रिवाज़ों को तोड़ते बैक्टीरिया

माना जाता है कि बैक्टीरिया में गुणसूत्रों को पैकेज नहीं किया जाता और वे कोशिका द्रव्य में खुले पड़े रहते हैं। लेकिन बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक अध्ययन में 2 बैक्टीरिया प्रजातियों में गुणसूत्रों के कुछ हिस्सों के आसपास हिस्टोन नामक प्रोटीन लिपटे होने की रिपोर्ट दी गई है। अन्य जीवों में भी हिस्टोन गुणसूत्रों के पैकेजिंग में मदद करते हैं लेकिन व्यवस्था बिलकुल अलग होती है। जैसे केंद्रकीय (यूकेरियोटिक) जीवों में हिस्टोन डीएनए के आसपास नहीं लिपटा होता बल्कि डीएनए हिस्टोन के आसपास लिपटा होता है।

दरअसल, हिस्टोन गुणसूत्रों को सहारा देता है और उन पर उपस्थित जीन्स की अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता है। मान्यता थी कि बैक्टीरिया में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती। लेकिन बैक्टीरिया जीनोम के अधिकाधिक खुलासे के साथ हिस्टोन से सम्बंधित जीन्स मिलने लगे थे और लगने लगा था कि बैक्टीरिया में हिस्टोन जैसा कुछ होता होगा।

मज़ेदार बात यह है कि विविध केंद्रकीय कोशिकाओं में हिस्टोन की संरचना और कार्य में काफी एकरूपता होती है, गोया हिस्टोन पर जैव विकास का कोई असर ही नहीं हुआ है। इस एकरूपता को देखते हुए यह विचार स्वाभाविक है कि शायद इसका कोई विकल्प ही नहीं है।

इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के टोबियास वारनेके और एंतोन थोचर ने दो बैक्टीरिया प्रजातियों का अध्ययन करने की ठानी। ये दो प्रजातियां थी – एक रोगजनक लेप्टोसोरिया इंटरोगैन्स और दूसरी डेलोविब्रियो बैक्टीरियोवोरसडेलोविब्रियो बैक्टीरियोवोरस एक ऐसा बैक्टीरिया है जो दूसरे बैक्टीरिया में घुसकर उसे अंदर ही अंदर पचा डालता है।

शोधकर्ताओं ने बैक्टीरियोवोरस से हिस्टोन प्रोटीन को पृथक करके उसकी संरचना का विश्लेषण किया – स्वतंत्र स्थिति में भी और डीएनए के साथ अंतर्क्रिया करते हुए भी। देखा गया कि बैक्टीरिया का हिस्टोन न तो आर्किया के समान व्यवहार करता है और न ही केंद्रकयुक्त कोशिकाओं के समान। बैक्टीरिया का हिस्टोन दो-दो की जोड़ी में डीएनए के आसपास लिपटा होता है जबकि केंद्रक युक्त कोशिकाओं में हिस्टोन साथ आकर एक स्तंभ सा बनाते हैं और डीएनए इसके इर्द-गिर्द लिपटा होता है।

वैसे तो अभी इस अवलोकन को वास्तविक कोशिका में देखा जाना बाकी है लेकिन शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस तरह आसपास लिपटा हुआ हिस्टोन बैक्टीरिया द्वारा यहां-वहां बिखरे डीएनए के खंडों को अर्जित करने से बचाव करता होगा।

बेल्जियम स्थित कैथोलिक विश्वविद्यालय के जेराल्डीन लैलू ने देखा है कि जब यह बैक्टीरिया कोशिका के अंदर न होकर स्वतंत्र विचरण कर रहा होता है तब इसका डीएनए काफी सघनता से पैक किया हुआ होता है। उक्त अवलोकन शायद इस घनेपन की व्याख्या कर सकता है।  

उपरोक्त अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने हज़ारों बैक्टीरिया के जीनोम्स के सर्वेक्षण में पाया कि आम मान्यता के विपरीत लगभग 2 प्रतिशत बैक्टीरिया-जीनोम्स में हिस्टोन-नुमा प्रोटीन के जीन्स होते हैं यानी काफी सारे बैक्टीरिया में हिस्टोन की उपस्थिति संभव है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भोजन और हमजोली के बीच चुनाव

हावत है कि भूखे पेट भजन न होए गोपाला! लेकिन हालिया अध्ययन में देखा गया है कि चूहों को ‘उल्लू’ बनाया जा सकता है कि वे हल्की-फुल्की भूख होने पर भी भोजन की बजाय विपरीत लिंग के साथ मेलजोल को प्राथमिकता देने लगें।

यह तो मालूम था कि लेप्टिन नामक हार्मोन मस्तिष्क में तंत्रिकाओं के एक समूह को सक्रिय कर भूख के एहसास को दबाता है। कोलोन विश्वविद्यालय की न्यूरोसाइंटिस्ट ऐनी पेटज़ोल्ड और उनके साथी यह देखना चाह रहे थे कि भोजन या साथी के बीच चुनाव करने में लेप्टिन की क्या भूमिका है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने कुछ नर चूहों को लेप्टिन दिया और उनका अवलोकन किया। अध्ययन के दौरान, पूरे दिन के भूखे चूहे भी खाने से भरे कटोरे की ओर नहीं गए (जैसी कि अपेक्षा थी) लेकिन साथ ही वे चुहियाओं के साथ मेलजोल बढ़ाते भी दिखे।

सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित ये नतीजे सामाजिक व्यवहार में लेप्टिन की एक नई व आश्चर्यजनक भूमिका दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों को तंत्रिका विज्ञान के एक अहम सवाल के जवाब की ओर एक कदम आगे बढ़ाते हैं – कि कैसे जीव अपनी मौजूदा ज़रूरतों के सामने विभिन्न व्यवहारों को प्राथमिकता देते हैं।

शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क के तथाकथित भूख केंद्र (पार्श्व हाइपोथैलेमस) की तंत्रिकाओं की जांच की। टीम ने देखा कि लेप्टिन के प्रति संवेदी तंत्रिकाएं तब सक्रिय हुईं जब चूहे विपरीत लिंग के चूहों से मिले। ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक की मदद से इन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने से भी इस बात की संभावना बढ़ गई कि चूहे विपरीत लिंग के चूहों के पास जाएंगे। ये दोनों परिणाम बताते हैं कि लेप्टिन नामक हार्मोन सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा देने में भी भूमिका निभाता है।

