पहाड़ी जंतुओं में गंध की संवेदना कम

ऊंचे पहाड़ों पर विचरने वाले जंतुओं(high altitude animals), जैसे लामा, भेड़ों वगैरह में गंध को पकड़ने वाले ग्राही (olfactory receptors) काफी कम संख्या में पाए जाते हैं और मस्तिष्क का गंध से सम्बंधित क्षेत्र (ऑल्फेक्टरी लोब – olfactory lobe) भी छोटा होता है। यह खुलासा करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध में हुआ है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस अनुकूलन से उन्हें ऊंचे पहाड़ों की ठंडी, सूखी हवा में रहने में मदद मिलती होगी।

कैन्सास विश्वविद्यालय (University of Kansas) की एली ग्राहम यह समझना चाह रही थीं कि जानवर ऊंचाइयों जैसे इंतहाई पर्यावरण के साथ तालमेल कैसे बनाते हैं। उन्होंने स्तनधारियों की जेनेटिक जानकारी जुटाई और अपने दल के साथ मिलकर देखा कि ऊंचे पहाड़ों पर रहने वाले तथा समुद्र सतह के नज़दीक रहने वाले जानवरों के बीच क्या अंतर हैं।

सबसे बड़ा अंतर था कि ऊंचाई पर रहने वाले जंतुओं में गंध संवेदना से जुड़े जीन्स (olfactory genes) की संख्या बहुत कम थी।

थोड़ा और गहराई में उतरे तो पता चला कि 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर रहने वाले जानवरों में गंध संवेदना से सम्बंधित जीन्स उन जानवरों से 23 प्रतिशत कम थे जो इससे कम ऊंचाई के निवासी थे।

फिर, उन्होंने पूर्व में संग्रहित उस जानकारी पर गौर किया जो कई स्तनधारी जीवों की खोपड़ियों की नपाई (cranial measurement study) से प्राप्त हुई थी। पता चला कि पर्वतीय जीवों का ऑल्फेक्टरी बल्ब (घ्राण बल्ब) (olfactory bulb size) निचले इलाकों के निवासी जीवों की तुलना में औसतन 18 प्रतिशत छोटा होता है। और तो और, किसी प्राणी का रहवास जितनी ऊंचाई पर होता है, उसमें उतने ही कम गंध संवेदना से जुड़े जीन्स और गंध ग्राही पाए जाते हैं।

तो क्या ऊंचाई के साथ गंध संवेदना का ह्रास एक अनुकूलन (adaptive trait loss) है? इसके कई कारण हो सकते हैं कि ऊंचाई के साथ जंतुओं को गंध संवेदना की ज़रूरत कम पड़े। एक तो यह हो सकता है कि ऊंचे स्थानों पर हवा अपेक्षाकृत अधिक ठंडी और कम नमीदार (cold and dry air conditions) होती है। ऐसी हवा में गंध पदार्थों के अणु कम होते हैं और गंध के अणु ज़्यादा दूर तक नहीं पहुंच पाते। इसी के साथ ऐसी हवा नाक बंद होने व श्वास मार्ग में सूजन का सबब भी हो सकती है।

अनुमान है कि इस कारण ऊंचे स्थानों पर रहने वाले जंतुओं को गंध की बारीक संवेदना की ज़रूरत ही नहीं होगी। तो ग्राहम का अनुमान है कि गंध संवेदी ग्राही की बजाय ऐसे जीव अपने संसाधन अन्य संवेदनाओं (जैसे स्वाद और दृष्टि – alternate senses like vision and taste) में निवेश करेंगे।

उन्होंने यह भी देखने का प्रयास किया कि क्या ये निष्कर्ष मनुष्यों पर भी सही बैठते हैं। इसके लिए उन्होंने मनुष्यों के दो समूहों के बीच जेनेटिक अंतरों पर गौर किया – एक, तिब्बती लोग जो 4500 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई के बाशिंदे हैं और दूसरा, कम ऊंचाइयों पर रहने वाले चीन के हान (Tibetan vs Han people genetic study) लोग। लेकिन इनके बीच कोई अंतर नहीं मिला।

यह आश्चर्यजनक था क्योंकि ड्रेसडेन विश्वविद्यालय के थॉमस हमेल ने एक प्रयोग (controlled environment experiment) में देखा था कि जब मनुष्यों को एक ऐसे कक्ष में बैठाया गया जिसका पर्यावरण ऊंचे स्थानों जैसा था तो उन्हें गंध ताड़ने में मुश्किल हुई बनिस्बत उनके जिन्हें कम ऊंचे पर्यावरण कक्ष में बैठाया था। इसकी व्याख्या नहीं हो पाई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऑनलाइन आलोचना से स्वास्थ्य एजेंसियों पर घटता विश्वास

डिजिटल दौर (digital age) में जन स्वास्थ्य एजेंसियों (public health agencies) के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। उन्हें अब सिर्फ बीमारियों के प्रसार (disease outbreaks) से ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर फैल रही भ्रामक जानकारियों (health misinformation) और व्यक्तिगत हमलों से भी निपटना पड़ रहा है। एक हालिया अध्ययन बताता है कि यूएस के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) जैसी स्वास्थ्य संस्थाओं के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई नकारात्मक टिप्पणियां लोगों के भरोसे (public trust) को तोड़ रही हैं, उनमें गुस्सा (public anger) बढ़ा रही हैं।

हाल ही में CDC ने टेक्सास और न्यू मेक्सिको में खसरे के प्रकोप (measles outbreak)  को लेकर एक चेतावनी ट्विट की थी, जिसमें यात्रियों को टीका लगवाने (vaccination) की सलाह दी गई थी। कुछ लोगों ने इसका समर्थन किया। लेकिन कई लोगों ने इस पर शक जताया, साज़िश के आरोप (conspiracy theories) लगाए और यहां तक कि आपराधिक व्यवहार का इल्ज़ाम तक लगाया। ऐसी तीखी प्रतिक्रियाएं अब आम हो रही हैं।

इसका असर समझने के लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी (Stanford University) के शोधकर्ताओं ने 6800 अमरीकियों पर अध्ययन किया। प्रतिभागियों को एक काल्पनिक सोशल मीडिया पोस्ट दिखाई, जिसमें CDC जैसी संस्था ने एक दुविधामयी स्वास्थ्य सलाह दी थी – जैसे सबको स्लीप एप्निया की जांच (sleep apnea screening) करवाने की सलाह। इसके बाद उन्हें आलोचनात्मक टिप्पणियां (critical comments) दिखाईं, जो असली ऑनलाइन टिप्पणियों की तरह बनाई गई थीं।

इन आलोचनात्मक टिप्पणियों की प्रकृति अलग-अलग थी – कुछ में सलाह से सिर्फ असहमति जताई थी, तो कुछ में संस्था की क्षमता (competence) पर या ईमानदारी (integrity) पर सवाल उठाया था, जैसे राजनीतिक हित या छुपे हुए इरादे होना।

अध्ययन के नतीजे चौंकाने वाले थे। महज़ एक नकारात्मक टिप्पणी (negative comment) – भले ही हल्की-फुल्की ही क्यों न हो – भी लोगों का भरोसा कम कर देती है। लेकिन सबसे ज़्यादा नुकसान वे टिप्पणियां करती हैं जो संस्था की सच्चाई (credibility)  और नैतिकता (ethics)  पर हमला करती हैं। ऐसी टिप्पणियां न सिर्फ भरोसा घटाती हैं, बल्कि लोगों में गुस्सा पैदा करती हैं और उन्हें उसे साझा करने, भावनात्मक प्रतिक्रिया देने या जवाब देने के लिए उकसाती हैं।

दिलचस्प बात यह रही कि यह असर राजनीतिक सोच (political orientation) पर निर्भर नहीं था – चाहे व्यक्ति रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट, संस्था की ईमानदारी पर हमला देखकर दोनों ने समान प्रतिक्रिया दी। इससे पता चलता है कि भरोसे में कमी सिर्फ राजनीति का मसला नहीं, बल्कि इंसानों की सामान्य प्रवृत्ति है। यह अध्ययन दर्शाता है कि हर तरह की आलोचना का असर एक जैसा नहीं होता – किस तरह की आलोचना (type of criticism) की जाती है, इससे बहुत फर्क पड़ता है।

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक (political analyst) जेम्स ड्रकमैन का कहना है कि गुस्से जैसी भावनाओं (anger perception) को सर्वेक्षण के ज़रिए मापना मुश्किल है – जो बात एक व्यक्ति को गुस्से जैसी लगे, वह दूसरे को चिंता जैसी लग सकती है। फिर भी, इस अध्ययन में जो पैटर्न सामने आया है, वह चिंता की बात (cause for concern) है।

स्वास्थ्य एजेंसी की तरफ से सफाई देने (official clarification) पर भी लोगों का भरोसा पहले जैसा नहीं लौटा। शोधकर्ता एवं मनोरोग विशेषज्ञ जोनाथन ली का मानना है कि इसका एक कारण यह हो सकता है कि लोग तुरंत सही बात सुनने के लिए तैयार नहीं होते – उन्हें पहले थोड़ा शांत होने (cool-down time) के लिए समय की ज़रूरत होती है।

