एक फफूंद मच्छरों और मलेरिया से बचाएगी

1980 के दशक में बुर्किना फासो के गांव सूमोसो ने मलेरिया के खिलाफ एक ज़ोरदार हथियार मुहैया करया था। यह था कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानी। इसने लाखों लोगों को मलेरिया से बचाने में मदद की थी। मगर मच्छरों में इन कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो गया और इन मच्छरदानियों का असर कम हो गया। अब यही गांव एक बार फिर मलेरिया के खिलाफ एक और हथियार उपलब्ध कराने जा रहा है।

इस बार एक फफूंद में जेनेटिक फेरबदल करके एक ऐसी फफूंद तैयार की गई है जो मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को मारती है। इसके परीक्षण सूमोसो में 600 वर्ग मीटर के एक ढांचे में किए गए हैं जिसे मॉस्किटोस्फीयर नाम दिया गया है। यह एक ग्रीनहाउस जैसा है, फर्क सिर्फ इतना है कि कांच के स्थान पर यह मच्छरदानी के कपड़े से बना है। परीक्षण में पता चला है कि यह फफूंद एक महीने में 90 फीसदी मच्छरों का सफाया कर देती है।

व्यापक उपयोग से पहले इसे कई नियम कानूनों से गुज़रना होगा क्योंकि फफूंद जेनेटिक रूप से परिवर्तित है। इसकी एक खूबी यह है कि यह मच्छरों के अलावा बाकी कीटों को बख्श देती है। तेज़ धूप में यह बहुत देर तक जीवित नहीं रह पाती। इसलिए इसके दूर-दूर तक फैलने की आशंका भी नहीं है।

फफूंदें कई कीटों को संक्रमित करती हैं और उनके आंतरिक अंगों को चट कर जाती है। इनका उपयोग कीट नियंत्रण में किया जाता रहा है। 2005 में शोधकर्ताओं ने पाया था कि मेटाराइज़ियम नामक फफूंद मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों का सफाया कर देती है। किंतु उसकी क्रिया बहुत धीमी होती है और संक्रमण के बाद भी मच्छर काफी समय तक जीवित रहकर मलेरिया फैलाते रहते हैं। इसके बाद कई फफूंदों पर शोध किए गए और अंतत: शोधकर्ताओं ने इसी फफूंद की एक किस्म मेटाराइज़ियम पिंगशेंस में एक मकड़ी से प्राप्त जीन जोड़ दिया। यह जीन एक विष का निर्माण करता है और तभी सक्रिय होता है जब यह कीटों के रक्त (हीमोलिम्फ) के संपर्क में आता है। प्रयोगशाला में तो यह कामयाब रहा। इससे प्रेरित होकर बुर्किना फासो में मॉस्किटोस्फीयर स्थापित किया गया।

स्थानीय बाशिंदों की मदद से आसपास के डबरों से कीटनाशक प्रतिरोधी लार्वा इकट्ठे किए गए और इन्हें मॉस्किटोस्फीयर के अंदर मच्छर बनने दिया गया। यह देखा गया है कि मनुष्य को काटने के बाद मादा मच्छर आम तौर पर किसी गहरे रंग की सतह पर आराम फरमाना पसंद करती है। लिहाज़ा, मॉस्किटोस्फीयर टीम ने फफूंद को तिल के तेल में घोलकर काली चादरों पर पोत दिया और चादरों को स्फीयर के अंदर लटका दिया।

शोधकर्ताओं ने स्फीयर के अंदर अलग-अलग कक्षों में 500 मादा और 1000 नर मच्छर छोड़े। विभिन्न कक्षों में चादरों पर कुदरती फफूंद, जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद और बगैर फफूंद वाला तेल पोता गया था। मच्छरों को काटने के लिए बछड़े रखे गए थे। यह देखा गया कि मात्र 2 पीढ़ी के अंदर (यानी 45 दिनों में) जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद वाले कक्ष में मात्र 13 मच्छर बचे थे जबकि अन्य दो कक्षों में ढाई हज़ार और सात सौ मच्छर थे।

यह तो स्पष्ट है कि यह टेक्नॉलॉजी मलेरिया वाले इलाकों में महत्वपूर्ण होगी किंतु इसे एक व्यावहारिक रूप देने में समय लगेगा।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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देश बन रहा है डंपिंग ग्राउंड – संध्या रायचौधरी

इंटरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशंस यूनियन (आईटीयू) के आंकड़ों के अनुसार भारत चीन और कुछ अन्य देशों में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है। सिर्फ भारत और चीन में मोबाइल फोन का आंकड़ा 8 अरब पार कर चुका है। चीन की तरह भारत में भी सस्ते से सस्ता फोन उपलब्ध है। लेकिन गंभीर और खतरनाक बात यह है कि इससे इलेक्ट्रॉनिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएंगे जो इस धरती की हर चीज़ को नुकसान पहुंचाएंगे।