लेकिन जब चूहों को पांच दिन तक सीमित भोजन दिया गया तब उन्होंने साथी की बजाय भोजन को प्राथमिकता दी। अर्थात लंबी भूख ने अन्य प्रणालियों को सक्रिय कर दिया और भोजन को वरीयता मिलने लगी। लेप्टिन आम तौर पर तब पैदा होता है जब जंतु की ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति हो गई हो। तब वह अपनी अन्य ज़रूरतों पर ध्यान दे सकता है, अपने व्यवहार की प्राथमिकताएं बदल सकता है।

शोधकर्ताओं ने उन तंत्रिकाओं का भी अध्ययन किया जो न्यूरोटेंसिन नामक हार्मोन बनाती हैं – यह हार्मोन प्यास से सम्बंधित है। देखा गया कि इन तंत्रिकाओं की सक्रियता ने भोजन या सामाजिक व्यवहार की बजाय प्यास बुझाने को तवज्जो दी।

चूहों में लेप्टिन और सामाजिक व्यवहारों के बीच सम्बंध समझकर इस बारे में समझा जा सकता है कि क्यों ऑटिज़्म से ग्रस्त कुछ लोग खाने की विचित्र प्रकृति दर्शाते हैं, या बुलीमिया से ग्रस्त कुछ लोगों में सामाजिक भय (सोशल फोबिया) दिखता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अछूते जंगलों में भी कीटों की संख्या में गिरावट

हाल के दशक में कीटनाशकों के उपयोग, कीटों के आवास स्थलों के विनाश जैसी मानव गतिविधियों के कारण कीटों की संख्या में काफी गिरावट हुई है। लेकिन एक अध्ययन में पाया गया है कि कुछ मधुमक्खियों और तितलियों की संख्या में कमी उन जगहों पर भी हुई है, जो सीधे तौर पर इन्सानों से अछूती हैं।

देखा गया है कि पिछले 15 सालों में, दक्षिण-पूर्वी यूएस के एक जंगल में मधुमक्खियों की आबादी में 62.5 प्रतिशत की और तितलियों की आबादी में 57.6 प्रतिशत की कमी आई है। इसके अलावा, मधुमक्खियों की प्रजातियों की संख्या (विविधता) में भी 39 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ओकोनी राष्ट्रीय वन के तीन जंगलों में वर्ष 2007 से 2022 के बीच पांच बार कीटों का सर्वेक्षण किया था। इन जंगलों में मनुष्यों की आवाजाही अपेक्षाकृत कम थी और यहां चीनी प्रिवेट जैसे घुसपैठिए पौधे भी नहीं थे।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन यहां मधुमक्खियों और तितलियों के अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन और गर्माती धरती के पीछे भी मनुष्य का ही हाथ है। इसके अलावा, एक संदेह घुसपैठिए कीटों पर भी है, खासकर स्माल कारपेंटर मधुमक्खियों और पत्तियां कुतरने वाली मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट के लिए ये कीट ज़िम्मेदार हो सकते हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार, यही प्रजातियां सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं। इसका संभावित कारण हो सकता है कि या तो लकड़ी पर छत्ता बनाने वाली और पत्ती कुतरने वाली घुसपैठी मधुमक्खियों ने इन मधुमक्खियों को उनकी जगह से खदेड़ दिया होगा, या उनके छत्ते उन्हें बढ़ते तापमान से बचा नहीं पाए होंगे। बहरहाल, कारण जो भी हो, स्थिति चिंताजनक है। (स्रोत फीचर्स)

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शोधपत्र में जालसाज़ी, फिर भी वापसी से इन्कार

प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका दी प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी: बायोलॉजिकल साइंसेज़ का कहना है कि वह एनीमोन मछली के व्यवहार पर प्रकाशित एक शोध पत्र वापस नहीं लेगा, जबकि विश्वविद्यालय की एक लंबी जांच में यह पाया गया है कि यह मनगढ़ंत है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र खोजी पैनल ने पिछले साल एक मसौदा रिपोर्ट में कहा था कि 2016 के इस अध्ययन में विसंगतियां और दिक्कतें पाई गईं थीं। लेकिन पत्रिका ने अपने 1 फरवरी के संपादकीय नोट में कहा है कि उनकी अपनी जांच में इस अध्ययन में धोखाधड़ी के पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, और कुछ जगहों पर लेखकों द्वारा किए गए सुधार ने शोध पत्र की प्रमुख समस्या हल कर दी है।

डीकिन युनिवर्सिटी के मत्स्य शरीर-क्रिया विज्ञानी टिमोथी क्लार्क का कहना है कि पत्रिका का यह निर्णय तकलीफदेह है। क्लार्क उस अंतर्राष्ट्रीय समूह का हिस्सा हैं जिन्होंने इस शोध पत्र में समस्याएं पाई थीं और उसके खिलाफ आवाज़ उठाई थी।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के समुद्री पारिस्थितिकीविद डेनिएल डिक्सन और सदर्न क्रॉस युनिवर्सिटी की अन्ना स्कॉट द्वारा लिखित यह शोध पत्र वर्ष 2008 से 2018 के बीच प्रकाशित उन 22 अध्ययनों में से एक है जिन्हें क्लार्क और उनके साथियों ने फर्ज़ी बताया है। आरोप विशेषकर डिक्सन और उनके साथी फिलिप मुंडे पर हैं। लेकिन दोनों ने इस आरोप को गलत बताया है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र पैनल ने डिक्सन के काम की जांच में पाया था कि डिक्सन के कई शोध पत्रों में लगातार लापरवाही बरतने, रिकॉर्ड ठीक से न रखने, डैटा शीट में दोहराव (कॉपी-पेस्ट) करने और त्रुटियां करने का पैटर्न दिखता है। यह भी निष्कर्ष निकला था कि कई शोध पत्र में शोध कदाचार भी दिखता है। इसलिए डेलावेयर विश्वविद्यालय ने पत्रिकाओं से उनके तीन शोध पत्र वापस लेने को कहा था।

उनमें से एक 2016 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसमें अध्ययन में लगा समय शोध पत्र में वर्णित प्रयोगों की बड़ी संख्या को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं लगता और उनके द्वारा साझा की गई एक्सेल डैटा शीट में 100 से अधिक आंकड़ों का दोहराव मिला था। इससे पता चलता है कि यह डैटा वास्तविक नहीं हो सकता। साइंस पत्रिका ने अगस्त 2022 में यह शोध पत्र वापस ले लिया था।

