प्लास्टिकोसिस की जद में पक्षियों का जीवन – अली खान

हालिया अध्ययन में यह जानकारी सामने आई है कि प्लास्टिक के कारण समुद्री पक्षियों का पाचन तंत्र खराब हो रहा है। बता दें कि यह पहली बार प्लास्टिक से होने वाली बीमारी का पता चला है। वैज्ञानिकों ने इसका नाम प्लास्टिकोसिस रखा है। फिलहाल यह बीमारी समुद्री पक्षियों को हो रही है। लेकिन आशंका है कि भविष्य में यह कई प्रजातियों में फैल सकती है।

प्लास्टिकोसिस उन पक्षियों को हो रहा है जो समुद्र में अपना शिकार ढूंढते हैं। शिकार के साथ ही उनके शरीर में छोटे और बड़े आकार के प्लास्टिक चले जाते हैं जिनसे उनके शरीर को नुकसान होने लगता है। धीरे-धीरे वे बीमार होकर मर जाते हैं। वैज्ञानिकों ने प्लास्टिकोसिस की वजह से शरीर पर पड़ने वाले असर को भी रिकॉर्ड किया है।

इस शोध की रिपोर्ट हैज़ार्डस मटेरियल्स जर्नल में प्रकाशित हुई है। शोध के मुताबिक प्लास्टिक प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि विभिन्न उम्र के पक्षियों में प्लास्टिक की उपस्थिति के संकेत पाए गए हैं। शोधकर्ताओं ने ऑस्ट्रेलिया में शीयरवाटर्स पक्षी का अध्ययन करने के बाद यह जानकारी दी है। अध्ययन में बताया गया है कि पक्षियों की आहार नाल के प्रोवेन्ट्रिकुलस नामक अंग की ग्रंथियों के क्रमिक क्षय के कारण यह रोग होता है। इन ग्रंथियों की कमी से पक्षी संक्रमण और परजीवियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकते हैं। ये भोजन को पचाने की उनकी क्षमता को प्रभावित कर सकते हैं।

हकीकत यही है कि रोज़मर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक थैलियों, बर्तनों व अन्य प्लास्टिक से उपजा प्रदूषण पूरी दुनिया के लिए नासूर बन चुका है। उल्लेखनीय है कि प्लास्टिक एक ऐसा नॉन-बायोडीग्रेडबल पदार्थ है जो जल और भूमि में विघटित नहीं होता है। यह लंबे समय तक हवा, मिट्टी व पानी के संपर्क में रहने पर हानिकारक विषैले पदार्थ उत्सर्जित करने लगता है। ये विषैले पदार्थ घुलकर पानी के स्रोतों तक पहुंच जाते हैं। ऐसे में यह लोगों में विभिन्न प्रकार की बीमारियां फैलाने का काम करता है। एक शोध से पता चला है कि प्लास्टिक के ज़्यादा संपर्क में रहने से खून में थेलेट्स की मात्रा बढ़ जाती है जिससे गर्भ में शिशु का विकास रुक जाता है और प्रजनन अंगों को नुकसान पहुंचता है। प्लास्टिक उत्पादों में प्रयोग होने वाला बिस्फेनाल रसायन शरीर में मधुमेह और यकृत एंज़ाइम को असंतुलित कर देता है। इसके अलावा प्लास्टिक कचरा जलाने से कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और डाईऑक्सीन्स जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं। इनसे श्वसन, त्वचा और आंखों से सम्बंधित बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती है।

सवाल है कि प्लास्टिक प्रदूषण की रोकथाम कैसे हो? सर्वप्रथम तो प्लास्टिक के खतरों के प्रति आम लोगों में जागरूकता पैदा करनी होगी। साथ ही सरकारी प्रयासों को गति दी जानी चाहिए। इसमें आम लोगों की सहभागिता को सुनिश्चित किया जाना भी ज़रूरी है। इसके बिना प्लास्टिक प्रदूषण पर नियंत्रण संभव नहीं हो सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वनों की कटाई के दुष्प्रभाव – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1990 के बाद से सदी के अंत तक, 11 अरब मनुष्यों का पेट भरने की खातिर 42 करोड़ हैक्टर वन अन्य भूमि उपयोगों (जैसे कृषि, औद्योगिक और जैव ईंधन वगैरह) में तबदील करके गंवा दिए गए हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव भारत, चीन और अफ्रीका जैसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों पर होगा।

