क्या मनुष्य साबुत सांप खाते थे?

हाल ही में टेक्सास स्थित ए-एंड-एम युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं को मानव मल में ज़हरीले सांप की हड्डियां, त्वचा और दांत मिले हैं। यह मल लगभग 1500 साल पुराना है। शोधकर्ता इलेनॉर सोन्डरमेन और उनके साथियों को यह मल सूखी अवस्था में टेक्सास के किसी स्थान में मिला था।

सभी जीव मल त्यागते हैं और सभी जीवों के मल में विविधता होती है। मल के विश्लेषण से उस जीव के बारे में कई बातें पता चलती है। मानव मल में मिले ये अवशेष इस बात की ओर इशारा करते हैं कि मानव किसी समय कुछ अवसरों या अनुष्ठानों के मौके पर पूरा सांप खाते होंगे।

वैसे उत्तरी अमेरिका में रहने वाले प्राचीन मानव नियमित रूप से सांप खाते थे। लेकिन आम तौर पर वे सांप की त्वचा और सिर हटा देते थे। किंतु शोधकर्ताओं को इस मल में सांप की त्वचा और दांत भी मिले हैं। उन्हें मल में सांप की 22 हड्डियां, 48 शल्क और 1 सेंटीमीटर लंबा विषदंत मिला है। जिससे अंदाज़ा लगता है कि ये अवशेष वेस्टर्न डायमंडबैक रैटलस्नेक (Crotalus atrox) के हैं। दक्षिण-पश्चिम संयुक्त राज्य के कुछ कबीले सांप की पूजा करते हैं। इसी आधार पर टीम ने अंदाज़ा व्यक्त किया है कि संभवत: इस सांप को किसी अनुष्ठान के दौरान खाया गया होगा। मल में शोधकर्ताओं को चूहे के भी अवशेष मिले हैं जिसे कच्चा और पूरा खाया गया था। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि चूहा सांप ने खाया था या मानव ने। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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होमो सेपिएंस, धर्म और विज्ञान – गंगानंद झा

क्रमिक जैव विकास के फलस्वरूप आज से लगभग पच्चीस लाख साल पहले मानव के विकास की शृंखला की शुरुआत अफ्रीका में होमो वंश के उद्भव के साथ हुई। फिर काल क्रम में इसकी कई प्रजातियां विकसित हुर्इं और अंत में आधुनिक मानव प्रजाति (होमो सेपिएंस) का विकास आज से करीब दो लाख वर्ष पूर्व पूर्वी अफ्रीका में हुआ।

आधुनिक मनुष्य के इतिहास की शुरुआत आज से सत्तर हजार पहले संज्ञानात्मक क्रांति (Cognitive revolution) के रूप में हुई जब उसने बोलने की, शब्द गठन करने की क्षमता पाई। और तब वह अपने मूल स्थान से अन्य क्षेत्रों — युरोप, एशिया वगैरह में पसरता गया।

इतिहास का अगला पड़ाव करीब 12 हज़ार साल पहले कृषि क्रांति के साथ आया, जब मनुष्य ने खेती करना शुरू किया। मनुष्य अब यायावर नहीं रह गया, वह स्थायी बस्तियों में रहने लगा। सभ्यता और संस्कृति के विकास की कहानियां बनने लगीं।

अब जब मनुष्य ने समझने और अपनी समझ ज़ाहिर करने की क्षमता हासिल कर ली थी, तो उसने अपने चारों ओर के परिवेश के साथ अपने रिश्ते को समझने की कोशिश की। धरती, आसमान और समंदर को समझने की कोशिश की। जानकारियां इकठ्ठी होती चली गर्इं। ये जानकारियां विभिन्न समय में अनेक धाराओं में प्रतिष्ठित हुई। ये धाराएं धर्म कहलार्इं। 

अब मनुष्य के पास अपनी समस्याओं, कौतूहल और सवालों के जवाब पाने का एक जरिया हासिल हो गया था।

जीवनयापन के लिए आवश्यक सारी महत्वपूर्ण जानकारियां प्राचीन काल के मनीषियों द्वारा हमें धार्मिक ग्रंथों अथवा मौखिक परंपराओं में उपलब्ध कराई जा चुकी हैं। मान्यता यह बनी कि इन ग्रंथों और परंपराओं के समीचीन अध्ययन और समझ के ज़रिए ही हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। लोगों की आस्था थी कि वेद, कुरान और बाइबिल जैसे धर्मग्रंथों में विश्व ब्राहृांड के सारे रहस्यों का विवरण उपलब्ध है। इन धर्मग्रंथों के अध्ययन या किसी जानकार, ज्ञानी व्यक्ति से संपर्क करने पर सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे। इसलिए नया कुछ आविष्कार करने की ज़रूरत नहीं रह गई है। 

ज़िम्मेदारी के साथ कहा जा सकता है कि सोलहवीं सदी के पहले मनुष्य प्रगति और विकास की आधुनिक अवधारणा में विश्वास नहीं करते थे। उनकी समझ थी कि स्वर्णिम काल अतीत में था और विश्व अचर है। जो पहले नहीं हुआ, वह भविष्य में नहीं हो सकता। युगों की प्रज्ञा के श्रद्धापूर्वक अनुपालन से स्वर्णिम अतीत को वापस लाया जा सकता है और मानवीय विदग्धता हमारी रोज़मर्रा ज़िंदगी के कई पहलुओं में सुधार ज़रूर ला सकती है लेकिन दुनिया की बुनियादी समस्याओं से उबरना मनुष्य की कूवत में नहीं है। जब सर्वज्ञाता बुद्ध, कन्फ्यूशियस, ईसा मसीह, और मोहम्मद तक अकाल, भुखमरी, रोग और युद्ध रोकने में नाकामयाब रहे तो इन्हें रोकने की उम्मीद करना दिवास्वप्न ही है।