जांच समिति के अनुसार प्रोसीडिंग्स बी में प्रकाशित शोध पत्र भी इसी तरह की समस्याओं से ग्रस्त था। इस पेपर का निष्कर्ष है कि एनीमोन मछलियां “सूंघकर” भांप सकती हैं कि प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ) बदरंग हैं या स्वस्थ। उनका यह निष्कर्ष प्रयोगों की एक शृंखला पर आधारित था जिसमें मछलियों को एक प्रयोगशाला उपकरण (जिसे चॉइस फ्लूम कहा जाता है) में रखा गया था, जिसमें वे तय कर सकती थीं कि उन्हें किस दिशा में तैरना है।

ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार, डिक्सन ने 9-9 मिनट लंबे 1800 परीक्षणों से अध्ययन का डैटा एकत्रित किया था। जांच समिति का कहना है कि यदि डिक्सन ने एक ही फ्लूम इस्तेमाल किया है तो इतने परीक्षणों को पूरा करने के लिए उन्हें अविराम 12 घंटे काम करते हुए 22 दिन लगेंगे, जिसमें बीच में किसी तरह की तैयारी, उपकरणों को जमाना, सफाई, मछलियों को बाल्टी से उपकरण में स्थानांतरित करने आदि का समय शामिल नहीं है। (और इसी दौरान, डिक्सन को प्रयोग कक्ष के अंदर-बाहर 1800 लीटर समुद्री जल भी लाना ले जाना होगा।) लेकिन डिक्सन के शोध पत्र के अनुसार यह प्रयोग 12 से 24 अक्टूबर 2014 तक चला, यानी केवल 13 दिन में यह परीक्षण पूरा हो गया।

इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स बी के प्रधान संपादक स्पेंसर बैरेट का कहना है कि विश्वविद्यालय ने पिछले साल शोध पत्र वापसी का अनुरोध किया था लेकिन उन्होंने हमारे साथ समिति की जांच रिपोर्ट यह कहते हुए साझा नहीं की थी कि वह गोपनीय है। मैं जानना चाहता हूं कि उनके उक्त अनुरोध के पीछे सबूत क्या थे।

बैरेट आगे कहते हैं कि पत्रिका के तीन संपादकों ने स्वतंत्र विशेषज्ञों की मदद से 6 महीने में मामले की जांच की, जिसके परिणामस्वरूप 59 पन्नों की जांच रिपोर्ट तैयार हुई है। इसी बीच, स्कॉट और डिक्सन ने जुलाई 2022 में पेपर में एक सुधार किया, जिसमें उन्होंने कहा कि प्रयोग वास्तव में 5 अक्टूबर से 7 नवंबर 2014 के बीच यानी 33 दिन चला, और उन्होंने एक साथ दो फ्लूम का इस्तेमाल किया था। (डिक्सन ने अन्य अध्ययनों में भी दो फ्लूम उपयोग करने के बारे में बताया है। हालांकि विश्वविद्यालय की जांच समिति यह समझ नहीं पा रही है कि वे हर 5 सेकंड में एक साथ दो फ्लूम में मछली के व्यवहार को किस तरह देख और दर्ज कर सकते हैं।)

प्रोसीडिंग्स बी पत्रिका इन सुधारों पर विश्वास करती लग रही है। लेकिन सवाल है कि कोई 33 दिनों तक एक प्रयोग को चलाएगा और गलती से इस तरह क्यों लिख देगा कि यह 12 दिन में किया गया है।

इस पर बैरेट का कहना है कि प्रोसीडिंग्स बी के जांचकर्ताओं ने नई समयावधि की सत्यता की जांच नहीं की है। “मैं मानता हूं कि समयावधि में परिवर्तन और उपयोग किए गए फ्लूम की संख्या विचित्र है, लेकिन हमने इसे सुधार के तौर पर स्वीकार किया है।”

सुधार के आलवा डिक्सन और स्कॉट ने अध्ययन का डैटा भी अपलोड किया है, जो पहले नदारद था जबकि शोध पत्र में कहा गया था कि यह ऑनलाइन उपलब्ध है। लेकिन इस डैटा ने एक नई समस्या उठाई है। डैटा के विश्लेषण से पता चलता है कि साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र की तरह इसमें भी डैटा का दोहराव हुआ है।

जांच समिति को शिकायत है कि पत्रिका की जांच ने पेपर को स्वतंत्र ईकाई के रूप में जांचा है, जबकि साइंस पत्रिका द्वारा वापस लिए शोधपत्र में भी ऐसी ही समस्याएं थीं। इस पर बैरेट का कहना है कि पत्रिका की प्रक्रिया उन अध्ययनों की जांच करना है जिन्हें स्वयं उसने प्रकाशित किया है, अन्य पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित अध्ययन की जांच करना नहीं। प्रत्येक अध्ययन को स्वतंत्र मानकर काम किया जाता है।

डिक्सन ने इस संदर्भ में अभी कुछ नहीं कहा है।

समिति की मसौदा रिपोर्ट बताती है कि तीसरा समस्याग्रस्त शोध पत्र वर्ष 2014 में नेचर क्लाइमेट चेंज में मुंडे, डिक्सन और साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र है। जिसमें इसी तरह की समस्याएं दिखती हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान में नेचर क्लाइमेट चेंज इस पेपर की जांच कर रहा है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

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एज़्टेक हमिंगबर्ड्स, भारतीय शकरखोरा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

ज़्टेक लोगों द्वारा हमिंगबर्ड को एक नाम दिया गया था ह्यूतज़िलिन यानी ‘सूर्य की किरण’। मूलत: अमेरिकी महाद्वीप के इस पक्षी की साढ़े तीन सौ प्रजातियों के इंद्रधनुषी रंगों ने अक्सर कवियों और आभूषण डिज़ाइनरों की कल्पना को पंख लगाए हैं।

हमिंगबर्ड आकार में छोटे होते हैं: मधुमक्खी हमिंगबर्ड बमुश्किल 5 सेंटीमीटर लंबी होती है और इसका वज़न 2 ग्राम होता है। वे अपने पंखों को एक सेकंड में 50 बार तक फड़फड़ा सकती हैं, जिसके कारण एक गुनगुनाहट (हम) जैसी आवाज़ पैदा होती है और यही आवाज़ उनके नाम को परिभाषित करती है। वे फूल से रस चूसते हुए शानदार ढंग से मंडरा सकती हैं, और यहां तक कि उल्टी दिशा में (पीछे की ओर) भी उड़ सकती हैं। वे मकरंद के लिए नलीनुमा फूल, जो चमकीले लाल या नारंगी रंग के होते हैं, जैसे लैंटाना और रोडोडेंड्रोन, को वरीयता देती हैं।