फिलहाल भारत में एक अरब से ज़्यादा मोबाइल ग्राहक है। मोबाइल सेवाएं शुरू होने के 20 साल बाद भारत ने यह आंकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है। फिलहाल चीन और भारत में एक-एक अरब से ज़्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े हैं। देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले 10 लाख ग्राहक जुटाने में करीब 5 साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी के आंकड़े यानी 8 अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है। ये आंकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी ज़िंदगी में बेहद ज़रूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह खतरा है इलेक्ट्रॉनिक कचरे यानी ई-कचरे का।

सालाना 8 लाख टन

आईटीयू के मुताबिक, भारत, रूस, ब्रााज़ील समेत करीब 10 देश ऐसे हैं जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज़्यादा है। रूस में 25 करोड़ से ज़्यादा मोबाइल हैं जो वहां की आबादी का 1.8 गुना है। ब्राज़ील में 24 करोड़ मोबाइल हैं, जो आबादी से 1.2 गुना हैं। इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। भारत की विशाल आबादी और फिर बाज़ार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाओं के आधार पर इस दावे में कोई संदेह भी नहीं लगता। पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे विचित्र मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है? हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है। जैसे वर्ष 2015 में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ ई-वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल 8 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के 65 शहरों का योगदान है पर सबसे ज़्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है। हम अभी यह कहकर संतोष जता सकते हैं कि नियंत्रण स्तर पर हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसे मीलों आगे है।

बैटरी और पानी प्रदूषण

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है। उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कंप्यूटर आदि चीन में बनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते हैं, कुछ वर्षों बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं। निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है। टेक्नॉलॉजी की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई हैं, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है। कंप्यूटर और मोबाइल फोन जैसी चीजों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है। हम फैक्स मशीन, फोटो कॉपियर, डिजिटल कैमरों, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने व गैजेट, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव, कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों से घिर चुके हैं। दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान की देन पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराना पड़ने पर उनसे पीछा छुड़ाएगा, तो ई-कचरे की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएगा। यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज़्यादा बड़ी है क्योंकि यह कचरा ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रहा है। इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबंध पहले ही कर लिए हैं, और दूसरे, वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं। अर्थात हमारे लिए चुनौती दोहरी है। पहले तो हमें देश के भीतर पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-कचरे से निपटना है। हमारी चिंताओं को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है। विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं।

ई-कचरा पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है। मोबाइल फोन की ही बात करें, तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक ज़मीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते। सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी 6 लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके अलावा एक पर्सनल कंप्यूटर में 3.8 पौंड घातक सीसा तथा फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कंप्यूटरों के स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है।

कानून

समस्या इस वजह से भी ज़्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ अपने ही देश के ई-कबाड़ से काम की चीज़ें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते, बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा अपने स्वार्थ के लिए आयात करते हैं। पर्यावरण स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट ‘टॉक्सिक टेक: रीसाइÏक्लग इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट्स इन चाइना एंड इंडिया’ में साफ किया है कि जिस ई-कचरे की रिसाइÏक्लग पर युरोप में 20 डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे मुल्कों में महज चार डॉलर में हो जाता है। वैसे तो हमारे देश में ई-कचरे पर रोक लगाने वाले कानून हैं। खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम 1989 की धारा 11(1) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रिसायÏक्लग और आयात पर रोक है, लेकिन कायदों को अमल में नहीं लाने की लापरवाही ही वह वजह है, जिसके कारण अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में संपूर्ण देश से आने वाले ई-कचरे का 40 फीसदी हिस्सा रिसायकिल किया जाता है।

हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर नहीं रह जाए; इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया का सबसे छोटा जीवित शिशु सेब के बराबर था

दिसंबर 2018 के दौरान शार्प मैरी बर्च हॉस्पिटल फॉर वीमेन एंड न्यूबॉर्न्स, सैन डिएगो में मात्र लगभग 245 ग्राम वज़न की एक बच्ची का जन्म हुआ। एक बड़े सेब के वज़न की इस बच्ची को अस्पताल में काम करने वाली नर्सों ने ‘सेबी’ नाम दिया है। अस्पताल ने बताया है कि सेबी दुनिया की सबसे छोटी बच्ची है जो जीवित रह पाई है।

