गर्म खून के जंतुओं में ह्रदय मरम्मत की क्षमता समाप्त हुई

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि जो जंतु गर्म खून वाले होते हैं उनमें ह्दय की मरम्मत की क्षमता कम होती है। गर्म खून वाले जंतु से आशय उन जंतुओं से है जिनके खून का तापमान स्थिर रहता है, चाहे आसपास के पर्यावरण में कमी-बेशी होती रहे। शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि गर्म खून का विकास और ह्दय की मरम्मत की क्षमता का ह्यास परस्पर सम्बंधित हैं।

सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी गुओ हुआंग और उनके साथियों ने विभिन्न जंतुओं के ह्दय का अध्ययन करके उक्त निष्कर्ष साइन्स शोध पत्रिका में प्रस्तुत किया है।

हुआंग की टीम दरअसल यह देखना चाहती थी कि विभिन्न जंतुओं के ह्दय की कोशिकाओं में कितने गुणसूत्र होते हैं। यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि जंतुओं के शेष शरीर की कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम की दो प्रतियां पाई जाती हैं किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाओं में गुणसूत्रों की 4-4, 6-6 प्रतियां होती हैं।

जंतु कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति मां से और दूसरी पिता से आती है। इन कोशिकाओं को द्विगुणित कहते हैं। किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाएं बहुगुणित होती हैं। इनमें दो या दो से अधिक प्रतियां पिता से और दो या दो से अधिक प्रतियां माता से आती हैं।

हुआंग की टीम को पता यह चला कि जब आप मछली से शुरू करके छिपकलियों, उभयचर जीवों और प्लेटीपस जैसी मध्यवर्ती प्रजातियों से लेकर स्तनधारियों की ओर बढ़ते हैं वैसे-वैसे ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात बढ़ता है। यह तथ्य तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप यह देखें कि ज़्यादा द्विगुणित कोशिकाओं वाले ह्रदय  – जैसे ज़ेब्रा मछली का ह्रदय  – में पुनर्जनन हो सकता है और मरम्मत हो सकती है। जैसे-जैसे बहुगुणित कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है (जैसे चूहों और मनुष्यों में) तो मरम्मत की क्षमता कम होने लगती है।

अब सवाल यह है कि किसी ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात कौन तय करता है। यह सवाल वैसे तो अनुत्तरित है किंतु हुआंग की टीम को एक जवाब मिला है। उन्होंने पाया है कि इस मामले में थायरॉइड हारमोन की कुछ भूमिका हो सकती है। थायरॉइड हारमोन शरीर क्रियाओं (मेटाबोलिज़्म) को नियंत्रित करता है और हमें गर्म खून वाला बनाता है। टीम ने देखा कि जब उन्होंने ज़ेब्रा मछली के टैंक में अतिरिक्त थायरॉइड हारमोन डाल दिया तो उनके ह्रदय  में पुनर्जनन नहीं हो पाया। दूसरी ओर, उन्होंने ऐसे चूहे विकसित किए जिनके ह्रदय  थायरॉइड के प्रति असंवेदी थे तो चोट लगने के बाद उनके ह्रदय  दुरुस्त हो गए। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि इस संदर्भ में थायरॉइड शायद अकेला ज़िम्मेदार नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चौपाया व्हेल करती थी महाद्वीपों का सफर

शोधकर्ताओं ने कुछ समय पहले ही पेरू के समुद्र तट पर चार पैरों वाली प्राचीन व्हेल की हड्डियां खोज निकाली हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित पेपर के अनुसार यह जीव राइनो और समुद्री ऊदबिलाव के मिश्रित रूप जैसा दिखता होगा। इसका सिर छोटा, लंबी मज़बूत पूंछ और चार छोटे मगर मोटे खुरदार पैर एवं झिल्लीदार पंजे रहे होंगे। एक नए अध्ययन का अनुमान है कि ये जीव आज के युग की व्हेल के पूर्वज रहे होंगे जो लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले पाए जाते थे। 

रॉयल बेल्जियन इंस्टिट्यूट ऑफ नेचुरल साइंस, ब्रसेल्स के जंतु विज्ञानी और इस अध्ययन के प्रमुख ओलिवियर लैम्बर्ट के अनुसार यह प्रशांत महासागर में मिलने वाली चार पैरों वाली व्हेल का सबसे पहला प्रमाण है। 

जीवाश्म विज्ञानी पिछले एक दशक से भी अधिक समय से प्राचीन समुद्री स्तनधारियों के जीवाश्म की खोज करने के लिए पेरू के बंजर तटीय क्षेत्रों के आसपास खुदाई कर रहे थे। लैम्बर्ट और उनकी टीम को अधिक सफलता मिलने की उम्मीद नहीं थी लेकिन एक बड़े दांतों वाला जबड़ा मिलने के बाद उन्होंने खुदाई को आगे भी जारी रखा।

ये हड्डियां कई लाख वर्ष पुरानी थीं और कई टुकड़ों में टूटी हुई थीं, लेकिन काफी अच्छे से संरक्षित थीं और आस-पास की तलछट में इन्हें ढूंढना भी काफी आसान था। जब पूरा कंकाल इकट्ठा कर लिया गया तो कमर और भुजा वाले भाग को देखकर यह ज़मीन पर चलने वाले जीव सरीखा मालूम हुआ लेकिन इसके लंबे उपांग और पूंछ की बड़ी-बड़ी हड्डियों से इसके कुशल तैराक होने का अनुमान लगाया गया। लैम्बर्ट का ऐसा मानना है कि उस समय ये जीव ज़मीन पर चलने में भी सक्षम थे और साथ ही तैरने के लिए अपनी पूंछ का भी उपयोग करते होंगे।     

टीम ने इन तैरने और चलने वाली व्हेल प्रजाति को पेरेफोसिटस पैसिफिकस नाम दिया है जिसका अर्थ प्रशांत तक पहुंचने वाली यात्री व्हेल है।  

अब तक, वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि प्राचीन व्हेल अफ्रीका से निकलकर पहले उत्तरी अमेरिका की ओर गर्इं और उसके बाद दक्षिणी अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों में फैली। लेकिन जीवाश्म की उम्र और स्थान को देखते हुए लैम्बर्ट और उनके साथियों का अनुमान है कि यह उभयचर व्हेल दक्षिण अटलांटिक महासागर को पार करते हुए पहले दक्षिण अमेरिका पहुंचीं और फिर उत्तरी अमेरिका और अन्य स्थानों पर।

अलबत्ता, शोधकर्ताओं के मुताबिक महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे किस दिशा में गर्इं, बल्कि यह काफी दिलचस्प है कि ये प्राचीन चार पैर वाले जीव अपनी शारीरिक रचना से इतना सक्षम थे कि दुनिया भर में फैल गए। आगे चलकर इस जीवाश्म से और अधिक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हम छठी व्यापक जैव विलुप्ति की कगार पर हैं – सोमेंद्र सिंह खरोला

क्या तूफान आपके अंधत्व का लिहाज़ करके थमता है? – सुधींद्रनाथ दत्त की कविता उत्पाखी (शुतुरमुर्ग) से

जैव मंडल की तुलना एक बहुत बड़ी दीवार से की जा सकती है, मनुष्य जिसके ऊपर बैठा है। अगर इस जैव मंडल में से हम जानवरों की कुछ प्रजातियां गंवा भी देते हैं, तो दीवार से महज़ कुछ र्इंटें गुम होंगी, दीवार तो फिर भी खड़ी रहेगी। परंतु यदि अधिकाधिक जानवर विलुप्त होते जाएंगे, तो पूरी दीवार भी दरक सकती है। सवाल है कि र्इंटों को हटा कौन रहा है?

