दशकों से दर्द से राहत के लिए अफीमी दवाओं (ओपिओइड) का उपयोग किया जा रहा है। लेकिन ये दवाएं अक्सर जीर्ण दर्द पर अप्रभावी रहती हैं और इनकी लत लग सकती है। इसलिए वैज्ञानिक दर्द से राहत पाने के अन्य विकल्प तलाशने में लगे हैं।
अब, नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी के जॉन रॉजर्स के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने चूहों में एक ऐसा छोटा इम्प्लांट फिट किया है जो मस्तिष्क और शरीर के अन्य हिस्सों में सूचना प्रसारित करने वाली परिधीय तंत्रिकाओं को शीतल करता है।
यह मुलायम इम्प्लांट पानी में घुलनशील और जैव-संगत सामग्री से बना है जो इसे परिधीय तंत्रिका के चारों ओर लिपटने लायक बनाता है। इसकी अनूठी संरचना की बदौलत यह बहुत ही छोटे-से हिस्से (कुछ मिलीमीटर) की तंत्रिकाओं को भी सटीकता से लक्षित और शीतल कर सकता है। वैसे तो तंत्रिकाओं को शीतल करने की अन्य तकनीकें भी मौजूद हैं लेकिन वे उतनी सटीक नहीं हैं और लक्ष्य के आसपास के मांसपेशीय ऊतकों को नुकसान पहुंचा सकती हैं। तंत्रिका दर्द को रोकने के लिए दिए जाने वाले फिनॉल इंजेक्शन में फिनॉल के अवांछित जगहों पर भी फैलने की संभावना रहती है।
इस नए इम्प्लांट में छोटे-छोटे चैनल होते हैं जिसके माध्यम से परफ्लोरोपेंटेन नामक शीतलन एजेंट को शरीर में पहुंचाया जा सकता है। एक अन्य चैनल में शुष्क नाइट्रोजन होती है। जब एक चेम्बर में परफ्लोरोपेंटेन शुष्क नाइट्रोजन से मिलता है, तो यह तुरंत वाष्पित हो जाता है और तंत्रिकाओं को 10 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर देता है। विचार यह है कि जैसे-जैसे तंत्रिकाएं शीतल होंगी, वैसे-वैसे उनके माध्यम से प्रसारित होने वाले विद्युत संकेतों की तीव्रता और आवृत्ति भी मंद होगी। और आखिरकार, तंत्रिकाएं दर्द के संकेत तथा अन्य सूचनाएं प्रसारित करना बंद कर देंगी। प्रत्यारोपण के 20 दिन बाद यह प्रत्यारोपण घुल जाता है, और उसके 30 दिन के अंदर किडनियां इसे उत्सर्जित कर देती हैं।
इस डिवाइस का परीक्षण करने के लिए शोधकर्ताओं ने चूहों के पंजों में एक महीन तार (तंतु) चुभाया और इससे उपजे दर्द के प्रति उनमें प्रतिक्रिया प्रेरित करने के लिए ज़रूरी बल को नापा। फिर उन्होंने चूहों की साएटिक नसों (जो कमर से पैरों तक जाती है) को ठंडा करने के लिए उनमें यह डिवाइस लगाई और वापस तार चुभाकर देखा।
साइंस में प्रकाशित नतीजों के अनुसार जब दर्द-संकेतों को अवरुद्ध किया गया तो प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिए ज़रूरी बल काफी बढ़ गया था। यह दर्शाता है कि यह उपकरण परिधीय तंत्रिका तंत्र द्वारा संचारित संकेतों को अवरुद्ध करने में सक्षम है और दर्द के अहसास कम कर देता है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह प्रत्यारोपण मनुष्यों में भी इसी तरह से कारगर हो सकता है, और सर्जरी के बाद उपजे दर्द से राहत के लिए लगाया जा सकता है। हालांकि, डिवाइस अभी मनुष्यों में परीक्षण के लिए तैयार नहीं है।
कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह डिवाइस अनुपस्थित (फैंटम) अंग में होने वाले दर्द को खत्म नहीं कर सकता है, क्योंकि इस मामले में दर्द अंग कट जाने के बाद मस्तिष्क में हुए पुनर्गठन से जुड़ा होता है।
अन्य वैज्ञानिकों का मत है यह तो सही है कि दर्द संवेदना में परिधीय तंत्रिका तंत्र की भूमिका होती है, लेकिन यही अकेला कारक नहीं है और शायद सबसे प्रमुख भी न हो। रॉजर्स इस बात से सहमत हैं कि तंत्रिकाओं के अलावा दर्द को नियंत्रित करने वाले कई अन्य कारक भी हैं। जैसे मनोवैज्ञानिक प्रभाव, लेकिन वे इतने महत्वपूर्ण शायद नहीं है।
टीम की योजना अब तंत्रिका शीतलन प्रणाली की बारीकियों पर काम करने की है; मसलन तंत्रिका को शीतल रखने की वह संतुलित अवधि पता करना जितनी देर में वह दर्द संकेत अवरुद्ध कर दे लेकिन ऊतकों को नुकसान न पहुंचाए। यह भी देखना होगा कि शीतलन प्रक्रिया को पलटने में कितना समय लगेगा। उपकरण को और छोटा बनाने की कोशिश भी की जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.syfy.com/sites/syfy/files/styles/scale–1200/public/2022/07/nerve_cooling_device.jpg https://physicsworld.com/wp-content/uploads/2022/07/nerve-cooling-schematic.jpg
जुगनू अपनी टिमटिमाती रोशनी के लिए जाने जाते हैं। लेकिन लगता है कि हमारी भावी पीढ़ियां जुगनू देखने से वंचित रह जाएंगी। हाल में किए गए एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि भारत में कृत्रिम रोशनी जुगनुओं के प्रजनन पर असर डाल रही है। इस वजह से ये कीट प्रजनन नहीं कर पा रहे हैं। इससे इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है।
यह अध्ययन दुनिया भर में प्रकाश प्रदूषण के कारण बढ़ते पर्यावरणीय खतरों के प्रति सचेत करता है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले 30 वर्षों में जुगनुओं की संख्या में भारी गिरावट देखी गई है। नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च के शोधकर्ताओं ने आंध्र प्रदेश में एब्सकॉन्डिटा चाइनेंसिस प्रजाति के जुगनुओं की आबादी को रिकॉर्ड करने का प्रयास किया है। उनके शोध के मुताबिक, 2019 में बरनकुला गांव में 10 वर्ग मीटर क्षेत्र में जुगनुओं की संख्या औसतन 10 से 20 पाई गई जबकि 1996 में यह संख्या 500 से ज़्यादा थी।
ऐसे में कृत्रिम रोशनी के चलते लगातार जुगनुओं की घटती आबादी चिंता का विषय है। गौरतलब है कि देश में जुगनुओं पर अब तक बेहद कम अध्ययन किए गए हैं। ऐसे में इनकी लगातार घटती आबादी पर अंकुश लगाने को लेकर विशेष ध्यान नहीं दिया जा सका।
दरअसल, रात के समय में पड़ने वाली कृत्रिम रोशनी ने जीव-जंतुओं के जीवन को खासा प्रभावित किया है। पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाए रखने में छोटे-छोटे कीटों का अहम योगदान रहता है। इनका विनाश पारिस्थितिकी असंतुलन को बढ़ाने वाला है। आधुनिक ब्रॉड-स्पेक्ट्रम प्रकाश व्यवस्था इंसानों को रात में अधिक आसानी से रंगों को देखने में सक्षम बनाती है। लेकिन ये आधुनिक प्रकाश स्रोत अन्य जीव-जंतुओं की दृष्टि पर बहुत ज़्यादा नकारात्मक प्रभाव डालते है। इसके पीछे की वजह यह है कि मानव दृष्टि के लिए डिज़ाइन की गई कृत्रिम रोशनी में नीली और पराबैंगनी श्रेणियों का अभाव होता है, जो इन कीटों की रंगों को देखने की दृष्टि क्षमता के निर्धारण में अहम है। यह स्थिति कई परिस्थितियों में किसी भी रंग को देखने की कीटों की क्षमता को अवरुद्ध कर देती है।
