सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के प्रमुख पड़ाव – 2 – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मुक्त भारत के कंप्यूटर विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान के वरिष्ठ प्रोफेसर वी. राजारामन ने हाल ही में एक किताब लिखी है जिसका शीर्षक है: सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के प्रमुख आविष्कार (Groundbreaking Inventions in Information and Communication Technology)। इस किताब में उन्होंने पिछले कुछ समय में किए गए 15 आविष्कारों पर चर्चा की है। पिछले लेख में मैंने इनमें से सात आविष्कारों पर चर्चा की थी। इस लेख में हम बाकी आठ आविष्कारों पर चर्चा करेंगे।

पिछले लेख में बताए गए सातवें नवाचार, कंप्यूटर ग्राफिक्स, को याद करें। कंप्यूटर ग्राफिक्स ने डिजिटल डैटा को एक नया मकाम दिया और कंप्यूटर डिसप्ले पर डिजिटल डैटा का प्रदर्शन तस्वीरों और मूवीज़ के रूप में संभव बनाया। ग्राफिकल यूज़र इंटरफेस (क्रछक्ष्) ने डिसप्ले पर मौजूद किसी भी आइकॉन को इंगित करना और एक क्लिक में उसे खोलना संभव किया, जैसे पॉवर पॉइंट शुरू करना।

शुरुआत कंप्यूटर ‘माउस’ से हुई थी जिसकी मदद से कंप्यूटर डिसप्ले पर कर्सर को घुमाया-फिराया जा सकता था। और अब आधुनिक, हाथ में समाने वाले कंप्यूटरों में माउस की जगह टच स्क्रीन कर्सर ने ले ली है।

यह किताब इन आविष्कारों के आविष्कारकों के जीवन वृतांत और उनकी उपलब्धियों से भरपूर है। साथ ही आविष्कारों के तकनीकी विवरण ‘बॉक्स आइटम’ के रूप में दिए गए हैं (किताब में 52 बॉक्स आइटम हैं)। इन्हें पढ़कर छात्रों और भावी आविष्कारकों को अवश्य ही प्रेरणा मिलेगी।

अगला महत्वपूर्ण आविष्कार है इंटरनेट का विकास। नि:संदेह यह 20वीं सदी के महानतम आविष्कारों में से एक है। इसने ई-मेल के ज़रिए संवाद करना, यूट्यूब वीडियो देखना व कई अन्य एप्लीकेशन्स का उपयोग संभव बनाया, जिन्हें आज हम मानकर चलते हैं।

दो महत्वपूर्ण आविष्कारों से इंटरनेट का विकास हुआ। पहला, बड़े डैटा को भेजने के पूर्व छोटे पैकेटों में तोड़ना। इसका आविष्कार पॉल बारान और डोनाल्ड डेविस ने किया था। और दूसरा, ट्रांसमिशन कंट्रोल/इंटरनेट प्रोटोकॉल (च्र्क्घ्/क्ष्घ् प्रोटोकॉल) का मानकीकरण। इस प्रोटोकॉल ने मौजूदा टेलीफोन इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग करके दुनिया भर में फैले विभिन्न कंप्यूटर नेटवक्र्स को आपस में जोड़ना संभव बनाया। च्र्क्घ्/क्ष्घ् प्रोटोकॉल विंटन सर्फ और रॉबर्ट कान द्वारा बनाया गया था।

नौवां आविष्कार है ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (क्रघ्च्)। क्रघ्च् किसी एक जगह (अ) से दूसरी जगह (ब) तक जाने के लिए हमें सबसे सही रास्ता खोजने में मदद करता है। पहले नाविक आकाश में तारों की स्थिति देखकर स्थान और मार्ग का पता लगाया करते थे। इसके बाद चुंबकीय दिशासूचक की खोज ने रास्ता ढूंढने में सहायता की, और फिर मार्कोनी (या संभवत: जे.सी. बोस) द्वारा किया गया बेतार रेडियो का आविष्कार इसमें सहायक बना। प्रो. राजारामन बताते हैं कि उपग्रहों के प्रक्षेपण के बाद यह पता लग गया था कि कुछ उपग्रहों से प्रसारित संकेत, दुनिया में कहीं भी किसी वस्तु के अक्षांश, देशांतर और ऊंचाई के बारे में कुछ मीटर की सटीकता से पता लगा सकते हैं। इस महंगी परियोजना की अगुवाई रोजर ईस्टन, ब्रोडफोर्ड पार्किंसन और इवान गेटिंग द्वारा की गई थी, जो अमेरिकी रक्षा विभाग द्वारा समर्थित थी।

दसवां आविष्कार है वल्र्ड वाइड वेब (ज़्ज़्ज़्)। इस आविष्कार ने इंटरनेट का बुनियादी ढांचा मुफ्त उपलब्ध कराया। इसकी बदौलत दुनिया भर के कंप्यूटरों में सहेजे गए अरबों (सार्वजनिक) दस्तावेज़ों का कोई भी उपभोक्ता उपयोग कर सकता है। और यह मुख्य रूप से संभव हो सका टिम बर्नर्स-ली के कार्य से। उन्होंने हाइपरटेक्स्ट मार्कअप लैंग्वेज (क्तच्र्ग्ख्र्) में लिखे गए दस्तावेज़ों को आपस में जोड़ने के लिए हाइपरटेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल (क्तच्र्च्र्घ्) नामक प्रोटोकॉल बनाया था। प्रो. राजारामन बताते हैं: ‘ज़्ज़्ज़् इंटरनेट से जुड़े कंप्यूटरों में सहेजा गया क्तच्र्ग्ख्र् भाषा में लिखा कंटेंट है, जिस तक क्तच्र्च्र्घ् का उपयोग करके पंहुचा जा सकता है।’

वल्र्ड वाइड वेब पर कोई ‘जुम्ला’ लिखकर सम्बंधित जानकारी/दस्तावेज़ों को ढूंढा या हासिल किया जाता है जैसे: भारत के राज्यों की राजधानियां, और इसके लिए हमें एक सॉफ्टवेयर की ज़रूरत पड़ती है। इस सॉफ्टवेयर को हम सर्च इंजिन के रूप में जानते हैं, यही ग्यारहवां नवाचार है। गूगल ऐसा ही सर्च इंजिन है। इसने लैरी पेज और सेर्जी ब्रिान द्वारा विकसित एल्गोरिदम के दम पर बाज़ार पर कब्ज़ा कर लिया है।

बारहवां नवाचार है मल्टीमीडिया का डिजिटलीकरण और संक्षेपण। किसी टेक्स्ट, चित्र, ऑडियो या वीडियो को प्रोसेस करने के लिए उसे 0 और 1 के डिजिटल रूप में बदलना होता है। डिजिटल रूप में डैटा में 0 और 1 की संख्या बहुत अधिक होती है। डैटा में ह्यास के बिना और किफायती ढंग से डैटा प्रसारित करने के लिए डैटा का संक्षेपण किया जाता है। डैटा संक्षेपण के लिए कई एल्गोरिदम मौजूद हैं, जिनके बारे में किताब में बोधगम्य तरीके से बताया गया है।

अगला आविष्कार है मोबाइल कंप्यूटिंग। औद्योगिक, वैज्ञानिक और चिकित्सा उपयोगों के लिए आरक्षित वायरलेस बैंड को सरकार ने 1985 में निरस्त कर दिया था और डैटा के संचार के लिए इसका उपयोग करने की अनुमति दी थी। इसकी मदद से लैपटॉप ख्र्ॠग़् से बेतार जोड़े जा सकते हैं। बेतार प्रसारण के लिए प्रोटोकॉल का मानकीकरण हुआ, जिसने वाईफाई को जन्म दिया। इंटरनेट के उपयोग ने हमें व्हाट्सएप जैसे एप्लीकेशन्स दिए। और 3जी और 4जी मोबाइल सर्विस आने से स्मार्ट फोन विकसित हुए।

