वेटलैंड एक महत्वपूर्ण इकोसिस्टम है – डॉ. दीपक कोहली

जीव-जन्तु विभिन्न प्रकार के प्राकृतवासों में रहते हैं। इन्हीं में से एक है वेटलैंड यानी नमभूमि। सामान्य भाषा में वेटलैंड ताल, झील, पोखर, जलाशय, दलदल आदि के नाम से जाने जाते हैं। सामान्यतया वर्षा ऋतु में ये पूर्ण रूप से जलमग्न हो जाते हैं। वेटलैंड्स का जलस्तर परिवर्तित होता रहता है। कई वेटलैंड वर्ष भर जल प्लावित रहते हैं जबकि कई ग्रीष्म ऋतु में सूख जाते हैं।

वेटलैंड एक विशिष्ट प्रकार का पारिस्थितिक तंत्र है तथा जैव विविधता का महत्वपूर्ण अंग है। ज़मीन व जल क्षेत्र का मिलन स्थल होने के कारण वेटलैंड समृद्ध पारिस्थितिक तंत्र होता है। वेटलैंड न केवल जल भंडारण का कार्य करते हैं, अपितु बाढ़ की विभीषिका कम करते हैं और पर्यावरण संतुलन में सहायक हैं।

वेटलैंड्स को जैविक सुपर मार्केट कहा जाता है। इनमें विस्तृत खाद्य जाल पाया जाता है। इन्हें धरती के गुर्दे भी कहा जाता है, क्योंकि ये जल को शुद्ध करते हैं। ये मछली, खाद्य वनस्पति, लकड़ी, छप्पर बनाने व ईंधन के रूप में उपयोगी वनस्पति एवं औषधीय पौधों के उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

वेटलैंड्स असंख्य लोगों को भोजन (मछली व चावल) प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वेटलैंड्स कार्बन अवशोषण व भूजल स्तर में वृद्धि जैसी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। ये पक्षियों और जानवरों, देशज पौधों और कीटों को आवास उपलब्ध कराते हैं।

भारत के अधिकांश वेटलैंड्स गंगा, कावेरी, कृष्णा, गोदावरी और ताप्ती जैसी प्रमुख नदी तंत्रों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुडे हुए हैं। एशियन वेटलैंड्स कोश के अनुसार वेटलैंड्स का देश के क्षेत्रफल (नदियों को छोड़कर) में 18.4 प्रतिशत हिस्सा है, जिसके 70 प्रतिशत भाग में धान की खेती होती है। भारत में वेटलैंड्स का अनुमानित क्षेत्रफल 41 लाख हैक्टर है, जिसमें 15 लाख हैक्टर प्राकृतिक और 26 लाख हैक्टर मानव निर्मित है। तटीय वेटलैंड्स का क्षेत्रफल 6750 वर्ग किलोमीटर है और यहां मुख्यत: मैंग्रोव पाए जाते हैं।

वर्तमान में प्रदूषण और औद्योगीकरण के कारण वेटलैंड्स पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। आजकल वेटलैंड्स के किनारे कूड़ा डम्प किया जा रहा है जिसके कारण ये प्रदूषित हो रहे हैं। कई जगहों पर वेटलैंड्स को पाटकर उन पर कांक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं। वेटलैंड्स के संकटग्रस्त होने के कारण वहां रहने वाले पशु, पक्षी एवं वनस्पतियों का अस्तित्व भी संकट में है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल के दलदली क्षेत्र में पाया जाने वाला दलदली हिरण कम हो रहा है। इसी प्रकार तराई क्षेत्र में पाई जाने वाली फिशिंग कैट पर भी बुरा असर पड़ रहा है। गुजरात के कच्छ क्षेत्र में जंगली गधा भी खतरे में है। असम के काजीरंगा का एक सींग वाला भारतीय गैंडा भी संकटग्रस्त प्राणियों की श्रेणी में शामिल है। इसी प्रकार ओटर, गंगा डॉल्फिन, डूगोंग, एशियाई जलीय भैंस जैसे वेटलैंड से जुड़े अनेक जीव खतरे में हैं।

वेटलैंड संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास में ‘रामसर संधि’ प्रमुख है। यह एक अन्तर-सरकारी संधि है, जो वेटलैंड्स और उनके संसाधनों के संरक्षण और बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग के लिए राष्ट्रीय कार्य और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का ढांचा उपलब्ध कराती है। 1971 में देशों ने ईरान के रामसर में विश्व के वेटलैंड्स के संरक्षण हेतु एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इस दिन ‘विश्व वेटलैंड्स दिवस’ का आयोजन किया जाता है।

वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में 2200 से अधिक वेटलैंड्स हैं, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के वेटलैंड्स की रामसर सूची में शामिल किया गया है । रामसर कन्वेंशन में शामिल होने वाले देश वेटलैंड्स को पहुंची हानि और उनके स्तर में आई गिरावट को दूर करने के लिए सहायता प्रदान करने हेतु प्रतिबद्ध हैं।

वेटलैंड्स संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रयास किए गए हैं। 1986 में केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों के सहयोग से राष्ट्रीय वेटलैंड संरक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके अन्तर्गत संरक्षण और प्रबंधन के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा देश में 115 वेटलैंड्स की पहचान की गई थी।

वर्ष 2017 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वेटलैंड्स के संरक्षण से सम्बंधित नए नियम अधिसूचित किए गए थे। नए नियमों में वेटलैंड्स प्रबंधन के प्रति विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाया गया है, ताकि क्षेत्रीय विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके और राज्य अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित कर सकें।

उल्लेखनीय है कि देश में मौजूद 26 वेटलैंड्स को ही संरक्षित किया गया है, लेकिन ऐसे हज़ारों वेटलैंड्स हैं जो जैविक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण तो हैं लेकिन उनकी कानूनी स्थिति स्पष्ट नहीं है।

वेटलैंड परितंत्र के अदृश्य अर्थतंत्र का आकलन करने वाली संस्था ‘दी इकॉनॉमिक्स ऑफ इकोसिस्टम एंड बायोडायवर्सिटी सर्विसेज़’ के अनुसार समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए वेटलैंड जीवनरेखा है। वेटलैंड्स की सेवाओं को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

(क) जीवन-यापन के रुाोत उपलब्ध कराना ताकि इन क्षेत्रों में निवास करने वाले गरीब लोगों को कमाई का अवसर मिल सके। वेटलैंड से शुद्ध पेयजल, भोजन, रेशे, र्इंधन, जेनेटिक संसाधन, जैव रसायन, प्राकृतिक औषधियां आदि प्राप्त होते हैं।

(ख) स्थानीय जलवायु विनियमन, ग्रीनहाउस गैसों के नियंत्रण हेतु एक वृहद कार्बन सिंक, जलीय चक्र को रेगुलेट करना और भूमिगत जल के स्तर को नियंत्रित करना भी वेटलैंड के लाभ के अन्तर्गत आता है। आपदा जोखिम को कम करना, खासकर बाढ़ और आंधी से बचाव। मृदा सृजन और मृदा अपरदन का नियंत्रण, सतही और भूमिगत जल में उपस्थित जैव रसायन और आर्सेनिक, लेड, आयरन, फ्लोरीन आदि का उपचार। वेटलैंड्स जल का शुद्धिकरण करते हैं और प्राकृतिक संतुलन बनाने में भूमिका निभाते हैं।

(ग) वेटलैंड्स सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आस्था का केंद्र माने जाते हैं। ग्रामीण अंचल में लोग इनकी पूजा करते हैं। आजकल वेटलैंड्स को इकोटूरिज़्म के विशेष केंद्र के तौर पर देखा जा रहा है। इकोटूरिज़्म के साथ-साथ शिक्षा और वैज्ञानिक-शोध के केंद्र के तौर पर भी इन्हें विकसित किया जा रहा है।

(घ) वेटलैंड्स को जैव विविधता का स्वर्ग भी कहा जाता है। ये शीतकालीन पक्षियों और विभिन्न जीव-जन्तुओं का आश्रय स्थल होते हैं। विभिन्न प्रकार की मछलियों और जन्तुओं के प्रजनन के लिए भी ये उपयुक्त होते हैं।

वेटलैंड्स से हमारा जीवन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। वेटलैंड्स बचाए बगैर न तो वैश्विक तापमान में वृद्धि रोकी जा सकती है और न ही जलवायु परिवर्तन की मार से बचा जा सकता है। अत: अपने स्वार्थ के लिए सही, अब ज़रूरी हो गया है कि वेटलैंड्स को बचाएं। (स्रोत फीचर्स)

