एक
ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार चीन में तीन शिशुओं में जन्म से पहले कोरोनावायरस के
संक्रमण की आशंका जताई गई है। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि यह परिणाम
अनिर्णायक हैं और गर्भावस्था के दौरान इस वायरस के मां से बच्चे में संक्रमित होने
के कोई पुख्ता सबूत नहीं है।
एक
अन्य रिपोर्ट में वुहान युनिवर्सिटी के डॉक्टर कोविड-19 से संक्रमित महिला के बारे में बताते हैं
जिसने सीज़ेरियन सेक्शन से एक बच्ची को जन्म दिया था। जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल
एसोसिएशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रसव के दौरान महिला ने एन95 मास्क पहना था और
जन्म के पश्चात शिशु को मां से अलग रखा गया था। नवजात को तुरंत क्वारेंटाइन में
रखा गया लेकिन उसमें कोविड-19 संक्रमण का कोई लक्षण नहीं दिखा।
जन्म
के दो घंटे पश्चात किए गए परीक्षण से पता चला कि नवजात में SARS-CoV-2 के विरुद्ध दो
प्रकार की एंटीबॉडी, IgG और IgM,
का स्तर अधिक पाया था। गौरतलब है कि IgG एंटीबॉडी तो शिशु को गर्भावस्था में मां
से प्राप्त होती है जबकि IgM
एंटीबॉडी गर्भनाल को पार करने में सक्षम नहीं होती है। रिपोर्ट के मुताबिक नवजात
में IgM एंटीबॉडी का होना
भ्रूण में इस संक्रमण को दर्शाता है। इसके अलावा, नवजात
में श्वेत रक्त कोशिकाओं के प्रतिरक्षा प्रणाली रसायन,
साइटोकाइंस, के स्तर में भी
वृद्धि पाई गई जो संक्रमण का द्योतक हो सकता है। एक अन्य अध्ययन में ज़्होंगनान
अस्पताल के डॉक्टरों ने SARS-CoV-2 की एंटीबॉडी का पता लगाने के लिए 6 नवजात के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया।
उन्हें 5 नमूनों
में IgG का उच्च स्तर
प्राप्त हुआ जबकि 2 नमूनों
में IgM का उच्च स्तर देखा
गया। दिलचस्प बात यह रही कि सभी नवजात में SARS-CoV-2 टेस्ट निगेटिव था। ऐसे में यह बता पाना
मुश्किल है कि यह नवजात वायरस से संक्रमित थे या नहीं।
ऐसी
आशंका जताई जा रही है कि एंटीबॉडी के बढ़े हुए स्तर का कारण माताओं के प्लेसेंटा का
क्षतिग्रस्त या असामान्य होना हो सकता है, जिससे
IgM प्लेसेंटा से
गुज़रकर शिशुओं में पहुंच गया हो। गौरतलब है कि IgM परीक्षण फाल्स पॉज़िटिव और फाल्स नेगेटिव
परिणाम भी दे सकते हैं।
इसके अलावा, लंदन में एक SARS-CoV-2 संक्रमित महिला के नवजात में भी इस वायरस के पॉज़िटिव परिणाम देखे गए। हालांकि इस मामले में भी स्पष्ट नहीं है कि यह वायरस नवजात में जन्म लेने से पहले आया या उसके बाद। कोविड-19 से संक्रमित नौ गर्भवती महिलाओं पर किए गए प्रारंभिक अध्ययन में SARS-CoV-2 का कोई सबूत नहीं मिला है जिससे यह कहा जा सके कि यह मां से बच्चे में पहुंचा है।(स्रोत फीचर्स)
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नए
कोरोनावायरस ने दुनिया भर में लाखों लोगों को संक्रमित कर दिया है। सबसे अच्छा तो
यही होगा सामाजिक फासला सुनिश्चित करके स्वयं को और अपने परिजनों को इसके संक्रमण
से बचाए रखें। लेकिन यदि आपके परिवार या घर में किसी को इस वायरस का संक्रमण हो
जाए तो क्या करें।
यदि
ऐसा व्यक्ति उन लोगों में से नहीं है जिन्हें अनिवार्य रूप से अस्पताल में भर्ती
करना चाहिए तो आपको घर पर ही उसकी देखभाल करनी होगी और अन्य लोगों को सुरक्षित भी
रखना होगा। यानी आपको उस व्यक्ति को अलग-थलग करना होगा लेकिन साथ ही यह भी ध्यान
देना होगा कि उसे भरपूर मात्रा में तरल पदार्थ मिलते रहें और तकलीफ कम से कम हो।
यदि
आपके घर में कोई ऐसा व्यक्ति है जिसमें कोविड-19 के लक्षण दिख रहे हों – जैसे बुखार,
सूखी खांसी, सांस लेने में
दिक्कत. मांसपेशियों
में दर्द, थकान और दस्त – तो किसी स्वास्थ्य
केंद्र, अस्पताल या
स्वास्थ्य कर्मी से संपर्क करें। हो सकता है कि वे आपको परीक्षण करवाने की सलाह
दें। लेकिन ऐसे परीक्षण फिलहाल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं,
इसलिए स्वास्थ्य कर्मी शायद आपको घर पर ही मरीज़ को अलग-थलग यानी आइसोलेट
करने का परामर्श देंगे।
अच्छी
बात है कि कोविड-19 के
अधिकांश मामले गंभीर नहीं होते अर्थात अधिकांश लोग बगैर किसी उपचार के ठीक हो जाते
हैं। लेकिन ये मरीज़ भी अन्य लोगों को संक्रमित कर सकते हैं।
ज़रूरत
तो इस बात की होगी कि मरीज़ को एक अलग, हवादार
कमरे में रखा जाए। संभव हो, तो मरीज़ के लिए
बाथरूम भी अलग हो। मरीज़ के लिए तौलिया, चादरें,
कप-प्लेट
वगैरह भी अलग होना चाहिए और इन्हें नियमित रूप से साफ करना ज़रूरी है।
देखभाल
करने वाले लोगों को नाक, मुंह वगैरह को मास्क
से ढंककर रखना चाहिए और दस्ताने पहनना चाहिए। दस्ताने हटाने के तुरंत बाद हाथों को
साबुन-पानी
से कम से कम 20 सेकंड
तक अच्छी तरह धोना चाहिए। वैसे भी हाथों से चेहरे को छूने से बचना चाहिए। चेहरे के
लिए मास्क का उपयोग तो लगातार करना बेहतर है, खास
तौर से जब आप मरीज़ के कमरे में हैं। मरीज़ को भी लगातार मास्क लगाए रखें।
यदि
आप मरीज़ के टट्टी, पेशाब वगैरह को छूते
हैं तो दस्ताने व मास्क पहनकर करें और काम समाप्त होते ही पहले दस्ताने निकालकर
फेंक दें, हाथों को अच्छी तरह
साफ करें, उसके बाद चेहरे के
मास्क को हटाएं और एक बार फिर से हाथ धोएं। याद रखें कि जिन सतहों को बार-बार छूना पड़ता है,