बता दें कि जुगनू प्रकाश संकेतों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। उनकी प्रजनन गतिविधियां एक विशेष समय के लिए सीमित होती है। कृत्रिम प्रकाश की वजह से वे भटक जाते हैं। इससे उनके अंधे होने का भी डर बना रहता है। दुनिया भर में कृत्रिम प्रकाश बढ़ा है, जिस वजह से इनकी संख्या घट रही है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जुगनू आबादी को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारक कीटनाशकों का उपयोग और बढ़ता प्रकाश प्रदूषण है। यदि इन कारकों को नियंत्रित नहीं किया गया, तो अंततः जुगनू विलुप्त हो जाएंगे।
2018 के एक अध्ययन के मुताबिक, चीन और ताइवान के कुछ हिस्सों में पाए जाने वाली एक्वाटिका फिक्टा प्रजाति के जुगनुओं में रोशनी के पैटर्न अलग-अलग देखे गए हैं। इसकी वजह कृत्रिम प्रकाश है। इस वजह से साथी को खोजने की उनकी संभावना कम हुई है। प्रजनन के मौसम में जुगनू अपने प्रकाश के विशेष पैटर्न से एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। लेकिन कृत्रिम प्रकाश की वजह से जुगनुओं को अपने साथी को आकर्षित करने के लिए ज़्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है।
चिंताजनक बात यह भी है कि तेज़ी से शहरीकरण के कारण दलदली भूमि के सिकुड़ने से जुगनुओं का आवास समाप्त हो गया है। जुगनू का जीवनकाल कुछ ही हफ्तों का होता है। वे गर्म, आर्द्र क्षेत्रों से प्यार करते हैं और नदियों और तालाबों के पास दलदलों, जंगलों और खेतों में पनपते हैं। स्वच्छ वातावरण की तलाश में और मच्छरों द्वारा फैलने वाली बीमारियों से निपटने के लिए, लोगों ने दलदलों को नष्ट कर दिया है और फलस्वरूप जुगनू के लिए अनुकूल माहौल नष्ट हो गया है।
पिछले कुछ वर्षों में कृत्रिम रोशनी के हस्तक्षेप के चलते न केवल जुगनुओं बल्कि सभी प्रकार के जीव-जंतुओं पर प्रभाव पड़ा है। यह देखा गया है कि पूरी दुनिया में रात के समय में प्रकाश व्यवस्था का स्वरूप पिछले करीब 20 वर्षों में नाटकीय रूप से बदला है। एलईडी जैसे विविध प्रकार के आधुनिक रोशनी उपकरणों का चलन बढ़ा है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि कृत्रिम प्रकाश से होने वाला प्रदूषण समस्त वातावरण को प्रदूषित करता है। प्रकाश प्रदूषण अमूमन पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करता है। कृत्रिम प्रकाश की तीव्रता बेचैनी को बढ़ा देती है और मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था को दुरुस्त करके न केवल हम कीटों पर पड़ने वाले विनाशी प्रभाव को कम कर सकते हैं, बल्कि हमारे अपने स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों से भी बच सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://scroll.in/article/1026776/artificial-lights-are-shrinking-firefly-habitats-in-india-and-beyond
मुलायम और सुस्त चाल होने के बावजूद समुद्री खीरे यानी सी-कुकम्बर (Actinopyga echinites) वास्तव में जंतु हैं जो आश्चर्यजनक रूप से सख्तजान होते हैं। ये समुद्र के दुरूह और लगातार बदलते पेंदे में भोजन तलाशते हैं और विषैले बैक्टीरिया का सामना करते हैं। ये अपने सहोदर स्टारफिश की तरह शिकारियों और रोगजनकों से खुद को बचाने के लिए सैपोनिन्स नामक रक्षात्मक विषैले पदार्थ बनाते हैं।
अब, हालिया अध्ययन बताता है कि सी-कुकम्बर इकाइनोडर्म समूह के एकमात्र और उन गिने-चुने जीवों में से हैं जो ट्राइटरपेनॉइड सैपोनिन रसायन बनाते हैं। और तो और, उनका अद्वितीय चयापचय स्वयं उनको इस विष से सुरक्षित रखता है।
नेचर केमिकल बायोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार सी-कुकम्बर ने अन्य इकाइनोडर्म तथा अन्य जंतुओं की अपेक्षा सैपोनिन्स को संश्लेषित करने का अलग ही तरीका विकसित किया है जिसके लिए वे भिन्न एंज़ाइम्स का उपयोग करते हैं। इसके फलस्वरूप उनमें ऐसी क्रियाविधि विकसित हुई है जो उन्हें स्वयं के सैपोनिन्स के विषैले प्रभाव से सुरक्षित रखती है।
वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि सी-कुकम्बर ऐसे ट्राइटरपेनॉइड सैपोनिन्स बनाते हैं, जो जानवरों की तुलना में पौधों में अधिक पाए जाते हैं। ये ट्राइटरपेनॉइड सैपोनिन्स कोशिका झिल्ली में मौजूद कोलेस्टरॉल अणुओं से जुड़ जाते हैं और कोशिका की मृत्यु का कारण बनते हैं। नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि सी-कुकम्बर कोलेस्टरॉल नहीं बनाते हैं और उनकी कोशिका झिल्लियों में भी इसकी बहुत कम मात्रा होती है; लिहाज़ा, वे सैपोनिन्स से अप्रभावित रहते हैं।
दरअसल पूर्व में पौधों के ट्राइटरपेनॉइड्स पर काम कर चुके नोइडा की एमिटी युनिवर्सिटी उत्तर के जीव विज्ञानी रमेश थिमप्पा और उनके साथी जानना चाहते थे कि सी-कुकम्बर में ये दुर्लभ यौगिक (ट्राइटरपेनॉइड्स) क्यों और कैसे बनते हैं।
सी-स्टार्स के सैपोनिन्स स्टेरॉयड आधारित होते हैं। ट्राइटरपेनॉइड्स और स्टेरॉल एक जैसे अणुओं से ही बनते हैं, और दोनों को बनाने के आणविक परिपथ में ऑक्सीडोस्क्वेलेन साइक्लेज़ (OSC) समूह के एंजाइमों की भूमिका होती है।
इकाइनोडर्म समूह के जंतुओं में इन विभिन्न क्रियापथों को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने मनुष्यों, समुद्री अर्चिन और सी-स्टार के जीनोम में एक विशिष्ट OSC पर ध्यान दिया – लैनोस्टेरॉल सिंथेज़ (LSS)। LSS एंज़ाइम अधिकांश जंतु प्रजातियों में कोलेस्टरॉल व अन्य स्टेरोल निर्माण के लिए और स्टारफिश में सैपोनिन उत्पादन के लिए ज़रूरी है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि सी-कुकम्बर में LSS बनाने वाला जीन तो नदारद था ही, इसके अलावा अन्य प्रजातियों में स्टेरॉल बनाने के लिए ज़िम्मेदार तीन अन्य एंज़ाइम भी नदारद थे। देखा गया कि इनकी बजाय सी-कुकम्बर के जीनोम में OSC एंज़ाइम बनाने के लिए दो अन्य जीन मौजूद थे।
आगे की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने दो सी-कुकम्बर प्रजातियों (Apostichopus japonicus और Parastichopus parvimensis) से OSC एंज़ाइम्स के जीन लेकर एक ऐसी खमीर कोशिका में प्रत्यारोपित किए जिसमें LSS जीन नहीं था। दोनों ही जीन खमीर में LSS का निर्माण करवाने में विफल रहे। इससे पता चलता है कि सी-कुकम्बर के ये जीन LSS के कोड नहीं हैं।