उनके पंखों के विश्लेषण से पता चलता है कि उनके हाथ की हड्डियां बहुत लंबी होती हैं लेकिन बांह की हड्डियां बहुत छोटी होती हैं जो निहायत लचीले बॉल-एंड-सॉकेट जोड़ के माध्यम से शरीर से जुड़ी होती हैं। यह जोड़ आधा फड़फड़ाने के बाद पंखों को घुमाने के काबिल बनाता है, जिससे उनमें फुर्तीलापन आता है और पीछे की ओर उड़ना संभव हो पाता है।

समानताएं

भारत में सनबर्ड्स या शकरखोरा पाई जाती हैं। हालांकि यह हमिंगबर्ड्स की सम्बंधी नहीं हैं, लेकिन अभिसारी विकास में ये दोनों पक्षी कई विशेषताएं साझा करते हैं। सनबर्ड्स को नेक्टेरिनिडे कुल में रखा गया है। हालांकि थोड़ी बड़ी सनबर्ड थोड़े समय के लिए मधुमक्खियों की तरह मंडरा भी सकती हैं, और सुर्ख, नलीदार फूलों पर जा सकती हैं। वे जंगल के अंगार सरीखे रंग वाले (पीले-नारंगी) फूलों की महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं।

अलबत्ता खाते समय उन्हें बैठना पड़ता है। हमिंगबर्ड की तरह वे कीट पकड़ सकती हैं, खासकर अपने बच्चों को खिलाने के लिए। भारत में आम तौर पर बैंगनी सनबर्ड दिखने को मिलती हैं। इनके बड़े व चमकीले नर का रूप-रंग मार्च में अपने प्रजननकाल में शबाब पर होता है।

एक ही जगह रुककर उड़ने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। द्रव्यमान के हिसाब से देखें, तो कशेरुकियों में, हमिंगबर्ड्स की चयापचय दर (प्रति मिनट कैलोरी खपत) अधिकतम होती है। इस ऊर्जा का अधिकांश भाग मकरंद से मिलता है। उनके पाचन तंत्र द्वारा तेज़ी से शर्करा उपभोग यह सुनिश्चित करता है कि वे ऊर्जा हाल ही में गटके गए मकरंद से लेते हैं।

इसके अलावा, समान साइज़ के स्तनधारियों की तुलना में उनके फेफड़े हवा से ऑक्सीजन अवशोषित करने में 10 गुना बेहतर होते हैं।

विरोधाभास देखिए कि मनुष्यों में अत्यधिक व्यायाम रक्त शर्करा के स्तर में वृद्धि करता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि त्वरित तौर पर ऊर्जा की आवश्यकता के लिए आपका शरीर ग्लूकोनियोजेनेसिस का सहारा लेता है – ग्लूकोनियोजेनेसिस यानी मांसपेशियों के प्रोटीन जैसे संसाधनों को ग्लूकोज़ में परिवर्तित करना। इसका एक नकारात्मक परिणाम यह होता है कि आप इतनी मशक्कत के बाद भी न तो मांसपेशियां बना पाते हैं और न ही वसा कम कर पाते हैं।

हमिंगबर्ड में अति गहन गतिविधियां करने पर क्या होता है? हाल ही के जीनोम अध्ययनों से पता चला है कि विकास के दौरान, हमिंगबर्ड में जब मंडराने की गतिविधि उभरने लगी तब ग्लूकोनियोजेनेसिस के लिए ज़िम्मेदार एक प्रमुख एंज़ाइम का जीन उनमें से लुप्त हो गया। प्रयोगशाला में संवर्धित पक्षी कोशिकाओं से इस जीन को हटाने पर इन कोशिकाओं की ऊर्जा दक्षता में वृद्धि दिखी।

नकल और नृत्य

तोते और कुछ सॉन्गबर्ड की तरह, हमिंगबर्ड भी किसी अन्य की आवाज़ निकाल (मिमिक्री कर) सकते हैं। जब हमिंगबर्ड के जोड़े को अलग-थलग पाला गया, तो इन दोनों द्वारा गाया गया गीत उनकी प्रजातियों द्वारा गाए जाने वाले मानक गीत से तनिक-सा अलग था।

गौरतलब बात यह है कि वे कान तक पहुंचने वाली ध्वनि और अपनी मांसपेशियों की हरकत का तालमेल बैठा सकते हैं – यानी नृत्य कर सकते हैं।

टफ्ट्स युनिवर्सिटी के न्यूरोसाइंटिस्ट अनिरुद्ध पटेल ने सिद्धांत दिया है कि आवाज़ की नकल करने के लिए गले की मांसपेशियों को नियंत्रित करने की क्षमता के लिए पहले ध्वनियों के साथ लय में थिरकने की क्षमता होना ज़रूरी है। हालांकि, हमिंगबर्ड हम मनुष्यों की तरह जोड़े या समूहों में नृत्य नहीं कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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डोडो की वापसी के प्रयास

त्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मनुष्यों द्वारा अत्यधिक शिकार के चलते मॉरीशस द्वीप पर पाए जाने वाले डोडो पक्षी पूरी तरह विलुप्त हो गए थे। अब, कोलोसल बायोसाइंस नामक बायोटेक कंपनी ने डोडो पक्षी को वापस अस्तित्व में ले आने की महत्वाकांक्षी घोषणा की है। इस काम के लिए उन्हें 22.5 करोड़ डॉलर की धनराशि मिली है। कोलोसल बायोसाइंस की यह योजना जीनोम संपादन तकनीक, स्टेम-कोशिका जैविकी और पशुपालन की तकनीकों में परिष्कार पर निर्भर करती है।

लेकिन इसमें कितनी सफलता हासिल होगी यह निश्चित नहीं है और कई वैज्ञानिकों को लगता है कि निकट भविष्य में तो यह लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है।