व्यापक जैविक विलोपन ऐसी वैश्विक घटना को कहते हैं जिसके दौरान पृथ्वी के 75 प्रतिशत से अधिक वन्य जीव विलुप्त हो जाते हैं। पिछले 50 करोड़ वर्षों में, इस तरह के व्यापक विलोपन की पांच घटनाएं हुई हैं। इनमें से सबसे हालिया विलोपन ने डायनासौर को हमेशा के लिए खत्म कर दिया था। लेकिन कितने लोग यह जानते हैं कि हाल ही में किए गए कई शोध अध्ययनों ने समय-समय पर यह दावा किया है कि पृथ्वी एक और व्यापक विलोपन घटना की गिरफ्त में है: छठा व्यापक विलोपन।

दरअसल, पिछले 100 वर्षों में, रीढ़धारी प्राणियों की 200 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। प्रजातियों के विलुप्त होने की यह दर (प्रति वर्ष 2 प्रजातियां), आपको शायद मामूली लगे और शायद चिंता का विषय भी न हो। शायद आप कहें कि जीव तो हर समय विलुप्त होते रहते हैं, यह तो प्रकृति का तरीका है। लेकिन पिछले बीस लाख वर्षों में विलोपन की दर को देखें तो 200 प्रजातियों को विलुप्त होने में सौ नहीं बल्कि दस हज़ार साल लगना चाहिए थे। दूसरे शब्दों में, विलुप्त होने की दर पहले के युगों की तुलना में पिछले मात्र 100 वर्षों लगभग 100 गुना बढ़ गई है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में हाल ही में प्रकाशित एक शोध आलेख छठे व्यापक विलोपन के अपने दावों के साथ एक कदम और आगे बढ़ता है।

यह अध्ययन बताता है कि न केवल छठा व्यापक विलोपन एक वास्तविकता है, बल्कि इसके परिणाम हमारे सोच से कहीं अधिक गंभीर होंगे। इसके अलावा यह अध्ययन इसके लिए पूरी तरह मनुष्यों को ज़िम्मेदार ठहराता है। यह काफी दिलचस्प बात है कि पहला व्यापक विलोपन, जो मनुष्य के अस्तित्व में आने से बहुत पहले हुआ था, वह भी उल्काओं की बौछार या ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण नहीं बल्कि जीवों के द्वारा ही हुआ था।

अपने शोध पत्र में लेखक – गेरार्डो सेबालोस, पॉल आर. एह्यलिच, रोडोल्फो दिर्ज़ो लिखते हैं कि “पिछले कुछ दशकों में, प्राकृतवासों की हानि, अतिदोहन, घुसपैठी जीव, प्रदूषण, विषाक्तता, और हाल ही में जलवायु की गड़बड़ी, तथा इन कारकों के बीच परस्पर क्रियाएं आम एवं दुर्लभ कशेरुकी आबादियों की संख्या और उनके आकार दोनों में भयावह गिरावट का कारण बनी है।” इसके अलावा, अध्ययन के अनुसार, पिछले सौ वर्षों में, “हमारे साथ पृथ्वी पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की 50 प्रतिशत संख्या खत्म हो चुकी है”, और इस तरह से जीवों की आबादी का ऐसा भयावह पतन इस ओर संकेत देता है कि छठा व्यापक विलोपन शुरू हो चुका है।

लेकिन इस व्यापक विलोपन के कारण यदि 75 प्रतिशत से अधिक जीव भी खत्म हो जाएं मनुष्य होने के नाते  हम क्यों परवाह करें? क्योंकि पारिस्थितिक तंत्र में विभिन्न जीव एक दूसरे पर निर्भर हैं, शृंखला प्रभाव की तरह मनुष्यों पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

उदाहरण के लिए, कीट-पतंगों को ही लीजिए। पर्यावरण कीटों की अनुपस्थिति के अनुकूल हो पाए यदि उससे पहले ही कीटों की हज़ारों प्रजातियां विलुप्त हो जाएं, तो पेड़ों की हज़ारों प्रजातियां भी गायब हो जाएंगी, क्योंकि पेड़ों की कई प्रजातियां परागण के लिए कीटों पर निर्भर होती हैं। अगर पेड़ गायब हो जाते हैं, तो मानव जाति के लिए यह मौत की दस्तक होगी। हमारी धरती की हवा गंदी और ज़हरीली तो होगी ही, पृथ्वी का तापमान कई डिग्री बढ़ जाएगा। भू-क्षरण की दर बढ़ेगी जिससे कृषि योग्य भूमि का नुकसान होगा। वर्षा गंभीर रूप से प्रभावित होगी, जिसके फलस्वरूप मीठे पानी के स्रोतों की गुणवत्ता पर भी असर होगा। निश्चित रूप से, मानव पर नकारात्मक वार होगा।

यह देखते हुए कि यह बड़े पैमाने का विलोपन मानव अस्तित्व के लिए एक वास्तविक खतरा साबित हो सकता है, यह काफी निराशाजनक है कि इस विलोपन के प्राथमिक कारण – यानी हम – इससे बेखबर हैं। इसकी ओर ध्यान न देने के दो कारण हैं।

पहला कारण है, औसतन हर साल गायब होने वाली दो प्रजातियां ऐसी होती हैं जो या तो हमारे लिए आकर्षक नहीं हैं (शेर की तरह आकर्षक नहीं हैं) या दुनिया के अलग-थलग कोनों में रहती हैं, इसलिए हम उस नुकसान को महसूस नहीं करते हैं।

उदाहरण के लिए, क्या आपने कैटरीना पपफिश का नाम सुना है? या क्रिसमस आइलैंड पिपिस्ट्रेल का? या पायरेनियन आइबेक्स का? हाल ही के दिनों में ये तीनों प्रजातियां हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी हैं, लेकिन हममें से कितने लोग इस तथ्य से अवगत हैं?

