सत्रहवीं शताब्दी की पहेली भंवरे की मदद से सुलझी

साल 1688 में एक आयरिश दार्शनिक विलियम मोलेनो ने अपने सहयोगी जॉन लॉके से एक सवाल पूछा था: कोई जन्मजात दृष्टिहीन व्यक्ति जिसने मात्र स्पर्श से चीज़ों को पहचानना सीखा है, यदि आगे चलकर उसमें देखने की क्षमता आ जाए, तो क्या वह सिर्फ देखकर चीज़ों को पहचान पाएगा? उनका यह सवाल मोलेनो समस्या के नाम से जाना जाता है। सवाल मूलत: यह है कि क्या मनुष्य में आकृतियां पहचानने की क्षमता जन्मजात होती है या क्या वे देखकर, स्पर्श से और अन्य इंद्रियों के माध्यम से इसे सीखते या अर्जित करते हैं? यदि दूसरा विकल्प सही है, तो इसमें बहुत समय लगना चाहिए।

कुछ वर्ष पूर्व इस गुत्थी को सुलझाने के एक प्रयास में कुछ ऐसे बच्चे शामिल किए गए थे जो जन्म से अंधे थे लेकिन बाद में उनकी दृष्टि बहाल हो गई थी। ये बच्चे तत्काल तो देखकर आकृतियां नहीं पहचान पाए थे लेकिन बहुत समय भी नहीं लगा था। लेकिन कुछ तो सीखना पड़ा था। यानी परिणाम अस्पष्ट थे। हाल ही में लंदन स्थित क्वीन मैरी युनिवर्सिटी के लार्स चिटका और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश एक बार फिर से की है।

प्रयोग भंवरों पर किया गया। अपने अध्ययन में उन्होंने पहले भंवरों को उजाले में गोले और घन में अंतर सीखने का प्रशिक्षण दिया – उजाले में, दो बंद पेट्री डिश में गोले और घन आकृतियां रखी गर्इं और उनमें से किसी एक को चुनने पर शकर का इनाम दिया गया। गोले और घन बंद पेट्री डिश में रखे थे इसलिए भंवरे उन्हें देख तो सकते थे लेकिन छू नहीं सकते थे। देखा गया कि भंवरे उस आकृति के साथ ज़्यादा समय बिताते हैं, जिसका सम्बंध शकर रूपी इनाम से है; यानी वे उस आकृति को पहचानते हैं।

इसके बाद उन्होंने यही जांच अंधेरे में की। यानी भंवरे वस्तुओं को छू तो सकते थे लेकिन देख नहीं सकते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर का पुरस्कार मिला था, उस आकृति के साथ भंवरों ने अधिक समय बिताया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने यही अध्ययन उल्टी तरह से किया – पहले उन्हें अंधेरे में प्रशिक्षित किया और उजाले में जांच की। इसमें भी, दोनों ही स्थितियों में जहां उन्हें वस्तु छूकर पहचानना था या देखकर, जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर दी गई थी उस आकृति के पास अधिक वक्त बिताया।

कीटों में दृश्य पैटर्न को पहचानने की क्षमता का काफी अध्ययन हुआ है। शोधकर्ताओं को यह तो पहले से पता था कि कीट फूलों और मनुष्य के चेहरों के पेचीदा रंग-विन्यास को पहचान सकते हैं। लेकिन विन्यास पहचान के लिए ज़रूरी नहीं है कि मस्तिष्क में उस विन्यास का कोई चित्र बने। तो सवाल यह था कि क्या हमारे मस्तिष्क के समान कीटों के मस्तिष्क में भी वस्तु का कोई चित्रण बनता है।

लेकिन शोधकर्ताओं का मत है कि उनके अध्ययन में ये कीट एक किस्म की संवेदना से प्राप्त सूचना को किसी अन्य किस्म की संवेदना में तबदील करके वस्तु का चित्रण कर पाए। इसके आधार पर उनका कहना है कि इन भंवरों ने मोलेनो के सवाल का जवाब दे दिया है। अर्थात एक किस्म की संवेदना से निर्मित चित्र दूसरे किस्म की संवेदना द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है।

अलबत्ता, अन्य वैज्ञानिक इस प्रयोग की वास्तविक दुनिया में वैधता के बारे में शंकित हैं। जैसे भंवरे फूलों को पहचानने के लिए दृष्टि और गंध दोनों संकेतों पर निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसे अध्ययन करना होंगे जो भंवरों की प्राकृतिक स्थिति से मेल खाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अस्पतालों में कला और स्वास्थ्य – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

ई अस्पताल, खास तौर से निजी व कार्पोरेट अस्पताल, अपने प्रवेश कक्ष और मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों में आकर्षक तस्वीरें और कलाकृतियां रखते हैं। अधिकांश लोग, और वास्तव में कई अस्पताल मालिक भी सोचते हैं कि यह उनके कलाप्रेम का ढिंढोरा पीटने जैसा है। इसके विपरीत, अधिकांश सार्वजनिक या सरकारी अस्पताल ऐसा कुछ नहीं करते और अपनी दीवारों को सूना छोड़ देते हैं या उन पर तमाम सूचनाएं चस्पा कर देते हैं। इन अस्पतालों के कमरे और गलियारे भद्दे लगते हैं। यह बात देश भर के अत्यंत प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थानों पर भी लागू होती है। इसे देखते हुए, यह बात आपको (और शायद इन निजी अस्पतालों के मालिकों को भी) आश्चर्यजनक लगेगी कि अस्पतालों में मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों और वाड्र्स में कलाकृतियों का प्रदर्शन मरीज़ों, डॉक्टरों, नर्सों और देखभाल करने वाले लोगों के लिए अच्छा होता है।

डेनमार्क के शोधकर्ताओं एस. एल. नीलसन व साथियों द्वारा इंटरनेशनल जर्नल ऑफ क्वालिटेटिव स्टडीज़ ऑन हेल्थ एंड वेलबीइंग में प्रकाशित पर्चे ‘मरीज़ अस्पतालों में कला को कैसे महसूस करते हैं और उसका उपयोग करते है?’ में बताया गया था कि कैसे इससे मरीज़ों को सुलभता और देख-रेख का एहसास होता है। इस रिपोर्ट को कई जगह उद्धरित किया जाता है।

शोधकर्ताओं ने एक साझा देखभाल कक्ष में रखे गए मरीज़ों का कई सप्ताह तक अध्ययन किया था। पहले सप्ताह में कक्ष की दीवारें खाली और सूनी थीं। हर मरीज़ अपनी ही चिकित्सकीय हालत (तकलीफ) में डूबा था। मरीज़ कक्ष में किसी और से बात भी नहीं करते थे।

आठवें दिन देखभाल कक्ष की दीवारों पर कलाकृतियां – पेंटिंग, तस्वीरें, फोटोग्राफ्स – लगा दी गर्इं। अधिकांश मरीज़ों ने इन्हें देखा और इनका अध्ययन किया। पहले की आत्म-केंद्रिकता से उनका ध्यान बंटा और वे इन चीज़ों का विश्लेषण करने लगे और अपने ढंग से उनकी व्याख्या करने लगे। वे कक्ष के अन्य लोगों से बातचीत करने लगे और दोस्तियां बनार्इं, गैर-चिकित्सकीय विषयों पर चर्चा करने लगे, नुक्ताचीनी करने लगे और मेलजोल बढ़ा। यह भी देखा गया कि मरीज़ नर्सों, डॉक्टरों और देखभाल करने वाले अन्य लोगों की बातें ज़्यादा ध्यान से सुनने लगे और उनका उपचार बेहतर होता गया।

शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि कला एक ऐसा माहौल पैदा करती है जहां मरीज़ सुरक्षित महसूस करते हैं, मेलजोल बढ़ाते हैं और अस्पताल की चारदीवारी से बाहर की दुनिया से जुड़ते हैं। यह उनकी पहचान को भी सहारा देता है। कुल मिलाकर अस्पताल में दृश्य कला स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में सुधार करती है। अपेक्षा तो यह की जानी चाहिए कि यह बात खास तौर से आईसीयू में बंद मरीज़ों पर ज़्यादा लागू होगी क्योंकि वहां तो पूरा परिवेश चिकित्सा उपकरणों से भरा होता है।

देखा जाए, तो यह अध्ययन युरोपीय समाज में किया गया था। क्या इसके परिणाम भारत के सार्वजनिक और सरकारी अस्पतालों के लिए भी सही होंगे? कोई कारण नहीं कि ऐसा नहीं होगा लेकिन इसका नियोजन व रणनीति स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए। लोग तो लोग होते हैं: वे बातचीत करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उन पर ध्यान दिया जाए, सिर्फ चिकित्सकीय ध्यान नहीं बल्कि व्यक्तियों के रूप में ध्यान दिया जाए।

इसके लिए डिज़ाइनर्स, समाज वैज्ञानिकों और संवेदनशील कलाकारों को डॉक्टरों के साथ मिलकर उपलब्ध जगह के आधार पर कलाकृतियों का चयन करना होगा। मरीज़ों के लिए उपलब्ध जगह और भीड़भाड़, काम के बोझ से दबे डॉक्टर्स और देखभालकर्ता, स्थानीय संस्कृति तथा अन्य कारकों का ध्यान रखना होगा। लेकिन यह किया जा सकता है। और यह किया जाना चाहिए क्योंकि जैसा कि ऊपर कहा गया था, कला स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में योगदान देती है और इसे स्वास्थ्य देखभाल का ही एक विस्तार माना जाना चाहिए।

सवाल यह है कि क्या अस्पताल में कला डॉक्टरों और नर्सों की मदद करती है? कलाकृतियों को देखकर वे क्या सीख सकते हैं? क्या इससे उन्हें बेहतर पेशेवर बनने में मदद मिलती है? दरअसल ऐसा ही है। एन स्लोअन डेवलिन की पुस्तक Transforming the Doctor’s office: Principles from Evidence-Based Design (डॉक्टर के दफ्तर में तबदीली: प्रमाण-आधारित डिज़ाइन से कुछ सिद्धांत) में कुछ सुराग मिलते हैं। और डॉक्टर रॉबर्ट ग्लैटर का आलेख Can studying art help medical students become better doctors? (क्या कला का अध्ययन चिकित्सा छात्रों को बेहतर डॉक्टर बनने में मदद करता है?) इस बात के पक्ष में पुख्ता तर्क पेश करता है कि चिकित्सा विद्यार्थियों के लिए ग्रे की एनाटॉमी से आगे जाकर कला का पाठ¬क्रम रखा जाना चाहिए। और वास्तव में कुछ चिकित्सा अध्ययन शालाओं में ऐसा कोर्स जोड़ा गया है और नौजवान छात्रों ने इसे पसंद भी किया है और उन्हें लगता है कि इससे उनकी नैदानिक कुशलता बेहतर हुई है। एक छात्र का कहना था: “अब तक मैं चित्र के मध्य भाग को मुख्य हिस्सा मानकर चल रहा था, लेकिन मुझे समझ में आया है कि हाशियों पर जानकारी का खजाना है।”

तो, हमारे मेडिकल कॉलेज इसे आज़मा सकते हैं और समय-समय पर कलाकारों को आमंत्रित करके उनसे अपनी कला के बारे में बात करने को कह सकते हैं और छात्रों से उनकी प्रतिक्रिया बताने को कहा जा सकता है। समय-समय पर ऐसे सम्मेलन, चाहे वे पाठ¬क्रम का हिस्सा न हों, दिमाग को विस्तार देंगे और मशीनों से मिलने वाले चित्रों की व्याख्या करने और उनसे और अधिक जानकारी प्राप्त करने में मददगार होंगे। हैदराबाद के एक निजी मेडिकल कॉलेज ने अपने चिकित्सा व शोध सदस्यों तथा डॉक्टरों के लिए इस पर अमल भी किया है। कॉलेज ने मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्ष में, हर मंज़िल की दीवारों पर, बच्चों के देखभाल केंद्र में, दृष्टि सहायता चिकित्सालयों में पेंटिंग्स व अन्य कलाकृतियां रखी हैं। इस प्रकार से उन्होंने डेनमार्क के समूह द्वारा 2017 में सुझाए गए उपायों को अपनाया है। अस्पताल ने एक पूरी मंज़िल का बड़ा हिस्सा तो कला दीर्घा को समर्पित कर दिया है यहां कलाकारों, संगीतज्ञों, लेखकों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य विद्वानों को व्याख्यान देने तथा डॉक्टरों व वैज्ञानिकों के अलावा आम नागरिकों से भी बातचीत करने हेतु आमंत्रित किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तोतों में मनुष्यों के समान अंदाज़ लगाने की क्षमता

नुष्यों में अनुभवों, जानकारियों और आंकड़ों के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता होती है। हाल के एक अध्ययन में सामने आया है कि न्यूज़ीलैंड में पाए जाने वाले किआ तोते भी ऐसा कर सकते हैं। वानरों के अलावा किसी अन्य प्रजाति में पहली बार इस तरह का संज्ञान देखा गया है।

जैतूनी भूरे रंग के ये तोते अपनी हरकतों के लिए बदनाम हैं। अतीत में ये चोंच का छुरी की तरह उपयोग कर भेड़ों की चमड़ी को भेदते हुए उनकी रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द जमा वसा तक पहुंच जाते थे। आजकल ये खाने के सामान के लिए लोगों के पिट्ठू बैग को चीर देते हैं, और कार के वाइपर निकाल देते हैं।

यह देखने के लिए कि क्या किआ तोतों की शैतानी के साथ बुद्धिमत्ता जुड़ी है, युनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड की मनोविज्ञानी एमालिया बास्टोस और उनके साथियों ने न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च के पास स्थित अभयारण्य के छह किआ तोतों का अध्ययन किया। पहले तो शोधकर्ताओं ने तोतों को यह सिखाया कि काले रंग का टोकन चुनने पर हमेशा स्वादिष्ट भोजन मिलता है जबकि नारंगी टोकन से कभी भोजन नहीं मिलता। फिर उनके सामने पारदर्शी मर्तबानों में काले और नारंगी रंग के टोकन रखे गए। जब शोधकर्ताओं ने बंद मुट्ठी में मर्तबान से टोकन निकाले तब किआ तोते ने अधिकतर उन हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले थे जिनमें नारंगी टोकन की तुलना में काले टोकन अधिक थे। ऐसा उन्होंने तब भी किया जब मर्तबानों में काले और नारंगी टोकन के बीच अंतर बहुत कम था (63 काले और 57 नारंगी)।

