व्यायाम करने के मामले में हर व्यक्ति अनूठा होता है। कुछ होंगे
जो खुशी से रोज़ाना कई किलोमीटर दौड़ेंगे जबकि अन्य को यह बिलकुल पसंद नहीं आएगा कि
बगैर किसी गंतव्य के दौड़ लगाएं। नेचर कम्यूनिकेशन्स में प्रकाशित एक ताज़ा
अध्ययन के अनुसार व्यायाम करने की ललक पर शुरुआत विकास के दौरान हुए एपिजेनेटिक
परिवर्तनों का असर पड़ता है। गौरतलब है कि यह अध्ययन चूहों पर किया गया है।
पहला सवाल तो यही उठता है कि एपिजेनेटिक परिवर्तन क्या होते हैं। हमारे शरीर
की विभिन्न क्रियाओं का संचालन कोशिकाओं में उपस्थित डीएनए नामक अणु के द्वारा
किया जाता है। डीएनए तो हमें माता-पिता से विरासत में मिलता है लेकिन समय के साथ
इस पर कुछ अन्य अणु जुड़ जाते हैं जो इसके कामकाज पर असर डालते हैं। डीएनए पर ऐसे
अणुओं के जुड़ने को एपिजेनेटिक परिवर्तन कहते हैं। ऐसा एक एपिजेनेटिक परिवर्तन होता
है डीएनए पर मिथाइल समूहों का जुड़ना जिसे वैज्ञानिक लोग मिथायलेशन कहते हैं।
बेलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन के रॉबर्ट वॉटरलैंड एपिजेनेटिक्स का अध्ययन करते हैं।
उनकी टीम शुरुआती विकास के दौरान ऊर्जा संतुलन का अध्ययन करती है। ऊर्जा संतुलन का
मतलब होता है कि कोई जंतु कितनी कैलोरी का उपभोग करता है और कितनी कैलोरी खर्च
करता है। वे जानना चाहते थे कि ऊर्जा संतुलन पर एपिजेनेटिक परिवर्तनों का क्या असर
होता है।
उन्होंने हायपोथेलेमस नामक अंग में एक विशेष किस्म की तंत्रिकाओं पर ध्यान केंद्रित
किया जिनके बारे में माना जाता है कि वे इस बात का नियंत्रण करती हैं कि कोई जंतु
कितना खाएगा। इन्हें AgRP तंत्रिका कहते हैं। इसी से यह
भी तय होता है कि वह जंतु मोटापे का शिकार होगा या नहीं। तो वॉटरलैंड की टीम ने
दूध पीते चूहों में AgRP
तंत्रिकाओं में मिथायलेशन का अध्ययन किया। शोधकर्ताओं की परिकल्पना थी कि यदि इन
तंत्रिकाओं में मिथायलेशन को तहस-नहस कर दिया जाए तो ऐसे चूहे सामान्य चूहों के
मुकाबले अधिक खाएंगे और मोटे हो जाएगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
तो टीम ने एक बार फिर कोशिश की। इस बार उन्होंने विकास की एक ही अवस्था में एक जीन को एक ही स्थान पर ठप किया। सारे चूहों को एक ही खुराक दी गई। लेकिन इस बार अंतर यह था कि उन्हें आठ हफ्तों तक दौड़ने के लिए एक ट्रेडमिल उपलब्ध कराई गई थी। और दो तरह के चूहों में सबसे अधिक फर्क ट्रेडमिल के इस्तेमाल में देखा गया। सामान्य चूहे जहां प्रतिदिन करीब छ: कि.मी. दौड़ते हैं, वहीं परिवर्तनशुदा चूहे उससे मात्र आधा दौड़े। ज़ाहिर है, ज़्यादा दौड़ने वाले चूहों ने ज़्यादा कैलोरी खर्च की, जबकि दोनों के खाने की मात्रा में ज़्यादा फर्क नहीं था। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह रहा कि शुरुआती विकास के दौरान होने वाले एपिजेनेटिक परिवर्तन इस बात पर असर डालते हैं कि कोई चूहा कितना व्यायाम करेगा। अब मनुष्यों में इस बात की जांच करने की तमन्ना है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://statics.sportskeeda.com/wp-content/uploads/2013/12/schoolsport-2052101.jpg
जब डार्विन ने जैव विकास का सिद्धांत प्रकाशित किया था, तब दुनिया में तहलका मच गया था। सिद्धांत का आशय यह था कि जैव विकास ऐसी
प्रक्रिया है जिसमें नई प्रजातियां बनती रहती हैं और पुरानी प्रजातियां नष्ट होती
जाती हैं। इस सिद्धांत का एक निष्कर्ष यह भी था कि मनुष्य का विकास बंदरों के समान
जंतुओं से हुआ है। विज्ञान ने इस सिद्धांत की पुष्टि निर्विवाद रूप से कर दी है।
यह बात आज भी कई लोगों के गले नहीं उतरती। वे सोचते हैं कि हमारे आसपास पाया
जाने वाला कोई बंदर मनुष्य कैसे बन सकता है। किंतु ऐसा नहीं होता, आज का कोई बंदर मनुष्य नहीं बन सकता। इस प्रक्रिया में लाखों-करोड़ों वर्ष लग
जाते हैं। सबसे सटीक उदाहरण डायनासौर का है जो मगरमच्छों और छिपकलियों के सम्बंधी
थे और 25 करोड़ से लेकर 6 करोड़ वर्ष पूर्व तक पृथ्वी पर उनकी बादशाहत थी। कुछ
मांसाहारी डायनासौर बहुत खूंखार और विशालकाय थे। किंतु कालांतर में सभी डायनासौर
नष्ट हो गए और जैव विकास की प्रक्रिया में कुछ डायनासौर से पक्षी विकसित हो गए।
बंदर से मनुष्य बनना कुछ ऐसा ही है जैसा डायनासौर से पक्षियों का बनना।
आज से 70 लाख वर्ष पहले अफ्रीका में रहने वाले कपि सहेलोन्थ्रोपस से दो
अलग-अलग जंतुओं,
चिम्पैंज़ी और आदिम मानव, का
विकास हुआ (चिम्पैंज़ी, गोरिल्ला, ओरांगउटान
जैसे पूंछ-रहित बड़े बंदरों को कपि और अंग्रेजी में ऐप कहते हैं)। पेड़ों पर रहने
वाला यह आदिम मानव आज के मनुष्य से इतना अलग था कि उसे ऑस्ट्रेलोपिथेकस नाम
दिया गया है।
अन्य कपियों के समान ही आदिम मानव के शरीर पर भी घने बालों का आवरण था। जैव
विकास के दौरान मनुष्य के शरीर के बाल गायब हो गए। लेकिन ऐसा क्यों हुआ? मानव की हड्डियों के जीवाश्मों का अध्ययन करके वैज्ञानिक यह तो पता लगा सकते
हैं कि मनुष्य की शरीर रचना में कब-कब और कैसे-कैसे परिवर्तन हुए। किंतु चूंकि
मृत्यु के कुछ समय बाद त्चचा नष्ट हो जाती है, उससे
सम्बंधित कोई भी अध्ययन लगभग असंभव होता है। फिर भी, जंतुओं
और वनस्पतियों के जीवाश्मों का अध्ययन करके वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि
मनुष्य के शरीर से बालों के गायब होने का प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है।
यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि जीवधारियों में जो भी परिवर्तन होते हैं
वे लाखों वर्षों की अवधि में होते हैं। इस प्रक्रिया में कई नमूने बनते हैं
किंतु जीवित रहने योग्य नहीं पाए जाने पर वे नष्ट हो जाते हैं। जो नमूने सफल
होते हैं वे बच जाते हैं और उनमें और अधिक परिवर्तन होते जाते हैं। इस प्रकार
नई-नई प्रजातियां बनती रहती हैं।
मनुष्य का उद्भव तथा प्रारंभिक जैव विकास अफ्रीका में हुआ
और उसके अधिकांश शारीरिक परिवर्तन उस महाद्वीप की परिस्थितियों से जुड़े हैं। आज से
लगभग 30 लाख वर्ष पहले पूरे विश्व में एक ज़बरदस्त शीत लहर आई थी जिससे संसार के
सारे जीवधारी प्रभावित हुए थे। आदिमानव के निवास स्थान – मध्य और पूर्वी अफ्रीका –
में वर्षा में कमी के कारण जंगल नष्ट हो गए और उनका स्थान घास के खुले मैदानों ने
ले लिया। इन जंगलों में रहने वाले ऑस्ट्रेलोपिथेकस नामक आदिमानव के प्रमुख
आहार फल,
पत्तियों, जड़ों और बीजों की उपलब्धता कम
हो गई। इसी प्रकार, जल के स्थायी स्रोत सूख जाने के कारण पीने
के पानी की भी कमी हो गई। परिणामस्वरूप, मनुष्य को भोजन और पानी
की खोज में अधिक दूर तक जाना पड़ता था। भोजन के वनस्पति स्रोतों की कमी के चलते
मनुष्य ने लगभग 26 लाख वर्ष पहले अन्य जंतुओं का शिकार कर उन्हें खाना शुरू कर
दिया। शिकार की खोज में अधिक लंबी दूरियां तय करने और उनका पीछा करने के लिए अधिक
तेज़ भागने के लिए अधिक ऊर्जा खर्च करना ज़रूरी हो गया। प्राकृतिक वरण के फलस्वरूप
पेड़ों पर रहने वाले मानव की तुलना में ज़मीन पर रहने वाले मानव के हाथों और टांगों
की लंबाई बढ़ गई।
अधिक तेज़ गतिविधि करने के कारण शरीर के तापमान के बढ़ने का खतरा पैदा हो गया।
शरीर के बढ़े हुए तापमान को कम करने में दो बातों से फायदा मिला – शरीर से बालों का
आवरण कम होना और त्वचा में स्थित पसीने का निर्माण करने वाली स्वेद ग्रंथियों की
संख्या में वृद्धि।
त्वचा से बालों का आवरण हट जाने के कारण शुरूआती दौर में मनुष्य की त्वचा अन्य
कपियों की त्वचा के समान हल्के गुलाबी रंग की थी। किंतु सूर्य के प्रकाश में मौजूद
पराबैंगनी किरणें इस अनावृत त्वचा के लिए घातक सिद्ध होने लगीं। शरीर के लिए
अत्यावश्यक विटामिन फोलेट पराबैंगनी किरणों से नष्ट हो जाता है, इसके अलावा त्वचा के कैंसर का भारी खतरा होता है। एक बार फिर प्रकृति ने अपना
चमत्कार दिखाया और लगभग 12 लाख वर्ष पहले मनुष्य में एक ऐसे जीन MC1R का उद्भव हुआ जो त्वचा में मेलानिन नामक काले रंग के पदार्थ के बनने के लिए
उत्तरदायी होता है। पराबैंगनी किरणों से बचने के लिए मेलानिन एक प्रभावशाली साधन
है। यही कारण है कि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों और तेज़ धूप वाले समशीतोष्ण क्षेत्रों
में मनुष्य की त्वचा में मेलानिन अधिक मात्रा में पाया जाता है।
जब मनुष्य ने अफ्रीका से निकल कर युरोप जैसे ठंडे प्रदेशों में रहना शुरू किया
तब वहां धूप की तीव्रता कम होने के कारण पराबैंगनी किरणों का खतरा तो कम हो गया
किंतु एक नया खतरा सामने आया। वह खतरा यह था कि धूप तेज़ न होने के कारण शरीर में
विटामिन-डी बनना बंद हो गया। विटामिन-डी हड्डियों की मजबूती के लिए आवश्यक होता
है। अत: इन क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्य की त्वचा में मेलानिन की मात्रा कम हो
गई और उनकी त्वचा श्वेत होती गई।
शरीर का तापक्रम कम करने का अन्य प्रभावशाली उपाय पसीना बहाना है। कपि समूह
में (जिसका सदस्य मनुष्य भी है) स्वेद ग्रंथियां पाई जाती हैं। किंतु मनुष्य में
इनकी संख्या बहुत अधिक बढ़ गई है और वे त्वचा के ठीक नीचे स्थित हो गई हैं। किसी
बहुत गरम दिन पर तेज़ गतिविधि करने पर एक मनुष्य के शरीर से 12 लीटर तक पसीना निकल सकता
है। पसीने और बाल-रहित त्वचा का यह गठजोड़ शरीर को ठंडा करने के लिए इतना
प्रभावशाली होता है कि वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार किसी बहुत गरम दिन पर
लंबी दौड़ में एक स्वस्थ मनुष्य घोड़े को भी पीछे छोड़ सकता है।
मनुष्य और चिम्पैंज़ी के डीएनए में 99 प्रतिशत समानता होती है किंतु उनमें एक
महत्वपूर्ण अंतर यह होता है कि मनुष्य में ऐसे जीन पाए जाते हैं जो उसकी त्वचा को
जल और खरोचों के प्रति रोधक बनाते हैं। बालरहित त्वचा के लिए यह गुणधर्म ज़रूरी है।
ये जीन चिम्पैंज़ी में नहीं पाए जाते।
इस सबके बावजूद यह सवाल रह जाता है कि मनुष्य के सिर और बगलों तथा जांघों के
जोड़ों पर बाल क्यों रह गए। सिर के बालों के कार्य के बारे में वैज्ञानिकों का कहना
है कि अफ्रीका में रहने वाले पूर्वज मनुष्य के बाल घने और घुंघराले थे (जैसे आज भी
अफ्रीकी मूल के लोगों के होते हैं)। ऐसे बालों के कारण सिर की त्वचा और बालों के
बीच एक रिक्त स्थान बन जाता है जिसमें हवा की एक परत होती है। तेज़ धूप में बाल
ऊष्मा को सोख लेते हैं और सिर की त्वचा से निकलने वाले पसीने की भाप हवा की परत
में चली जाती है और सिर का तापक्रम कम हो जाता है। बगलों तथा जांघों के जोड़ों पर स्थित
बालों के बारे में वैज्ञानिकों की राय है कि वे चलने या दौड़ने के दौरान इन जोड़ों
में घर्षण को कम रखते हैं।