बढ़ते तापमान के कारण

खाद्य व कृषि संगठन द्वारा प्रकाशित वैश्विक वन संसाधन आकलन बताता है कि पृथ्वी पर 31 प्रतिशत भूमि वन से ढंकी है। जब पेड़ काटे जाते हैं तो वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड जमा होने लगती है, नतीजतन वैश्विक तापमान बढ़ता है।

वनों की कटाई के कारण ग्रीनहाउस गैसों (CO2, CH4, N2O, SO2 व CFCs) का वैश्विक उत्सर्जन 11 प्रतिशत बढ़ा है।

इस संदर्भ में हारवर्ड युनिवर्सिटी पब्लिक हेल्थ ग्रुप आगे बताता है कि वनों की कटाई के कारण डेंगू-मलेरिया जैसे रोगों के लिए ज़िम्मेदार कीटाणु बढ़ते हैं, जो मनुष्यों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।

एनवॉयरमेंटल सोसाइटी ऑफ इंडिया के डॉ. एस. बी. कद्रेकर बताते हैं कि सिर्फ पेड़ ही नहीं बल्कि मिट्टी और पानी को भी बचाना होगा। वनों की कटाई में एक प्रतिशत की वृद्धि होने से ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता में 0.93 प्रतिशत की कमी आती है, जो पेयजल के लिए कुओं और छोटे नदी-नालों पर निर्भर होते हैं।

इसके अलावा वाष्पोत्सर्जन से पेड़ वायुमंडल में पानी छोड़ते हैं, जो वर्षा के रूप में वापस ज़मीन पर गिरता है। इस तरह, वनों की कटाई के कारण दोहरी मार पड़ती है। पृथ्वी का लगभग 31 प्रतिशत थल क्षेत्र (3.9 अरब हैक्टर) वन से ढंका है। लेकिन कई देशों में खाद्य आपूर्ति, विकास और प्रौद्योगिकी के नाम पर वनों की अत्यधिक कटाई होती है।

भारत में स्थिति

भारत में कुल वनाच्छादन लगभग 8 लाख वर्ग किलोमीटर है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 22 प्रतिशत है। इनमें से अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह के कुल क्षेत्रफल का 87 प्रतिशत क्षेत्र वन क्षेत्र है।

डॉ. पंकज सक्सेरिया बताते हैं कि अंग्रेज़ों ने लकड़ी निर्यात करने के लिए वहां एक बंदरगाह स्थापित किया था। वर्तमान सरकार की नज़र इन द्वीपों पर अपनी नौसेना का विस्तार करने के लिए और लोगों को यहां न सिर्फ सैर-सपाटा करने बल्कि बसने के लिए आकर्षित के लिए है। इसलिए इन द्वीपों को बचाने के लिए काफी कुछ करने की ज़रूरत है।

जम्मू और काश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्यों में क्रमशः 21,000, 24,000 और 16,000 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। भारत सरकार ने इन क्षेत्रों में अंडरपास और ओवरपास राजमार्ग बनाने के लिए वनों का काफी बड़ा हिस्सा काट दिया है।

इसी तरह, गोवा में लगभग 2219 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। यहां की सरकार मुंबई और गोवा को फोर-लेन राजमार्ग से जोड़ने के लिए यहां अनगिनत पेड़ काट रही है। स्थानीय अधिकारियों द्वारा लगभग 31,000 पेड़ काटे जा चुके हैं।

इसी तरह, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) NH163 पर 45 किलोमीटर लंबी टू-लेन को फोर-लेन करने के लिए तैयार है। ऐसा करने के लिए वे तेलंगाना के चेवेल्ला मंडल में 9000 बरगद के पेड़ों को काटने के लिए तैयार हैं।