जैसे दरवाज़े के हैंडल, नल
वगैरह, उन्हें भी अच्छी तरह
साफ करें।
यह
ध्यान देना ज़रूरी होता है कि मरीज़ की हालत कब गंभीर रूप ले रही है। यदि मरीज़ को
सांस लेने में दिक्कत होने लगे, या बुखार तेज़ हो जाए,
सीने में दर्द हो, गफलत
होने लगे या होंठ नीले पड़ने लगें तो तुरंत चिकित्सक को दिखाएं या अस्पताल ले जाएं।
कोविड-19 का कोई इलाज तो नहीं
है लेकिन अस्पताल मरीज़ को इन पेचीदगियों से बचने में मदद कर सकते हैं। जैसे मरीज़
को सांस की दिक्कत से छुटकारा दिलाने के लिए ऑक्सीजन दी जा सकती है। मरीज़ को
स्वस्थ होने में मदद के लिए उसे खूब आराम और तरल पदार्थों की ज़रूरत होती है। यदि
बुखार तेज़ हो तो बुखार कम करने की दवा दी जा सकती है।
यदि दवा के बगैर भी मरीज़ का बुखार लगातार 72 घंटे तक न बढ़े और यदि सांस फूलने के लक्षण में सुधार हो और पहली बार लक्षण प्रकट होने के बाद सात दिन बीत चुके हों, तो डॉक्टर की सलाह से आइसोलेशन समाप्त किया जा सकता है। लेकिन उससे पहले कोविड-19 का टेस्ट करवा लेना होगा।(स्रोत फीचर्स)
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जैसे-जैसे नए कोरोनोवायरस
का प्रकोप दुनिया में फैल रहा है, लोगों को हिदायत दी
जा रही है कि वे एक-दूसरे
से कम-से-कम 6 फीट दूर रहें,
अपने हाथों को धोते रहें और अपने चेहरे को छूने से बचें। और
लोग इन हिदायतों का पालन करने की कोशिश भी कर रहे हैं।
लेकिन
नाक-आंख
वगैरह में होने वाली खुजली नज़रअंदाज करने की हिदायत देना आसान है,
नज़रअंदाज़ करना नहीं। यहां तक हिदायत देने वाले भी इसके आवेग
में अपने को रोक नहीं पाते। 2015 में, अमेरिकन जर्नल ऑफ
इंफेक्शन कंट्रोल में
प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक संक्रामक रोग की रोकथाम के लिए प्रशिक्षित मेडिकल
स्कूल के छात्रों ने एक व्याख्यान के दौरान एक घंटे में 23 बार अपने चेहरे को छुआ।
तो
सवाल यह उठता है कि खुद को अपना चेहरा छूने से रोकना इतना मुश्किल क्यों है?
लोग अक्सर दांतों की सफाई, बालों
को संवारने, मेक-अप करने जैसे कामों
के चलते अपना चेहरा छूते रहते हैं। दिनचर्या में शामिल चेहरा छूने की ये आदतें फिर
आपको निरुद्देश्य ढंग से चेहरा छूने को प्रेरित करती हैं,
जैसे आंखों को मसलना।
यह
प्रवृत्ति सिर्फ आदत की बात भी नहीं है। केनटकी सेंटर फॉर एन्गज़ाइटी एंड रिलेटेड
डिसऑर्डर्स के संस्थापक-निदेशक
और मनौवैज्ञानिक केविन चैपमैन लाइव साइंस में बताते हैं कि “यह इस बात को
सुनिश्चित करने की आदत है कि हम सार्वजनिक तौर पर कैसे दिख रहे हैं।” उदाहरण के लिए,
मुंह के आसपास भोजन के अंश लगे होना यह दर्शा सकता है कोई
व्यक्ति गंदा है या वह अपनी प्रस्तुति का ध्यान नहीं रखता है। अपने चेहरे को छूकर
लोग खुद को संवार सकते हैं और यह भी दर्शा सकते हैं कि वे स्वयं के प्रति जागरूक
हैं।
हालांकि
चेहरे को छूना कई लोगों में एक बुरी आदत बन जाती है जो चिंताग्रस्त लोगों में और
भी बुरी साबित हो सकती है। चैपमैन कहते हैं कि उच्च स्तर के न्यूरोटिज़्म वाले लोग
तनाव को कम करने के लिए दोहराव वाले व्यवहार करते हैं। जैसे नाखून चबाना या बालों
में हाथ फेरना वगैरह। यह व्यक्ति के जीवन को प्रभावित कर सकता है,
जैसे हो सकता है इसकी वजह से उसे अन्य लोगों के साथ जुड़ाव
बनाने में दिक्कत हो या वह शक्तिहीन या लज्जित महसूस करे। ब्रेन रिसर्च में
प्रकाशित एक छोटे नमूने पर किए गए अध्ययन के मुताबिक,
कम गंभीर स्तर पर, लोग
तनाव के समय में खुद को शांत रखने के लिए अपने चेहरे को छूते हैं।
रोग
नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) के अनुसार, नए कोरोनावायरस से
संक्रमित होने का मुख्य कारण चेहरा छूना नहीं है। फिर भी,
सीडीसी नाक, मुंह या आंखों को ना
छूने की सलाह देता है क्योंकि यह वायरस इस तरह से फैलता है। और यदि आपने किसी
संक्रमित या दूषित सतह को छुआ है तो हाथों को साबुन और पानी से धोना या हैंड
सैनिटाइज़र का उपयोग करना कदापि ना भूलें।
चैपमैन बताते हैं कि जब लोग अपना चेहरा ना छूने के लिए सतर्क होते हैं तो संभावना होती है कि वे सामान्य से अधिक बार अपना चेहरा छू लें। जैसे किसी व्यक्ति को गुलाबी हाथी के बारे में ना सोचने को कहा जाए और वह तुरंत ही गुलाबी हाथी के बारे में सोचने लगता है। इस आदत को छोड़ने के लिए यह सोचें कि आप कब-कब अपना चेहरा छूते हैं, लेकिन यदि आप अपने आपको चेहरा छूते हुए पाएं तो खुद को इसकी सज़ा ना दें।(स्रोत फीचर्स)
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दुनिया
की आबादी का एक बड़ा हिस्सा फिलवक्त कोविड-19 से बुरी तरह से जूझ रहा है। डॉक्टर,
नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी कोरोना संक्रमित मरीज़ों के
इलाज और देखभाल में जी-जान
से लगे हुए हैं। समूची मानवजाति के ऊपर आई इस संकट की घड़ी में अब रोबोट भी इंसान
के मददगार बन रहे हैं। उन्हें इस खतरनाक बीमारी से उबरने में मदद कर रहे हैं।
राजस्थान
में जयपुर स्थित एसएमएस हॉस्पिटल में कोरोना संक्रमित मरीज़ों की सेवा के लिए तीन
रोबोट की ड्यूटी लगाई गई है। ये रोबोट कोरोना संक्रमित व्यक्तियों तक दवा,