बालों का एक उपयोग स्तनधारी आक्रामकता को प्रदर्शित करने के लिए भी करते हैं। सबसे परिचित उदाहरण कुत्तों और बिल्लियों में देखा जाता है जो खतरे से सामना होने पर अपने बालों को खड़ा कर लेते हैं। मनुष्य के पास अब यह सुविधा नहीं है, किंतु उसने कई अन्य तरीकों से अपनी भावनाओं को व्यक्त करना सीख लिया है, जैसे चेहरे तथा शरीर के हावभावों से या बोल कर या लिख कर। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/en/b/bd/Sahelanthropus_tchadensis_reconstruction.jpg
हाल ही में अंग प्रत्यारोपण का एक विचित्र मामला सामने आया
है। एक व्यक्ति क्रिस लॉन्ग को किसी अन्य व्यक्ति की अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण
किया गया था। इस प्रक्रिया में यह तो अपेक्षित है कि लॉन्ग के खून में दानदाता का
डीएनए मिलेगा। लेकिन प्रक्रिया के चार वर्ष बाद की गई जांच में पता चला कि उसके
होठों और गाल से रूई के फोहे की मदद से लिए गए नमूनों में दानदाता का डीएनए पाया
गया। और तो और,
लॉन्ग के वीर्य में भी दानदाता का ही डीएनए था।
गौरतलब है कि डीएनए वह पदार्थ है जो हर कोशिका में पाया जाता है और यह
वंशानुगत गुणधर्मों का वाहक है। प्रत्येक व्यक्ति का डीएनए अनूठा होता है। एक ही
व्यक्ति में दो व्यक्तियों के डीएनए होने का मतलब है कि वह व्यक्ति एक से अधिक
जीवों का मिश्रित जीव है। ऐसे जीव को जीव वैज्ञानिक शिमेरा कहते हैं। अपराध
वैज्ञानिक मामले की जांच में लगे हैं। वैसे तो वैज्ञानिकों को बरसों से पता है कि
कतिपय चिकित्सकीय प्रक्रियाएं व्यक्ति को शिमेरा में तबदील कर सकती हैं लेकिन यह
पहला मामला है जहां खून के अलावा विभिन्न अंगों में भी दानदाता का डीएनए प्रकट हो
रहा है।
हर वर्ष रक्त कैंसर, ल्यूकेमिया, लिम्फोमा और सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित हज़ारों लोग अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण
करवाते हैं। प्रत्यारोपण के बाद उनका डीएनए संघटन बदल जाता है। ज़रूरी नहीं कि ऐसे
सब लोग जाकर कोई अपराध करेंगे या हादसों के शिकार होंगे मगर खुदा न ख्वास्ता ऐसा
हो गया तो डीएनए की मदद से उनकी पहचान मुश्किल हो जाएगी। लॉन्ग का प्रकरण जब
अंतर्राष्ट्रीय अपराध विज्ञान सम्मेलन में प्रस्तुत हुआ तो सबके कान खड़े हो गए और
अब यह डीएनए विश्लेषकों के लिए एक मिसाल बन गया है।
वैसे प्रत्यारोपण करने वाले डॉक्टरों को इस बात की ज़्यादा परवाह नहीं होती कि
दानदाता का डीएनए मरीज़ के शरीर में कहां-कहां प्रकट हो जाएगा क्योंकि इस किस्म का
शिमेरिज़्म हानिकारक नहीं होता और न ही यह उस व्यक्ति की शख्सियत को बदलता है। कई
बार मरीज़ों को चिंता होती है कि पुरुष के शरीर में महिला या महिला के शरीर में
पुरुष डीएनए आने पर समस्या होगी लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन अपराध वैज्ञानिकों के लिए इसके मायने एकदम अलग हैं। जब लॉन्ग की जांच की गई तो पता चला था कि उसके शरीर के अलग-अलग अंगों में दानदाता का डीएनए नज़र आ रहा है और अलग-अलग समय पर इसका प्रतिशत भी बदलता रहता है। और जब लॉन्ग का समूचा वीर्य दानदाता का हो गया तो अपराध वैज्ञानिकों का चौंकना स्वाभाविक था। ऐसे कुछ मामले अतीत में सामने आ चुके हैं और अपराध वैज्ञानिक जानना चाहते हैं कि डीएनए आधारित पहचान की प्रामाणिकता पर इसका क्या असर होगा। (स्रोत फीचर्स)
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उत्तरी अमेरिका में पाई जाने वाली मोनार्क तितलियां (Danaus
plexippus) हर साल बड़ी संख्या में उड़कर मेक्सिको में जाड़े का मौसम
बिताने के लिए पहुंचती हैं। इस यात्रा में ये लगभग 3000 किलोमीटर की दूरी तय करती
हैं। प्रवास के लिए इतनी लंबी दूरी तय करने वाले ये एकमात्र कीट हैं। इन तितलियों
की यह प्रवास यात्रा वैज्ञानिकों के लिए लंबे समय से एक गुत्थी रही है कि आखिर
कौन-से कारक इन तितलियों को प्रवास के लिए उकसाते हैं। गुत्थी अब सुलझती नज़र आ रही
है। फ्रंटियर्स इन इकॉलॉजी एंड एंवायरमेंट में प्रकाशित शोध पत्र के
मुताबिक मध्यान्ह के समय क्षितिज से सूरज का कोण मोनार्क तितलियों को प्रवास के लिए
प्रेरित करता है।
हालांकि पूर्व में हुए अध्ययन में यह तो बता चुके थे कि मोनार्क तितलियों के
एंटीना में मौजूद जैविक घड़ी सूर्य की क्षैतिज स्थिति के मुताबिक इन्हें दिशा
सम्बंधी ज्ञान कराती है लेकिन यह अज्ञात था कि इस यात्रा के लिए इन्हें प्रेरित
कौन करता है और वे अपनी दैनिक यात्रा कैसे तय करती हैं।
इसे विस्तार से समझने के लिए एक गैर-मुनाफा संस्था मोनार्क वॉच ने 1992 में एक
कार्यक्रम शुरू किया था। इसके तहत हज़ारों वॉलंटियर्स को नाखून की साइज़ के गुलाबी
रंग के चिपकू टैग वितरित किए गए थे। इन वालंटियर्स ने अपने इलाके से गुज़रने वाली
मोनार्क तितलियों पर ये टैग चिपकाए और टैग चिपकाने का स्थान और तारीख नोट की। 1998
से 2005 के बीच 13 लाख से अधिक मोनार्क तितलियों पर टैग चिपकाए गए। प्रवास में जब
तितलियां दक्षिण-पश्चिम मेक्सिको में अपनी मंज़िल पर पहुंचने लगीं, वहां मौजूद वालंटियर्स ने इन पर लगे टैग जांचे। उन्हें लगभग 13,000 तितलियों
पर टैग चिपके मिले।
इसके बाद कार्यक्रम के संस्थापक ओर्ले टेलर और उनके साथियों ने प्रत्येक तितली
पर टैग लगाने के स्थान पर मध्यान्ह सूर्य के क्षितिज से बनने वाले कोण की गणना की।
वे यह मानकर चले कि जब तितलियों पर टैग लगाया गया तब वे प्रवास शुरू कर रही थीं।