अगले परीक्षण में शोधकर्ताओं ने किआ तोतों के सामने दो पारदर्शी मर्तबान में दोनों रंगों के टोकन बराबर संख्या में रखे। लेकिन मर्तबानों को एक शीट की मदद से ऊपरी व निचले दो हिस्सों में बांटा गया था। हालांकि दोनों मर्तबानों में काले व नारंगी टोकन बराबर संख्या में थे लेकिन एक में ऊपर वाले खंड में ज़्यादा काले टोकन थे। शोधकर्ता मात्र ऊपर वाले खंड में हाथ डाल सकता था। इस स्थिति में किआ ने उन हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले जिसके ऊपरी हिस्से में काले टोकन अधिक थे। इसके बाद किए गए अंतिम परीक्षण में भी किआ तोते ने उस शोधकर्ता के हाथ से टोकन लेना ज़्यादा पसंद किया जिसने काले टोकन अधिक बार निकाले थे।

इन परीक्षणों के आधार पर नेचर कम्युनिकेशन पत्रिका में शोधकर्ताओं का कहना है कि किआ तोतों में आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाने की क्षमता होती है। इससे लगता है कि मनुष्यों की तरह किआ में भी कई किस्म की सूचनाओं को एकीकृत करने की बौद्धिक क्षमता होती है। गौरतलब है कि पक्षियों और मनुष्यों के साझे पूर्वज लगभग 31 करोड़ वर्ष पूर्व थे, और दोनों की मस्तिष्क की संरचना भी काफी अलग है। एक मत यह रहा है कि इस तरह की बुद्धि के लिए भाषा की ज़रूरत होती है।

अलबत्ता, हार्वड युनिवर्सिटी की तोता संज्ञान विशेषज्ञ आइरीन पेपरबर्ग को लगता है कि किआ ने सहज ज्ञान का प्रदर्शन किया है ना कि सांख्यिकीय समझ का। लेकिन उन्हें यह भी लगता है यदि किआ में सांख्यिकीय अनुमान लगाने की क्षमता होती है तो इस तरह की क्षमता से लैस जानवर भोजन की मात्रा की उपलब्धता और प्रजनन-साथियों की संख्या का अंदाज़ा लगा पाएंगे जो फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

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क्या तनाव से बाल सफेद हो जाते हैं?

सा कहते हैं कि तनाव के कारण लोगों के बालों का रंग उड़ जाता है, बाल सफेद हो जाते हैं। कहा जाता है कि मुमताज़ महल की मृत्यु के बाद शाहजहां के बाल एकाध हफ्ते में ही सफेद हो गए थे। इसी तरह फ्रांस की रानी मैरी एंतोनिएट के बाल उस रात सफेद हो गए थे जिसके अगले दिन उनका सिरकलम किया जाना था। तो क्या यह संभव है?

हारवर्ड स्टेम सेल रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता मामले की तह तक पहुंचना चाहते थे। बात को समझने के लिए या-चिए ह्सू और उनके साथियों ने अपने सारे प्रयोग चूहों पर किए हैं लेकिन उन्हें लगता है कि परिणाम मनुष्यों पर लागू होंगे।

सबसे पहले उन्होंने उन स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान केंद्रित किया जो मेलेनोसाइट (मेलेनीन रंजक युक्त कोशिका) का निर्माण करती हैं। ये मेलेनोसाइट प्रत्येक बाल में मेलेनीन पहुंचाती हैं जिसका रंग काला होता है। मेलेनोसाइट बनानी वाली स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान जाना स्वाभाविक था क्योंकि मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं की तादाद में फर्क पड़ने से बालों के रंग पर असर पड़ता है।

पहले तो शोधकर्ताओं ने इन चूहों को उनके डील-डौल के हिसाब से तनाव दिया। जैसे उनके पिंजड़ों को झुकाकर रखा गया या उनके सोने की जगह को गीला रखा गया या रात भर लाइटें चालू रखी गर्इं। शोधकर्ताओं ने देखा कि तनाव के कारण वास्तव में चूहों के बाल सफेद हो जाते हैं।

विचार बना कि शायद इन चूहों में तनाव बढ़ने पर उनकी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं पर आक्रमण कर रही हैं, जिसकी वजह से इन स्टेम कोशिकाओं की संख्या कम होने लगी है। लेकिन जिन चूहों में प्रतिरक्षा कोशिकाएं नहीं थीं, उनके भी बाल सफेद हुए। निष्कर्ष: तनाव के कारण बाल सफेद होने में प्रतिरक्षी कोशिकाओं का हाथ नहीं है।

अगला विचार आया कि संभवत: इसमें कॉर्टिसोल की भूमिका होगी। कॉर्टिसोल वह प्रमुख हारमोन है जो तनाव के समय बनता है। यह बालों पर भी असर डालता है। लेकिन प्रयोगों में देखा गया कि बाल सफेद उन चूहों में भी हुए जिनकी कॉर्टिसोल बनाने वाली ग्रंथि निकाल दी गई थी। तो अब क्या?

इसके बाद उनका ध्यान अनुकंपी तंत्रिका तंत्र पर गया। यही तंत्रिका तंत्र हारमोन के प्रभाव से तनाव जनित व्यवहारों और ‘लड़ो या भागो’ प्रतिक्रिया को अंजाम देता है। इन अनुकंपी तंत्रिकाओं के सिरे हर रोम के आसपास लिपटे होते हैं। जब टीम ने चूहों में इन कनेक्शन को काट दिया तो जल्दी ही चूहों के बाल सफेद हो गए।

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उम्र के साथ बाल सफेद होने की प्रक्रिया में भी अनुकंपी तंत्रिकाओं की भूमिका है लेकिन शोधकर्ताओं का ख्याल है कि सफेद बालों की समस्या के संदर्भ में कुछ तो आशा जगी है।(स्रोत फीचर्स)

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गंध और मस्तिष्क का रिश्ता – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

गंध से हमारा बेहद करीबी रिश्ता रहा है। पकवानों की खुशबू से ही हम यह बता देते हैं कि पड़ोसी के घर में क्या बना है। गरमा-गरम कचोरी, कढ़ाई से उतरती सेव व पकोड़े, पके आम व खरबूज़े की मीठी खुशबू हो या चंदन, गुलाब, मोगरा, चंपा आदि के इत्र की मदहोश कर देने वाली गंध हमें दीवाना बनाने के लिए काफी है। अलबत्ता, हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो तपेली में जलते हुए दूध, बासी दाल और हींग जैसी तेज़ गंध को भी नहीं सूंघ पाते।

स्वाद की तरह गंध भी एक रासायनिक संवेदना है। हमारे आसपास का वातावरण गंध के वाष्पशील अणुओं से भरा हुआ है। जब हम नाक से सांस खींचते हैं तो गंध के अणु नाक के भीतर रासायनिक ग्राहियों से क्रिया करके संदेश को मस्तिष्क में पहुंचा देते हैं। अभी तक यही समझा जाता था कि मस्तिष्क के कुछ विशेष हिस्से (जैसे घ्राण बल्ब) गंध संदेशों की विवेचना कर हमें गंध का बोध कराते हैं। लेकिन कुछ ही समय पहले एक शोध टीम ने कुछ ऐसी महिलाओं की खोज की है जिनकी सूंघने की क्षमता तो सामान्य है परन्तु उनके मस्तिष्क में घ्राण बल्ब नहीं है।