चौदहवां नवाचार है क्लाउड कंप्यूटिंग। क्लाउड कंप्यूटिंग यानी ज़रूरत के समय अन्यत्र उपलब्ध कंप्यूटर संसाधन, खासकर डैटा स्टोरेज, और कंप्यूटिंग क्षमता का उपयोग करना। अमेज़ॉन और गूगल जैसी कंपनियों ने अपने कंप्यूटिंग व्यवसाय के लिए विशाल कंप्यूटिंग व्यवस्था बनाई हुई है। कोई भी ‘ज़रूरत के हिसाब’ से भुगतान करके इनकी इस कंप्यूटिंग क्षमता का उपयोग कर सकता है। यह इंटरनेट के आगमन और इंटरनेट उपयोग की घटती कीमत से संभव हुआ है।

पंद्रहवां नवाचार है डीप लर्निंग। तंत्रिका वैज्ञानिक मैककुलोक और गणितज्ञ वाल्टर पिट्स ने मिलकर मानव मस्तिष्क के न्यूरॉन का मॉडल तैयार किया था। जेफ्री हिंटन और डेविड रुमेलहार्ट ने बहुस्तरीय तंत्रिका नेटवर्क कंप्यूटर पर सिमुलेट किया। विशाल डैटा की मदद से प्रशिक्षण देकर इस मॉडल को चेहरे और वाणी पहचान के लिए तैयार किया जा सकता है। यह आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का एक पहलू है, जिसे भविष्य की चालक-रहित कार बनाने जैसे कामों में उपयोग किया जाएगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images-na.ssl-images-amazon.com/images/I/51Ur-gIqG6L.SX327_BO1,204,203,200.jpg

कांटों, सूंडों, सुइयों का भौतिक शास्त्र

चुभने वाली चीज़ें प्रकृति में कई भूमिकाएं अदा करती हैं। कैक्टस व अन्य पौधों के कांटे उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, मच्छर की सूंड उसे खून पीने में मदद करती है, साही का कंटीला आवरण उसे बचाता है। ये सभी सीधी रचनाएं हैं जो एक सिरे पर नुकीली होती हैं। भौतिकविदों के लिए इनकी रचना में समानताएं कौतूहल का विषय रही हैं।

वैज्ञानिकों ने पहली समानता तो यह देखी कि चाहे वह नैनोमीटर की साइज़ के बैक्टीरियाभक्षी वायरस के तंतु हों या आर्कटिक सागर में पाई जाने वाली नारव्हेल की 2-3 मीटर लंबी सूंड हो, सभी लंबूतरे, पतले शंकु होते हैं जिनके आधार का व्यास उनकी कुल लंबाई की तुलना में बहुत कम होता है।

किसी भी चुभने वाली चीज़ का आकार दो परस्पर विरोधी बाधाओं से निर्धारित होता है। पहली, लक्ष्य को बेधने के लिए उसे इतना बल लगाना पड़ेगा जो लक्ष्य द्वारा उत्पन्न घर्षण के दबाव को पार कर सके। और दूसरी, यह बल इतना भी नहीं हो सकता कि बेधक रचना टूट जाए या मुड़ जाए।

वैसे तो इन दो सीमाओं को साधने के लिए कई आकृतियां – पतली और लंबी से लेकर चौड़ी और छोटी – उपयोगी हो सकती हैं लेकिन प्रकृति ने जिस आकृति को सामान्य रूप से अपनाया है उसमें आधार के व्यास और लंबाई का अनुपात लगभग 0.06 होता है। यानी यदि चुभने वाली रचना की लंबाई 5 से.मी. है तो उसके आधार का व्यास लगभग 0.3 से.मी. होगा।

डेनमार्क के तकनीकी विश्वविद्यालय के भौतिक शास्त्री कारे जेंसन का कहना है कि प्रकृति में आम तौर पर इस आकृति का चयन होने का कारण है कि प्रकृति ‘किफायत’ से काम करती है। यह सही है कि मोटे बेधक ज़्यादा टिकाऊ होंगे लेकिन उनमें कुल पदार्थ भी तो ज़्यादा लगेगा, जो सम्बंधित जीव को ही भरना पड़ेगा। इसलिए जैव विकास ऐसी रचना को वरीयता देगा जो लक्ष्य को बेधने के लिए बस पर्याप्त मज़बूत हो। नेचर फिज़िक्स में प्रकाशित शोध पत्र में जेंसन की टीम ने डिज़ाइन के इस सिद्धांत की मदद से बेधने वाली चीज़ों की आकृतियों का सटीक पूर्वानुमान प्रस्तुत किया है।

जेंसन की टीम ने ठोस शंक्वाकार बेधक चीज़ों के लिए एक सैद्धांतिक मॉडल विकसित किया। उनकी गणनाओं से पता चला कि आधार का यथेष्ट व्यास मात्र तीन बातों पर निर्भर करता है – बेधक की लंबाई, उसके पदार्थ की कठोरता और लक्षित ऊतक द्वारा उत्पन्न घर्षण का दबाव। उन्होंने यह भी पाया कि पदार्थ की कठोरता और घर्षण का दबाव ज़्यादा असर नहीं डालता। उनके अनुसार मुख्य बात आधार के व्यास और लंबाई के अनुपात की है।

पहले प्रकाशित एक मॉडल में कहा गया था कि आधार का व्यास लंबाई की तुलना में 2/3 के अनुपात में बदलता है। यानी यदि लंबाई दुगनी हो तो व्यास में 59 प्रतिशत की वृद्धि होगी। जेंसन की समीकरण दर्शाती है कि इन दो के बीच सम्बंध समानुपात का है – लंबाई दुगनी होगी तो व्यास भी दुगना हो जाएगा।

अपनी समीकरण को परखने के लिए जेंसन और उनके साथियों ने सजीवों में उपस्थित 140 बेधक अंगों, कांटों वगैरह का अध्ययन किया। इनमें कशेरुकी-अकशेरुकी, जलचर-थलचर, पौधे, शैवाल और वायरस शामिल थे। इन सभी में बेधक समीकरण से मेल खाते पाए गए। इनके अलावा मानव निर्मित सुइयां, कीलें, तीर वगैरह भी इस समीकरण पर खरे उतरे। तो लगता है समीकरण सही है। वैसे अभी इसमें कई अन्य बातों को जोड़ना शेष है – जैसे कई ऐसी रचनाएं खोखली होती हैं, कई इस तरह बनी होती हैं कि बेधते समय वे मुड़ें, या घुमावदार होती हैं वगैरह। इस प्रकार के विश्लेषण के कई वास्तविक अनुप्रयोग हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/DFD9D551-6694-4889-A6F04A2FB4D7F376_source.jpg?w=590&h=800&68625947-A1CC-40CD-964556A3FD8E4B79

रंग बदलती स्याही बताएगी आपकी थकान

जकल स्मार्ट वॉच या इलेक्ट्रॉनिक पैच जैसे पहने जा सकने वाले इलेक्ट्रॉनिक संवेदी उपकरण की मदद से रक्तचाप, रक्त शर्करा की मात्रा वगैरह की निगरानी करना संभव है। और अब एडवांस्ड मटेरियल में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन कहता है कि रंग बदलने वाली स्याही स्वास्थ्य जांच और पर्यावरण निगरानी में सहायक हो सकती है।

टफ्ट्स युनिवर्सिटी की सिल्कलैब के बायोमेडिकल इंजीनियर फियोरेन्ज़ो ओमेनेटो और उनके साथियों द्वारा तैयार यह नई रेशम-आधारित स्याही आसपास मौजूद रसायनों की उपस्थिति और मात्रा के बारे में बता सकती है। इस स्याही से रंगे कपड़ों का रंग पसीने के संपर्क में आने पर बदल जाता है, या कमरे में कार्बन मोनोऑक्साइड के प्रवेश करने पर कपड़ों पर बने चित्रों या डिज़ाइन का रंग बदल जाता है। इस स्याही को टी-शर्ट से लेकर तम्बू तक, किसी भी चीज़ पर इस्तेमाल किया जा सकता है।