हालांकि तब की सरकारें और संपन्न महाजन शिक्षा और वृत्ति के लिए अनुदान देते थे, किंतु उनका उद्देश्य उपलब्ध क्षमताओं को संजोना और संवारना था, न कि नई क्षमता हासिल करना। तब के शासक पुजारियों, दार्शनिकों और कवियों को इस आशा से दान दिया करते थे कि वे उनके शासन को वैधता प्रदान करेंगे और सामाजिक व्यवस्था को कायम रखेंगे। उन्हें इनसे ऐसी कोई उम्मीद नहीं रहती थी कि वे नई चिकित्सा पद्धति का विकास करेंगे या नए उपकरणों का आविष्कार करेंगे और आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करेंगे। सोलहवीं शताब्दी से जानकारियों की एक स्वतंत्र धारा उभरी। इसे वैज्ञानिक धारा के रूप में पहचाना जाता है।

वैज्ञानिक क्रांति ने सन 1543 में कॉपर्निकस की विख्यात पांडुलिपि डी रिवॉल्युशनिबस ऑर्बियम सेलेस्चियम (आकाशीय पिंडों की परिक्रमा) के प्रकाशन के साथ आहट दी थी। इस पांडुलिपि ने स्पष्टता के साथ ज्ञान की पारंपरिक धाराओं की स्थापित मान्यता (कि पृथ्वी ब्राहृांड का केंद्र है) के साथ अपनी असहमति की घोषणा की। कॉपर्निकस ने कहा कि पृथ्वी नहीं, बल्कि सूर्य ब्राह्मांड का केंद्र है। पारंपरिक प्रज्ञा (wisdom) के साथ असहमति वैज्ञानिक नज़रिए की पहचान है।

कॉपर्निकस की पांडुलिपि के प्रकाशन के 21 साल पहले मेजेलान का अभियान पृथ्वी की परिक्रमा कर स्पेन लौटा था। इससे यह स्थापित हुआ कि पृथ्वी गोल है। इससे इस विचार को आधार मिला कि हम सब कुछ नहीं जानते। नई जानकारियां हमारी जानकारियों को गलत साबित कर सकती हैं। कोई भी अवधारणा, विचार या सिद्धांत ऐसा नहीं होता जो पवित्र और अंतिम हो और जिसे चुनौती न दी जा सके।

अगली सदी में फ्रांसीसी गणितज्ञ रेने देकार्ते ने वैज्ञानिक तरीकों से सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने की वकालत की। अंतत: सन 1859 में चार्ल्स डार्विन द्वारा प्राकृतिक वरण से विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन किए जाने के साथ ही वैज्ञानिक विचारधारा को व्यापक स्वीकृति और सम्माननीयता मिली।

विज्ञान की पहचान इस बात में निहित है कि वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण विषयों के बारे में सामूहिक अज्ञान को खुले तौर पर स्वीकार करता है। विज्ञान का वक्तव्य है कि डार्विन ने कभी नहीं दावा किया कि वे जीव वैज्ञानिकों की आखिरी मोहर हैं और उनके पास सारे सवालों के अंतिम जवाब हैं। धर्म का आधार आस्था है, विज्ञान का आधार है परंपरा से मिली प्रज्ञा से असहमति। विज्ञान सवाल पूछने को प्रोत्साहित करता है, जबकि धर्म सवाल उठाने को निरुत्साहित करता है। 

आधुनिक विज्ञान का आधार यह स्वीकृति है कि हम सब कुछ नहीं जानते। और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि विज्ञान स्वीकार करता है कि नई जानकारियां हमारी जानकारियों को गलत साबित कर सकती हैं।

विज्ञान अज्ञान को कबूल करने के साथ-साथ नई जानकारियां इकट्ठा करने का लक्ष्य रखता है। अवलोकनों को इकट्ठा कर उन्हें व्यापक सिद्धातों में बदलने के लिए गणितीय उपकरणों का उपयोग कर ऐसा किया जाता है। आधुनिक विज्ञान नए सिद्धांत देने तक सीमित नहीं रहता, इन सिद्धांतों का उपयोग नई क्षमताएं हासिल करने और नई तकनीकों को विकसित करने में होता है। (स्रोत फीचर्स)

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शांत और सचेत रहने के लिए गहरी सांस – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वाद-विवाद प्रतियोगिता में जीतने के लिए प्रतियोगी को प्रतिद्वंद्वी की बात का जवाब सटीकता से और प्रभावशाली शब्दों में देना होता है और वह भी थोड़े-से समय में। ऐसी ही एक अन्य प्रतियोगिता होती थी: ‘तात्कालिक भाषण’। इस प्रतियोगिता में रेफरी आपसे उसकी पसंद के किसी विषय पर बोलने को कहेगा। आपको दिए गए विषय पर एक मिनट तक बोलना होगा: बीच-बीच में खांसना-खखारना, हां-हूं करना, फालतू शब्द बोलना, लंबी-लंबी सांसें लेना नहीं चलेगा। और एक मिनट में सबसे सार्थक वक्तव्य देने वाला विजेता होता है।

प्रतियोगिताओं में प्रतियोगी बेहतर प्रदर्शन कर सकें इसलिए उनके शिक्षक या कोच उन्हें प्रतियोगिता शुरू होने से पहले गहरी सांस लेने की सलाह देते हैं। इस्राइल स्थित वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के प्रोफेसर नोम सोबेल और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में इस बात की पुष्टि की है कि प्रशिक्षकों की सलाह सही है। उनका यह अध्ययन नेचर ह्रूमन बिहेवियर नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। 

अध्ययन में प्रतिभागियों को संज्ञानात्मक क्षमता से जुड़े कुछ कार्य करने को दिए गए। इनमें गणित की पहेलियां, स्थान-चित्रण से जुड़े सवाल (जैसे दिखाया गया त्रि-आयामी चित्र वास्तव में संभव है या नहीं) और कुछ शाब्दिक सवाल (स्क्रीन पर दिखाए शब्द वास्तविक हैं या नहीं) शामिल थे। शोधकर्ताओं ने इन कार्यों के दौरान प्रतिभागियों के प्रदर्शन की तुलना की और उनके सांस लेने व छोड़ने की क्रिया पर ध्यान दिया। अध्ययन के दौरान प्रतिभागी इस बात से अनजान थे कि प्रदर्शन के दौरान उनकी सांस पर नज़र रखी जा रही है। इसके अलावा प्रदर्शन के समय ई.ई.जी. की मदद से प्रतिभागियों के मस्तिष्क की विद्युतीय गतिविधियों पर भी नज़र रखी गई।