गर्भावस्था की जटिलताओं के चलते सेबी का जन्म ऑपरेशन के माध्यम से सिर्फ 23 सप्ताह और 3 दिनों के गर्भ से हुआ था। चूंकि उस समय गर्भ केवल 23 सप्ताह का था इसलिए बच्ची के जीवित रहने की संभावना मात्र 1 घंटे ही थी लेकिन धीरे-धीरे एक घंटा दो घंटे में परिवर्तित हुआ और फिर एक हफ्ते और अब जन्म के पांच महीने बाद सेबी का वज़न लगभग ढाई किलोग्राम है और उसे अस्पताल छोड़ने की अनुमति भी मिल गई है।

युनिवर्सिटी ऑफ आयोवा में सबसे छोटे जीवित शिशुओं का रिकॉर्ड रखा जाता है। जन्म के समय सेबी का वज़न पिछले रिकॉर्ड से 7 ग्राम कम था, जो 2015 में जर्मनी में पैदा हुआ एक बच्ची का है। इस साल फरवरी में, डॉक्टरों ने सबसे छोटे जीवित लड़के के जन्म की सूचना दी, जिसका वजन जन्म के समय 268 ग्राम था।

अस्पताल के अनुसार सेबी को केवल जीवित रखने के अलावा उनको किसी अन्य मेडिकल चुनौति का सामना नहीं करना पड़ा जो आम तौर पर माइक्रोप्रीमीस (28 सप्ताह से पहले जन्म लेने वाले बच्चों) में देखने को मिलती हैं। माइक्रोप्रीमीस में मस्तिष्क में रक्तस्राव तथा फेफड़े और ह्मदय सम्बंधी समस्याएं हो सकती हैं।

यह अस्पताल माइक्रोप्रीमीस की देखभाल करने में माहिर है। इसलिए कहा जा सकता है कि सेबी सही जगह पर पैदा हुई है। लेकिन फिर भी माइक्रोप्रीमीस को आगे चलकर काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जैसे-जैसे ये बच्चे बड़े होते जाते हैं उनमें दृष्टि समस्याएं, सूक्ष्म मोटर दक्षता और सीखने की अक्षमताओं जैसी समस्याएं होने लगती हैं।

अगले कुछ वर्षों के लिए, सेबी को अस्पताल के अनुवर्ती क्लीनिक में नियमित रूप से जाना होगा जिसका उद्देश्य ऐसे शिशुओं के विकास में मदद करना है।(स्रोत फीचर्स)

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समुद्री सूक्ष्मजीव प्लास्टिक कचरे को खा रहे हैं

हासागरों में मौजूद कूड़े का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा प्लास्टिक है। यह प्लास्टिक अनगिनत समुद्री प्रजातियों को जोखिम में डाल रहा है। लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे सूक्ष्मजीवों का पता लगाया है जो प्लास्टिक को धीरे-धीरे तोड़कर को खा रहे हैं। इसके चलते कचरा विघटित हो रहा है।

अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने यूनान के चानिया के दो अलग-अलग समुद्र तटों से मौसम के कारण खराब हुए प्लास्टिक को एकत्र किया है। यह कूड़ा धूप के संपर्क में आकर रासायनिक परिवर्तनों से गुज़र चुका था जिसके कारण यह अधिक भुरभुरा हो गया था। सूक्ष्मजीवों द्वारा प्लास्टिक को कुतरने से पहले उसका भुरभुरा होना ज़रूरी है।

प्लास्टिक के टुकड़े या तो किराने के सामान में उपयोग होने वाले पोलीथीन के थे या खाद्य पैकेजिंग और इलेक्ट्रॉनिक्स में पाए जाने वाले कठोर प्लास्टिक पोलीस्टायरीन। शोधकर्ताओं ने दोनों को नमकीन पानी में डाल दिया। और साथ में या तो प्राकृतिक रूप से मौजूद समुद्री सूक्ष्मजीव डाले या विशेष रूप से तैयार किए गए कार्बन-भक्षी सूक्ष्मजीव डाल दिए। ये सूक्ष्मजीव पूरी तरह से प्लास्टिक में मौजूद कार्बन पर जीवित रह सकते थे। वैज्ञानिकों ने 5 महीनों तक सामग्री में हो रहे बदलावों का विश्लेषण किया।

जर्नल ऑफ हैज़ार्डस मटेरियल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक और तकनीकी रूप से विकसित सूक्ष्मजीवों, दोनों के संपर्क में आने के बाद प्लास्टिक के वज़न में काफी कमी देखी गई। सूक्ष्मजीवों ने सामग्री की रासायनिक संरचना को और भी बदला जिससे पोलीथीन का वज़न 7 प्रतिशत और पोलीस्टायरीन का वज़न 11 प्रतिशत कम हो गया।