इस अध्ययन से यह बात साफ होती है कि पारदर्शिता (transparency) यानी ईमानदारी बहुत ज़रूरी है। सलाह है कि स्वास्थ्य एजेंसियों को यह स्वीकार करने में हिचकना नहीं चाहिए कि उन्हें हर सवाल का जवाब नहीं पता। खासकर महामारी (pandemic) जैसी तेज़ी से बदलती परिस्थितियों में यह ईमानदारी भरोसा बढ़ा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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यह जीव यूवी प्रकाश से भी बच निकलता है

त्यंत ऊर्जावान पराबैंगनी प्रकाश (यूवी-सी) (UV-C radiaton) इतना घातक होता है कि लगभग सारी कोशिकाओं को मार डालता है। इसी वजह से इसका इस्तेमाल अस्पतालों में विसंक्रमण (hospital disinfection) के लिए किया जाता है। लेकिन हाल ही में एस्ट्रोबायोलॉजी (Astrobiology) में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार एक जीव इतना सख्तजान है कि वह यूवी-सी को भी झेल जाता है।

यूवी-सी से बच निकलने वाला यह जीव एक लाइकेन (lichen) है। लाइकेन दरअसल मिश्रित जीव होते हैं और एक फफूंद (fungus) तथा एक शैवाल (algae) से मिलकर बनते हैं। लगता है कि इस मिश्र-जीव ने यूवी-सी का तोड़ निकाल लिया है।

डेज़र्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Desert Research Institute) के खगोलजीव वैज्ञानिक (astrobiologist) हेनरी सन ने फील्ड वर्क के दौरान देखा था कि मोजावे के गर्म रेगिस्तान (Mojave desert) में एक लगभग काला-सा लाइकेन फल-फूल रहा था। सन ने अनुमान लगाया कि शायद इसका काला रंग (dark pigmentation), जो हरे पर हावी हो गया था, ही इसके रेगिस्तान में ज़िंदा रहने का राज़ है। इस लाइकेन क्लेवेसिडियम लेसिन्यूलेटम (Clavascidium lacinulatum) के नमूने प्रयोगशाला में लाकर अपने एक छात्र तेजिंदर सिंह को उसके अध्ययन में लगा दिया।

तेजिंदर सिंह ने पहले तो लाइकेन को सुखा दिया। इसके बाद उन्होंने लाइकेन को एक यूवी लैम्प (UV lamp) के नीचे रखा और उस पर विकिरण की बौछार की। लाइकेन ठीक-ठाक ही रहा। तब सिंह ने उस पर अत्यंत शक्तिशाली यूवी-सी बरसाया (लगभग उतना जितना मंगल पर उम्मीद की जा सकती है) (extreme UV-C exposure)। ऐसा ही यूवी-सी परीक्षण पृथ्वी पर पाए जाने वाले सर्वाधिक विकिरण रोधी बैक्टीरिया (डाईइनोकॉकस रेडियोड्यूरेन्स, Deinococcus radiodurans) (radiation-resistant bacteria) पर किया तो वह एक मिनट के अंदर मर गया था। यह मानकर चला जा रहा था कि लाइकेन कुछ घंटे या अधिक से अधिक कुछ दिन जी पाएगा। लेकिन तीन महीने तक परीक्षण करने के बाद जब वह नमूना निकाला गया तो उसमें मौजूद आधी से ज़्यादा शैवाल कोशिकाओं (algal cells) में से अंकुर फूटे और 2 सप्ताह में वहां बढ़िया हरी-भरी बस्ती तैयार हो गई। यानी इतने अत्याचार के बाद भी शैवाल में प्रजनन क्षमता (reproductive viability) मौजूद थी।

दिलचस्प बात थी कि यह प्रयोग सिर्फ लाइकेन के साबुत नमूने (intact lichen samples) पर ही सफल रहा। यही प्रयोग जब फफूंद के बगैर शैवाल कोशिकाओं की एक मोटी परत पर किया गया तो वे चंद मिनटों में मर गई। अर्थात ऊपरी परत की कोशिकाएं अन्य कोशिकाओं को मात्र विकिरण से सुरक्षा (radiation shielding) नहीं दे रही थीं।

लाइकेन की इस जीजिविषा (survivability) का कारण जानने के लिए सन की टीम ने रसायनज्ञों की मदद से लाइकेन में यूवी-अवशोषक पदार्थों (UV-absorbing compounds) की पहचान की। ये रसायन लाइकेन को यूवी से सुरक्षा देते हैं। लेकिन एक सवाल बना रहा कि ये रसायन इस लाइकेन में बनना ही क्यों शुरू हुए। सवाल इसलिए था क्योंकि पृथ्वी की ओज़ोन परत (ozone layer) करीब 50 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई मानी जाती है। यानी लाइकेन्स के उद्भव (lichen evolution) से काफी पहले ओज़ोन परत अस्तित्व में आ चुकी थी और पृथ्वी पर यूवी का आपतन बहुत कम रह गया था। तो यूवी से सुरक्षा की यह व्यवस्था क्यों बनी होगी?

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि लाइकेन्स में यह व्यवस्था खुद को स्वयं पृथ्वी के वातावरण से सुरक्षित रखने के लिए बनी होगी क्योंकि एक समय पर वनस्पतियों के फैलाव की वजह से वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी थी। ऑक्सीजन सजीवों के लिए अनिवार्य तो है लेकिन यह ऐसे क्रियाशील अणु (reactive molecules) पैदा कर सकती है जो डीएनए को नुकसान (DNA damage) पहुंचाते हैं।

इसी प्रयोग में एक और रोचक बात पता चली। ये सुरक्षात्मक रसायन (protective chemicals) लाइकेन के अंदरुनी भाग में नहीं बल्कि उसकी ऊपरी सतह (outer surface) पर जमा हो जाते हैं, ठीक सनस्क्रीन (natural sunscreen) की तरह। कई शोधकर्ता लाइकेन की इस खूबी के उपयोग की बात कर रहे हैं। अलबत्ता, मनुष्य के लिए उपयोगी हो न हो, लाइकेन के लिए तो यह सुरक्षा व्यवस्था (UV defense) उपयोगी है ही। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन से आल्प्स क्षेत्र में भूकंप का खतरा

म अक्सर सुनते हैं कि जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण लू, बाढ़, जंगलों में आग और समुद्र स्तर बढ़ (sea level rise) रहे हैं। लेकिन अब इसका एक और चौंकाने वाला असर पता चला है – आल्प्स पर्वतों (Alps mountains) में ग्लेशियरों (glaciers) के पिघलने से भूकंप (earthquake) का खतरा बढ़ सकता है।

ऐसी घटना फ्रांस के मॉन्ट ब्लांक (Mont Blanc) इलाके के एक ऊंचे बर्फ से ढंके पर्वत ग्रांड जोरासेस में घटी है। 2015 में जब इस क्षेत्र में भीषण गर्मी पड़ी तो भारी मात्रा में बर्फ पिघली। इसके तुरंत बाद पहाड़ के नीचे छोटे-छोटे भूकंप (micro earthquakes) महसूस किए गए। कोई नुकसान तो नहीं हुआ, लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसे छोटे-छोटे भूकंप कभी-कभी बड़े भूकंप की चेतावनी भी होते हैं।

लेकिन बर्फ के पिघलने (ice melt) से भूकंप कैसे आ सकते हैं? जब ग्लेशियर पिघलते हैं तो पानी चट्टानों की दरारों से गहराई तक चला जाता है। वहां यह पानी चट्टानों पर दबाव बनाता है और ज़मीन के अंदर जो फॉल्ट लाइनें (fault lines) होती हैं, उनकी पकड़ कमज़ोर कर देता है। इन फॉल्ट लाइनों के फिसलने से ऊर्जा निकलती है जो भूकंप का कारण बनती है।

ऐसा नहीं है कि यह प्रक्रिया सिर्फ आल्प्स में होती है। वैज्ञानिकों ने ताइवान (Taiwan) जैसे इलाकों में भी देखा है कि बारिश के हिसाब से भूकंप की संख्या बदलती है। इसी तरह, जहां फ्रैंकिंग (तेल और गैस निकालने की प्रक्रिया) (fracking) या जियोथर्मल ऊर्जा (geothermal energy) के लिए ज़मीन के भीतर दबाव के साथ पानी डाला जाता है, वहां भी छोटे भूकंप आ सकते हैं।

ETH ज्यूरिख (ETH Zurich) के वैज्ञानिकों द्वारा मॉन्ट ब्लांक इलाके में छोटे भूकंप को मापने वाले यंत्रों की मदद से 2006 से अब तक दर्ज 12,000 से ज़्यादा छोटे-छोटे भूकंपों के विश्लेषण से पता चला है कि 2015 की गर्मी के बाद इन भूकंपों की संख्या बढ़ी थी। यही पैटर्न अगले साल की ग्रीष्म लहरों (heat waves) के बाद भी दिखे।