वैसे तो शोधकर्ता इसके पहले दस्तानों या पैबंद पर इंकजेट प्रिंटर की मदद से स्प्रे करके छोटे सेंसर उपकरण बना चुके थे। लेकिन अब वे स्याही को कई तत्वों के साथ बड़ी चीज़ों पर प्रिंट करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने स्याही को सोडियम एल्जिनेट की मदद से गाढ़ा किया और उसमें विभिन्न अभिक्रियाशील पदार्थ मिलाए। रेशम-आधारित स्याही बनाने के लिए उन्होंने रेशम को उसके घटक प्रोटीन्स में तोड़ा, और फिर उन्हें पानी में निलंबित किया। इसके बाद उन्होंने इसमें अभिक्रियाशील रसायनों (जैसे पीएच-संवेदी सूचक और लैक्टेट ऑक्सीडेज़) मिलाए और देखा कि आसपास के वातावरण में परिवर्तन होने पर इसका परिणामी रंग कैसे बदलता है? इस स्याही से रंगे कपड़ों को पहनने पर इसमें मौजूद पीएच सूचक त्वचा के स्वास्थ्य या निर्जलीकरण के बारे में बता सकते हैं; लैक्टेट ऑक्सीडेज़ व्यक्ति की थकान के स्तर को माप सकता है। कपड़ों पर इन परिवर्तनों को आंखों से देखा जा सकता है, लेकिन विविध रंग में बदलाव को देखने और उनका डैटाबेस तैयार करने के लिए शोधकर्ताओं ने इसमें एक कैमरा-इमेजिंग विश्लेषण तकनीक का भी उपयोग किया है।

हुवाई विश्वविद्यालय के मैकेनिकल इंजीनियर टायलर रे कहते हैं कि आजकल उपलब्ध अधिकांश पहनने योग्य मॉनीटर कठोर, तार वाले और अपेक्षाकृत भारी होते हैं। वे आगे कहते हैं कि इस नई स्याही तकनीक में उपभोक्ता द्वारा शौकिया तौर पर पहनी जाने वाली वस्तुओं को नैदानिक उपकरणों में बदलने की क्षमता है जो चिकित्सकों को कार्रवाई-योग्य जानकारी दे सकती है। लेकिन किसी भी वर्णमापक तकनीक के साथ एक समस्या यह होती है कि विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियां इसकी सटीकता को प्रभावित करती हैं, जैसे प्रकाश या कैमरा। अध्ययनों में इन मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/assets/Image/2020/TShirtSensor%5B3%5D.jpg

टेलीफोन केबल से भूकंप संवेदन

कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के भूकंप विज्ञानी जोंगवेन ज़ान ने नववर्ष एक विचित्र अंदाज़ में मनाया। उन्होंने नववर्ष के जश्न के दौरान बैंड की तेज़ ध्वनि से उत्पन्न कंपन को ज़मीन के नीचे दबे प्रकाशीय तंतुओं की मदद से रिकॉर्ड किया।

गौरतलब है कि टीवी, फोन और इंटरनेट के लिए प्रकाशीय तंतु केबल का उपयोग होता है। इन महीन तारों का नेटवर्क शहरों में किसी पेड़ की जड़ों की तरह फैला है। इन तारों के भीतर कांच के कई अत्यंत बारीक तंतुओं में प्रकाश की मदद से डैटा प्रसारित किया जाता है। एक समय पर सारे तंतुओं का उपयोग नहीं होता। ऐसे ‘निष्क्रिय तंतुओं’ का उपयोग सस्ते भूकंप संवेदी के रूप में किया जा सकता है।       

ज़ान की टीम ने स्थानीय अधिकारियों से 37 किलोमीटर लंबे केबल के दो स्ट्रैंड उपयोग करने की अनुमति ली हुई थी। उन्होंने दोनों स्ट्रैंड के एक-एक छोर पर लेज़र लगा दिया जो अवरक्त प्रकाश छोड़ता था। इनमें से अधिकांश प्रकाश तो फाइबर के रास्ते आगे बढ़ा लेकिन कुछ हिस्सा फाइबर में नुक्स के कारण परावर्तित हो गया। शोधकर्ताओं ने इस परावर्तित प्रकाश के वापिस पहुंचने के समय को भी अपने उपकरणों में दर्ज किया। ज़ान के अनुसार फाइबर में खराबी के कारण प्रतिध्वनि सुनाई देती है।

कई बार मापन करके शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि के पहुंचने के समय में अंतर को देखा। इसके आधार पर वे बता पा रहे थे कि कंपन कब प्रकाशीय तंतु के उस खंड को खींचकर थोड़ा लंबा कर देते हैं। उपकरणों की मदद से फाइबर में एक मीटर खंड की लंबाई में एक अरबवें हिस्से के फैलाव का पता लगाया सकता है। तो आपके पास हज़ारों संवेदी उपकरण मौजूद हैं।

इस तकनीक को डिस्ट्रिब्यूटेड एकूस्टिक सेंसिंग कहते हैं और पूर्व में इसका उपयोग सेना द्वारा पनडुब्बियों को ताड़ने में किया जाता था। अब इनका उपयोग हर उस काम में किया जा सकता जहां कंपन शामिल हैं, जैसे भूकंप की निगरानी में।    

अलबत्ता, ज़ान और अन्य शोधकर्ता भविष्य में इसके व्यापक उपयोग को लेकर चर्चा कर रहे हैं। इसका उपयोग न केवल भूकंपों की निगरानी के लिए किया जा सकता है बल्कि ट्रैफिक पैटर्न को रिकॉर्ड करने, ज़मीन के नीचे दबी पाइप लाइन में रिसाव का पता लगाने और अनधिकृत प्रवेश का पता लगाने के लिए किया जा सकता है। ज़ान का मानना है कि इस प्रणाली को लॉस एंजिलिस जैसे बड़े शहरों में निकट भविष्य में अपनाया जा सकता है जहां पहले से हज़ारों किलोमीटर का फाइबर नेटवर्क मौजूद है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/horns_1280p.jpg?itok=1OZ0bjDn

पसीना – नैदानिक उपकरण और विद्युत स्रोत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पुराने समय में जब घर में कोई बीमार पड़ता था तो उसका इलाज करने के लिए पारिवारिक चिकित्सक को घर बुलाया जाता था। चिकित्सक सबसे पहले मरीज़ के चेहरे, कनपटी और छाती की त्वचा छूकर देखते थे। यह उन्हें जल्दी बीमारी पता लगाने में मदद करता था। त्वचा छूने पर यदि सामान्य से अधिक गर्म लगती है तो मरीज़ को बुखार है; यदि त्वचा का रंग सामान्य से अधिक फीका है, तो मरीज़ को डिहाइड्रशेन (पानी की कमी) है और उसे अधिक पानी पीने की आवश्यकता है; अगर त्वचा नीली पड़ गई है तो मरीज़ को अधिक ऑक्सीजन की ज़रूरत है; और अगर त्वचा गीली लगती है तो मरीज़ को व्यायाम या शारीरिक श्रम कम करने की ज़रूरत है। फिर वे मरीज़ को उपयुक्त औषधि के रूप में गोलियां, घुटी या इंजेक्शन देते थे।

इसके विपरीत, अब हम मरीज़ को दिखाने के लिए डॉक्टर के क्लीनिक जाते हैं, जहां रोग का पता लगाने के लिए वे मरीज़ को नैदानिक केंद्र (पैथॉलॉजी) भेजते हैं और उसकी रिपोर्ट के आधार पर दवा देते हैं। त्वचा देख-छूकर रोग का पता करना अब बीते ज़माने की बात हो गई है।

वैसे इस समय त्वचा विशेषज्ञ एक दिलचस्प तरीके का उपयोग कर रहे हैं। इस तरीके में वे एक महीन बहुलक-आधारित पट्टी में वांछित औषधि डालते हैं जिसे मरीज़ की बांह या छाती की त्वचा पर चिपका दिया जाता है। फिर इस पट्टी में बहुत हल्का विद्युत प्रवाह किया जाता है, और पसीने के माध्यम से दवा सीधे शरीर में चली जाती है। इस प्रकार यह पहनी जा सकने वाली व्यक्तिगत चिकित्सा तकनीक है जिसमें गोलियां या औषधि नहीं खानी पड़ती। माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक और जैव-संगत पोलीमर के आने से आज हमारे पास “इलेक्ट्रॉनिक त्वचा” (ई-त्वचा) है, नैनोवायर की मदद से इसे त्वचा पर जोड़ा जा सकता है और माइक्रो बैटरी की मदद से इसमें विद्युत प्रवाहित की जा सकती है।