भारत के प्रमुख वेटलैंड्स

भितरकनिका (उड़ीसा), चिलिका (उड़ीसा), भोज ताल (मध्य प्रदेश), चंद्रताल (हिमाचल प्रदेश), पोंग बांध झील (हिमाचल प्रदेश)रेणुका नमभूमि (हिमाचल प्रदेश), डिपोल बिल (असम), पूर्वी कोलकाता नमभूमि (पश्चिम बंगाल), हरिका झील (पंजाब), कंजली (पंजाब), रोपर (पंजाब), सांभर झील (राजस्थान), केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (राजस्थान), कौलुरू झील (आंध्र प्रदेश), लोकटक झील (मणिपुर), नलसरोवर पक्षी अभयारण्य (गुजरात), पाइंट कैलियर पक्षी विहार (तमिलनाडु), रूद्रसागर झील (त्रिपुरा), ऊपरी गंगा नदी (उत्तर प्रदेश), अष्टमुडी (केरल), वायनाड-कोल नमभूमि (केरल), साथामुकोटा झील (केरल), सौमित्री (जम्मू एवं कश्मीर), सुरिनसर-मान्सर झील (जम्मू एवं कश्मीर), होकेरा (जम्मू एवं कश्मीर) तथा वूलर झील (जम्मू एवं कश्मीर)।

प्रमुख जीव-जन्तु और वनस्पतियां

गैंडा, हिस्पिड हेअर (खरगोश), हिरण, ऊदबिलाव, गंगा डॉल्फिन, बारहसिंघा, बंगाल फ्लोरिकन, सारस, ककेर, घड़ियाल, मगर, फ्रेशवाटर टर्टल्स, पनकौआ, ब्लैक नेक्ड स्टॉर्क, संगमरमरी टील आदि। वनस्पतियों में सरपत, मूंज, नरकुल, सेवार, तिन्नाधान, कसेरू, कमलगट्टा, मखाना, सिंघाड़ा आदि प्रमुख हैं।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अपने खुद के रक्तदाता बनिए – नरेंद्र देवांगन

क महिला स्विट्जरलैंड की सीमा शुल्क चौकी पर एक छोटा-सा सूटकेस तथा प्लास्टिक की बर्फपेटी लिए कतार में लगी थी। सीमा शुल्क अधिकारी ने पूछा कि इस पेटी में क्या है? उसे लगा था कि उसमें कोई फ्रांसीसी व्यंजन है जो वह दोस्तों के लिए ले जा रही है।

लेकिन उत्तर मिला, खून अधिकारी चौंक गया, खून? महिला ने स्पष्ट किया कि बर्फपेटी में स्वयं उसके खून की तीन थैलियां बर्फ में दबाकर रखी हैं जो पेरिस के ब्रूसे अस्पताल में पिछले तीन सप्ताह में उसके शरीर से निकाला गया था। कल यही खून लौसाने स्थित एक अस्पताल में उसकी ह्मदय की बायपास सर्जरी के बाद उसे ही चढ़ा दिया जाएगा। सर्जन वहां सर्जरी के दौरान निकले खून को सोखने तथा शोधन के लिए सेल वॉशर का भी उपयोग करते थे। इस प्रकार, सर्जरी के दौरान व बाद में उसे अपना ही खून दिया जाने वाला था ताकि एड्स या हेपेटाइटिस का कोई जोखिम न रहे।

अध्ययन दर्शाते हैं कि दान किए गए खून में एड्स वायरस (एचआईवी) मिलावट की संभावना बनी रहती है, भले यह अत्यल्प है। जॉर्जिया के अटलांटा स्थित अमरीकी रोग नियंत्रण केंद्र के अनुसार दान किए गए खून द्वारा या किसी ओर का खून चढ़ाए जाने के कारण अमरीका में 1985 से अब तक प्रति वर्ष लगभग 460 व्यक्ति एड्स वायरस से संक्रमित होते रहे हैं। प्रसंगवश, इसी वर्ष दान में आए खून की एड्स सम्बंधी जांच अनिवार्य की गई थी।

वैसे शल्य चिकित्सा के अधिकांश मामलों में खून चढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन कई सर्जरी के दौरान अत्यधिक खून बह सकता है। जैसे बायपास सर्जरी में 2 से 4.7 लीटर तक खून बह सकता है जो औसत वयस्क व्यक्ति के कुल खून का आधा है। इस कमी को पूरा करने की तत्काल आवश्यकता होती है वरना रोगी गहरे आघात वाली स्थिति में पहुंच सकता है तथा उसकी मृत्यु भी हो सकती है।

पहले कुछ ही रोगी पर-रक्ताधान (किसी अन्य का खून लेना) के खतरों के प्रति चिंतित रहा करते थे। उदाहरण के लिए, एक पोत के सेवानिवृत्त कप्तान राइटेर को 1980 में न्यूयॉर्क के अस्पताल में कूल्हा बदलवाना पड़ा। वह जानता था कि इस प्रक्रिया में उसे अत्यधिक खून गंवाना पड़ेगा, लेकिन वह यह भी जानता था कि खून की कमी की पूर्ति किसी रक्तदान केंद्र से सही ग्रुप के खून से कर दी जाएगी। पर न तो राइटेर और न ही उसके चिकित्सक वाकिफ थे कि ऐसे खून की एक-एक बूंद खतरे का कारण बन सकती है। इसके कुछ वर्षों बाद ही चिकित्सा क्षेत्र में यह जागरूकता आई कि एड्स का वायरस खून से भी एक से दूसरे तक पहुंचता है। तो अत्यधिक विश्वसनीय एवं जीवन रक्षक उपचार अचानक जोखिम से घिर गया।

खैर, राइटेर में तो कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं हुआ किंतु 1979 से 1985 में पर-रक्त प्राप्त करने वाले अन्य सभी लोग इतने भाग्यशाली न थे। अध्ययनों के अनुसार, जिन रोगियों को 80 के दशक के शुरू में पर-रक्त चढ़ाया गया था, उनमें से लगभग 5 से 6 प्रतिशत एड्स के संपर्क में आ गए, तथा 5 से 17 प्रतिशत हेपेटाइटिस-सी के विषाणुओं से संक्रमित हो गए।

पर-रक्त की सर्वथा निरापद आपूर्ति असंभव है। यद्यपि दान में आए रक्त में एचवाईवी की उपस्थिति की जांच अधिकतर देशों में अनिवार्य हो गई है, लेकिन वायरस आरंभिक अवस्था में हो तो वे पकड़ में नहीं आते हैं। अमरीकी रोग नियंत्रण केंद्रों के अनुसार सर्जरी में रोगी को 5 युनिट पर-रक्त देने पर एड्स विषाणु से संक्रमित होने की संभावना दस हज़ार में एक को होती है।

अत: पूर्णत: निरापद रूप से रक्त चढ़ाना हो तो इसका उपाय यही है कि रक्त स्वयं आपका ही हो। सर्जरी के अधिकतर मामलों में रक्तदान सर्जरी से तीन सप्ताह पहले शुरू कर दिया जाता है तथा सामान्यत: रक्त को संपूर्ण अथवा प्राकृतिक अवस्था में किसी आम रेफ्रिजरेटर में रख दिया जाता है। हां, रक्त ज़्यादा बह जाने की आशंका हो तो रक्तदान शल्य चिकित्सा से कई माह पहले भी शुरू हो सकता है। ऐसे में रक्त कोशिकाओं, जिन्हें केवल पांच सप्ताह तक सुरक्षित रखा जा सकता है, को अलग कर लिया जाता है तथा रोगी को चढ़ा दिया जाता है। शेष तरल रक्त प्लाज़्मा को शून्य से 56 डिग्री सेल्सियस कम तापमान पर एकदम से जमा कर फ्रीजर में रख दिया जाता है। इस अवस्था में इसे दो से तीन वर्षों तक अच्छी दशा में यथावत रखा जा सकता है।

घालमेल से बचने के लिए थैलियों पर पर्चियां लगा दी जाती हैं। अक्सर कंप्यूटर द्वारा पठनीय लिपि कोड तक संलग्न होता है जिसमें रोगी का नाम, खून का वर्ग, पहचान संख्या तथा आंकडे होते हैं। अतिरिक्त स्वरक्त चाहिए हो तो शल्य क्रिया के ठीक पहले लाल रक्त कोशिका के अनुपात में प्लाज़्मा चढ़ाया जाता है। इस तकनीक को रक्त तनुकरण कहा जाता है।