दिलचस्प बात यह है कि सतह के पास वाले छोटे भूकंप गर्मी के लगभग एक साल बाद बढ़े, जबकि गहराई (लगभग 7 कि.मी.) में आने वाले भूकंप दो साल बाद बढ़े। इसका कारण यह हो सकता है कि पानी को गहराई तक पहुंचने में समय लगता है।

भूकंप सम्बंधी ऐसे अनुभव पहले भी हुए हैं। 1960 के दशक में जब मॉन्ट ब्लांक टनल (Mont Blanc tunnel)  बनाई जा रही थी तो पहाड़ों के भीतर से अचानक तेज़ी से बहता हुआ बिलकुल ताज़ा पानी मिला। यह पानी इतना ताज़ा था कि उसमें अभी तक चट्टानों के खनिज (minerals) भी नहीं घुल पाए थे।

हालांकि, कुछ वैज्ञानिकों ने इन निष्कर्षों पर थोड़ी सावधानी बरतने की बात कही है। वैज्ञानिक फिलिप वर्नांट (Philippe Vernant) का कहना है कि वैसे तो आंकड़े काफी मज़बूत हैं लेकिन यह भी मुमकिन है कि मॉन्ट ब्लांक सुरंग बनाने के प्रभाव देर से सामने आ रहे हों। इसलिए ज़रूरी है कि इस तरह की घटनाओं पर लंबे समय तक अध्ययन (long-term monitoring) किए जाएं ताकि पता चल सके कि ऐसा पैटर्न केवल आल्प्स में है या दुनिया के अन्य पहाड़ी इलाकों (mountain regions) में भी है।

अभी तक तो आल्प्स में आए इन भूकंपों से मॉन्ट ब्लांक सुरंग या आस-पास के शहरों को कोई खतरा नहीं है। इस क्षेत्र की इमारतें रिक्टर पैमाने (Richter scale) पर 6 स्तर के भूकंप झेलने लायक बनाई गई हैं। लेकिन स्थिति हिमालय (Himalayas) जैसे इलाकों में ज़्यादा गंभीर हो सकती है, जहां ग्लेशियर बहुत तेज़ी से पिघल रहे हैं (rapid glacier melting) और जहां बड़े और खतरनाक भूकंप आने की आशंका भी ज़्यादा है।

जलवायु परिवर्तन बढ़ता जा रहा है (climate crisis) और यह अध्ययन हमें याद दिलाता है कि हमारी धरती पहले से ही एक नाज़ुक हालत में है; ग्लेशियर पिघलने (melting glaciers) जैसे छोटे बदलाव भी इसे और अस्थिर कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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शार्क की प्रतिरक्षा प्रणाली का चौंकाने वाला आयाम

शार्क पिछले 40 करोड़ सालों से अस्तित्व में हैं। वे कई बड़े-बड़े संकटों से बची रही हैं और खुद को कई तरह की सुरक्षा क्षमताओं से लैस किया है। अब एक हालिया शोध से खुलासा हुआ है कि उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) में पैंक्रियास (अग्न्याशय) (pancreas) की भी अहम भूमिका है।

गौरतलब है कि इंसानों में पैंक्रियास का काम पाचन में मदद करना और रक्त शर्करा (blood sugar) नियंत्रित करना होता है, लेकिन दी जर्नल ऑफ इम्युनोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि नर्स शार्क (Ginglymostoma cirratum) इस अंग का इस्तेमाल एंटीबॉडी (antibodies) बनाने और विशेष प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells) को प्रशिक्षित करने के लिए करती है। आम तौर पर यह काम मनुष्यों में तिल्ली और लसिका ग्रंथियों जैसे अंगों में किया जाता है।

मैरीलैंड युनिवर्सिटी के शोधकर्ता थॉमस हिल और हेलेन डूली को शार्क के पैंक्रियास में ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं मिली हैं जो आम तौर पर शरीर के मुख्य प्रतिरक्षा अंगों (primary immune organs) में पाई जाती हैं। शार्क के पैंक्रियास न सिर्फ बी-कोशिकाओं का निर्माण करते हैं बल्कि श्वेत रक्त कोशिकाओं (white blood cells) को सूक्ष्मजीवी हमलों (microbial attacks) से लड़ने के लिए तैयार भी करते हैं।

शार्क में पैंक्रियास की प्रतिरक्षा भूमिका को परखने के लिए वैज्ञानिकों ने एक शार्क के शरीर में बाहरी संक्रामक डाले, और दूसरी शार्क को कोविड-19 टीका (COVID-19 vaccine) लगाया। कुछ हफ्तों बाद, शार्क के पैंक्रियास में उपरोक्त रोगजनक-विशिष्ट एंटीबॉडी मिलीं, जिससे साबित हुआ कि यह अंग सिर्फ साथ नहीं देता, बल्कि सीधे लड़ाई में शामिल होता है।

यह खोज इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि शार्क में इंसानों के समान लसिका ग्रंथियां (lymph nodes) नहीं होती हैं, जो हमारे प्रतिरक्षा तंत्र का ज़रूरी हिस्सा होती हैं। इसका मतलब है कि समय के साथ उद्विकास ने शरीर के दूसरे अंगों को नए कामों के लिए ढाल लिया है, खासकर उन जीवों में जिनकी शरीर संरचना मनुष्यों से अलग है।

यह अध्ययन एक बड़ा सवाल उठाता है – क्या हमारे शरीर के दूसरे अंगों और अन्य जीवों में भी ऐसे गुप्त प्रतिरक्षा तंत्र (hidden immune functions) हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि मनुष्यों का पैंक्रियास भी प्राचीन काल से कुछ प्रतिरक्षा भूमिकाएं निभाता आया हो? यह समझ शायद यह भी बता सके कि यह अंग सूजन (inflammatory diseases) जैसी बीमारियों (जैसे पैंक्रियाटाइटिस) (pancreatitis) के प्रति इतना संवेदनशील क्यों होता है।

बहरहाल, इस पर अभी अधिक अध्ययन (research) की ज़रूरत है। यह देखना चाहिए कि क्या शार्क में पैंक्रियास हमेशा प्रतिरक्षा के लिए तैनात रहता है? क्योंकि मनुष्यों में कभी-कभी गैर-प्रतिरक्षी अंग (non-immune organs) में भी प्रतिरक्षा कोशिकाएं मिलती हैं, खासकर पैंक्रियास में। साथ ही हमें देखना चाहिए कि शरीर के कौन-कौन से हिस्से प्रतिरक्षा प्रक्रिया (immune response)  में योगदान करते हैं। शायद हम प्रतिरक्षा प्रणाली के कई हिस्सों को अब तक नज़रअंदाज़ करते रहे हैं क्योंकि हमें लगा था कि हम सब कुछ जान चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)

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एक नया रक्त समूह खोजा गया

हाल ही में एक नया रक्त समूह (new blood group) खोजा गया है। अब तक कुल 47 रक्त समूह (blood types)  ज्ञात थे और यह 48वां रक्त समूह इतना दुर्लभ (rare blood group) है कि फिलहाल दुनिया में मात्र एक इंसान में पाया गया है।

दरअसल, फ्रांस में एक महिला के लिए उपयुक्त रक्तदाता (blood donor) खोजने के लिए सामान्य रक्त परीक्षण (blood test) किया जा रहा था। लेकिन महिला की रक्त प्लाज़्मा हरेक संभावित दानदाता के रक्त के विरुद्ध प्रतिक्रिया दे रही थी। और तो और, उसके सगे भाई-बहनों का रक्त भी मैच नहीं किया। यानी उसके लिए कोई दानदाता खोजना नामुमकिन हो गया था।

आम तौर पर हम जानते हैं कि रक्त समूह चार होते हैं – ए, बी, एबी तथा ओ (A, B, AB, O blood groups) । साथ ही इनमें आरएच धनात्मक और आरएच ऋणात्मक (Rh positive, Rh negative) हो सकते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि ये रक्त समूह दर्जनों रक्त समूह प्रणालियों में से मात्र दो का प्रतिनिधित्व करते हैं। अन्य रक्त वर्गीकरण प्रणालियों (blood classification systems) का असर भी खून लेने-देने पर होता है। रक्त समूह वर्गीकरण की तमाम प्रणालियों में लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) की सतह पर पाई जाने वाली शर्कराओं और प्रोटीन में बारीक अंतरों को आधार बनाया गया है। इसके आधार पर विभिन्न व्यक्तियों में रक्त का लेन-देन संभव या असंभव होता है।

फ्रांस के ग्वाडेलूप में खोजे गए इस रक्त समूह को ‘ग्वाडा ऋणात्मक’ (Gwada negative) नाम दिया गया है। इसकी गुत्थी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने आधुनिक संपूर्ण एक्सोम अनुक्रमण (whole exome sequencing) नामक तकनीक की मदद ली। इस तकनीक में मनुष्यों में पाए जाने 20,000 से ज़्यादा जीन्स (human genes) की जांच की जाती है। इस विश्लेषण से पता चला कि उस महिला के एक जीन PIGZ में उत्परिवर्तन (gene mutation) हुआ है।