‘सूंघता’ मस्तिष्क

इस अध्ययन में तीन प्रमुख बातें उभर कर आर्इं। पहली, शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रतिभागियों का प्रदर्शन तब बेहतर था जब उन्होंने सवाल करते समय सांस अंदर ली, बनिस्बत उस स्थिति के जब उन्होंने सवाल हल करते हुए सांस छोड़ी। दूसरी, इस बात से प्रदर्शन पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि सांस मुंह से अंदर खींची जा रही है या नाक से। वैसे आदर्श स्थिति तो वही होगी जब नाक से सांस ली और छोड़ी जाए। तीसरी बात, ई.ई.जी. के नतीजों से पता चलता है कि श्वसन चक्र के दौरान मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों के बीच संपर्क अलग-अलग तरह से हुआ था।

गौरतलब बात है कि जब हम सांस लेते हैं तो हम हवा में से ऑक्सीजन अवशोषित करते हैं। तो क्या बेहतर प्रदर्शन में इस अवशोषित ऑक्सीजन की कोई भूमिका है? यह सवाल जब प्रो. सोबेल से पूछा गया तो उन्होंने इसके जबाव में कहा कि “नहीं, समय के अंतराल को देखते हुए यह संभव नहीं लगता। जबाव देने में लगने वाला समय, फेफड़ों से मस्तिष्क तक ऑक्सीजन पहुंचने में लगने वाले समय की तुलना में बहुत कम है। … सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया के प्रति सिर्फ गंध संवेदना तंत्र (सूंघने की प्रणाली) संवेदनशील नहीं होता बल्कि पूरा मस्तिष्क इसके प्रति संवेदनशील होता है। हमें तो लगता है कि हम सामान्यीकरण करके कह सकते हैं कि मस्तिष्क अंत:श्वसन (सांस खींचने) के दौरान बेहतर कार्य करता है। हम इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि ‘मस्तिष्क सूंघता’ है।”

प्राचीनतम संवेदना

यह अध्ययन इस बात की ओर भी इशारा करता है कि बिना किसी गंध के, सिर्फ सांस लेना भी तंत्रिका सम्बंधी गतिविधियों के बीच तालमेल बनाता है। यानी यह सुगंध या दुर्गंध का मामला नहीं है। शोधकर्ताओं की परिकल्पना है कि नासिका अंत:श्वसन (नाक से सांस लेने की क्रिया) ना सिर्फ गंध सम्बंधी सूचनाओं का प्रोसेसिंग करती है बल्कि गंध-संवेदी तंत्र के अलावा अन्य तंत्रों द्वारा बाह्र सूचनाओं को प्रोसेस करने में मदद करती है।

इस बात को जैव विकास के इतिहास में भी देखा जा सकता है कि अंतःश्वसन मस्तिष्क की गतिविधियों का संचालन करता है। एक-कोशिकीय जीव और पौधे हवा से वाष्पशील या गैसीय पदार्थ लेते हैं (इसे अंतःश्वसन की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है)। हम यह जानते हैं कि चूहे फुर्ती से भागते समय और आवाज़ करते समय लंबी-लंबी सांस लेते हैं। और चमगादड़ प्रतिध्वनि (इको) द्वारा स्थान निर्धारण के समय लंबी सांस लेते हैं। डॉ. ओफेर पर्ल का कहना है कि गंध प्राचीन संवेदना है, इसी के आधार पर अन्य इंद्रियों और मस्तिष्क का विकास हुआ होगा। उक्त अध्ययन के शोधकर्ता ध्यान दिलाते हैं कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में ‘इंस्पाइरेशन’(अंतःश्वसन) शब्द का मतलब सिर्फ सांस खींचना नहीं बल्कि दिमागी रूप से प्रेरित/उत्साहित होने की प्रक्रिया भी है।

योग और ध्यान

वैसे इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने ऐसा नहीं कहा है किंतु कई वैज्ञानिक यह कहते हैं कि योग (नियंत्रित तरीके से सांस लेने) से शांति और चैन मिलता है। स्टेनफोर्ड युनिवर्सिटी में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि चूहों के मस्तिष्क में 175 तंत्रिकाओं का एक समूह सांस की गति के नियंत्रक (पेसमेकर) की तरह कार्य करता है, और नियंत्रित तरीके से सांस लेना जानवरों में दिमागी शांति को बढ़ावा देता है। मनुष्यों की बात करें, तो ऑस्ट्रेलिया स्थित मोनाश युनिवर्सिटी के डॉ. बैली और उनके साथियों ने 62 लोगों के साथ एक अध्ययन किया, जिनमें से 34 लोग ध्यान करते थे और जबकि 28 लोग नहीं। दोनों समूह उम्र और लिंग के हिसाब से समान थे। तुलना करने पर उन्होंने पाया कि जो लोग ध्यान करते थे उनमें कार्य करने के लिए मस्तिष्क सम्बंधी गतिविधियां अधिक थीं। उनमें उच्चतर स्तर की मानसिक प्रक्रियाएं और संवेदी प्रत्याशा थी। बीजिंग के शोधकर्ताओं के समूह ने इसी तरह का एक अन्य अध्ययन किया। अध्ययन में 20-20 लोगों के दो समूह लिए। पहले समूह के लोगों को लंबी सांस लेने (योग की तर्ज पर 4 सांस प्रति मिनट) के लिए प्रशिक्षित किया। दूसरा समूह कंट्रोल समूह था जिन्हें सांस सम्बंधी कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था। तुलना करने पर पाया कि प्रशिक्षित किए गए समूह में कार्टिसोल का स्तर कम था और उनकी एकाग्रता लंबे समय तक बरकरार रही। अंत में, ज़कारो और उनके साथियों ने एक समीक्षा में बताया है कि धीरे-धीरे सांस लेने की तकनीक सह-अनुकंपी (पैरासिम्पेथैटिक) तंत्रिका सम्बंधी गतिविधी को बढ़ाती है, भावनाओं को नियंत्रित करती है और मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ रखती है। (स्रोत फीचर्स)

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विलुप्त होती हड्डी दोबारा उभरने लगी