पसीने की भूमिका

गौर करेंगे तो देखेंगे कि इसमें हमारे शरीर के सक्रिय तरल यानी पसीने को नज़रअंदाज कर दिया गया है या इसे महज एक अक्रिय वाहक के रूप में देखा जा रहा है जिसकी कोई अन्य भूमिका नहीं है। यह हाल ही में हुआ है कि हमारे शरीर में पसीने की भूमिका और इसमें मौजूद रसायनों के बारे में हमारी समझ और इसका इस्तेमाल बढ़ा है। पसीना हमारी पूरी त्वचा में वितरित तीन प्रकार की ग्रंथियों से निकलता है। ये ग्रंथियां पानी और कई अन्य पदार्थों को स्रावित करके हमारे शरीर के तापमान को 37 डिग्री सेल्सियस (या 98.4 डिग्री फैरनहाइट) बनाए रखने में मदद करती हैं। हमारे मस्तिष्क में तापमान-संवेदी तंत्रिकाएं (न्यूरॉन्स) होती हैं, जो शरीर के तापमान और चयापचय गतिविधि का आकलन करके पसीना स्रावित करने वाली ग्रंथियों को नियंत्रित करती हैं। इस तरह पसीना हमारे शरीर के तापमान को नियंत्रित रखता है।

पसीने में क्या होता है? यह 99 प्रतिशत पानी होता है जिसमें सोडियम, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम और क्लोराइड आयन, अमोनियम आयन, यूरिया, लैक्टिक एसिड, ग्लूकोज़ जैसे अन्य पदार्थ होते हैं। किसी मरीज़ के पसीने में मौजूद पदार्थों के विश्लेषण और इसकी तुलना एक सामान्य व्यक्ति के पसीने करें, तो पसीना एक नैदानिक तरल हो सकता है (ठीक उसी तरह जिस तरह शरीर के अन्य तरल पदार्थ होते हैं)। जैसे, सिस्टिक फाइब्रोसिस बीमारी में मरीज़ के पसीने में सोडियम और क्लोराइड आयनों का अनुपात और सामान्य व्यक्ति के पसीने में सोडियम और क्लोराइड आयनों का अनुपात अलग-अलग होता है। इसी तरह डायबिटीज़ के रोगी के पसीने में ग्लूकोज़ की मात्रा सामान्य व्यक्ति से अधिक होती है। लेकिन इन नैदानिक तरीकों में समस्या पसीने की मात्रा की है।

त्वचा आधारित निदान

यहां आधुनिक तकनीक का महत्व सामने आता है। अब माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक और ई-त्वचा पट्टी दोनों उपलब्ध हैं। वैज्ञानिक इनका उपयोग पट्टी में लगे उपयुक्त संवेदियों की मदद से, पसीना निकलने के वक्त ही उसमें मौजूद में कुछ चुनिंदा पदार्थों की मात्रा का पता लगाने में कर रहे हैं। लेकिन क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम ई-त्वचा पट्टी पर एक की बजाए कई पदार्थों की जांच के लिए सेंसर लगाकर, एक साथ कई जांच कर पाएं?

इस बारे में कैलिफोर्निया के जीव विज्ञानी, भौतिक विज्ञानी, कंप्यूटर विशेषज्ञ और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों द्वारा एक महत्वपूर्ण अध्ययन 2016 में नेचर पत्रिका प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने ई-त्वचा पट्टी पर एक नहीं बल्कि छह सेंसर जोड़े थे जो सोडियम, पोटेशियम, क्लोराइड आयन, लैक्टेट और ग्लूकोज़ की मात्रा और पसीने का तापमान पता करते हैं। ये सेंसर इस तरह लगाए गए थे कि सेंसर और त्वचा के बीच हमेशा संपर्क बना रहे। प्रत्येक सेंसर से आने वाले विद्युत संकेतों को डिजिटल संकेतों में परिवर्तित किया जाता है और माइक्रो-नियंत्रक को भेजा जाता है। इन संकेतों को ब्लूटूथ की मदद से मोबाइल फोन या अन्य स्क्रीन पर पढ़ा जा सकता है, या एसएमएस, ईमेल के ज़रिए किसी को भेजा जा सकता है या क्लाउड इंटरफेस पर अपलोड भी किया जा सकता है।

2017 में इन्हीं शोधकर्ताओं ने प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में एक और पेपर प्रकाशित किया था। चूंकि एक जगह स्थिर रहने वाले (या गतिहीन) लोगों में प्राकृतिक रूप से पसीना बहुत कम निकलता है इसलिए शोधकर्ताओं ने आयनटोफोरेसिस नामक तरीके का उपयोग किया। इसमें वांछित स्थान को पसीना स्रावित करने के लिए उत्तेजित किया जा सकता है और पर्याप्त मात्रा में पसीना प्राप्त किया जा सकता है। फिर किसी सामान्य व्यक्ति और सिस्टिक फाइब्रोसिस वाले व्यक्तियों में सम्बंधित पदार्थों का विश्लेषण किया और पसीने में ग्लूकोज के स्तर को भी देखा। जांच के लिए प्रयुक्त शीट उनके द्वारा पूर्व में उपयोग की गई एकीकृत शीट जैसी थी। अध्ययन में उन्होंने पाया कि एक सामान्य व्यक्ति में प्रति लीटर 26.7 मिली मोल सोडियम आयन और 21.2 मिली मोल क्लोराइड आयन होते हैं (ध्यान दें कि यहां सोडियम आयन का स्तर क्लोराइड आयन के स्तर से अधिक है), जबकि सिस्टिक फाइब्रोसिस के रोगी में सोडियम आयन का स्तर 2.3 मिली मोल और क्लोराइड आयन का स्तर 95.7 मिली मोल था (जो सोडियम आयन की अपेक्षा कहीं अधिक है)। ध्यान रहे कि सिस्टिक फाइब्रोसिस विशेषज्ञों द्वारा किए जाने वाली सामान्य जांच में भी यही नतीजे मिलते हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि उपवास के दौरान ग्लूकोज़ पीने पर पसीने और रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है।

गौरतलब है कि इन सब परीक्षणों में, प्रोब और सेंसरों को संचालित करने के लिए माइक्रोबैटरी की मदद से विद्युत प्रवाहित करने की आवश्यकता पड़ती है। यदि इन ई-त्वचा का रोबोटिक्स और अन्य उपकरणों में उपयोग करना है, तो क्या हम इन बैटरियों से निजात पा सकते हैं, और पसीने में मौजूद पदार्थों का उपयोग विद्युत उत्पन्न करने वाले जैव र्इंधन के रूप में कर सकते है?

कुछ दिनों पहले साइंस रोबोटिक्स में प्रकाशित शोध इसी सवाल का जवाब देता है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लोगों की ई-त्वचा पट्टी पर लॉक्स एंज़ाइम जोड़ा। यह लॉक्स एंज़ाइम पसीने में मौजूद लैक्टेट के साथ क्रिया करता है और इसे एक बायोएनोड (जैविक धनाग्र) पर पायरुवेट में ऑक्सीकृत कर देता है, और एक बायोकेथोड (जैविक ऋणाग्र) पर ऑक्सीजन को पानी में अवकृत कर देता है। इस प्रकार उत्पन्न विद्युत ऊर्जा, बिना किसी बाहरी स्रोत के, ई-त्वचा पट्टी को संचालित करने के लिए पर्याप्त होती है – क्या शानदार तरीका है!