यह जीन एक ऐसा एंज़ाइम बनाता है जो कोशिका झिल्ली के एक महत्वपूर्ण अणु पर एक खास शर्करा को जोड़ता है। वह शर्करा न हो तो लाल रक्त कोशिकाओं पर एक अणु की रचना बदल जाती है। इस परिवर्तन की वजह से एक नया एंटीजन बन जाता है। विशिष्ट एंटीजन की उपस्थिति ही रक्त समूह का निर्धारण करती है – इस मामले में एक सर्वथा नया वर्गीकरण उभरा है – ग्वाडा धनात्मक (जब एंटीजन उपस्थित हो) (Gwada positive) और ग्वाडा ऋणात्मक (जब एंटीजन नदारद हो।

जीन संपादन की तकनीक (gene editing) से शोधकर्ताओं ने जब वह उत्परिवर्तन प्रयोगशाला में भी किया, तो पता चला कि सारे दानदाताओं का रक्त ग्वाडा धनात्मक था जबकि वह महिला दुनिया की एकमात्र महिला थी जिसका रक्त ग्वाडा ऋणात्मक था।

रक्त समूह के बारे में मान्यता है कि वे मात्र खून के लेन-देन को प्रभावित करते हैं। लेकिन इस मामले में देखा गया है कि वह महिला थोड़ी बौद्धिक विकलांगता (intellectual disability) से पीड़ित है, प्रसव के दौरान दो बच्चे गंवा चुकी है। वैज्ञानिकों को लगता है कि ये उसके उत्परिवर्तन से सम्बंधित हो सकते हैं।

बहरहाल, सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि इस महिला के लिए खून की व्यवस्था (blood availability) कैसे की जाए। वैसे कई वैज्ञानिक प्रयोगशाला में स्टेम कोशिकाओं से लाल रक्त कोशिकाएं विकसित करने पर काम कर रहे हैं जिन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग (genetic engineering) के उपरांत ग्वाडा ऋणात्मक जैसे दुर्लभ प्रकरणों (lab-grown blood cells for rare blood types) में इस्तेमाल किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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निजी अस्पतालों में आकस्मिक चिकित्सा पर पुनर्विचार ज़रूरी

संदीप चवाण

जब सिर्फ पैसों के कारण आपात स्थिति में इलाज नहीं दिया जाता, तो कई बार जान चली जाती है। यह लेख ऐसे ही कुछ बेहद ज़रूरी मामलों को सामने लाता है और सख्त नियमों और उन्हें सही तरीके से लागू करने की मांग करता है, ताकि संकट के समय किसी को भी इलाज से वंचित किया जाए।

कुछ ही महीने पहले पुणे में एक बहुत दुखद घटना घटी। एक गर्भवती महिला, जिसे पहले से ही गंभीर स्थिति में माना गया था और जो समय से पहले जुड़वां बच्चों को जन्म देने वाली थी, उसे पुणे के जाने-माने दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल लाया गया। लेकिन इलाज (emergency treatment) शुरू करने के लिए अस्पताल ने 10 लाख रुपए एडवांस जमा करने की मांग की।

परिवार ने इलाज के लिए गुहार लगाई और भरोसा दिलाया कि थोड़ी देर में पैसों का इंतज़ाम हो जाएगा, लेकिन अस्पताल (private hospital) ने पैसे के बिना इलाज शुरू करने से मना कर दिया। इससे कीमती समय बर्बाद हुआ और महिला को दूसरे अस्पताल ले जाना पड़ा। वहां उसने जुड़वां लड़कियों को जन्म तो दिया, लेकिन उसकी खुद की जान नहीं बच सकी।

बेवजह देरी

जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जब मातृत्व मृत्यु रोकने की बात होती है, तो अक्सर ‘थ्री डिले मॉडल’ (तीन देरियों) (three delay model) का ज़िक्र होता है। इस मॉडल से यह समझने में मदद मिलती है कि इलाज में किस-किस स्तर पर होने वाली देरी मां की जान ले सकती है।

सबसे पहली देरी होती है घर में – जब परिवार यह तय करने में समय लगाता है कि इलाज करवाना (medical attention)  है या नहीं। दूसरी देरी होती है अस्पताल तक पहुंचने में – जब रास्ते की दूरी, खराब सड़कें या परिवहन की समस्या आड़े आती है। तीसरी देरी तब होती है जब मरीज़ अस्पताल पहुंच तो जाता है, लेकिन वहां स्टाफ की कमी, ज़रूरी साधनों के अभाव या तंत्र की लापरवाही के कारण समय पर इलाज (initial emergency care) नहीं मिल पाता।

हालांकि यह मॉडल आम तौर पर गर्भवती महिलाओं (maternal health) के इलाज के संदर्भ में लागू किया जाता है, लेकिन इसे हर उस आपात स्थिति पर लागू किया जा सकता है जहां समय पर इलाज (urgent care) न मिलने से मरीज़ की जान जा सकती है।

हमारे देश में तीसरे प्रकार की देरी से होने वाली मौतें ज़्यादातर ग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं, जहां न तो अस्पताल होते हैं और न ही स्टाफ। लेकिन यह मामला एक चौंकाने वाला शहरी उदाहरण है, जहां देरी का कारण सुविधाओं की कमी नहीं, बल्कि निजी अस्पतालों की कॉर्पोरेट सख्ती था।

यह जानते हुए भी कि महिला की हालत बेहद गंभीर थी, अस्पताल ने सिर्फ पैसों की वजह से इलाज करने से मना कर दिया। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम इस बात को सामने लाएं कि जो बड़े निजी अस्पताल (corporate hospital) सरकारी छूट और सुविधाएं लेते हैं, वे आपात स्थिति (emergency situation) में ज़रूरतमंद मरीज़ों के साथ कैसे व्यवहार करते हैं। कैसे कई बार वित्तीय हित मरीज़ की देखभाल और सुरक्षा से ज़्यादा अहम हो जाते हैं।

मेरा निजी अनुभव

उपरोक्त खबर को पढ़ने के बाद मुझे भी अपना एक हालिया अनुभव साझा करने की ज़रूरत महसूस हो रही है, जो यह दिखाता है कि निजी अस्पतालों में नीतियों (hospital policies) में बदलाव और जवाबदेही कितनी ज़रूरी है।

मेरी पत्नी को एक्टोपिक प्रेग्नेंसी (ectopic pregnancy) (जिसमें गर्भधारण गर्भाशय की बजाय किसी अन्य स्थान पर हो जाता है और यह एक गंभीर मेडिकल इमरजेंसी होती है) की स्थिति में तुरंत अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। हमारे पास स्वास्थ्य बीमा (health insurance) था, इसलिए कैशलेस (cashless facility) इलाज की सुविधा उपलब्ध थी। मैंने सारे ज़रूरी दस्तावेज़ तुरंत जमा कर दिए। बताया गया कि बीमा क्लेम (insurance claim) की प्रक्रिया शुरू हो गई है और मंज़ूरी में लगभग तीन घंटे लगेंगे। लेकिन साथ ही यह भी कहा गया कि जब तक 25,000 रुपए एडवांस (advance payment) में नहीं दिए जाते, सर्जरी (surgery) शुरू नहीं होगी।

मेरे लिए पैसा देना मुश्किल नहीं था, फिर भी मैंने पूछा कि जब कैशलेस सुविधा है तो क्या पैसे मिलने के लिए तीन घंटे का इंतज़ार नहीं किया जा सकता? जवाब मिला कि सर्जरी तभी शुरू होगी जब कैशलेस क्लेम मंज़ूर हो जाएगा। मैंने बार-बार समझाया कि यह इमरजेंसी है, लेकिन बिलिंग विभाग (billing department) ने कोई नरमी नहीं (denial) दिखाई। आखिरकार मैंने एडवांस राशि दी, सर्जरी हुई और जैसा अनुमान था, क्लेम भी मंज़ूर हो गया। पत्नी की छुट्टी के बाद जमा की गई राशि लौटा दी गई। लेकिन इस अनुभव ने मेरे ज़ेहन में कई सवाल छोड़ दिए।

यदि उस समय मेरे पास 25,000 रुपए न होते तो क्या मेरी पत्नी की सर्जरी (operation) टल जाती, जबकि मैंने कैशलेस इलाज के लिए सारे ज़रूरी दस्तावेज़ जमा कर दिए थे? और यदि देरी से उनकी सेहत को नुकसान होता, तो उसका ज़िम्मेदार कौन होता?