ये परिणाम समुद्री प्रदूषण से निपटने में काफी मददगार सिद्ध हो सकते हैं। संभवत: प्लास्टिक कचरा खाने के लिए समुद्री सूक्ष्मजीवों को तैनात किया जा सकता है। वैसे अभी यह देखना शेष है कि इन सूक्ष्मजीवों का विश्व स्तर पर क्या असर होगा।(स्रोत फीचर्स)

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कौआ और कोयल: संघर्ष या सहयोग – कालू राम शर्मा

न दिनों भरी गर्मी में कौओं को चोंच में सूखी टहनी दबाए उड़कर पेड़ों की ओर जाते देखा जा सकता है। कौओं की चहल-पहल अप्रैल से जून के बीच कुछ अधिक दिखाई देती है। अगर आप इन दिनों पेड़ों पर नज़र डालें तो दो डालियों के बीच कुछ टहनियों का बिखरा-बिखरा सा कौए का घोंसला देखने को मिल सकता है।

पिछले दिनों मुझे मध्यप्रदेश के कुछ ज़िलों से गुज़रने का मौका मिला तो पाया कि पेड़ों पर कौओं ने बड़ी तादाद में घोंसले बनाए हैं। दिलचस्प बात यह लगी कि कौओं ने घोंसला बनाने के लिए उन पेड़ों को चुना जिनकी पत्तियां झड़ चुकी थीं और नई कोपलें आने वाली थीं। जब पत्तियां झड़ जाएं तो पेड़ की एक-एक शाखा दिखाई देती है। जब पत्तियां होती हैं तो कई पक्षी वगैरह इसमें पनाह पाते हैं मगर वे दिखते नहीं। पीपल के पेड़ पर अधिकतम घोंसले दिखाई दिए। एक ही पीपल के पेड़ पर सात से दस तक घोंसले दिखे।

दरअसल, कौए ऐसे पेड़ को घोंसला बनाने के लिए चुनते हैं जिस पर घने पत्ते न हो। एक वजह यह हो सकती है कि कौए दूर से अपने घोंसले पर नज़र रख सकें या घोंसले में बैठे-बैठे दूर-दूर तक नज़रें दौड़ा सकें। घोंसला ज़मीन से करीब तीन-चार मीटर की ऊंचाई पर होता है। नर और मादा मिलकर घोंसला बनाते हैं और दोनों मिलकर अंडों-चूज़ों की परवरिश भी करते हैं।

कहानी का रोचक हिस्सा यह है कि कौए व कोयल का प्रजनन काल एक ही होता है। इधर कौए घोंसला बनाने के लिए सूखे तिनके वगैरह एकत्र करने लगते हैं और नर व मादा का मिलन होता है और उधर नर कोयल की कुहू-कुहू सुनाई देने लगती है। नर कोयल अपने प्रतिद्वंद्वियों को चेताने व मादा को लुभाने के लिए तान छेड़ता है। घोंसला बनाने की जद्दोजहद से कोयल दूर रहता है।

कौए का घोंसला साधारण-सा दिखाई देता है। किसी को लग सकता है कि यह तो मात्र टहनियों का ढेर है। हकीकत यह है कि यह घोंसला हफ्तों की मेहनत का फल है। अंडे देने के कोई एक महीने पहले कौए टहनियां एकत्र करना प्रारंभ कर देते हैं। प्रत्येक टहनी सावधानीपूर्वक चुनी जाती है। मज़बूत टहनियों से घोंसले का आधार बनाया जाता है और फिर पतली व नरम टहनियां बिछाई जाती हैं। कौए के घोंसले में धातु के तारों का इस्तेमाल भी किया जाता है। ऐसा लगता है कि बढ़ते शहरीकरण के चलते टहनियों के अलावा उन्हें तार वगैरह जो भी मिल गए उनका इस्तेमाल कर लेते हैं।

कोयल कौए के घोंसले में अंडे देती है। कोयल के अंडों-बच्चों की परवरिश कौए द्वारा होना जैव विकास के क्रम का नतीजा है। कोयल ने कौए के साथ ऐसी जुगलबंदी बिठाई है कि जब कौए का अंडे देने का वक्त आता है तब वह भी देती है। कौआ जिसे चतुर माना जाता है, वह कोयल के अंडों को सेहता है और उन अंडों से निकले चूज़ों की परवरिश भी करता है।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पाया है कि कोयल के पंख स्पैरो हॉक नामक पक्षी से काफी मिलते-जुलते होते हैं। स्पैरो हॉक जैसे पंख दूसरे पक्षियों को भयभीत करने में मदद करते हैं। इसी का फायदा उठाकर कोयल कौए के घोंसले में अंडे दे देती है। उल्लेखनीय है कि स्पैरो हॉक एक शिकारी पक्षी है जो पक्षियों व अन्य रीढ़धारी जंतुओं का शिकार करता है। वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया जिसमें नकली कोयल और नकली स्पैरो हॉक को एक गाने वाली चिड़िया के घोंसले के पास रख दिया। देखा गया कि गाने वाली चिड़िया उन दोनों से डर गई।