पानी व दीगर ज़रूरी सामान ले जाने का काम करेंगे। रोबोट की
ड्यूटी यहां लगाए जाने से कोरोना पीड़ितों के आसपास मेडिकल स्टाफ का मूवमेंट कम हो
जाएगा। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हॉस्पिटल में
इंसानों की वजह से कोविड-19 वायरस
के प्रसार की जो संभावना रहती है, वह काफी कम हो
जाएगी। मरीज़ के संपर्क में न आ पाने से बाकी लोगों में संक्रमण नहीं फैलेगा,
वे सुरक्षित रहेंगे। ज़ाहिर है,
जब डॉक्टर, नर्स और तमाम
स्वास्थ्य कर्मचारी सुरक्षित रहेंगे, तो
वे अपना काम और भी बेहतर तरीके से कर सकेंगे। देखा जाए तो यह एक छोटी-सी शुरुआत ही है।
देश भर के बाकी अस्पतालों में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी अपने स्वास्थ्य और जान की
ज़रा-सी
भी परवाह किए बिना मुस्तैदी से अपने फर्ज़ को अंजाम देने में लगे हुए हैं।
‘रोबोट सोना 2.5’ नामक ये रोबोट पूरी
तरह भारतीय तकनीक और मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के तहत जयपुर में ही बनाए गए हैं।
युवा रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने इन्हें तैयार किया है। सबसे बड़ी खासियत यह है कि ‘सोना 2.5’ रोबोट लाइन फॉलोअर
नहीं हैं बल्कि ऑटो नेविगेशन रोबोट हैं। यानी इन्हें मूव कराने के लिए किसी भी तरह
की लाइन बनाने की ज़रूरत नहीं होती है। इंसानों की तरह ये रोबोट सेंसर की मदद से
खुद नेविगेट करते हुए अपना रास्ता बनाते हैं और लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। इन्हें
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, आईओटी और एसएलएएम
तकनीक का शानदार इस्तेमाल करके तैयार किया गया है।
सर्वर
के कमांड मिलने पर ये रोबोट सबसे पहले अपने लिए एक छोटे रास्ते का मैप क्रिएट करते
हैं। अच्छी बात यह है कि ये किसी भी फर्श या फ्लोर पर आसानी से मूव कर सकते हैं।
इन्हें वाई-फाई
सर्वर के ज़रिए लैपटॉप या स्मार्ट फोन से भी ऑपरेट किया जा सकता है। ऑटो नेविगेशन
होने से इन्हें अंधेरे में भी मूव कराया जा सकता है।
एक
खूबी और है कि इनमें ऑटो डॉकिंग प्रोग्रामिंग की गई है,
जिससे बैटरी डिस्चार्ज होने से पहले ही ये खुद चार्जिंग
पॉइंट पर जाकर ऑटो चार्ज हो जाएंगे। एक बार चार्ज होने पर ये सात घंटे तक काम कर
सकते हैं और इन्हें चार्ज होने में तीन घंटे का समय लगता है। यानी इन रोबोट में वे
सारी खूबियां हैं, जिनके दम पर ये अपना
काम बिना रुके, बदस्तूर करते
रहेंगे। विज्ञान और वैज्ञानिकों का मानवजाति के लिए यह वाकई एक चमत्कारिक उपहार है
जिसे नमस्कार किया जाना चाहिए।
अकेले
राजस्थान में ही नहीं, केरल में भी यह
अभिनव प्रयोग शुरू किया जा रहा है। कोच्चि की ऐसी ही स्टार्टअप कंपनी ने अस्पतालों
के लिए एक खास रोबोट तैयार किया है जो मेडिकल स्टाफ की मदद करेगा। तीन चक्कों वाला
यह रोबोट खाना और दवाइयां पहुंचाने के काम आएगा। यह पूरे अस्पताल में आसानी से घूम
सकता है। इसे सात लोगों ने मिलकर महज 15 दिनों के अंदर तैयार किया है। इसी तरह की पहल नोएडा के
फेलिक्स अस्पताल ने भी की है।
डॉक्टरों
एवं मेडिकल स्टाफ को कोविड-19 जैसे घातक वायरस से बचाने के लिए रोबोट का इस्तेमाल होगा।
कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों के बीच दुनिया भर के अस्पताल काम के बोझ से दबे हुए
हैं। मरीज़ों का इलाज और देखभाल करते हुए डॉक्टरों को ज़रा-सी भी फुर्सत नहीं मिल रही है। मरीज़ों की
तादाद रोज़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा मेडिकल स्टाफ की ज़रूरत है।
इसी
तरह की परेशानियों के मद्देनजर आयरलैंड के एक अस्पताल में भी रोबोट्स को काम पर
लगाने का फैसला किया गया है। डबलिन के मेटर मिजरिकॉरडी यूनिवर्सिटी अस्पताल में
रोबोट्स प्रशासनिक और कंप्यूटर का काम कर रहे हैं, जो
आम तौर पर नर्सों के ज़िम्मे होता है। ये रोबोट कोविड-19 से जुड़े नतीजों का विश्लेषण भी कर रहे हैं।
इन रोबोट को बनाने वाले एक्सपर्ट्स अपने काम से अभी संतुष्ट नहीं हैं। वे कोशिश कर
रहे हैं कि ये रोबोट डिसइन्फेक्शन करने, टेंपरेचर
नापने और सैंपल कलेक्ट करने का काम भी कुशलता से कर सकें।
मानव
जैसी स्पाइन टेक्नॉलॉजी वाले दुनिया के पहले रोबोट का सबसे पहले इस्तेमाल,
उत्तर प्रदेश के रायबरेली स्थित रेल कोच फैक्टरी में पिछले
साल 18 नवंबर
को किया गया था। ‘सोना
1.5’ नामक
इस स्वदेशी ह्यूमनॉयड रोबोट का निर्माण भी रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने
किया है। इस रोबोट का इस्तेमाल दस्तावेज़ों को एक स्थान से दूसरी जगह ला-ले जाने,
विज़िटर्स का स्वागत करने, टेक्निकल
डिस्कशन और ट्रेनिंग में हो रहा है।
दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा रहा है, जिनमें बार-बार एक-सी क्रियाएं करनी होती हैं। इस तरह के कामों में वे पूरी तरह से कारगर साबित होते हैं। निकट भविष्य में इसरो अपने महत्त्वाकांक्षी मिशन ‘गगनयान’ के लिए भी एक रोबोट ‘व्योम मित्र’ भेजेगा। देखना है कि रोबोट कैसे हमसफर साबित होते हैं(स्रोत फीचर्स)
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मनुष्यों
में मृतकों के अंतिम संस्कार की प्रथाओं से तो हम अच्छी तरह से परिचित हैं लेकिन