आपात स्थिति में इन प्रक्रियाओं की बजाय अस्पताल इलाज को प्राथमिकता क्यों नहीं देते? जब मरीज़ को सर्जरी या गंभीर इलाज की ज़रूरत है और वह 2–3 दिन अस्पताल में रहने वाला है, और 25,000 रुपए की एडवांस राशि बहुत बड़ी नहीं है, खासकर तब जब अस्पताल कैशलेस सुविधा वाला है और बीमा से पैसा मिलने ही वाला है। फिर भी इलाज शुरू करने से पहले इतनी बेरहमी से एडवांस की मांग क्यों? इलाज में देरी जान ले सकती है। क्या ऐसी स्थिति में इंसानियत और सहयोग की भावना ज़रूरी नहीं है?

आपात समय में मरीज़ के परिवारजन घबराए होते हैं और कभी-कभी आर्थिक स्थिति भी कमज़ोर होती है। ऐसे मौके पर क्या अस्पताल को थोड़ी नरमी नहीं दिखानी चाहिए? मरीज़ की जान से जुड़ी स्थिति में अस्पताल इतनी कठोर नीति क्यों अपनाते हैं? और आखिर किसने निजी अस्पतालों को यह हक दिया कि वे मरीज़ की जान को इस तरह जोखिम में डालें?

वैसे कैशलेस क्लेम को मंज़ूरी मिल गई थी, और जो पैसे मैंने एडवांस में दिए थे, वो पैसे मुझे तुरंत नहीं मिले थे। यहां मुझसे एक ग्राहक के तौर पर उम्मीद की गई थी कि मैं अस्पताल की आंतरिक प्रक्रिया के साथ सहयोग करूं। लेकिन क्या अस्पतालों द्वारा एडवांस राशि तुरंत जमा करवाने के नियम में ढील नही दी जानी चाहिए, खासकर इमर्जेंसी की स्थिति में? क्या मरीज़ (patients) के परिजनों की यह उम्मीद (expectation) गलत है कि ऐसी स्थिति में अस्पताल थोड़ा लचीलापन (flexibility) दिखाए?

यहां साफ तौर पर असंतुलन है; जहां मरीज़ से तो उम्मीद की जाती है कि वह अस्पताल की प्रक्रियाओं का सम्मान करे, लेकिन अस्पताल मरीज़ की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर देता है।

बेशक, अस्पताल यह तर्क दे सकते हैं कि कहीं मरीज़ बिना बिल चुकाए भाग न जाए। लेकिन फिर भी, खास तौर पर आपात स्थिति में, अस्पताल को सबसे पहले इलाज को प्राथमिकता देनी चाहिए और वित्तीय औपचारिकताओं को थोड़ी देर के लिए मुल्तवी कर देना चाहिए।

टुकड़ाटुकड़ा सुधार

गर्भवती महिला की मौत के बाद हुए विरोध के चलते, अब पुणे के दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल ने यह फैसला लिया है कि इमरजेंसी में आने वाले मरीज़ों से अब एडवांस जमा करने की मांग नहीं की जाएगी और इलाज को प्राथमिकता दी जाएगी।

इसके अलावा, मुख्यमंत्री ने भी घोषणा की है कि ऐसे हादसे दोबारा न हों, इसके लिए वे कुछ ठोस कदम उठाएंगे। पुणे महानगरपालिका (PMC) ने भी अपने अधिकार क्षेत्र के सभी निजी अस्पतालों (private hospitals), नर्सिंग होम्स और मेडिकल संस्थानों को एक पत्र जारी करके उन्हें बॉम्बे नर्सिंग होम्स रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1949 और महाराष्ट्र सरकार की 14 जनवरी 2021 की अधिसूचना के नियमों का पालन करने की कानूनी ज़िम्मेदारी याद दिलाई।

भारत में मातृ मृत्यु (maternal mortality) को रोकना एक प्रमुख जन स्वास्थ्य (public health)  मुद्दा है। इसी वजह से यह घटना सुर्खियों में आई और राजनीतिक व प्रशासनिक प्रतिक्रिया भी तेज़ हुई। लेकिन मुमकिन है कि गर्भावस्था से इतर इमरजेंसी (medical emergencies)  मामलों में भी निजी अस्पतालों का रवैया ऐसा ही लापरवाह रहता हो।

कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान कई घटनाओं से यह पता चला कि मरीज़ों को समय पर इमरजेंसी इलाज नहीं मिला, खासकर निजी अस्पतालों की नीतियों और सीमाओं के कारण।

हालांकि यह बताने के लिए कोई ठोस मेडिकल आंकड़े नहीं हैं कि कितने मरीज़ों को सिर्फ एडवांस जमा न कर पाने की वजह से इलाज से वंचित किया गया, लेकिन अखबारों में बार-बार ऐसी खबरें छपती रही हैं, जिससे साफ है कि यह समस्या देश के कई हिस्सों में देखी जा रही है। ऐसे ही कुछ और मामले हैं – जैसे पुणे में एक मरीज़ को दिल का दौरा पड़ने के बाद भी इलाज नहीं मिला और उत्तर प्रदेश में एक मरीज़ को चार अस्पतालों ने इलाज देने से मना कर दिया, जिससे उसकी रास्ते में ही मौत हो गई।

कानूनी व्यवस्था है लेकिन अमल नहीं

इमरजेंसी इलाज केवल एक स्वास्थ्य ज़रूरत नहीं, बल्कि मरीज़ का संवैधानिक अधिकार (constitutional right) भी है। यदि निजी अस्पताल संवेदनशीलता और सहानुभूति (compassion) नहीं दिखाते, तो सरकार को सख्त नीतियां और कानूनी कदम उठाने चाहिए ताकि ऐसे अस्पतालों में भी इमरजेंसी इलाज सुनिश्चित हो सके।

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि हर सरकारी और निजी अस्पताल की ज़िम्मेदारी है कि वह घायल या इमरजेंसी मरीज़ को ज़रूरी प्राथमिक इलाज दे। यह इलाज बिना किसी एडवांस (advance payment) या भुगतान की मांग के शुरू होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इमरजेंसी इलाज पाना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।

इसके अलावा, क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट 2010 के तहत भी इमरजेंसी सेवा (emergency services) देना अनिवार्य है। नेशनल मेडिकल कमीशन द्वारा जारी किए गए मेडिकल एथिक्स कोड 2002 (संशोधित 2016) के अनुसार भी डॉक्टरों को इमरजेंसी में मरीज़ का इलाज (patient care) करना अनिवार्य है।

कई राज्य सरकारों ने भी अपनी-अपनी नीतियां (state policies) बनाई हैं। असम सरकार ने यह अनिवार्य किया है कि सभी निजी अस्पतालों को किसी भी इमरजेंसी की स्थिति में पहले 24 घंटे तक मरीज़ को मुफ्त इलाज (free treatment) देना होगा। यह सुविधा असम पब्लिक हेल्थ बिल, 2010 का हिस्सा है, जिसे राज्य विधानसभा ने पारित किया था और यह देश में एक अहम कानून माना जाता है। इसी तरह कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्यों में भी अच्छी पहल की गई है – यहां कम से कम सड़क दुर्घटनाओं (road accidents) के मामलों में निजी अस्पतालों को निशुल्क इमरजेंसी इलाज (emergency care) देना होता है।

लेकिन दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल का हालिया मामला और प्रेस में रिपोर्ट (news reports) हुए कई दूसरे मामले यह दिखाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस (legal guidelines) और क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट (clinical establishments act) का पालन बहुत जगहों पर नहीं हो रहा है।

आंकड़े, रिपोर्टिंग और सुधार

आज की सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि भारत में निजी अस्पतालों द्वारा किसी भी कारण से इमरजेंसी इलाज से इन्कार (denial of emergency care) किए जाने से जुड़े आंकड़े (data) एकत्र करने की एक व्यवस्था बनाई जाए। इसके लिए कई स्तरों पर प्रयास जरूरी होंगे – जैसे सख्त नियम (strict regulations), सामुदायिक रिपोर्टिंग (community reporting) और निगरानी व्यवस्था (monitoring systems)।

इस तरह की रिपोर्टिंग का एक अच्छा उदाहरण क्रोएशिया (Croatia) में देखा गया है; जहां मरीज़ को यदि इमरजेंसी इलाज से वंचित किया गया हो तो वे इसकी शिकायत (complaint) स्वास्थ्य मंत्रालय को कर सकते हैं। 2017 से 2018 के बीच वहां 289 शिकायतें दर्ज हुईं, जो सेकंडरी और टर्शियरी हेल्थकेयर (secondary and tertiary healthcare) संस्थानों में गंभीर समस्याओं की ओर इशारा करती हैं।

इस तरह का डैटा हमें यह समझने में मदद करता है कि सरकारी और निजी अस्पतालों में इलाज से इन्कार (denial of care) किस वजह से होता है और इससे भविष्य में नीति (future policy) और सुधारों के लिए ठोस कदम उठाए जा सकते हैं।