विलोपन के खतरे की सूचना से हमें अनभिज्ञ रखने वाला दूसरा कारण यह है कि पृथ्वी के वन्य जीवन के स्वास्थ्य का आकलन करने हेतु शोध अध्ययनों का पूरा ध्यान केवल ‘अंतिम बिंदु’ पर रहा है – यानी जीवों की प्रजातियों का पूरी तरह विलुप्त हो जाना। और वर्तमान अध्ययन यही बताता है कि ‘अंतिम बिंदु’ आधारित उन अध्ययनों ने व्यापक विलोपन के परिमाण को कम करके आंका है। अगले हिस्से में इस बात को विस्तार में स्पष्ट किया गया है।

तर्क को आगे बढ़ाने के लिए, एक जीव प्रजाति ‘X’ पर विचार करते हैं। यह जीव ‘X’ एशिया के पंद्रह अलग-अलग देशों में फैला हुआ है। दूसरे शब्दों में, इस जीव की ‘वैश्विक आबादी’ पंद्रह अलग-अलग देशों में फैली हुई ‘स्थानीय आबादियों’ से मिलकर बनी है। किसी भी देश में, इस जीव की स्थानीय आबादी में एक निश्चित संख्या में जीव होंगे; किसी अन्य देश में एक निश्चित संख्या की स्थानीय आबादी होगी, और इसी तरह सब देशों में अलग अलग स्थानीय आबादियां होंगी।

मान लीजिए, एक साल के बाद, पंद्रह स्थानीय आबादियों में से चौदह खत्म हो जाती हैं और केवल एक अंतिम स्थानीय आबादी बची रह जाती है।

ऐसे परिदृश्य में, अगर हम केवल ‘अंतिम बिंदु’ – यानी इस जीव प्रजाति का पूर्ण विलोपन – पर ध्यान केंद्रित करेंगे, तो हर साल हम जीव ‘X’ के सामने एक टिक मार्क लगाकर इसे ‘विलुप्त नहीं’ की श्रेणी में डाल देंगे क्योंकि एक स्थानीय आबादी तो बची हुई है।

‘विलुप्त’ या ‘विलुप्त नहीं’ का यह सख्त विभाजन जंगल में उपस्थित किसी प्रजाति के वास्तविक स्वास्थ्य को समझने का एक अपरिष्कृत तरीका है। इस मामले में, उदाहरण के लिए, केवल जीव ‘X’ को ‘विलुप्त नहीं’ के रूप में अंकित करके, हम जीव ‘X’ की सोचनीय स्थिति जैसी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने में विफल हो जाते हैं। इसकी स्थानीय आबादियों की संख्या में भारी गिरावट आई है। इस काल्पनिक परिदृश्य में यह संख्या 15 से घटकर एक तक आ पहुंची है। अर्थात व्यापक विलोपन को कम करके आंका जा रहा है।

इसलिए, वर्तमान अध्ययन के अनुसार, वर्तमान व्यापक विलोपन की घटना का सही अनुमान लगाने के लिए, यह ज़रूरी है कि प्रजातियों की स्थानीय आबादियों के विलुप्त होने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाए, न कि केवल वैश्विक विलुप्ति पर। कोई जीव जीवित है इसका मतलब यह नहीं कि वह फल-फूल रहा है।

पिछले सभी अध्ययनों में इसी दोषपूर्ण रास्ते को अपनाया गया है जिनमें केवल ‘अंतिम बिंदु’ पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इस प्रकार ये अध्ययन इस गलतफहमी के शिकार हैं कि जैव विविधता के नुकसान का दौर शुरू ही हो रहा है, और मानव जाति के पास इसका मुकाबला करने के लिए कई दशकों का समय उपलब्ध है। विलुप्त होने की दर केवल दो जीव प्रति वर्ष ही तो है। लेकिन वर्तमान अध्ययन इसका ज़ोरदार विरोध करता है: “हम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि छठा सामूहिक विलोपन शुरू हो चुका है और प्रभावी कार्रवाई के लिए वक्त बहुत कम है, शायद दो या तीन दशक।” शायद, इससे भी कम।

बेशक, यह कहना सही नहीं है कि मानव जाति कुछ दशकों के भीतर विलुप्त हो जाएगी; लेकिन अगर हमने अभी कार्य करना शुरू नहीं किया तो यह व्यापक विलोपन दो या तीन दशकों के भीतर अपरिवर्तनीय साबित होगा। नतीजतन, इसके साथ ही मानव जाति के विलोपन की संभावना शुरू हो जाएगी।  

इस तरह के मज़बूत दावे का समर्थन करने के लिए, यह अध्ययन एक नए दृष्टिकोण का अनुसरण करता है। पूर्व अध्ययनों के विपरीत, यह दो महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखता है जो ‘अंतिम बिंदु’ – अर्थात किसी जीव प्रजाति के संपूर्ण वैश्विक विलोपन – से ठीक पहले सामने आते हैं। पहला है, जैसा कि ऊपर कहा गया, पिछले सौ वर्षों में विभिन्न जीव प्रजातियों की स्थानीय आबादियों में कमी। दूसरा है, इसी अवधि में उनके भौगोलिक आवास में कमी। (नोट: इस अध्ययन के लिए, 27,600 कशेरुकी जीवों की स्थानीय आबादियों पर ध्यान दिया गया, जो दुनिया की कुल लगभग 87 लाख जीव प्रजातियों का एक छोटा-सा अंश है।)

अध्ययन बताता है कि पिछले सौ वर्षों में विभिन्न जानवरों की एक अरब स्थानीय आबादियां विलुप्त हो चुकी हैं। जी हां, एक अरब। इसका मतलब यह नहीं है कि दुनिया में एक अरब जीव प्रजातियां विश्व स्तर पर पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी हैं, बल्कि यह है कि विभिन्न प्रजातियों की कुल एक अरब स्थानीय आबादियां दुनिया के कुछ क्षेत्रों में हमेशा के लिए खत्म हो गई है, जबकि ये जीव अभी भी दुनिया के अन्य क्षेत्रों में मौजूद है। अर्थात, इन प्रजातियों का ‘स्थानीय’ विलोपन हुआ है।

उदाहरण के लिए, एक समय में एशियाई शेर की हज़ारों स्थानीय आबादियां पूरे भारत में पाई जाती थी। लेकिन समय के साथ, ये सभी स्थानीय आबादियां, अन्य जीवों की एक अरब स्थानीय आबादियों के साथ विलुप्त हो गर्इं। आज, एशियाई शेरों की अंतिम कुछेक स्थानीय आबादियां गुजरात में एक अलग-थलग भाग (गिर वन) में पाई जाती है। जब ये चंद अंतिम स्थानीय आबादियां विलुप्त हो जाएंगी, तो एशियाई शेर को ‘विश्व स्तर पर विलुप्त’ घोषित कर दिया जाएगा। तब यह विश्व में कहीं भी नहीं पाया जाएगा। 

अध्ययन एक और विचलित करने वाला तथ्य बताता है।

पिछले सौ वर्षों में, पृथ्वी की रीढ़धारी प्रजातियों में से 32 प्रतिशत की आबादी के आकार और भौगोलिक विस्तार में कमी आई है। अध्ययन में विश्लेषण किए गए सभी 177 स्तनधारियों ने अपने भौगोलिक क्षेत्रों का 30 प्रतिशत या उससे अधिक हिस्सा खो दिया है। और 40 प्रतिशत से अधिक प्रजातियों की सीमा 80 प्रतिशत से अधिक घट गई है। और तो और, जीवों की जिन प्रजातियां को ‘कम चिंता’ की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, वे भी इसी तरह के संकटों से पीड़ित हैं और लगातार ‘लुप्तप्राय’ श्रेणी की ओर बढ़ रही हैं।

“हमारा डैटा बताता है कि प्रजातियों के विलुप्त होने से परे, पृथ्वी स्थानीय आबादियों में गिरावट और विलुप्त होने की एक विशाल घटना का सामना कर रही है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य और सेवाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यह पारिस्थितिकी तंत्र सभ्यता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण होता है। अंतत: मानवता इस ब्राहृाण्ड में जीवन के एकमात्र समुच्चय के उन्मूलन की बहुत बड़ी कीमत चुकाएगी।”

इसलिए, भले ही विश्व स्तर पर हर साल ‘मात्र दो’ प्रजातियां विलुप्त हो रही हों, यह ‘मात्र दो’ की संख्या दुनिया भर में विभिन्न जीव प्रजातियों की सैकड़ों-हज़ारों स्थानीय आबादियों के कठोर और व्यापक विलोप का संकेत देती है। आखिरकार, इस तरह स्थानीय आबादियों और प्राकृतवासों का नुकसान कुछ ही समय में हज़ारों जीव प्रजातियों के वैश्विक विलोप का कारण बन जाएगा: जिसको व्यापक विलोपन कहते हैं।

तो, हम स्थानीय आबादियों के विलोपन की इस लहर का मुकाबला कैसे करें और छठे सामूहिक विलोपन को कैसे रोकें?

