कृत्रिम बुद्धि के लिए पुरस्कार

र्ष 2018 का ट्यूरिंग पुरस्कार तीन शोधकर्ताओं को संयुक्त रूप से दिया गया है। ये वे शोधकर्ता हैं जिन्होंने कृत्रिम बुद्धि (एआई) की वर्तमान प्रगति की बुनियाद तैयार की थी। गौरतलब है कि ट्यूरिंग पुरस्कार को कंप्यूटिंग का नोबेल पुरस्कार माना जाता है। एआई के पितामह कहे जाने वाले योशुआ बेन्जिओ, जेफ्री हिंटन और यान लेकुन को यह पुरस्कार एआई के एक उपक्षेत्र डीप लर्निंग के विकास के लिए दिया गया है। इन तीनों द्वारा बीसवीं सदी के अंतिम और इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में ऐसी तकनीकें विकसित की गई हैं जिनकी मदद से कंप्यूटर दृष्टि और वाणी पहचान जैसी उपलब्धियां संभव हुई हैं। इन्हीं के द्वारा विकसित तकनीकें ड्राइवर-रहित कारों और स्व-चालित चिकित्सकीय निदान के मूल में भी हैं।

हिंटन अपना समय गूगल और टोरोंटो विश्वविद्यालय को देते हैं, बेन्जिओ मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और लेकुन फेसबुक के एआई वैज्ञानिक हैं तथा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। इन तीनों ने उस समय काम किया जब एआई के क्षेत्र में ठहराव आया हुआ था। तीनों ने खास तौर से ऐसे कंप्यूटर प्रोग्राम्स पर ध्यान केंद्रित किया जिन्हें न्यूरल नेटवर्क कहते हैं। ये ऐसे कंप्यूटर प्रोग्राम होते हैं जो डिजिटल न्यूरॉन्स को जोड़कर बनते हैं। वर्तमान एआई की बुनियाद के ये प्रमुख अंश हैं। इन तीनों शोधकर्ताओं ने दर्शाया था कि न्यूरल नेटवर्क अक्षर पहचान जैसे कार्य कर सकते हैं।

तीनों शोधकर्ताओं का ख्याल है कि एआई का भविष्य काफी आशाओं से भरा है। उनका कहना है कि शायद मनुष्य के स्तर की बुद्धि तो विकसित नहीं हो पाएगी लेकिन कृत्रिम बुद्धि मनुष्य के कई काम संभालने लगेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिमनद झील के फूटने के अनुमान की तकनीक

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु के वैज्ञानिकों ने हिमनद झीलों के फैलने और फूटने की भविष्यवाणी करने की एक नई तकनीक विकसित की है। वास्तव में हिमनद झीलें तब बनती हैं जब हिमनद खिसकने से खोखली जगहों में बर्फ के बड़े जमाव रह जाते हैं जिनके पिघलने से झीलों का निर्माण होता है।

अध्ययन के लिए सिक्किम की सबसे बड़ी झील, दक्षिण ल्होनाक झील, पर इस नई तकनीक को लागू किया गया। वैसे तो यह झील पहले से ही संभावित खतरे की श्रेणी में है और इस तकनीक के उपयोग से इस बात कि पुष्टि भी हो गई। नेचर इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज के वैज्ञानिक रेम्या नंबूदिरी ने सिक्किम स्टेट काउंसिल ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के साथ किए गए अध्ययन में बताया कि इस झील का आकार तेज़ी से बढ़ रहा है जो आने वाले संभावित खतरे की ओर इशारा करता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 51.4 मीटर गहरी झील का आयतन 2015 में लगभग 6 करोड़ क्यूबिक मीटर था जो बढ़कर 9 करोड़ क्यूबिक मीटर होने की संभावना है। यदि यह झील फूट गई तो इतनी बड़ी मात्रा में पानी के अचानक बहाव से निचले इलाके में खतरनाक हालात बन सकते हैं। पूर्व में हिमालयी क्षेत्र में कई बार प्रलय की स्थिति बन चुकी है। जैसे 1926 का जम्मू-कश्मीर जलप्रलय, 1981 में किन्नौर घाटी, हिमाचल प्रदेश में बाढ़ और 2013 में केदारनाथ, उत्तराखंड का प्रकोप।

हिमनद में छिपी इन झीलों पर उपग्रहों की मदद से लगातार नज़र रखी जा रही है। किंतु रिमोट सेंसिंग से न तो झीलों की गहराई का पता लगाया जा सकता है और न ही आपदा के संभावित समय का, इसलिए शोधकर्ताओं ने झीलों के आयतन और उसके विस्तार का अनुमान और असुरक्षित स्थानों की पहचान करने के लिए हिमनद की सतह का वेग, ढलान और बर्फ के प्रवाह जैसे मापदंडों का उपयोग करते हुए एक तकनीक विकसित की है।