साथ ही, सभी स्वास्थ्यकर्मियों (healthcare workers), चाहे वे डॉक्टर हों या गैर-चिकित्सा कर्मचारी जैसे रिसेप्शनिस्ट, बिलिंग स्टाफ, और सिक्योरिटी गार्ड, को इमरजेंसी इलाज से जुड़ी कानूनी और नैतिक ज़िम्मेदारियों (legal obligations) की ट्रेनिंग (training) अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए, ताकि प्रशासनिक अड़चनों (administrative hurdles) के कारण होने वाली देरी को रोका जा सके।

ऐसे अस्पताल जो इमरजेंसी इलाज के नियमों व दिशानिर्देशों (guidelines) का उल्लंघन करते हैं, उन्हें सख्त सज़ा (penalties) देने का प्रावधान होना चाहिए। सज़ा में जुर्माना, लाइसेंस निलंबन (license suspension), और सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं (public health schemes) से बाहर करना शामिल हो सकता है।

इसके साथ ही, एक तत्काल शिकायत निवारण प्रणाली (grievance redressal) होनी चाहिए, जैसे 24×7 टोल-फ्री हेल्पलाइन और राज्य-स्तरीय ऑनलाइन पोर्टल, जहां मरीज़ या उनके परिजन इमरजेंसी में इलाज से इन्कार या देरी की शिकायत (file complaints) तुरंत कर सकें। इस प्रणाली को ज़िला स्तर पर एक सक्षम मेडिकल अधिकारी (district medical officer) के माध्यम से चलाया जाना चाहिए, जिसे जांच करने और त्वरित कार्रवाई (rapid response) करने का अधिकार हो।

इन सभी प्रयासों से नियमों के पालन की आदत, जनता का भरोसा, और सभी के लिए इमरजेंसी इलाज की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकती है।

इंसानियत (humanity) के नाते, संकट (crisis) में फंसे हर व्यक्ति को सहारा मिलना चाहिए। हर अस्पताल – सरकारी  निजी या चैरिटेबल – में हर हाल में इमरजेंसी इलाज (emergency access) तक पहुंच हर व्यक्ति का अधिकार बनना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://nivarana.org/article/life-death-and-deposits-rethinking-emergency-care-in-private-hospitals

हिंदी में विज्ञान की पहली थीसिस के 50 साल

चक्रेश जैन

प्राणि विज्ञान (Zoology) के वरिष्ठ प्राध्यापक प्रोफेसर अशोक शर्मा ने 1975 में पीएच.डी. की उपाधि के लिए अपना शोध प्रबंध (थीसिस) हिंदी भाषा (Hindi language in science) में प्रस्तुत किया था। यह विज्ञान में हिंदी में प्रथम शोध प्रबंध (first PhD thesis in Hindi) था। इस साल 2025 में उनकी इस उपलब्धि के 50 वर्ष पूरे हो गए हैं। विज्ञान संचारक (science communicator) चक्रेश जैन ने इस प्रसंग पर डॉ. अशोक शर्मा से भेंटवार्ता की। यहां प्रस्तुत है उनसे की गई भेंटवार्ता।

हिंदी में थीसिस लिखने का विचार कैसे आया?

विज्ञान विषयों पर लिखना एक अहम (science writing in Hindi) काम है। जिन दिनों मैं कॉलेज पढ़ रहा था, उस समय विज्ञान विषय में हिंदी में अच्छी और स्तरीय पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं, जबकि अंग्रेज़ी में बहुत अच्छी और प्रामाणिक किताबें उपलब्ध होती थीं।

जब मेरा पीएच.डी. का सिलसिला शुरू हुआ, उन दिनों डॉ. वेदप्रताप वैदिक (वरिष्ठ पत्रकार और समाचार एजेंसी पीटीआई में भाषा के पूर्व संपादक) का इंदौर में अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन चल रहा था। शायद उन्होंने थीसिस हिंदी में लिखी थी और इसमें दिक्कत आई थी। इस कारण उनको लगा था कि अंग्रेज़ी हटाकर हिंदी (Hindi vs English in education) आना चाहिए। यह आंदोलन बहुत अच्छा चला था और इससे मुझे हिंदी में थीसिस लेखन की प्रेरणा मिली थी।

हालांकि मेरा सोचना है कि अंग्रेज़ी हटाओ एक नकारात्मक विचार है। इसकी बजाय क्यों न हिंदी को थोड़ा विकसित और संपन्न किया जाए। मैं शुरू से ही यह मानता रहा हूं कि हिंदी में इतनी क्षमता है कि इसमें स्नातक व स्नातकोत्तर शिक्षा ही नहीं बल्कि पीएच.डी. शोध प्रबंध (PhD in Hindi, higher education in Hindi) भी लिखे जा सकते हैं। थोड़े से प्रयास और मेहनत की ज़रूरत है।

हिंदी में शोध मार्गदर्शक मिलने में कोई कठिनाई आई?

विज्ञान में अब तक कोई भी थीसिस हिंदी भाषा में नहीं लिखी गई थी। मुझे लगा कि इस काम को हाथ में लेना चाहिए और एक चुनौती (Hindi thesis challenge) के रूप में लेना चाहिए। तो, मैंने इस बारे में कुछ प्राध्यापकों से विचार-विमर्श किया। संयोग से मुझे एक युवा प्राध्यापक डॉ. सुरेश्वर प्रसाद शर्मा मार्गदर्शन देने के लिए तैयार हो गए। कालान्तर में डॉ. शर्मा रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के वाइस चासंलर भी रहे।

मैंने उनके मार्गदर्शन में शोध प्रबंध लिखना शुरू किया और यह काम 1975 में पूरा हो गया। हालांकि पीएच.डी. अवॉर्ड होने में बहुत समय लगा। क्योंकि हिंदी में लिखी थीसिस को बहुत से लोगों ने मंगवा तो लिया, लेकिन बाद में अस्वीकृत कर वापस लौटा दिया।

दिल्ली विश्वविद्यालय में मेरी थीसिस (Delhi University thesis) मूल्यांकन के लिए भेजी गई थी। वहां के तत्कालीन विभाग प्रमुख और प्राध्यापक मेरी थीसिस लगभग एक साल तक अपने पास रखे रहे, जांची भी नहीं और लौटाई भी नहीं। इस सिलसिले में काफी पत्र-व्यवहार करने के बाद ही थीसिस लौटाई। बाद में एक दूसरे प्रोफेसर के पास मूल्यांकन के लिए भेजी गई। उसके बाद पीएच.डी. अवार्ड हुई।

क्या विज्ञान की थीसिस हिंदी में लिखने के पहले हिंदी के जानकारों के साथ चर्चा की थी?

हां, और इसमें दो बातें मददगार रहीं। पहली, मेरी स्वयं की हिंदी बहुत अच्छी है। दूसरी, मेरी थीसिस के गाइड हिंदी के बड़े विद्वान थे।

हालांकि, विज्ञान में हिंदी में थीसिस लिखने में मुझे कुछ अधिक परिश्रम करना पड़ा था, क्योंकि सारे संदर्भ (research references) अंग्रेज़ी में ही मिलते थे। दूसरा, सभी शोध जर्नल्स अंग्रेज़ी भाषा में होते थे। ऐसी स्थिति में सबसे पहले उनको पढ़ा-समझा। और फिर हिंदी में लिखा। काम कठिन तो था ही, लेकिन मेरे युवा और परिश्रमी मार्गदर्शक डॉ. शर्मा के कारण यह संभव हो सका।

डॉ. अशोक शर्मा लगभग चार दशकों तक प्राणि विज्ञान के प्राध्यापक रहे हैं। एक लंबी अवधि तक होल्कर साइंस कॉलेज, इंदौर में शिक्षण और शोध में सक्रिय रहे डॉ. शर्मा ने धार और बड़वाह के महाविद्यालयों में भी अध्यापन किया है।

वे होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से भी जुड़े रहे हैं। जीवन के उत्तरार्द्ध में वे मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी की प्रकाशन गतिविधियों से जुड़े हुए हैं।

हिंदी में थीसिस लिखने पर उसकी प्रामाणिकता को लेकर सवाल हुए?

दरअसल, डॉ. शर्मा का कहना था कि जब तक थीसिस से सम्बंधित शोध लेख किसी अंतर्राष्ट्रीय जर्नल (international journal publication) में प्रकाशित नहीं हो जाते, तब तक हम इसे प्रस्तुत नहीं करेंगे। उनका विचार था कि यह प्रामाणिकता के लिए ज़रूरी है। मेरी थीसिस के सभी अध्याय केनेडियन जर्नल ऑफ ज़ुऑलॉजी (Canadian Journal of Zoology) में प्रकाशित हुए। इसलिए पीएच.डी. अवॉर्ड होने में ज़्यादा कठिनाई नहीं हुई।

थीसिस प्रकाशन को लेकर कुछ प्रयास हुए थे?