तो कोयल कौए के घोंसले पर परजीवी है। कोयल माताएं विभिन्न प्रजातियों के पक्षियों के घोंसलों में अपने अंडे देकर अपनी ज़िम्मेदारी मुक्त हो जाती है। कौआ माएं कोयल के चूज़ों को अपना ही समझती है। आम समझ कहती है कि परजीविता में मेज़बान को ही नुकसान उठाना पड़ता है। लेकिन परजीवी पक्षियों के सम्बंध में हुए अध्ययन बताते हैं कि इस तरह के परजीवी की उपस्थिति से मेज़बान को भी फायदा होता है। तो क्या कोयल और कौवे के बीच घोंसला-परजीविता का रिश्ता कौए के चूज़ों को कोई फायदा पहुंचाता है? ऐसा प्रतीत होता है कि कोयल के चूज़ों की बदौलत कौए के चूज़ों को शरीर पर आ चिपकने वाले परजीवी कीटों वगैरह से निजात मिलती है।

स्पेन के शोधकर्ताओं की एक टीम ने पाया है कि कोयल की एक प्रजाति वाकई में घोंसले में पल रहे कौओं के चूज़ों को जीवित रहने में मदद करती है। टीम बताती है कि ग्रेट स्पॉटेड ककू द्वारा कौए के घोंसले में अंडे दिए जाने पर कौए के अंडों से चूज़े निकलना अधिक सफलतापूर्वक होता है। अध्ययन से पता चला कि केरिअन कौवों के जिन घोसलों में कोयल ने अंडे दिए उनमें कौवे के चूज़ों के जीवित रहने की दर कोयल-चूज़ों से रहित घोंसले से अधिक थी। और करीब से देखने पर पता चला कि कोयल के पास जीवित रखने की व्यवस्था थी जो कौवों के पास नहीं होती। जिन घोंसलों में कोयल के चूज़े पनाह पा रहे थे उन पर शिकारी बिल्ली वगैरह का हमला होने पर कोयल के चूजे दुर्गंध छोड़ते हैं। यह दुर्गंध प्रतिकारक रसायनों के कारण होती है और शिकारी बिल्ली व पक्षियों को दूर भगाने में असरकारक साबित होती है। अर्थात पक्षियों के बीच परजीवी-मेज़बान का रिश्ता जटिल है।

अब आम लोग महसूस करने लगे हैं कि पिछले बीस-पच्चीस बरसों में कौओं की तादाद घटी है। अधिकतर ऐसा एहसास लोगों को श्राद्ध पक्ष में होता है जब वे कौओं को पुरखों के रूप में आमंत्रित करना चाहते हैं। घंटों छत पर खीर-पूड़ी का लालच दिया जाता है मगर कौए नहीं आते।

कौओं को संरक्षित करने के लिए उनके प्रजनन स्थलों को सुरक्षित रखना होगा। कोयल का मीठा संगीत सुनना है तो कौओं को बचाना होगा।

जब पक्षी घोंसला बनाते हैं तो वे सुरक्षा के तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हैं। पिछले दिनों मैं एक शादी के जलसे में शामिल हुआ था। बारात के जलसे में डीजे से लगाकर बैंड व ढोल जैसे भारी-भरकम ध्वनि उत्पन्न करने वाले साधनों की भरमार थी। मैंने पाया कि जिन कौओं ने सड़क किनारे पेड़ों पर घोंसले बनाए थे वे इनके कानफोड़ू शोर की वजह से असामान्य व्यवहार कर रहे थे। कौए भयभीत होकर घोंसलों से दूर जाकर कांव, कांव की आवाज़ निकाल रहे थे। दरअसल, पक्षियों को भी खासकर प्रजनन काल में शोरगुल से दिक्कत होती है। इस तरह के अवलोकन तो आम हैं कि अगर इनके घोंसलों को कोई छू ले तो फिर पक्षी उन्हें त्याग देते हैं। फोटोग्राफर्स के लिए भी निर्देश हैं कि पक्षियों के घोंसलों के चित्र न खींचें। कैमरे के फ्लैश की रोशनी पक्षियों को विचलित करती है। (स्रोत फीचर्स)

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पी.एच.डी. में प्रकाशन की अनिवार्यता समाप्त करने का प्रस्ताव

हाल ही में शोधकर्ताओं की एक समिति ने सुझाव दिया है कि शोध छात्रों के लिए डॉक्टरेट की उपाधि मिलने के पहले अकादमिक जर्नल में पेपर प्रकाशित करने की अनिवार्यता को खत्म किया जाना चाहिए।