उन्होंने इस क्षेत्र में नौ अन्य हिमनद झीलों और तीन स्थलों का भी चित्रण किया है जहां भविष्य में नई झीलें बन सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसार, इस तकनीक का उपयोग हिमालय के अन्य हिमनदों की निगरानी के लिए भी किया जा सकता है ताकि लोगों को अचानक आने वाली बाढ़ के बारे में पहले से  चेतावनी दी जा सके। फिलहाल तो भारत के पास हिमनद झील के फूटने की कोई चेतावनी प्रणाली नहीं है लेकिन इस तकनीक की मदद से प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली को एक ऐसे मॉडल के साथ जोड़ा जा सकता है जो आकस्मिक बाढ़ के आगमन के समय की भविष्यवाणी करने में सक्षम हो। (स्रोत फीचर्स)

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खेती के बाद शामिल हुए नए अक्षर

बातचीत में हम ‘फ’ और ‘व’ अक्षरों का आसानी से उच्चारण कर लेते हैं। लेकिन एक समय था जब इन अक्षरों का उच्चारण करना इतना आसान न था, बल्कि ये अक्षर तो भाषा में शामिल भी नहीं थे। हाल ही में नेचर इंडिया में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि मानवों में ‘फ’ और ‘व’ बोलने की क्षमता, खेती के फैलने और मानवों द्वारा पका हुआ भोजन खाने की संस्कृति की बदौलत विकसित हुई है।

1985 में अमेरिकी भाषा विज्ञानी चार्ल्स हॉकेट ने इस ओर ध्यान दिलाया था कि हज़ारों वर्ष पहले शिकारियों की भाषा में दंतोष्ठ्य ध्वनियां शामिल नहीं थीं। उनका अनुमान था कि इन अक्षरों की कमी के लिए आंशिक रूप से उनका आहार ज़िम्मेदार था। उनके अनुसार खुरदरा और रेशेदार भोजन चबाने से जबड़ों पर ज़ोर पड़ता है जिसके कारण दाढ़ें घिस जाती हैं। इसके फलस्वरूप निचला जबड़ा बड़ा हो जाता है। इस तरह धीरे-धीरे ऊपरी और निचला जबड़ा और दांत एक सीध में आ जाते हैं। दांतों की इस तरह की जमावट के कारण ऊपरी जबड़ा नीचे वाले होंठ को छू नहीं पाता। दंतोष्ठ्य ध्वनियों के उच्चारण के लिए ऐसा होना ज़रूरी है।

डैमियल ब्लैसी और स्टीवन मोरान और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में चार्ल्स हॉकेट के इस विचार को जांचा। अध्ययन के अनुसार मानव द्वारा मुलायम (पका हुआ) भोजन खाने से जबड़ों पर कम दबाव पड़ा। कम दबाव पड़ने के कारण उनका ऊपरी जबड़ा निचले जबड़े की सीध में न होकर निचले जबड़े को थोड़ा ढंकने लगा। जिसके कारण इन ध्वनियों को बोलने में आसानी होने लगी और भाषा में नए शब्द जुड़े।

अध्ययनकर्ताओं ने हॉकेट के विचार को जांचने के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग की मदद ली। इसकी मदद से उन्होंने यह दिखाया कि ऊपरी और निचले दांतों के ठीक एक के ऊपर एक होने की तुलना में जब ऊपरी और निचले दांत ओवरलैप (ऊपरी जबड़ा निचले जबड़े को ढंक लेता है) होते हैं तो दंतोष्ठ्य (फ और व) ध्वनि के उच्चारण में 29 प्रतिशत कम ज़ोर लगता है। इसके बाद उन्होंने दुनिया की कई भाषाओं की जांच की। उन्होंने पाया कि कृषि आधारित सभ्यताओं की भाषा की तुलना में शिकारियों के भाषा कोश में सिर्फ एक चौथाई दंतोष्ठ्य अक्षर थे। इसके बाद उन्होंने भाषाओं के बीच के सम्बंध को देखा और पाया कि दंतोष्ठ्य ध्वनियां तेज़ी से फैलती हैं। इसी कारण ये अक्षर अधिकांश भाषाओं में मिल जाते हैं।

इस अध्ययन के नतीजे इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि जीवन शैली में बदलाव हमें कई तरह से प्रभावित कर सकते हैं, ये हमारी भाषा को भी प्रभावित कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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ब्लैक होल की मदद से अंतरिक्ष यात्रा

किसी कल्पित एलियन सभ्यता द्वारा यात्रा करने के तरीके क्या होंगे? कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक खगोल विज्ञानी ने कुछ अटकल लगाई है। उनके अनुसार एलियन इसके लिए बायनरी ब्लैक होल पर लेज़र से गोलीबारी करके ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं। गौरतलब है कि बायनरी ब्लैक होल एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं। दरअसल, यह नासा द्वारा दशकों से इस्तेमाल की जा रही तकनीक का ही उन्नत रूप है।

फिलहाल अंतरिक्ष यान सौर मंडल में ग्रेविटी वेल का उपयोग गुलेल के रूप में करके यात्रा करते हैं। पहले तो अंतरिक्ष यान ग्रह के चारों ओर परिक्रमा करते हैं और अपनी गति बढ़ाने के लिए ग्रह के करीब जाते हैं। जब गति पर्याप्त बढ़ जाती है तो इस ऊर्जा का उपयोग वे अगले गंतव्य तक पहुंचने के लिए करते हैं। ऐसा करने में वे ग्रह के संवेग को थोड़ा कम कर देते हैं, लेकिन यह प्रभाव नगण्य होता है।