डोडो की महत्वाकांक्षी वापसी का सफर उसके निकटतम जीवित सम्बंधी, चमकीले पंखों वाले निकोबार कबूतर (कैलोएनस निकोबारिका) से शुरू होगा। पहले निकोबार कबूतर से उनकी विशिष्ट आद्य जनन कोशिका यानी प्रायमोर्डियल जर्म सेल (PGC) को अलग किया जाएगा और उन्हें प्रयोगशाला में संवर्धित किया जाएगा। PGC वे अविभेदित स्टेम कोशिकाएं होती हैं जो शुक्राणु और अंडाणु बनाने का काम करती हैं। फिर, CRISPR जैसी जीन संपादन तकनीकों की मदद से PGC में डीएनए अनुक्रम को संपादित किया जाएगा और इसे डोडो के डीएनए अनुक्रम की तरह बना लिया जाएगा। इन जीन-संपादित जनन कोशिकाओं को फिर एक सरोगेट पक्षी प्रजाति के भ्रूण में डाला जाएगा।

इससे ऐसा शिमेरिक (मिश्र) जीव बनने की उम्मीद है जो डोडो के समान अंडाणु व शुक्राणु बनाएगा। और इन अंडाणुओं और शुक्राणुओं के निषेचन से संभवत: डोडो (रैफस क्यूकुलैटस) जैसा कुछ पैदा हो जाएगा।

लेकिन यह प्रक्रिया जितनी सहज दिखती है वास्तव में उतनी है नहीं। सबसे पहले तो शोधकर्ताओं को ऐसी परिस्थितियों का पता लगाना होगा जिसमें निकोबार कबूतर की जनन कोशिकाएं प्रयोगशाला में अच्छी तरह पनप सकें। हालांकि चूज़ों के साथ इसी तरह का काम किया जा चुका है लेकिन अन्य पक्षियों की जनन कोशिकाओं के लिए उपयुक्त परिस्थितियां पहचानने में समय लगेगा।

इसके बाद एक बड़ी चुनौती होगी निकोबार कबूतरों और डोडो के डीएनए के बीच अंतरों को पहचानना। डोडो और निकोबार कबूतर के साझा पूर्वज लगभग 3 करोड़ से 5 करोड़ साल पहले पाए जाते थे। इन दोनों पक्षियों के जीनोम की तुलना करके उन अधिकांश डीएनए परिवर्तनों की पहचान की जा सकती है जिन्होंने उनके बीच अंतर पैदा किया था। डोडो परियोजना की सलाहकार बेथ शेपिरो की टीम ने डोडो के जीनोम का अनुक्रमण कर लिया है, लेकिन अभी ये परिणाम प्रकाशित नहीं हुए हैं।

डीएनए अनुक्रम में सटीक अंतर पता करने के लिए डोडो का उच्च गुणवत्ता का जीनोम उपलब्ध होना महत्वपूर्ण होगा। दरअसल प्राचीन जीवों के जीनोम छिन्न-भिन्न हालत में मिलते हैं और इनका विश्लेषण करके डीएनए के छोटे-छोटे खंडों का अनुक्रमण किया जाता है और फिर उन्हें एक साथ जोड़ कर पूरा जीनोम तैयार किया जाता है। ज़ाहिर है, इस तरह तैयार जीनोम की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं होती और इनमें कई कमियां और त्रुटियां रह जाती हैं।

इसलिए दोनों पक्षियों के बीच डीएनए के हरेक अंतर का पता लगाना संभव नहीं लगता। पूर्व में किए गए रैटस मैक्लेरी और रैटस नॉर्वेजिकस नामक दो चूहा प्रजातियों के जीनोम की तुलना के परिणामों के आधार पर लगता है कि डोडो जीनोम में गैप (अधूरी जानकारी) उन डीएनए क्षेत्रों में अधिक मिलेगी जिनमें डोडो और निकोबर कबूतर के अलग होने के बाद सबसे अधिक परिवर्तन हुए थे।

अब यदि शोधकर्ता जीनोम में हर बारीक अंतर पता भी कर लेते हैं तो निकोबार कबूतर की जनन कोशिकाओं में ऐसे हज़ारों परिवर्तनों शामिल करना आसान काम नहीं होगा। बटेर के जीनोम में सिर्फ एक आनुवंशिक परिवर्तन करने में शोधकर्ताओं को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

एक सुझाव है कि डीएनए परिवर्तन सिर्फ उन खंडों तक सीमित रखा जाए जो प्रोटीन का निर्माण करवाते हैं। इससे ज़रूरी संपादनों की संख्या थोड़ी कम की जा सकती है।

एक और बड़ी समस्या है इतना बड़ा पक्षी, जैसे एमू (ड्रोमाईस नोवेहोलैंडिया), खोजना जो डोडो जैसे अंडे को संभाल सके। डोडो के अंडे निकोबार कबूतर के अंडे से बहुत बड़े होते हैं। इसलिए निकोबार के अंडों में डोडो की वृद्धि नहीं की जा सकती। मुर्गियों के भ्रूण अन्य पक्षियों की जनन कोशिकाओं के प्रति काफी ग्रहणशील होते हैं। पूर्व में शिमेरिक मुर्गियां तैयार की गई हैं जो बटेर के शुक्राणु पैदा कर सकती हैं, लेकिन अंडाणु बनाने में अब तक सफलता नहीं मिली है। इस लिहाज़ से लगता है कि जनन कोशिकाओं को एक पक्षी से दूसरे में स्थानांतरित करना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण होगा, खास तौर से तब जब इन जनन कोशिकाओं में जीन संपादन के ज़रिए व्यापक परिवर्तन कर दिए गए हों।

सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इतने प्रयास क्या वास्तविक डोडो जैसा कुछ दे पाएंगे? बहरहाल, कोलोसल बायोसाइंस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी इन बाधाओं को स्वीकार करते हैं, और कहते हैं कि डोडो बने या न बने लेकिन इस काम से अन्य पक्षियों के संरक्षण के प्रयासों में मदद मिलेगी। ये प्रयास पक्षी संरक्षण के लिए कई नई प्रौद्योगिकियां देंगे। अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि येन केन प्रकारेण डोडो बन भी जाए तो डोडो के शिकारी तो आज भी मौजूद हैं। तो खतरा तो मंडराएगा ही। इसलिए यदि इतना पैसा उपलब्ध है तो उसे अन्य जीवों को विलुप्त होने से बचाने के प्रयास में लगाया जाना बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

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चूहों में बुढ़ापे को पलटा गया

क दशक पूर्व जापान के क्योटो विश्वविद्यालय के शिन्या यामानाका को ऐसे प्रोटीन्स की खोज के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था जिनकी मदद से वयस्क कोशिकाओं को वापिस उनकी प्रारंभिक स्थिति (स्टेम कोशिकाओं) में तबदील किया जा सकता है। अब दो शोधकर्ता दलों ने दावा किया है कि ये प्रोटीन्स सिर्फ कोशिकाओं को नहीं बल्कि पूरे जीव को उसकी प्रारंभिक स्थिति में ला सकते हैं – यानी बुढ़ापे को पलट सकते हैं। .