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए चाहें तो वन्य जीव संरक्षण कार्यक्रमों, लोक निकायों, राष्ट्रीय नीतियों, अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी वगैरह की बात कर सकते हैं। लेकिन इस सवाल का असली जवाब वह है जो हम – और हाई स्कूल का कोई भी छात्र – लंबे समय से जानते हैं। यह एक ऐसा जवाब है जिसे इतनी बार दोहराया गया है कि ऐसा लगता है कि इसकी धार बोथरी हो गई है: उपभोग में कमी करें, जनसंख्या पर लगाम कसें।

हालांकि, अध्ययन के नापसंद दावों को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई वैज्ञानिकों ने इसके निष्कर्षों पर सवाल उठाए हैं।

इन वैज्ञानिकों को लगता है कि यह अध्ययन फालतू में ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया’ का शोर मचाने जैसा है, क्योंकि व्यापक विलुप्ति की घटनाओं के इरादे कहीं अधिक सख्त होते हैं। इन शंकालुओं का मानना है कि व्यापक विलुप्ति की घटनाएं लाखों वर्षों में सामने आती हैं। इसलिए यह मान लेना जल्दबाज़ी होगी कि पानी सिर से ऊपर जा चुका है। आखिरकार इस अध्ययन में मात्र पिछले 100 वर्षों में केवल रीढ़धारी जीवों की विलुप्ति की संख्या पर ही तो विचार किया गया है। यह अवधि पिछले बड़े पैमाने पर विलोपन घटनाओं की तुलना में पलक झपकाने जैसी है। कीटों और अन्य गैर-कशेरुकी जीवों का क्या? केवल 27,600 कशेरुकी जीवों पर ध्यान केंद्रित करके (जो कुल 87 लाख जीव प्रजातियों का अंश-मात्र है) यह अध्ययन व्यापक विलुप्ति की घटना की एक ऐसी तस्वीर खींचता है जो वास्तविकता से कहीं अधिक गंभीर और अतिरंजित बन गई है।

इसके अलावा, एक यह तर्क भी दिया जा सकता है कि विलोपन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए मनुष्य नामक प्राणि कोई न कोई समाधान खोज निकालेगा। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, यह ध्यान रखना समझदारी होगी कि जैविक व्यापक विलोपन की घटना अचानक होने वाली घटना नहीं है जो पूरी मानव जाति को एक झपट्टा मारकर समाप्त कर देगी। यह सही है कि ऐसी घटना के दौरान अल्पावधि में हज़ारों जीव प्रजातियां उच्च दर से विलुप्त हो जाती हैं, लेकिन यह अल्पावधि लाखों वर्षों में फैली होती है। यह लंबी अल्पावधि मनुष्य को पेड़ों में परागण के लिए रोबोट विकसित करने के लिए पर्याप्त हो सकती है। उसी तरह यदि विश्व के मत्स्य भंडार प्रभावित होते हैं, तो यह अल्पावधि कृत्रिम मांस तैयार करने के लिए काफी है। यहां तक कि ऐसी प्रौद्योगिकियों का निर्माण करने के लिए भी यह पर्याप्त समय हो सकता है, जिससे विलुप्त पेड़-पौधों की नकल कर वायुमंडलीय ऑक्सीजन और अन्य गैसों की निश्चित मात्रा को बरकरार रखा जा सके। तब तक, हम अन्य ग्रहों पर बस ही चुके होंगे। तो, व्यापक विलोपन का खतरा उतना बुरा नहीं हो सकता है जितना लगता है, कम से कम मनुष्यों के लिए तो नहीं।

फिर भी, यह अध्ययन दावा करता है कि अगर हम अभी, दो या तीन दशकों के अंदर, कार्रवाई नहीं करते हैं तो सामूहिक विलोपन स्थायी होगा। नतीजतन, स्थानीय आबादियों के विलुप्त होने की दर कैंसर की तरह बढ़ सकती है। इसके परिणामस्वरूप जैव विविधता में गिरावट आएगी और मानव अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।

लेकिन क्या जैव विविधता में गिरावट हमारे तकनीकी विकास को पछाड़ देगी? खतरे की घंटी बजाने से पहले इस सवाल पर विचार करना ज़रूरी है।

फिर भी, मैं कहना चाहूंगा कि हमने पिछले सौ वर्षों में 50 प्रतिशत कशेरुकी जीवों का सफाया तो कर दिया है, अगर अब कुछ नहीं किया गया तो हम जल्द ही बचे हुए 50 प्रतिशत को भी खो सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से, विलुप्त होने की गति को देखते हुए, मेरे मन में सवाल आता है कि क्या मानव के पास, प्रौद्योगिकी या अन्य माध्यम से, इसका सामना करने के लिए पर्याप्त समय होगा। इसके अलावा, जैव विविधता के नुकसान की ऐसी दर पहले हो चुकी विलोपन की घटनाओं से कहीं अधिक विनाशकारी साबित हो सकती है।

मेरे साथ बातचीत के दौरान अध्ययन के प्रमुख लेखक गेरार्डो सेबलोस ने कहा था कि ‘इससे यह और भी ज़रूरी हो जाता है। पिछले सभी व्यापक विलोपन की घटनाएं लाखों वर्षों में फैली हुई थीं, लेकिन वर्तमान व्यापक विलोपन केवल कुछ सौ वर्षों में फैला हुआ है!’