वर्तमान में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियमानुसार भारत में किसी भी शोध छात्र को अपनी थीसिस जमा करने के पहले, किसी पत्रिका में एक पर्चा प्रकाशित करना और किसी सम्मेलन या सेमिनार में दो पर्चे प्रस्तुत करना ज़रूरी है।

पिछले साल यूजीसी ने इस अनिवार्यता को जांचने के लिए विज्ञान और मानविकी शोधकर्ताओं की एक समिति बनाई थी। समिति के अध्यक्ष पी. बलराम ने इस अनिवार्यता पर शंका ज़ाहिर करते हुए कहा कि अनिवार्यता के कारण निम्न गुणवत्ता वाले कई ऐसे जर्नल फल-फूल रहे हैं जो पैसा लेकर बिना किसी समीक्षा या संपादन के जल्दी ही शोध पत्र प्रकाशित कर देते हैं।

समिति का सुझाव है कि यूजीसी को अपनी नीतियों में बदलाव लाना चाहिए, विश्वविद्यालयों को पीएच.डी. के दौरान ही शोध छात्र की परीक्षा लेकर उसका मूल्यांकन करना चाहिए और मौखिक परीक्षा के दौरान शोध छात्र को अपनी थीसिस की पैरवी करना चाहिए। उम्मीद है कि यूजीसी इस सुझाव पर जून 2019 तक प्रतिक्रिया दे देगी।

सुझाव से सहमति जताते हुए नेशनल सेंटर फॉर बॉयोलॉजीकल साइंस, बैंगलोर के अकादमिक गतिविधियों के प्रमुख मुकुंद थत्तई कहते हैं कि उनके संस्थान में हर साल लगभग 25 प्रतिशत शोध छात्रों को पीएच.डी. डिग्री देरी से मिलती है क्योंकि वे प्रकाशन की अनिवार्यता को समय से पूरा नहीं कर पाते। खासकर जीव विज्ञान और गणित जैसे विषयों में पर्चा प्रकाशित करने में एक साल से भी अधिक समय लग जाता है।

वहीं इंस्टीट्यूट ऑफ मैथेमेटिकल साइंस, चेन्नई के गौतम मेनन का कहना है कि इस अनिवार्यता को खत्म कर देने से निम्न गुणवत्ता वाले शोध कार्य या प्रकाशन कम नहीं होंगे, कोई भी पक्षपाती समिति घटिया थीसिस को भी स्वीकार सकती है। प्रकाशन की अनिवार्यता में कम-से-कम किसी बाहरी समीक्षक द्वारा समीक्षा की निश्चितता होती है।

समिति के अध्यक्ष इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलौर के बॉयोकमिस्ट पी. बलराम का कहना है कि शोध पत्रों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना संस्थान की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। उनका कहना है कि सभी पर केंद्रीय नियम लागू करने से मुश्किलें होती हैं क्योंकि जैसे ही आप ऐसे नियम लागू करते हैं, लोग उनसे बचने के रास्ते निकाल लेते हैं। सुझाव पर यूजीसी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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5 करोड़ वर्ष में मछलियों के नियम नहीं बदले

म जब कभी समुद्री जीवन से जुड़ा कोई वीडियो या खबर देखते हैं तो अक्सर मछलियां एक झुंड में तैरती नज़र आती हैं। लेकिन हाल ही में पश्चिमी अमेरिका से प्राप्त एक पत्थर के टुकड़े (जीवाश्म) से मालूम चला है कि मछलियां आज से नहीं, 5 करोड़ वर्षों से तैरने के उन्हीं नियमों का पालन करती आ रही हैं।

लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व एक झील में मछलियों का एक झुंड अचानक से एक चट्टान के नीचे दब गया। संरक्षण के कारण स्पष्ट नहीं हैं किंतु संरक्षित मछलियों के जीवाश्म की मदद से वैज्ञानिक प्रारंभिक सामाजिक व्यवहार को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के नोबुकी मिज़ुमोटो और उनके सहयोगियों ने इस पत्थर के पटिए में 257 विलुप्त हो चुकी मछलियों (Erismatopteruslevatus) के जीवाश्म पाए जो एक घने झुंड में थे। शोधकर्ताओं ने प्रत्येक मछली के उन्मुखीकरण और स्थिति का विश्लेषण किया। इसके आधार पर एक मॉडल तैयार किया जिससे यह पता चल सकता था कि स्लैब में संरक्षित क्षण के फौरन बाद प्रत्येक जीव की स्थिति क्या होने की अपेक्षा है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी-बी में प्रकाशित परिणामों के अनुसार प्राचीन मछलियां आजकल की मछलियों के समान ही दो नियमों का पालन करती थीं। कोई भी मछली अपने सबसे करीबी साथियों को दूर धकेलती थी ताकि टक्कर से बचा जा सके। वहीं वह दूर की मछलियों को आकर्षित करती थी,ताकि झुंड सघन बना रहे। आधुनिक झुंड की तरह, जीवाश्म समूह की आकृति लंबी थी जो शिकारियों को दूर करने में मदद करती है। (स्रोत फीचर्स)