आंकड़ों के आधार पर उन्होंने पाया कि अधिकांश तितलियां ने अपनी प्रवास यात्रा तब
शुरू की जब मध्यान्ह का सूरज क्षितिज से 57 अंश के कोण पर था। कुल मिलाकर मोनार्क
अपनी प्रवास यात्रा तब शुरू करती हैं जब यह कोण 48 से 57 अंश के बीच होता है।
इसके अलावा यह भी लगता है कि मोनार्क तितली अपनी आगे की यात्रा भी सूरज के
क्षितिज से बनने वाले कोण के मुताबिक पूरी करती हैं। तितलियों पर टैग लगाने के
स्थान और तारीख के आंकड़ों के विश्लेषण में टीम ने पाया कि दक्षिण की ओर प्रवास
यात्रा की शुरुआत में तितलियों की गति 17 किलोमीटर प्रतिदिन होती है जो मध्य
प्रवास में बढ़कर 47 किलोमीटर प्रतिदिन तक हो जाती है। उसके बाद और दक्षिण में
पहुंचकर गति घटकर 17 किलोमीटर प्रतिदिन हो जाती है। उनकी गति का यह पैटर्न उत्तर
से दक्षिण की ओर सूर्य के बदलते कोण से मेल खाता है।
तितलियों की यात्रा की यह गति एक अन्य अध्ययन के निष्कर्ष से मेल खाती है। यह
अध्ययन प्रवास यात्रा के दौरान पेड़ों पर तितलियों द्वारा डाले गए पड़ावों पर किया
गया था,
जहां ये प्रवासी तितलियां रात्रि विश्राम करती हैं।
इस तरीके से संरक्षणवादियों को यह जानने में मदद मिल सकती है कि जलवायु परिवर्तन जैसे बाहरी कारक इन तितलियों की इस प्रवास यात्रा को कैसे प्रभावित करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
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टार्डिग्रेड्स, जिनको जलीय-भालू के नाम से भी
जाना जाता है,
पृथ्वी के सबसे कठोर और लचीले जीव हैं। आठ टांगों वाले ये
सूक्ष्मजीव किसी भी वातावरण में (चाहे अंतरिक्ष ही क्यों न हो) जीवित रहने में
सक्षम हैं। ऐसी ही एक घटना आज से कुछ महीने पहले एक इस्राइली अंतरिक्ष यान की चांद
पर दुर्घटनाग्रस्त लैंडिंग के दौरान हुई।
जब टार्डिग्रेड्स को इस्राइली चंद्र मिशन बारेशीट पर लादा गया था तब वे
निर्जलित अवस्था में थे और उनकी सभी चयापचय गतिविधियां अस्थायी रूप से मंद पड़ी
थीं। लेकिन चंद्रमा पर इनका आगमन काफी विस्फोटक रहा। 11 अप्रैल के दिन चंद्रमा पर
बारेशीट की क्रैश लैंडिंग ने चांद की सतह पर इन सूक्ष्मजीवों को बिखेर दिया होगा।
वैसे तो यह जीव काफी सख्तजान है लेकिन पता नहीं इनमें से कितने इस टक्कर में
बच पाए होंगे। फिर भी, निश्चित रूप से उनमें से कुछ के जीवित रहने
की संभावना तो है। दुनिया भर की अंतरिक्ष एजेंसियां चांद पर वस्तुएं छोड़ने की
अनुमति के लिए 1967 की बाह्र अंतरिक्ष संधि का पालन करती हैं। यह संधि स्पष्ट रूप
से मात्र हथियारों, प्रयोगों और ऐसे उपकरणों को चांद पर छोड़ने
का निषेध करती है जो अन्य एजेंसियों के मिशन में दखल दे सकती हैं।
इस संधि के बाद कई अन्य दिशानिर्देश भी जारी किए गए हैं जिनमें पृथ्वी से ले
जाए गए सूक्ष्मजीवों और बीजों के जोखिम स्वीकार किया गया है। लाइव साइंस के
अनुसार विश्व स्तर पर इसे लागू करने वाली कोई संस्था नहीं है, फिर भी बड़ी अंतरिक्ष एजेंसियां आम तौर पर इन नियमों का पालन करती आई हैं।
अभी तक चांद पर जीवन के कोई संकेत तो नहीं मिले हैं जिनको टार्डिग्रेड्स से
खतरा हो। लेकिन अन्य ग्रहों पर जीवन मिलने की संभावना को निरस्त नहीं किया जा सकता
और पृथ्वी के सूक्ष्मजीव इन मूल निवासी सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर सकते हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि मंगल पर जीवन बसाने से पृथ्वी के सूक्ष्मजीवों द्वारा
मंगल के सूक्ष्मजीवों को नुकसान हो सकता है।
देखा जाए तो टार्डिग्रेड ऐसी स्थितियों में खुद को जीवित रख सकते हैं जिन
स्थितियों में अन्य सूक्ष्मजीव खत्म हो जाते हैं। वे अपने शरीर से पानी को बाहर
निकालकर कुछ ऐसे यौगिक उत्पन्न करते हैं जो उनको सुरक्षित रखते हैं। ये जीव कई
महीनों तक इस हालत में रह सकते हैं और पानी मिलने पर वापिस जीवित हो जाते हैं।
प्रयोगशाला में 30 वर्ष पुराने 2 टार्डिग्रेड को पुनर्जीवित किया जा चुका है।
युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने 2008 में टार्डिग्रेड को पृथ्वी की कक्षा में
भेजने पर पाया था कि एक टार्डिग्रेड उबलते हुए और ठंडे पानी, उच्च दबाव और यहां तक कि अंतरिक्ष के वैक्यूम में भी जीवित रहा। अलबत्ता, टार्डिग्रेड्स पर पराबैंगनी विकिरण का काफी प्रभाव हुआ था और थोड़े से ही बच
पाए थे। यानी टार्डिग्रेड्स के जीवित रहने की संभावना है यदि वे चांद पर ऐसे स्थान
पर हों जहां पराबैंगनी विकिरण न हो।
लेकिन जब तक चंद्रमा पर टार्डिग्रेड हैं तब तक बिना पानी के उनके पुन: जीवित होने की संभावना कम ही है। और यदि कहीं से उन्हें चांद पर पानी मिल भी जाता है तब भी बिना भोजन, हवा और सही तापमान के जीवित रहना संभव नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)
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अब तक ज्ञात ब्रह्मांड में केवल हमारी धरती पर ही जीवन है।
और मानव जाति ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में इतनी प्रगति की है कि आज हम एक
सुविधाजनक,
स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जीने में भी सक्षम हैं। मगर हमारी
वर्तमान दुनिया राजनैतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि
से उथल-पुथल के दौर में है। ऐसी परिस्थिति में सवाल है कि क्या मानव जाति अपना
वजूद अगले दो सौ वर्षों तक कायम रख पाएगी?