ये विशाल बरगद के पेड़ सदियों पुराने हैं, जिन्हें निज़ाम और अन्य वन-प्रेमी समूहों ने लगाया था।

निष्कर्षत:, ये वनों की कटाई के कुछ बुरे प्रभाव हैं और हमें इसका विरोध करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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एक इकोसिस्टम की बहाली के प्रयास

मानव गतिविधियों से न जाने कितने प्राकृतिक स्थलों की दुर्दशा हो गई है। इन्हीं में से एक है इटली की बेगनोली खाड़ी, जिसमें समुद्री जीवन लगभग शून्य हो चुका है। ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने बेगनोली खाड़ी की तलछट में बचे रह गए पर्यावरणीय डीएनए (तलछटी डीएनए) की मदद से 200 साल पीछे तक का जैविक इतिहास खंगाला और इस पारिस्थितिक तंत्र के तबाह होने की क्रमिक तस्वीर निर्मित की। ऐसी जानकारी बेगनोली खाड़ी और अन्य खस्ताहाल पारिस्थितिकी तंत्रों की बहाली में मददगार हो सकती है।

दरअसल औद्योगिक क्रांति से पहले, लगभग 1827 तक बेगनोली खाड़ी स्वस्थ और सुंदर हुआ करती थी। इसमें नेपच्यून घास उगा करती थी और यह कृमियों, समुद्री स्क्वर्ट्स, स्पॉन्ज और छोटे प्लवकों जैसे जीवों का घर हुआ करती थी। लेकिन 20वीं शताब्दी के आरंभ तक, स्टील और एस्बेस्टस संयंत्र बनने के साथ खाड़ी के बीच मौजूद द्वीप को मुख्य ज़मीन से जोड़ने के लिए पुल बने। इन गतिविधियों ने इसकी समुद्री घास को तबाह कर दिया था, जिससे इस पर निर्भर जीवन भी प्रभावित हुआ। नतीजतन खाड़ी प्रदूषित होती गई और इसका पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ाता गया।

ऐसा नहीं था कि खाड़ी की बहाली के कोई प्रयास नहीं किए जा रहे थे। यह अध्ययन बहाली के इन्हीं प्रयासों के चलते किया गया था। दरअसल बहाली के लिए उठाए गए कदमों से खाड़ी का प्रदूषण तो काफी हद तक कम हो गया था, लेकिन इसके पारिस्थितिक तंत्र में कोई खास सुधार नहीं हो सका था।

पारिस्थितिक तंत्र की बहाली के लिए यह पता होना ज़रूरी है कि मानव दखल या औद्योगिक क्रांति से पहले आखिर यह था कैसा? इसमें कौन से जीव, प्रजातियां, पौधे वगैरह वापस लाए जाएं और किस हिसाब से वापस लाए जाएं।

इसके लिए दो समुद्री पारिस्थितिकीविदों एंटॉन डॉर्न ज़ुऑलॉजिकल इंस्टीट्यूट की लॉरेना रोमेरो और अर्बिनो युनिवर्सिटी के मार्को कैवलियरे ने सोचा कि इसकी तलछट में मौजूद डीएनए इसकी पूर्वस्थिति के सुराग दे सकते हैं।

तलछटी डीएनए के अध्ययन से शोधकर्ता न सिर्फ मानव दखल से पहले और बाद की खाड़ी की तस्वीर बना पाए बल्कि वे यह भी पता कर पाए कि समय के साथ धीरे-धीरे खाड़ी किस तरह बदहाल होती गई। तलछटी डीएनए के अध्ययन का फायदा यह है कि तलछट परत-दर-परत जमा होती है, और हर परत में मौजूद डीएनए उस काल विशेष के जीवन के बारे में बता सकते हैं। खाड़ी की परतों के नमूनों में शोधकर्ताओं को कुछ अनजानी प्रजातियों के डीएनए भी मिले।