स्वरक्ताधान को महत्वपूर्ण तकनीकी बढ़ावा छोटे आकार के सेंट्रिफ्यूज जैसे यंत्र से मिला है जिसे सेल वॉशर कहते हैं। इससे सर्जरी के दौरान तथा बाद में बहे रक्त का उपयोग शोधन के बाद कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए जब राइटेर ही दूसरी बाद कूल्हा बदलवाने के लिए गया तो उसके घावों से बहते खून को ‘नली’ द्वारा चूसकर ऑपरेशन की मेज़ के पास लगे सेल वॉशर में पहुंचा दिया गया।

इसके साथ ही साथ डॉक्टरों द्वारा अलग किए गए रक्त से भरे पतले स्पंजों को इकट्ठा कर चीनी मिट्टी के पात्र में निचोड़ा जाता है तथा रक्त की छोटी मात्रा को उसी नली का प्रयोग कर चूस लिया जाता है।

शल्य क्रिया के दौरान रक्त शोधन का दोहरा लाभ है। वॉशर लाल रक्त कोशिकाओं को पुन: चढ़ाए जाने के लिए 3 से 7 मिनटों में तैयार कर देता है और रोगी के अपने रक्त का प्रयोग होने के कारण रक्त के बेमेल होने, संक्रमित होने तथा एलर्जी होने के जोखिम समाप्त हो जाते हैं। राइटेर के मामले में सर्जरी के दौरान बहे रक्त का लगभग 75 प्रतिशत वॉशर द्वारा फिर से प्राप्त कर लिया गया। 4 युनिट रक्त सर्जरी से पहले निकाला गया था वह बाद में उसे चढ़ा दिया गया। 

यद्यपि ऐसे कई उदाहरण भी हैं जहां स्वरक्ताधान न तो संगत है, न ही अनुमोदनीय। उदाहरण के लिए कैंसर सर्जरी में रोगी का अपना रक्त शरीर के अन्य भागों में भी कैंसर को फैला देगा। फिर आपात सर्जरी के पहले से रक्तदान के लिए समय नहीं होता तथा हो सकता है कि अस्पताल में वॉशर न हो। फिर दुर्घटना में घायल रोगी के अपने खून का बड़ा हिस्सा दुर्घटनास्थल पर ही बह चुका होता है तथा दुर्बल तथा खून की कमी से ग्रस्त रोगी के मामले में स्वरक्तदान उसकी दशा और भी बिगाड़ सकते हैं। ऐसे मामलों में पररक्त के अलावा और कोई चारा नहीं है।

लेकिन ऐसे प्रत्येक रोगी को, जो स्वैच्छिक शल्य चिकित्सा करवाने जा रहा है, स्वरक्ताधान का विकल्प प्रस्तुत क्यों नहीं किया जाता है? एक कारण है धन। फ्रांस में ही वॉशर की कीमत लगभग 2 लाख यूरो है तथा रक्तदान केंद्रों द्वारा संशोधित रक्त का प्रयोग करना लगभग तीन गुना महंगा पड़ता है। इसी के परिणामस्वरूप अधिकतर अस्पताल मानते भी हैं कि दान किए गए पररक्त द्वारा एड्स तथा यकृतशोथ के संक्रमण होने के छोटे से जोखिम को देखते हुए ऐसी महंगी व्यवस्था तर्कसंगत नहीं है।

अपने रक्त की पर्याप्त आपूर्ति की सुनिश्चितता के लिए अस्पताल से दूर रहने वाले स्वैच्छिक रोगी अपने इलाके में भी स्वरक्तदान की व्यवस्था कर सकते हैं तथा रक्त को अपने साथ कहीं भी लाया ले जाया जा सकता है या विमान से भी भेजा जा सकता है। एक से दूसरे अस्पताल तथा एक से दूसरे देश के नियम पृथक होते हैं, इसलिए रोगी को पहले से ही रक्तदान और रक्ताधान के विषय में पूछताछ कर लेनी चाहिए। स्वरक्तदान द्वारा अब कम से कम दो घातक रोगों से बचने का उपाय उपलब्ध हो गया है। इसलिए सबसे निरापद यही है कि आप बन सकते हैं तो अपने खुद के रक्तदाता बनिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और छद्म विज्ञान – अरविंद

भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ का उद्देश्य भारत में विज्ञान को बेहतर करना और बढ़ावा देना रहा है। विज्ञान कांग्रेस संघ की स्थापना 1914 में हुई थी। स्थापना के बाद से ही विज्ञान कांग्रेस का आयोजन किया जाता रहा है। 1947 में तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विज्ञान कांग्रेस को, विज्ञान आधारित राष्ट्रीय एजेंडे और संविधान में उल्लेखित समाज में व्यापक पैमाने पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित और पोषित करने की प्रतिबद्धता से जोड़कर, बढ़ावा दिया था। 1976 में, विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे में ऐसे मुद्दे शामिल किए गए थे जिनका सम्बंध विज्ञान व टेक्नॉलॉजी से था। आगे चलकर विज्ञान संचारकों की बैठक, स्कूल छात्रों के लिए विज्ञान और विज्ञान में महिलाएं वगैरह शामिल किए गए।

विज्ञान कांग्रेस में राजनीतिक नेताओं के शामिल होने का उद्देश्य था कि नेता चर्चाओं में भागीदारी करें और विज्ञान की दुनिया में हो रहे विकास को जानें और समझें कि कैसे राष्ट्र खुद को इनके अनुसार उन्मुख कर सकता है और आगे बढ़ सकता है। भारतीय वैज्ञानिकों की उपलब्धियों का प्रदर्शन भी विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे का हिस्सा है। हाल में प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की भागीदारी को भी जगह दी गई है।

विज्ञान कांग्रेस पिछले कुछ वर्षों में अपने एजेंडे या उद्देश्य से दूर होती गई है। आज़ादी के बाद राजनेता आयोजन में इसलिए शामिल होते थे ताकि वे विज्ञान से राष्ट्र निर्माण की योजनाओं या कार्यों के लिए वैधता हासिल कर सकें। लेकिन आजकल भूमिकाएं पलट गई हैं। अब राजनेता विज्ञान कांग्रेस के आयोजन में विज्ञान कांग्रेस का इस्तेमाल करने और उसे प्रभावित करने के उद्देश्य से शामिल होते हैं। राजनेता विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे को निर्धारित करने को उत्सुक रहते हैं और चाहते हैं कि वैज्ञानिक इसे अपनाएं। पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिक लोग विज्ञान कांग्रेस के आयोजन से अलग होते गए हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर वेंकटरमन रामकृष्णन ने विज्ञान कांग्रेस को एक सर्कस बताया था जिसमें अधिकांश प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक शामिल नहीं होते। वैज्ञानिकों के इससे अलग होने के कई कारण हैं: पहला, भारतीय वैज्ञानिकों को लगता है कि उनके लिए ऐसे आयोजनों में शामिल होना संभव नहीं है जो एक वैज्ञानिक आयोजन की जगह सरकार द्वारा प्रायोजित आयोजन लगे; दूसरा, वैज्ञानिकों में जनता के साथ जुड़ने के प्रति उदासीनता भी है, उन्हें अपने क्षेत्र में अपनी तरक्की अधिक महत्वपूर्ण लगती है। बहुत थोड़े से भारतीय वैज्ञानिक सार्वजनिक क्षेत्र में कदम रखने, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने, वैज्ञानिक सोच फैलाने, या समाज के विभिन्न वर्गों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने को आगे आते हैं।

इन हालात में विज्ञान कांग्रेस के मंच को छदम विज्ञान के समर्थकों ने अगवा कर लिया है, जो हमेशा से बड़े-बड़े दावे करते रहे हैं। दुर्भाग्य से, हाल ही में फगवाड़ा में आयोजित 106वीं विज्ञान कांग्रेस में स्कूली छात्रों के लिए सत्र के दौरान उनका यह एजेंडा खुलकर सामने आया।