यही सिद्धांत ब्लैक होल के आसपास भी लगाया जा सकता है। ब्लैक होल का गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है। लेकिन यदि कोई फोटॉन ब्लैक होल के नज़दीक एक विशेष क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो वह ब्लैक होल के चारों ओर एक आंशिक चक्कर पूरा करके उसी दिशा में लौट जाता है। भौतिक विज्ञानी ऐसे क्षेत्रों को ‘गुरुत्व दर्पण’ और ऐसे लौटते फोटॉन को ‘बूमरैंग फोटॉन’  कहते हैं।

बूमरैंग फोटॉन पहले से ही प्रकाश की गति से चल रहे होते हैं, इसलिए  ब्लैक होल के पास पहुंचकर उनकी गति नहीं बढ़ती बल्कि उन्हें ऊर्जा प्राप्त हो जाती है। फोटॉन जिस ऊर्जा के साथ गुरुत्व दर्पण में प्रवेश लेते हैं, उससे अधिक उर्जा उनमें आ जाती है। इससे ब्लैक होल के संवेग में ज़रूर थोड़ी कमी आती है।

कोलंबिया के खगोलविद डेविड किपिंग ने आर्काइव्स प्रीप्रिंट जर्नल में प्रकाशित एक पेपर में बताया है कि यह संभव है कि कोई अंतरिक्ष यान किसी बायनरी ब्लैक होल सिस्टम पर लेज़र से फोटॉन की बौछार करे और जब ये फोटॉन ऊर्जा प्राप्त कर लौटें तो इनको अवशोषित कर अतिरिक्त ऊर्जा को गति में परिवर्तित कर दे। पारंपरिक लाइटसेल की तुलना में यह तकनीक अधिक लाभदायक होगी क्योंकि इसमें ईंधन की आवश्यकता नहीं है।

लेकिन इस तकनीक की भी सीमाएं हैं। एक निश्चित बिंदु पर अंतरिक्ष यान ब्लैक होल से इतनी तेज़ी से दूर जा रहा होगा कि वह अतिरिक्त गति प्राप्त करने के लिए पर्याप्त प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित नहीं कर पाएगा। अंतरिक्ष यान से पास के किसी ग्रह पर लेज़र को स्थानांतरित करके इस समस्या को हल करना संभव है: लेज़र को इस तरह सटीक रूप से निशाना लगाया जाए कि यह ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण से निकल कर अंतरिक्ष यान से टकराए।

किपिंग के अनुसार हो सकता है आकाशगंगा में कोई ऐसी सभ्यता हो जो यात्रा के लिए इस तरह की प्रणाली का उपयोग कर रही हो। (स्रोत फीचर्स)

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पश्चिमी घाट में मेंढक की नई प्रजाति मिली

हाल ही में केरल के वायनाड़ ज़िले के पश्चिमी घाट इलाके में वैज्ञानिकों को मेंढक की नई प्रजाति मिली है। इन मेंढकों के पेट नारंगी रंग के हैं। और शरीर के दोनों तरफ हल्के नीले सितारों जैसे धब्बे हैं और उंगलियां तिकोनी हैं। शोघकर्ताओं ने नेचर इंडिया पत्रिका में बताया है कि इन मेंढकों को छुपने में महारत हासिल है। ज़रा-सा भी खटका या सरसराहट होने पर ये उछल कर  पत्ते या घास के बीच छुप जाते हैं।

चूंकि इनके शरीर पर सितारानुमा धब्बे हैं और ये कुरुचियाना जनजाति बहुल वायनाड़ ज़िले में मिले हैं, इसलिए शोधकर्ताओं ने इन मेंढकों को एस्ट्रोबेट्रेकस कुरुचियाना नाम दिया है।

मेंढक की यह प्रजाति सबसे पहले 2010 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के एस.पी. विजयकुमार ने पहचानी थी। बारीकी से अध्ययन करने पर पता चला कि ये पश्चिमी घाट के अन्य मेंढकों की तरह नहीं है। इसके बाद उन्होंने युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के डेविड ब्लैकबर्न और जॉर्ज वाशिंगटन युनिवर्सिटी के एलेक्स पायरॉन की मदद से मेंढक की हड्डियों और जीन का विश्लेषण किया। हड्डियों की जांच में उन्होंने पाया कि यह मेंढ़क निक्टिबेट्रेकिडी कुल का है। इस कुल के मेंढकों की लगभग 30 प्रजातियां भारत और श्रीलंका में पाई जाती हैं। और जेनेटिक विश्लेषण से लगता है कि ये मेंढक 6-7 करोड़ वर्ष पूर्व अपनी करीबी प्रजातियों से अलग विकसित होने शुरू हुए थे।

यह वह समय था जब भारत अफ्रीका और मैडागास्कर से अलग होकर उत्तर की ओर सरकते हुए एशिया से टकराया था और हिमालय बना था। भारत के लंबे समय तक किसी अन्य स्थान से जुड़ाव न होने के कारण यहां नई प्रजातियों का विकास हुआ, और उन प्रजातियों को भी संरक्षण मिला जो अन्य जगह किन्हीं कारणों से लुप्त हो गर्इं।