शोधकर्ताओं ने पाया कि सी-कुकम्बर के OSC जीन्स स्टेरोल जैसे दो अणुओं का निर्माण करते हैं, और ये दोनों अणु ट्राइटरपेनॉयड के उत्पादन में शामिल थे। इन अणुओं ने यौगिकों को कोलेस्टरॉल जैसे अणुओं में भी परिवर्तित किया जो सी-कुकम्बर की कोशिका झिल्ली में पाए जाते हैं। ये अणु काम तो कोलेस्टरॉल के समान करते हैं, लेकिन कोलेस्टरॉल और इनके बीच जो अंतर है, वह सी-कुकम्बर को सैपोनिन्स की विषाक्तता से बचाता है।
एक अन्य प्रयोग में, शोधकर्ताओं ने सी-कुकम्बर के OSC जीन की उत्परिवर्तित प्रतियां खमीर कोशिकाओं में डालीं। पाया गया कि दो अलग-अलग उत्परिवर्तन LSS जीन द्वारा कोड किए गए एक एमिनो एसिड को प्रभावित करते हैं जो दोनों सी-कुकम्बर में OSC एंज़ाइमों के परिवर्तित कार्य के लिए ज़िम्मेदार हैं।
शोधकर्ता बताते हैं कि सी-कुकम्बर एकमात्र ऐसे ज्ञात जानवर हैं जिनमें दो OSC-कोडिंग जीन तो हैं लेकिन वे कोलेस्टरॉल नहीं बनाते। सी-कुकम्बर में दो ऐसे OSC-कोडिंग जीन का होना जंतुओं के लिहाज़ से एक असाधारण बात है जो दोनों LSS नहीं बनाते हैं।
सी-कुकम्बर से प्राप्त अर्क, विशेषकर सैपोनिन्स, औषधीय रूप से काफी मूल्यवान है। सैपोनिन्स का उपयोग टीकों में प्रतिरक्षा सहायक के रूप में किया जाता है, और इनमें शोथ-रोधी और कैंसर-रोधी गुण भी हो सकते हैं। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि भविष्य में वे सी-कुकम्बर, जो कि कई जगहों पर लुप्तप्राय है, को पीसे बिना पौधों और खमीर से इन यौगिकों को प्राप्त करने के तरीके विकसित कर लेंगे।
थिमप्पा कहते हैं कि इन प्राणियों को संरक्षित करना इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि ये मिट्टी में केंचुओं जैसा कार्य करते हैं। वे समुद्र तल के मलबे को साफ करते हैं और ऑक्सीजन युक्त रेत उत्सर्जित करते हैं। ये भूमिकाएं पर्यावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/1/11/Actinopyga_echinites1.jpg/1200px-Actinopyga_echinites1.jpg
वर्षों से शोधकर्ता यह पता लगाते रहे हैं कि किसी क्षेत्र में कौन सी प्रजाति रहती हैं/थीं। इसके लिए वे कैमरा ट्रैप जैसे कई पारंपरिक तरीकों के अलावा हाल के वर्षों की नई विधियों का उपयोग करते हैं जो उन्हें उस क्षेत्र की हवा, पानी, मिट्टी वगैरह जैसी चीज़ों से भी जीवों के डीएनए (पर्यावरणीय डीएनए या ई-डीएनए) ढूंढने और निकालने में मदद करती हैं।
हाल ही में बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन में ई-डीएनए के एक सर्वथा नए स्रोत, पौधों की सूखी पत्ती वगैरह, के बारे में बताया गया है। शोधकर्ताओं को सूखी चाय पत्ती के पाउच के विश्लेषण से कीटों की सैकड़ों प्रजातियां की उपस्थिति का पता चला है।
ट्रायर युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकी आनुवंशिकीविद और अध्ययन के लेखक हेनरिक क्रेहेनविन्केल ने दी साइंटिस्ट को बताया है कि दरअसल यह समझने के लिए कि कीटों में परिवर्तन कैसे हुए हमें लंबे समय के डैटा की आवश्यकता है। जब कीटों की प्रजातियों में गिरावट सम्बंधी अध्ययन पहली बार प्रकाशित हुए थे, तो कई लोगों ने यह शिकायत की थी कि इसका कोई वास्तविक दीर्घकालिक डैटा नहीं है।
वे आगे बताते हैं कि ट्रायर युनिवर्सिटी में नमूना बैंक है जिसमें पिछले 35 सालों से जर्मनी के विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों से विभिन्न पेड़ों के पत्ते एकत्रित किए जा रहे हैं। विचार यह आया कि क्या इन पत्तों पर रहने वाले कीटों के डीएनए को इन पत्तों से प्राप्त किया जा सकता है? चूंकि ये नमूने तरल नाइट्रोजन में सहेजे गए थे इसलिए इनमें डीएनए अच्छी तरह संरक्षित होने की संभावना थी। इसलिए पहले तो इन नमूनों से डीएनए अलग किए गए, और इस डीएनए की मदद से इन पर आते-जाते रहने वाले संधिपादों (आर्थ्रोपोड) को पहचानकर उनका वर्गीकरण करने का प्रयास किया गया।
पूरी तरह से फ्रोज़न पत्तों से ई-डीएनए निकालने में सफलता के बाद सवाल आया कि क्या अन्य सतहों/परतों (सबस्ट्रेट्स) से भी डीएनए प्राप्त किए जा सकते हैं? और क्या अन्य तरह के सबस्ट्रेट्स पर डीएनए सलामत होंगे? कीटों में परिवर्तन कैसे हुए इसे समझने के लिए क्या संग्रहालयों में सहेजे गए पौधे मददगार हो सकते हैं? कई अध्ययन बताते हैं कि यदि कोई कीट पत्ती कुतरता है तो वह अपनी लार के माध्यम से डीएनए अवशेष उस पर छोड़ जाता है। परंतु कई अध्ययन यह भी बताते हैं कि ये डीएनए बहुत टिकाऊ नहीं होते; ये पराबैंगनी प्रकाश में खराब हो जाते हैं या बारिश में धुल जाते हैं। लेकिन हर्बेरियम में तो डीएनए को सहेजे रखने के लिए आदर्श स्थितियां होती हैं – सूखा और अंधेरा माहौल।
हर्बेरियम रिकॉर्ड पर काम शुरू करने से पहले शोधकर्ताओं ने सोचा कि किसी ऐसी चीज़ का अध्ययन करना चाहिए जो हर्बेरियम रिकॉर्ड जैसी ही हो। और संरचना के हिसाब से चाय (पत्ती) हर्बेरियम रिकॉर्ड के जैसी ही है। ये सूखी पत्तियां होती हैं जिन्हें अंधेरे में रखा जाता है।
परीक्षण में चाय पत्ती में काफी जैव विविधता दिखी। लगभग 100-150 मिलीग्राम के टी-बैग में कीटों की लगभग 400 प्रजातियों के डीएनए मिले। ये नतीजे चौंकाने वाले थे, क्योंकि ये नमूने महीन पावडर थे। तो चाय बागान के सभी हिस्सों के ईडीएनए पूरी चाय पत्ती में वितरित हो गए थे।
उम्मीद है कि इससे कीटों में हुए परिवर्तनों को समझने में मदद मिलेगी, और हमें ऐसे नए पदार्थ मिलेंगे जो अतीत के समय की जानकारी दे सकें। आप चाहें तो फूलों को इकट्ठा कर लें और इन्हें सिलिका जेल की मदद से सुखा लें। फूल को एक छोटे से लिफाफे में रखकर इसे ज़िपलॉक फ्रीज़र बैग में थोड़े से सिलिका जेल के साथ रखें तो एक दिन में फूल पूरी तरह सूख जाएगा। यानी सिद्धांतत: हम कमरे के तापमान पर भी नमूनों को सहेज सकते हैं, तरल नाइट्रोजन वगैरह की ज़रूरत नहीं होगी।
शोधकर्ता बताते हैं कि केवल यह जानना पर्याप्त नहीं है कि किसी क्षेत्र में कौन सी या कितनी प्रजातियां मौजूद थीं; यह भी पता लगाना होगा कि ये कीट किस तरह अंतर्क्रिया करते हैं और क्या खाते हैं। उदाहरण के लिए, हम जानते हैं कि कई कीट प्रजातियां बहुत विशिष्ट होती हैं, केवल एक निश्चित पौधे पर ही रहती हैं और यदि यह पौधा विलुप्त हो जाता है तो कीट प्रजाति भी उसके साथ विलुप्त हो जाती है। हैरानी की बात है कि हम इन अंतर्क्रियाओं के बारे में बहुत कम जानते हैं। फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों के बारे में तो हम यह अच्छे से जानते हैं, लेकिन बाकी कीट प्रजातियों के बारे में नहीं पता। यह तरीका पौधों से नमूना लेने और पौधे पर रहने वाले कीटों को पहचानने में मदद कर सकता है।