मुझे 1977 में थीसिस अवॉर्ड हो गई थी। उसके बाद जब प्रकाशन की बात आई तो कुछ चीज़ें सामने आईं। पहली तो यह है कि विशेष रूप से प्राणि विज्ञान के शोध कार्य में फोटोग्रॉफ बहुत अधिक होते हैं। मैंने रीटा रीटा (Rita rita) नामक मछली की रीप्रोडक्टिव एन्डोक्रॉइनोलॉजी (fish reproductive endocrinology) पर शोध किया था। इसमें लगभग 250 फोटोग्रॉफ थे। इतने सारे फोटो की थीसिस का प्रकाशन बहुत महंगा था। कोई भी प्रकाशक इसे छापने के लिए तैयार नहीं हुआ। दूसरा यह है कि इसकी आर्थिक वैल्यू नहीं (low commercial value) थी। इन दोनों कारणों से थीसिस प्रकाशित नहीं हुई।

लेकिन, इस पूरे प्रयास में विशेष रूप से जो उल्लेखनीय बात है वह ‘समय’ है। आज के समय बहुत सारी सुविधाएं हैं। अब, हिंदी बहुत ज़्यादा प्रचलित है। ठीक-ठाक साहित्य हिंदी (Hindi science literature) में है। लेकिन उन दिनों हिंदी में विज्ञान का साहित्य बहुत कम था। हिंदी में विज्ञान की पत्र-पत्रिकाएं (science magazines in Hindi) गिनी-चुनी थीं। अनुसंधान पत्रिकाओं का तो अभाव ही था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है आज के दौर में इसका इतना महत्व नहीं है, जितना उन दिनों था।

आपने हिंदी में विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए किस तरह योगदान किया?

मैंने कुछ लेख लिखे हैं, जो उन दिनों प्रसिद्ध समाचार पत्र ‘नई दुनिया’ में प्रकाशित हुए हैं। विद्यार्थियों को प्राणि विज्ञान विषय समझाने के लिए हिंदी (science education in Hindi) को ही चुना है। मैं लंबे समय तक होल्कर साइंस कॉलेज, इंदौर में प्राध्यापक रहा हूं। यहां हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों माध्यम में विद्यार्थी होते थे। जिन विद्यार्थी की पिछली पूरी पढ़ाई हिंदी माध्यम में हुई थी, उनकी मैंने काफी सहायता की और विषय को सरलतम तरीके से हिंदी में समझाने की पूरी कोशिश की। मैं इस दिशा में किए गए अपने प्रयासों से संतुष्ट हूं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर ट्यूमर की मदद करती तंत्रिकाएं

हाल में किए गए एक अध्ययन से उजागर हुआ है कि कुछ कैंसर कोशिकाएं अपनी पड़ोसी स्वस्थ कोशिकाओं की मदद से अधिक विनाशकारी शक्ति हासिल कर लेती हैं। एक अनुसंधान दल ने पाया है कि तंत्रिकाएं अपनी पड़ोस की मैलिग्नेंट (दुर्दम) कोशिकाओं को अपना माइटोकॉण्ड्रिया दान (mitochondria donation in cancer) दे देती हैं। गौरतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया कोशिकाओं का एक उपांग होता है जो कोशिकाओं के कामकाज के लिए ज़रूरी ऊर्जा उपलब्ध कराता है। यह अवलोकन इस बात की व्याख्या कर देता है कि क्यों तंत्रिकाओं की उपस्थिति में ट्यूमर ज़्यादा तेज़ी से बढ़ते हैं। और तो और, कैंसर कोशिकाओं को अतिरिक्त माइटोकॉण्ड्रिया मिल जाने पर उनकी शरीर के अन्य हिस्सों में फैलने (मेटास्टेसिस) की क्षमता (cancer metastasis) भी बढ़ जाती है।

पहले माना जाता था कि कोशिकाएं अपने माइटोकॉण्ड्रिया सहेजकर रखती हैं। लेकिन पिछले 20 वर्षों में हुए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि कोशिकाएं इन उपांगों का खूब लेन-देन (cellular mitochondria exchange, mitochondria sharing between cells) करती हैं। कैंसर कोशिकाएं दाता भी हो सकती हैं और प्राप्तकर्ता भी।

जैसे, हाल ही में जापान के शोधकर्ताओं ने बताया था कि कैंसर कोशिकाएं और प्रतिरक्षा टी-कोशिकाएं कभी-कभी माइटोकॉण्ड्रिया का विनिमय (mitochondria and immune cells, T-cells energy hijack by cancer) करती हैं। इस दौरान, कैंसर कोशिकाएं अपने दोषपूर्ण उपांग टी-कोशिकाओं को देकर उन्हें कमज़ोर भी कर सकती हैं।

कुछ सर्वथा अलग तरह के अध्ययनों में पता चला है कि तंत्रिकाएं अपने आसपास के ट्यूमर्स की वृद्धि को बढ़ावा देती हैं (nerves in tumor growth, nerve-cancer interaction)। उदाहरण के लिए टेक्सास हेल्थ साइन्स सेंटर के गुस्तावो आयला की टीम ने देखा था कि जब प्रयोगशाला के जंतुओं की प्रोस्टेट ग्रंथि को पहुंचने वाली तंत्रिकाओं को काट दिया गया (nerve block in cancer treatment) या बोटॉक्स इंजेक्शन देकर खामोश कर दिया गया, तो प्रोस्टेट कैंसर (prostate cancer) सिकुड़ गया। ट्यूमर-ग्रस्त मनुष्यों में भी बोटॉक्स इंजेक्शन (botox injection) देने पर कैंसर कोशिकाओं की मृत्यु दर बढ़ गई थी।

यह भी पता चला है कि जिन कैंसर कोशिकाओं से तंत्रिकाएं नदारद होती हैं, उनकी सामान्य प्रक्रियाएं गड़बड़ हो जाती हैं। साउथ अलाबामा विश्वविद्यालय के साइमन ग्रेलेट ने सोचा कि कहीं उधार के माइटोकॉण्ड्रिया का स्रोत कट जाने का तो यह परिणाम नहीं है। ग्रेलेट, आयला और उनके दल ने देखा कि तश्तरियों में रखने पर स्तन कैंसर की कोशिकाओं और तंत्रिका कोशिकाओं के बीच सेतु (neuron to cancer cell bridge) बनने लगते हैं। जब उन्होंने तंत्रिकाओं के माइटोकॉण्ड्रिया को एक हरे प्रोटीन की मदद से शिनाख्त योग्य बना दिया तो देखा गया कि ये उपांग सेतुओं के ज़रिए कैंसर कोशिकाओं में जा रहे हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी दर्शाया कि यदि माइटोकॉण्ड्रिया रहित कैंसर कोशिकाएं (mitochondria-depleted cancer cells) तैयार करके उन्हें यह उपांग बाहर से दिया जाए तो कैंसर कोशिकाओं को बढ़ावा मिलता है। ऐसी माइटोकॉण्ट्रिया रहित कोशिकाएं विभाजित नहीं होतीं और उनकी ऑक्सीजन खपत भी कम रहती है। लेकिन जब इन्हें तंत्रिका कोशिकाओं के साथ रखा गया, तो 5 दिन में इनकी चयापचय क्रियाएं बहाल (restoring cancer cell metabolism)हो गईं और इनमें विभाजन भी होने लगा। शायद पड़ोसियों से मिले माइटोकॉण्ड्रिया के दम पर। इसी प्रयोग को आगे करने पर पता चला कि यह असर लंबे समय के लिए होता है।

शोधकर्ताओं ने यह जांच भी की कि क्या ऐसी पुन: सक्रिय हुई कैंसर कोशिकाओं के अन्य स्थानों/अंगों में फैलने (मेटास्टेसिस) की संभावना (cancer spread after mitochondrial gain) भी ज़्यादा होती है। इसकी जांच करने के लिए उन्होंने चूहों की तंत्रिका व कैंसर कोशिकाओं को साथ-साथ रखकर विकसित किया और फिर उन्हें मादा चूहे के उदर की वसा में डाल दिया। देखा गया पेट में ट्यूमर बना और जल्दी ही वह फेफड़ों तथा मस्तिष्क में फैल गया। यह भी देखा गया कि मूल ट्यूमर में तो मात्र 5 प्रतिशत कोशिकाओं ने तंत्रिकाओं से माइटोकॉण्ड्रिया हासिल किए थे लेकिन फेफड़े में पहुंची 27 प्रतिशत तथा मस्तिष्क में पहुंची 46 प्रतिशत कैंसर कोशिकाओं में आयातित माइट्कॉण्ड्रिया थे। अर्थात आयातित माइटोकॉण्ड्रिया मेटास्टेसिस (metastatic potential and mitochondria) को बढ़ावा देते हैं। जब प्रोस्टेट कैंसर से पीड़ित व्यक्तियों के ट्यूमर की कोशिकाओं का विश्लेषण किया गया तो पता चला कि तंत्रिकाओं के नज़दीक की कोशिकाओं में ज़्यादा माइटोकॉण्ड्रिया (tumor proximity to neurons) थे।