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बोत्सवाना में हाथियों के शिकार से प्रतिबंध हटा

हाल ही में बोत्सवाना में हाथियों के शिकार पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया गया है। इस फैसले से वहां के संरक्षणवादी काफी हैरान हैं। बोत्सवाना के पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन संरक्षण और पर्यटन मंत्रालय द्वारा 22 मई को जारी किए गए बयान के अनुसार यह फैसला ‘सभी हितधारकों के साथ व्यापक और विस्तृत विचार-विमर्श’ के बाद लिया गया है।

एलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स नामक संगठन के मुताबिक बोत्सवाना में हाथियों की संख्या लगभग 1,30,000 है, जो पूरे अफ्रीका में पाए जाने वाले हाथियों की संख्या की एक तिहाई है। दूसरी ओर, सरकारी अनुमान के मुताबिक 2018 में बोत्सवाना में हाथियों की संख्या लगभग 2 लाख 37 हज़ार थी। अफ्रीका में हाथी दांत की तस्करी के चलते पिछले एक दशक में लगभग एक तिहाई हाथी खत्म हो गए। लेकिन बोत्सवाना लंबे समय से जानवरों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल रहा और हाथी दांत की अवैध तस्करी और शिकार से बचा रहा। हालांकि कुछ अपवाद भी सामने आए थे। सितंबर 2018 मेंएलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स नामक संस्था ने अपने एक हवाई सर्वेक्षण में यह बताया था कि बोत्सवाना में 87 हाथियों का शिकार हुआ था, लेकिन बाद में बोत्सवाना के वैज्ञानिकों और सरकारी अधिकारियों ने कहा कि एलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स ने संख्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया था।

साल 2014 में तत्कालीन संरक्षणवादी राष्ट्रपति इयान खामा ने हाथियों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया था, जिसकी परिवीक्षा अवधि पांच साल थी। वर्तमान राष्ट्रपति, मोगवीत्सी ई.के. मासीसी ने पिछले साल प्रतिबंध के आर्थिक और अन्य प्रभावों पर चर्चा करने के लिए एक समिति बनाई थी। इस समिति में स्थानीय सदस्य, हाथियों के संरक्षण से प्रभावित समुदाय के लोग, संरक्षण कार्यकर्ता और शोधकर्ता शामिल थे। उनके अनुसार प्रतिबंध को इसलिए हटाया गया क्योंकि देश मे हाथियों की संख्या बढ़ने लगी थी, हाथियों के शिकारियों की आजीविका प्रभावित हो रही थी, और प्रतिबंध से हाथी-मानव टकराव और संघर्ष बढ़ रहा था।

नेशनल जियोग्राफिक के अनुसार, सूखे के कारण हाथी पानी की तलाश में उन इलाकों में आने लगे थे जिनमें वे पहले कभी नहीं आते थे। जिसके कारण हाथियों का मनुष्यों से संपर्क बढ़ा। फलस्वरूप मनुष्यों, फसलों और संपत्ति को खतरा बढ़ा है।

सरकारी बयान में यह भी कहा गया है कि शिकार व्यवस्थित और नैतिक तरीके से किए जाएंगे, हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इसका क्या अर्थ है और यह कैसे सुनिश्चित किया जाएगा।

वाइल्डलाइफ डायरेक्ट की सीईओ पौला कहुम्बु ने समिति के इस फैसले पर ट्वीट करते हुए कहा है कि हाथियों के शिकार करने से मनुष्य और हाथियों के बीच संघर्ष कम नहीं होगा क्योंकि कोई भी शिकारी गांव में हाथियों का शिकार करने नहीं जाएगा, उन्हें तो शिकार के लिए बड़े-बड़े दांतों वाले हाथी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि शिकार की वजह से हाथी तनावग्रस्त होकर कहीं अधिक खतरनाक बन जाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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बड़े शहर अपने बादल बनाते हैं

लोग अक्सर यह कहते हैं कि बड़े शहरों का माहौल खुशनुमा नहीं लगता। हम यह भी जानते हैं कि शहरों में, कांक्रीटी निर्माण और इमारतों के कारण वहां का तापमान शहरों के आस-पास के इलाकों की तुलना में अधिक होता है। लेकिन हाल ही में पता चला है कि ये बड़े शहर अपने बादलों के आवरण को देर तक बांधे रख सकते हैं और इनके ऊपर गांवों की तुलना में अधिक बादल छाए रहते हैं।