एक ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि श्रमिक मधुमक्खियों में एक ऐसा वर्ग होता है जो
अपने मृत साथियों का अंतिम संस्कार करता है। दिलचस्प बात है कि ये अपने मृत
साथियों को अंधेरे में भी ढूंढ लेते हैं – 30 मिनट से ही कम समय में।
इसको
समझने के लिए चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंस के ज़ीशुआंग बन्ना ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन
के वेन पिंग ने सोचा कि शायद एक विशिष्ट गंध-अणु होता होगा जो शहीद मधुमक्खियों को
खोजने में मदद करता होगा। दरअसल चींटियां, मधुमक्खियां
और अन्य कीट क्यूटीक्यूलर हाइड्रोकार्बन (सीएचसी) नामक यौगिकों से ढंके होते हैं। यह मोमी
परत इन जीवों की त्वचा को सूखने से बचाती है। जीवित कीट में ये पदार्थ हवा में
लगातार छोड़े जाते हैं। इन्हीं की मदद से छत्ते के सदस्यों की पहचान की जाती
है।
वेन
ने अनुमान लगाया कि मरने के बाद जब उनके शरीर का तापमान कम हो जाता है,
तब मधुमक्खियां हवा में काफी कम मात्रा में फेरोमोन छोड़ती
होंगी। जब रासायनिक तरीकों से परीक्षण किया गया तो पता चला कि मृत,
कम तापमान वाली मधुमक्खियां अपने जीवित साथियों की तुलना
में कम सीएचसी का उत्सर्जन करती हैं।
अब
अगला प्रयोग यह जानना था कि क्या गंध में परिवर्तन को जीवित मधुमक्खियां जान पाती
हैं। इसके लिए वेन ने एशियाई मधुमक्खी (Apiscerana) के पांच छत्तों का अध्ययन किया। वेन ने
पाया कि जब सामान्य मृत ठंडी पड़ चुकी मधुमक्खियों को रखा गया तब श्रमिक
मधुमक्खियों ने 30 मिनट
से भी कम समय में उन्हें वहां से हटा दिया। लेकिन जब उन्होंने मृत मधुमक्खियों के
शरीर को गर्म करना शुरू किया तब श्रमिक मधुमक्खियों को अपने मृत साथियों को ढूंढने
में घंटो लग गए। बायोआर्काइव्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ऐसा शायद
इसलिए हुआ क्योंकि एक मृत गर्म मक्खी, एक
जीवित मक्खी के लगभग बराबर सीएचसी का उत्सर्जन करती है।
अपने इस अध्ययन को और पक्का करने के लिए वेन ने मृत मधुमक्खियों का सीएचसी हेक्सेन से साफ कर दिया जिससे उनकी त्वचा पर मौजूद तेल और मोम को हटाया जा सके। इसके बाद उन्होंने इन मक्खियों को उनके जीवित साथियों के तापमान तक गर्म किया और उन्हें वापस छत्ते में रख दिया। उन्होंने पाया कि अंतिम संस्कार करने वाली श्रमिक मधुमक्खियों ने आधे घंटे के अंदर इस तरह साफ किए गए अपने 90 प्रतिशत मृत साथियों को वहां से हटा दिया। इससे मालूम चलता है कि न केवल तापमान बल्कि सीएचसी की अनुपस्थिति भी मृतक की पहचान में उपयोगी होती है।(स्रोत फीचर्स)
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पिछले
हाल के समय में हिमालय क्षेत्र में हाईवे निर्माण व हाईवे को चौड़ा करने में हज़ारों
करोड़ रुपए का निवेश हुआ है, पर क्रियान्वयन में
कमियों, उचित नियोजन के अभाव
व आसपास के गांववासियों से पर्याप्त विमर्श न करने के कारण खुशहाली के स्थान पर
गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। अत: बहुत ज़रूरी है कि इन गलतियों को सुधारने के लिए असरदार
कार्रवाई की जाए ताकि विकास-मार्गों को विनाश मार्ग बनने से रोका जा सके।
इस
संदर्भ में दो सबसे चर्चित परियोजनाएं हैं उत्तराखंड की चार धाम परियोजना व हिमाचल
प्रदेश की परवानू-सोलन
हाईवे परियोजना। दोनों परियोजनाओं को मिला कर देखा जाए तो हाल के समय में हिमालय
के पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र में लगभग 50,000 पेड़ कट चुके हैं। एक बड़ा पेड़ कटता है तो
उससे आसपास के छोटे पेड़ों को भी क्षति पहुंचती है।
इन
दोनों परियोजनाओं के कारण अनेक नए भूस्खलन क्षेत्र उभरे हैं व पुराने भूस्खलन
क्षेत्र अधिक सक्रिय हो गए हैं। इस कारण यात्रियों को अधिक खतरे व परेशानियां
झेलनी पड़ रही हैं जबकि गांववासियों के लिए अधिक स्थायी संकट उत्पन्न हो गया है।
कुछ गांवों व बस्तियों का तो अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। परवानू-सोलन हाईवे के
किनारे बसे गांव मंगोती नंदे का थाड़ा गांव के लोगों ने बताया कि हाईवे के कार्य
में पहाड़ों को जिस तरह अस्त-व्यस्त किया है उससे उनका गांव ही संकटग्रस्त हो गया है।
सरकार को चाहिए कि उन्हें कहीं और सुरक्षित व अनुकूल स्थान पर बसा दे।
इसी
हाईवे पर सनवारा, हार्डिग कालोनी व
कुमारहट्टी के पास के कुछ स्थानों की स्थिति भी चिंताजनक हुई है। कुछ किसानों ने
बताया कि हाईवे चौड़ा करने के पहले उनसे जो भूमि ली गई उसका तो मुआवज़ा तो मिल गया
था पर हाईवे कार्य के दौरान जो भयंकर क्षति हुई उसका मुआवज़ा नहीं के बराबर मिला।
अनेक छोटे दुकानदारों को हटा दिया गया है।
इसी
तरह चार धाम परियोजना में भी अनेक किसानों व दुकानदारों की बहुत क्षति हुई है व कई
अन्य इससे आशंकित हैं। इस परियोजना से जुड़ा सबसे बड़ा संकट तो यह है कि इससे किसी
बड़ी आपदा की संभावना बढ़ रही है। इस परियोजना के क्रियान्वयन के दौरान बहुत बड़ी
मात्रा में मलबा नदियों में डाला गया है व इस कारण किसी भीषण बाढ़ की संभावना बढ़ गई
है।
इन
दोनों परियोजनाओं में अनेक सावधानियों की उपेक्षा की गई है। कमज़ोर संरचना के
संवेदनशील पर्वतों में भारी मशीनों से बहुत अनावश्यक छेड़छाड़ की गई। स्थानीय लोग