इस नई प्रजाति के सामने आने से एक बार फिर पश्चिमी घाट जैव विविधता के हॉटस्पॉट के रूप में सामने आया है, खास तौर से उभयचर जीवों के मामले में। इस व अन्य प्रजातियों की खोज से पश्चिमी घाट के मेंढकों की विविधता के पैटर्न को समझने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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पिघलते एवेरस्ट ने कई राज़ उजागर किए

माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचना हमेशा से एक बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इसके शिखर पर पहुंचने का रास्ता जितना रहस्यों से भरा है उतना ही बाधाओं से भी भरा है। गिरती हुई बर्फ, उबड़ खाबड़ रास्ते, कड़ाके की ठंड और अजीबो-गरीब ऊंचाइयां इस सफर को और चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। अभी तक जहां लगभग 5,000 लोग सफलतापूर्वक पहाड़ की चोटी पर पहुंच चुके हैं, वहीं ऐसा अनुमान है कि 300 लोग रास्ते में ही मारे गए हैं।

पर्वतारोहियों के अनुसार अगर उनका कोई साथी ऐसे सफ़र के दौरान मर जाता है तो वे उसको पहाड़ों पर ही छोड़ देते हैं। तेज़ ठंड और बर्फबारी के चलते शव बर्फ में ढंक जाते हैं और वहीं दफन रहते हैं। लेकिन वर्तमान जलवायु परिवर्तन से शवों के आस-पास की बर्फ पिघलने से शव उजागर होने लगे हैं।

पिछले वर्ष शोधकर्ताओं के एक समूह ने एवरेस्ट की बर्फ को औसत से अधिक गर्म पाया। इसके अलावा चार साल से चल रहे एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि बर्फ पिघलने से पर्वत पर तालाबों के क्षेत्र में विस्तार भी हो रहा है। यह विस्तार न केवल हिमनदों के पिघलने से हुआ है बल्कि नेपाल में खम्बु हिमनद की गतिविधि के कारण भी हुआ है।

अधिकांश शव पहाड़ के सबसे खतरनाक क्षेत्रों में से एक, खम्बु में जमे हुए जल प्रपात वाले इलाके में पाए गए। वहां बर्फ के बड़े-बड़े खंड अचानक से ढह जाते हैं और हिमनद प्रति दिन कई फीट नीचे खिसक जाते हैं। 2014 में, इस क्षेत्र में गिरती हुई बर्फ के नीचे कुचल जाने से 16 पर्वतारोहियों की मौत हो गई थी।

पहाड़ से शवों को निकालना काफी खतरनाक काम होने के साथ कानूनी अड़चनों से भरा हुआ है। नेपाल के कानून के तहत वहां किसी भी तरह का काम करने के लिए सरकारी एजेंसियों को शामिल करना आवश्यक होता है। एक बात यह भी है कि ऐसे पर्वतारोही शायद चाहते होंगे कि यदि एवरेस्ट के रास्ते में जान चली जाए तो उनके शव को वहीं रहने दिया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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आखिर समुदाय ने अपनाया स्वच्छता अभियान – भारत डोगरा

हाल के समय में भारत में स्वच्छता अभियान का मुख्य उद्देश्य खुले में शौच को समाप्त करना रहा है और इसके लिए रिकार्ड तोड़ गति से शौचालय बनाए गए हैं। इस अभियान की टिकाऊ सफलता के लिए समुदाय की स्वीकृति और इस स्वीकृति पर आधारित भागीदारी ज़रूरी है। यह स्वीकृति प्राप्त करने में समय तो लगा है पर अब बहुत से स्थानों पर समुदाय की यह स्वीकृति प्राप्त होने लगी है जिससे टिकाऊ सफलता की संभावना भी बढ़ गई है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में बहराईच, श्रावस्ती, बलरामपुर आदि ज़िलों के दौरे में ऐसे कई गांव नज़र आए जहां समुदाय की स्वीकृति स्पष्ट नज़र आई। बहराईच ज़िले के चितोरा ब्लॉक में समसातरह गांव हो या केसरगंज ब्लॉक का झोपड़वा गांव हो, लगभग सभी परिवारों के शौचालय बन गए हैं व लगभग सभी परिवार इनका उपयोग भी कर रहे हैं। यह एक बड़ा बदलाव है। विशेषकर महिलाओं ने बार-बार कहा कि इनसे उन्हें बहुत राहत मिली है। लोगों ने कहा कि इस कारण बीमारी का प्रकोप भी कम हो रहा है।

पर बाद में दोनों गांवों के लोगों ने यह भी कहा कि अन्य कारणों से दूषित पानी की समस्या बढ़ रही है। समसातरह में पानी की कमी भी बनी रही है। जल-संकट होगा तो शोैचालय का उपयोग भी कठिन होगा। झोपड़वा में पानी पहले से दूषित था, पर हाल में एक फैक्ट्री से पास के नाले का प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि पशुओं की मौतें होने लगी है। लोग शौचालयों से प्रसन्न हैं, पर साथ में चाहते हैं कि जल-संकट भी दूर हो व साफ पानी सुनिश्चित हो।