इस लिहाज से तलछटी डीएनए का अध्ययन किसी पारिस्थितिक तंत्र की बहाली के लिए एक उम्दा तरीका लगता है लेकिन इसकी कुछ सीमाएं भी हैं। मसलन, डीएनए समय के साथ क्षतिग्रस्त होते जाते हैं। संभावना है कि इसमें कई प्रजातियां छूट जाएं। इसलिए इसे पारिस्थितिकी पता करने के कई तरीकों में से एक तरीके के तौर पर देखा जाना चाहिए न कि एकमात्र तरीके के तौर पर। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन से आर्कटिक कलहंसों को मिला नया प्रजनन स्थल

निरंतर हो रहे जलवायु परिवर्तन से गुलाबी पैरों वाले कुछ गीस (कलहंसों) ने उत्तरी रूस में एक ठिकाना बना लिया है। यह स्थान उनके पारंपरिक ग्रीष्मकालीन प्रजनन क्षेत्र से लगभग 1000 किलोमीटर उत्तर पूर्व में है। विशेषज्ञों के अनुसार यह घटना इस तथ्य की ओर संकेत देती हैं कि कुछ प्रजातियां, थोड़े समय के लिए ही सही, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के साथ अनुकूलन कर सकती हैं। गौरतलब है कि प्रत्येक वसंत ऋतु में लगभग 80,000 कलहंस (एन्सेर ब्रैचिरिन्चस) नॉर्वे के स्वालबार्ड द्वीपसमूह में प्रजनन के लिए डेनमार्क, नेदरलैंड और बेल्जियम से उत्तर की ओर प्रवास करते हैं। स्वीडन और फिनलैंड में कुछ हज़ार पक्षियों के देखे जाने के बाद वैज्ञानिकों ने 21 पक्षियों को जीपीएस ट्रैकर लगाए। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ट्रैकर लगे आधे पक्षी उत्तरी रूस के एक द्वीपसमूह नोवाया ज़ेमल्या के उत्तर-पूर्व की ओर उड़ गए। इस क्षेत्र में शोधकर्ताओं ने नई प्रजनन आबादी पाई जिसमें लगभग 3-4 हज़ार पक्षी शामिल हो सकते हैं। नोवाया ज़ेमल्या का वर्तमान वसंत तापमान अब स्वालबार्ड के दशकों पहले रहे तापमान के समान है। ऐसी संभावना है कि पक्षियों ने अपने नए प्रजनन क्षेत्र चुन लिए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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व्हेल की त्वचा में उनकी यात्राओं का रिकॉर्ड

क हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण बैलीन व्हेल के प्रवास को समझने का प्रयास किया है। इसके लिए उन्होंने व्हेल की त्वचा के छोटे टुकड़ों का इस्तेमाल किया है। यह तकनीक व्हेल के संरक्षण में मददगार साबित हो सकती है जो अभी शिकार से तो सुरक्षित हैं लेकिन संकटग्रस्त हैं। वास्तव में व्हेल की इस प्रजाति (Eubalaena australis) को ट्रैक करना मुश्किल है लेकिन शोधकर्ताओं ने व्हेल की त्वचा के कुछ नमूने तटीय प्रजनन क्षेत्रों से उनकी त्वचा के सूक्ष्म हिस्से को भेदकर प्राप्त किए।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने इस नमूने में कार्बन और नाइट्रोजन समस्थानिकों का विश्लेषण किया और इसका मिलान पिछले 30 वर्षों में दक्षिणी महासागर में मैप किए गए समस्थानिक अनुपात से किया। व्हेल जो क्रिल और कोपेपोड खाती हैं उनमें यही समस्थानिक होते हैं। ये लगभग 6 महीने बाद व्हेल की नवीन त्वचा में पहुंच जाते हैं। त्वचा में समस्थनिकों के अनुपात में व्हेल की पिछली यात्राएं रिकॉर्ड हो जाती हैं। टीम ने पाया कि समुद्र का मध्य अक्षांश व्हेल के लिए भोजन का एक महत्वपूर्ण इलाका रहा है। ऐसा लगता है कि दक्षिणी महासागर के कुछ हिस्सों में, व्हेल भोजन के लिए दक्षिण की ओर प्रवास कम कर रही हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिका के आसपास के इलाकों में क्रिल की आबादी कम कर दी है जिसके चलते उस ओर व्हेल का प्रवास भी कम हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर की कीमत

