं हुआ और वे सोती रहीं।
यहां तक कि शोधकर्ताओं द्वारा जगाए जाने पर भी इन गिलहरियों ने एक बूंद भी पानी नहीं
पिया। लेकिन जब शोधकर्ताओं ने उनके सीरम की सांद्रता बढ़ाई तो उन्होंने पानी पिया।
इसके बाद शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि
शीतनिद्रा के दौरान गिलहरियों का सीरम इतना पतला कैसे हो जाता है? उनका
अनुमान था कि शीतनिद्रा में जाने के पहले गिलहरियां ढेर सारा पानी पीकर अपने खून
को पतला रखती होंगी। लेकिन सर्दियों में गिलहरियों द्वारा शीतनिद्रा अवस्था में
जाने की पूर्व-तैयारी के वक्त बनाए गए वीडियो में दिखा कि आश्चर्यजनक रूप से इस
दौरान तो गिलहरियों ने सामान्य से भी कम पानी पिया।
रासायनिक जांच में पता चला कि वे अपने रक्त में सीरम की सांद्रता पर नियंत्रण सोडियम जैसे इलेक्ट्रोलाइट और ग्लूकोज़ और यूरिया जैसे अन्य रसायनों को हटाकर करती हैं। वे इन्हें शरीर में अन्यत्र कहीं (संभवत:) मूत्राशय में एकत्रित करती हैं। यह अध्ययन करंट बॉयोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/ScienceSource_SS22019116-1280X720.jpg?itok=Dx_oT41L
“सत्य को झूठ से अलग करने के लिए वैज्ञानिक मिज़ाज की ज़रूरत होती है। विज्ञान के सिद्धान्त चौकस दिमाग का निर्माण करते हैं और तथ्य को भ्रामक जानकारियों से अलग समझने में मदद करते हैं।” – नोबेल विजेता वैज्ञानिक सर्ज हैरोशे ff
आदिम मनुष्य बादल, आसमान,
सागर, तूफान
नदी, पहाड़, तरह-तरह के पेड़ पौधों, जीव-जंतुओं
के बीच अपने आपको असुरक्षित, असहाय और असमर्थ महसूस करता था। वह भय, कौतुहल
और जिज्ञासा से व्याकुल हो जाता था।
उसका जीवित रह पाना उसके अपने परिवेश की
जानकारी और अवलोकन पर निर्भर था, इसलिए अपने देखे-अनदेखे दृश्यों से उसने
अनेकों पौराणिक कथाओं की रचना की। इन कथाओं के ज़रिए मनुष्य, विभिन्न
जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति की कल्पना तथा व्याख्या की गई। इन कथाओं में
जानवर और पौधे मनुष्य की भाषा समझते और बोलते थे। वे एक-दूसरे का रूप धारण किया
करते थे। इन कथाओं में ईश्वररूपी सृष्टा की बात कही गई। मनुष्य की चेतना ने सृष्टि
के संचालक, नियन्ता, करुणामय ईश्वर का आविष्कार किया। आत्मा तथा
परमात्मा की अनुभूति की उसने। वह प्रकृति के साथ एकात्मकता महसूस करने लगा। उसे
सुरक्षा का आश्वासन मिला।
समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में
जानकारियां इकठ्ठी होती रहीं। समाज, संस्कृतियों का विकास होता गया। हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कनफ्यूशियसवाद, इस्लाम
इत्यादि ज्ञान की परंपराएं विकसित और स्थापित हुर्इं। इन सभी परंपराओं की स्थापना
है कि इस संसार में जो भी जानने लायक महत्वपूर्ण बातें हैं उन्हें जाना जा चुका
है। ईश्वर ने ब्राहृांड की सृष्टि की, मनुष्य और अन्य जीवों का निर्माण किया।
माना गया कि प्राचीन ऋषिगण, पैगंबर और धर्मप्रवर्तक व्यापक ज्ञान से
युक्त थे और यह ज्ञान धर्मग्रंथों तथा मौखिक परंपराओं में हमें उपलब्ध है। हम इन
ग्रंथों तथा परंपराओं के सम्यक अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मनीषियों
के उपदेशों और वाणियों से हमें इस गूढ़ ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। इस स्थापना
में यह अकल्पनीय है कि वेद, बाइबल या कुरान में ब्राहृांड के किसी
महत्वपूर्ण रहस्य की जानकारी न हो जिसे कोई हाड़-मांस का जीव उद्घाटित कर सके।
सोलहवीं सदी से ज्ञान की एक अनोखी परंपरा
का विकास हुआ। यह परंपरा विज्ञान की परंपरा है। इसकी बुनियाद में यह स्वीकृति है