छदम विज्ञान क्या करना चाहता है? वह यह दिखाना चाहता है कि प्राचीन भारत में आधुनिक विज्ञान पहले से ही मौजूद था। ऐसा मानना प्राचीन सभ्यता के ज्ञान और आधुनिक विज्ञान, दोनों के साथ ही अन्याय है। इतिहास में किसी दावे की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करने के लिए साधनों/विधियों का उपयोग किया जाता है। इन दावों की ऐतिहासिकता और सत्यता की जांच के लिए उन्हें वैज्ञानिक तार्किकता की कसौटी पर भी कसा जाना चाहिए। अब तक, विज्ञान कांग्रेस की बैठकों में छदम विज्ञान के समर्थकों द्वारा किए गए टेस्ट-ट्यूब बेबी, पुष्पक विमान और मिसाइल प्रौद्योगिकी सम्बंधी बड़े-बड़े दावे इन परीक्षणों में विफल रहे हैं।

विज्ञान, एक निरंतर परिवर्तनशील और विकासमान ज्ञान प्रणाली है। इसमें ज्ञान का निर्माण तर्कसंगत जांच, प्रयोग द्वारा प्राप्त प्रमाणों और वैज्ञानिक समुदाय में आपसी सहमति के आधार पर होता है। विज्ञान में पहले की कई अवधारणाएं जो वैज्ञानिक रूप से सही मानी जाती थीं, उनकी जगह अब नई अवधारणाओं को मान्यता मिली है। जैसे, पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों ने यह महसूस किया है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी सूचनाओं का हस्तांतरण मात्र डीएनए के माध्यम से नहीं होता है। वैज्ञानिक पहले डीएनए को ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी सूचना हस्तांतरण का एकमात्र ज़रिया मानते थे।

जिस तरह वैज्ञानिक ज्ञान में लगातार नया ज्ञान जुड़ता जा रहा है, क्या उसी तरह हम अपने पवित्र धार्मिक ग्रंथों को अपडेट करने के लिए तैयार हैं? यह तो कुफ्र माना जाएगा! जब आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान और धार्मिक ग्रंथों को एक साथ रखने का प्रयास करते हैं तब इस तरह की समस्या समाने आती हैं। इन दो ज्ञान प्रणालियों के बीच मतभेद और भी गहरे है; विज्ञान वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर वैज्ञानिक समुदाय द्वारा विकसित मानवीय ज्ञान प्रणाली है, इसलिए यह ज्ञान हमेशा अधूरा रहेगा और इसमें हमेशा नया ज्ञान जुड़ता रहेगा। दूसरी ओर, धार्मिक ग्रंथों का ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान है। माना जाता है कि यह देवताओं से उत्पन्न ज्ञान है। इसलिए वह संपूर्ण, अपरिवर्तनशील और अंतिम है। इसलिए इन दो ज्ञान प्रणालियों के एक साथ मिलने की बात निहित रूप से विरोधाभासी है।

इसके अलावा, ज़रूरत इस बात की है कि हम विज्ञान को सिर्फ तकनीक निर्माण के साधन के रूप में न देखकर जीवन जीने के एक तरीके के रूप में देखना शुरू करें। वैज्ञानिक विधि व्यक्ति को वैज्ञानिक तर्क के आधार पर स्थितियों का विश्लेषण करने के लिए तैयार करती है। विज्ञान का पाठ्यक्रम बनाते वक्त नीति-निर्माताओं और शिक्षाविदों, यहां तक कि खुद वैज्ञानिकों द्वारा इस पहलू को अनदेखा कर दिया गया है। भारत में ऐसी संस्थाएं हैं जो आम लोगों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए काम करती हैं – विज्ञान कांग्रेस भी इन्हीं में से एक है – लेकिन इस काम को गंभीरता से नहीं किया जा रहा है।

विज्ञान कांग्रेस के आयोजकों को सुनिश्चित करना चाहिए कि ये आयोजन सही वैज्ञानिक भावना से हो। वैज्ञानिक समुदाय को और बेहतर तरीके से शामिल करने के प्रयास किए जाने चाहिए। देश की तीन विज्ञान अकादमियों – भारतीय विज्ञान अकादमी, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी – की विज्ञान कांग्रेस में ज़्यादा सघन भागीदारी होना चाहिए। सरकार को विज्ञान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक मददगार के रूप में भाग लेना चाहिए, न कि अपने किसी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वार्ता और प्रस्तुतियां उन लोगों द्वारा दी जाएं जो सम्बंधित क्षेत्र में पेशेवर हों। विज्ञान अकादमियां इसमें मदद कर सकती हैं। विज्ञान के इतिहास और भारत में विज्ञान में प्राचीन योगदान के इतिहास का मूल्यांकन विज्ञान के इतिहासकारों के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। ऐसा करके विज्ञान कांग्रेस को पटरी पर लाया जा सकता है और विज्ञान कांग्रेस भारतीय समाज में विज्ञान को एकीकृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब भी हुआ था

मारी पृथ्वी के चारों ओर एक चुंबकीय क्षेत्र मौजूद है। इसकी मदद से न केवल हमको दिशाओं का ज्ञान होता है बल्कि यह चुंबकीय क्षेत्र हमारे ग्रह को हानिकारक विकिरण और सौर हवाओं से बचाता भी है। लेकिन आज से 56 करोड़ वर्ष पहले यह चुंबकीय क्षेत्र लगभग गायब हो चुका था। लेकिन एक भूगर्भीय घटना के कारण यह बच गया। वैज्ञानिकों के अनुसार उस समय पृथ्वी का तरल केंद्र (कोर) ठोस होना शुरू हो गया था जिसके कारण चुंबकीय क्षेत्र वापस से मज़बूत हो गया।

वैज्ञानिकों को ग्रह के केंद्र की तत्कालीन संरचना का अंदाज़ रेत के दानों के आकार के क्रिस्टल को देखकर लगा। उन्होंने 56 करोड़ वर्ष पुराने प्लेजिओक्लेज़ और क्लिनोपायरॉक्सीन के नमूने लिए जो उनको पूर्वी क्यूबेक, कनाडा में मिले। इन नमूनों में लगभग 50 से 100 नैनोमीटर तक की चुंबकीय सुइयां मिलीं जो उस समय पिघली हुई चट्टान में चुंबकीय क्षेत्र की दिशा में स्थिर हो गई थीं। चट्टानों के ठंडा होने के बाद ये सुइयां अरबों वर्षों तक सुरक्षित रखी रहीं और पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का रिकॉर्ड बन गर्इं।

इन छोटे-छोटे क्रिस्टल्स को मैग्नेटोमीटर से जांचने पर कणों का चार्ज बहुत कम पाया गया। वास्तव में, 56 करोड़ साल पहले, पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र आज की तुलना में 10 गुना अधिक कमजोर रहा था। आगे मापन से पता चला कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के पलटने की आवृत्ति भी बहुत अधिक थी।

रोचेस्टर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन टारडूनो के अनुसार इस अध्ययन से पता चलता है कि उस समय पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र काफी असामान्य था। एक ऐसा समय भी था जब चुंबकीय क्षेत्र के निर्माण की प्रक्रिया (जियो-डाएनेमो) लगभग धराशायी हो गई थी।

पृथ्वी के शुरुआती दौर में धरती का केंद्र पिघली हुई अवस्था में था। फिर 2.5 अरब से 50 करोड़ साल पहले केंद्र का लोहा ठंडा होकर ठोस अवस्था में परिवर्तित होने लगा। जैसे ही आंतरिक कोर ने जमना शुरू किया सिलिकॉन, मैग्नीशियम और ऑक्सीजन जैसे हल्के तत्व कोर की बाहरी तरल परत में आ गए जिससे तरल पदार्थ और गर्मी का प्रवाह शुरू हुआ जिसे संवहन कहा जाता है। बाहरी कोर में द्रव की गति ने आवेशित कणों को गतिमान रखा, जिससे विद्युत धारा उत्पन्न हुई और विद्युत धारा ने चुंबकीय क्षेत्र को जन्म दिया। यही संवहन आज भी चुंबकीय क्षेत्र के लिए ज़िम्मेदार है। पृथ्वी की आंतरिक कोर का ठोस बनना अभी भी जारी है और आने वाले कई वर्षों तक ऐसा होता रहेगा।

एक संभावना यह व्यक्त की गई है कि कैम्ब्रियन युग में तेज़ जैव विकास का सम्बंध कमजोर चुंबकीय क्षेत्र से हो सकता है क्योंकि चुंबकीय क्षेत्र के कमज़ोर होने के चलते जो अधिक विकिरण धरती पर पहुंचा होगा उससे डीएनए की क्षति और उत्परिवर्तन दर ऊंची रही हो सकती है जिससे अधिक प्रजातियों के विकसित होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पांच सौ साल चलेगा यह प्रयोग!