विभिन्न मौसमों के दौरान लंदन और पेरिस के आसमान के उपग्रह चित्रों के अध्ययन से पता चला कि वसंत और गर्मी की दोपहरी व शाम में शहरों के ऊपर आसपास के छोटे इलाकों की तुलना में अधिक बादल छाए रहे। ये बादल आसपास के इलाकों की तुलना में 5 से 10 प्रतिशत तक अधिक थे। ये नतीजे हैरान करने वाले थे क्योंकि आम तौर पर बड़े शहरों में पेड़-पौधे कम होते हैं जिसके कारण वहां का मौसम काफी खुश्क रहता है। इस स्थिति में पानी कम वाष्पीकृत होगा और बादल भी कम बनना चाहिए।

मामले को समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग की नताली थीउवेस ने ज़मीनी आंकड़ों पर ध्यान दिया। ऐसा क्यों हुआ इसके स्पष्टीकरण में शोधकर्ता बताती हैं कि दोपहर तक इमारतें (और कांक्रीट के निर्माण) काफी गर्म हो जाती हैं, और उसके बाद ये इमारतें ऊष्मा छोड़ने लगती हैं जिसके कारण वहां की हवा ऊपर उठने लगती है जो हवा में रही-सही नमी को भी अपने साथ ऊपर ले जाती है, फलस्वरूप बादल बनते हैं। और खास बात यह है कि ये बादल आसानी से बिखरते भी नहीं हैं।

शोधकर्ताओं की यह रिपोर्ट एनपीजे क्लाइमेट एंड एटमॉस्फेरिक साइंस में प्रकाशित हुई है।(स्रोत फीचर्स)

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कयामत की घड़ी – एक घड़ी जो बड़े संकट की सूचक है – भारत डोगरा

विश्व में ‘कयामत की घड़ी’ अपने तरह की एक प्रतीकात्मक घड़ी है जिसकी सुइयों की स्थिति के माध्यम से यह दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि विश्व किसी बहुत बड़े संकट की संभावना के कितने नज़दीक है।

इस घड़ी का संचालन बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइंटिस्ट्स नामक वैज्ञानिक पत्रिका द्वारा किया जाता है। इसके परामर्शदाताओं में 15 नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं। ये सब मिलकर प्रति वर्ष तय करते हैं कि इस वर्ष घड़ी की सुइयों को कहां रखा जाए।

इस घड़ी में रात के 12 बजे को धरती पर बहुत बड़े संकट का पर्याय माना गया है। घड़ी की सुइयां रात के 12 बजे के जितने नज़दीक रखी जाएंगी, उतनी ही किसी बड़े संकट से धरती (व उसके लोगों व जीवों) की नज़दीकी की स्थिति मानी जाएगी।

साल 2018-19 में इन सुइयों को (रात के) 12 बजने में 2 मिनट के वक्त पर रखा गया है। संकट सूचक 12 बजे के समय से इन सुइयों की इतनी नज़दीकी कभी नहीं रही। दूसरे शब्दों में, यह घड़ी दर्शा रही है कि इस समय धरती किसी बहुत बड़े संकट के इतने करीब कभी नहीं थी।

‘कयामत की घड़ी’ के वार्षिक प्रतिवेदन में इस स्थिति के तीन कारण बताए गए हैं। पहली वजह यह है कि जलवायु बदलाव के लिए ज़िम्मेदार जिन ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2013-17 के दौरान ठहराव आया था उनमें 2018 में फिर वृद्धि दर्ज की गई है। जलवायु बदलाव नियंत्रित करने की संभावनाएं धूमिल हुई हैं।

दूसरी वजह यह है कि परमाणु हथियार नियंत्रित करने के समझौते कमज़ोर हुए हैं। मध्यम रेंज के परमाणु हथियार सम्बंधी आईएनएफ समझौते का नवीनीकरण नहीं हो सका है।

तीसरी वजह यह है कि सूचना तकनीक का बहुत दुरुपयोग हो रहा है जिसका सुरक्षा पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

इन तीन कारणों के मिले-जुले असर से आज विश्व बहुत बड़े संकट की संभावना के अत्यधिक नज़दीक आ गया है और इस संकट को कम करने के लिए ज़रूरी कदम तुरंत उठाना ज़रूरी है। क्या ‘कयामत की घड़ी’ के इस अति महत्वपूर्ण संदेश को विश्व नेतृत्व समय रहते समझेगा? (स्रोत फीचर्स)

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