बलरामपुर ज़िले के बेल्हा गांव में स्वच्छता ने व वहां के स्कूल ने बहुत प्रगति की है। बाढ़ को ध्यान में रखकर शौचालय ऊंचा बनवाया गया है पर यह चिंता बनी हुई है कि अधिक बाढ़ का शौचालय पर क्या असर पड़ेगा। कहीं जल-स्तर बहुत ऊंचा हो तो शौचालयों के रिसाव से जल-प्रदूषण का खतरा भी कुछ स्थानों पर बना हुआ है। यह खतरा वहां अधिक है जहां निर्माण शौचालय के मानकों के अनुसार नहीं हो पाया है। ऐसे शौचालयों को सुधारना होगा।

कुल मिलाकर शौचालयों की गुणवत्ता में आंरभिक दिनों की अपेक्षा सुधार हुआ है। अनेक अधिकारियों ने निष्ठा से कार्य किया है व स्वैच्छिक संगठनों का भी उपयोगी सहयोग भी उन्हें मिला है। विशेषकर समुदाय आधारित पूर्ण स्वच्छता (कम्यूनिटी लेड टोटल सेनिटेशन) के अभियान में आगा खां फाउंडेशन का यहां महत्वपूर्ण योगदान रहा जिसकी समुदायों की स्वीकृति प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। यूनिसेफ से सहयोग प्राप्त कर इस संस्था ने गांव, स्कूल, आंगनवाड़ी, स्वास्थ्य केन्द्र आदि में स्वच्छता अभियान की मॉनिटरिंग के लिए सूचना तकनीक का भी बेहतर उपयोग किया, जिससे समस्याओं के यथासमय समाधान में मदद मिली। स्वच्छता अभियान के लिए प्रधानों, उनके सचिवों, मिस्त्रियों, प्रेरकों आदि के जो प्रशिक्षण स्वैच्छिक संस्था द्वारा हुए, उनसे भी सफलता में योगदान मिला।

बहराईच के धोबहा गांव का स्कूल हो या श्रावस्ती ज़िले के पांडेयपुर व डंडौली गांव का या बलरामपुर ज़िले के बेल्हा गांव का, ये सब स्कूल ऐसे हैं जहां हाल में बहुत सुधार हुआ है व इसका एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है शौचालय व स्वच्छता में सुधार। अच्छे शौचालय बने हैं, जल-आपूर्ति बेहतर हुई है पर फिर भी लगभग सभी ग्रामीण स्कूलों में एक बड़ी कमी खलती है कि यहां कोई सफाईकर्मी नहीं है। जो पंचायत का सफाईकर्मी है उसी को स्कूल की सफाई की ज़िम्मेदारी दी जाती है व अधिक कार्यभार होने पर वह ठीक से यह ज़िम्मेदारी संभाल नहीं पाता है। यह कमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण सरकारी स्कूलों में ही नहीं है अपितु बिहार व अनेक अन्य राज्यों में भी यह समस्या है। लगभग सभी अध्यापक व अभिभावक स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक स्कूल में कम से कम 2 घंटे के लिए एक सफाई कर्मचारी की ज़रूरत है पर यह व्यवस्था अभी हो नहीं पाई है। इस कमी को पूरा करने से स्कूलों को स्वच्छ रखने में सहायता मिलेगी।

इसके अतिरिक्त कूड़े के सही प्रबंध की चुनौती अभी सामने है जिसकी ज़रूरत शहरों में ही नहीं गांवों में भी महसूस की जा रही है। कूड़े को एकत्र करने से पहले ही इसके तीन या कम से कम दो भागों में वर्गीकरण के महत्त्व को स्वीकार कर रहे हैं पर इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति अभी बहुत कम नज़र आती है। इस क्षेत्र में बहुत रचनात्मक कार्य करने की संभावना है। उम्मीद है कि आगे स्वच्छता अभियान में इसे और महत्त्व मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर की एक नई नन्ही प्रजाति

वैज्ञानिकों हाल ही में मिले डायनासौर के जीवाश्म इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कंगारू के आकार के फुर्तीले डायनासौर ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका के बीच की प्राचीन भ्रंश घाटी में रहते थे।

ऑस्ट्रेलिया में साढ़े बारह करोड़ वर्ष पुरानी चट्टानों की खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को कंगारू जितने बड़े डायनासौर के जीवाश्म मिले हैं। ये जीवाश्म डायनासौर के जबड़ों के हैं। इन जबड़ों की बनावट उल्टे गैलियन जहाज़ों के ढांचे जैसी है। जबड़ों की गैलियन नुमा बनावट और जीवाश्म विज्ञानी डोरिस सीगेट्स-डीविलियर्स के नाम पर इस डायनासौर को गैलिनोसौरस डोरिसी नाम दिया है।

गैलिनोसौरस डोरिसी की हड्डियों का विश्लेषण करने पर पता चला कि ये डायनासौर ऑर्निथोपॉड थे यानि इनके पैर पक्षियों के पैरों की तरह थे। ये अपने पिछले मज़बूत पैरों के सहारे चलते और दौड़ते थे और शाकाहारी थे। 