न 2014 में एडिनबरा विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक चार्ल्स कॉकेल और उनके कुछ साथियों ने मिलकर एक प्रयोग इस उम्मीद के साथ शुरू किया था कि वह 2514 तक (यानी 500 साल तक) चलेगा। वैसे तो लंबे-लंबे वैज्ञानिक प्रयोगों का लंबा इतिहास रहा है मगर कॉकेल और साथियों का यह प्रयोग अत्यंत महत्वाकांक्षी है।

प्रयोग वैसे तो काफी आसान है। सादे कांच के 800 कैप्सूल्स हैं और प्रत्येक में या तो क्रूकॉक्सीडोप्सिस या बैसिलस सब्टिलिस नामक बैक्टीरिया के नमूने रखे गए हैं। कांच के इन कैप्सूल्स को अच्छी तरह सील कर दिया गया है। इनमें से आधे कैप्सूल्स पर सीसे का आवरण है ताकि ये डीएनए को क्षति पहुंचाने वाले विकिरण से सुरक्षित रहें। कैप्सूल्स का एक पूरा सेट लंदन प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में बैक-अप के तौर पर रखा गया है।

प्रयोग का मकसद यह देखना है कि बैक्टीरिया शुष्क परिस्थिति में कितने समय तक जीवनक्षम बने रहते हैं। प्रयोग की शुरुआत एक आकस्मिक अवलोकन के आधार पर हुई थी। कॉकेल ने एक तश्तरी में बैक्टीरिया क्रूकॉक्सीडॉप्सिस रखा था और फिर वे उसे भूल गए थे। 10 वर्षों बाद जब उन्होंने उस तश्तरी पर ध्यान दिया तो पता चला कि बैक्टीरिया जीवनक्षम थे। इससे पहले भी कुछ वैज्ञानिकों ने मांस के 118 वर्ष पुराने डिब्बों में से सही सलामत बैक्टीरिया प्राप्त किए थे और एक शोध का परिणाम था कि एंबर और लवण के क्रिस्टल में कुछ बैक्टीरिया लाखों वर्षों बाद भी जीवनक्षम पाए गए थे, हालांकि इसे लेकर विवाद है।

उक्त अवलोकन ने कॉकेल के मन में यह जिज्ञासा पैदा कर दी कि आखिर बैक्टीरिया कितने वर्षों तक जीवनक्षम बने रहते हैं। इसी जिज्ञासा से प्रेरित होकर उन्होंने इस आधी सहस्त्राब्दी के प्रयोग की कल्पना की। ज़ाहिर है, यह प्रयोग पूरा होने से बहुत पहले मूल शोधकर्ता तो सिधार चुके होंगे। इसलिए उन्होंने हर पच्चीस वर्षों में इसके अवलोकन की व्यवस्था की है। व्यवस्था यह है कि पहले 24 वर्षों तक हर दूसरे साल और उसके बाद 475 वर्षों तक हर पच्चीस साल में एक बार कुछ वैज्ञानिक विश्वविद्यालय आएंगे और दोनों तरह के एक-एक कैप्सूल को खोलेंगे और उसमें रखे गए बैक्टीरिया को पनपाने की कोशिश करेंगे। उन्होंने इसके लिए निर्देश लिखकर एक यूएसबी स्टिक में डालकर रख दिए हैं। मगर टेक्नॉलॉजी की प्रगति को देखते हुए उन्हें लगा कि शायद यूएसबी स्टिक जल्दी ही पुरानी पड़ जाएगी। इसलिए कागज़ पर भी निर्देश रख छोड़े हैं, और एक निर्देश यह दिया है कि जो भी वैज्ञानिक यह काम करे वह इन निर्देशों की एक नवीन प्रतिलिपि बनाकर रख दे, क्योंकि 500 सालों में कागज़ की हालत पता नहीं क्या हो जाएगी।

शोधकर्ताओं ने यह भी विचार किया है कि शायद उस समय तक विश्वविद्यालय जैसी संस्था रहे ना रहे, वैज्ञानिक कार्य के लिए फंडिंग उपलब्ध रहे ना रहे। तो उन्होंने इस प्रयोग को जारी रखने के लिए एक ट्रस्ट बना दिया है। हम-आप तो इस प्रयोग के परिणाम जानने को यहां नहीं रहेंगे मगर उम्मीद की जानी चाहिए कि यह प्रयोग नियमित रूप से पूरा होगा और कुछ रोचक निष्कर्ष (लगभग) 20 पीढ़ी बाद के वैज्ञानिकों को मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले कुछ हफ्तों में इस बात पर महत्वपूर्ण चर्चा और बहस चली थी कि भारत में प्राचीन समय से अब तक विज्ञान और तकनीक का कारोबार किस तरह चला है। अफसोस की बात है कि कुछ लोग पौराणिक घटनाओं को आधुनिक खोज और आविष्कार बता रहे थे और दावा कर रहे थे कि यह सब भारत में सदियों पहले मौजूद था। इस संदर्भ में, इतिहासकार ए. रामनाथ (दी हिंदू, 15 जनवरी 2019) ने एकदम ठीक लिखा है कि भारत में विज्ञान के इतिहास को एक गंभीर विषय के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि अटकलबाज़ी की तरह। लेख में रामनाथ ने इतिहासकार डेविड अरनॉल्ड के कथन को दोहराया है। अरनॉल्ड ने चेताया था कि भले ही प्राचीन काल के ज्ञानी-संतों के पास परमाणु सिद्धांत जैसे विचार रहे होंगे मगर उनका यह अंतर्बोध विश्वसनीय उपकरणों पर आधारित आधुनिक विज्ञान पद्धति से अलग है।

ऐसा लगता है कि अंतर्बोध की यह परंपरा प्राचीन समय में न सिर्फ भारत में बल्कि अन्य जगहों पर भी प्रचलित थी। किंतु आज आधुनिक विज्ञान या बेकनवादी विधि (फ्रांसिस बेकन द्वारा दी गई विधि) पर आधारित विज्ञान किया जाता है। आधुनिक विज्ञान करना यानी सवाल करें या कोई परिकल्पना बनाएं, सावधानी पूर्वक प्रयोग या अवलोकन करें, प्रयोग या अवलोकन के आधार पर परिणाम का विश्लेषण करें, तर्कपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचें, अन्य लोगों द्वारा प्रयोग दोहरा कर देखे जाएं और निष्कर्ष की जांच की जाए, और यदि अन्य लोग सिद्धांत की पुष्टि करते हैं तो सिद्धांत या परिकल्पना सही मानी जाए। ध्यान दें कि नई खोज, नए सिद्धांत आने पर पुराने सिद्धांत में बदलाव किए जा सकते हैं, उन्हें खारिज किया जा सकता है।

1490 के दशक में, वास्को डी गामा, जॉन कैबोट, फर्डिनेंड मैजीलेन और अन्य युरोपीय खोजकर्ताओं के ईस्ट इंडीज (यानी भारत) आने के साथ भारत में आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति उभरना शुरु हुई। इनके पीछे-पीछे इंग्लैंड, फ्रांस और युरोप के कुछ अन्य हिस्सों के व्यापारी और खोजी आए। इनमें से कई व्यापारियों और पूंजीपतियों ने भारत और भारत के पर्यावरण, धन और स्वास्थ्य, धातुओं और खनिजों को खोजा और अपने औपनिवेशिक लाभ के लिए लूटना शुरू कर दिया। ऐसा करने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक तरीकों को अपनाया। इसके अलावा, उनमें से कई जो समकालीन विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कृषि और चिकित्सा विज्ञान का कामकाज करते थे, उन्होंने इस ज्ञान को यहां के मूल निवासियों में भी फैलाया।

यह औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत थी। इस विषय पर एक लेख इंडियन जर्नल ऑफ हिस्ट्री ऑफ साइंस के दिसंबर 2018 अंक में प्रकाशित हुआ था (https://insa.nic.in)। इस अंक के संपादन में आई.आई.एस.सी. बैंगलुरु के भौतिक विज्ञानी प्रो. अर्नब रायचौधरी और जेएनयू के प्रो.दीपक कुमार अतिथि संपादक रहे। प्रो. रायचौधरी विज्ञान इतिहासकार भी हैं और पश्चिम देशों के बाहर पश्चिमी विज्ञान: भारतीय परिदृश्य में निजी विचार पर उनका पैना विश्लेषण आज और भी ज़्यादा प्रासंगिक है। उनका यह विश्लेषण जर्नल ऑफ सोशल स्टडीज़ ऑफ साइंस के अगस्त 1985 के अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रो. दीपक कुमार जे.एन.यू. के जाने-माने इतिहासकार हैं। उन्होंने भारत में विज्ञान के इतिहास पर दो किताबें साइंस एंड दी राज (2006) और टेक्नॉलॉजी एंड दी राज (1995) लिखी हैं।