क हालिया अध्ययन के अनुसार वर्ष 2020 से 2050 के बीच कैंसर पर 25 ट्रिलियन डॉलर खर्च होने की संभावना है। यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद पर 0.55 प्रतिशत के वार्षिक कर के बराबर है। इस विश्लेषण में 29 प्रकार के कैंसर से बीमार होने या मरने वाले लोगों द्वारा उपचार की लागत और आर्थिक उत्पादकता की हानि का अनुमान लगाया गया है। सबसे महंगे कैंसर में फेफड़े, आंत, स्तन और लीवर शामिल हैं जिनका वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक प्रकोप होता है। जामा ऑन्कोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार कैंसर की जांच, निदान और उपचार पर खर्च में वृद्धि से निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पर्याप्त स्वास्थ्य और आर्थिक लाभ मिलता है। 75 प्रतिशत कैंसर के मामले इन देशों में रिकॉर्ड किए गए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बोरॉन ईंधन संलयन के आशाजनक परिणाम

हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक वैकल्पिक ईंधन मिश्रण का रिएक्टर में संलयन किया है। इस तकनीक से संलयन आधारित बिजली संयंत्रों को, पारंपरिक ईंधन इस्तेमाल करने वाले संलयन संयंत्रों की तुलना में अधिक सुरक्षित और संचालन में आसान बनाया सकता है।

गौरतलब है कि अधिकांश प्रायोगिक संलयन रिएक्टर हाइड्रोजन के समस्थानिकों (ड्यूटेरियम और ट्रिटियम) का उपयोग करते हैं। लेकिन ट्रिटियम दुर्लभ है, और इस ईंधन सम्मिश्र का उपयोग करने से उच्च-ऊर्जायुक्त न्यूट्रॉन उत्पन्न होते हैं जो मनुष्यों के लिए खतरनाक हैं और रिएक्टर की दीवारों और अवयवों को नुकसान पहुंचाते हैं।

इसकी बजाय प्रोटॉन और बोरॉन से बना वैकल्पिक ईंधन मिश्रण कोई न्यूट्रॉन उत्पन्न नहीं करता है और केवल हानिरहित हीलियम पैदा करता है। लेकिन इसको जलने के लिए 3 अरब डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है जो सूर्य के केंद्रीय भाग के ताप से 200 गुना अधिक है।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, हाल ही में जापान में एक पारंपरिक संलयन रिएक्टर में अपेक्षाकृत कम तापमान पर संलयन की प्रक्रिया को अंजाम दिया गया है। इस प्रक्रिया में कणों के एक शक्तिशाली पुंज की मदद से प्रोटॉन्स को गति देकर अभिक्रिया शुरू करवाई गई। वैसे अभी यह व्यावहारिक होने से कोसों दूर है। (स्रोत फीचर्स)

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जियोइंजीनियरिंग अनुसंधान में नई पहल

हाल ही में 60 से अधिक प्रमुख जलवायु वैज्ञानिकों ने सौर भू-इंजीनियरिंग के क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने का आह्वान किया है। आम तौर पर पृथ्वी को अधिक परावर्तक बनाकर कृत्रिम रूप से ठंडा करने के प्रस्ताव को लेकर काफी अगर-मगर रहे हैं। कई जलवायु कार्यकर्ता और वैज्ञानिक जियोइंजीनियरिंग का अध्ययन करने का विरोध इसलिए भी करते हैं कि यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती की आवश्यकता से ध्यान भटकाता है। लेकिन जलवायु वैज्ञानिकों के खुले पत्र में कहा गया है कि आने वाले दशकों में जियोइंजीनियरिंग योजनाओं को लागू करने के फैसले लिए जाने की संभावना है। लिहाज़ा, योजनाओं की प्रभावशीलता और जोखिमों को समझने के लिए सिमुलेशन और फील्ड प्रयोगों की ज़रूरत स्पष्ट है। इस पत्र के हस्ताक्षरकर्ताओं में सेवानिवृत्त नासा वैज्ञानिक और ग्लोबल वार्मिंग के खतरों की चेतावनी देने वाले जेम्स हैनसेन और हारवर्ड विश्वविद्यालय के जलवायु वैज्ञानिक डेविड कीथ भी हैं, जिन्होंने वर्षों से छोटे पैमाने पर जियोइंजीनियरिंग प्रयोग करने की अनुमति प्राप्त करने के प्रयास किए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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भ्रूण में जेनेटिक फेरबदल करने वाले वैज्ञानिक का वीज़ा रद्द