कि ब्राहृांड के सारे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब हमें नहीं मालूम, उनकी
तलाश करनी है।
वह महान आविष्कार जिसने वैज्ञानिक क्रांति
का आगाज़ किया, वह इसी बात का आविष्कार था कि मनुष्य अपने सबसे अधिक
महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं जानता। वैसे तो हर काल में, सर्वाधिक
धार्मिक और कट्टर समय में भी, ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कहा कि ऐसी कई
महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी जानकारी पूरी परंपरा को नहीं है। ये लोग हाशिए पर कर
दिए गए या सज़ा के भागी हुए अथवा ऐसा हुआ कि उन्होंने अपना नया मत प्रतिपादित किया
और कालांतर में यह मत कहने लगा कि उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं।
सन 1543 में निकोलस कॉपर्निकस की पुस्तक De revolutionibus orbium का प्रकाशन हुआ। यह मानव सभ्यता के विकास
में एक क्रांति की सूचना थी। इस क्रांति का नाम वैज्ञानिक क्रांति है। इस पुस्तक
ने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि आकाशीय पिंडों का केंद्र धरती नहीं, सूरज
है। यह घोषणा उस समय के स्वीकृत ज्ञान को नकारती थी,
जिसके अनुसार धरती
ब्राहृांड का केंद्र है। यह बात आज साधारण लगती है,
पर कॉपर्निकस के समय
(1473 -1543) यह कहना धर्मविरोधी माना जाता था। उस समय चर्च समाजपति की भूमिका में
था। चर्च की मान्यता थी कि धरती ईश्वर के आकाश का केंद्र है। कॉपर्निकस को विश्वास
था कि धर्म-न्यायाधिकरण उसे और उसके सिद्धांत दोनों को ही नष्ट कर डालेगा। इसलिए
उसने इसके प्रकाशन के लिए मृत्युशय्या पर जाने की प्रतीक्षा की। अपनी सुरक्षा के
लिए कॉपर्निकस की चिंता पूरी तरह सही थी। सत्तावन साल बाद जियार्डेनो ब्रूनो ने
खुले तौर पर कॉपर्निकस के सिद्धांत के पक्ष में वक्तव्य देने की ‘धृष्टता’ की तो
उन्हें इस ‘कुकर्म’ के लिए ज़िंदा जला दिया गया था।
गैलीलियो(1564-1642) ने प्रतिपादित किया कि
प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है। इस कथन ने प्राकृतिक दर्शन को
मौखिक गुणात्मक विवरण से गणितीय विवरण में बदल दिया। इसमें प्राकृतिक तथ्यों की
खोज के लिए प्रयोग आयोजित करना स्वीकृत एवं मान्य पद्धति हो गई। अंत में उनके
टेलीस्कोप ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी प्रभाव डाला और कॉपर्निकस की सूर्य
केंद्रित ब्राहृांड की अवधारणा के मान्य होने का रास्ता साफ किया। लेकिन इस सिस्टम की वकालत करने के कारण उन्हें धर्म-न्यायाधिकरण
का सामना करना पड़ा था।
एक सदी बाद,
फ्रांसीसी गणितज्ञ और
दार्शनिक रेने देकार्ते ने सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक
सर्वथा नई पद्धति की वकालत की। आध्यात्मिक संसार के अदृश्य सत्य का इस पद्धति से
विश्लेषण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्राकृतिक संसार के
अध्ययन के लिए प्रवृत्त हुए। आध्यात्मिक सत्य का अध्ययन सम्मानित नहीं रहा।
क्योंकि उसके सत्य की समीक्षा विज्ञान के विश्लेषणात्मक तरीकों से नहीं की जा
सकती। जीवन और ब्राहृांड के महत्वपूर्ण तथ्य तर्क-संगत वैज्ञानिकों की गवेषणा के
क्षेत्र हो गए। देकार्ते ने ईश्वर की जगह मनुष्य को सत्य का अंतिम दायित्व दिया, जबकि
पारंपरिक अवधारणा में एक बाहरी शक्ति सत्य को परिभाषित करती है। देकार्ते के
मुताबिक सत्य व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। विज्ञान मौलिकता को महान
उपलब्धि का निशान मानता है। मौलिकता स्वाधीनता का परिणाम होती है, प्रदत्त