उन्होंने बात को जारी रखते हुए कहा: ‘और आप कितना संदेह करेंगे? मैं केवल दो वैज्ञानिकों को जानता हूं जो कहते हैं कि छठा व्यापक विलोपन कुछ नहीं है। अगर हम अगले दो या तीन दशकों के भीतर इस व्यापक विलोपन की घटना पर कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हमारा विनाश निश्चित और पूर्ण होगा। वास्तव में, इस बात में क्या तुक है कि आप व्यापक विलोपन के और गंभीर होने की प्रतीक्षा करें ताकि आपको यकीन हो जाए कि व्यापक विलोपन सचमुच हो रहा है? उस समय तक कुछ भी करने का समय बीत चुका होगा। विलोपन की प्रतीक्षा करना और फिर कहना कि ‘अरे, यह तो वास्तव में हो गया’ बेकार है, क्योंकि तब तक हम जा चुके होंगे। हमको कोई कदम उठाना चाहिए। अभी।’ (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवों में अंगों का फिर से निर्माण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

छिपकली को जब भी किसी खतरे का अंदेशा होता है तो वह अपने बचाव में अपने शरीर से पूंछ अलग कर गिरा देती है और वहां से भाग जाती है। अगले 60 दिनों के भीतर छिपकली के शरीर पर नई पूंछ आ जाती है। लेकिन नई पूंछ कैसे और क्यों आती है? एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के डॉ. केनरो कुसुमी और उनके साथियों ने अपने शोध में इसी सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि दोबारा पूंछ विकसित करने के लिए छिपकली अपने शरीर के किसी खास हिस्से के जीनोम में लगभग 326 जीन्स को सक्रिय कर देती है। इसके अलावा वे ‘सैटेलाइट कोशिकाओं’ को भी सक्रिय कर देती हैं, जो विकसित होकर कंकाल की पेशियों और अन्य ऊतकों में तबदील हो सकती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि चूंकि मनुष्यों में भी सैटेलाइट कोशिकाएं होती हैं इसलिए संभावना है कि इन्हें सक्रिय करके मनुष्यों में भी पेशियों और उपास्थियों को पुन: विकसित किया जा सके।

छिपकली जैव विकास के क्रम में काफी देर से अस्तित्व में आई थीं। छिपकली लगभग 31-32 करोड़ साल पहले अस्तित्व में आई जबकि उनसे पहले केंचुए लगभग 51 करोड़ वर्ष पूर्व और चपटे कृमि लगभग 84 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तिस्व में आ चुके थे। अरस्तू ने इन्हें ‘पृथ्वी की आंत’ और डार्विन ने ‘प्रारंभिक जुताई करने वाले’ की उपमा दी थी। प्रोसिडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यह पता किया है कि कृमियों की 35 विभिन्न प्रजातियां शरीर का कोई हिस्सा कटकर अलग हो जाने पर उसे पुन: विकसित (या अंग पुनर्जनन) कैसे करती हैं। जैसे कम-से-कम चार तरह के कृमि अपने सिर को दोबारा विकसित कर लेते हैं। तो छिपकली की तरह इन जीवों की जीव वैज्ञानिक कार्यप्रणाली का अध्ययन अंग पुनर्जनन की बेहतर समझ बनाने में मददगार होगा।

सवाल यह है कि ऐसा क्यों है कि विकास क्रम में पहले अस्तित्व में आए कृमि, अपना सिर तक पुन: विकसित कर पाते हैं जबकि उनके बाद अस्तित्व में आर्इं छिपकलियां सिर्फ पूंछ दोबारा बना पाती हैं। और उनके भी बाद आए ‘ऊंचे दर्जे के जानवर’ तो कोई भी अंग फिर से नहीं बना पाते। इस मामले में दो तरह के तर्क दिए जाते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड की प्रोफेसर एलेक्सेन्ड्रा बेली ने अपनी समीक्षा इवॉल्यूशनरी लॉस ऑफ एनिमल रीजनरेशन: पैटर्न एंड प्रोसेस (विकास के दौरान जीवों में अंग-पुनर्जनन क्षमता की हानि: पैटर्न और प्रकिया) में बताया है कि पुनर्जनन में नई कोशिकाएं, ऊतक और आंतरिक अंग तो बन सकते हैं लेकिन भुजाओं जैसी रचनाओं के पुनर्जनन पर उम्र, लिंग, पोषण और अन्य कारकों का नियंत्रण होता है। या क्या यह भी हो सकता है कि पुनर्जनन इसलिए समाप्त हो गया क्योंकि जीवों ने मरम्मत में ऊर्जा खर्च करने की बजाय उसे वृद्धि में लगाया। अंग-पुनर्जनन में लगने वाली ऊर्जा और उससे मिलने वाले लाभ के आधार पर इस प्रक्रिया को फिर से समझने की ज़रूरत है।

युनिवर्सिटी ऑफ बाथ के डॉ. जोनाथन स्लैक द्वारा इएमबीओ रिपोर्ट में एक अध्ययन एनिमल रीजनरेशन: एंसेस्ट्रल केरेक्टर ऑर इवॉल्यूशनरी नॉवेल्टी? (जंतु पुनर्जनन: पूर्वजों की विरासत या वैकासिक नवीनता?) प्रकाशित किया गया था। इस अध्ययन में उन्होंने जेनेटिक विश्लेषण के आधार पर बताया था कि सभी जीवों (छिपकली से लेकर मानवों तक) में आनुवंशिक गुण दो मुख्य जीन, Wnt और BMP, के व्यवहार के कारण दिखते हैं। Wnt जीन कोशिकाओं की तेज़ी से वृद्धि और स्व-नवीनीकरण संकेत देने में मददगार होता है। BMP जीन सभी जीवों में शरीर और अंगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये जीन सभी जीवों की सभी कोशिकाओं में मौजूद होते हैं, इसलिए सैद्धांतिक रूप से ऐसा लगता है कि अंग-पुनर्जनन सभी जीवों में संभव है।

इसके बावजूद, कुत्ते या बिल्ली की पूंछ कटने के बाद दोबारा नहीं आती। वे अपनी कटी पूंछ के साथ ही रहना सीख जाते हैं। डॉ. बेली के अनुसार इन जीवों में, पूंछ को दोबारा विकसित में लगने वाली ऊर्जा के बदले पूंछ के बिना जीना ज़्यादा फायदेमंद या सार्थक लगता है। (जबकि छिपकली के मामले में उसकी पूंछ जीवित बचने और विकास में अहम अंग है।)

छिपकली पर लौटते हैं। छिपकली में दोबारा जो पूंछ विकसित होती है वह दरअसल मूल पूंछ जैसी नहीं होती बल्कि उसकी अधूरी नकल होती है। इस नकली पूंछ में कोई हड्डी नहीं होती बल्कि इसमें उपास्थि होती है और यह मूल पूंछ की तुलना में अधिक नरम और लचीली होती है। कलकत्ता के डॉ. शुक्ल घोष के शब्दों में यह वास्तविक अंग-पुनर्जनन नहीं बल्कि क्षतिपूर्ति वृद्धि है।

स्टेम सेल तकनीक

हालांकि एरिज़ोना के कुसुमी और उनके साथियों को छिपकली की पुन: विकसित पूंछ के ऊतकों में कोई प्रोजीनेटर कोशिका या स्टेम कोशिका नहीं मिली, लेकिन उभरती हुई स्टेम कोशिका तकनीक से इस क्षेत्र में काफी उत्साह बढ़ा है। इस तकनीक में स्टेम कोशिका की मदद से किसी अन्य अंग की कोशिका या ऊतक प्रयोगशाला में विकसित किए जा सकते हैं। इस तकनीक की मदद से मूत्राशय विकसित किया गया है और एक युवा को लगाया गया, जिसका मूत्राशय क्षतिग्रस्त हो गया था। वर्तमान में किसी भी कोशिका को, चार चुने हुए जीन की मदद से, स्टेम कोशिका बनने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इस तरह प्रेरित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाएं, प्रयोगशाला में मनचाहे ऊतक और ऑर्गेनाइड (मूल अंग की तुलना में छोटे अंग) बनाने के लिए उपयोग किए जा रही हैं। हालांकि अभी यह इस तकनीक का आगाज़ है लेकिन भविष्य में इसकी मदद से अंग बनाए जा सकेंगे और इनका उपयोग अंग-पुनर्जनन के लिए किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या बिल्लियां अपना नाम पहचानती हैं?