विभिन्न जंतुओं में गंध को पहचानने वाले जीन्स की संख्या अलग-अलग होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अक्सर गंध के जीन्स की संख्या का सीधा सम्बंध गंध संवेदना से है – ज़्यादा जीन्स मतलब सूंघने की बेहतर  क्षमता। विभिन्न प्रजातियों पर किए गए एक अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि हाथी, भालू और शार्क कुछ ऐसे जंतु हैं जिनमें सूंघने की क्षमता बहुत विकसित होती है। भालू की सूंघने की क्षमता बेहद तगड़ी है। ये सुगंध का पीछा करते-करते जंगलों से बाहर मानव आवास, कैम्प स्थल तथा कूड़ेदानों तक पहुंच जाते हैं। हालांकि भालू का मस्तिष्क मानव मस्तिष्क का केवल एक तिहाई ही होता है परन्तु अग्र मस्तिष्क में स्थित घ्राण बल्ब मनुष्यों के मुकाबले पांच गुना बड़े होते हैं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि मानव की तुलना में भालू में गंध को ग्रहण करने की क्षमता 2000 गुना से भी बेहतर है। भालू न केवल भोजन बल्कि यौन साथी की खोज, खतरे और शावकों पर नज़र रखने के लिए भी गंध का उपयोग करते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि मादा भालू अपने बच्चों की निगरानी उन पर निगाह रखे बगैर भी कर सकती है। मांसाहारी ध्रुवीय भालू बर्फ से ढंके विशाल भू-भाग में 150 कि.मी. की दूरी से प्रणय को आतुर मादाओं की गंध पहचान लेते हैं। भारतीय जंगलों के भालू भी 30 कि.मी. दूर से मृत जानवर की गंध पहचानकर उस ओर खिंचे चले आते हैं।

ग्रेट व्हाइट शार्क में घ्राण ग्रंथियां बेहद विकसित होती हैं। कुत्तों के समान विकसित सूंघने की क्षमता के चलते इसे डॉग फिश भी कहा जाता है। ग्रेट व्हाइट शार्क में तो मस्तिष्क का दो तिहाई हिस्सा गंध की संवेदनाओं के लिए निर्धारित होता है। शार्क के नथुनों से लगातार पानी बहता रहता है और गंध के अणु रिसेप्टर्स से जुड़कर संवेदना देते रहते हैं।

अफ्रीकन हाथियों में खुशबू लेने वाले जीन्स की संख्या 1948 होती है। गंध के जीन्स किस खूबी से हाथियों में कार्य करते हैं, यह तब पता चलता है जब पानी को खोजते हुए हाथी 20 कि. मी. दूर से आती गंध को पहचान कर उस स्थान पर पहुंच जाते हैं। बहु-उपयोगी सूंड में ही गंध को पहचानने वाले रिसेप्टर्स पाए जाते हैं।

इरुााइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में शोधकर्ता ताली वीस और नोआम सोबेल की टीम गंध एवं प्रजनन क्षमता के बीच सम्बंध की तलाश में मस्तिष्क का एमआरआई देख रही थी। अनेक वालंटियर्स की जांच के दौरान उन्होंने पाया कि एक महिला के मस्तिष्क में घ्राण बल्ब है ही नहीं। यह एक असामान्य घटना थी परन्तु पूर्व के शोध भी बताते हैं कि 10,000 में से एकाध मनुष्य में घ्राण बल्ब नहीं होता है और वे गंध नहीं सूंघ सकते।

उस महिला से पूछा गया कि क्या वह गंध नहीं पहचान सकती? महिला इस बात पर दृढ़ रही कि उसकी गंध सूंघने की क्षमता बेहतरीन है। शंका से भरे वैज्ञानिकों ने महिला की गंध पहचानने की क्षमता पर अनेक परीक्षण किए और आश्चर्यजनक रूप से महिला ने गंध पहचानने की उत्तम क्षमता का परिचय दिया। आम तौर पर घ्राण बल्ब और उससे निकले न्यूरॉन्स गंध की पहचान में महत्वपूर्ण माने जाते हैं। शोध के दौरान कुछ ही समय में एक और ऐसी महिला मिली जिसकी सूंघने की क्षमता तो बेहतरीन थी परन्तु गंध के अणुओं को ज्ञात करने वाला मस्तिष्क का भाग अनुपस्थित था।

शोधकर्ताओं ने शंका के समाधान के लिए ह्यूमन कनेक्टोम प्रोजेक्ट की ओर रुख किया जो प्रतिभागियों के गंध स्कोर एकत्रित करता है। 600 महिलाओं और 500 पुरुषों से प्राप्त आंकड़ों में खोजबीन करने पर तीन महिलाएं ऐसी निकलीं जिनकी सूंघने की शक्ति तो बहुत अच्छी थी परन्तु उन सबके मस्तिष्क में घ्राण बल्ब का अभाव था। ऐसी महिलाओं का प्रतिशत केवल 0.6 था।

उपरोक्त तीनों महिलाओं में से एक लेफ्ट हेण्डेड थी। आंकड़े और खंगालने तथा एमआरआई एवं गंध परीक्षण करने पर तीन और महिलाएं मिलीं जिनमें से एक ऐसी थी जिसके मस्तिष्क में घ्राण बल्ब नहीं था और सूंघने की क्षमता भी नहीं थी। बाकी दोनों अन्य सामान्य व्यक्तियों के समान ही अधिकांश गंधों को पहचान सकती थीं। अब यह देखने की कोशिश की गई कि प्रतिभागी कौन-सी गंधों को पहचानते हैं। इसके लिए लगभग समान आयु की 140 महिलाओं को दो गंध सुंघाकर यह पता लगाया गया कि क्या वे अंतर कर पाती हैं? फिर बगैर घ्राण बल्ब वाली महिलाओं और बाकी सभी सामान्य महिलाओं में सूंघने की क्षमता में तुलनात्मक अंतर देखा गया। घ्राण बल्ब रहित महिलाएं बाकी सभी के विपरीत एक जैसी गंध पहचानती थीं। पूरे शोध से दो निष्कर्ष प्राप्त हुए। एमआरआई के आंकड़ों में से केवल महिलाएं ही ऐसी थीं जिनमें घ्राण बल्ब नहीं थे और वे भी ऐसी थी जो लेफ्ट हेण्डेड (खब्बू) थीं। इस विषय पर शोध कार्य कर रहे वैज्ञानिक सोबेल ने पाया कि ब्रोन स्केन के आंकड़े लेते समय लेफ्ट हेण्डेड महिलाओं को छोड़ ही दिया गया था क्योंकि उनकी वजह से आंकड़ों में असमानता एवं भिन्नता उत्पन्न हो रही थी।

अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि बगैर घ्राण बल्ब के इन महिलाओं में गंध पहचानने की क्षमता कैसे विकसित हो गई। एक परिकल्पना के अनुसार घ्राण बल्ब के बगैर पैदा होने के बाद शैशवावस्था में ही मस्तिष्क ने गंध को पहचानने का अन्य तरीका निकाल लिया और उसका एक अन्य हिस्सा इस कार्य को करने लगा। या शायद हमें घ्राण बल्ब की आवश्यकता सूंघने, गंध पहचानने और गंध में अंतर करने में पड़ती ही नहीं है। तो शायद अभी तक हम जैसा समझते थे, घ्राण बल्ब वैसा सूंघने का कार्य करते ही नहीं है। यह भी हो सकता है कि वे घ्राण बल्ब बताते है कि गंध किस दिशा से आ रही है। इसलिए आप खाने की गंध कहां से आ रही है तुरंत बता देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक अंधविश्वास का इतिहास – डॉ. जी. एल. कृष्ण

भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने हाल में एक परामर्श पत्र जारी किया है जिसमें उसने लंबे समय से चले आ रहे एक अधिकारिक मत को दोहराया है: “आयुर्वेद के सिद्धांतों, अवधारणाओं और तरीकों की तुलना आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से कदापि नहीं की जा सकती।” यह मत इन दो प्रणालियों के बीच स्पष्ट विभाजन को व्यक्त करता है और परोक्ष रूप से वैज्ञानिक पद्धति की सार्वभौमिकता पर सवाल खड़े करता है। इस आलेख में यह बताने की कोशिश की गई है कि आयुर्वेद की दुनिया में इस मत को व्यापक मान्यता कैसे मिली है।

अंधविश्वास काफी दिलचस्प हो सकते हैं, खास तौर से तब जब वे प्रभावशाली लोगों के दिमाग में बसे हों। यह कहानी एक ऐसे ही अंधविश्वास की है जो बीसवीं सदी के सारे आयुर्वेदिक विचारकों पर हावी रहा है।

जिस अंधविश्वास की बात हो रही है, वह मोटे तौर पर निम्नानुसार है: प्राचीन भारतीय ऋषियों (मनीषियों), जिन्होंने विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों का प्रतिपादन किया, के पास विशेष यौगिक शक्तियां थीं; इन विशेष शक्तियों ने उन्हें प्रकृति को नज़दीक से जांचने-परखने तथा उसके रहस्यों को उजागर करने में समर्थ बनाया था। इसके बाद इन रहस्यों को उन्होंने अपने दर्शन के ग्रंथों में सूक्तियों के रूप में संहिताबद्ध किया। कहने का आशय यह है कि भारतीय ऋषियों ने विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए खोजबीन की बाह्र तकनीकों का सहारा न लेकर आंतरिक यौगिक पद्धतियों का सहारा लिया, जो सिर्फ उन लोगों की पहुंच में थीं जिन्होंने इनकी साधना की हो। अत: भारतीय दार्शनिक साहित्य उन्नत वैज्ञानिक ज्ञान से भरा है जिसमें से काफी सारे की पुष्टि तो आधुनिक भौतिक शास्त्र की विधियों से हो ही चुकी है। यदि किसी मामले में पुष्टि नहीं हुई है तो समझदारी इसी में है कि प्रतीक्षा करें।

यह तो ज़ाहिर है कि यह अंधविश्वास क्यों है। एक प्राचीन संस्कृत श्लोक (शांतारक्षिता का तत्वसंग्रह, अध्याय 26, श्लोक 3149) इस विचारधारा की समस्या को बखूबी उभारता है: सुगतो यदि सर्वज्ञ: कपिलो नेति का प्रमा।, अथोभावपि सर्वज्ञौ मतभेदस्तयो: कथम।। (“यदि बुद्ध को सर्वज्ञाता माना गया है, तो कपिल को क्यों नहीं? यदि ये दोनों बराबर के सर्वज्ञाता हैं, तो ये आपस में असहमत क्यों हैं?”)

सीधा-सा तथ्य यह है कि एक ही विषय को लेकर दार्शनिकों में अलग-अलग मत पाए जाते हैं। इससे यह स्वयंसिद्ध है कि उनके निष्कर्ष अंतिम होने का दावा नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में, जब यौगिक पद्धति तक सबकी पहुंच आसान नहीं है, तो किसी मत को मानना दार्शनिक विशेष के प्रति निजी प्रीति का मामला रह जाता है, न कि उसके दर्शन में सत्य का परिमाण।

ऐसे में, सहज बुद्धि का स्थान अथॉरिटी ले लेती है और प्रत्यक्ष खोजबीन का स्थान लिखित शब्द ले लेते हैं। अटकलों को, यहां तक सुविचारित अटकलों को भी यौगिक अंतज्र्ञान का जामा पहनाने की प्रवृत्ति का परिणाम सहज बुद्धि के निजीकरण और संपूर्ण बौद्धिक अशक्तिकरण के रूप में सामने आता है। ये दोनों ही संजीदा विज्ञान कर्म का गला घोंटने के लिए पर्याप्त हैं।

आयुर्वेद के क्षेत्र में इस विज्ञान-निषेध विश्व दृष्टि की ऐतिहासिक जड़ों की खोज करना लाभप्रद होगा। कहानी लगभग 100 वर्ष पहले की है। 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी की तत्कालीन सरकार ने एक समिति का गठन किया था। इस समिति को देसी चिकित्सा प्रणाली को मान्यता तथा प्रोत्साहन देने के सवाल पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का काम सौंपा गया था। मुहम्मद उस्मान की अध्यक्षता में इस समिति ने अनुकरणीय काम किया और एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की, जो आज भी आयुर्वेदिक कामकाज का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत करने की दृष्टि से मूल्यवान है। कैप्टन जी. श्रीनिवास मूर्ति समिति के सचिव थे। वे आधुनिक चिकित्सा में प्रशिक्षित एक प्रतिष्ठित चिकित्सक थे। उनके द्वारा प्रस्तुत मेमोरेंडम समिति की रिपोर्ट में संलग्न था। यह संभवत: आयुर्वेद को पाश्चात्य चिकित्सा प्रणाली और आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के रूबरू खड़ा करने का पहला औपचारिक प्रयास था। विडंबना यह है कि यह उपरोक्त विज्ञान-विरोधी नज़रिए को संस्थागत स्वरूप देने का भी प्रयास था। लगभग 100 साल पहले मूर्ति ने अनजाने में जो बात लिखी थी, वह आज आयुर्वेद जगत का प्रचलित नज़रिया बन गई है: “हिंदुओं ने जिस पद्धति से चीज़ों को जानने की कोशिश की वह ज्ञानेंद्रियों के दायरे से परे है और वह पश्चिम के तरीके से एक खास मायने में भिन्न है; आधुनिक विज्ञान में हम अपनी ज्ञानेंद्रियों की सीमाओं से पार पाने के लिए सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी और वर्णक्रमदर्शी जैसे बाह्र उपकरणों का सहारा लेते हैं; दूसरी ओर हिंदुओं ने वही प्रभाव प्राप्त करने के लिए अपनी ज्ञानेंद्रियों को बाह्र साधनों का सहारा न देकर, अपने आंतरिक संवेदी अंगों को उन्नत बनाने की कोशिश की, ताकि उनकी अनुभूति का दायरा किसी भी वांछित सीमा तक बढ़ जाए; और यह उन्नति लाने का तरीका यह था कि अपनी इंद्रियों का अभ्यास गुरू द्वारा शिष्य को बताए गए विशेष तरीके से किया जाए।” भारतीय दार्शनिक विचारों और आधुनिक भौतिकी के बीच कुछ समानताएं बताने का प्रयास करने के उपरांत वे उम्मीद जताते हैं कि “जब हम देखते हैं कि कैसे इनमें से कई सिद्धांतों को आधुनिक विज्ञान की ताज़ा घटनाओं ने सही साबित कर दिया है, तो हम यह महसूस करने से इन्कार नहीं कर सकते कि जिस तरह से कुछ सिद्धांत सही साबित हो चुके हैं, वही अन्य सिद्धांतों को लेकर भी होगा।”

इस बात को न तो संजीदा विज्ञान का समर्थन हासिल है और न ही संजीदा दर्शन शास्त्र का, लेकिन आयुर्वेद जगत में इसे पूरी स्वीकृति मिल गई है। अचंता लक्ष्मीपति और पंडित शिव शर्मा जैसे नामी-गिरामी लोगों ने इस विचार का समर्थन किया है। आजकल के ज़माने का नया ‘फितूर’ है कि क्वांटम भौतिकी के विचारों को भारतीय दार्शनिक साहित्य में ‘खोज’ निकाला जाए। इससे भी उपरोक्त धारणा को समर्थन मिला है।