ज्ञान से असहमति है।
सन 1859 में चार्ल्स डार्विन के जैव
विकासवाद के सिद्धान्त के प्रकाशन के साथ विज्ञान और आत्मा के रिश्ते के तार-तार
होने की बुनियाद एकदम पक्की हो गई।
आधुनिक विज्ञान इस मायने में अनोखा है कि
यह खुले तौर पर सामूहिक अज्ञान की घोषणा करता है। डार्विन ने नहीं कहा कि उन्होंने
जीवन की पहेली का अंतिम समाधान कर दिया है और इसके आगे कोई और बात नहीं हो सकती।
सदियों के व्यापक वैज्ञानिक शोध के बाद भी जीव वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि वे
नहीं जानते कि मस्तिष्क में चेतना कैसे उत्पन्न होती है। पदार्थ वैज्ञानिक स्वीकार
करते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि बिग बैंग कैसे हुआ या सामान्य सापेक्षता के
सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए।
वैज्ञानिक क्रांति के पहले अधिकतर
संस्कृतियों में विकास और प्रगति की अवधारणा नहीं थी। समझ यह थी कि सृष्टि का
स्वर्णिम काल अतीत में था। मानवीय बुद्धि से रोज़मर्रा ज़िंदगी के कुछ पहलुओं में
यदा-कदा कुछ उन्नति हो सकती है लेकिन संसार का संचालन ईश्वरीय विधान करता है।
प्राचीन काल की प्रज्ञा का अनुपालन करने से हम सृष्टि और समाज को संकटग्रस्त होने
से रोक सकते हैं। लेकिन मानव समाज की मौलिक समस्याओं से उबरना नामुमकिन माना जाता
था। जब सर्वज्ञाता ऋषि, ईसा, मोहम्मद और कन्फ्यूशियस अकाल, रोग, गरीबी, युद्ध
का नाश नहीं कर पाए तो हम साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं?
वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप एक नई
संस्कृति की शुरुआत हुई। उसके केंद्र में यह विचार है कि वैज्ञानिक आविष्कार हमें
नई क्षमताओं से लैस कर सकते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान एक के बाद एक जटिल समस्याओं का
समाधान देने लगा, लोगों को विश्वास होने लगा कि नई जानकारियां हासिल करके और
इनका उपयोग कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दरिद्रता, रोग, युद्ध, अकाल, बुढ़ापा, मृत्यु
विधि का विधान नहीं है। ये बस हमारे अज्ञान का नतीजा हैं।
विज्ञान का कोई पूर्व-निर्धारित मत/सिद्धांत नहीं है, अलबत्ता, इसकी गवेषणा की कुछ सामान्य विधियां हैं। सभी अवलोकनों पर आधारित हैं। हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए ये अवलोकन करते हैं और गणितीय औज़ारों की मदद से इनका विश्लेषण करते हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://familytimescny.com/wp-content/uploads/2016/09/STEM.jpg
हाल मानव मस्तिष्क को अपने हर एक भाग को नए कार्यों के लिए
आवंटित करना बखूबी आता है। दृष्टि जैसी अनुभूति के अभाव में मस्तिष्क दृष्टि से
सम्बंधित क्षेत्र को ध्वनि या स्पर्श जैसे नए इनपुट संभालने के लिए अनुकूलित कर
लेता है। कई दृष्टिहीन लोग मुंह से कुछ आवाज़ें निकालते हैं और उनकी प्रतिध्वनियों
की मदद से वस्तुओं की स्थिति का अंदाज़ लगाते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर हाल ही में
किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मस्तिष्क में बेकार पड़े हिस्सों का उपयोग काफी
उच्च स्तर पर किया जाता है। पता चला है कि प्रारंभिक रूप से दृश्य प्रसंस्करण के
लिए समर्पित मस्तिष्क क्षेत्र उन्हीं सिद्धांतों का उपयोग करके प्रतिध्वनियों की
व्याख्या कर लेता है जैसे आंखों से मिले संकेतों की व्याख्या की जाती है।
दृष्टि वाले लोगों में, रेटिना
(दृष्टिपटल) के संदेशों को मस्तिष्क के पीछे वाले क्षेत्र (प्राइमरी विज़ुअल