जर्नल के इस अंक का संपादकीय लेख डॉ. ए. के. बाग ने लिखा था। यह लेख विद्वतापूर्ण, अपने में संपूर्ण और शिक्षाप्रद है। डॉ. बाग भारत में प्राचीन और आधुनिक विज्ञान के इतिहासकार हैं। उन्होंने भारत-युरोप संपर्क और उपनिवेश-पूर्व और औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की विशेषताओं का पता लगाया था। जर्नल के इस अंक में 30 अन्य लेख भी हैं जो इस बारे में बात करते हैं कि कैसे बंगाल पुनर्जागरण हुआ और ब्रिटिश भारत की पूर्व राजधानी कलकत्ता ने बंगाल (कलकत्ता/ढाका) को भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रारंभिक राजधानी बनने में मदद की। वैसे तो विज्ञान से जुड़े अधिकतर लेख जे.सी. बोस, सी.वी. रमन, एस.एन. बोस, पी.सी. रे और मेघनाद साहा पर केंद्रित होते हैं। किंतु डॉ. राजिंदर सिंह ने इन तीन विभूतियों (सी.वी. रमन, एस.एन. बोस और एम.एन. साहा) के इतर प्रो. बी. बी. रे, डी. एम. बोस और एस .सी. मित्रा पर लेख लिखा है। डॉ. जॉन मैथ्यू द्वारा लिखित लेख: रोनाल्ड रॉस टू यू. एन. ब्राहृचारी: मेडिकल रिसर्च इन कोलोनियल इंडिया बताता है कि कैसे प्रो. ब्रहृचारी की दवा यूरिया स्टिबामाइन ने कालाज़ार नामक रोग से हज़ारों लोगों की जान बचाई थी। संयोग से, ब्रहृचारी ने भी 1936 में इंदौर में आयोजित 23वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में इस बारे में बात की थी। ऑर्गेनिक केमिस्ट्स ऑफ प्री-इंडिपेंडेंस इंडिया नामक लेख में प्रो. सलीमुज़्ज़मान सिद्दीकी का विशेष उल्लेख है। प्रो. सलीमुज़्ज़मान सिद्दीकी ने नीम के पेड़ से एज़ेडिरैक्टिन और सर्पगंधा से रेसरपाइन जैसी महत्वपूर्ण औषधियां पृथक की थीं। विभाजन के समय उन्हें पाकिस्तान आने का न्यौता मिला था। पहले उन्होंने पाकिस्तान आने से मना कर दिया था, लेकिन वर्ष 1951 में वे पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने पाकिस्तान के सीएसआईआर और परमाणु ऊर्जा प्रयोगशालाएं शुरू करने में मदद की। साथ ही उन्होंने उत्कृष्ट कार्बनिक रसायन विज्ञान की शुरुआत भी की जो आज भी बढ़िया चल रहा है। इस तरह उन्हें एक नवोदित देश (पाकिस्तान) में विज्ञान की नींव रखने वाले की तरह याद जा सकता है।

तीन और लोगों के योगदान उल्लेखनीय हैं। उनमें से पहले हैं दो भारतीय पुलिस अधिकारी। सोढ़ी और कौर ने अपने लेख दी फॉरगॉटन पायोनियर्स ऑफ फिंगरप्रिंट साइंस: फालऑउट ऑफ कोलोनिएनिज़्म में दो भारतीय पुलिस अधिकारियों, अज़ीज़ुल हक और हेमचंद्र बोस के बारे में लिखा है। इन दोनों अधीनस्थ पुलिस कर्मियों ने कड़ी मेहनत और विश्लेषणात्मक पैटर्न विधि की मदद से फिंगरप्रिंटिंग को मानकीकृत किया था, लेकिन उनके काम का सारा श्रेय उनके बॉस पुलिस महानिरीक्षक एडवर्ड हेनरी ने ले लिया! अज़ीज़ुल हक ने 5 साल बाद अपने काम को राज्यपाल को फिर से प्रस्तुत किया। उन्हें 5,000 और बोस को 10,000 रुपए का मानदेय दिया गया।

दूसरा नाम है नैन सिंह रावत का। उन्होंने ताजिकिस्तान सीमा से लगे हिमालय से नीचे तक फैले पूरे हिमालयी पथ का सफर किया। इस सफर के दौरान उन्होंने सावधानीपूर्वक नोट्स लिए और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ऊपरी रास्ते का नक्शा तैयार करने में मदद की। बाद में इससे सर्वे ऑफ इंडिया को काफी मदद मिली।

और तीसरा नाम है कलकत्ता के राधानाथ शिकधर का है। उन्होंने गणना करके पता लगाया था कि चोटी XV 29,029 फीट ऊंची है। यह हिमालय पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटी है, और विश्व की भी। हालांकि भारतीय स्थलाकृतिक सर्वेक्षण के प्रधान अधिकारी के नाम पर बाद में इस चोटी का नाम माउंट एवरेस्ट रख दिया गया। डॉ. बाग ने अपने संपादकीय लेख में इन दो खोजों का उल्लेख किया है और बताया है कि कैसे भारत सरकार ने नैन सिंह रावत और राधानाथ शिकधर के सम्मान में 2004 में डाक टिकट जारी किया।

यहां हमने जर्नल के कुछ ही लेखों पर प्रकाश डाला है। जर्नल का पूरा अंक भारत में आधुनिक विज्ञान के जन्म और विकास पर केंद्रित लेखों का संग्रह है। सारे लेख सावधानी पूर्वक किए गए शोध पर आधारित छोटे-छोटे और आसानी से पढ़ने-समझने योग्य हैं। और ये लेख विज्ञान की आदर्श शिक्षण और शोध सामग्री बन सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कयामत की घड़ी नज़दीक आई

नवरी 24 के दिन बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइन्टिस्ट्स (बीएएस) ने अपनी कयामत की घड़ी को अपडेट करके बताया है कि मानवता कयामत के और नज़दीक पहुंच गई है। उनकी परिकल्पित कयामत की घड़ी के कांटे मध्य रात्रि से बहुत दूर नहीं हैं। इस घड़ी पर मध्य रात्रि के समय को प्रलय की घड़ी माना गया है।

पिछले वर्ष कयामत की घड़ी के कांटों के अनुसार मध्य रात्रि में 2 मिनट का समय शेष रहा था। वह अब तक का सबसे नज़दीक समय था। 24 जनवरी को बीएएस ने घोषित किया कि कांटे इस वर्ष भी मध्य रात्रि से दो मिनट दूर ही रहेंगे। यह सही है कि घड़ी के कांटे आगे नहीं बढ़े हैं किंतु परमाणु हथियारों के प्रसार और जलवायु परिवर्तन की लगातार अधोगति आज भी चिंता के सबब बने हुए हैं। और गलत सूचनाओं और फेक न्यूज़ का बढ़ता चलन आग में घी का काम कर रहे हैं। बीएएस के प्रतिनिधियों का कहना है कि 2018 के बाद कांटे आगे नहीं बढ़े हैं, तो इसे स्थिरता का संकेत न मानकर दुनिया भर के नागरिकों और नेताओं के लिए चेतावनी का संकेत माना जाना चाहिए।

बीएएस के वैज्ञानिक साल में दो बार विश्व स्तर पर घटनाओं का विश्लेषण करके यह आकलन करने की कोशिश करते हैं कि हम कयामत से कितनी दूर या कितने नज़दीक हैं। 2018 में उन्होंने देखा था कि परमाणु युद्ध का मंडराता खतरा और वैश्विक तापमान में लगातार वृद्धि विश्व को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। उनका कहना है कि इन खतरों ने एक खतरनाक और अनिर्वहनीय यथास्थिति का निर्माण कर दिया है। जितने लंबे समय तक हम इस असामान्य यथास्थिति से आंखें मूंदे रहेंगे, उतना ही हम खतरे के निकट पहुंचेंगे।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यूएस और उत्तरी कोरिया के बीच परमाणु शब्दबाण तो थमे हैं किंतु दुनिया भर में परमाणु हथियारों पर निर्भरता बढ़ी है। शीत युद्ध की मानसिकता ने परमाणु युद्ध से बचने के कई दशकों के प्रयासों पर पानी फेर दिया है। और तो और, यूएस और रूस के सम्बंध तनावपूर्ण बने हुए हैं। ये दो देश दुनिया के 90 प्रतिशत परमाणु हथियारों के मालिक हैं।