बिल्लियां इंसानों के प्रति थोड़े उदासीन स्वाभाव के लिए जानी जाती हैं। कई बिल्लियों के मालिकों को लगता है कि जब वे उन्हें पुकारते हैं तो वे प्रतिक्रिया नहीं देती। लेकिन हाल ही में साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित अध्ययन कहता है कि पालतू बिल्लियां अपना नाम पहचानती हैं और पुकारे जाने पर अपना सिर घुमाकर या कान खड़े कर उस पर प्रतिक्रिया भी देती हैं।

बिल्लियां अपना नाम पहचानती हैं या नहीं? यह जानने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टोक्यो के अत्सुतो साइतो और उनके साथियों ने जानवरों के व्यवहार के अध्ययन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक (हैबीचुएशन-डिसहैबीचुएशन) की मदद से बिल्लियों पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने घरेलू पालतू बिल्लियों (फेलिस कैटस) के मालिकों से बिल्लियों के नाम से मिलती-जुलती और उतनी ही लंबी 4 संज्ञाएं पुकारने को कहा। अंत में मालिकों को बिल्ली का नाम पुकारना था।

शोधकर्ताओं ने संज्ञाओं के पुकारे जाने पर बिल्लियों की प्रतिक्रिया का बारीकी से अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि पहली संज्ञा पुकारे जाने पर बिल्लियों ने अपना सिर या कान घुमाकर थोड़ी-सी प्रतिक्रिया दिखाई थी लेकिन चौथी संज्ञा आते-आते बिल्लियों की प्रतिक्रिया में कमी आई थी। और जब पांचवी बार बिल्लियों का अपना नाम पुकारा गया तब 11 में से 9 बिल्लियों की प्रतिक्रिया फिर से बढ़ गई थी।

लेकिन सिर्फ इतने से साबित नहीं होता कि वे अपना नाम पहचानती हैं। अपने नाम के प्रति प्रतिक्रिया देने के पीछे एक संभावना यह भी हो सकती है कि अन्य पुकारे गए शब्दों (नामों) की तुलना में उनके नाम वाला शब्द ज़्यादा जाना-पहचाना था। इस संभावना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने एक और प्रयोग किया। इस बार उन्होंने उन बिल्लियों के साथ अध्ययन किया जहां एक घर में पांच या उससे ज़्यादा पालतू बिल्लियां थीं। बिल्लियों के मालिकों को शुरुआती 4 नाम अन्य साथी बिल्लियों के पुकारने थे और आखिरी नाम बिल्ली का पुकारना था।

शोधकर्ताओं ने पाया कि आखिरी नाम पुकारे जाने तक 24 में से सिर्फ 6 बिल्लियों की प्रतिक्रिया में क्रमिक कमी आई थी, अन्य बिल्लियां सभी नामों के प्रति सचेत रहीं। इस परिणाम से लगता है कि बिल्लियां जाने-पहचाने नामों (शब्दों) के साथ कोई अर्थ या इनाम मिलने की संभावना देखती हैं इसलिए सचेत रहती हैं। लेकिन अध्ययन में जिन 6 बिल्लियों ने अन्य नामों के प्रति उदासीनता दिखाई उन्होंने अपना नाम पुकारे जाने पर अत्यंत सशक्त प्रतिक्रिया दी। इससे लगता है कि कुछ बिल्लियां अपने नाम और अन्य नामों के बीच अंतर कर पाती हैं।

इस बात की पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने कैट कैफे की बिल्लियों के साथ एक और अध्ययन किया, जहां लोग आकर बिल्लियों के साथ वक्त बिताते हैं। इस अध्ययन में बिल्लियों ने अपने नाम के प्रति अधिक प्रतिक्रिया दिखाई। इन सभी अध्ययनों के परिणामों के मिले-जुले विश्लेषण से लगता है कि बिल्लियों के लिए उनका अपना नाम उनके लिए कुछ महत्व रखता है।

युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के जॉन ब्रेडशॉ का कहना है कि बिल्लियां कुत्तों की तरह सीखने में माहिर होती हैं। लेकिन उन्होंने जो सीखा उसका वे प्रदर्शन नहीं करती। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पश्चिमी घाट में मेंढक की नई प्रजाति मिली

हाल ही में केरल के वायनाड़ ज़िले के पश्चिमी घाट इलाके में वैज्ञानिकों को मेंढक की नई प्रजाति मिली है। इन मेंढकों के पेट नारंगी रंग के हैं। और शरीर के दोनों तरफ हल्के नीले सितारों जैसे धब्बे हैं और उंगलियां तिकोनी हैं। शोघकर्ताओं ने नेचर इंडिया पत्रिका में बताया है कि इन मेंढकों को छुपने में महारत हासिल है। ज़रा-सा भी खटका या सरसराहट होने पर ये उछल कर  पत्ते या घास के बीच छुप जाते हैं।

चूंकि इनके शरीर पर सितारानुमा धब्बे हैं और ये कुरुचियाना जनजाति बहुल वायनाड़ ज़िले में मिले हैं, इसलिए शोधकर्ताओं ने इन मेंढकों को एस्ट्रोबेट्रेकस कुरुचियाना नाम दिया है।

मेंढक की यह प्रजाति सबसे पहले 2010 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के एस.पी. विजयकुमार ने पहचानी थी। बारीकी से अध्ययन करने पर पता चला कि ये पश्चिमी घाट के अन्य मेंढकों की तरह नहीं है। इसके बाद उन्होंने युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के डेविड ब्लैकबर्न और जॉर्ज वाशिंगटन युनिवर्सिटी के एलेक्स पायरॉन की मदद से मेंढक की हड्डियों और जीन का विश्लेषण किया। हड्डियों की जांच में उन्होंने पाया कि यह मेंढ़क निक्टिबेट्रेकिडी कुल का है। इस कुल के मेंढकों की लगभग 30 प्रजातियां भारत और श्रीलंका में पाई जाती हैं। और जेनेटिक विश्लेषण से लगता है कि ये मेंढक 6-7 करोड़ वर्ष पूर्व अपनी करीबी प्रजातियों से अलग विकसित होने शुरू हुए थे।

यह वह समय था जब भारत अफ्रीका और मैडागास्कर से अलग होकर उत्तर की ओर सरकते हुए एशिया से टकराया था और हिमालय बना था। भारत के लंबे समय तक किसी अन्य स्थान से जुड़ाव न होने के कारण यहां नई प्रजातियों का विकास हुआ, और उन प्रजातियों को भी संरक्षण मिला जो अन्य जगह किन्हीं कारणों से लुप्त हो गर्इं।