बताते हैं कि पहाड़ों को ध्वस्त किए बिना ट्रैफिक को सुधारना संभव था,
पर इस बात को अनसुनी करके पहाड़ों को भारी मशीनों से गलत ढंग
से काटा गया। स्थानीय लोगों से विमर्श नहीं हुआ। भू-वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों की सलाह की
उपेक्षा हुई। सड़क को ज़रूरत से अधिक चौड़ी करने की ज़िद से भी काफी क्षति हुई जिससे
बचा जा सकता था। लोगों की आजीविका, खेतों,
वृक्षों की किसी भी क्षति को न्यूनतम रखना है,
इस दृष्टि से योजना बनाई ही नहीं गई थी। मज़दूरों की भलाई व
सुरक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। योजनाएं तैयार करने में पर्यटन,
तीर्थ व सुरक्षा की दुहाई दी गई,
पर भूस्खलनों व खतरों की संभावना बढ़ने से इन तीनों
उद्देश्यों की भी क्षति ही हुई है।
अत: समय आ गया है कि अब तक हुई गंभीर गलतियों को हर स्तर पर सुधारने के प्रयास शीघ्र से शीघ्र किए जाएं व हिमालय की अन्य सभी हाईवे परियोजनाओं में भी इन सावधानियों को ध्यान में रखा जाए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.manifestias.com/wp-content/uploads/2019/08/chardham-yatra-road-project.jpg
नेचर
पत्रिका में प्रकाशित शोध के अनुसार हाल ही में शोधकर्ताओं को हिंद महासागर के
नीचे, पृथ्वी की भू-पर्पटी की सबसे निचली परतों में
सूक्ष्मजीवों का एक नया संसार मिला है।
वुड्स
होल ओशिएनोग्राफी इंस्टिट्यूट की समुद्री सूक्ष्मजीव विज्ञानी वर्जीनिया एजकॉम्ब
और उनके दल को समुद्र के नीचे मौजूद पर्वत – अटलांटिस बैंक – की चट्टानों पर बैक्टीरिया,
कवक और आर्किया की कई प्रजातियां मिलीं हैं। ये सूक्ष्मजीव
पृथ्वी की सतह के नीचे सूक्ष्म दरारों और अल्प-पोषण की परिस्थितियों के लिए अनुकूलित हैं।
इन गहराइयों में ये अपना भोजन ऐसे अमीनो एसिड और अन्य कार्बनिक रसायनों से प्राप्त
करते हैं जो समुद्री धाराओं के साथ इतनी गहराई में पहुंच जाते हैं।
वैसे
काफी पहले तक इन कठिन परिस्थितियों में जीवित रहने वाले सूक्ष्मजीवों को जीवन का ‘इन्तहा’ रूप माना जाता था,
लेकिन पिछले कुछ दशकों का अनुसंधान बताता है कि पृथ्वी पर
मौजूद सूक्ष्मजीवों में से लगभग 70 प्रतिशत इसी तरह की कठिन परिस्थितियों में जीवित रहते हैं।
कई अन्य अध्ययन बताते हैं कि ऐसे स्थान, जो
लंबे समय तक जीवन के अनुकूल नहीं माने जाते थे, उन
स्थानों पर भी प्रचुर मात्रा में जीवन मौजूद है। जैसे महासागरों के नीचे गहरी तलछट
में, अंटार्कटिका के ठंडे रेगिस्तान में और ऊपरी
वायुमंडल के समताप मंडल में भी।
इन
स्थानों पर पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव विषम परिस्थितियों की चुनौतियों से निपटने के
लिए विभिन्न तरह से विकसित हुए हैं। जैसे कुछ सूक्ष्मजीव धातुओं से सांस ले सकते
हैं (यहां
तक कि युरेनियम जैसी रेडियोधर्मी धातुओं से भी), कुछ सूक्ष्मजीव हवा
में अत्यल्प गैसों से पोषण लेते हैं और दलदली गहरे समुद्र तल में दबे कुछ
सूक्ष्मजीव तो इतनी धीमी गति से जीवनयापन करते हैं कि वे सैकड़ों-हज़ारों साल तक जीवित
रह पाते हैं; इस दौरान वे बहुत कम
खाते हैं और कम प्रजनन करते हैं।
चूंकि
इन सूक्ष्मजीवों को प्रयोगशाला में कल्चर कर पाना संभव नहीं था इसलिए इनमें से
अधिकांश सूक्ष्मजीवों का अध्ययन नहीं किया जा सकता था। इसके अलावा कई सूक्ष्मजीव
कृत्रिम परिस्थितियों में प्राकृतिक परिस्थितियों से भिन्न व्यवहार करते हैं इसलिए
उनके जीवन सम्बंधी रणनीतियों का अध्ययन करना मुश्किल रहा है। लेकिन मेटाजीनोमिक
तकनीक से सूक्ष्मजीवों की जीन-अभिव्यक्ति को ट्रैक करने में मदद मिली है।
इन
तकनीक की मदद से प्रोटीन, डीएनए की मरम्मत के
लिए कम-ऊर्जा
तकनीकों और ऊर्जा-कुशल
चयापचय रणनीति के लिए ज़िम्मेदार जीन्स की पहचान की गई है। इसके अलावा इनकी मदद से
उन जीन्स का पता भी लगाया गया है जो बैक्टीरिया को कार्बन मोनोऑक्साइड और
हाइड्रोजन जैसी अत्यल्प गैसों पर जीवित रहने के लिए तैयार करते हैं।
ओरेगन स्टेट युनिवर्सिटी के माइक्रोबियल इकोलॉजिस्ट रिक कोलवेल बताते हैं कि इस अध्ययन के नतीजे इस बारे में हमारी समझ को बढ़ाते हैं कि चट्टानों की दरारों में सूक्ष्मजीव कैसे जीवित रहते हैं। इस दिशा में हमें और प्रमाण मिल रहे हैं कि ये सूक्ष्मजीव जिन चीजों पर निर्वाह करते हैं (जैसे ऊर्जा के रुाोत के रूप में हाइड्रोजन), वे जीवन को एक अलग ही आयाम प्रदान करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/945bcd83e68b14d90427edb0f6894fee33b277d5/0_0_1600_900/master/1600.jpg?width=620&quality=85&auto=format&fit=max&s=08e852c40f76af1932d537d588970979
पिछले
छह हफ्तों में कई ऐसे शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं जो जानलेवा कोरोनावायरस (COVID-19) के संक्रमण से
निपटने के चिकित्सकीय उपचार की पेशकश करते हैं। ये प्रयास इस संक्रमण के खिलाफ
सुरक्षात्मक टीका विकसित करने के प्रयासों के अतिरिक्त हैं।
अब
तक हम सब इससे तो वाकिफ हो ही गए हैं कि यह नया कोरोनवायरस (जिसे वैज्ञानिक SARS-CoV-2 भी कहते हैं) दिखता कैसा है। यह गेंद सरीखा गोल है जिसका पूरा शरीर
स्पाइक्स (खूंटों) से ढंका होता है। ये
स्पाइक्स वायरस के कामकाजी सिरे हैं जो ग्लायकोप्रोटीन से बने होते हैं। सीएटल