वैज्ञानिकों का मानना था कि मनुष्य के घुटने पर उभरने वाली हड्डी फेबेला विकास क्रम में विलुप्त होने लगी थी। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि फेबेला फिर उभरने लगी है। इम्पीरियल कॉलेज की मिशेल बर्थोम और उनके साथियों का यह अध्ययन जर्नल ऑफ एनॉटॉमी में प्रकाशित हुआ है।

सेम की साइज़ की यह हड्डी सीसेमॉइड हड्डी है, जिसका मतलब है कि यह कंडरा के बीच धंसी रहती है। समय के साथ यह हड्डी कैसे विलुप्त हुई यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने 27 अलग-अलग देशों के 21,000 घुटनों के एक्स-रे, एमआरआई और अंग-विच्छेदन का अध्ययन किया। इन सभी से प्राप्त डैटा को एक साथ किया और उनका सांख्यिकीय विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि लगभग एक शताब्दी पूर्व की तुलना में वर्तमान समय में यह हड्डी तीन गुना अधिक मामलों में दिखती है। अध्ययन के अनुसार साल 1875 में लगभग 17.9 प्रतिशत लोगों में फेबेला उपस्थित थी जबकि वर्ष 1918 में यह लगभग 11.2 लोगों में उपस्थित थी। और 2018 में यह 39 प्रतिशत लोगों में देखी गई।

पूर्व में फेबेला बंदरों में नी कैप (घुटनों के कवच) की तरह काम करती थी। मनुष्य में विकास के साथ फेबेला की ज़रूरत कम होती गई। और यह विलुप्त होने लगी। लेकिन यह मनुष्यों में पुन: दिखने लगी है। ऐसा माना जाता है कि इस हड्डी की उपस्थित का सम्बंध घुटनों के दर्द वगैरह से है। फेबेला को गठिया या घुटनों की सूजन, दर्द और अन्य समस्याओं के साथ जोड़कर देखा जाता है। वास्तव में हड्डियों के गठिया से पीड़ित लोगों में सामान्य लोगों के मुकाबले फेबेला अधिक देखी गई है। तो आखिर किस वजह से यह लोगों में फिर उभरने लगी है।

मिशेल का कहना है कि सीसेमॉइड हड्डियां समान्यतः किसी यांत्रिक बल की प्रतिक्रिया स्वरूप विकसित होती हैं। आधुनिक मनुष्य अपने पूर्वजों की तुलना में बेहतर पोषित है, यानी पूर्वजों की तुलना में हम अधिक लंबे और भारी हैं। अधिक वज़न से घुटनों पर अधिक ज़ोर पड़ता है जिसके फलस्वरूप लोगों में फेबेला उभरने लगी है। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन मानव प्रजाति ‘हॉबिट’ से भी छोटी थी

फिलीपींस के एक द्वीप की गुफा में प्राचीन मानव प्रजाति की हड्डियां और दांत मिले हैं। मनुष्यों का यह रिश्तेदार आकार में हॉबिट से भी छोटा होता था।

लूज़ोन द्वीप पर पाए जाने के कारण इस नई प्रजाति का नाम होमो लुज़ोनेंसिस रखा गया है। यह प्रजाति इस द्वीप पर लगभग 50,000 से अधिक साल पहले प्लायस्टोसिन काल में पाई जाती थी। 4 फीट (1.2 मीटर) से कम ऊंचाई वाला होमो लुज़ोनेंसिस दूसरा ज्ञात बौना मानव है। इससे पहले होमो फ्लोरेसेंसिस (जिसे हॉबिट भी कहते हैं) के अवशेष 2004 में इंडोनेशियाई द्वीप फ्लोर्स पर पाए गए थे।

भले ही होमो लुज़ोनेंसिस आकार में छोटे हैं लेकिन इनकी कई विशेषताएं अन्य प्राचीन मानव रिश्तेदारों से मेल खाती हैं। इनके पैर और उंगलियों की हड्डियां ऑस्ट्रेलोपिथेकस (मानव और चिम्पैंजी के बीच की एक प्रजाति) की तरह घुमावदार हैं, दांतों का आकार ऑस्ट्रेलोपिथेकस, होमो हैबिलिस और होमो इरेक्टस के सामान हैं, और छोटे दांत आधुनिक मनुष्यों या होमो सेपियंस के समान दिखते हैं।

अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता और नेशनल म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री, पेरिस के पुरा-मानव विज्ञानी फ्लारेंस डाइट्रॉइट के अनुसार इन जीवाश्म घटकों में शारीरिक विशेषताओं का एक ऐसा मिश्रण दिखाई देता है जो होमो वंश की अन्य प्रजातियों में नहीं दिखाई देता। इसलिए यह एक नई प्रजाति लगती है। इससे पहले 2007 में लूज़ोन की कैलाओ गुफा में पैर के पंजे की 67,000 वर्ष पुरानी हड्डी मिली थी और उसके बाद से ही खुदाई का काम शुरू कर दिया गया। इस दौरान कुल मिलाकर 13 जीवाश्म हड्डियां और दांत मिले जो दो प्राणियों के थे। इनमें से एक 50,000 वर्ष पुराने जीवाश्म से पता चला कि होमो लुज़ोनेंसिस दरअसल होमो सेपिएंस, निएंडरथल, डेनिसोवांस और होमो फ्लोरेसेंसिस सहित अन्य मानव प्रजातियों के साथ अस्तित्व में थे।

फिलहाल यह कह पाना तो संभव नहीं है कि होमो लुज़ोनेंसिस दिखते कैसे होंगे लेकिन उनके छोटे-छोटे दांतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस प्रजाति का आकार छोटा ही होगा। साथ ही घुमावदार पंजे और उंगलियों से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे पेड़ पर चढ़ने के साथ-साथ ज़मीन पर सीधा चलने में भी माहिर थे। होमो प्रजातियां 20 लाख वर्ष पहले दो पैरों पर चलने लगी थीं, इसलिए यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि होमो लुज़ोनेंसिस वापिस पेड़ों पर चढ़ गए थे। शायद एक अलग द्वीप पर रहने के कारण उनमें यह विशेषता उभरी।