न्यू इंगलैंड युनिवर्सिटी के मैथ्यू हर्न और उनकी टीम ऑस्ट्रेलिया के गोंडवाना महाद्वीप के सरकने के दौरान ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका और अंटार्कटिका के बीच डायनासौर के स्थानांतरण का मानचित्रण कर रहे हैं। पिछले साल भी हर्न की टीम ने इसी जगह एक ऑर्नीथोपॉड डायनासौर की पहचान की थी। इसे डिलुविकरसौर पिकरिंगी नाम दिया गया था जो गैलिनोसौरस डायनासौर का करीबी रिश्तेदार है। लेकिन गैलिनोसौरस डायनासौर डिलुविकरसौर से लगभग सवा करोड़ साल पहले के थे। टीम का मत है कि गैलिनोसौरस उत्तरी अमेरिका और चीन की बजाय पैटागोनिया में रहने वाली डायनासौर प्रजातियों से ज़्यादा मिलते-जुलते हैं।

गैलिनोसौरस के जीवाश्म जिन चट्टानों में मिले हैं वे ज्वालामुखी से निकली चट्टानें हैं। क्रिटेशियस युग के दौरान, जब ये डायनासौर रहा करते थे, तब पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में सक्रिय ज्वालामुखी का लावा नदियों के साथ बहकर इस घाटी में आया होगा। नदियों द्वारा बहाकर लाई गई गाद घाटी में जमा होने से मैदान बने। इन मैदानों में डायनासौर और अन्य जानवर रहने लगे।

इस अध्ययन से लगता है कि क्रिटेशियस युग के दौरान अंटार्कटिका से होकर ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बीच सेतु मौजूद रहा होगा जिसके कारण इन महाद्वीपों के डायनासौर के बीच करीबी आनुवंशिक सम्बंध दिखते हैं।

गैलिनोसौरस इस क्षेत्र में पांचवा ऑर्निथोपॉड प्रजाति का डायनासौर मिला है जिससे यह पता चलता है कि छोटे कद-काठी वाले डायनासौर काफी विविध स्थानों पर फैले हुए थे जो ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका के बीच की घाटी में पनपे थे जहां से ये महाद्वीप अलग-अलग हुए थे। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया, जेनेटिक्स और मूल विज्ञान की समझ – अश्विन साई नारायण शेषशायी

दार्शनिक बातों से हटकर जीवन के दो सत्य हैं। सबसे पहला तो यह कि हम सूक्ष्मजीवों की दुनिया में रहते हैं। सूक्ष्मजीवों से हमारा मतलब उन जीवों से है जो आम तौर पर आंखों से दिखाई नहीं देते हैं। इनमें एक-कोशिकीय बैक्टीरिया आते हैं, जो खमीर जैसे अन्य एक कोशिकीय जीवों से भिन्न हैं और उन कोशिकाओं से भी भिन्न हैं जो खरबों की संख्या में मिलकर मनुष्य व अन्य जीवों का निर्माण करती हैं। सरल माने जाने वाले बैक्टीरिया, अब तक इस ग्रह पर ज्ञात मुक्त जीवन के सबसे प्रमुख रूप हैं। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर इनकी संख्या एक के बाद तीस शून्य लगाने पर मिलेगी; मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि इतनी बड़ी संख्या को क्या कहा जाना चाहिए।

मानव कल्पना में, कई बैक्टीरिया शरारती होते हैं और सबसे बदतरीन मामलों में इनसे बचकर रहना चाहिए। बैक्टीरिया कई संक्रामक रोग उत्पन्न करते हैं जो काफी लोगों को बीमार करते हैं और मृत्यु का भी कारण बनते हैं। दूसरी ओर, यह भी सच है कि इन जीवाणुओं के बिना हमारा अस्तित्व वैसा नहीं होता जैसा आज है। यह तो अब एक जानी-मानी बात है कि मानव शरीर में अपनी कोशिकाओं की तुलना में बैक्टीरिया की संख्या दस-गुना अधिक हैं, और जिन प्रायोगिक जीवों में ये बैक्टीरिया नहीं होते उन्हें सामान्य जीवन जीने में गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

उदाहरण के लिए, कोई एंटीबायोटिक्स लेने के बाद हम जिस अतिसार (दस्त) का शिकार हो जाते हैं वह आंत में बसने वाले इन उपयोगी बैक्टीरिया के खत्म हो जाने की वजह से होता है। इसीलिए एंटीबायोटिक की खुराक के साथ इन दोस्ताना बैक्टीरिया को बहाल करने के लिए प्रोबायोटिक औषधि दी जाती है जिसमें अनुकूल बैक्टीरिया होते हैं।