मानव भ्रूण के जीन संपादन मामले में चीनी जैव-भौतिकविद ही जियानकुई को वर्ष 2019 में अनैतिक चिकित्सा पद्धति के जुर्म में तीन वर्ष कैद की सज़ा सुनाई गई थी। सज़ा समाप्ति के बाद उन्हें गत माह हांगकांग का वीज़ा दिया गया जिसे केवल 10 दिन बाद रद्द कर दिया गया। जियानकुई को 2-वर्षीय टॉप टैलेंट वीज़ा दिया गया था जिसका उद्देश्य “समृद्ध कार्य अनुभव और अच्छी शैक्षणिक योग्यता वाले” लोगों को आकर्षित करना है। लेकिन हांगकांग के अधिकारियों ने पुनर्विचार करके वीज़ा रद्द कर दिया। अधिकारियों को जियानकुई के आवेदन पत्र में गलत तथ्य देने की आशंका है। अब आवेदन के फॉर्म में संशोधन करके आपराधिक मामले उजागर करने की शर्त जोड़ी जा सकती है।

अप्रैल 2022 में जेल से रिहा होने के बाद, जियानकुई ने बीजिंग में एक प्रयोगशाला स्थापित की थी और दुर्लभ बीमारियों के लिए जीन थेरपी पर शोध अध्ययन करने का विचार किया था। इसके लिए उन्होंने कई लोगों से शोध में वित्तीय सहायता की भी मांग की है। उन्होंने अभी तक यह खुलासा नहीं किया है कि क्या उन्हें कोई समर्थक मिला है। (स्रोत फीचर्स)

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बंदरों के आयात पर रोक

मेरिका स्थित बंदरों की आयातक और बंदर अनुसंधान आपूर्तिकर्ता संस्था चार्ल्स रिवर लेबोरेटरीज़ ने हाल ही में कंबोडिया से बंदरों के आयात पर रोक लगा दी है। यह निर्णय यूएस डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस द्वारा जारी किए गए समन के बाद लिया गया है जिसमें कंबोडिया के एक तस्कर गिरोह को दोषी ठहराया गया है। एजेंसी का दावा है कि कंबोडिया के जंगलों से बड़ी संख्या में साइनोमोगलस मैकाक (प्रयोग में प्रयुक्त जंतु) को अवैध रूप से पकड़कर निर्यात किया जा रहा था जबकि कहा जा रहा था कि ये बंदी अवस्था में प्रजनन से पैदा हुए हैं। चार्ल्स रिवर संस्था के अनुसार यह समन कंबोडियाई आपूर्तिकर्ता से प्राप्त कई शिपमेंट से सम्बंधित है। गौरतलब है कि संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया भर में जानवरों का सबसे बड़ा आयातक है; ज़्यादातर औषधि और जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों द्वारा अनुसंधान के लिए इनको अमेरिका लाया जाता है। अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के अनुसार, साइनोमोगलस मैकाक, जो एक लुप्तप्राय जीव है, वर्ष 2022 में देश में आयात किए गए लगभग 33,000 प्रायमेट्स का 96 प्रतिशत है। तथ्य यह है कि अमेरिका में लगभग दो-तिहाई साइनोमोगलस जंतु कंबोडिया से ही आयात किए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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