और अंत में, कोविड-19 संक्रमण के दिनों में यह जानना लाभप्रद है कि पसीने में कोई भी रोगजनक (बैक्टीरिया या वायरस) नहीं होता; इसके उलट इसमें एक कीटाणु-नाशक प्रोटीन होता है जिसे डर्मसीडिन कहते हैं। हो सकता है कि डर्मसीडिन या इसका संशोधित रूप एंटी-वायरस की तरह काम कर जाए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.allaboutcircuits.com/uploads/thumbnails/Perspiration-powered_electronic_skin.jpg

एंज़ाइम की मदद से प्लास्टिक पुनर्चक्रण

दुनिया भर में प्लास्टिक रिसाइक्लिंग एक बड़ी समस्या है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित शोध के मुताबिक इस समस्या के समाधान में शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक ऐसा एंज़ाइम तैयार किया है जो प्लास्टिक को 90 प्रतिशत तक रिसाइकल कर सकता है।

पॉलीएथिलीन टेरेथेलेट (PET) दुनिया में सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक है। इसका सालाना उत्पादन लगभग 7 करोड़ टन है। वैसे तो अभी भी PET का पुनर्चक्रण किया जाता है लेकिन इसमें समस्या यह है कि पुनर्चक्रण के लिए कई रंग के प्लास्टिक जमा होते हैं। जब इनका पुनर्चक्रण किया जाता है तो अंत में भूरे या काले रंग का प्लास्टिक मिलता है। यह पेकेजिंग के लिए आकर्षक नहीं होता इसलिए इसे या तो चादर के रूप में या अन्य निम्न-श्रेणी के फाइबर प्लास्टिक में बदल दिया जाता है। और अंतत: इसे या तो जला दिया जाता है या लैंडफिल में फेंक दिया जाता है जिसे पुनर्चक्रण तो नहीं कहा जा सकता।

इसी समस्या के समाधान में वैज्ञानिक एक ऐसे एंज़ाइम की खोज में थे जो PET और अन्य प्लास्टिक का पुनर्चक्रण कर सके। 2012 में ओसाका विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं को कम्पोस्ट के ढेर में LLC नामक एक एंज़ाइम मिला था जो PET के दो बिल्डिंग ब्लॉक, टेरेथेलेट और एथिलीन ग्लायकॉल, के बीच के बंध को तोड़ सकता है। प्रकृति में इस एंज़ाइम का काम है कि यह कई पत्तियों पर मौजूद मोमी आवरण का विघटन करता है। LLC सिर्फ पीईटी बंधों को तोड़ सकता है और वह भी धीमी गति से। लेकिन यदि तापमान 65 डिग्री सेल्सियस हो तो कुछ समय काम करने के बाद यह नष्ट हो जाता है। इसी तापमान पर तो PET नरम होना शुरू होता है और तभी एंज़ाइम आसानी से प्लास्टिक के बंध तक पहुंचकर उन्हें तोड़ सकेगा।

हालिया शोध में प्लास्टिक कंपनी कारबायोस के एलैन मार्टी और उनके साथियों ने इस एंज़ाइम में कुछ फेरबदल किए। उन्होंने उन अमिनो अम्लों का पता किया जिनकी मदद से यह एंज़ाइम टेरेथेलेट और एथिलीन ग्लाइकॉल समूहों के रासायनिक बंध से जुड़ता है। उन्होंने इस एंज़ाइम को उच्च तापमान पर काम करवाने के तरीके भी खोजे।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने ऐसे सैकड़ों परिवर्तित एंज़ाइम्स की मदद से PET प्लास्टिक का पुनर्चक्रण करके देखा। कई प्रयास के बाद उन्हें एक ऐसा परिवर्तित एंज़ाइम मिला जो मूल LLC की तुलना में 10,000 गुना अधिक कुशलता से PET बंध तोड़ सकता है। यह एंज़ाइम 72 डिग्री सेल्सियस पर भी काम करता है। प्रायोगिक तौर पर इस एंज़ाइम ने 10 घंटों में 90 प्रतिशत 200 ग्राम PET का पुनर्चक्रण किया। इस प्रक्रिया से प्राप्त टेरेथेलेट और एथिलीन ग्लायकॉल से PET और प्लास्टिक बोतल तैयार किए गए जो नए प्लास्टिक जितने मज़बूत थे। हालांकि अभी स्पष्ट नहीं है कि यह आर्थिक दृष्टि से कितना वहनीय होगा लेकिन इसकी खासियत यह है कि इससे जो प्लास्टिक मिलता है वह नए जैसा टिकाऊ और आकर्षक होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.fastcompany.net/image/upload/w_937,ar_16:9,c_fill,g_auto,f_auto,q_auto,fl_lossy/wp-cms/uploads/2019/10/p-1-90412215-hitachi-wants-to-use-a-plastic-eating-enzyme-to-clean-up-plastic-pollution-1.jpg

कोरोना के खिलाफ लड़ाई में टेक्नॉलॉजी बना हथियार – प्रदीप

स समय देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया कोरोना वायरस नामक एक ऐसे दुष्चक्र में फंसी है जिससे निकलने के लिए असाधारण कदमों और उपायों की ज़रूरत है। महामारी कोविड-19 फैलाने वाले कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या दुनिया में साढ़े सात लाख तक पहुंच गई है और 33 हज़ार से अधिक लोग जान गंवा चुके हैं। हर रोज़ संक्रमित लोगों और मौतों की संख्या बढ़ती जा रही है और यह महामारी नए इलाकों में पांव पसारती जा रही है।

विशेषज्ञों का मानना है कि हम बिग डैटा, क्लाउड कंप्यूटिंग, सुपर कम्प्यूटर, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स, 3-डी प्रिंटिंग, थर्मल इमेज़िंग और 5-जी जैसी टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल करते हुए बेहद प्रभावी ढंग से कोरोनावायरस से मुकाबला कर सकते हैं। इस महामारी से निपटने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि सरकार लोगों की निगरानी रखे। आज टेक्नॉलॉजी की बदौलत सभी लोगों पर एक साथ हर समय निगरानी रखना मुमकिन है।

कोरोना वायरस के खिलाफ अपनी लड़ाई में कई सरकारों ने टेक्नॉलॉजी को मोर्चे पर लगा दिया है। टेक्नॉलॉजी का ही इस्तेमाल करते हुए चीन ने इस वायरस पर काफी हद तक काबू पाया है। लोगों के स्मार्टफोनों, चेहरा पहचानने वाले हज़ारों-लाखों कैमरों, और अपने शरीर का तापमान रिकॉर्ड करने और अपनी मेडिकल जांच की अनुमति देने की सहज इच्छा रखने वाली जनता के बल पर चीनी अधिकारियों ने न केवल शीघ्रता से यह पता कर लिया कि कौन व्यक्ति कोरोना वायरस का संभावित वाहक है बल्कि वह उन पर नज़र भी रख रहे थे कि वे किस-किस के संपर्क में आते हैं। कई सारे ऐसे मोबाइल ऐप्स हैं जो नागरिकों को संक्रमित व्यक्ति के आसपास मौजूद होने के बारे में चेतावनी देते हैं।

कोरोनावायरस को रोकने के लिए चीन ने सबसे पहले ‘कलर कोडिंग टेक्नॉलॉजी’ का इस्तेमाल किया है। इस सिस्टम के लिए चीन की दिग्गज टेक कंपनी अलीबाबा और टेनसेंट ने साझेदारी की है। यह सिस्टम स्मार्टफोन ऐप के रूप में काम करता है। इसमें यूज़र्स को उनकी यात्रा के दौरान उनकी मेडिकल हिस्ट्री के मुताबिक ग्रीन, येलो और रेड कलर का क्यूआर कोड दिया जाता है। ये कलर कोड ही यह निर्धारित करते हैं कि यूज़र को क्वॉरेंटाइन किया जाना चाहिए या फिर उसे सार्वजनिक स्थान पर जाने की इजाज़त दी जानी चाहिए। चीनी सरकार ने इस सिस्टम के लिए कई चेक पॉइंट्स बनाए हैं, जहां लोगों की चेकिंग होती हैं। यहां उन्हें उनकी यात्रा और मेडिकल हिस्ट्री के मुताबिक क्यूआर कोड दिया जाता है। अगर किसी को ग्रीन कलर का कोड मिलता है, तो वह इसका उपयोग कर किसी भी सार्वजनिक स्थान पर जा सकता है। तो दूसरी तरफ अगर किसी को लाल कोड मिलता है, तो उसे क्वारेंटाइन कर दिया जाता है। इस सिस्टम का इस्तेमाल 200 से ज़्यादा चीनी शहरों में हुआ है। भारत में भी ऐप आधारित कलर कोडिंग टेक्नॉलॉजी विकसित करने के प्रयास ज़ोर-शोर से किए जा रहे हैं।