हालांकि कुछ ऐसी संभावनाएं हैं जिन पर अक्सर बात होती रही है। जैसे लूज़ोन पर 7,00,000 साल पहले के साक्ष्य से पता चला है कि कुछ एशियाई होमो इरेक्टस किसी प्रकार समुद्र पार करके यहां बस गए और लूज़ोन द्वीप के प्रभाव के कारण होमो लुज़ोनेंसिस में परिवर्तित हो गए। हालांकि वैज्ञानिक फिलिपींस की गीली और गर्म जलवायु के चलते हड्डियों से किसी भी डीएनए को निकालने में असमर्थ रहे, लेकिन फिर भी हड्डियों में मौजूद प्रोटीन से उत्पत्ति का पता लगाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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बीमारी के इलाज में वायरसों का उपयोग

वैसे तो बैक्टीरिया जनित रोगों के इलाज में वायरसों के उपयोग का विचार कई दशकों पहले उभरा था और कुछ चिकित्सकों ने इस पर हाथ भी आज़माए थे किंतु एंटीबायोटिक दवाइयों की आसान उपलब्धता के चलते यह विचार उपेक्षित ही रहा। यह आम जानकारी है कि वायरस स्वयं कई बीमारियां पैदा करते हैं। तो यह सवाल अस्वाभाविक नहीं है कि फिर इनका उपयोग बैक्टीरिया से लड़ने में कैसे होगा।

बरसों पहले यह पता चल चुका था कि कई वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित करके उन्हें मार डालते हैं। ऐसे वायरसों को बैक्टीरिया-भक्षी वायरस या बैक्टीरियोफेज कहते हैं। इसके आधार पर यह सोचा गया था कि यदि आपके पास सही बैक्टीरिया-भक्षी है तो आप बैक्टीरिया संक्रमण से निपट सकते हैं। प्रत्येक बैक्टीरिया के लिए विशिष्ट भक्षी होता है। अत: सबसे पहले तो आपको भक्षी की खोज करना होती है। ये प्रकृति में हर जगह पाए जाते हैं किंतु सही भक्षी की खोज करना आसान नहीं होता। इसके बाद समस्या यह आती थी कि एक भक्षी सारे मरीज़ों के लिए कारगर नहीं होता था। और सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि एक बार एकत्रित करने के बाद इन वायरसों को सहेजना पड़ता था। इन सब मामलों में एंटीबायोटिक कहीं ज़्यादा सुविधानक थे। इसलिए वायरस उपचार की बात चली नहीं।

मगर आज बड़े पैमाने पर बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाइयों के प्रतिरोधी हो चले हैं। दुनिया भर में यह चिंता व्याप्त है कि एंटीबायोटिक के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध के चलते कहीं हम उस युग में न लौट जाएं जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं। यदि वैसा हुआ तो आधुनिक चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा खतरे में पड़ जाएगी। इस माहौल में एक बार फिर वायरस चिकित्सा की चर्चा शुरू हुई है।

हाल ही में कुछ अस्पतालों में वायरस-उपचार के सफल उपयोग के समाचार मिले हैं। टेक्नॉलॉजी के स्तर पर भी हम काफी आगे बढ़े हैं। भक्षी वायरसों को पहचानना, एकत्रित करना और सहेजना अब ज़्यादा आसान हो गया है। अत: वायरस-उपचार अनुसंधान में तेज़ी आई है। (स्रोत फीचर्स)

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दृष्टिबाधितों की सेवा में विज्ञान – नवनीत कुमार गुप्ता

दृष्टिबाधितों को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दुनिया के लगभग चार करोड़ नेत्रहीनों में से डेढ़ करोड़ भारत में रहते हैं। दृष्टिहीन होने का तात्पर्य सामान्यतया देख सकने में पूरी तरह असमर्थता है। हालांकि दृष्टिहीनता में देख सकने की क्षमता के विभिन्न स्तर और कभी-कभी भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में शामिल होते हैं।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसे कार्य हो रहे हैं जो दृष्टिबाधितों के जीवन के लिए सहायक साबित हो रहे हैं। यहां दो ऐसी ही प्रौद्योगिकियों की चर्चा की जा रही है।

डॉटबुक

आधुनिक समय में दृष्टिबाधितों के समक्ष एक बड़ी चुनौती कंप्यूटर या लैपटॉप तथा उनके ज़रिए इंटरनेट जैसी सुविधाओं का इस्तेमाल करना है। दृष्टिबाधितों को ये सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए आई.आई.टी., दिल्ली ने कुछ अन्य संस्थाओं की मदद से भारत का पहला ब्रोल लैपटॉप (डॉटबुक) आरम्भ किया है। इस उपकरण में उभरे हुए डॉट के रूप में ब्रोल लिपि है।

दृष्टिबाधितों के सशक्तिकरण के लिए उनमें स्वयं सीखने की क्षमता विकसित करना आवश्यक है, जिसमें ब्रोल लिपि काफी मददगार है। डॉटबुक पढ़ने, लिखने, सुनने, ब्रााउज़ करने तथा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों का संपादन करने में सक्षम है। इसे लैपटॉप, कंप्यूटर, वेब, मोबाइल के तार, वाईफाई तथा ब्लूटूथ के साथ भी जोड़ा जा सकता है। डॉटबुक स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में लोगों को आवश्यक सामग्रियां उपलब्ध कराएगा। डॉटबुक  के द्वारा स्कूली छात्रों को डिजिटल रूप में नोट्स उपलब्ध होंगे। ब्रोल लिपि के ऑनलाइन रुाोेतों के द्वारा पुस्तकें भी डाउनलोड की जा सकती हैं।

टीम ने देश भर के 10 से अधिक स्थलों पर विभिन्न संगठनों के 200 उपयोगकर्ताओं के साथ इसका अध्ययन किया है। इसने ऐसे लोगों के लिए दुनिया के साथ आसान संचार का रास्ता खोल दिया है, जो ब्रोल लिपि में लिख-पढ़ सकते हैं।

दिव्य नयन

चंडीगढ़ स्थित सीएसआईआर के केंद्रीय वैज्ञानिक उपकरण संगठन द्वारा दिव्य नयन नामक एक उपकरण विकसित किया गया है जिसकी मदद से दृष्टिहीन व्यक्ति भी पढ़ सकेंगे। दिव्य नयन यानी हैंड-हेल्ड स्टेप स्कैनिंग डिवाइस (एचएचएसएस)। यह ‘बोलने वाली आंखों’ की तरह काम करता है।