हम इंसानों के लिए सबसे डरावना भविष्य वह है जिसमें मानव सभ्यता के ही खत्म हो
जाने की कल्पना की जाती है। ये कल्पनाएं निराधार नहीं हैं। इस समय मानवजाति जलवायु
परिवर्तन,
परमाणु युद्ध, जैव विविधता का विनाश, ओज़ोन परत में सुराख, जनसंख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी
आदि समस्याओं के अलावा आसमानी खतरों, जैसे किसी उल्का या
धूमकेतु के टकरा जाने के जानलेवा खतरे, का भी सामना कर रही है।
बीसवीं शताब्दी तक हम सोचते थे कि हम बहुत सुरक्षित जगह पर रह रहे हैं लेकिन अब
स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है। मानव जाति के लुप्त होने के खतरे चिंताजनक रूप से
बहुत अधिक और बहुत तरह से बढ़ गए हैं। महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग यह कहकर धरती
से रुखसत हो चुके हैं कि महज़ 200 वर्षों के भीतर मानव जाति का अस्तित्व हमेशा के
लिए खत्म हो सकता है और इस संकट का एक ही समाधान है कि हम अंतरिक्ष में कॉलोनियां
बसाएं।
इधर हाल के वर्षों में हुए अनुसंधानों से यह पता चलता है कि भविष्य में हम
पृथ्वीवासियों द्वारा रिहायशी कॉलोनी बनाने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान हमारा पड़ोसी
ग्रह मंगल है। मंगल ग्रह और पृथ्वी में अनेक समानताएं हैं। हालांकि मंगल एक शुष्क
और ठंडा ग्रह है,
लेकिन इसमें वे तमाम तत्व मौजूद हैं जो इसे जीवन के अनुकूल
बनाते हैं। जैसे पानी, कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन
वगैरह। हालांकि पृथ्वी का जुड़वा समझे जाने वाले शुक्र ग्रह की आंतरिक संरचना
पृथ्वी से काफी मिलती-जुलती है, लेकिन जब बात जीवन योग्य
परिस्थितियों की हो तो मंगल अनोखे रूप से सर्वाधिक उपयोगी और उपयुक्त ग्रह है।
मंगल अपनी धुरी एक चक्कर लगाने में लगभग पृथ्वी के बराबर समय लेता है (24 घंटे, 39 मिनट और 35 सेकंड)। मंगल पर पृथ्वी के समान ऋतुचक्र होता है। पृथ्वी की तरह
मंगल पर भी वायुमंडल मौजूद है, हालांकि यह बहुत विरल है।
लेकिन इन समानताओं के साथ कुछ भिन्नताएं भी हैं, जो
मंगल को मानव के लिए रिहायशी कॉलोनियों में तबदील करने में बड़ी चुनौती पेश करती
हैं। मंगल पर न तो वायु पर्याप्त है और न ही सूरज की रोशनी। वहां का अधिकतम तापमान
अंटार्कटिका के न्यूनतम तापमान के लगभग बराबर है। हानिकारक सौर किरणें मंगल की सतह
पर सीधे धावा बोलती हैं। 95 प्रतिशत कार्बन डाईऑॅक्साइड से बना इसका वायुमंडल
हमारे लिए दमघोंटू है।
अलबत्ता,
वैज्ञानिकों का मानना है कि मंगल के परिवेश को पृथ्वी जैसा
बनाना संभव है। मंगल को रूपांतरित करके पृथ्वी जैसा बनाने को वैज्ञानिक
‘टेराफॉर्मेशन’ का नाम देते हैं। भले ही यह कल्पना रोमांचक लगती हो मगर
टेराफॉर्मिंग आसान नहीं है। इसके साथ अनेक तकनीकी और पर्यावरण से जुड़ी समस्याएं
हैं।
इससे जुड़ा हालिया सुझाव यह है कि अगर मंगल ग्रह पर परमाणु विस्फोट किए जाएं, तो उसके वातावरण को रहने लायक बनाया जा सकता है। इसे न्यूक मार्स की संज्ञा दी
गई है। सैद्धांतिक रूप से यह दावा है कि परमाणु हथियारों के विस्फोट से कार्बन
डाईऑॅक्साइड मुक्त होगी, जिससे एक ग्रीनहाउस प्रभाव
पैदा होगा जो मंगल की ठंडी जलवायु को गर्म कर देगा।
निजी स्वामित्व वाली स्पेसएक्स एक ऐसी कंपनी है जो मंगल ग्रह पर पहुंचने और
वहां कॉलोनी बसाने के मामले में विभिन्न देशों के सरकारी संगठनों (मसलन नासा, ईसा,
जैकसा और इसरो) से काफी आगे है। यह कंपनी केवल 17 साल
पुरानी है लेकिन दुनिया भर में उपग्रह प्रक्षेपण के मामले में अपना दबदबा बनाए हुए
है। स्पेसएक्स के अरबपति मुखिया एलन मस्क का यह मानना है कि नाभिकीय विस्फोट मंगल
के बर्फीले ग्लेशियरों को पिघला देगा। यह कुछ-कुछ कृत्रिम सूरज (आर्टिफिशियल सन)
के जैसा होगा और स्पेसएक्स के पास ऐसी तकनीकी क्षमता है जो मंगल के वातावरण को
रेडियोधर्मी (रेडियोएक्टिव) किए बगैर उसे इंसानी जीवन के अनुकूल बना सकती है।
पर इस तकनीक में काफी पैसा खर्च होगा और साथ ही इस तकनीक में कई खतरे भी हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि भले ही सुनने में यह आसान और रोमांचक लगता हो, मगर वैसा है नहीं। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार मंगल पर परमाणु विस्फोट से वहां