और तो और, आयुर्वेद का पाठ¬क्रम भी इसी आधार पर बनाया गया और इसके चलते उक्त धारणा आयुर्वेद का अधिकारिक नज़रिया बन गई। इस धारणा का सबसे गंभीर परिणाम यह हुआ कि आयुर्वेदिक सिद्धांतों को वैज्ञानिक छानबीन के दायरे से बाहर रखा गया और वह भी इस काल्पनिक उम्मीद में कि विज्ञान को अभी पर्याप्त प्रगति करनी है, उसके बाद ही वह इन सिद्धांतों की जांच के काबिल हो पाएगा। इस तरह से अधिकारिक आयुर्वेद वैज्ञानिक पद्धति की सार्वभौमिकता के साथ बेमेल हो गया।

रिचर्ड फाइनमैन ने कहा था, “विशेषज्ञों की अज्ञानता में विश्वास का नाम विज्ञान है।” आयुर्वेद को संस्थागत अंधवि·ाास की जकड़न से मुक्त कराना इसी बात पर निर्भर है कि क्या आयुर्वेद के विद्यार्थी इस विश्वास में समर्थ हैं। आयुर्वेद का एक प्राक्विज्ञान से आगे बढ़कर एक पूर्ण विज्ञान बनना इसी बात पर निर्भर है कि इन संस्थागत अंधविश्वासों को कितने कारगर ढंग से चुनौती दी जाती है। यदि चुनौती नहीं दी गई तो यह महान चिकित्सकीय विरासत एक छद्म विज्ञान में विघटित हो जाएगी। हमें इस आसन्न खतरे के प्रति सचेत होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भेड़ियों की नई प्रजाति विकसित हुई

पृथ्वी के सबसे ऊंचे पहाड़ों के घास के मैदानों में विशेष प्रकार के भेड़िए पाए जाते हैं। उत्तरी भारत, नेपाल, और चीन में पाए जाने वाले ये भेड़िए अपनी लंबी थूथन, हल्के रंग की ऊनी खाल और मोटी आवाज़ के लिए जाने जाते हैं। लेकिन हालिया अध्ययन से पता चला है कि ये रंग-रूप में ही नहीं बल्कि आसपास के इलाकों में पाए जाने वाले अन्य मटमैले भेड़ियों से जेनेटिक रूप से भी अलग हैं। ये जेनेटिक परिवर्तन उनको 4000 मीटर ऊंचाई की विरल हवा में जीने में मदद करते हैं।

इस अध्ययन के प्रमुख और कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के कैनाइन विकास विशेषज्ञ बेन सैक्स के अनुसार यह इन हिमालयी भेड़ियों को विशिष्ट बताने वाले प्रथम प्रमाण हैं। यह खोज  इस बात का समर्थन करती है कि इन्हें एक अलग प्रजाति के रूप में पहचाना जाना चाहिए। नए अध्ययन से यह भी पता चला है कि इस भेड़िए का इलाका पहले के अनुमान से दुगना है।  

हिमालयी भेड़िए अन्य मटमैले भेड़ियों की तुलना में अधिक ऊंचाई पर रहते हैं और इनकी आदतें भी अलग हैं। ये पूर्वी चीन, मंगोलिया और किर्गिज़स्तान के इलाकों में पाए जाते हैं। मटमैले भेड़िए जहां चूहे, गिलहरी आदि जीवों का शिकार करते हैं वहीं हिमालयी भेड़िए इनके साथ कभी-कभी तिब्बती चिकारों का भी शिकार करते हैं। इनकी गुर्राहट मटमैले भेड़ियों की तुलना में छोटी अवधि की और भारी आवाज़ वाली होती है।  

अब किर्गिज़स्तान, चीन के तिब्बतीय पठार और ताजीकस्तान के भेड़ियों के मल से प्राप्त नमूनों के विश्लेषण से इनके एक अलग नस्ल होने का जेनेटिक प्रमाण मिला है। शोधकर्ताओं ने 86 हिमालयी भेड़ियों के मल में डीएनए का अध्ययन किया। विश्लेषण से पता चला कि मटमैले भेड़ियों की तुलना में हिमालयी भेड़ियों में कुछ विशेष जीन होते हैं जो उन्हें ऑक्सीजन की कमी से निपटने में मदद करते हैं। ये जीन उनके ह्मदय को भी मज़बूत करते हैं और रक्त के ज़रिए ऑक्सीजन के प्रवाह को बढ़ाते हैं। जर्नल ऑफ बायोजियोग्राफी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार इसी प्रकार के अनुकूलन तिब्बती लोगों और उनके पालतू कुत्तों और याक में भी पाए जाते हैं।  

शोधकर्ताओं के अनुसार ऊंचे इलाकों में रहने वाले इस जीव को एक अलग प्रजाति के रूप में देखा जाना चाहिए। कम से कम, इसे जैव विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण इकाई तो माना ही जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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स्पिट्ज़र टेलिस्कोप की महान उपलब्धियां – प्रदीप

हैंस लिपरशे द्वारा दूरबीन के आविष्कार के बाद गैलीलियो ने स्वयं दूरबीन का पुनर्निर्माण करके पहली बार खगोलीय अवलोकन में उपयोग किया था। तब से लगभग चार शताब्दियां बीत चुकी हैं। तब से अब तक दूरबीनों ने खगोल विज्ञान में कई आकर्षक और पेचीदा खोजों को संभव बनाया है। इनमें हमारे सूर्य से परे अन्य तारों की परिक्रमा कर रहे ग्रहों की खोज, ब्राहृांड के फैलने की गति में तेज़ी के सबूत, डार्क मैटर और डार्क एनर्जी का अस्तित्व, क्षुद्र ग्रहों और धूमकेतुओं वगैरह की खोज शामिल है।

आज बहुत-सी विशालकाय दूरबीनों का निर्माण किया जा चुका है। इनमें कई धरती पर लगी हैं तो कुछ अंतरिक्ष में भी स्थापित हैं। खगोलीय पिंड दृश्य प्रकाश के अलावा कई तरह के विद्युत चुंबकीय विकिरण (इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक रेडिएशन) का भी उत्सर्जन करते हैं। दूरस्थ खगोलीय पिंडों से उत्सर्जित विद्युत-चुंबकीय विकिरण का ज़्यादातर हिस्सा पृथ्वी का वायुमंडल सोख लेता है और इस वजह से पृथ्वी पर स्थित विशाल प्रकाशीय (ऑप्टिकल) दूरबीनों से उन खगोलीय पिंडों को भलीभांति नहीं देखा जा सकता है। पृथ्वी की वायुमंडलीय बाधा को दूर करने एवं दूरस्थ खगोलीय पिंडों के सटीक प्रेक्षण के लिए ‘अंतरिक्ष दूरबीनों’ का निर्माण किया गया है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने चार बड़ी दूरबीनों या वेधशालाओं को अंतरिक्ष में उतारा है – हबल स्पेस टेलीस्कोप, कॉम्पटन गामा रे आब्ज़र्वेटरी (सीजीआरओ), चंद्रा एक्स-रे टेलीस्कोप और आखरी स्पिट्ज़र टेलीस्कोप।