एचएचएसएस एक हस्तधारित उपकरण है जिसमें कोई भी गतिशील पुर्जा नहीं है, जिससे यह काफी हल्का होता है और उपयोग के लिए आसान हो जाता है। यह किसी पुस्तक के आकार का एक फील्ड व्यू प्रदान करता है।

यह उपकरण स्टैंड अलोन, पोर्टेबल और पूरी तरह से तार रहित है और आईओटी सक्षम है। वर्तमान में यह हिंदी और अंग्रेज़ी में उपलब्ध है, लेकिन अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं के लिए भी अनुकूल है। इस उपकरण में 32 जीबी का इंटरनल स्टोरेज है, यह वायरलेस कम्युनिकेशन फीचर से सुसज्जित है। विभिन्न संस्थानों और गैर सरकारी संगठनों में दिव्य नयन का सफल परीक्षण आयोजित किया गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खेती के बाद शामिल हुए नए अक्षर

बातचीत में हम ‘फ’ और ‘व’ अक्षरों का आसानी से उच्चारण कर लेते हैं। लेकिन एक समय था जब इन अक्षरों का उच्चारण करना इतना आसान न था, बल्कि ये अक्षर तो भाषा में शामिल भी नहीं थे। हाल ही में नेचर इंडिया में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि मानवों में ‘फ’ और ‘व’ बोलने की क्षमता, खेती के फैलने और मानवों द्वारा पका हुआ भोजन खाने की संस्कृति की बदौलत विकसित हुई है।

1985 में अमेरिकी भाषा विज्ञानी चार्ल्स हॉकेट ने इस ओर ध्यान दिलाया था कि हज़ारों वर्ष पहले शिकारियों की भाषा में दंतोष्ठ्य ध्वनियां शामिल नहीं थीं। उनका अनुमान था कि इन अक्षरों की कमी के लिए आंशिक रूप से उनका आहार ज़िम्मेदार था। उनके अनुसार खुरदरा और रेशेदार भोजन चबाने से जबड़ों पर ज़ोर पड़ता है जिसके कारण दाढ़ें घिस जाती हैं। इसके फलस्वरूप निचला जबड़ा बड़ा हो जाता है। इस तरह धीरे-धीरे ऊपरी और निचला जबड़ा और दांत एक सीध में आ जाते हैं। दांतों की इस तरह की जमावट के कारण ऊपरी जबड़ा नीचे वाले होंठ को छू नहीं पाता। दंतोष्ठ्य ध्वनियों के उच्चारण के लिए ऐसा होना ज़रूरी है।

डैमियल ब्लैसी और स्टीवन मोरान और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में चार्ल्स हॉकेट के इस विचार को जांचा। अध्ययन के अनुसार मानव द्वारा मुलायम (पका हुआ) भोजन खाने से जबड़ों पर कम दबाव पड़ा। कम दबाव पड़ने के कारण उनका ऊपरी जबड़ा निचले जबड़े की सीध में न होकर निचले जबड़े को थोड़ा ढंकने लगा। जिसके कारण इन ध्वनियों को बोलने में आसानी होने लगी और भाषा में नए शब्द जुड़े।

अध्ययनकर्ताओं ने हॉकेट के विचार को जांचने के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग की मदद ली। इसकी मदद से उन्होंने यह दिखाया कि ऊपरी और निचले दांतों के ठीक एक के ऊपर एक होने की तुलना में जब ऊपरी और निचले दांत ओवरलैप (ऊपरी जबड़ा निचले जबड़े को ढंक लेता है) होते हैं तो दंतोष्ठ्य (फ और व) ध्वनि के उच्चारण में 29 प्रतिशत कम ज़ोर लगता है। इसके बाद उन्होंने दुनिया की कई भाषाओं की जांच की। उन्होंने पाया कि कृषि आधारित सभ्यताओं की भाषा की तुलना में शिकारियों के भाषा कोश में सिर्फ एक चौथाई दंतोष्ठ्य अक्षर थे। इसके बाद उन्होंने भाषाओं के बीच के सम्बंध को देखा और पाया कि दंतोष्ठ्य ध्वनियां तेज़ी से फैलती हैं। इसी कारण ये अक्षर अधिकांश भाषाओं में मिल जाते हैं।

इस अध्ययन के नतीजे इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि जीवन शैली में बदलाव हमें कई तरह से प्रभावित कर सकते हैं, ये हमारी भाषा को भी प्रभावित कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान कांग्रेस: भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का वक्तव्य

जालंधर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस में कई वक्ताओं ने दावे किए कि सारा आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान प्राचीन भारत में पहले से ही उपलब्ध था। प्रस्तुत है भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा ऐसे अपुष्ट, मनगढ़ंत दावों पर सवाल उठाता और वैज्ञानिक दष्टिकोण की मांग करता वक्तव्य।

हाल ही में जालंधर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस के दौरान आंध्र प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति और कई अन्य लोगों द्वारा इन-विट्रो निषेचन (परखनली शिशु), स्टेम कोशिकाओं के ज्ञान और सापेक्षता एवं गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर टिप्पणियों ने वैज्ञानिक समुदाय को चौंका दिया है।

भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA), जो लगभग 1000 प्रख्यात वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों का एक निकाय है, स्पष्ट रूप से इस तरह के किसी भी दावे को अस्वीकार और रद्द करती है। यह बयान वैज्ञानिक प्रमाण और सत्यापन योग्य डैटा की तार्किक व्याख्या पर आधारित नहीं हैं। आईएनएसए कई अन्य ऐसे दावों को भी रद्द करता है जो मज़बूत प्रमाणों और तर्कों से रहित हैं, तथा बिना किसी वैज्ञानिक अनुसंधान के किए गए हैं। विज्ञान तथ्यों पर भरोसा करता है और उसी के आधार पर उन्नति करता है। आईएनएसए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सत्यापन योग्य सबूतों के तार्किक तरीके से उपयोग की वकालत करता है। हाल ही में जारी किए गए वक्तव्य किसी भी वैज्ञानिक गहनता से दूर हैं और उन्हें सख्ती के साथ त्यागने और नज़रअंदाज़ करने की आवश्यकता है। काव्यात्मक कल्पनाओं को सुदूर अतीत की वैज्ञानिक प्रगति का द्योतक मानना निश्चित रूप से अस्वीकार्य है।