का वातावरण बहुत ठंडा हो सकता है जिसकी वजह से वहां का तापमान गर्म होने की बजाय
और ठंडा हो सकता है। परमाणु विस्फोट से राख और धूल की चादर मंगल ग्रह को ढंक लेगी
जिससे मंगल के औसत तापमान में भारी गिरावट आ जाएगी और वहां नाभिकीय जाड़ा
(न्यूक्लियर विंटर) शुरू हो सकता है।
और तो और, इस तकनीक में मंगल ग्रह के वातावरण और उसकी सतह पर विकिरण फैलने का खतरा भी है जो हमारे भविष्य की इकलौती उम्मीद यानी मंगल ग्रह को तबाह कर सकता है। इस लिहाज़ से देखें तो मस्क के विचार बेहद भयानक हैं। बेहतर होगा कि हम मंगल पर कदम सावधानी से रखें। और वहां ज़मीन के नीचे पनप रहे किसी सूक्ष्मजीवी जीवन (माइक्रोबियल लाइफ) को तबाह न कर दें। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRo10qvvQYgzIKbO2uSTXjXkL-oE5EfWF3Gh2wHZk_RN3FyeuXL
गर्भ के कुछ हफ्तों बाद गर्भवती महिलाओं को शिशु के लात
मारने का एहसास होने लगता है। लेकिन सवाल यह है कि गर्भ में शिशु लात क्यों मारते
हैं। इम्पीरियल कॉलेज लंदन की बायो-इंजीनियर नियाम नोवलन ने लाइव साइंस को
बताया है कि गर्भ वैसे तो काफी तंग जगह होती है लेकिन लातें चलाना हड्डियों और
जोड़ों के स्वस्थ विकास के लिए ज़रूरी व्यायाम है।
वास्तव में गर्भ के शुरूआती 7 हफ्ते के बाद भ्रूण हरकत करने लगता है जिसमें
आहिस्ता-आहिस्ता वह अपनी गरदन घुमाने लगता है। जैसे-जैसे भ्रूण का विकास होता है
वह हिचकी,
हाथ-पैर हिलाना, अंगड़ाई लेना, उबासी लेना और अंगूठा चूसने जैसी हरकतें भी करने लगता है। लेकिन गर्भवती
महिलाओं को हाथ-पैर हिलाने जैसी बड़ी हरकतें 16 से 18 हफ्तों के बाद ही महसूस होने
लगती हैं।
हालांकि अध्ययनों में अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि गर्भ में शिशु की हरकतें
स्वैच्छिक हैं या अनैच्छिक, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि
जन्म के बाद शिशु के अच्छे स्वास्थ्य के लिए गर्भ में हाथ-पैर मारने जैसी ये
हरकतें आवश्यक हैं, खासकर जोड़ों और हड्डियों के लिए। युरोपियन
सेल एंड मटेरियल में प्रकाशित एक समीक्षा में नोवलन बताती हैं कि कैसे भ्रूण
की कम हरकत के कारण कुछ जन्मजात विकार (जैसे छोटे जोड़ या पतली हड्डियां) हो सकते
हैं,
जिनकी वजह से फ्रैक्चर की संभावना अधिक रहती है।
लेकिन फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि गर्भ में शिशु की कितनी हरकत सामान्य
कहलाएगी और कितनी कम या ज़्यादा क्योंकि भ्रूण की हरकतों पर निगरानी सिर्फ
अस्पतालों में ही रखी जा सकती है और गर्भवती महिलाएं अस्पताल में तो थोड़े समय के
लिए ही होती हैं। इसलिए भ्रूण की हरकत का तफसील से अध्ययन करना अब तक मुश्किल रहा
है।
इस समस्या के समाधान के लिए नोवलन की टीम ने एक ऐसा मॉनीटर बनाया है जिसे
महिलाएं दिन भर पहने रख सकती हैं और रोज़मर्रा के सारे काम भी करती रह सकती हैं।
नोवलन के दल ने इस मॉनीटर को 24 से 34 सप्ताह के गर्भ वाली 44 गर्भवती महिलाओं पर
आज़माया। इसकी मदद से वे शिशुओं की सांस लेने, चौंकने
और अन्य सामान्य शारीरिक हरकतें सटीकता से रिकॉर्ड कर पाए। उनका यह अध्ययन प्लॉस
वन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
हालांकि शिशु की हरकत सम्बंधी कई अध्ययन किए जाना या निष्कर्षों की पुष्टि किया जाना अभी बाकी है – जैसे कौन-सी बार गर्भधारण किया है, क्या इससे शिशु के लात मारने पर कोई प्रभाव पड़ता है? या शिशु के लिंग और लात मारने के परिमाण के बीच कोई सम्बंध है? उम्मीद है कि इस नए विकसित मॉनीटर से शिशु की हरकत के बारे में और विस्तार से जानने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQ9eTEO3jKpx4-kAjWU-hVo41A5kmBLrYloRVUkdF43nLYkIAVN
हम में से कई लोगों का पाला सिर में होने वाली जूं से पड़ा
होगा,
खासकर बचपन में। सिर से जूं निकालना और उनका पूरी तरह सफाया
करना ज़रा मुश्किल काम है। हो भी क्यों ना, जूं
फुर्ती से बालों में छिपने में माहिर जो है। अब, हाल ही
में नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि पृथ्वी पर जूं का अस्तित्व
पिछले 10 करोड़ वर्षों से है और उस वक्त उनके मेज़बान पंखों वाले डायनासौर हुआ करते
थे।
दरअसल,
वर्तमान जूं के जेनेटिक विश्लेषण से तो पता चल गया था कि