स्थित एक समूह ने क्रायो-इलेक्ट्रॉन
माइक्रोस्कोपी की मदद से इन स्पाइक-प्रोटीन्स की संरचना का तफसील से अध्ययन करके पता लगाया कि
ये स्पाइक्स वायरस को मेज़बान कोशिका में प्रवेश करने में किस तरह मदद करते हैं।
स्पाइक-प्रोटीन
कोशिका की सतह पर ACE2 (एंजियोटेंसिन-कंवर्टिंग एंज़ाइम-2) नामक एक विशिष्ट एंज़ाइम की पहचान करता है,
इसकी गतिविधि को अवरुद्ध करता है,
मेज़बान कोशिका में प्रवेश करता है और उसे नुकसान पहुंचाता
है।
इतिहास
से सबक
इतिहास
को देखें तो पाते हैं कि नए कोरोनावायरस की यह करतूत वास्तव में ऐतिहासिक है। कई
लोगों ने 1918 में
फैली स्पैनिश फ्लू महामारी के कारण हुई तबाही का अध्ययन किया,
जिसमें लाखों लोगों की मौत हो गई थी। स्पैनिश फ्लू से पीड़ित
लोगों के फेफड़े गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गए थे और वे निमोनिया और एक्यूट
रेस्पिरेटरी सिंड्रोम का शिकार हो गए थे।
एक
बार फिर यही हालात SARS-CoV कोरोनावायरस नामक रोगजनक द्वारा होने वाले
सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS) में भी देखे गए। शोध में पता चला कि ACE2 नामक
एंज़ाइम वायरस के हमले के खिलाफ लड़ता है और इससे होने वाली क्षति से बचाता है। इसी
प्रकार से वर्ष 2012 में
सी. टिकेलिस
और एम.सी. थॉमस द्वारा इंटरनेशनल
जर्नल ऑफ पेप्टाइड में प्रकाशित पर्चे में भी बताया गया था कि ACE2 उच्च
रक्तचाप, मधुमेह और ह्रदय
रोगों में फायदेमंद है। यह स्वास्थ्य और रोग में रेनिन एंजियोटेंसिन सिस्टम का
महत्वपूर्ण नियंत्रक है।
इसीलिए
सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता खास तौर से दुनिया भर के वरिष्ठ नागरिकों और
समस्याओं से पीड़ित लोगों से गुज़ारिश कर रहे हैं वे घर पर ही सुरक्षित रहें।
आणविक–आनुवंशिक आधार
हाल
ही में इन विशिष्ट रोगजनक के लिए वुहान स्थित सीएएस लैब का एक बहुत ही महत्वपूर्ण
शोध पत्र प्रकाशित हुआ है। इसमें नए कोरोनोवायरस का आनुवंशिक अनुक्रम,
ACE2 को निष्क्रिय कर प्रभावित व्यक्ति में प्रवेश करने के तरीके
के बारे में तफसील से बताया गया है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह बताई गई है कि ठीक
हो चुके मरीज़ों के रक्त-सीरम
का उपयोग संक्रमित व्यक्तियों के उपचार में हो सकता है। (यह खास तौर से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि
जब 2006 में
सार्स का प्रकोप हुआ था तब भी यही बताया गया था कि ठीक हो चुके मरीज़ों के सीरम का
उपयोग पीड़ितों के उपचार में करने से यह उनमें इससे विरुद्ध एंटीबॉडी IgG
उपलब्ध करा देता है। इसी आधार पर कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि यह तरीका COVID-19 से निपटने में भी मददगार हो सकता है।
वुहान
लैब के प्रकाशन के समय ही सेल पत्रिका में एक और पेपर प्रकाशित हुआ जिसमें
बताया गया कि नए कोरोनावायरस का कोशिका में प्रवेश, ना
सिर्फ ACE2 पर बल्कि मेज़बान कोशिका के एक और एंजाइम,
TMPRSS2, पर
भी निर्भर करता है। शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि इसे एक ऐसे प्रोटीएज़ अवरोधक
द्वारा अवरुद्ध किया जा सकता है जो चिकित्सकीय रूप से प्रमाणित हो चुका है। यह एक
महत्वपूर्ण नई खबर है क्योंकि हम हमारे इस भयानक शत्रु नए कोरोनोवायरस को हराने के
लिए इसी तरह के अवरोधक रसायनों की तलाश कर सकते हैं।
तो
क्या करें?
हमें
अपने शत्रु पर काबू पाने के चार अलग-अलग तरीके दिखते हैं। सबसे पहला,
जिसे लोगों को करना ही चाहिए, सुरक्षात्मक
सामग्री और तरीके अपनाएं, वायरस के सामुदायिक
फैलाव को रोकें, घर पर रहें और
सुरक्षित रहें; दूसरा,
ठीक हो चुके रोगियों के सीरम का पीड़ितों की रोग प्रतिरोधक
क्षमता को बढ़ाने के लिए उपयोग; तीसरा प्रभावितों के
इलाज के लिए दवाओं की तलाश और चौथा सफल टीका तैयार करना। इनमें समय लगता है लेकिन
उम्मीद है कि कुछ महीने ही लगेंगे, साल नहीं। इसलिए हम
इन सभी तरीकों को अपनाकर इससे निपटने की राह में हैं।
SARS-CoV-2 और COVID-19 के बारे में कुछ शब्द। दो दिन पहले यू.के. के अखबार दी
गार्जियन में बताया गया था कि दुनिया भर की 35 से अधिक कंपनियां इसका टीका तैयार करने की
दौड़ में लगी हैं, इनमें से कम-से-कम 4 कंपनियां अपने टीकों
का परीक्षण जानवरों पर कर चुकी हैं। इनमें से कुछ ने इसके पहले SARS और MERS के
खिलाफ विकसित किए गए टीके में कुछ बदलाव करके COVID-19 के खिलाफ टीका तैयार
किया है। और दो कंपनियां COVID-19 के वाहक RNA पर आधारित वैक्सीन
तैयार कर रही हैं। लेकिन मनुष्यों पर इसके चिकित्सकीय परीक्षण में,
इनकी प्रभावकारिता और दुष्प्रभावों की जांच करने में समय
लगेगा, जो एक वर्ष या उससे
अधिक तक हो सकता है। इसलिए हम इन सभी तरीकों से इससे निपटने का प्रयास करते रहें।
हम अनुभव से जानते हैं कि जहां संकट है, वहां आशा है; जहां आशा है, वहां प्रयास हैं; जहां प्रयास हैं, वहां समाधान हैं; और जहां समाधान हैं, वहां सफलता है।(स्रोत फीचर्स)
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कोरोना
वायरस का प्रकोप थमने का नाम नहीं ले रहा है। यह तो स्पष्ट है कि यह वायरस व्यक्ति
से व्यक्ति में फैलता है। यह भी स्पष्ट है कि खांसी-छींक के साथ निकलने वाली सूक्ष्म बूंदों की