एक वैज्ञानिक निकाय के रूप में, आईएनएसए को भारत की वास्तुकला, खगोल विज्ञान, आयुर्वेद, रसायन विज्ञान, गणित, धातुकर्म और इसी तरह के अन्य क्षेत्रों में विज्ञान व प्रौद्योगिकी उपलब्धियों की समृद्ध परंपरा पर गर्व है। आईएनएसए विज्ञान के इतिहास में अनुसंधान को प्रोत्साहित करता है और इस विषय में गंभीर शोध परियोजनाओं का समर्थन भी करता है। यहां तक कि इस विषय की एक लोकप्रिय शोध पत्रिका भी प्रकाशित करता है। अच्छी तरह से शोध की गई कई किताबें भी इन उपलब्धियों पर प्रकाशित हुई हैं। ये किताबें सभी के लिए मुक्त रूप से उपलब्ध हैं।

आईएनएसए ने इस तरह के किसी भी अपुष्ट विचार का समर्थन न तो किया है, न आज करता है और न ही आगे कभी करेगा चाहे वे भारतीय विज्ञान कांग्रेस जैसे प्रतिष्ठित मंचों पर प्रस्तुत हों या किसी भी स्तर की प्रशासनिक प्रतिष्ठा रखने वाले व्यक्तियों द्वारा प्रस्तावित किए जाएं। मीडिया में तात्कालिक प्रचार के प्रलोभन के बावजूद, कल्पना और तथ्यों को अलग-अलग रखना ज़रूरी है।

आईएनएसए, सभी स्तरों पर सावधानी बरतने का आग्रह करता है और यह सुझाव देता है कि सार्वजनिक रूप से इस तरह के बयान देने से पहले जांच की वैज्ञानिक प्रक्रिया सुनिश्चित की जानी चाहिए। इस तरह का परिश्रम जनता और छात्र समुदाय की सेवा होगी और इससे वैज्ञानिक स्वभाव को बढ़ावा और विकास प्रक्रिया को गति मिलेगी।

अपनी बात को दोहराते हुए, प्राचीन साहित्य को तथ्यों/प्रमाणों के तौर पर प्रस्तुत करने को अकादमी अनैतिक मानती है क्योंकि इन्हें किसी वैज्ञानिक विश्लेषण के अधीन नहीं किया जा सकता है। ऐसी प्रथाएं स्पष्ट रूप से अवांछनीय हैं। साहित्य के साथ-साथ विज्ञान में भी कल्पना का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन इसके साथ भ्रम पैदा करना बिलकुल अवैज्ञानिक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जुड़वां बच्चों के संसार में एक विचित्रता – सुशील जोशी

म तौर पर माना जाता है कि जुड़वां बच्चे हूबहू एक समान होते हैं। जुड़वां बच्चों की थीम पर बनी हिंदी फिल्मों ने इस धारणा को काफी बल दिया है। लेकिन तथ्य यह है कि दुनिया भर में जितने जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं उनमें से मात्र लगभग 10 प्रतिशत ही ऐसे ‘फिल्मी’ जुड़वां होते हैं। आम तौर पर जुड़वां बच्चे दो प्रकार के होते हैं – समान और असमान। इन दोनों के निर्माण के तरीके में अंतर है। तकनीकी भाषा में इन्हें एकयुग्मज (समान) और द्वियुग्मज (असमान) जुड़वां कहते हैं। हाल ही में एक रिपोर्ट आई है कि ऐसे जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ है जो न तो पूरी तरह समान हैं न पूरी तरह असमान; ये आंशिक रूप से समान हैं। इस बात को समझने के लिए पहले जुड़वां बच्चों की बात को समझना आवश्यक है।

द्वियुग्मज जुड़वां बच्चे दो अलग-अलग अंडाणुओं के दो अलग-अलग शुक्राणुओं के साथ मेल के द्वारा विकसित होते हैं। स्त्री शरीर में सामान्य व्यवस्था यह है कि प्रति माह दो में से किसी एक अंडाशय में से अंडाणु मुक्त होता है। इस अंडाणु के किसी शुक्राणु से मिलन (निषेचन) के फलस्वरूप युग्मज यानी ज़ायगोट बनता है। यही ज़ायगोट विकसित होकर भ्रूण तथा शिशु का रूप लेता है। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि एक ही समय पर दोनों अंडाशयों में से एक-एक अंडाणु मुक्त हो जाता है। यदि इन दोनों का निषेचन हो जाए तो दो ज़ायगोट बन जाते हैं। दोनों ज़ायगोट बच्चादानी में जुड़ सकते हैं और आगे विकास जारी रख सकते हैं। चूंकि ये दोनों अलग-अलग अंडाणुओं और अलग-अलग शुक्राणुओं के निषेचन से बने हैं इसलिए इनमें उतनी ही समानता होती है जितनी किन्हीं भी दो भाई-बहनों के बीच होती है। अंतर सिर्फ यह होता है कि ये दोनों एक साथ एक ही समय पर गर्भाशय में पलते हैं। इनमें दोनों लड़के, दोनों लड़कियां या एक लड़का और एक लड़की भी हो सकते हैं।

दूसरी ओर, एकयुग्मज जुड़वां (यानी समान जुड़वां) एक ही अंडाणु के एक ही शुक्राणु द्वारा निषेचन से पैदा होते हैं। इनमें जो ज़ायगोट बनता है वह निषेचन के बाद दो भागों में बंट जाता है और दोनों से शिशुओं का विकास होता है। इनमें आनुवंशिक सामग्री एक ही होती है और इसलिए ये हूबहू एक जैसे होते हैं। एकयुग्मज जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़कियां।