30 जनवरी 2020 को अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने ‘स्पिट्ज़र टेलीस्कोप मिशन’ की समाप्ति की घोषणा कर दी। हालांकि इसका निर्धारित जीवनकाल केवल ढाई वर्ष था फिर भी इसने लगभग 16 वर्षों तक अपनी भूमिका दक्षतापूर्वक निभाई। गौरतलब है कि स्पिट्ज़र स्पेस टेलीस्कोप 950 किलोग्राम वज़नी एक ऐसा खगोलीय टेलीस्कोप है जिसे अंतरिक्ष में एक कृत्रिम उपग्रह के रूप में स्थापित किया गया है, इसलिए यह सूर्य के चारों ओर कक्षा में चक्कर लगाता है। यह ब्राहृांड की विभिन्न वस्तुओं की इन्फ्रारेड प्रकाश में जांच करता है। दरअसल, स्पिट्ज़र अंतरिक्ष में वह सब कुछ देखने में सक्षम था जिसे प्रकाशीय दूरबीनों के जरिए नहीं देखा जा सकता है। अंतरिक्ष का ज़्यादातर हिस्सा गैस और धूल के विशाल बादलों से भरा है जिसके पार देखने की क्षमता हमारे पास नहीं हैं। मगर इन्फ्रारेड प्रकाश गैस और धूल के बादलों की बड़ी से बड़ी दीवारों को भी भेद सकता है। स्पिट्ज़र अपने विशाल टेलीस्कोप और क्रायोजनिक सिस्टम से ठंडे रखे जाने वाले तीन वैज्ञानिक उपकरणों के साथ अब तक का सबसे बड़ा इन्फ्रारेड टेलीस्कोप है।

स्पिट्ज़र को 25 अगस्त, 2003 को अमेरिका के केप कैनवरेल से डेल्टा रॉकेट के जरिए अंतरिक्ष में भेजा गया था। शुरुआत में इसका नाम ‘स्पेस इन्फ्रारेड टेलीस्कोप फेसिलिटी’ था लेकिन नासा की परंपरा के अनुसार ऑपरेशन के सफल प्रदर्शन के बाद बीसवीं सदी के एक महान खगोलविद लिमन स्पिट्ज़र के सम्मान में ‘स्पिट्ज़र’ नाम दिया गया। गौरतलब है कि लिमन स्पिट्ज़र 1940 के दशक में अंतरिक्ष दूरबीनों की अवधारणा को बढ़ावा देने वाले अग्रणी व्यक्तियों में से एक थे। स्पिट्ज़र टेलीस्कोप में इन्फ्रारेड ऐरे कैमरा, इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोग्राफ और मल्टीबैंड इमेजिंग फोटोमीटर नामक तीन उपकरणों को रखा गया था। इन्फ्रारेड चूंकि एक तरह का गर्म विकिरण होता है, इसलिए इन तीनों उपकरणों को विकिरण से भस्म होने से बचाने और ठंडा रखने के लिए एब्सोल्यूट ज़ीरो यानी शून्य से 273 डिग्री सेल्सियस से कुछ ही अधिक तापमान रखने के लिए तरल हीलियम का इस्तेमाल किया गया था। इसके अलावा सौर विकिरण से बचाव के लिए स्पिट्ज़र को सौर कवच से भी सुसज्जित किया गया था।

यों तो स्पिट्ज़र टेलीस्कोप द्वारा की गई खोजों की सूची काफी लंबी है, मगर उसके ज़रिए की गई प्रमुख खोजों की चर्चा ज़रूरी है। इस टेलीस्कोप ने न केवल ब्राहृांड की सबसे पुरानी निहारिकाओं के बारे में हमें जानकारी उपलब्ध कराई है बल्कि शनि के चारों ओर मौजूद एक करोड़ तीस लाख किलोमीटर के दायरे में एक नए वलय का भी खुलासा किया है। इसने धूल कणों के विशालकाय भंडार के माध्यम से नए तारों और ब्लैक होल्स का भी अध्ययन किया। स्पिट्ज़र ने हमारे सौर मंडल से परे अन्य ग्रहों की खोज में सहायता की, जिसमें पृथ्वी के आकार वाले सात ग्रह जो ट्रैपिस्ट-1 नामक तारे के चारों ओर परिक्रमा कर रहे थे, के बारे में पता लगाना भी शामिल है। इसके अलावा क्षुद्रग्रहों और ग्रहों के टुकड़ों, बेबी ब्लैक होल्स, तारों की नर्सरियों यानी नेब्युला (जहां नए तारों का निर्माण होता है) की खोज, अंतरिक्ष में 60 कार्बन परमाणुओं से बनी त्रि-आयामी और गोलाकार संरचनाओं यानी बकीबॉल्स की खोज, निहारिकाओं के विशाल समूहों की खोज, हमारी आकाशगंगा (मिल्की-वे) का सबसे विस्तृत मानचित्रण आदि स्पिट्ज़र टेलीस्कोप की प्रमुख उपलब्धियों में शामिल हैं।

स्पिट्ज़र को ठंडा रखने के लिए तरल हीलियम बेहद ज़रूरी था, लेकिन 15 मई 2009 को इसका तरल हीलियम का टैंक खाली हो गया। वर्तमान में इसके ज़्यादातर उपकरण खराब हो चुके हैं। अलबत्ता, इसके दो कैमरे अभी भी काम कर रहे हैं और स्पिट्ज़र सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। नासा ने स्पिट्ज़र मिशन की हालिया समीक्षा की और पाया कि इसके कैमरे अभी भी काम कर रहे हैं। मगर इस टेलीस्कोप को अब संचालन के योग्य नहीं पाया गया, तो इसे रिटायर करने का फैसला लिया। नासा डीप स्पेस नेटवर्क के जरिए प्राप्त स्पिट्ज़र के सभी आंकड़ों के विश्लेषण में लगा हुआ है।

नासा में खगोल भौतिकी विभाग के निदेशक पॉल हर्ट्ज़ कहना है कि “अच्छा होगा अगर हमारे सभी टेलीस्कोप हमेशा के लिए कार्य करने में सक्षम होते, लेकिन यह संभव नहीं है। 16 साल से अधिक समय तक स्पिट्ज़र ने खगोलविदों को अपनी सीमाओं से आगे बढ़कर अंतरिक्ष में काम करने का मौका दिया।” कुल मिलाकर, स्पिट्ज़र ने अपने 140 करोड़ डॉलर के मिशन के तहत 8 लाख आकाशीय लक्ष्यों की छानबीन की।

बहरहाल, ब्राहृांड की गहराइयों में झांकने के लिए और खोजों के इस सिलसिले को जारी रखने के लिए स्पिट्ज़र की जगह लेने को तैयार है लंबे समय से प्रतीक्षित इसका उत्तराधिकारी बेहद शक्तिशाली ‘जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप’। हालांकि जेम्स वेब और स्पिट्ज़र की कार्यप्रणाली में ज़मीन-आसमान का अंतर होगा, मगर जेम्स वेब भी स्पिट्ज़र की भांति इन्फ्रारेड की खिड़की का इस्तेमाल करके ब्राहृांड के अध्ययन में सक्षम होगा। अलविदा स्पिट्ज़र! (स्रोत फीचर्स)

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क्यों करती है व्हेल हज़ारों किलोमीटर का प्रवास

वैज्ञानिकों को समझ नहीं आता था कि तमाम किस्म की व्हेल – हम्पबैक, ब्लू व्हेल, स्पर्म व्हेल और किलर व्हेल – हर साल हज़ारों किलोमीटर की प्रवास यात्राएं क्यों करती हैं। ये व्हेल आर्कटिक और अंटार्कटिक के अपने सामान्य भोजन स्थल से कई हज़ार कि.मी. दूर गर्म समुद्रों में प्रवास करती हैं। आने-जाने में यह यात्रा करीब 18,000 कि.मी. की होती है।