फुहार इस वायरस को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचने में मदद करती हैं।
लिहाज़ा रोकथाम का सबसे प्रमुख उपाय तो यही है कि व्यक्ति आपस में बहुत करीब न आएं।
वैज्ञानिक बताते हैं कि इन बूंदों के माध्यम से यह वायरस 2 मीटर का फासला तय कर सकता है। खांसते-छींकते वक्त मुंह और
नाक को कपड़े वगैरह से ढंकना वायरस के प्रसार को रोकने का कारगर उपाय है।
एक
बात यह भी कही जा रही है कि हाथों को बार-बार साबुन से धोएं और अपने हाथों से मुंह,
नाक व आंखों को छूने से बचें। कारण यह है कि यह वायरस हाथों
पर काफी देर तक सक्रिय अवस्था में रह सकता है।
लेकिन
आम लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब यह हाथों पर टिका रह सकता है,
तो क्या अन्य सतहों (जैसे मेज़, बर्तन,
दरवाज़ों के हैंडल, किचन
प्लेटफॉर्म, टॉयलेट सीट वगैरह) पर भी बना रह सकता
है? और यदि ऐसा है तो ये चीज़ें कितने समय के
लिए वायरस की वाहक होंगी।
मुख्तसर
जवाब तो यही है कि हम नहीं जानते। लेकिन फिर भी कुछ अनुमान तो लगाए गए हैं।
जैसे
दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से पता
चला है कि यह वायरस हवा में तीन घंटे तक जीवन-क्षम बना रहता है। तांबे की सतह पर 4 घंटे,
कार्डबोर्ड पर 24 घंटे तथा प्लास्टिक व स्टील के बर्तनों पर 72 घंटे तक जीने-योग्य बना रहता है।
एक
अन्य अध्ययन सीधे नए वायरस पर तो नहीं किया गया है बल्कि इसी के भाई-बंधुओं पर किए गए
पूर्व अध्ययनों पर आधारित है। दी जर्नल ऑफ हॉस्पिटल इंफेक्शन में प्रकाशित
इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि (यदि यह वायरस अन्य मानव कोरोना वायरस का मिला-जुला परिवर्तित रूप
है) तो
यह धातु, कांच या प्लास्टिक
जैसी सतहों पर 9 दिनों
तक जीवन-क्षम
बना रह सकता है। तुलना के लिए देखें कि सामान्य फ्लू का वायरस ऐसी सतहों पर अधिक
से अधिक 48 घंटे
तक जीवन-क्षम
रहता है।
अब
आप ऐसी सतहों को छूने से तो नहीं बच सकते। इसलिए बेहतर है कि समय-समय पर हाथ धोते
रहें और हाथों से मुंह, नाक और आंखों को
छूने से बचें।
लेकिन एक खुशखबरी भी है। यदि तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो तो ये वायरस इतने लंबे समय तक जीवन-क्षम नहीं रह पाते। यानी जब गर्मी बढ़ेगी तो इस वायरस के परोक्ष रूप से फैलने की संभावना कम होती जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले
दिनों छत्तीसगढ़ में एक सामूहिक विवाह उत्सव के दौरान एक दूल्हे को मिर्गी का दौरा
पड़ा। वहां मौजूद एक अधिकारी ने मरीज़ को जूता सुंघाने का सुझाव ही नहीं दिया बल्कि
उसे अपना जूता निकालकर सुंघाने लगे। कुछ ही देर में मरीज़ होश में आ गया। यह तो
होना ही था क्योंकि मिर्गी का दौरा चंद सेकंड या मिनट से अधिक का नहीं होता।
मिर्गी के दौरे के बाद मरीज़ अपनी सामान्य स्थिति में आ जाता है।
बाद
में जूता सुंघाने का विरोध किया गया। लेकिन वे अधिकारी अड़े रहे कि यह एक कारगर
उपाय है। समाज में यह मान्यता व्याप्त है कि अगर किसी को मिर्गी का दौरा पड़े तो
सबसे पहले उसे जूता सुंघाया जाए। और भी तरीके अपनाए जाते हैं। मसलन मरीज़ के मुंह
को ज़बर्दस्ती खोलकर पानी पिलाना। दांतों के बीच चम्मच या चाबी वगैरह फंसा दी जाती
है।
मिर्गी
के दौरे में मरीज़ के मुंह से झाग निकलने लगता है और शरीर की मांसपेशियों में जकड़न
व अकड़न आने लगती है। मरीज़ की आंखें बंद होने लगती है या फिर वह एकटक ताकता रहता
है। मरीज़ का जबड़ा बंद हो जाता है। इस वजह से जीभ तक कट जाती है (दांतों के बीच चम्मच
शायद इसी से बचाव के लिए रखा जाता है)। अक्सर मिर्गी के दौरे में निचला जबड़ा अकड़ जाता है और इसकी
वजह से ऊपरी व निचले जबड़े के दांत चिपक जाते हैं। मिर्गी के दौरे के दौरान अंगों
की अकड़न, मुंह से झाग आने
जैसे लक्षण इसकी भयावहता को बढ़ाते हैं।
मिर्गी
के मरीज़ को परिवार भी हीन नज़रों से देखने लगता है। मिर्गी के मरीज़ को संभालने की
बजाय उससे दूर हटना समस्या को और बढ़ा देता है। मिर्गी के मरीज़ को जिस भावनात्मक
सम्बल की ज़रूरत होती है वह न मिलने से वह तनाव में रहने लगता है। मिर्गी को लेकर
अज्ञानता के चलते कहा जाता है कि उसे बाहरी हवा लग चुकी है जिसे भूत-प्रेत से जोड़ा जाता
है।
मिर्गी
को लेकर एक मान्यता है कि पानी के स्रोत जैसे कुएं, बावड़ी,
नदी-तालाब को देखने से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं। दरअसल,
पानी की मौजूदगी का मिर्गी से कोई ताल्लुक नहीं है। हां,
यह ज़रूर ध्यान देने की बात है कि मिर्गी के मरीज़ को पानी के
स्रोतों से दूर रखना चाहिए। इतना ही नहीं मिर्गी के मरीज़ को मशीनों से दूर रखना
चाहिए व वाहन चलाने से रोकना चाहिए।
मिर्गी
का मरीज़ मानसिक रोगी नहीं होता। वह पागल नहीं होता। वह आम लोगों की तरह ही होता
है। उसकी शारीरिक प्रक्रियाएं सामान्य होती हैं। मिर्गी के दौरे के बाद मरीज़
सामान्य हो जाता है।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में 5 करोड़ लोग मिर्गी रोग से ग्रसित हैं। मिर्गी
दुनिया की सबसे व्यापक न्यूरालॉजिकल बीमारियों में से एक है। भारत में लगभग एक