जिन कोशिकाओं से शुक्राणु और अंडाणु बनते हैं उनमें प्रत्येक गुणसूत्र की दो-दो प्रतियां पाई जाती हैं। शुक्राणु/अंडाणु बनते समय इनमें से एक ही प्रति उनमें जाती है। इस प्रकार से शुक्राणु/अंडाणु में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति होती है। निषेचन के समय हरेक गुणसूत्र की एक प्रति शुक्राणु से और एक प्रति अंडाणु से आती है। इस प्रकार से बच्चे अपने माता या पिता से 50-50 प्रतिशत आनुवंशिक सामग्री प्राप्त करते हैं।

लेकिन यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि इनके अलावा एक तीसरे किस्म के जुड़वां बच्चे भी होते हैं जिन्हें अर्ध-समान जुड़वां या सेमी-आइडेंटिकल ट्विन्स कहते हैं। ये बहुत बिरले होते हैं और यह भी पता नहीं है कि दुनिया में ऐसे आंशिक-समान जुड़वां कितने हैं – रिकॉर्ड में तो मात्र 1 था। हाल ही में दी न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में ऐसे ही अर्ध-समान जुड़वां के जन्म की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इनका जन्म जनवरी 2014 में ऑस्ट्रेलिया में हुआ था। रिपोर्ट में बताया गया है कि इनमें मां से मिलने वाले तो सारे जीन्स एक जैसे हैं मगर पिता से आए तीन-चौथाई जीन्स ही एक-दूसरे से मेल खाते हैं।

उक्त शोधपत्र के प्रमुख लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड बायोमेडिकल इनोवेशन के माइकेल गैबेट ने बताया है कि ऐसे अर्ध-समान जुड़वां पहली बार 2007 में यूएस में जन्म के बाद पहचाने गए थे। इस बार जो जुड़वां पहचाने गए हैं उन्हें सबसे पहले गर्भ में ही सोनोग्राफी की मदद से पहचाना गया था। पहली सोनोग्राफी में पता चला था कि वे समान जुड़वां हैं। मगर कुछ समय बाद यह देखकर डॉक्टरों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि ये दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की थे। समान जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़की।

इसके बाद डॉक्टरों ने उनके गर्भजल की जांच की। दोनों बच्चे अलग-अलग गर्भजल थैलियों में बढ़ रहे थे। इस जांच में पता चला कि इन जुड़वां में मां के 100 प्रतिशत जीन्स एक समान थे किंतु पिता के मात्र 78 प्रतिशत जीन्स ही समान थे।

तो ये अर्ध-समान जुड़वां कैसे बने? गैबेट ने इसे समझाने के लिए एक परिकल्पना प्रस्तुत की है। उनके मुताबिक संभवत: हुआ यह है कि एक अंडाणु को दो शुक्राणुओं ने निषेचित किया। प्रत्येक शुक्राणु में गुणसूत्र का अपना-अपना सेट होता है। यानी अंडाणु के गुणसूत्र दो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों से मिल गए। एक बार निषेचन हो जाने के बाद अंडाणु अभेद्य हो जाता है – एक शुक्राणु के अंडाणु में प्रवेश के बाद दूसरे शुक्राणु अंदर नहीं पहुंच सकते। यानी संयोगवश ये दो शुक्राणु एक ही समय पर अंडाणु से टकराए होंगे और दोनों को प्रवेश मिल गया होगा। तो अंदर गुणसूत्रों के तीन सेट हो गए होंगे। ये तीन कोशिकाओं में बंटे होंगे – एक में अंडाणु और प्रथम शुक्राणु के गुणसूत्र, दूसरी में अंडाणु और दूसरे शुक्राणु के गुणसूत्र तथा तीसरी में दोनों शुक्राणुओं के गुणसूत्र। संतान के विकास के लिए माता-पिता दोनों के गुणसूत्र होना ज़रूरी है। लिहाज़ा तीसरी कोशिका की मृत्यु हो गई होगी। शेष दो कोशिकाएं आपस में मिल गई होंगी और फिर दो में विभाजित होकर दो शिशु विकसित हुए होंगे।

एक परिकल्पना यह भी प्रस्तुत की गई है कि पहले कोई अनिषेचित अंडाणु दो में बंट जाता है और ये दोनों भाग आपस में जुड़े रह जाते हैं। इन दोनों का ही निषेचन हो सकता है। इन दोनों अंडाणुओं का निषेचन अलग-अलग शुक्राणुओं से हो जाता है और निषेचन के बाद ये आपस में मिल जाते हैं। कुछ समय विकास के बाद यह मिला-जुला अंडा फिर से दो में विभाजित होकर दो शिशुओं को जन्म देता है। इस तरह से इन दोनों में मां के तो सारे गुणसूत्र एक जैसे होंगे मगर पिता के दो शुक्राणुओं से प्राप्त मिले-जुले गुणसूत्र होंगे।

इन जुड़वां में कुछ और भी विचित्रताएं हैं। जैसे दोनों में नर व मादा दोनों लिगों के गुणसूत्र हैं। मनुष्य में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। इनमें से 22 जोड़ियों में तो दोनों गुणसूत्र एक-दूसरे के पूरक होते हैं मगर 23वीं जोड़ी के गुणसूत्र भिन्न-भिन्न होते हैं। इन्हें एक्स और वाय गुणसूत्र कहते हैं। 23वीं जोड़ी के दोनों गुणसूत्र एक्स हों तो लड़की बनती है और यदि 23वीं जोड़ी में एक एक्स तथा दूसरा वाय गुणसूत्र हो तो लड़का बनता है। ऑस्ट्रेलियाई जुड़वां में दोनों की कुछ कोशिकाओं में एक्स-एक्स जोड़ी है जबकि कुछ कोशिकाओं में एक्स-वाय जोड़ी है। विभिन्न कोशिकाओं में इस तरह से नर व मादा गुणसूत्र जोड़ियों का पाया जाना कई समस्याओं को जन्म देता है। जब डॉक्टरों ने जुड़वां में से लड़की के अंडाशय की जांच की तो पाया कि उसमें कुछ ऐसे परिवर्तन हुए हैं जो कैंसर को जन्म दे सकते हैं। ऐहतियात के तौर पर उसके अंडाशय हटा दिए हैं। अच्छी खबर यह है कि ये दो जुड़वां बच्चे अब साढ़े चार साल के हो चुके हैं और सामान्य ढंग से विकसित हो रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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