आम तौर पर हर्बेरियम संग्रह बहुत कीमती होते हैं और शोधकर्ता नमूनों को पीसकर नुकसान पहुंचाए बिना डीएनए को सावधानीपूर्वक निकालने के तरीके विकसित कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
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Chimpanzees eat their lunch at the Lwiro Primate Rehabilitation Center, 45 km from the city of Bukavu, February 14, 2022. – Alone or in groups, great apes jump from one branch to another, females carrying young on their backs make their way through the verdant reserve of the Lwiro Primate Rehabilitation Center (CRPL), in the east of the Democratic Republic of Congo. (Photo by Guerchom NDEBO / AFP) (Photo by GUERCHOM NDEBO/AFP via Getty Images)
हमारी आंतों में उपस्थित असंख्य अच्छे बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीव भोजन को पचाने में मदद करते हैं। इतना ही नहीं, ये हमारी प्रतिरक्षा, चयापचय क्रियाओं और तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर हमारे शरीर को स्वस्थ भी रखते हैं। इनमें से कई सूक्ष्मजीव तो मनुष्यों के अस्तित्व में आने से पहले से मौजूद थे। इनमें से कई सूक्ष्मजीव लगभग सारे प्रायमेट प्राणियों में पाए जाते हैं जिससे संकेत मिलता है कि इन्होंने बहुत पहले इन सबके किसी साझा पूर्वज के शरीर में घर बनाया था।
लेकिन हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मनुष्यों में इन सूक्ष्मजीवों की विविधता घट रही है और जैसे-जैसे मनुष्य शहरों की ओर बढ़ रहे हैं उनकी आंतों में विभिन्न सूक्ष्मजीवों कि संख्या में और गिरावट आ रही है। इसका मनुष्यों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।
हमारी आंतों में पाए जाने विभिन्न प्रजातियों के सूक्ष्मजीवों के समूचे समूह को माइक्रोबायोम यानी सूक्ष्मजीव संसार कहा जाता है। इस माइक्रोबायोम में बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस और अन्य सूक्ष्मजीव शामिल हैं जो किसी जीव (व्यक्ति या पौधे) में पाए जाते हैं। मनुष्यों और कई अन्य प्रजातियों में सबसे अधिक बैक्टीरिया आंतों में पाए जाते हैं। ये बैक्टीरिया रोगजनकों और एलर्जी के प्रति प्रतिरक्षा प्रणाली की प्रतिक्रिया को तो प्रभावित करते ही हैं, मस्तिष्क के साथ अंतर्क्रिया के ज़रिए हमारे मूड को भी प्रभावित करते हैं।
कॉर्नेल विश्वविद्यालय के जीवविज्ञानी एंड्रयू मोएलर ने सबसे पहले बताया था कि आंत के सूक्ष्मजीवों और मनुष्यों के बीच सम्बंध लंबे समय में विकसित हुए हैं। उनके दल ने बताया था कि मनुष्य और प्रायमेट प्राणियों की आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच समानताएं हैं जिससे यह स्पष्ट हुआ कि इनकी उपस्थिति मनुष्यों की उत्पत्ति से भी पहले की है।
लेकिन इसके बाद किए गए अध्ययनों से पता चला है कि मानव आंत के माइक्रोबायोम में विविधता वर्तमान प्रायमेट्स की तुलना में काफी कम हो गई है। एक अध्ययन के अनुसार जंगली वानरों की आंतों में बैक्टेरॉइड्स और बाइफिडोबैक्टीरियम जैसे 85 सूक्ष्मजीव वंश उपस्थित हैं जबकि अमेरिकी शहरियों में यह संख्या केवल 55 है। कम विकसित देशों के लोगों में सूक्ष्मजीव समूहों की संख्या 60 से 65 के बीच है। ऐसे में यह अध्ययन शहरीकरण और सूक्ष्मजीव विविधता में कमी का सम्बंध दर्शाता है।
युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन की सूक्ष्मजीव विज्ञानी रेशमी उपरेती के अनुसार शहरों में प्रवास के साथ शिकार-संग्रह आधारित आहार में बदलाव, एंटीबायोटिक का उपयोग, तनावपूर्ण जीवन और बेहतर स्वच्छता के कारण मनुष्यों के आंतों के सूक्ष्मजीवों में काफी कमी आई है। शोधकर्ताओं का मानना है कि आंत के माइक्रोबायोम में कमी के कारण दमा जैसी बीमारियां बढ़ सकती हैं।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विशेष रूप से उन सूक्ष्मजीवों को खोजने का प्रयास किया है जो मनुष्यों की आंतों से गायब हो चुके हैं। उन्होंने अफ्रीकी चिम्पैंज़ी और बोनोबोस के कई समूहों के मल का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने मल के नमूनों से सूक्ष्मजीव डीएनए को अलग करके अनुक्रमित किया। इस अध्ययन के दौरान अन्य शोधकर्ताओं द्वारा पूर्व में एकत्रित गोरिल्ला और अन्य प्रायमेट्स के आंत के सूक्ष्मजीवों के डीएनए डैटा का भी उपयोग किया गया। इस तरह से कुल 22 मानवेतर प्रायमेट्स के डैटा का अध्ययन किया गया। कंप्यूटर की मदद से सूक्ष्मजीवों के पूरे जीनोम में डीएनए के टुकड़ों को अनुक्रमित किया गया। मनुष्यों के 49 समूहों से आंत के माइक्रोबायोम डैटा और मनुष्यों के जीवाश्मित मल से लिए गए डीएनए को प्रायमेट्स के साथ तुलना करने पर मोएलर विभिन्न सूक्ष्मजीव समूहों के बीच बदलते सम्बंधों को समझने में कामयाब हुए।
उन्होंने दर्शाया कि विकास के दौरान कुछ माइक्रोबायोम में विविधता आई जबकि कई अन्य गायब हो गए थे। इन सूक्ष्मजीवों में मनुष्य 100 में से 57 सूक्ष्मजीव गंवा चुके हैं जो वर्तमान में चिम्पैंज़ी या बोनोबोस में पाए जाते हैं। मोएलर ने यह भी अनुमान लगाने का प्रयास किया है कि ये सूक्ष्मजीव मनुष्य की आंतों से कब गायब हुए। इनमें से कई सूक्ष्मजीव तो कई हज़ारों वर्ष पहले गायब हो चुके थे जबकि कुछ हाल ही में गायब हुए हैं जिसमें से शहर में रहने वालों ने अधिक संख्या में इन सूक्ष्मजीवों को गंवाया है।
यह पता लगाना एक चुनौती है कि कोई सूक्ष्मजीव किसी मेज़बान की आंत से गायब हो चुका है। कई सूक्ष्मजीव इतनी कम संख्या में होते हैं कि शायद वे मल में प्रकट न हों। इस विषय में अध्ययन जारी है और शहर से दूर रहने वालों के माइक्रोबायोम को एकत्रित कर संरक्षित किया जा रहा है। वैसे कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह कोई बड़ी क्षति नहीं है। शायद अब मनुष्यों को उन सूक्ष्मजीवों की ज़रूरत ही नहीं है। अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार आवश्यक सूक्ष्मजीवों को दोबारा से हासिल करने के लिए उनकी पहचान करना सबसे ज़रूरी है। हो सकता है कि इन सूक्ष्मजीवों को प्रोबायोटिक्स की मदद से बहाल किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