इनमें से एक दल एक बायोटेक कंपनी में कार्यरत है और उसने तथाकथित यामानाका फैक्टर को जीन-उपचार की तकनीक से बूढ़े चूहों में प्रविष्ट कराया और उनके जीवनकाल को थोड़ा लंबा करने में सफलता पाई। दूसरे दल ने जेनेटिक इंजीनियरिग की मदद से चूहे विकसित किए और बुढ़ापे के लक्षणों को पलटा।

दोनों ही मामलों में लगता है कि यामानाका फैक्टर्स ने चूहों के एपिजीनोम को बदल दिया। एपिजीनोम डीएनए और प्रोटीन्स में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों को कहते हैं जो जीन्स की अभिव्यक्ति को बदल देते हैं – उसे ज़्यादा युवावस्था जैसा बना देते हैं। गौरतलब है कि इस प्रक्रिया में डीएनए के क्षारों में या उनके क्रम में परिवर्तन नहीं होता।

इससे पहले भी कई समूहों ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे चूहे तैयार किए हैं जो वयस्क होने पर खुद यामानाका फैक्टर्स बनाने लगते हैं और बुढ़ापे के कुछ लक्षणों को पलटने में सक्षम होते हैं। अब जो प्रयोग किए गए हैं उनका मकसद मनुष्यों के लिए कुछ उपचार खोजना है।

इसी संदर्भ में रीजुविनेट बायो नामक कंपनी के शोधकर्ताओं ने उक्त यामानाका फैक्टर्स के जीन्स से युक्त एक वायरस को चूहों में इंजेक्ट किया। देखा गया कि इसके बाद ये चूहे 18 सप्ताह तक जीवित रहे जबकि शेष चूहे मात्र 9 सप्ताह। शोधकर्ताओं ने बायोआर्काइव्स में बताया है कि इन चूहों में डीएनए मिथायलेशन का पैटर्न अपेक्षाकृत युवा चूहों जैसा हो गया था। डीएनए मिथायलेशन एपिजेनेटिक परिवर्तन का एक प्रकार है। वैसे कुछ अन्य अध्ययनों में पाया गया था कि यामानाका फैक्टर्स कैंसर को बढ़ावा देते हैं लेकिन इस अध्ययन में ऐसा कुछ नहीं देखा गया।

दूसरा अध्ययन हारवर्ड मेडिकल स्कूल के डेविड सिन्क्लेयर के दल द्वारा सेल में प्रकाशित किया गया है। कहते हैं कि सिन्क्लेयर पिछले दो दशकों में कई वृद्धावस्था रोधी विवादास्पद हस्तक्षेपों के प्रणेता रहे हैं। सिन्क्लेयर का दल वृद्धावस्था के सूचना सिद्धांत के आधार पर काम कर रहा था। इस सिद्धांत में कहा जाता है कि हम बूढ़े इसलिए होते हैं क्योंकि समय के साथ एपिजेनेटिक चिंह खत्म होते जाते हैं। सिन्क्लेयर का मत है कि हमारी कोशिकाओं में डीएनए मरम्मत की व्यवस्था ही इसके लिए ज़िम्मेदार होती है।

तो इस दल ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे चूहे विकसित किए जिनमें यह गुण था कि उन्हें एक विशिष्ट औषधि देने पर वे एक एंज़ाइम बनाते थे जो उनके जीनोम को 20 जगह काट देता है। इन्हें फिर उक्त व्यवस्था द्वारा निष्ठापूर्वक दुरुस्त कर दिया जाता है। परिणाम यह होता है कि कोशिका के डीएनए मिथायलेशन और जीन अभिव्यक्ति में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इन चूहों में जो एपिजेनेटिक पैटर्न था वह अपेक्षाकृत बुज़ुर्ग चूहों का था और उनकी सेहत भी बिगड़ गई – उनके बाल झड़ गए, रंग उड़ गया और उनमें दुर्बलता के कई लक्षण नज़र आने लगे।

अब शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या एपिजेनेटिक बदहाली के इन लक्षणों को पलटाया जा सकता है। उन्होंने एक वायरस के साथ यामानाका फैक्टर्स दिए और देखा कि बुढ़ाते चूहों की दृष्टि सुधर गई थी। कई अन्य मामलों में यामानाका फैक्टर्स ने एपिजेनेटिक सुधार किए थे। इसके आधार पर सिन्क्लेयर का मत है कि बुढ़ापे को आगे-पीछे कर सकते हैं और कुछ इलाज उभर सकता है।

बहरहाल, जैसा कि हमेशा होता है, पूरे मामले में कई अगर-मगर हैं। एक तो यही कि जो एपिजेनेटिक परिवर्तन किए गए थे वे कुदरती नहीं थे। पता नहीं कुदरती परिवर्तन किस तरह होते हैं और उनका क्या असर होता है। दूसरा कि चूहे और मनुष्य बहुत अलग-अलग हैं। तीसरा कि बुढ़ाना एक पेचीदा प्रक्रिया है और ये प्रयोग उसका सरलीकरण करते हैं। इन सारे अगर-मगर के बावजूद शोधकर्ता आगे बढ़कर मनुष्यों पर प्रयोग करने को उत्सुक हैं। बंदरों पर जांच तो शुरू भी हो चुकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दवा कारखाने के रूप में पालतू बकरी – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत और कई विकासशील देशों के गांवों में पालतू बकरी (कैपरा हिर्कस) मिलना आम है। पालतू बनाए जाने के समय (लगभग 10,000 साल पहले) से ही बकरियों ने मानव समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक भूमिका निभाई है। यह भी कहा गया है कि मनुष्यों का शिकारी-संग्राहक जीवन शैली से कृषि आधारित बस्तियों में बसने में बकरियों का पालतूकरण एक महत्वपूर्ण कदम था।

खाद्य और कृषि संगठन (FAO) का अनुमान है कि दुनिया में लगभग 1000 नस्लों की 83 करोड़ बकरियां हैं। भारत में 20 से अधिक प्रमुख नस्लों की 15 करोड़ बकरियां हैं। राजस्थान में बकरियों की संख्या सबसे अधिक है – यहां पाई जाने वाली मारवाड़ी बकरी सख्तजान है और रेगिस्तानी जलवायु के अनुकूल है। एक और सख्तजान नस्ल है उस्मानाबादी जो महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तरी कर्नाटक के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है।