यह सच है कि अगर मैं बेतरतीब ढंग से 10 बैक्टीरिया ले लूं, तो संभवत: इनमें से कोई भी बैक्टीरिया, स्वस्थ मानव को बीमार करने का कारक नहीं होगा। जीवन के संकीर्ण मानव-केंद्रित दृष्टिकोण से हटकर देखें, तो बैक्टीरिया इस ग्रह पर कई जैव-रासायनिक अभिक्रियाओं को भी उत्प्रेरित करते हैं जिनकी विश्व निर्माण में प्रमुख भूमिका है। यहां हम जीवाणुओं के जीवन के तरीकों पर चर्चा करेंगे और देखेंगे कि वे हमारे परितंत्र की आधारशिला हैं, और उनके साथ अपने शत्रुवत व्यवहार के परिणामस्वरूप हमें कई संकटों का सामना भी करना पड़ता है।

जीवन का दूसरा सच जिसमें हमें काफी दिलचस्पी है उसका सम्बंध आनुवंशिकी से है। जैव विकास के सिद्धांत के अनुसार जीवन का सार फिटनेस है। फिटनेस एक तकनीकी शब्द है। इस फिटनेस को जिम में बिताए गए समय से नहीं बल्कि एक व्यक्ति की जीवनक्षम संतान पैदा करने की क्षमता से निर्धारित किया जाता है। समस्त जीव यह करते हैं लेकिन संतान पैदा करने की यह दर अलग-अलग प्रजातियों में अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए, ई. कोली नामक बैक्टीरिया की 100 कोशिकाएं सिर्फ 20 मिनट के समय में दुगनी हो सकती हैं। इस समय को एक पीढ़ी की अवधि कहा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर, मनुष्य का एक जोड़ा अपने पूरे जीवन काल, जो एक सदी के बड़े भाग के बराबर है, में एक या दो संतान पैदा कर सकता है। इतनी भिन्नता के बाद भी हम सभी एक साथ रहते हैं। इस तरह के विविध प्रकार के जीवों के सह अस्तित्व को समझना अपने आप में शोध का एक रोमांचक और चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है (लेकिन यहां इसे हम विस्तार में नहीं देखेंगे)। यह बात ध्यान देने वाली है कि एक-कोशिकीय जीवाणु और एक मनुष्य के बीच प्रजनन दर की यह तुलना पूरी तरह से उचित नहीं है, लेकिन ऐसा क्यों नहीं है इसकी बात किसी और दिन करेंगे। अभी के लिए यह कहना पर्याप्त है कि प्रजनन जीवन की निरंतरता के लिए महत्वपूर्ण है, अब चाहे वो प्रजाति हर 20 मिनट में द्विगुणित हो या फिर 20 साल में।

यह तो हम सभी जानते हैं कि हमारी आनुवंशिक सामग्री यानी हमारा जीनोम, हमारे अस्तित्व को निर्धारित करने का महत्वपूर्ण कारक है। न केवल यह हमारी कई विशेषताओं को निर्धारित करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि इसकी प्रतिलिपि पूरी ईमानदारी से बने और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रेषित हो। हालांकि जीवन की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है किंतु आनुवंशिक सामग्री की सही प्रतिलिपि बनाने में निष्ठा बहुत ज़्यादा भी नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो हम सब, बैक्टीरिया से लेकर मनुष्य तक, एक समान होते। यह तो हम जानते हैं कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक उत्परिवर्तन का एक निश्चित स्तर जीवन के लिए आवश्यक है। और अगर हमको विकसित होना है – और हम विकसित हो ही रहे हैं – तो कुछ उत्परिवर्तनों को स्वीकार करना ही होगा। बैक्टीरिया इस कला में माहिर हैं। वे सटीकता और लचीलेपन बीच संतुलन बनाकर रखते हैं जिससे वह विविधता बनी रहती है जिसने उन्हें लंबे समय तक धरती पर जीवित रखा है। पर्याप्त विविधता उत्पन्न करके वे धरती के हर कोने में जीवित रहने से लेकर एंटीबायोटिक्स को पराजित करने का रास्ता भी खोज पाए हैं।

जीवाणुओं के अध्ययन ने जीवन की निरंतरता को समझने के तरीके समझने में मदद की है; बैक्टीरिया की आनुवंशिकी को समझना चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है: कैसे थोड़े-से बैक्टीरिया बीमारी के कारक बन जाते हैं और किस तरह वे हमारे द्वारा बनाए गए बचाव के तरीकों (एंटीबायोटिक समेत) से बच निकलते हैं।

जीवाणु जीव विज्ञान के बारे में हमारी वर्तमान समझ का अधिकांश विकास तत्काल उपयोगी अनुसंधान के कारण नहीं, बल्कि दशकों से चली आ रही मूल सवालों के जवाब खोजने की कोशिशों  से संभव हुआ है। इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए दुनिया भर के कई शोधकर्ताओं ने प्रयास किए हैं, इन प्रयासों के आधार पर एक के बाद एक शोध पत्र या थीसिस ने हमारे ज्ञान को बढ़ाया है। ‘नवाचार’ जैसा प्रचलित शब्द अचानक से प्रकट नहीं होता है, यह काफी हद तक मूलभूत विज्ञान द्वारा निर्धारित मजबूत नींव पर आधारित होता है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां समाज के लिए प्रासंगिक अध्ययनों ने ऐसे अमूर्त प्रश्नों को प्रभावित किया है जो जिज्ञासा से प्रेरित थे, जिज्ञासा जो एक अनिवार्य मानवीय गुण है। जहां लक्ष्य आधारित प्रायोगिक अनुसंधान का महत्व है, वहीं विज्ञान के मूलभूत पहलुओं की समझ के बिना इनका कोई अस्तित्व नहीं।