इस नई प्रजाति के सामने आने से एक बार फिर पश्चिमी घाट जैव विविधता के हॉटस्पॉट के रूप में सामने आया है, खास तौर से उभयचर जीवों के मामले में। इस व अन्य प्रजातियों की खोज से पश्चिमी घाट के मेंढकों की विविधता के पैटर्न को समझने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर की एक नई नन्ही प्रजाति

वैज्ञानिकों हाल ही में मिले डायनासौर के जीवाश्म इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कंगारू के आकार के फुर्तीले डायनासौर ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका के बीच की प्राचीन भ्रंश घाटी में रहते थे।

ऑस्ट्रेलिया में साढ़े बारह करोड़ वर्ष पुरानी चट्टानों की खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को कंगारू जितने बड़े डायनासौर के जीवाश्म मिले हैं। ये जीवाश्म डायनासौर के जबड़ों के हैं। इन जबड़ों की बनावट उल्टे गैलियन जहाज़ों के ढांचे जैसी है। जबड़ों की गैलियन नुमा बनावट और जीवाश्म विज्ञानी डोरिस सीगेट्स-डीविलियर्स के नाम पर इस डायनासौर को गैलिनोसौरस डोरिसी नाम दिया है।

गैलिनोसौरस डोरिसी की हड्डियों का विश्लेषण करने पर पता चला कि ये डायनासौर ऑर्निथोपॉड थे यानि इनके पैर पक्षियों के पैरों की तरह थे। ये अपने पिछले मज़बूत पैरों के सहारे चलते और दौड़ते थे और शाकाहारी थे। 

न्यू इंगलैंड युनिवर्सिटी के मैथ्यू हर्न और उनकी टीम ऑस्ट्रेलिया के गोंडवाना महाद्वीप के सरकने के दौरान ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका और अंटार्कटिका के बीच डायनासौर के स्थानांतरण का मानचित्रण कर रहे हैं। पिछले साल भी हर्न की टीम ने इसी जगह एक ऑर्नीथोपॉड डायनासौर की पहचान की थी। इसे डिलुविकरसौर पिकरिंगी नाम दिया गया था जो गैलिनोसौरस डायनासौर का करीबी रिश्तेदार है। लेकिन गैलिनोसौरस डायनासौर डिलुविकरसौर से लगभग सवा करोड़ साल पहले के थे। टीम का मत है कि गैलिनोसौरस उत्तरी अमेरिका और चीन की बजाय पैटागोनिया में रहने वाली डायनासौर प्रजातियों से ज़्यादा मिलते-जुलते हैं।

गैलिनोसौरस के जीवाश्म जिन चट्टानों में मिले हैं वे ज्वालामुखी से निकली चट्टानें हैं। क्रिटेशियस युग के दौरान, जब ये डायनासौर रहा करते थे, तब पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में सक्रिय ज्वालामुखी का लावा नदियों के साथ बहकर इस घाटी में आया होगा। नदियों द्वारा बहाकर लाई गई गाद घाटी में जमा होने से मैदान बने। इन मैदानों में डायनासौर और अन्य जानवर रहने लगे।

इस अध्ययन से लगता है कि क्रिटेशियस युग के दौरान अंटार्कटिका से होकर ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बीच सेतु मौजूद रहा होगा जिसके कारण इन महाद्वीपों के डायनासौर के बीच करीबी आनुवंशिक सम्बंध दिखते हैं।

गैलिनोसौरस इस क्षेत्र में पांचवा ऑर्निथोपॉड प्रजाति का डायनासौर मिला है जिससे यह पता चलता है कि छोटे कद-काठी वाले डायनासौर काफी विविध स्थानों पर फैले हुए थे जो ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका के बीच की घाटी में पनपे थे जहां से ये महाद्वीप अलग-अलग हुए थे। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री जीवों के लिए जानलेवा हैं गुब्बारे

गभग 1,700 से अधिक मृत समुद्री पक्षियों के हालिया सर्वेक्षण में मालूम चला है कि एक चौथाई से अधिक मौतें प्लास्टिक खाने से हुई हैं। इसमें देखा जाए तो 10 में से चार मौतें गुब्बारे जैसा नरम कचरा खाने से हुई हैं जो अक्सर प्लास्टिक से बने होते हैं। भले ही पक्षियों के पेट में केवल 5 प्रतिशत अखाद्य कचरा मिला हो लेकिन यह जानलेवा साबित हुआ है।

समुद्री पक्षी अक्सर भोजन की तरह दिखने वाले तैरते हुए कूड़े को खा जाते हैं। एक बार निगलने के बाद यह पक्षियों की आंत में अटक जाता है और मौत का कारण बनता है। शोधकर्ताओं के अनुसार अगर कोई समुद्री पक्षी गुब्बारा निगलता है, तो उसके मरने की संभावना 32 गुना अधिक होती है।

इस अध्ययन के प्रमुख यूनिवर्सिटी ऑफ तस्मानिया, ऑस्ट्रेलिया के डॉक्टरेट छात्र लॉरेन रोमन के अनुसार अध्ययन किए गए पक्षियों की मृत्यु का प्रमुख कारण आहार नाल का ब्लॉकेज था, जिसके बाद संक्रमण या आहार नाल में अवरोध के कारण अन्य जटिलताएं उत्पन्न हुई थीं।

ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर में लगभग 2,80,000 टन तैरता समुद्री कचरा लगभग आधी समुद्री प्रजातियों द्वारा निगला जाता है। जिसमें पक्षियों द्वारा गुब्बारे निगलने की संभावना सबसे अधिक होती है क्योंकि वे उनके भोजन स्क्विड जैसे दिखते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या कोई जीव नींद के बिना जीवित रह सकता है?

म अगर एक रात भी ठीक से नींद न ले सकें तो अगले दिन काम करने में काफी संघर्ष करना पड़ता है। लंबे समय तक ठीक से नींद न आए तो ह्मदय रोग और स्ट्रोक से लेकर वज़न बढ़ने और मधुमेह जैसे नकारात्मक प्रभाव दिखने लगते हैं। जानवर भी ऊंघते हैं। इससे तो लगता है कि सभी जानवरों के लिए नींद का कुछ महत्व है।

सवाल यह है कि नींद की भूमिका क्या है? क्या नींद मस्तिष्क को क्षति की मरम्मत और सूचना को सहेजने का अवसर देती है? क्या यह शरीर में ऊर्जा विनियमन के लिए आवश्यक है? वैज्ञानिकों ने नींद की कई व्याख्याएं की हैं लेकिन एक सटीक उत्तर का इंतज़ार आज भी है।

1890 के दशक में रूस की एक चिकित्सक मैरी डी मेनासीना नींद की एक गुत्थी से परेशान थीं। उनका ख्याल था कि जब हम जीवन को भरपूर जीना चाहते हैं तो क्यों अपने जीवन का एक-तिहाई भाग सोकर गुज़ार देते हैं। इस रहस्य को जानने के लिए उन्होंने जानवरों में पहला निद्रा-वंचना प्रयोग किया। मेनासीना ने पिल्लों को लगातार जगाए रखा और यह पाया कि नींद की कमी के कारण कुछ दिनों में उन पिल्लों की मृत्यु हो गई। बाद के दशकों में, अन्य जीवों जैसे कृंतकों और तिलचट्टों पर यह प्रयोग किया गया और परिणाम ऐसे ही रहे। लेकिन इन प्रयोगों में मौत का कारण और नींद से इसका सम्बंध अभी भी अज्ञात है।