जहां तक जलवायु परिवर्तन का सम्बंध है, तो पिछले कुछ वर्षों का घटनाक्रम चिंताजनक रहा है। खास तौर से यूएस कार्बन उत्सर्जन को थामने में नाकाम रहा है और ऐसे विकास को बढ़ावा दे रहा है जो जीवाश्म र्इंधन पर निर्भर है। जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता जा रहा है और 275 अध्ययनों के आधार पर एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि जलवायु का संकट सूखा, बाढ़, प्रदूषण और समुद्र तल में वृद्धि जैसे कारणों से लाखों लोगों का जीवन संकट में डाल देगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन प्रति वर्ष ढाई लाख लोगों के लिए जानलेवा साबित होगा और अगले 12 वर्षों में 10 करोड़ लोग अतिशय गरीबी में धकेले जाएंगे।

कयामत की घड़ी की कल्पना 1947 में की गई थी और उस समय यह मुख्य रूप से परमाणु खतरों का आकलन करती थी। वैसे वैज्ञानिकों का विश्वास है कि हम इस घड़ी को पीछे खिसका सकते हैं, बशर्ते कि दुनिया भर में इसके लिए प्रयास किए जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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चांद पर कपास के बीज उगे, अंकुर मर गए

चीन द्वारा चांग-4 अंतरिक्ष यान के साथ चांद पर भेजे गए ल्यूनर रोवर पर एक जैव मंडल (वज़न 2.6 कि.ग्रा.) भी भेजा गया था जिसमें आलू के बीज, पत्ता गोभी सरीखा एक पौधा और रेशम के कीड़े की इल्लियों के अलावा कुछ कपास के बीज भी थे। कपास के बीज चांद पर भी अंकुरित हुए हालांकि उनके अंकुर पृथ्वी पर तुलना के लिए रखे गए कपास के अंकुरों से छोटे रहे। मगर उल्लेखनीय बात यह मानी जा रही है कि ये बीज यान के प्रक्षेपण, चांद तक की मुश्किल यात्रा को झेलकर चांद के दुर्बल गुरुत्वाकर्षण और वहां मौजूद तीव्र विकिरण के बावजूद पनपे थे। खास बात यह है कि उसी जैव मंडल में अन्य किसी प्रजाति में इस तरह जीवन के लक्षण नज़र नहीं आए थे। किंतु अब कपास के वे अंकुर भी मर चुके हैं।

चांग-4 के प्रोजेक्ट लीडर लिऊ हानलॉन्ग ने इस घटना की व्याख्या करते हुए बताया है कि चांग-4 चांद के दूरस्थ हिस्से पर उतरा है। जैसे ही रात हुई, लघु जैव मंडल का तापमान एकदम कम हो गया। उन्होंने बताया कि जैव मंडल कक्ष के अंदर का तापमान शून्य से 52 डिग्री सेल्सियस नीचे चला गया था। अंदेशा यह है कि तापमान में और गिरावट होगी और यह ऋण 180 डिग्री सेल्सियस तक चला जाएगा। जैव मंडल को गर्म रखने का कोई इंतज़ाम नहीं है।

आम तौर पर पौधों में कम तापमान को झेलने के लिए अंदरुनी व्यवस्थाएं होती हैं। जैसे तापमान कम होने पर पौधों की कोशिकाओं में शर्करा और कुछ अन्य रसायनों की मात्रा बढ़ती है जिसके चलते कोशिकाओं के अंदर पानी के बर्फ बनने का तापमान (हिमांक) कम हो जाता है। इसके कारण कोशिकाओं में पानी बर्फ नहीं बनता अन्यथा यह बर्फ कोशिकाओं को फैलाता है और तोड़ देता है। कुछ अन्य पौधों में कोशिका झिल्लियां सख्त हो जाती हैं जबकि कुछ पौधों में पानी को कोशिका से बाहर निकाल दिया जाता है ताकि बर्फ बनने की नौबत ही न आए।

मगर इन प्रक्रियाओं के काम करने के लिए ज़रूरी होता है कि पर्यावरण से यह संकेत मिलता रहे कि ठंड आ रही है। मगर यदि तापमान अचानक कम हो जाए तो ये व्यवस्थाएं पौधे को बचा नहीं पातीं। इसलिए यकायक पाला पड़े तो पृथ्वी की ठंडी जलवायु वाले पौधे भी बच नहीं पाते। कपास तो गर्म जलवायु का पौधा है। और चांद पर जो ठंड आई होगी वह धीरेधीरे जाड़े का मौसम आने जैसा कदापि नहीं था। चांद पर दिन के समय (वहां का दिन हमारे 13 दिन के बराबर होता है) का तापमान तो 100 डिग्री सेल्सियस (पानी के क्वथनांक) तक हो जाता है जबकि रात में यह ऋण 173 डिग्री तक गिर जाता है।

तो ऐसा लगता है कि यह शीत लहर कपास की क्षमता से बाहर थी। पहले तो कोशिकाओं का पानी बर्फ बन गया होगा, जिसने उन्हें अंदर से फोड़ दिया होगा। फिर कोशिकाओं के बीच के पानी का नंबर आया होगा जिसने पूरे अंकुर को नष्ट कर दिया होगा। हानलॉन्ग के मुताबिक अब यह प्रयोग समाप्त माना जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान का मिथकीकरण – प्रदीप

हाल ही में 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सालाना अधिवेशन जालंधर की लवली प्रोफेशनल युनिवर्सिटी में सम्पन्न हुआ। वैसे तो मुख्यधारा का मीडिया हमेशा से ही इसके कवरेज से बचता आया है, मगर विगत कुछ वर्षों से वेदोंपुराणों के प्रमाणहीन दावों को विज्ञान बताने से जुड़े विवादों के चलते यह सुर्खियों में रहा है। इस अधिवेशन में भी प्राचीन भारत के विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की उपलब्धियों का इस तरह बखान किया गया कि वैज्ञानिक माहौल को बढ़ावा देने वाला यह विशाल आयोजन किसी धार्मिक जलसे जैसा ही रहा! विज्ञान कांग्रेस की हर साल एक थीम होती है। इस वर्ष के सम्मेलन की थीम थी फ्यूचर इंडिया: साइंस एंड टेक्नॉलॉजी। भविष्य में भारत के विकास का मार्ग विज्ञान और प्रौद्योगिकी किस प्रकार प्रशस्त करेंगे, इसकी चर्चा की बजाय प्राचीन भारत से जुड़े निरर्थक, प्रमाणहीन और हास्यास्पद छद्मवैज्ञानिक दावों ने ज़्यादा सुर्खियां बटोरी।

आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति और अकार्बनिक रसायन विज्ञान के प्रोफेसर जी. नागेश्वर राव ने कौरवों की पैदाइश को टेस्ट ट्यूब बेबी और स्टेम सेल रिसर्च टेक्नॉलॉजी से जोड़ा तथा श्रीराम के लक्ष्य भेदन के बाद तुरीण में वापस लौटने वाले बाणों और रावण के 24 प्रकार के विमानों की बात कहकर सभी को चौंका दिया। तमिलनाडु के वर्ल्ड कम्यूनिटी सेंटर से जुड़े शोधकर्ता कन्नन जोगथला कृष्णन ने तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त और आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धान्त को ही खारिज करते हुए कहा कि उनके शोध में भौतिक विज्ञान के सभी सवालों के जवाब हैं।  वे यहीं पर नहीं रुके। आगे उन्होंने कहा कि भविष्य में जब वे गुरुत्वाकर्षण के बारे में लोगों के विचार बदल देंगे, तब गुरुत्वीय तरंगों को नरेंद्र मोदी तरंगके नाम से तथा गुरुत्वाकर्षण प्रभाव को हर्षवर्धन प्रभावके नाम से जाना जाएगा।

भूगर्भ विज्ञान की प्रोफेसर आशु खोसला के द्वारा इसी भारतीय विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत पर्चे में कहा गया है कि भगवान ब्राहृा इस ब्राहृांड के सबसे महान वैज्ञानिक थे। वे डायनासौर के बारे में जानते थे और वेदों में इसका उल्लेख भी किया है।