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लंदन में पोलियोवायरस के प्रमाण मिलने से यू.के. के जन स्वास्थ्य अधिकारियों के बीच खलबली मच गई है। यू.के. में पोलियो फिलहाल एक दुर्लभ बीमारी है लेकिन नागरिकों को सतर्क रहने के साथ पूर्ण टीकाकरण का सुझाव दिया गया है। अभी तक वायरस के स्रोत के बारे में तो कोई जानकारी नहीं है लेकिन संभावना है कि यह वायरस किसी ऐसे बाहरी व्यक्ति से यहां आया है जिसने हाल ही में ओरल पोलियो टीका (ओपीवी) लिया था। गौरतलब है कि ओपीवी में जीवित लेकिन कमज़ोर वायरस का उपयोग किया जाता है जिसका उपयोग अब यू.के. में नहीं किया जाता। वैसे तो अधिकांश पोलियो संक्रमण अलक्षणी होते हैं और यू.के. में इसका कोई मामला सामने नहीं आया है। लेकिन लंदन के कुछ समुदायों में टीकाकरण की दर 90 प्रतिशत से कम है जो एक चिंता का विषय है।
गौरतलब है कि पोलियो को विश्व के अधिकांश हिस्सों से खत्म किया जा चुका है लेकिन अफगानिस्तान और पकिस्तान में यह वायरस अभी भी स्थानिक है। इसके अलावा अफ्रीका, युरोप और मध्य पूर्व के 30 से अधिक देश “आउटब्रेक देशों” की श्रेणी में हैं जहां हाल ही में वायरस प्रसारित होता देखा गया है। इन देशों में वायरस का प्रसार या तो अफगानिस्तान या पकिस्तान के कुदरती वायरस से हुआ है या फिर टीके से आया है जिसने गैर-टीकाकृत लोगों में बीमारी पैदा करने की क्षमता विकसित कर ली है।
यू.के. में इस वायरस की उपस्थिति की जानकारी बेकटन सीवेज ट्रीटमेंट वर्क्स से फरवरी और जून के दौरान लिए गए सीवेज के नमूनों में मिली। यह सीवेज प्लांट प्रतिदिन उत्तरी और पूर्वी लंदन में रहने वाले 40 लाख लोगों के अपशिष्ट जल को संसाधित करता है। आम तौर पर हर साल इस तरह के परीक्षण में वायरस मिलते रहते हैं जो कुछ ही समय में गायब भी हो जाते हैं। लेकिन इस बार कई महीनों तक इस वायरस की उपस्थिति दर्ज की गई और साथ ही इन नमूनों में वायरस के कई संस्करण भी पाए गए। इन आनुवंशिक परिवर्तनों से स्पष्ट है कि इस वायरस का विकास जारी है जिसका मतलब है कि वह कुछ लोगों में फैल रहा है।
कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यू.के. में उच्च टीकाकरण की दर को देखते हुए इसके व्यापक प्रसार की संभावना काफी कम है और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में वायरस प्रसार के प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं मिले हैं। फिर भी स्वास्थ्य अधिकारी यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि बच्चों को टीके की सभी आवश्यक खुराकें मिल जाएं।
गौरतलब है कि लंदन ऐसा दूसरा स्थान है जहां इस वर्ष पोलियो वायरस का संस्करण मिला है। इससे पहले 7 मार्च को इस्राइल के एक 3-वर्षीय गैर-टीकाकृत लकवाग्रस्त बच्चे में पोलियोवायरस पाया गया था। इस वर्ष अब तक 25 सीवेज नमूनों में पोलियोवायरस संस्करण मिल चुके हैं जिनमें से अधिकांश मामले येरूसेलम से हैं। यहां से प्राप्त वायरस टीके से निकला टाइप-3 संस्करण है जो लंदन में पाए गए टाइप-2 वायरस से सम्बंधित नहीं है। लंदन और इस्राइल से मिले नतीजों से एक बात तो स्पष्ट है कि पोलियो निगरानी प्रणाली काफी सक्रिय रूप से काम कर रही है।
इन नतीजों के मद्देनज़र इस्राइल और पेलेस्टाइन नेशनल अथॉरिटी ने टीकाकरण प्रयासों को तेज़ कर दिया है। हालांकि कोविड-19 की वजह से यह काम काफी कठिन हो गया है। महामारी के बाद कई कोविड-19 टीकाकरण अभियानों के चलते लोगों में टीकाकरण के प्रति झिझक भी बढ़ी है।
फिलहाल लंदन के अधिकारी वायरस के स्रोत का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि टीकाकरण अभियानों को अधिक सटीकता से अंजाम दिया जा सके। विशेषज्ञों के अनुसार फिलहाल सभी देशों को एक मज़बूत रोग निगरानी और टीकाकरण कवरेज सुनिश्चित करना होगा ताकि पोलियोवायरस के जोखिमों और पुन: उभरने की संभावना को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
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कोरोना वायरस की सूक्ष्म, गहन और संपूर्ण संरचना को समझने और उससे फैली महामारी का सामना करने के लिए टीका बनाने में मूलभूत यानी बेसिक विज्ञान की अहम भूमिका रही है। महत्वाकांक्षी मानव जीनोम परियोजना को पूरा करने में बुनियादी विज्ञानों का बहुत बड़ा हाथ है। आज हम इंटरनेट पर जिस ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ (WWW) का उपयोग कर रहे हैं, वह मूलभूत विज्ञान की ही देन है। दरअसल युरोपीय प्रयोगशाला ‘सर्न’ में बुनियादी भौतिकी प्रयोगों में वैश्विक सहयोग के दौरान इसका आविष्कार हुआ था। अंतरिक्ष जगत में मिली तमाम छोटी-बड़ी सफलताओं का आधार मूलभूत विज्ञानों में दीर्घकालीन अनुसंधान है।
साल 2022 को निर्वहनीय विकास के लिए मूलभूत विज्ञान अंतर्राष्ट्रीय वर्ष (IYBSSD-2022) के रूप में मनाया जा रहा है। इसके लिए चुनी गई थीम में जिन मुद्दों को सम्मिलित किया गया है, उनमें अंतर्राष्ट्रीय संवाद और शांति के लिए मूलभूत विज्ञानों की भूमिका, विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ाना, नवाचार और आर्थिक विकास, वैश्विक चुनौतियों का समाधान और शिक्षा तथा मानव विकास प्रमुख हैं।
वर्ष 2022 इंटरनेशनल युनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड फिज़िक्स (आईयूपीएपी) और इंटरनेशनल मैथेमेटिकल युनियन (आएमयू) का शताब्दी वर्ष भी है। अतः IYBSSD के माध्यम से विज्ञान जगत में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के विस्तार में एक और नया अध्याय जोड़ने में मदद मिलेगी। संस्था की वेबसाइट में बताया गया है कि कोई भी वैज्ञानिक संस्थान और विश्वविद्यालय IYBSSD-2022 के लिए गतिविधियां भेज सकता है।
2017 में माइकल स्पाइरो ने युनेस्को द्वारा आयोजित वैज्ञानिक बोर्ड की बैठक में 2022 को अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष के रूप में मनाने का विचार रखा था। उन्होंने बैठक में 2005-2015 के दौरान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाए गए विज्ञान वर्षों का ज़िक्र करते हुए इस मुद्दे पर विचार मंथन और समीक्षा का विचार भी रखा था। हम लोग वर्ष 2005 में भौतिकी, 2008 में पृथ्वी ग्रह, 2009 में खगोल विज्ञान, 2011 में रसायन विज्ञान, 2014 में क्रिस्टलोग्रॉफी और वर्ष 2015 में प्रकाश एवं प्रकाश आधारित प्रौद्योगिकी थीम पर अंतर्राष्ट्रीय वर्ष मना चुके हैं। स्पाइरो ने बैठक में एक अहम विचार यह रखा था कि मूलभूत विज्ञानों के सभी विषयों के वैज्ञानिकों को एक साथ लाने की आवश्यकता है, ताकि वैज्ञानिकों के अनुसंधानों का उपयोग टिकाऊ विकास के 17 लक्ष्यों को पूरा करने में किया जा सकेगा। स्पाइरो फ्रांस के विख्यात भौतिकीविद हैं और पार्टिकल फिज़िक्स की सर्न प्रयोगशाला से जुड़े हुए हैं।
संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा के 76 वें सत्र (2 दिसंबर 2021) में साल 2022 को IYBSSD-2022 के रूप में मनाने की घोषणा की गई थी। घोषणा में कहा गया है कि मूलभूत विज्ञान की चिकित्सा, उद्योग, कृषि, जल संसाधन, ऊर्जा नियोजन, पर्यावरण, संचार और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है।
गणित, भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान, ये चारों विषय मूलभूत विज्ञान के दायरे में आते हैं, जो प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय घटनाओं की व्याख्या और गहन समझ बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं। इतना ही नहीं, इन्हीं विषयों की बदौलत प्राकृतिक संसाधनों के रूपांतरण में भी मदद मिली है। विज्ञान को मोटे तौर पर मूलभूत और प्रयुक्त विज्ञानों में बांटा गया है।
मूलभूत विज्ञान की कोख से ही प्रयुक्त विज्ञान का उद्गम होता है। प्रयुक्त विज्ञान में अनुसंधान से प्रौद्योगिकी और नवाचारों का विस्तार हुआ है। समाज में प्रौद्योगिकी की चकाचौंध, वर्चस्व और विस्तार से मूलभूत विज्ञान की उपेक्षा हुई है। बीते दशकों में विश्वविद्यालयों में मूलभूत विज्ञान में विद्यार्थियों की दिलचस्पी घटी है। विज्ञान संस्थानों में समाज और बाज़ार की ज़रूरतों पर आधारित अनुसंधान पर ज़ोर है।
विश्व के अधिकांश देशों में सरकारों ने मूलभूत विज्ञानों में शोध-बजट में बढ़ोतरी को आवश्यक नहीं समझा है। इसके कारण हैं। पहला, मूलभूत विज्ञानों का समाज से सीधा सरोकार नहीं है। दूसरा, तत्काल लाभ नहीं मिलता। एक और कारण है कि इसकी बाज़ार को प्रतिस्पर्धी बनाने में भूमिका दिखाई नहीं देती।
IYBSSD-2022 एक महत्वपूर्ण अवसर है, जब आर्थिक और राजनैतिक नेतृत्व और सभी देशों के नागरिकों को इस बात के लिए राजी करने का प्रयास किया जा रहा है कि पृथ्वी ग्रह का संतुलित, टिकाऊ और समावेशी विकास मूलभूत विज्ञानों में अनुसंधानों पर निर्भर है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने टिकाऊ विकास के 17 लक्ष्य निर्धारित किए थे। विशेषज्ञों का मानना है कि मूलभूत विज्ञानों के इनपुट के बिना इन लक्ष्यों को पाना संभव नहीं है। खाद्य, ऊर्जा, स्वास्थ्य और संचार जैसी बड़ी चुनौतियों का समाधान मूलभूत विज्ञानों में अनुसंधानों की बदौलत ही प्राप्त हो सकेगा। यही नहीं मूलभूत विज्ञानों से पृथ्वी पर निवास कर रही लगभग आठ अरब जनसंख्या के विभिन्न अच्छे-बुरे प्रभावों को समझने और किसी-न-किसी तरीके से समाधान खोजने में सहायता मिलेगी।
टिकाऊ विकास के निर्धारित 17 लक्ष्य इस प्रकार हैं – गरीबी उन्मूलन, शून्य भुखमरी, अच्छा स्वास्थ्य एवं खुशहाली, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, लैंगिक समानता, स्वच्छ जल और स्वच्छता, किफायती और स्वच्छ ऊर्जा, समुचित कार्य और आर्थिक वृद्धि, उद्योग, नवाचार तथा आधारभूत सुविधाएं, असमानताओं में कमी, निर्वहनीय शहर एवं समुदाय, निर्वहनीय उपभोग और उत्पादन, जलवायु कार्य योजना, जलीय जीवन, थलीय जीवन, शांति, न्याय एवं सशक्त संस्था और लक्ष्यों हेतु सहभागिता।
मूलभूत विज्ञानों में अनुसंधान से ओज़ोन परत के क्षरण, जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक संसाधनों में कमी को रोकने और विलुप्ति की कगार तक पहुंच चुकी वनस्पति और जन्तु प्रजातियों को बचाने में मदद मिलेगी।
IYBSSD-2022 को मनाने के सिलसिले में 8 जुलाई को युनेस्को के मुख्यालय पेरिस में शुभारंभ और विज्ञान सम्मेलन का आयोजन किया गया है, जिसमें दुनिया भर के वैज्ञानिक मूलभूत विज्ञानों से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर विचार मंथन करेंगे। इसी शृंखला में 13-15 सितंबर को वियतनाम में ‘टिकाऊ विकास के लिए विज्ञान और नैतिकता’ पर सेमीनार होगा। 20-22 सितंबर के दौरान बेलग्राड में ‘मूलभूत विज्ञान और टिकाऊ विकास’ विषय पर विश्व सम्मेलन होगा। इन आयोजनों में विज्ञान के क्षेत्र में समावेशी प्रतिभागिता का विस्तार, शिक्षा और वैज्ञानिक प्रशिक्षण का सशक्तिकरण, मूलभूत विज्ञानों का वित्तीय पोषण और विज्ञान का सरलीकरण जैसे विषयों पर चर्चा होगी।
इसी वर्ष भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के स्टेट साइंस एंड टेक्नॉलॉजी प्रोग्राम डिवीज़न ने आज़ादी की 75वीं सालगिरह के मौके पर जून में ‘मूलभूत विज्ञान और आत्मनिर्भरता’ थीम पर ऑनलाइन विचार मंथन आयोजित किया था, जिसमें 20 राज्यों की विज्ञान परिषदों ने भाग लिया। इस विचार मंथन में शामिल वैज्ञानिकों का विचार है कि मूलभूत विज्ञानों के विषयों में प्रोत्साहन और शोध कार्यों के लिए धनराशि बढ़ा कर आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
IYBSSD-2022 को पूरे साल मनाने के लिए क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न गतिविधियां और कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है। विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को मूलभूत विज्ञानों में उच्च अध्ययन और रिसर्च के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। स्कूली बच्चों को मूलभूत विज्ञानों में योगदान करने वाले वैज्ञानिकों की जीवनी और अनुसंधान कार्यों से परिचित कराया जा सकता है। वैज्ञानिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों में सेमीनार और संगोष्ठियों का आयोजन भी किया जा सकता है।
राज्यों की विज्ञान परिषदें मूलभूत विज्ञानों को प्रोत्साहित करने के लिए बजट प्रावधानों में बढ़ोतरी कर सकती हैं। महिला वैज्ञानिकों को मूलभूत विज्ञानों में रिसर्च के लिए छात्रवृत्तियां उपलब्ध कराई जा सकती हैं। आम लोगों को मूलभूत विज्ञानों के महत्व से परिचित कराने के लिए व्याख्यान और प्रदर्शनियां आयोजित की जा सकती हैं।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग व समावेश के विस्तार और वैश्विक चुनौतियों के समाधान में मूलभूत विज्ञान वर्ष के कार्यक्रम अहम भूमिका निभा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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विश्व विख्यात जर्नल नेचर के जीव विज्ञान विभाग के वरिष्ठ संपादक डॉ. हेनरी जी ने विलुप्तप्राय प्रजातियों के मुद्दे को हाल ही में पुन: उठाया है। उन्होंने यह दावा किया है कि दुनिया भर में 5400 स्तनधारी प्रजातियों में से लगभग 1000 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर आ गई हैं। गेंडा, बंदर और हाथी जैसे जीव सबसे तेज़ी से लुप्त होने वाली प्रजाति बनने की ओर बढ़ रहे हैं।