ये ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिनसे रोज़मर्रा के जीवन में हमारा सामना होता है। लेकिन मूलभूत विज्ञान के लिए धन उपलब्ध कराने को लेकर सार्वजनिक और राजनीतिक अविश्वास के सामने, समाज में मूल विज्ञान की भूमिका के बारे में सोचने के लिए यह सबसे उचित समय है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान कांग्रेस: भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का वक्तव्य

जालंधर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस में कई वक्ताओं ने दावे किए कि सारा आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान प्राचीन भारत में पहले से ही उपलब्ध था। प्रस्तुत है भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा ऐसे अपुष्ट, मनगढ़ंत दावों पर सवाल उठाता और वैज्ञानिक दष्टिकोण की मांग करता वक्तव्य।

हाल ही में जालंधर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस के दौरान आंध्र प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति और कई अन्य लोगों द्वारा इन-विट्रो निषेचन (परखनली शिशु), स्टेम कोशिकाओं के ज्ञान और सापेक्षता एवं गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर टिप्पणियों ने वैज्ञानिक समुदाय को चौंका दिया है।

भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA), जो लगभग 1000 प्रख्यात वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों का एक निकाय है, स्पष्ट रूप से इस तरह के किसी भी दावे को अस्वीकार और रद्द करती है। यह बयान वैज्ञानिक प्रमाण और सत्यापन योग्य डैटा की तार्किक व्याख्या पर आधारित नहीं हैं। आईएनएसए कई अन्य ऐसे दावों को भी रद्द करता है जो मज़बूत प्रमाणों और तर्कों से रहित हैं, तथा बिना किसी वैज्ञानिक अनुसंधान के किए गए हैं। विज्ञान तथ्यों पर भरोसा करता है और उसी के आधार पर उन्नति करता है। आईएनएसए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सत्यापन योग्य सबूतों के तार्किक तरीके से उपयोग की वकालत करता है। हाल ही में जारी किए गए वक्तव्य किसी भी वैज्ञानिक गहनता से दूर हैं और उन्हें सख्ती के साथ त्यागने और नज़रअंदाज़ करने की आवश्यकता है। काव्यात्मक कल्पनाओं को सुदूर अतीत की वैज्ञानिक प्रगति का द्योतक मानना निश्चित रूप से अस्वीकार्य है।

एक वैज्ञानिक निकाय के रूप में, आईएनएसए को भारत की वास्तुकला, खगोल विज्ञान, आयुर्वेद, रसायन विज्ञान, गणित, धातुकर्म और इसी तरह के अन्य क्षेत्रों में विज्ञान व प्रौद्योगिकी उपलब्धियों की समृद्ध परंपरा पर गर्व है। आईएनएसए विज्ञान के इतिहास में अनुसंधान को प्रोत्साहित करता है और इस विषय में गंभीर शोध परियोजनाओं का समर्थन भी करता है। यहां तक कि इस विषय की एक लोकप्रिय शोध पत्रिका भी प्रकाशित करता है। अच्छी तरह से शोध की गई कई किताबें भी इन उपलब्धियों पर प्रकाशित हुई हैं। ये किताबें सभी के लिए मुक्त रूप से उपलब्ध हैं।

आईएनएसए ने इस तरह के किसी भी अपुष्ट विचार का समर्थन न तो किया है, न आज करता है और न ही आगे कभी करेगा चाहे वे भारतीय विज्ञान कांग्रेस जैसे प्रतिष्ठित मंचों पर प्रस्तुत हों या किसी भी स्तर की प्रशासनिक प्रतिष्ठा रखने वाले व्यक्तियों द्वारा प्रस्तावित किए जाएं। मीडिया में तात्कालिक प्रचार के प्रलोभन के बावजूद, कल्पना और तथ्यों को अलग-अलग रखना ज़रूरी है।

आईएनएसए, सभी स्तरों पर सावधानी बरतने का आग्रह करता है और यह सुझाव देता है कि सार्वजनिक रूप से इस तरह के बयान देने से पहले जांच की वैज्ञानिक प्रक्रिया सुनिश्चित की जानी चाहिए। इस तरह का परिश्रम जनता और छात्र समुदाय की सेवा होगी और इससे वैज्ञानिक स्वभाव को बढ़ावा और विकास प्रक्रिया को गति मिलेगी।

अपनी बात को दोहराते हुए, प्राचीन साहित्य को तथ्यों/प्रमाणों के तौर पर प्रस्तुत करने को अकादमी अनैतिक मानती है क्योंकि इन्हें किसी वैज्ञानिक विश्लेषण के अधीन नहीं किया जा सकता है। ऐसी प्रथाएं स्पष्ट रूप से अवांछनीय हैं। साहित्य के साथ-साथ विज्ञान में भी कल्पना का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन इसके साथ भ्रम पैदा करना बिलकुल अवैज्ञानिक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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