उनका अस्तित्व पृथ्वी पर पंखों वाले डायनासौर के समय से है, लेकिन उनके जीवाश्म अब तक नहीं मिले थे। क्योंकि एक तो जूं सरीखे छोटे जीवों
के अश्मीभूत होने की संभावना बहुत कम होती है, और यदि
हो भी गए तो उन्हें खोज निकालना मुश्किल होता है। इस संदर्भ में युनिवर्सिटी ऑफ
नेवेडा की वैकासिक जीव विज्ञानी जूली एलन का कहना है कि इतना पुराना और वह भी
पंखों पर जूं का जीवाश्म मिलना बहुत ही सनसनीखेज बात है।
कीटों,
खासकर जूं जैसे परजीवी के जीवाश्म को ढूंढने में बीजिंग की
केपिटल नॉर्मल युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानी ताइपिंग गाओ, दोंग रेन,
चुंगकुंग शिह ने काफी वक्त लगाया। और आखिरकार म्यांमार में
मिले दो छोटे जीवाश्मों में उन्हें 10 कीट दिखाई दिए, जो
नर्म पंखों के भीतर सुरक्षित थे। इन पंखों को देखकर लग रहा था कि उन्हें कुतरा गया
था।
कीटों के ये जीवाश्म मात्र 0.2 मिलीमीटर लंबे थे और आजकल की जूं जैसे नहीं दिख
रहे थे। उनका मुंह वर्तमान जूं जितना परिष्कृत नहीं था और उनके नाखूनों और एंटीना
पर सख्त और लंबे रोम थे। इस परजीवी जूं को शोधकर्ताओं ने नाम दिया है मेसोफ्थिरस
एंजेली अर्थात मेसोज़ोइक युग की जूं। इसका नामकरण कीट विज्ञानी माइकल एंजेल के नाम
पर किया गया है।
आधुनिक जूं की तरह इन जूं के पंख नहीं थे और आंखें, एंटीना
और पैर भी छोटे-छोटे थे। इससे लगता है कि वे बहुत तेज़ और लंबा नहीं चलते होंगे।
अलबत्ता,
सारे लक्षण जूं के समान हैं। चूंकि प्राप्त जीवाश्म बहुत ही
छोटे हैं इसलिए शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वे अवयस्क जूं हैं और वयस्क जूं लगभग
आधा मिलीमीटर लंबे रहे होंगे।
अधिकतर वर्तमान जूं किसी एक खास प्रजाति या शरीर के किसी खास अंग पर बसेरा
करते हैं जैसे हमारे सिर की जूं। इसके अलावा जूं कई अन्य जानवरों और पक्षियों पर
भी डेरा जमाती हैं। मनुष्य के सिर की जूं खून पीती है लेकिन पक्षियों या जानवरों
पर पाई जाने वाली जूं या तो पंख खाती है या त्वचा। उपरोक्त दोनों जीवाश्मों में जो
पंख हैं वे काफी अलग-अलग प्रकार के हैं और दो भिन्न डायनासौर के लगते हैं; इससे लगता है कि एम. एंजेली जूं का कोई एक खास मेज़बान नहीं था। पंखों पर क्षति
के निशान देखकर लगता है कि ये इन जूं द्वारा खाए गए होंगे।
चूंकि ऐसा लगता है कि यह जूं पंख खाती है इसलिए वे अपने मेज़बान को काटती नहीं होगी, और डायनासौर को खुजली तो नहीं होती होगी। लेकिन जिस तरह से जूं ने पंखों को नुकसान पहुंचाया है उसे देखकर लगता है कि डायनासौर अपने पंखों को साफ करते रहे होंगे, जैसे आजकल के पक्षी जूं से छुटकारा पाने के लिए करते हैं। तो पंखदार डायनासौर के न सिर्फ पंख थे बल्कि आजकल के पक्षियों के समान जूं उन्हें तंग भी करती थी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.ctfassets.net/cnu0m8re1exe/27zzboQ6337fh6LMh27Vgl/480d88b09a3cace9699d0e1c0e58b237/Dinosaur_Lice_2.jpeg?w=650&h=433&fit=fill
मीठा खाना हम सबको पसंद है, लेकिन
अधिक चीनी के सेवन से वज़न बढ़ने, मोटापे, टाइप-2 मधुमेह और दंत रोग जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मीठा खाने से
खुद को रोक पाना इतना कठिन होता है कि मानो मस्तिष्क को मीठा खाने के लिए
प्रोग्राम किया गया हो। वैज्ञानिक इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि मोटापा बढ़ाने
वाला भोजन मस्तिष्क और व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है और इससे निपटने के लिए
क्या किया जा सकता है।
ग्लूकोज़ मस्तिष्क कोशिकाओं सहित अन्य कोशिकाओं के लिए र्इंधन का काम करता है।
हमारे आदिम पूर्वजों के लिए मीठे खाद्य पदार्थ ऊर्जा के बेहतरीन स्रोत थे जिसके
चलते मनुष्य विशेष रूप से मीठे खाद्य पदार्थों को पसंद करने लगे। कड़वा, खट्टा स्वाद कच्चे फलों का या ज़हरीला हो सकता है।
मीठे का सेवन करने पर हमारे मस्तिष्क की डोपामाइन प्रणाली सक्रिय हो जाती है
जो एक तरह के पारितोषिक का काम करती है। इस रसायन को मस्तिष्क एक सकारात्मक संकेत
के रूप में दर्ज करता है। यह रसायन उसी कार्य को फिर से करने के लिए प्रेरित करता
है और हमारा आकर्षण मिठास के प्रति बढ़ जाता है। लेकिन क्या चीनी का अत्यधिक सेवन
मस्तिष्क पर कोई नकारात्मक प्रभाव डालता है?