नींद का अभाव जानलेवा होता है लेकिन कुछ प्राणी बहुत कम नींद लेकर भी जीवित रह सकते हैं। साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में फल मक्खियों के सोने-जागने पर नज़र रखी गई थी। इम्पीरियल कॉलेज लंदन में सिस्टम्स जीव विज्ञानी जियोर्जियो गिलेस्ट्रो के अनुसार उनके इस प्रयोग में कुछ मक्खियां शायद ही कभी सोई होंगी।

गिलेस्ट्रो और उनके सहयोगियों ने पाया कि 6 प्रतिशत मादा मक्खियां दिन में 72 मिनट से कम समय तक सोती थीं, जबकि अन्य मादाओं की औसत नींद 300 मिनट थी। एक मादा तो एक दिन में औसतन मात्र 4 मिनट सोती थी। आगे शोधकर्ताओं ने मक्खियों के सोने का समय 96 प्रतिशत कम कर दिया। लेकिन ये मक्खियां, पिल्लों की तरह असमय मृत्यु का शिकार नहीं हुर्इं। वे अन्य मक्खियों के बराबर जीवित रहीं। गिलेस्ट्रो व कई अन्य वैज्ञानिक सोचने लगे हैं कि शायद नींद उतनी ज़रूरी नहीं है, जितना पहले सोचा जाता था।

2016 के एक अध्ययन में, रैटनबोर्ग और उनके सहयोगियों ने गैलापागोस द्वीप समूह में फ्रिगेट बर्ड्स (फ्रेगेटा माइनर) के मस्तिष्क में विद्युत गतिविधि के मापन के आधार पर दिखाया था कि समुद्र पर उड़ान भरते समय पक्षियों के मस्तिष्क का एक गोलार्ध सो जाता है। और कभी-कभी एक साथ दोनों गोलार्ध भी सो जाते हैं। अध्ययन में पाया गया कि उड़ान भरने के दौरान फ्रिगेट बर्ड्स औसतन प्रति दिन केवल 42 मिनट सोए, जबकि आम तौर पर ज़मीन पर वे 12 घंटे से अधिक सोते हैं। उड़ते समय नींद अन्य पक्षी प्रजातियों के बीच भी आम बात हो सकती है। हालांकि वैज्ञानिकों के पास इसके लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है लेकिन सामान्य स्विफ्ट (एपस एपस) बिना रुके 10 महीने तक उड़ सकती है।

कुल मिलाकर अभी तक तो यही लगता है कि बिलकुल भी न सोने वाला कोई जीव नहीं है। चाहे थोड़ी-सी ही सही, मगर जैव विकास के इतिहास में नींद का बने रहने दर्शाता है कि इसकी कुछ अहम भूमिका है और न्यूनतम नींद अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

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नैनोपार्टिकल से चूहे रात में देखने लगे

वैज्ञानिकों ने माउस (एक किस्म का चूहा) की आंखों में कुछ परिवर्तन करके उन्हें रात में देखने की क्षमता प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। किया यह गया है कि इन चूहों की आंख में कुछ अतिसूक्ष्म कण (नैनोकण) जोड़े गए हैं जो अवरक्त प्रकाश को दृश्य प्रकाश में बदल देते हैं।

आंखों में प्रकाश को ग्रहण करके उसे विद्युतीय संकेतों में बदलने का काम रेटिना में उपस्थित प्रकाश ग्राही कोशिकाओं द्वारा किया जाता है। जब ये संकेत मस्तिष्क में पहुंचते हैं तो वहां इन्हें दृश्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। रेटिना पर विभिन्न किस्म के प्रकाश ग्राही होते हैं जो अलग-अलग रंग के प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं। मनुष्यों में तीन प्रकार के प्रकाश संवेदी रंजक पाए जाते हैं जो हमें रंगीन दृष्टि प्रदान करते हैं और एक रंजक होता है जो काले और सफेद के बीच भेद करने में मदद करता है। यह वाला रंजक खास तौर से कम प्रकाश में सक्रिय होता है। इसके विपरीत चूहों में तथा कुछ वानरों में मात्र दो रंगीन रंजक होते हैं और एक रंजक मद्धिम प्रकाश के लिए होता है।

पहले वैज्ञानिकों ने चूहों में तीसरे रंजक का जीन जोड़कर उन्हें मनुष्यों के समान दृष्टि प्रदान की थी। मगर यह पहली बार है कि किसी जंतु को अवरक्त यानी इंफ्रारेड प्रकाश को देखने में सक्षम बनाया गया है। आम तौर पर प्रकाश का अवरक्त हिस्सा गर्मी पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है।

हेफाई स्थित चीनी विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विश्वविद्यालय के ज़्यू तिएन ने मैसाचुसेट्स मेडिकल स्कूल के गांग हान के साथ मिलकर उपरोक्त अनुसंधान किया है। हान ने कुछ समय पहले ऐसे नैनोकण विकसित किए थे जो अवरक्त प्रकाश को नीले प्रकाश में तबदील कर सकते हैं। इस सफलता से प्रेरित होकर हान और ज़्यू ने सोचा कि यदि ऐसे नैनोकण चूहों के प्रकाश ग्राहियों में जोड़ दिए जाएं तो वे रात में भी देख सकेंगे।

अगला कदम यह था कि नैनोकणों में इस तरह के परिवर्तन किए गए कि वे अवरक्त प्रकाश को नीले की बजाय हरे प्रकाश में तबदील करें। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि जंतुओं के हरे प्रकाश ग्राही नीले की अपेक्षा ज़्यादा संवेदनशील होते हैं। इसके बाद इन नैनोकणों पर एक ऐसे प्रोटीन का आवरण चढ़ाया गया जो प्रकाश ग्राही कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित एक शर्करा अणु से जुड़ जाता है। जब ये नैनोकण चूहों के रेटिना के पिछले भाग में इंजेक्ट किए गए तो ये प्रकाश ग्राही कोशिकाओं से जुड़ गए और 10 हफ्तों तक जुड़े रहे। और परिणाम आशा के अनुरूप रहे। चूहों की आंखें अवरक्त प्रकाश के प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया देने लगी जैसी वह दृश्य प्रकाश के प्रति देती है। इसके अलावा रेटिना और मस्तिष्क के दृष्टि सम्बंधी हिस्से में विद्युतीय सक्रियता देखी गई। इसके बाद इन चूहों को सामान्य दृष्टि सम्बंधी परीक्षणों से गुज़ारा गया और यह स्पष्ट हो गया कि वे अंधेरे में देख पा रहे थे।

सेल में प्रकाशित इस पर्चे के निष्कर्षों की चर्चा करते हुए ज़्यू ने कहा है कि उन्हें यकीन है कि यह मनुष्यों में कारगर होगा और यदि होता है तो सैनिकों को रात में बेहतर देखने की क्षमता प्रदान की जा सकेगी। इसके अलावा यह आंखों की कुछ खास दिक्कतों के संदर्भ में उपयोगी साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

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