उत्तरी केरल की मलाबारी बकरी (जिसे टेलिचेरी भी कहा जाता है) एक ऐसी नस्ल है जिसके मांस में वसा कम होती है और वह खूब संतानें पैदा करती है। ऐसे ही गुण पंजाब की बीटल बकरी में भी होते हैं। पूर्वी भारतीय ब्लैक बंगाल बकरी बांग्लादेश के ग्रामीण गरीबों की आजीविका में महत्वपूर्ण योगदान देती है। ये 2 करोड़ वर्ग फुट से अधिक चमड़ा प्रदान करती हैं जिसका उपयोग अग्निशामकों के लिए दस्ताने बनाने से लेकर फैशनेबल हैंडबैग और चमड़े के अन्य सामान बनाने में होता है। चूंकि कई किसानों के पास मवेशी पालने के लिए जगह या धन की कमी है, इसलिए बकरियों को ‘गरीब आदमी की गाय’ उचित ही कहा जाता है।

भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में जंगली बकरियों की बहुत कम आबादी है, जिनसे पालतू बकरियां या भेड़ें विकसित हुई हैं। इनमें मार्खोर और हिमालयी और नीलगिरी ताहर शामिल हैं।

समुद्री यात्राओं के स्वर्ण युग में इन यात्राओं के ज़रिए भारतीय बकरियों के जीन दुनिया के सभी इलाकों में फैले। भारत से युरोप जाने वाले जहाजों पर लदी बकरियां महीने भर लंबी यात्रा के दौरान लोगों के लिए दूध और मांस उपलब्ध कराती थीं। उत्तर प्रदेश की जमुनापारी बकरियों को पसंद किया गया क्योंकि वे आठ महीने के स्तनपान काल के दौरान 300 किलोग्राम दूध देती हैं। इंग्लैंड में कभी, उच्च वसा वाला दूध देने वाली बकरियों की नस्ल, एंग्लो-न्युबियन, विकसित करने के लिए जमुनापारी बकरियों का वहां की स्थानीय नस्ल के साथ संकरण कराया गया था।

औषधि का निर्माण

बकरियां लगभग दो साल में प्रजनन शुरू कर देती हैं और भरपूर दूध देती हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि बकरियों ने चिकित्सकीय प्रोटीन उत्पादन के लिए जैव प्रोद्योगिकी कंपनियों का ध्यान आकर्षित किया है।

इसमें पहली सफलता एट्रीन (ATryn) के साथ मिली है – यह बकरी से उत्पादित एंटीथ्रॉम्बिन-III अणु का व्यावसायिक नाम है। एंटीथ्रॉम्बिन रक्त को थक्का बनने से मुक्त रखता है, और इस प्रोटीन की कमी (जो आम तौर पर वंशानुगत होती है) से पल्मोनरी एम्बोलिज़्म जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इससे पीड़ित व्यक्तियों को सप्ताह में दो बार एंटीथ्रॉम्बिन इंजेक्शन की आवश्यकता होती है, जो आम तौर पर दान किए गए रक्त से निकाला जाता है।

ट्रांसजेनिक बकरियों, जिनमें मानव एंटीथ्रॉम्बिन जीन की एक प्रति रोपी जाती है, की स्तन ग्रंथियों की कोशिकाएं दूध में यह प्रोटीन स्रावित करती हैं। ऐसा दावा है कि एक बकरी उतना एंटीथ्रॉम्बिन बना सकती है जितना 90,000 युनिट मानव रक्त से प्राप्त होता है।

हाल ही में एफडीए द्वारा अनुमोदित सेटुक्सिमैब नामक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी औषधि का निर्माण क्लोन बकरियों में किया गया है। इसे बड़ी मात्रा में (प्रति लीटर दूध से 10 ग्राम) बनाया जा सकता है। फिलहाल यह मालूम नहीं है कि यह ‘औषधि’ सुरक्षा और प्रभावकारिता सम्बंधी नियामक बाधाओं को पार कर पाएगी या नहीं। अब देखना यह है कि क्या अन्य मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के अधिक मात्रा में उत्पादन के लिए बकरियों का इस्तेमाल दवा कारखानों के रूप में किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या खब्बू होना विरासत में मिलता है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

यदि किसी व्यक्ति की मां खब्बू यानी बाएं हाथ से काम करने वाली हो, तो ज़्यादा संभावना होती है कि वह भी खब्बू हो।

म इन्सान दो पैरों पर चलते हैं यानी दोपाए हैं और अपने दो हाथों का उपयोग करते हैं। दोपाएपन का विकास हमारे पूर्वजों – प्रायमेट्स –  में लगभग 40 लाख पहले शुरू हो गया था। प्रायमेट जीवों ने न सिर्फ हमें हमारे रक्त समूह की सौगात दी, बल्कि दो पैर और दो हाथ भी दिए हैं। प्रायमेट्स में कई ऐसे लक्षण पाए जाते हैं जो उन्हें कम विकसित स्तनधारियों से अलग करते हैं। जैसे पेड़ों पर रहने (जैसा कि बंदर करते हैं) के लिए हुए अनुकूलन, बड़े मस्तिष्क, बेहतर दृष्टि संवेदना, उंगलियों के सामने आ जाने वाला (सम्मुख) अंगूठा जिसके चलते चीज़ों पर पकड़ बेहतर बनती है, और कंधों की ज़्यादा लचीली गतियां।

चार हाथों से दो तक

जापान के क्योटो विश्वविद्यालय के डॉ. तेत्सुरो मात्सुज़ावा लिखते हैं कि प्रायमेट्स के साझा पूर्वज पेड़ों पर चढ़े और उन्होंने अपने ज़मीनी पूर्वजों के चार पैरों से चार हाथ विकसित किए। यह वृक्ष-आधारित जीवन के लिए एक अनुकूलन था। इससे उन्हें पेड़ के तने और शाखाओं पर बढ़िया पकड़ बनाने में मदद मिलती थी। इसके बाद किसी समय प्रारंभिक मानव पूर्वज पेड़ों से उतरे और ज़मीन पर दो पैरों से लंबी-लंबी दूरियां तय करने लगे। इस तरह हमने अपने प्रायमेट पूर्वजों से विकास के दौरान चार हाथों से दो पैर और दो हाथ बना लिए।