इतने प्रतिष्ठित आयोजन में अवैज्ञानिक और अतार्किक दावों का ये चलन 2015 से पहले शायद ही देखा गया हो।

हालांकि प्राचीन भारतीय विज्ञान की बखिया उधेड़ने का यह सिलसिला कोई नया नहीं है। इससे पहले आम नेतामंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, और प्रधानमंत्री तक भी मिथक, अंधविश्वास और विज्ञान का घालमेल कर चुके हैं। उनके दावों के मुताबिक यदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों की भलीभांति व्याख्या की जाए, तो आधुनिक विज्ञान के सभी आविष्कार उसमें पाए जा सकते हैं। जैसे राडार प्रणाली, मिसाइल तकनीक, ब्लैक होल, सापेक्षता सिद्धांत एवं क्वांटम सिद्धांत, टेस्ट ट्यूब बेबी, अंग प्रत्यारोपण, विमानों की भरमार, संजय द्वारा दूरस्थ स्थान पर घटित घटनाओं को देखने की तकनीक, समय विस्तारण सिद्धांत, अनिश्चितता का सिद्धांत, संजीवनी औषधि, कई सिर वाले लोग, क्लोनिंग, इंटरनेट, भांतिभांति के यंत्रोंपकरण वगैरह। वेदों, पुराणों में विज्ञान के जिस अक्षय भंडार को स्वयं आदि शंकराचार्य, यास्क से सायण तक के वेदज्ञ, आर्यभट, वराह मिहिर, ब्राहृगुप्त और भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञज्योतिषी नहीं खोज पाए, उसको हमारे वैज्ञानिकों और नेताओं ने ढूंढ निकाला!

भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसके संविधान द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए प्रतिबद्धता को प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। अत: यह हमारा दायित्व है कि हम अपने समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को जवाहरलाल नेहरु ने 1946 में अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में विचारार्थ प्रस्तुत किया था। उन्होंने इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था।

पिछले सत्तर वर्षों में हमारे देश में दर्जनों उच्च कोटि के वैज्ञानिक संस्थान अस्तित्व में आए हैं और उन्होंने हमारे देश के समग्र विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। हमारे मन में अत्याधुनिक तकनीकी ज्ञान तो रचबस गया है, मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खिड़की से बाहर फेंक दिया है। वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाले लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर आज आक्रामक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश कर रहे हैं कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था। पौराणिक कथाओं को विज्ञान बताया जा रहा है।

आज यह दावा किया जाता है कि हमारे वेदोंपुराणों में परमाणु बम बनाने की विधि दी हुई है। विज्ञान समानुपाती एवं समतुल्य होता है। अगर हम यह मान भी लें कि वैदिक काल में परमाणु बम बनाने का सिद्धांत एवं अन्य उच्च प्रौद्योगिकियां उपलब्ध थीं, तो तत्कालीन वैदिक सभ्यता अन्य सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं आविष्कारों को खोजने में कैसे पीछे रह गई? नाभिकीय सिद्धांत को खोजने की तुलना में विद्युत या चुंबकीय शक्तियों को पहचानना और उन्हें दैनिक प्रयोग में लाना अधिक सरल है। मगर वेदों में इस ज्ञान को प्रयोग करने का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता है। यहां तक कि इंद्र के स्वर्ग में भी बिजली नहीं थी, जबकि आज गांवगांव में बिजली उपलब्ध है। तकनीक की ऐसी रिक्तियां विरोधाभास उत्पन्न करती हैं। निश्चित रूप से इससे यह तर्क मजबूत होता है कि वैदिक सभ्यता को नाभिकीय बम बनाने का सिद्धांत ज्ञात नहीं था। मगर इससे हमें वैदिक ग्रंथों के रचनाकारों की अद्भुत कल्पनाशक्ति के बारे में पता चलता है। निसंदेह कल्पना एक बेहद शक्तिशाली एवं रचनात्मक शक्ति है।

आज के इस आधुनिक युग में जिस प्रकार से कोई खुद को अंधविश्वासी, नस्लवादी या स्त्री शिक्षा विरोधी कहलाना पसंद नहीं करता, उसी प्रकार से खुद को अवैज्ञानिक कहलाना भी पसंद नहीं करता है। वह अपनी अतार्किक बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए मूलभूत सच्चाई की नकल उतारने वाले छलकपट युक्त छद्म विज्ञान का सहारा लेता है। आज प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जुड़े जो मनगढ़ंत और हवाई दावे किए जा रहे हैं वे छद्मविज्ञान के ही उदाहरण हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन भारत ने आर्यभट, भास्कराचार्य, ब्राहृगुप्त, सुश्रुत और चरक जैसे उत्कृष्ट वैज्ञानिक दुनिया को दिए। परंतु यह मानना कि हज़ारों साल पहले भी भारत को विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में महारथ हासिल थी, स्वयं को महिमामंडित करने का हास्यास्पद प्रयास है। दरअसल ऐसे पोगापंथियों के चलते हमारे प्राचीन भारत के वास्तविक योगदान भी ओझल हो रहे हैं क्योंकि आधुनिकता में प्राचीन भारतीय विज्ञान का विरोध तो होता ही नहीं है, विरोध तो रूढ़ियों का होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्र के पेंदे से 200 फीट नीचे सूक्ष्मजीव पाए गए

जापान के समुद्र के पेंदे में सैकड़ों फुट नीचे कुछ सूक्ष्मजीव मिले हैं। समुद्र में इतनी गहराई पर तापमान शून्य से कई डिग्री नीचे होता है और दबाव हज़ारों वायुमंडल के बराबर होता है। इतना कम तापमान और दबाव किसी भी जीवन की संभावना को खारिज कर देता है किंतु हाल ही में जापान के मैजी विश्वविद्यालय के ग्लेन स्नाइडर ने इसी गहराई में ये सूक्ष्मजीव प्राप्त किए हैं।

स्नाइडर और उनके साथी जापान के पश्चिमी तट से काफी अंदर गैस हायड्रेट की तलाश कर रहे थे। गैस हायड्रेट गैस और पानी से मिलकर बने रवेदार ठोस होते हैं। यह मिश्रण समुद्र की गहराई में मौजूद अत्यंत कम तापमान और अत्यंत उच्च दबाव पर ठोस बन जाता है। उन्होंने पाया कि बड़ेबड़े (5-5 मीटर चौड़े) गैस हायड्रेट में अंदर डोलोमाइट के रवे फंसे हुए हैं। डोलोमाइट के ये कण बहुत छोटेछोटे थे (व्यास मात्र 30 माइक्रॉन)। और इन डोलोमाइट रवों के अंदर एक और गहरे रंग का बिंदु था। इस बिंदु ने शोधकर्ताओं की जिज्ञासा बढ़ा दी।

जब रासायनिक विधि से हायड्रेट को अलग कर दिया गया तो शोधकर्ताओं को डोलोमाइट का अवशेष मिला। उन्होंने अमेरिकन जियोफिज़िकल युनियन के सम्मेलन में बताया कि जब उक्त सूक्ष्म धब्बों का फ्लोरेसेंट रंजक से रंगकर अवलोकन किया तो पता चला कि इनमें जेनेटिक पदार्थ उपस्थित है। यह जेनेटिक पदार्थ सूक्ष्मजीवों का द्योतक है।

यह तो पहले से पता है कि सूक्ष्मजीव हायड्रेट्स के आसपास रहते हैं किंतु यह पूरी तरह अनपेक्षित था कि ये हायड्रेड्स के अंदर डोलोमाइट में निवास करते होंगे। अवलोकन से यह तो पता नहीं चला है कि ये सूक्ष्मजीव जीवित हैं या मृत किंतु इनका वहां पाया जाना ही आश्चर्य की बात है। चूंकि ये हायड्रेट्स के अंदर के अनछुए वातावरण में मिले हैं इसलिए यह निश्चित है कि ये वहीं के वासी होंगे; ये वहां किसी इंसानी क्रियाकलाप की वजह से नहीं पहुंचे होंगे।

वैज्ञानिकों का विचार है कि मंगल ग्रह पर भी ऐसे हायड्रेट्स पाए जाते हैं और काफी संभावना बनती है कि उनके अंदर ऐसे सूक्ष्मजीवों का घर हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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