भारत में भी रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों और अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के अधिकारी दूर से तापमान रिकॉर्ड करने के लिए स्मार्ट थर्मल स्कैनर का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस तरह संभावित कोरोना वायरस वाहक की पहचान करने में आसानी हो रही है। भारत में बाज़ार-केंद्रित हेल्थ टेक स्टार्टअप कंपनियां भी रोग के निदान के लिए नवाचार की ओर कमर कस रही हैं, इससे हेल्थ केयर सिस्टम पर दबाव कम हो रहा है। कन्वर्जेंस कैटालिस्ट के संस्थापक जयंत कोल्ला बैंगलुरु स्थित स्टार्टअप, वनब्रोथ का उदाहरण देते हैं। इसने सस्ते और टिकाऊ वेंटिलेटर विकसित किए हैं। ये भारत की ग्रामीण आबादी को ध्यान में रखकर किया गया है, जहां अस्पतालों और डॉक्टरों तक पर्याप्त पहुंच का अभाव है। एक अन्य बैंगलुरु-आधारित स्टार्टअप डे-टु-डे ने घर पर क्वारेंटाइन रोगियों को विभिन्न सुविधाओं और अस्पतालों में रखने के लिए एक केयर मैनेजमेंट सॉल्यूशन विकसित किया है और इसके ज़रिए बाद में निदान गतिविधियों जैसे कि स्वास्थ्य जांच, आहार, अनुवर्ती परीक्षण आदि को भी पूरा किया जाता है।

चीन सहित विभिन्न देशों ने कोरोना वायरस को मात देने के लिए रोबोट का इस्तेमाल किया है। ये रोबोट होटल से लेकर ऑफिस तक में साफ-सफाई का काम करते हैं और साथ ही आस-पास की जगह पर सैनिटाइज़र का छिड़काव भी करते हैं। वहीं, दूसरी तरफ चीन की कई टेक कंपनियां भी इन रोबोट का उपयोग मेडिकल सैंपल भेजने के लिए करती थीं। कोरोना वायरस को रोकने के लिए चीन ने ड्रोन का इस्तेमाल किया है। साथ ही इन ड्रोन्स के ज़रिए चीनी सरकार ने लोगों तक फेस मास्क और दवाइयां पहुंचाई हैं। इसके अलावा इन डिवाइसेस के ज़रिए कोरोना वायरस से संक्रमित क्षेत्रों में सैनिटाइजर का छिड़काव भी किया गया है।

कोरोना वायरस को ट्रैक करने के लिए फेस रिकॉग्निशन सिस्टम का इस्तेमाल बेहद कारगर साबित हो रहा है। इस सिस्टम में इंफ्रारेड डिटेक्शन तकनीक मौजूद है, जो लोगों के शरीर के तापमान जांचने में मदद करती है। इसके अलावा फेस रिकॉग्निशन सिस्टम यह भी बताता है कि किसने मास्क पहना है और किसने नहीं।

वैज्ञानिक कोरोना के टीके और दवाई विकसित करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) का इस्तेमाल कर रहें हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि एंटीबायोटिक दवाओं के बैक्टीरिया पर घटते असर को ध्यान में रखते हुए पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिक एआई की मदद से ऐसे प्लेटफॉर्म तैयार करने की कोशिश रहे हैं जिससे नए किस्म की दवाओं की खोज की जा सके और एंटीबायोटिक दवाओं को बेअसर करने वाले बैक्टीरिया का खात्मा किया जा सके। हाल ही में वैज्ञानिक समुदाय को इस दिशा में एक बड़ी कामयाबी हासिल हुई है। अमेरिका के एमआईटी के वैज्ञानिकों ने आर्टिफिशिल इंटेलीजेंस (एआई) के मशीन-लर्निंग एल्गोरिदम की मदद से पहली बार एक नया और बेहद शक्तिशाली एंटीबायोटिक तैयार किया है। शोधकर्ताओं का दावा है कि इस एंटीबायोटिक से तमाम घातक बीमारियों को पैदा करने वाले बैक्टीरिया को भी मारा जा सकता है। इसको लेकर दावे इस हद तक किए जा रहे हैं कि इस एंटीबायोटिक से उन सभी बैक्टीरिया का खात्मा किया जा सकता है जो सभी ज्ञात एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर चुके हैं। इस नए एंटीबायोटिक की खोज ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से कोरोना के खिलाफ एक कारगर एंटी वायरल दवा विकसित करने की वैज्ञानिकों की उम्मीदों को बढ़ा दिया है।

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि आज टेक्नॉलॉजी ने किसी महामारी से लड़ने के लिए हमारी क्षमताओं को काफी हद तक बढ़ा दिया है। जिसकी बदौलत हम परंपरागत रक्षात्मक उपायों को करते हुए महामारी के विरुद्ध कारगर ढंग से लड़ने में सक्षम हुए हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/45907C19-26EE-4F33-A692839E8348B3F5_source.jpg?w=590&h=800&384A6689-9106-44AC-95961FAAE8D57C31

कोरोना संक्रमितों की सेवा में अब रोबोट – जाहिद खान

दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा फिलवक्त कोविड-19 से बुरी तरह से जूझ रहा है। डॉक्टर, नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी कोरोना संक्रमित मरीज़ों के इलाज और देखभाल में जी-जान से लगे हुए हैं। समूची मानवजाति के ऊपर आई इस संकट की घड़ी में अब रोबोट भी इंसान के मददगार बन रहे हैं। उन्हें इस खतरनाक बीमारी से उबरने में मदद कर रहे हैं।

राजस्थान में जयपुर स्थित एसएमएस हॉस्पिटल में कोरोना संक्रमित मरीज़ों की सेवा के लिए तीन रोबोट की ड्यूटी लगाई गई है। ये रोबोट कोरोना संक्रमित व्यक्तियों तक दवा, पानी व दीगर ज़रूरी सामान ले जाने का काम करेंगे। रोबोट की ड्यूटी यहां लगाए जाने से कोरोना पीड़ितों के आसपास मेडिकल स्टाफ का मूवमेंट कम हो जाएगा। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हॉस्पिटल में इंसानों की वजह से कोविड-19 वायरस के प्रसार की जो संभावना रहती है, वह काफी कम हो जाएगी। मरीज़ के संपर्क में न आ पाने से बाकी लोगों में संक्रमण नहीं फैलेगा, वे सुरक्षित रहेंगे। ज़ाहिर है, जब डॉक्टर, नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी सुरक्षित रहेंगे, तो वे अपना काम और भी बेहतर तरीके से कर सकेंगे। देखा जाए तो यह एक छोटी-सी शुरुआत ही है। देश भर के बाकी अस्पतालों में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी अपने स्वास्थ्य और जान की ज़रा-सी भी परवाह किए बिना मुस्तैदी से अपने फर्ज़ को अंजाम देने में लगे हुए हैं।

‘रोबोट सोना 2.5’ नामक ये रोबोट पूरी तरह भारतीय तकनीक और मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के तहत जयपुर में ही बनाए गए हैं। युवा रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने इन्हें तैयार किया है।  सबसे बड़ी खासियत यह है कि ‘सोना 2.5’ रोबोट लाइन फॉलोअर नहीं हैं बल्कि ऑटो नेविगेशन रोबोट हैं। यानी इन्हें मूव कराने के लिए किसी भी तरह की लाइन बनाने की ज़रूरत नहीं होती है। इंसानों की तरह ये रोबोट सेंसर की मदद से खुद नेविगेट करते हुए अपना रास्ता बनाते हैं और लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। इन्हें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, आईओटी और एसएलएएम तकनीक का शानदार इस्तेमाल करके तैयार किया गया है।

सर्वर के कमांड मिलने पर ये रोबोट सबसे पहले अपने लिए एक छोटे रास्ते का मैप क्रिएट करते हैं। अच्छी बात यह है कि ये किसी भी फर्श या फ्लोर पर आसानी से मूव कर सकते हैं। इन्हें वाई-फाई सर्वर के ज़रिए लैपटॉप या स्मार्ट फोन से भी ऑपरेट किया जा सकता है। ऑटो नेविगेशन होने से इन्हें अंधेरे में भी मूव कराया जा सकता है।