यूएस के मिसौरी विश्वविद्यालय के मानव वैज्ञानिक कैरोल वार्ड बताते हैं कि कैसे हम मनुष्य इस दुनिया में जिस ढंग से विचरते हैं, वह किसी भी अन्य प्राणि से भिन्न है। हम ज़मीन पर दो पैरों पर सीधे खड़े होकर चलते हैं लेकिन एकदम अनोखे ढंग से: पहले एक पैर, फिर दूसरा पैर, अपने शरीर को एकदम सीधा रखकर गतियों के एक विशिष्ट क्रम में। लिहाज़ा, यह समझना एक बड़ी बात है कि हम इसी तरह क्यों चलते हैं और हमारा वंश (होमो) अपने वानर-सदृश पूर्वजों से इतना दूर कैसे निकल गया।

मानव मस्तिष्क हमारे सबसे निकट सम्बंधी – चिम्पैंज़ी – से लगभग तीन गुना बड़ा है। इसके अलावा हमारे मस्तिष्क के सेरेब्रल कॉर्टेक्स नामक हिस्से में चिम्पैंज़ी के उसी हिस्से के मुकाबले कोशिकाओं की संख्या दुगनी है। गौरतलब है कि सेरेब्रल कॉर्टेक्स याददाश्त, एकाग्रता और सोच-विचार में प्रमुख भूमिका निभाता है। यानी हम वनमानुषों से ज़्यादा स्मार्ट हैं।

तो क्या यह जीन्स में है

अब सवाल आता है हाथों के इस्तेमाल में वरीयता यानी हैंडेडनेस का। लगभग 10 प्रतिशत लोग वामहस्त (खब्बू) हैं। यह कैसे हुआ? यह आज भी गर्मागरम बहस का मुद्दा है। हो सकता है कि इसमें कुछ जेनेटिक अंश हो: आपके खब्बू होने की संभावना आपकी मां के खब्बू होने से ज़्यादा जुड़ी होती है बनिस्बत आपके पिता की स्थिति से। यदि आपके माता-पिता दोनों खब्बू हों तो आपके खब्बू होने की संभावना 50 प्रतिशत हो जाती है। पाकिस्तान के सरगोधा विश्वविद्यालय के एक दल ने जरनल ऑफ इंडियन एकेडमी ऑफ एप्लाइड सायकोलॉजी (JIAAP) में बताया है कि खब्बू सहभागी दाहिने हाथ वाले (दक्षिणहस्त) सहभागियों की तुलना में अधिक बुद्धिमान होते हैं।

लंदन विश्वविद्यालय के डॉ. क्रिस मैकमेनस ने 2019 में एक विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित किया था: ‘हाफ ए सेंचुरी ऑफ हैंडेडनेस रिसर्च: मिथ्स, ट्रुथ्स, फिक्शन्स, फैक्ट्स; बैकवर्ड्स बट मोस्टली फॉरवर्ड्स’। यह लेख ब्रेन एंड न्यूरोसाइंस एडवांसेज़ नामक जरनल में प्रकाशित हुआ था। उन्हें उम्मीद है कि जीन अनुक्रमण और मस्तिष्क स्कैनिंग तकनीकों में हर तरक्की के साथ हम आने वाले वर्षों में हैंडेडनेस के बारे में और अधिक जान पाएंगे।

खब्बू फायदे में

खेलकूद में हम देख ही सकते हैं कि खब्बू खिलाड़ी दाहिने हाथ वालों पर हावी हैं। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में लगभग 20 प्रतिशत उच्च स्तरीय बल्लेबाज़ खब्बू हैं। और ओपन-एरा विंबलडन प्रतियोगिता में 23 प्रतिशत बढ़िया खिलाड़ी खब्बू हैं। क्रिकेट में गौतम गंभीर और सौरभ गांगुली, टेनिस में राफेल नडाल और मार्टिना नवरातिलोवा, फुटबॉल में लियोनल मेसी। कहना न होगा कि महात्मा गांधी दोनों हाथों में निपुण (एम्बीडेक्स्ट्रस) थे, और आइज़ेक न्यूटन भी। इस फेहरिस्त में आप भी कई नाम जोड़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कुछ कैनरी पक्षी खाने में माहिर होते हैं

कैनरी के लिए बीज खाना सीखना एक कठिन काम हो सकता है। लेकिन शोधकर्ताओं ने पिछले हफ्ते सम्पन्न हुई सोसायटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में बताया कि इनमें से कुछ पक्षी अपने साथी पक्षियों की तुलना में काष्ठ फलों की सख्त खोल को तोड़ने में चार गुना अधिक तेज़ होते हैं और उनके अंदर मौजूद पौष्टिक गरी तक पहुंच जाते हैं।

शोधकर्ताओं ने 90 कैनरी पक्षियों का बाज़ार में मिलने वाले उनके भोजन या सन के बीज खाते हुए वीडियो बनाया। इन बीजों की साइज़ सेब के बीज औैर तिल के बीच थी, और इनकी खोल सख्त थी। इस सबमें पक्षियों के लिए सबसे कठिन काम था बीजों को चोंच में सही जगह पर सही तरीके से रखना ताकि चोंच बड़े करीने से इसे फोड़ सके – बीज की खोल फूटकर छिटक जाए और गरी चोंच में बनी रहे।

फुर्तीली कैनरियों को बीज को चोंच में सही स्थिति में रखने और इसे फोड़ने में 4 सेकंड या उससे भी कम समय लगा, और इनमें से कुछ कैनरी ने लगभग 80 प्रतिशत बार सफलतापूर्वक बीज फोड़ लिए। लेकिन अन्य कैनरियों को केवल 40 प्रतिशत बार ही सफलता मिली।

आप इस अध्ययन का वीडियो यहां देख सकते हैं:

https://www.science.org/content/article/some-canaries-are-superstar-seed-crackers-watch-their-tricks?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_

शोधकर्ताओं के अनुसार जल्दी खाना जीवित रहने का एक ज़रूरी कौशल है: कोई पक्षी भरपेट खाने में जितना अधिक समय लगाएगा, उतना ही अधिक समय तक वह खुले में रहेगा, और उतना ही अधिक उसे शिकारियों का खतरा होगा और उसके पास उतना ही कम समय प्रजनन और अपने बच्चों की देखभाल के लिए बचेगा। शोधकर्ताओं का कहना है कि सबसे कुशल पक्षी जानते थे कि उनकी चोंच में बीज कहां है।

अब, आगे के अध्ययन में शोधकर्ता यह देखना चाहते हैं कि क्या यह समझ सीखी गई है या उन्हें विरासत में मिली है। (स्रोत फीचर्स)

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