कॉर्टेक्स) में भेजा जाता है। हम जानते हैं कि मस्तिष्क के इस क्षेत्र की जमावट
हमारे चारों ओर के वास्तविक स्थान की जमावट से मेल खाती है। हमारे पर्यावरण में
पास-पास के दो बिंदुओं की छवि हमारे रेटिना पर पास-पास के बिंदुओं पर बनती है और
इसके संदेश प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स के भी पास-पास के बिंदुओं को सक्रिय करते
हैं। शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि क्या दृष्टिहीन लोग प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स
में दृष्टि-आधारित स्थान मानचित्रण की तर्ज़ पर ही प्रतिध्वनियों का प्रोसेसिंग
करते हैं।
इसके लिए शोधकर्ताओं ने दृष्टिहीन और
दृष्टि वाले लोगों से कुछ रिकॉर्डिंग सुनने को कहा। यह रिकॉर्डेड आवाज़ें दरअसल
कमरे के अलग-अलग स्थानों पर रखी वस्तुओं से टकराकर आ रही थी। इस दौरान मस्तिष्क की
गतिविधि को समझने के लिए उन लोगों को मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) स्कैनर
में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि का उपयोग करने वाले लोगों के प्राइमरी
विज़ुअल कॉर्टेक्स में उसी प्रकार की सक्रियता देखी जैसी दृष्टि वाले लोगों में
दृश्य संकेतों से होती है।
प्रोसीडिंग ऑफ द रॉयल सोसाइटी-बी की रिपोर्ट से लगता है कि विज़ुअल कॉर्टेक्स की स्थान मानचित्रण क्षमता का उपयोग एक अलग अनुभूति के लिए किया जा सकता है। किसी व्यक्ति में सुनने और स्थान मानचित्रण की इस मस्तिष्क क्रिया के बीच जितनी अधिक समरूपता रही, वस्तुओं की स्थिति के अनुमान में भी उतनी ही सटीकता दिखी। इस शोध से तंत्रिका लचीलेपन का खुलासा हुआ है जिससे मस्तिष्क को स्थान सम्बंधी जानकारी का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है भले ही वह आंखों के माध्यम से प्राप्त न हुई हो। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.gzn.jp/img/2019/10/16/blind-people-using-adapted-visual-cortex/rspb20191910f04.jpg
कई परजीवी अपने मेज़बान के व्यवहार में बदलाव करते हैं ताकि
वे अपना जीवन चक्र पूरा कर सकें। अब तक ऐसा लगता था कि कोई भी परजीवी एक मेज़बान या
मेज़बानों की करीबी प्रजातियों के व्यवहार में ही बदलाव करते हैं। लेकिन हालिया
अध्ययन बताते हैं कि क्रिप्ट कीपर नाम की ततैया (Euderus set) 6 से भी अधिक प्रजातियों की ततैयों को
अपना मेज़बान बनाती है और उनके व्यवहार में परिवर्तन करती है।
आम तौर पर क्रिप्ट कीपर ततैया बैसेटिया
पैलिडा (Bassettia
pallida) नामक ततैयों को
अपना मेज़बान बनाती है। बैसेटिया पैलिडा ओक के पेड़ की शाखाओं या तने पर अंडे
देती है, और उस स्थान पर गॉल (ट्यूमरनुमा उभार) बना देती है। गॉल के
अंदर ही इस ततैया के लार्वा बड़े होते हैं और वयस्क होने पर ये गॉल की दीवार भेदकर
बाहर निकल आते हैं।
लेकिन बैसेटिया पैलिडा के इस
सामान्य व्यवहार में फर्क तब पड़ता है जब क्रिप्ट कीपर ततैया इन गॉल में अपने अंडे
दे देती है। क्रिप्ट कीपर के लार्वा या तो बैसेटिया पैलिडा के लार्वा साथ
ही बड़े होते हैं या उसके लार्वा के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। जब बैसेटिया
पैलिडा गॉल की दीवार को भेदकर बाहर आने के लिए छेद बनाती है तो क्रिप्ट कीपर
ततैया के लार्वा बैसेटिया पैलिडा के दिमाग पर नियंत्रण कर या उन्हें कमज़ोर
कर उनके व्यवहार में इस तरह बदलाव करते हैं कि वह बाहर निकलने वाला छेद छोटा बनाती
हैं। इस छोटे छेद में बैसिटिया पैलिडा का सिर बॉटल में कार्क की तरह फंस जाता है