एक खूबी और है कि इनमें ऑटो डॉकिंग प्रोग्रामिंग की गई है, जिससे बैटरी डिस्चार्ज होने से पहले ही ये खुद चार्जिंग पॉइंट पर जाकर ऑटो चार्ज हो जाएंगे। एक बार चार्ज होने पर ये सात घंटे तक काम कर सकते हैं और इन्हें चार्ज होने में तीन घंटे का समय लगता है। यानी इन रोबोट में वे सारी खूबियां हैं, जिनके दम पर ये अपना काम बिना रुके, बदस्तूर करते रहेंगे। विज्ञान और वैज्ञानिकों का मानवजाति के लिए यह वाकई एक चमत्कारिक उपहार है जिसे नमस्कार किया जाना चाहिए।

अकेले राजस्थान में ही नहीं, केरल में भी यह अभिनव प्रयोग शुरू किया जा रहा है। कोच्चि की ऐसी ही स्टार्टअप कंपनी ने अस्पतालों के लिए एक खास रोबोट तैयार किया है जो मेडिकल स्टाफ की मदद करेगा। तीन चक्कों वाला यह रोबोट खाना और दवाइयां पहुंचाने के काम आएगा। यह पूरे अस्पताल में आसानी से घूम सकता है। इसे सात लोगों ने मिलकर महज 15 दिनों के अंदर तैयार किया है। इसी तरह की पहल नोएडा के फेलिक्स अस्पताल ने भी की है।

डॉक्टरों एवं मेडिकल स्टाफ को कोविड-19 जैसे घातक वायरस से बचाने के लिए रोबोट का इस्तेमाल होगा। कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों के बीच दुनिया भर के अस्पताल काम के बोझ से दबे हुए हैं। मरीज़ों का इलाज और देखभाल करते हुए डॉक्टरों को ज़रा-सी भी फुर्सत नहीं मिल रही है। मरीज़ों की तादाद रोज़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा मेडिकल स्टाफ की ज़रूरत है।

इसी तरह की परेशानियों के मद्देनजर आयरलैंड के एक अस्पताल में भी रोबोट्स को काम पर लगाने का फैसला किया गया है। डबलिन के मेटर मिजरिकॉरडी यूनिवर्सिटी अस्पताल में रोबोट्स प्रशासनिक और कंप्यूटर का काम कर रहे हैं, जो आम तौर पर नर्सों के ज़िम्मे होता है। ये रोबोट कोविड-19 से जुड़े नतीजों का विश्लेषण भी कर रहे हैं। इन रोबोट को बनाने वाले एक्सपर्ट्स अपने काम से अभी संतुष्ट नहीं हैं। वे कोशिश कर रहे हैं कि ये रोबोट डिसइन्फेक्शन करने, टेंपरेचर नापने और सैंपल कलेक्ट करने का काम भी कुशलता से कर सकें।

मानव जैसी स्पाइन टेक्नॉलॉजी वाले दुनिया के पहले रोबोट का सबसे पहले इस्तेमाल, उत्तर प्रदेश के रायबरेली स्थित रेल कोच फैक्टरी में पिछले साल 18 नवंबर को किया गया था। ‘सोना 1.5’ नामक इस स्वदेशी ह्यूमनॉयड रोबोट का निर्माण भी रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने किया है। इस रोबोट का इस्तेमाल दस्तावेज़ों को एक स्थान से दूसरी जगह ला-ले जाने, विज़िटर्स का स्वागत करने, टेक्निकल डिस्कशन और ट्रेनिंग में हो रहा है।

दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा रहा है, जिनमें बार-बार एक-सी क्रियाएं करनी होती हैं। इस तरह के कामों में वे पूरी तरह से कारगर साबित होते हैं। निकट भविष्य में इसरो अपने महत्त्वाकांक्षी मिशन ‘गगनयान’ के लिए भी एक रोबोट ‘व्योम मित्र’ भेजेगा। देखना है कि रोबोट कैसे हमसफर साबित होते हैं(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://clubfirst.org/wp-content/uploads/2020/03/IMG_20200328_165309-1024×768.jpg

व्योम मित्र: एक मानव-रोबोट – डॉ. आनंद कुमार शर्मा

भारत का पहला मानव-सहित अंतरिक्ष मिशन गगनयान 2021-22 के दौरान उड़ान भरेगा। अंतरिक्ष में मनुष्य को भेजने से पहले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) सभी प्रासंगिक प्रौद्योगिकियों में महारत हासिल करने के लिए दो मानव-रहित मिशन भेजेगा।

 इसरो ने 22-24 जनवरी, 2020 को बैंगलुरु में एक तीन दिवसीय संगोष्ठी के दौरान एक महिला रोबोट अंतरिक्ष यात्री ‘व्योम मित्र’ का अनावरण किया। ‘मानव अंतरिक्ष उड़ान और अन्वेषण – वर्तमान चुनौतियां और भविष्य के रुझान’ नामक इस संगोष्ठी के उद्घाटन दिवस पर व्योम मित्र आकर्षण का केंद्र था।

इसरो के मानव-सहित अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम के तहत गगनयान पहला यान होगा, जिसे शक्तिशाली जीएसएलवी एमके III रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा।

गगनयान कक्षीय कैप्सूल में एक सेवा मॉड्यूल और एक चालक दल मॉड्यूल है। वर्तमान गगनयान योजना के अंतर्गत दो मानव-रहित और एक मानव-सहित उड़ान शामिल हैं। पहली मानव-रहित उड़ान दिसंबर 2020 में और दूसरी जुलाई 2021 में प्रस्तावित है। दो सफल मानव-रहित उड़ानों के बाद, पहला मानव-सहित मिशन दिसंबर 2021 में निर्धारित किया गया है।

समानव अंतरिक्ष यान को या तो चालक दल द्वारा या दूर से भू-स्टेशनों द्वारा संचालित किया जा सकता है, और यह स्वायत्त भी हो सकता है। समानव अंतरिक्ष यान 5-7 दिनों के लिए पृथ्वी की निम्न कक्षा में परिक्रमा करेगा और फिर उसका चालक दल मॉड्यूल सुरक्षित रूप से धरती पर वापस लौटेगा।

गगनयान मिशन का मुख्य उद्देश्य प्रौद्योगिकी प्रदर्शन है। मिशन का दूसरा उद्देश्य देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के स्तर में वृद्धि करना है। गगनयान एक अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने का अग्रदूत होगा।

मानव-रोबोट व्योम मित्र मूल रूप से एक मानव की सूरत वाला रोबोट है। उसके पास सिर्फ सिर, दो हाथ और धड़ है, निचले अंग नहीं हैं।

किसी भी रोबोट की तरह, एक मानव-रोबोट के कार्य उससे जुड़े कंप्यूटर सिस्टम द्वारा संचालित किए जाते हैं। कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा रहा है जिनमें बार-बार एक-सी क्रियाएं करनी होती हैं, जैसे कि रेस्तरां में बैरा।

इसरो की योजना 2022 तक किसी इंसान को अंतरिक्ष में भेजने की है। वह एक क्रू मॉड्यूल और रॉकेट सिस्टम विकसित करने में जुटा है जो अंतरिक्ष यात्री की सुरक्षित यात्रा और वापसी सुनिश्चित कर सके। भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को व्योमनॉट्स के नाम से संबोधित किया जाएगा। जिन अन्य देशों ने अंतरिक्ष में मनुष्यों को सफलतापूर्वक भेजा है, उन्होंने अपने रॉकेट और नाविक पुन:प्राप्ति तंत्र (क्रू रिकवरी सिस्टम) के परीक्षणों के लिए जानवरों का इस्तेमाल किया था, जबकि इसरो अंतरिक्ष में मानव को ले जाने और वापसी के लिए अपने जीएसएलवी एमके III रॉकेट की प्रभावकारिता का परीक्षण रोबोट का उपयोग करके सुनिश्चित करेगा। यह रोबोट विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, तिरुवनंतपुरम की रोबोटिक्स प्रयोगशाला में विकासाधीन है।

इसरो का जीएसएलवी एमके क्ष्क्ष्क्ष् रॉकेट इस समय सुधार के दौर से गुज़र रहा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह मनुष्य को अंतरिक्ष में ले जाने के लिए सुरक्षित है। इसकी पहली मानव-रहित उड़ान की योजना दिसंबर 2020 में निर्धारित है। क्रू मॉड्यूल प्रणाली भी विकासाधीन है, और अगले कुछ महीनों में इसके लिए इसरो कई नए परीक्षण करने का प्रयास करेगा ।