करोड़ मिर्गी के रोगी हैं। यह दुखद है कि मिर्गी से पीड़ित तीन-चौथाई लोगों को उचित इलाज नहीं मिल पाता।
मान्यता
यह भी है कि मिर्गी एक संक्रामक रोग है और यह रोगी के संपर्क में आने से फैलता है।
यह पूरी तरह से गलत है। यह पूरी तरह से आनुवंशिक भी नहीं है। लगभग एक प्रतिशत
लोगों में ही यह आनुवंशिक होता है।
चरक
संहिता में मिर्गी का उल्लेख है। चरक ने इसे शारीरिक बीमारियों जैसा ही माना है।
औषधियों से इसके उपचार की बात कही है। हिप्पोक्रेटस ने कहा है कि मिर्गी दैवी
बीमारी नहीं है। महाकवि माघ ने मिर्गी की तुलना समुद्र से की है। दोनों ज़मीन पर
पड़े हैं, गरजते हैं,
भुजाएं हिलाते हैं व झाग पैदा करते हैं। शेक्सपीयर के
साहित्य में भी मिर्गी का विवरण मिलता है। ओथेलो के नायक को मिर्गी का दौरा पड़ता
है व अन्य दो पात्र कैसियो व इयागो उसकी हंसी उड़ाते हैं। उल्लेख मिलता है कि
हालैंड के जाने-माने
चित्रकार विन्सेन्ट वैन गॉग मिर्गी से पीड़ित थे।
मिर्गी
का बुद्धि से कोई सम्बंध नहीं। दरअसल, मिर्गी
एक तंत्रिका सम्बंधी विकार है। व्यक्ति को दौरे पड़ते हैं इससे दिमागी संतुलन बिगड़
जाता है। इसके आम लक्षण हैं बेहोशी आना, चक्कर
आना, गिर पड़ना, हाथ-पैरों में झटके आना
वगैरह।
हमारे
पूरे शरीर में तंत्रिकाओं का जाल बिछा हुआ है जो अंतत: मस्तिष्क से जुड़ा होता है। व्यक्ति का
मस्तिष्क विद्युत संकेतों पर निर्भर करता है जो तंत्रिकाएं उसे भेजती रहती हैं।
हमें अपने अंगों या चमड़ी से जो भी संवेदनाएं महसूस होती हैं वे तंत्रिकाओं के जरिए
मस्तिष्क तक पहुंचती हैं। तंत्रिकाओं के द्वारा जो संकेत मस्तिष्क तक पहुंचते हैं
व मस्तिष्क से अंगों तक पहुंचते हैं वे तंत्रिका तंत्र की सबसे छोटी इकाई न्यूरॉन
में विद्युत-रासायनिक
क्रिया का परिणाम होते हैं। अगर आप अपने हाथ को हिलाते हैं तो मस्तिष्क से हाथ को
संकेत तंत्रिकाओं के ज़रिए ही भेजा जाता है। हर काम का संदेश मस्तिष्क तंत्रिकाओं
के ज़रिए उस अंग तक भेजता है।
दुर्भाग्य
से मस्तिष्क इस कार्य को कुछ लोगों में ठीक से नहीं कर पाता। मिर्गी के मरीज़ में यही
होता है, खास तौर से जब
मिर्गी का दौरा आया हो। दरअसल, मस्तिष्क में फीडबैक
व्यवस्था होती है। अगर मस्तिष्क किसी अंग को सक्रिय रहने का निर्देश देता है तो
उसे रोकने की भी व्यवस्था होती है। अगर इस व्यवस्था में गड़बड़ी हो तो उसे मस्तिष्क
नियंत्रित नहीं कर पाता है। मिर्गी के लिए मस्तिष्क की यही गड़बड़ी ज़िम्मेदार होती
है।
तंत्रिका
कोशिकाएं या न्यूरान्स विद्युत-रासायनिक संकेत पैदा करते हैं जो विचारों,
भावनाओं और तमाम कामों को करने के लिए प्रेरित करते हैं।
मिर्गी आने का अर्थ है कि एक ही वक्त में कई न्यूरॉन्स एक ही समय में संकेत देने
लगते हैं – एक
सेकंड में लगभग 500 संकेत
जो सामान्य से कई गुना अधिक हैं। न्यूरॉन्स के ये अत्यधिक संकेत अनैच्छिक क्रियाओं,
संवेदनाओं और भावनाओं की वजह बनते हैं। न्यूरॉन्स की अस्थाई
गड़बड़ी से उस व्यक्ति की शारीरिक संवेदना को नुकसान होता है। व्यक्ति को दौरे पड़ने
लगते हैं। दौरे की अवधि कुछ सेकंड से लेकर दो-तीन मिनट तक हो सकती है।
मिर्गी
के दौरे में मासंपेशियों में संकुचन होने लगता है और मरीज़ चेतना खो देता है। कुछ
में चेतना नहीं जाती और वे कुछ पल के लिए ताकते रहते हैं। मिर्गी से ग्रसित कुछ
व्यक्ति दिन में कई बार इसकी जकड़ में आते हैं।
मिर्गी
में मस्तिष्क के हिस्सों को असामान्य रूप से अधिक विद्युत संकेत मिलते हैं जो उसके
सामान्य कामकाज को बाधित करता है। तंत्रिका कोशिकाओं के बीच विद्युतीय संकेतों में
यह उछाल क्यों आता है, इसे समझने की कोशिश
की जा रही है। नेवाडा विश्वविद्यालय, लॉस
वेगास के शोधकर्ता रोशेल हाइन्स के नेतृत्व में तंत्रिका विज्ञानियों ने यह पता
लगाया है कि मस्तिष्क के प्रोटीन्स के बीच परस्पर किस प्रकार की अंतर्क्रिया होती
है।
हाइन्स
की टीम ने केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को बाधित करने में शामिल दो प्रोटीनों का पता
लगाया है। नए शोध से पता चलता है कि वे दो प्रोटीन मिर्गी के लिए ज़िम्मेदार हैं।
मस्तिष्क हमारी मांसपेशियों को तंत्रिकाओं के ज़रिए संकेत देता है और वे उत्तेजित
होती हैं। इसी दौरान मस्तिष्क न्यूरॉन्स को यह संकेत भी देता है कि मांसपेशियों की
उत्तेजना को रोक सके। इस उत्तेजना व बाधित करने के बीच सामान्य मनुष्य में संतुलन
बना रहता है।
रोशेल हाइन्स व उनकी टीम ने पाया कि मस्तिष्क की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए इन दोनों प्रोटीन के बीच संवाद ज़रूरी है। अगर यह संवाद न हो तो मिर्गी के झटके आने लगते हैं। शोध का जोर इस बात पर था कि इस प्रोटीन-द्वय प्रणाली को बाधित करने के तरीके का पता लगाया जाए। इसके पहले के अनुसंधान में पूरे मस्तिष्क को नियंत्रित करने पर ज़ोर दिया जाता था। इसके कई दुष्प्रभाव होते हैं। इस शोध को आधार बनाकर अब वैज्ञानिक इन दो प्रोटीनों के बीच संवाद पर काम कर सकते हैं। अभी तक इस तरह की दवा नहीं बनाई जा सकी है। संभावना हैं कि इस दिशा में आगे और काम होगा व ऐसी दवाएं बनाई जा सकेगी जिनसे दुष्प्रभाव कम किए जा सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.jansatta.com/2019/11/Epilepsy-disorder.jpg