यह अनुसंधान कैंसर से निपटने का एक सर्वथा नया रास्ता सुझाता है। शोधकर्ता कहते हैं कि कैंसर से निपटने के लिए उसके आसपास की तंत्रिकाओं (targeting nerves in cancer) पर ध्यान देना उपयोगी होगा। आगे अनुसंधान का एक विषय यह भी होना चाहिए कि माइटोकॉण्ड्रिया के घातक लेन-देन को कैसे रोका जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बंद आंखों से देख सकते हैं

प्रतिका गुप्ता

मारी आंखे सूर्य के प्रकाश के स्पेक्ट्रम का कुछ हिस्सा ही देख पाती हैं – 400-700 नैनोमीटर तरंगदैर्घ्य (visible light spectrum) वाला हिस्सा। इससे छोटी पराबैंगनी (अल्ट्रावॉयलेट – UV Rays), और इससे बड़ी अवरक्त (इंफ्रारेड) तरंगदैर्घ्य को हमारी नग्न आंखें नहीं देख (infrared light invisible to eyes) पाती हैं। हालांकि, कुछ तकनीकें और उपकरण विकसित किए गए हैं जिनकी मदद से हम कुछ अल्ट्रावॉयलेट और इंफ्रारेड तरंगें देख पाते हैं। इन तरंगों को देखने का फायदा फॉरेंसिक जांच में, चिकित्सा में, अंधेरी रात की हलचल देखने में, पुरानी पेंटिंग्स की परतें खोलने आदि (infrared in forensic and medical) में उठाया जाता है।

तो, थोड़ी बातें इंफ्रारेड प्रकाश को हमारी आंखों के देखने लायक बनाने वाले उपकरणों की। ऐसा एक उपकरण है थर्मल इमेजिंग कैमरा (thermal imaging camera)। दरअसल, इंफ्रारेड तरंगें ऊष्मा प्रभाव पैदा करती हैं। यह कैमरा वस्तुओं द्वारा उत्सर्जित इंफ्रारेड ऊर्जा को भांपता है। किसी सतह पर इंफ्रारेड विकिरण की कितनी तीव्रता है इस जानकारी के आधार पर वह एक तस्वीर बनाता है जिसे हम देख सकते हैं। इससे बनी तस्वीर लाल-नीले-पीले रंगों में मिलती है। ऐसा ही एक अन्य उपकरण है नाइट विज़न चश्मा (night vision goggles) । यह साधारण बायनॉक्यूलर जितना बड़ा और चश्मे जैसा होता है। यह 800 से 1600 नैनोमीटर के नीयर इंफ्रारेड प्रकाश को दृश्य प्रकाश में परिवर्तित कर देता है, जिसे हम देख पाते हैं।

उपरोक्त दोनों उपकरण इंफ्रारेड विज़न में मददगार तो हैं लेकिन इनकी कुछ सीमाएं हैं। जैसे इमेजिंग कैमरा और नाइट विज़न चश्मा दोनों ही बड़े और भारी हैं। और उन्हें चलाने के लिए अलग से बैटरी या बिजली लगती है। हालांकि इमेजिंग कैमरा तो तीन-चार रंगों में दृश्य तस्वीर बनाता है, लेकिन नाइट विज़न चश्मा केवल एकरंगी हरा इंफ्रारेड विज़न (monochrome night vision) देता है।

कोशिश थी कि इंफ्रारेड विज़न देने वाले उपकरण भी कॉम्पेक्ट और आसान बन जाएं, जिससे इनकी उपयोगिता बढ़े, खासकर जाली नोट, जाली दस्तावेज़ आदि (infrared contact lenses, fake note detection device) पकड़ने में। इसी कोशिश में वैज्ञानिकों ने इंफ्रारेड विज़न देने वाले कॉन्टेक्ट लेंस बनाए हैं। जिन्हें साधारण कॉन्टेक्ट लेंस की तरह आंखों में लगाकर इंफ्रारेड मंजर देख सकते हैं।

ये लेंस चीन की युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों ने विकसित किए हैं। इन्हें बनाने के लिए उन्होंने साधारण कॉन्टेक्ट लेंस में नैनोकण (nano particles in lenses, infrared detecting lens) जोड़े हैं। ये नैनोकण नीयर इंफ्रारेड प्रकाश को दृश्य प्रकाश में परिवर्तित करते हैं जिससे हम इंफ्रारेड मंजर देख सकते हैं, यहां तक कि बंद आंखों से भी। एक और फायदा यह है कि ये बहु-रंगी दृश्य दिखाते हैं, जो नाइट विज़न गॉगल में संभव नहीं होता।Text Box: करके देखें – फोन के कैमरे से इंफ्रारेड तरंगें
आप अपने स्मार्ट फोन के कैमरे से भी इंफ्रारेड तरंगों को देख सकते हैं। हो सकता है कि आपके फोन का कैमरा थर्मल इमेजिंग कैमरों की तरह साफ और पूरी तस्वीर न दिखा सके, लेकिन वह शक्तिशाली इंफ्रारेड तंरगें आपको दिखा सकता है।
ज़रूरी सामग्री : स्मार्ट फोन, इंफ्रारेड के स्रोत के रूप में टी.वी. या किसी भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का रिमोट। (आप जानते होंगे कि रिमोट इंफ्रारेड तंरगों के माध्यम से ही आपके उपकरणों को आपके इशारे पर चलाते हैं।)
यह करना है : अपने स्मार्ट फोन का कैमरा खोलिए। रिमोट को कैमरे के सामने ऐसे रखिए जैसे फोटो खींचते हैं, और आप फोन में ही देखिए। ध्यान रखें कि रिमोट का सामने वाले हिस्सा कैमरे की ओर रहे। अब, रिमोट का कोई भी बटन दबाइए। क्या आप रिमोट के बल्ब से निकलती इंफ्रारेड रोशनी देख पाए?
यह स्मार्ट फोन के फ्रंट और रीअर दोनों कैमरों के साथ करके देख सकते हैं।
ध्यान में रखने की कुछ बातें: 
थोड़ी अंधेरी जगह पर या रात में करेंगे तो रोशनी अच्छे से दिखाई देगी।
कुछ फोन में रीअर कैमरे इस तरह डिज़ाइन किए होते हैं कि उनके लेंस इंफ्रारेड प्रकाश को अपने में से होकर गुज़रने नहीं देते। इसलिए हो सकता है कि कुछ फोन के रीअर कैमरे में इंफ्रारेड रोशनी न दिखे, लेकिन फ्रंट कैमरे में दिख सकती है।  
कुछ रिमोट में इंफ्रारेड बल्ब के पास ही एलईडी लाइट लगी होती है, जो रिमोट का बटन दबाने पर खाली आंखों से भी दिखाई देती है। यह रोशनी इंफ्रारेड प्रकाश नहीं है, बल्कि यह इतना ही बताती है कि आपका रिमोट काम कर रहा है।
आजकल कुछ स्मार्ट फोन भी इंफ्रारेड तकनीक से लैस होते हैं, जिससे आप अपने फोन का रिमोट की तरह इस्तेमाल कर सकते है और अपने घर के टी.वी, सेट-टॉप बॉक्स, पंखे वगैरह चला सकते हैं। आप रिमोट की तरह फोन से भी इंफ्रारेड तरंगे निकलती देख सकते हैं।

हालांकि, शुरू में इन लेंस की कुछ कमियां थीं। चूंकि लेंस नैनोकण को जोड़कर बनाए गए हैं, इसलिए इनसे बनी तस्वीर थोड़ी धुंधली (infrared vision blur, nanoparticle limitations in lenses) बनती थी। टीम ने इस खामी को भी कुछ हद तक दूर करने की कोशिश की है। उन्होंने लेंस में एक और अतिरक्त लेंस जोड़ा है ताकि नैनोकण से बिखरा प्रकाश एक जगह केंद्रित हो, और तस्वीर साफ बने। यह कमी तो कुछ हद तक दूर हो गई लेकिन इसकी एक और दिक्कत अभी बनी हुई है। ये लेंस कमज़ोर इंफ्रारेंड प्रकाश को नहीं देख पाते, इनकी पकड़ में सिर्फ अत्यंत शक्तिशाली इंफ्रारेड विकिरण आते हैं; जैसे एलईडी लाइट से उत्सर्जित शक्तिशाली इंफ्रारेड विकिरण (infrared LED detection, lens infrared sensitivity)।

दूसरी ओर, नाइट विज़न चश्मा कमज़ोर इंफ्रारेड विकिरण को भी भांप कर, उसे शक्तिशाली बनाकर बेहतर इंफ्रारेड दृश्य निर्मित करते हैं।

बहरहाल, वैज्ञानिक इस खामी को दूर करने पर भी काम कर रहे हैं। यदि ये लेंस और उन्नत तस्वीर देने में सफल हो जाते हैं तो सर्जरी वगैरह में डॉक्टर्स को ज़्यादा ताम-झाम वाले उपकरणों से निजात (infrared in surgery, future of medical optics) मिल सकती है। इसके बारे में शोधकर्ताओं ने सेल पत्रिका (cell journal) में विस्तार से बताया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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