पहले कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि शायद ये व्हेल प्रजनन हेतु प्रवास करती हैं। उनका कहना था कि आर्कटिक और अंटार्कटिक में कई शिकारी पाए जाते हैं, जिसकी वजह से यहां बच्चे पैदा करना खतरे से खाली नहीं है। लेकिन इनके प्रवास के सही कारण का पता करने हेतु हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चला है कि ये व्हेल प्रजनन हेतु नहीं बल्कि अपनी त्वचा को स्वस्थ रखने हेतु प्रवास करती हैं।

ओरेगन विश्वविद्यालय के मरीन मैमल्स इंस्टिट्यूट के रॉबर्ट पिटमैन और उनके साथियों ने चार किस्म की किलर व्हेल पर 62 उपग्रह बिल्ले चस्पा कर दिए जिनकी मदद से वे इनकी गतिविधियों पर नज़र रख सकते थे। दक्षिणी गोलार्ध की 8 गर्मियों तक नज़र रखने के बाद शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि ये व्हेल पश्चिमी दक्षिण अटलांटिक महासागर तक 9400 कि.मी. की यात्रा करती हैं। लेकिन वे यह यात्रा प्रजनन के लिए नहीं करतीं क्योंकि तस्वीरों में साफ दिख रहा था कि उनके नवजात शिशु तो अंटार्कटिक महासागर में अठखेलियां कर रहे थे। यानी प्रजनन हेतु प्रवास की परिकल्पना सही नहीं है।

शोधकर्ता जानते थे कि मनुष्यों के समान व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं भी लगातार झड़ती रहती हैं। यह झड़ना इतना अधिक होता है कि आप सिर्फ झड़ी हुई कोशिकाओं की लकीर देखकर पता कर सकते हैं कि व्हेल किस ओर गई है। लेकिन व्हेल के सामान्य निवास अंटार्कटिक का पानी बहुत ठंडा होता है जिसकी वजह से शायद व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं झड़ नहीं पाती हैं। इन कोशिकाओं पर डायटम नामक सूक्ष्मजीवों की मोटी परत बन जाती है जहां बैक्टीरिया वगैरह घर बना लेते हैं। यह व्हेल के लिए हानिकारक होता है। पिटमैन का कहना है कि व्हेल इतनी लंबी यात्रा गर्म समुद्रों में कोशिकाओं की इस परत और बैक्टीरिया से छुटकारा पाने के लिए करती हैं। वैसे कुछ शोधकर्ताओं ने 2012 में सुझाया था कि अंटार्कटिक के ठंडे पानी में शरीर की गर्मी को बचाने के लिए किलर व्हेल खून का प्रवाह चमड़ी से थोड़ा दूर अंदर की ओर कर देती हैं। इसकी वजह से त्वचा की कोशिकाओं का पुनर्निर्माण रुक-सा जाता है। इसी वजह से अंतत: व्हेल गर्म पानी की ओर चल पड़ती हैं जहां उनकी शरीर क्रियाएं और त्वचा का झड़ना और पुनर्निर्माण तेज़ हो जाता है। मरीन मैमल साइन्स में प्रकाशित नए अध्ययन के आधार पर सुझाया गया है कि सिर्फ किलर व्हेल ही नहीं बल्कि तमाम किस्म की व्हेल त्वचा-मोचन के लिए यात्रा करती हैं। वैसे देखा जाए तो यह भी अभी एक परिकल्पना ही है। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे बड़े भाषा डैटाबेस तक पहुंच हुई महंगी

थनोलॉग पूरे विश्व की भाषाओं के बारे में जानकारी उपलब्ध कराने वाला एक विशाल ऑनलाइन डैटाबेस है। इसमें ऐसी तमाम जानकारी उपलब्ध है जैसे विश्व में कितनी भाषाएं हैं, किसी भाषा (हिब्रू से लेकर हौसा और हाक्का तक) को दुनिया में कितने लोग बोलते हैं या किसी भाषा के विलुप्त होने की संभावना कितनी है (1 से 10 के पैमाने पर)। यह भाषाविदों के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन रहा है। लेकिन कुछ समय पहले इस संसाधन तक शोधकर्ताओं की पहुंच महंगी कर दी गई है। 

दरअसल एथनोलॉग को लंबे समय तक समर इंस्टीट्यूट ऑफ लिंग्विस्टिक्स (SIL) ने संचालित किया। लेकिन 2015 में जब SIL की फंडिंग खत्म होने लगी तब एथनोलॉग के संचालक गैरी साइमन्स को इसके संचालन के ढंग को बदलने की ज़रूरत महसूस हुई। एथनोलॉग को चलाने में सालाना लगभग दस लाख डॉलर का खर्च आता है। इसलिए 2015 के अंत में पहली बार एथनोलॉग के उपयोगकर्ताओं से सदस्यता शुल्क लेना शुरू किया गया। यह शुल्क अब बढ़कर 480 डॉलर से शुरू होता है।

इस पर मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर दी साइंस ऑफ ह्युमन हिस्ट्री के भाषाविद साइमन ग्रीनहिल कहना है कि पिछले कुछ सालों में एथनोलॉग तेज़ी से महंगा हुआ है और इस पर पहुंच भी बाधित हुई है, जो बहुत दुखद है। उनका कहना है कि शोधकर्ता अब अन्य सस्ते या मुफ्त विकल्प खोज रहे हैं। उन्होंने खुद अपने अध्ययन, भूगोल भाषा की विविधता को कैसे प्रभावित करता है, के लिए एथनोलॉग के पुराने डैटा का उपयोग किया जिसके लिए वे पहले भुगतान कर चुके थे, क्योंकि ताज़ा डैटा हासिल करने में कई हज़ार डॉलर का शुल्क आता।

साइमन्स समझते हैं कि भाषाविद क्यों परेशान हैं। लेकिन उनका कहना है कि आर्थिक हालात बदलने तक वे शुल्क में राहत नहीं दे सकते। 2013 के बाद से साइमन्स और SIL के मुख्य नवाचार विकास अधिकारी स्टीफन मोइतोजो एथनोलॉग को विकसित करने और इसे आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

मोइतोजो का कहना है कि उन्हें लगता था कि एथनोलॉग का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग अकादमिक शोधकर्ता हैं लेकिन वेबलॉग ट्रैफिक के अनुसार एथनोलॉग का उपयोग करने वालों में सिर्फ 26 प्रतिशत ही अकादमिक शोधकर्ता हैं। अन्य उपयोगकर्ताओं में हाई स्कूल छात्रों और सलाहकारों के अलावा, अदालतों, अस्पतालों और आप्रवास कार्यालयों के लिए दुभाषिया तलाशने वाले हैं। बहुत सारे संगठन अपने दैनिक कार्य के लिए एथनोलॉग पर निर्भर हैं।

साइमन्स स्वतंत्र शोधकर्ताओं और जिन छात्रों के संस्थानों के पास एथनोलॉग की सदस्यता नहीं है, उनके लिए बेहतर विकल्प लाने की उम्मीद रखते हैं। वे सोचते हैं कि अगर हम इसे इस तरह बना पाए कि जिन लोगों का काम वास्तव में एथनोलॉग पर निर्भर है वे इसकी वाजिब सदस्यता लें, तब उन लोगों के बारे में सोच सकते हैं जो यह शुल्क वहन नहीं कर सकते। (स्रोत फीचर्स)

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