और वह उस छेद से बाहर नहीं निकल पाती। तब क्रिप्ट कीपर के लार्वा उस ततैया के शरीर
को चट करके उसके सिर को भेद कर बाहर निकल आते हैं। क्रिप्ट कीपर ततैया के लार्वा
के लिए गॉल की तुलना में सिर को भेदना ज़्यादा आसान होता है क्योंकि गॉल की तुलना
में सिर ज़्यादा नर्म होता है।
यह जानने के लिए कि क्रिप्ट कीपर ततैया के कितने मेज़बान हैं, शोधकर्ताओं ने कुछ क्रिप्ट कीपर ततैया और 23,000 गॉल एकत्रित किए जिनमें ओक गॉल ततैया की 100 से भी अधिक प्रजातियां थीं। शोधकर्ताओं ने इन गॉल में क्रिप्ट कीपर ततैयों को बड़ा किया। बॉयोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक 6 अलग-अलग प्रजातियों की 305 से भी अधिक ततैयों को क्रिप्ट कीपर ने मेज़बान बनाया था जो एक-दूसरे की करीबी प्रजातियां नहीं थीं। यह भी देखा गया कि क्रिप्ट कीपर ततैया उन गॉल को खास तवज्जो देती है जिन पर फर या कांटे ना हों। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/wasp_16x9.jpg?itok=QfNLQ2IQ
आम तौर पर पीले रंग को खुशी और उमंग जैसी भावनाओं के साथ
जोड़कर देखा जाता है। लेकिन जर्नल ऑफ एनवॉयरमेंटलसाइकोलॉजी में
प्रकाशित ताज़ा अध्ययन बताता है कि सभी लोग पीले रंग को सुखद एहसास या अनुभूति के
साथ जोड़कर नहीं देखते।
दरअसल शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि रंगों
के साथ भावनाओं के जुड़ाव में कौन से कारक भूमिका निभाते हैं। यह जानने के लिए
उन्होंने एक नई परिकल्पना को जांचा कि क्या किसी खास रंग से उमड़ने वाली भावनाओं को
आसपास का भौतिक परिवेश प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए क्या ठंडे या बरसाती इलाके
फिनलैंड में रहने वाले व्यक्ति में पीले रंग से जो भावनाएं उमड़ती हैं, वे
सहारा रेगिस्तान में रहने वाले व्यक्ति से अलग होंगी?
शोधकर्ताओं ने 55 देशों के लगभग 6625 लोगों
पर हुए सर्वे के डैटा को देखा। इस सर्वे में लोगों को 12 अलग-अलग रंगों को इस आधार
पर अंक देने को कहा गया था कि वे खुशी, गौरव,
डर और शर्म जैसी
भावनाओं का सम्बंध किस रंग से जोड़ते हैं।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने सिर्फ पीले रंग
से जुड़े डैटा का इस आधार पर विश्लेषण किया कि विभिन्न कारक जैसे धूप की अवधि, दिन
की रोशनी की अवधि और वर्षा की मात्रा कैसे लोगों द्वारा रंगों के लिए बताई गई
भावनाओं से जुड़ी हैं। लोग पीले रंग के प्रति कैसा अनुभव करते हैं इसका सबसे अधिक
सम्बंध दो बातों से देखा गया: वे जहां रहते हैं वहां सालाना कितनी बारिश होती है
और वह स्थान भूमध्य रेखा से कितनी दूरी पर है। शोधकर्ताओं ने पाया कि पीले रंग को
उमंग से जोड़कर देखने वाले लोगों की संख्या वर्षा वाले इलाकों में अधिक थी और
भूमध्य रेखा के नज़दीक कम। इसके अलावा भूमध्य रेखा से दूर रहने वाले लोगों ने उजले
रंगों की अधिक सराहना की। मिरुा (गर्म स्थान) में सिर्फ 5.7 लोगों ने पीले रंग को
खुशी के साथ जोड़ा जबकि बर्फीले फिनलैंड के 87.7 प्रतिशत लोगों ने पीले रंग को खुशी
से जोड़कर देखा। मध्यम जलवायु वाले यू.एस. में पीले रंग और खुशी का जुड़ाव 60-70
प्रतिशत लोगों ने जोड़ा।
अध्ययन में मौसम परिवर्तन के साथ रंगों में बदलती रुचि पर भी गौर किया गया – क्या किसी इलाके में लोग गर्मियों की बजाय सर्दियों में पीले रंग को ज़्यादा पसंद करते हैं? पाया गया कि रंगों को लेकर लोगों की राय साल भर लगभग एक जैसी ही रहती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/155373600-1280×720.jpg?itok=4aQx0V5F