न्यूरोप्लास्टिसिटी नामक प्रक्रिया के माध्यम से मस्तिष्क खुद का पुनर्लेखन
करता है। दवा या अधिक चीनी युक्त पदार्थों का बार-बार सेवन करने से यह प्रणाली
मस्तिष्क को इस उद्दीपन के प्रति उदासीन कर देती है और एक तरह की सहनशीलता उत्पन्न
होती है। इसके चलते वही असर प्राप्त करने के लिए आपको उस चीज़ का ज़्यादा मात्रा में
सेवन करना होता है। इसे लत लगना कहते हैं। यह विवाद का विषय रहा है कि क्या भोजन
की लत लग सकती है।
ऊर्जा के स्रोत के अलावा कई लोगों में खाने की लालसा तनाव, भूख या भोजन के आकर्षक चित्र देखकर पैदा होती है। इस लालसा को रोकने के लिए
हमें अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया को नियंत्रित करने की आवश्यकता होती है। इसमें
निषेध न्यूरॉन्स की प्रमुख भूमिका होती है। ये न्यूरॉन्स निर्णय लेने के साथ-साथ
नियंत्रण तथा संतुष्टि को टालने का काम करते हैं। ये न्यूरॉन्स मस्तिष्क में ब्रेक
की तरह काम करते हैं। चूहों में अध्ययन से पता चला है कि उच्च चीनी युक्त आहार
लेने से निषेध न्यूरॉन्स में बदलाव आ सकता है। ऐसे चूहे अपने व्यवहार को नियंत्रित
करने में और निर्णय लेने में कम सक्षम पाए गए। इससे लगता है हम जो भी खाते हैं वो
इन प्रलोभनों का विरोध करने की हमारी क्षमता को प्रभावित कर सकता है और आहार में
बदलाव करना मुश्किल हो सकता है।
हाल के अध्ययन से मालूम चला है कि जो लोग नियमित रूप से उच्च वसा, उच्च चीनी वाले आहार खाते हैं वे भूख न लगने पर भी खाने की लालसा महसूस करते
हैं। यानी नियमित रूप से उच्च चीनी युक्त खाद्य पदार्थ खाने से लालसा बढ़ती जाती
है।
अध्ययन से पता चला है कि उच्च मात्रा में चीनी आहार लेने वाले चूहों में
याददाश्त की समस्या उत्पन्न हुई। चीनी के कारण हिप्पोकैम्पस में नए न्यूरॉन्स की
कमी पाई गई जो याददाश्त बढ़ाने और उत्तेजना से जुड़े रसायनों में वृद्धि करने के लिए
महत्वपूर्ण हैं।
अब सवाल यह है कि अपने मस्तिष्क को चीनी से कैसे बचाएं? विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हमें अपने दैनिक कैलोरी सेवन की मात्रा में शक्कर का सेवन केवल 5 प्रतिशत तक सीमित करना चाहिए जो लगभग 25 ग्राम (छह चम्मच) के बराबर है। इसके मद्देनज़र आहार में काफी परिवर्तन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSOBGuc7fS39905hBF7RBGtNJluFXoTYJxETE-BJrJ23w17fu6A
शकरकंद के पौधे के पास अपनी रक्षा के लिए न तो कांटें होते
हैं और न कोई ज़हर। लेकिन भूखे शाकाहारी जीवों से खुद की रक्षा करने के लिए
उन्होंने एक शानदार तरीका विकसित किया है। जब कोई जीव इस पौधे के एक पत्ते को
कुतरता है,
वह तुरंत एक ऐसा रसायन उत्पन्न करता है जो पौधे के बाकी
हिस्से और आसपास के पौधों को भी सचेत कर देता है जिससे वे खुद को अभक्ष्य बना लेते
हैं। शकरकंद संवर्धक इस पौधे में फेरबदल करके सर्वथा प्राकृतिक कीटनाशक रसायन बना
सकते हैं।
जर्मनी स्थित मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर केमिकल इकॉलॉजी के प्लांट
इकोलॉजिस्ट एलेक्स मिथोफर ने इस विषय में काम करना शुरू किया जब उन्होंने ताइवान
में उगाए गए शकरकंद की दो किस्मों में कुछ दिलचस्प चीज़ देखी। उन्होंने पाया कि
पीले छिलके और पीले गूदे वाली किस्म टैनॉन्ग-57 तो आम तौर पर शाकाहारियों की
प्रतिरोधी है जबकि गहरे नारंगी रंग वाली टैनॉन्ग-66 कीटों से ग्रस्त है।
एलेक्स और उनकी टीम ने टैनॉन्ग-57 और टैनॉन्ग-66 पर अफ्रीकी कॉटन लीफवर्म के
भूखे कैटरपिलर छोड़ दिए। कैटरपिलर ने जैसे ही पौधों को खाना शुरू किया, दोनों पौधों ने कम से कम 40 वायुवाहित यौगिक छोड़े। लेकिन शोधकर्ताओं ने साइंटिफिक
रिपोर्ट्स में बताया है कि टैनॉन्ग-57 ने काफी अधिक मात्रा में एक विशिष्ट गंध
वाला DMNT नामक रसायन छोड़ा। शोधकर्ताओं
ने DMNT यौगिक को मकई और गोभी जैसे
अन्य पौधों से भी प्राप्त किया है। यह कुछ प्रजातियों में रक्षा प्रतिक्रिया
प्रेरित करने के लिए जाना जाता है।
शकरकंद में इस प्रक्रिया को जानने के लिए वैज्ञानिकों ने दो अन्य प्रयोग किए।
सबसे पहले उन्होंने टैनॉन्ग-57 के दो पौधों को पास-पास रखकर उनमें से एक को चिमटी
से नोचा जिसकी वजह से उसने DMNT छोड़ा। इसके बाद उन्होंने स्वस्थ टैनॉन्ग-57 पर प्रयोगशाला में संश्लेषित DMNT का छिड़काव किया। दोनों ही
मामलों में पाया गया कि पत्तियों पर स्पोरामिन नामक प्रोटीन अधिक मात्रा में था।
जब कैटरपिलर स्पोरामिन युक्त पत्तियों को खाते हैं तो उनका पाचन ठप हो जाता है और
वे तुरंत ही उन पत्तियों को खाना छोड़ देते हैं क्योंकि वे अस्स्थ महसूस करते हैं।
गौरतलब है कि टैनॉन्ग-66 में ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देखी गई।
शकरकंद में स्पोरामिन एक मुख्य प्रोटीन है। इसको यदि कच्चा खाया जाए तो यह
अपचनीय है,
इसलिए हम इसको पकाकर खाते हैं। एलेक्स का मानना है कि
सैद्धांतिक रूप से यदि शकरकंद की सभी किस्मों में जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम
से टैनॉन्ग-57 की तरह और अधिक DMNT उत्पन्न कराया जा सके तो वे कीटों से अपनी रक्षा कर सकेंगे।
वैसे यह विषय अभी सुर्खियों में आने के लिए तैयार नहीं है। प्लांट इकोलॉजिस्ट मार्टिन हील का मानना है कि DMNT प्रयोगशाला में तो काम कर सकता है लेकिन खुले में DMNT चंद सेकंड में हवा हो जाएगा। फिलहाल तो एलेक्स के पास भी आनुवंशिक रूप से तैयार किए गए ऐसे पौधों को बनाने की कोई योजना नहीं है। एक बात यह भी है कि इसका उपयोग युरोपीय देशों में करना भी संभव नहीं है जहां आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों का उपयोग प्रतिबंधित है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit :https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/Sweet-potatoes-DMNT-Sporamin-1280×720.jpg?itok=-yZauAI2