जैव विविधता का जिस तरह से ह्रास हुआ है उसका प्रतिकूल असर मानव पर भी पड़ा है। उन्होंने चिंता जताते हुए कहा है कि अगर ईकोसिस्टम्स में इसी तरह असंतुलन की स्थिति रही तो पृथ्वी पर मानव सभ्यता का अंत भयावह होगा और अंतरिक्ष में उपग्रह कालोनियां बनाकर रहने का ही विकल्प बच जाएगा।
पर्यावरण के ईकोसिस्टम्स में आ रहे इस भयानक असंतुलन को पहली बार नहीं रेखांकित किया गया है। सालों से इस असंतुलन के प्रति जागरूकता लाने का क्रम चला आ रहा है। शायद इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा विश्व वन्य जीव दिवस (3 मार्च) के अवसर पर साल 2022 की थीम “पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली के लिए प्रमुख प्रजातियों को बहाल करना” रखा गया है।
जीव-जंतुओं के लुप्त होने से पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन को गिद्ध के उदाहरण से समझा जा सकता है। पहले बहुतायत में गिद्ध पाए जाते थे। इन्हें प्रकृति का दोस्त कहकर पुकारा जाता था, क्योंकि इनका भोजन मरे हुए पशु-पक्षियों का मांस होता है। यहां तक कि ये जानवरों की 90 प्रतिशत हड्डियों तक को हजम करने की क्षमता रखते हैं। किंतु अब ये लुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में आ गए हैं और आज इनके संरक्षण के लिए विशेष प्रयास करने की ज़रूरत आन पड़ी है।
यही हाल प्राकृतिक वनस्पतियों का भी है। वैश्विक स्तर पर तीस हज़ार से भी ज़्यादा वनस्पतियां विलुप्ति की श्रेणी में आ चुकी हैं। भारत में पौधों की लगभग पैंतालीस हज़ार प्रजातियां पाई जाती हैं, जिसमें से लगभग 1300 से ज़्यादा विलुप्तप्राय हैं।
वैश्विक प्रयासों के साथ भारत ने जैव विविधता के संरक्षण में प्रतिबद्धता दर्शाई है। इस समय भारत में 7 प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थल, 18 बायोस्फीयर रिज़र्व और 49 रामसर स्थल हैं, जहां विश्व स्तर पर लुप्त हो रही प्रजातियों का न सिर्फ संरक्षण हो रहा है, बल्कि उनकी संख्या में वृद्धि भी दर्ज की गई है।
संयुक्त राष्ट्र ने जैव विविधता के नष्ट होने के महत्वपूर्ण कारणों में शहरीकरण, प्राकृतिक आवास की कमी, प्राकृतिक संसाधनों का अतिशोषण, वैश्विक प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन को गिनाया है।
डॉ. हेनरी ने प्रजातियों की विलुप्ति का जो मुद्दा उठाया है, वह महत्वपूर्ण है। हमें सोचना होगा कि इस समस्या का समाधान मानव विकास का प्रकृति के साथ संतुलन स्थापित कर निकाला जा सकता है या किसी और तरीके से। (स्रोत फीचर्स)
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इंटरनेशनल डायबिटीज़ फाउंडेशन का अनुमान है कि दुनिया भर में 53.7 करोड़ लोग मधुमेह (डायबिटीज़) से पीड़ित हैं। सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल की वेबसाइट के मुताबिक यूएस में 3.7 करोड़ से अधिक लोग (लगभग 10 प्रतिशत) डायबिटीज़ से पीड़ित हैं। डायबिटीज़ दो तरह की होती है – टाइप-1 और टाइप-2।
डायबिटीज़ के प्रकार
आम तौर पर टाइप-1 डायबिटीज़ आनुवंशिक होती है, और यह इंसुलिन लेकर आसानी से नियंत्रित की जा सकती है। इंसुलिन का इंजेक्शन रक्त में उपस्थित शर्करा का उपयोग करने में मदद करता है ताकि शरीर को पर्याप्त ऊर्जा मिल सके। और शेष शर्करा को भविष्य में उपयोग के लिए यकृत (लीवर) और अन्य अंगों में संग्रहित कर लिया जाता है।
टाइप-2 डायबिटीज़ काफी हद तक जीवन शैली का परिणाम होती है। इसमें इंसुलिन इंजेक्शन लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती। और यह ग्रामीण आबादी की तुलना में शहरी लोगों में अधिक देखी जाती है। टाइप-2 डायबिटीज़ उम्र से सम्बंधित बीमारी है और यह अक्सर 45 वर्ष या उससे अधिक की उम्र में विकसित होती है।
वर्ष 2002 में जर्नल ऑफ इंडियन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित मद्रास डायबिटीज़ रिसर्च फाउंडेशन (MDRF) का अग्रणी शोध कार्य बताता है कि टाइप-2 डायबिटीज़, जिसमें हमेशा इंसुलिन लेने की आवश्यकता नहीं होती है, काफी हद तक जीवन शैली पर आधारित बीमारी है। और इसका प्रकोप ग्रामीण आबादी (2.4 प्रतिशत) की तुलना में शहरी आबादी (11.6 प्रतिशत) में अधिक है।
बीमारी का बोझ
MDRF का यह अध्ययन मुख्यत: दक्षिण भारत की आबादी पर आधारित था। लेकिन सादिकोट और उनके साथियों ने संपूर्ण भारत के 77 केंद्रों पर 18,000 लोगों पर अध्ययन किया है, जिसे उन्होंने डायबिटीज़ रिसर्च एंड क्लीनिकल प्रैक्टिस पत्रिका में प्रकाशित किया है। उनकी गणना के अनुसार भारत की कुल आबादी के 4.3 प्रतिशत लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं, (5.9 प्रतिशत शहरी और 2.7 प्रतिशत ग्रामीण)।
ICMR द्वारा वित्त पोषित एक अन्य अध्ययन का अनुमान है कि वर्तमान में पूरे भारत में लगभग 7.7 करोड़ लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं।
डायबिटीज़ से लड़ने के या इसे टालने के कुछ उपाय हैं। मुख्य भोजन में कार्बोहाइड्रेट का कम सेवन और उच्च फाइबर वाले आहार का सेवन करना उत्तम है। MDRF ऐसे ही एक उच्च फाइबर वाले चावल का विकल्प देता है। दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों में मुख्य भोजन चावल है, जबकि उत्तर भारत में लोग मुख्यत: गेहूं खाते हैं।
गेहूं में अधिक फाइबर, अधिक प्रोटीन, कैल्शियम और खनिज होते हैं। और हम जो चावल खाते हैं वह ‘सफेद’ होता है या भूसी और चोकर रहित पॉलिश किया हुआ होता है। (याद करें कि महात्मा गांधी ने हमें पॉलिश किए हुए चावल को उपयोग न करने की सलाह दी थी)।
तो, चावल खाने वालों के लिए अपने दैनिक आहार में गेहूं, साथ ही उच्च प्रोटीन वाले अनाज, मक्का, गाजर, पत्तागोभी, दालें और सब्ज़ियां शामिल करना स्वास्थ्यप्रद होगा। मांसाहारी लोगों को अंडे, मछली और मांस से उच्च फाइबर और प्रोटीन मिल सकता है।
रोकथाम
क्या टाइप-2 डायबिटीज़ को होने से रोका जा सकता है? हारवर्ड युनिवर्सिटी का अध्ययन कहता है – बेशक।
बस, ज़रूरत है थोड़ा वज़न कम करने की, स्वास्थप्रद भोजन लेने की, भोजन में कुल कार्ब्स का सेवन कम करने की और नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम करने की। अधिक व्यायाम की जगह उचित व्यायाम करें। उच्च ऊर्जा खपत वाले व्यायाम करें, जैसे कि नियमित रूप से 10 मिनट की तेज़ चाल वाली सैर, और सांस सम्बंधी व्यायाम भी करें जैसे कि ध्यान में करते हैं।
हमारे फिज़ियोथेरपिस्ट और आयुर्वेदिक चिकित्सक भी श्वास सम्बंधी व्यायाम और नियमित कसरत करने की सलाह देते हैं।
वेबसाइट heathline.com ने 10 अलग-अलग व्यायाम बताए हैं जो उन लोगों के लिए उपयोगी होंगे जिनमें डायबिटीज़ होने की संभावना है या टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित हैं, या वृद्ध हो रहे हैं।
इन 10 में से कुछ व्यायाम जिम जाए बिना आसानी से किए जा सकते हैं। पहला व्यायाम है सैर: सप्ताह में पांच बार, या उससे अधिक बार 30 मिनट तक तेज़ चाल से चलें। कई डायबिटीज़ विशेषज्ञ सुझाते हैं कि तेज़-तेज़ चलना रोज़ाना घर पर भी किया जा सकता है।
दूसरा है साइकिल चलाना। पास के मैदान या पार्क में साइकिल चलाई जा सकती है। रोज़ाना 10 मिनट साइकिल चलाना बहुत फायदेमंद होता है। वैसे, साइकिल को स्टैंड पर खड़ा कर घर पर भी दस मिनट पैडल मारे जा सकते हैं।
तीसरा है भारोत्तोलन (वज़न उठाना)। यहां भी, आपका घर ही जिम हो सकता है। घर की भारी वस्तुएं (डॉक्टर की सलाह अनुसार 5 या 8-10 कि.ग्रा.)। जैसे पानी भरी बाल्टी या अन्य घरेलू सामान उठा सकते हैं। ऐसा रोज़ाना या एक दिन छोड़कर एक दिन करना लाभप्रद होगा।
उपरोक्त वेबसाइट ने तैराकी, कैलिस्थेनिक्स जैसे कई अन्य व्यायाम भी सूचीबद्ध किए हैं, लेकिन यहां हमने केवल उन व्यायाम की बात की है जिन्हें लोग घर पर या आसपास आसानी से कर सकते हैं।
योग
इन 10 अभ्यासों में योग का भी उल्लेख है, जो भारतीयों के लिए विशेष रुचि का है।
जर्नल ऑफ डायबिटीज़ रिसर्च में प्रकाशित नियंत्रित परीक्षणों की एक व्यवस्थित समीक्षा बताती है कि योग ऑक्सीकारक तनाव को कम कर सकता है, और मूड, नींद और जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर सकता है। यह टाइप-2 डायबिटीज़ वाले व्यस्कों में दवा के उपयोग को भी कम करता है। (स्रोत फीचर्स)
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वैज्ञानिक शोध कार्य टीम द्वारा मिलकर किए जाते हैं। लेकिन हमेशा टीम के सभी लोगों को काम का बराबरी से या यथोचित श्रेय नहीं मिलता। हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया है कि करियर के समकक्ष पायदान पर खड़े वैज्ञानिकों में से महिलाओं को उनके समूह के शोधकार्य के लेखक होने का श्रेय मिलने की संभावना पुरुषों की तुलना में कम होती है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि महिलाओं के प्रति इस तरह की असमानताओं का असर वरिष्ठ महिला वैज्ञानिकों को करियर में बनाए रखने और युवा महिला वैज्ञानिकों को आकर्षित करने की दृष्टि से सकारात्मक नहीं होगा।
पूर्व अध्ययनों में पाया गया है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित के कई क्षेत्रों में महिलाएं अपनी मौजूदगी की अपेक्षा कम शोध पत्र लिखती हैं। लेकिन ऐसा क्यों है, अब तक यह पता लगाना चुनौतीपूर्ण रहा है – क्योंकि यह ठीक-ठीक पता लगाना मुश्किल था कि लेखकों की सूची में शामिल करने योग्य किन व्यक्तियों को छोड़ दिया जाता है। नए अध्ययन ने यूएस-स्थित लगभग 10,000 वैज्ञानिक अनुसंधान टीमों के विशिष्ट विस्तृत डैटा तैयार कर इस चुनौती को दूर कर दिया है। अध्ययन में वर्ष 2013 से 2016 तक इन 10,000 टीमों में शामिल रहे 1,28,859 शोधकर्ताओं और उनके द्वारा विभिन्न पत्रिकाओं में लिखे गए 39,426 शोध पत्रों से सम्बंधित डैटा इकट्ठा किया गया। इन आंकड़ों से शोधकर्ता यह पता करने में सक्षम रहे कि किन व्यक्तियों ने साथ काम किया और अंततः श्रेय किन्हें मिला। (अध्ययन में नामों के आधार पर लिंग का अनुमान लगाया गया है, इससे अध्ययन में आंकड़े थोड़ा ऊपर-नीचे होने की संभावना हो सकती है और इस तरीके से गैर-बाइनरी शोधकर्ताओं की पहचान करना मुश्किल है।)
अध्ययन की लेखक पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर ब्रिटा ग्लेनॉन बताती हैं कि अक्सर लेखकों की सूची में महिलाओं का नाम छोड़े जाने के किस्से सुनने को मिलते थे। “मैं कई महिला वैज्ञानिकों को जानती हूं जिन्होंने यह अनुभव किया है लेकिन मुझे इसका वास्तविक पैमाना नहीं पता था। वैसे हर कोई इसके बारे में जानता था लेकिन वे मानते थे कि ऐसा करने वाले वे नहीं, कोई और होंगे।”
ग्लेनॉन स्वीकार करती हैं कि यह अध्ययन हर उस कारक को नियंत्रित नहीं कर सका है जो यह निर्धारित करता है कि कौन लेखक का श्रेय पाने के योग्य है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि शोध टीमों में काम करने वाले कुछ पुरुषों ने आधिकारिक तौर पर संस्था में रिपोर्ट किए गए कामों के घंटों की तुलना में अधिक घंटे काम किया हो या समूह के काम में उनका बौद्धिक योगदान अधिक रहा हो।
हालांकि, वे यह भी ध्यान दिलाती हैं कि महिलाएं बताती हैं कि उन्हें जितना श्रेय मिलना चाहिए उससे कम मिलता है। नए अध्ययन के हिस्से के रूप में 2446 वैज्ञानिकों के साथ किए गए एक सर्वेक्षण में देखा गया कि पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं ने कहा कि उन्हें लेखक होने के श्रेय से बाहर रखा गया और उनके साथियों ने शोध में उनके योगदान को कम आंका था। और पिछले साल प्रकाशित 5575 शोधकर्ताओं पर हुए एक अध्ययन में बताया गया था कि पुरुषों की तुलना में ज़्यादा महिलाओं ने लेखक होने का श्रेय देने के फैसले को अनुचित माना।
ग्लेनॉन कहती हैं हर प्रयोगशाला में प्रमुख अन्वेषक स्वयं अपने नियम गढ़ता है और वही तय करता है कि लेखक का श्रेय किन्हें मिलेगा। इसलिए विभिन्न क्षेत्रों और प्रयोगशालाओं में एकरूपता नहीं दिखती। यह पूर्वाग्रहों को मज़बूत कर सकता है। जैसे, किसी ऐसे व्यक्ति को श्रेय मिल सकता है जो प्रयोगशाला में अधिक दिखाई देते हों। अत: फंडिंग एजेंसियों या संस्थानों को लेखक-सूची में शामिल करने के लिए स्पष्ट नियम निर्धारित करने चाहिए। लेखक का फैसला सिर्फ मुखिया पर नहीं छोड़ा जा सकता। (स्रोत फीचर्स)
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