इसरो को अपनी अंतरिक्ष परियोजनाओं के लिए रोबोटिक सिस्टम बनाने का खासा अनुभव है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पहले से ही कई अंतरिक्ष मिशनों के मूल में है। उदाहरण के लिए, अंतरिक्ष यानों और प्रक्षेपण यानों में उन्मुखीकरण, गति, उपांगों की तैनाती, दूरी आदि का स्वत: मूल्यांकन, प्रसंस्करण संग्रहित निर्देशों के माध्यम से किया जाता है। इसरो का मानव रोबोट 2022 में अंतरिक्ष यात्रियों के अस्तित्व और सुरक्षित यात्रा के लिए बने क्रू मॉड्यूल का परीक्षण करने में सक्षम होगा।

व्योम मित्र रोबोट का उपयोग एक प्रयोग के रूप में किया जा रहा है। यह मानव-रहित अंतरिक्ष उड़ान में मानव शरीर के अधिकांश कार्य करेगा। व्योम मित्र बातचीत करने, जवाब देने और वापस रिपोर्ट करने के लिये मनुष्य जैसा व्यवहार करेगा। यह अंतरिक्ष यात्रियों को भी पहचान सकता है, उनसे बातचीत कर सकता है और उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकता है।

व्योम मित्र, जिनका मानव अंतरिक्ष उड़ान के लिए पहले जमीन पर परीक्षण किया जाएगा, मूलभूत कृत्रिम बुद्धि और रोबोटिक्स प्रणाली पर आधारित होगा। एक बार पूरी तरह से विकसित होने के बाद, व्योम मित्र मानव-रहित उड़ान के लिए ग्राउंड स्टेशनों से भेजे गए सभी निर्देशों को अंजाम देने में सक्षम होंगे। इनमें सुरक्षा तंत्र और स्विच पैनल का संचालन करने की प्रक्रियाएं शामिल होंगी। प्रक्षेपण और कक्षीय मुद्राओं को प्राप्त करना, मापदंडों के माध्यम से मॉड्यूल की निगरानी, पर्यावरण पर प्रतिक्रिया देना, जीवन सहायता प्रणाली का संचालन, चेतावनी निर्देश जारी करना, कार्बन डाईऑक्साइड कनस्तरों को बदलना, स्विच चलाना, क्रू मॉड्यूल की निगरानी, वॉयस कमांड प्राप्त करना, आवाज़ के माध्यम से प्रतिक्रिया देना आदि कार्य मानव रोबोट के लिए सूचीबद्ध किए गए हैं। व्योम मित्र आवाज़ के अनुसार होंठ हिलाने में सक्षम होगा। वे प्रक्षेपण, लैंडिंग और मानव मिशन के कक्षीय चरणों के दौरान अंतरिक्ष यान की सेहत जैसे पहलुओं से सम्बंधित ऑडियो जानकारी प्रदान करने में अंतरिक्ष यात्री के कृत्रिम दोस्त की भूमिका निभाएंगे।

व्योम मित्र अंतरिक्ष उड़ान के दौरान क्रू मॉड्यूल में होने वाले बदलावों को पृथ्वी पर वापस रिपोर्ट भी करेंगे, जैसे ऊष्मा विकिरण का स्तर, जिससे इसरो को क्रू मॉड्यूल में आवश्यक सुरक्षा स्तरों को समझने में मदद मिलेगी और अंतत: समानव उड़ान कर सकेंगे।

डमी अंतरिक्ष यात्रियों वाले कई अंतरिक्ष मिशन रहे हैं। कुछ मिशनों में व्योम मित्र जैसे रोबोट का उपयोग भी किया जा चुका है। हाल ही में रिप्ले नामक एक अंतरिक्ष यात्री पुतले को ड्रैगन क्रू कैप्सूल पर स्पेस एक्स फाल्कन रॉकेट द्वारा मार्च 2019 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजा गया था। रिप्ले को नासा के लिए 2020 में अंतरिक्ष में मानव भेजने के लिए स्पेस एक्स की तैयारी के एक हिस्से के रूप में बनाया गया था।

एयरबस द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर सिमोन (CIMONक्रू इंटरएक्टिव मोबाइल कंपेनियन) नामक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस रोबोट बॉल को तैनात किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर एक फ्लोटिंग कैमरा रोबोट-इंट-बॉल को जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जैक्सा) द्वारा तैनात किया गया था ।

जापान में निर्मित एक मानव-रोबोट किरोबो को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के पहले जापानी कमांडर कोइची वाकाता के साथ सहायक के रूप में अंतरिक्ष स्टेशन पर प्रयोगों के संचालन के लिए भेजा गया था। किरोबो आवाज़ पहचान, चेहरे की पहचान, भाषा प्रसंस्करण और दूरसंचार क्षमताओं जैसी प्रौद्योगिकियों से लैस था। यांत्रिक कार्यों को अंजाम देने के लिए एक रूसी मानव-रोबोट, फेडोर को 2019 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजा गया था।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.cnbctv18.com/optimize/z9ESx0u-XVFdBSaQ5hCeF_5db00=/0x0/images.cnbctv18.com/wp-content/uploads/2020/01/ISRO-Vyomamitra-PTI.jpg

हवा में से बिजली पैदा करते बैक्टीरिया

क ताज़ा अध्ययन में पता चला है कि कुछ बैक्टीरिया ऐसे नैनो (अति-सूक्ष्म) तार बनाते हैं जिनमें से होकर बिजली बहती है, हालांकि अभी शोधकर्ता यह नहीं जानते कि इस बिजली का स्रोत क्या है। वैसे एक बात पक्की है कि ये बैक्टीरिया और उनके द्वारा बनाए गए नैनो तार बिजली का उत्पादन तब तक ही करते हैं, जब तक कि हवा में नमी हो। दरअसल ये नैनो तार और कुछ नहीं, प्रोटीन के तंतु हैं जो इलेक्ट्रॉन्स को बैक्टीरिया से दूर ले जाते हैं। इलेक्ट्रॉन का प्रवाह ही तो बिजली है।

यह देखा गया है कि जब पानी की सूक्ष्म बूंदें ग्रेफीन या कुछ अन्य पदार्थों के साथ अंतर्क्रिया करती हैं तो विद्युत आवेश पैदा होता है और इन पदार्थों में से इलेक्ट्रॉन का प्रवाह होने लगता है। लगभग 15 वर्ष पूर्व मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डेरेक लवली ने खोज की थी कि जियोबैक्टर नामक बैक्टीरिया इलेक्ट्रॉन्स को कार्बनिक पदार्थों से धात्विक यौगिकों (जैसे लौह ऑक्साइड) की ओर ले जाता है। उसके बाद यह पता चला कि कई अन्य बैक्टीरिया हैं जो ऐसे प्रोटीन नैनो तार बनाते हैं जिनके ज़रिए वे इलेक्ट्रॉन्स को अन्य बैक्टीरिया या अपने परिवेश में उपस्थित तलछट तक पहुंचाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान बिजली पैदा होती है।

फिर लगभग 2 वर्ष पहले एक शोधकर्ता ने पाया कि इन नैनो तारों को बैक्टीरिया से अलग कर दिया जाए, तो भी इनमें विद्युत धारा पैदा होती रहती है। देखा गया कि जब नैनो तारों से बनी एक झिल्ली को सोने की दो चकतियों के बीच सैंडविच कर दिया जाता है, तो इस व्यवस्था में से 20 घंटे तक बिजली मिलती रहती है। इस व्यवस्था में जुगाड़ यह करना पड़ता है कि ऊपर वाली तश्तरी थोड़ी छोटी हो ताकि नैनो तार की झिल्ली नम हवा के संपर्क में रहे।

शोधकर्ताओं को इतना तो समझ में आ गया कि इलेक्ट्रॉन का स्रोत सोने की चकती नहीं है क्योंकि कार्बन चकतियों ने भी यही असर पैदा किया, जबकि कार्बन आसानी इलेक्ट्रॉन से नहीं छोड़ता। दूसरी संभावना यह हो सकती थी कि नैनो तार विघटित हो रहे हैं लेकिन पता चला कि वह भी नहीं हो रहा है। तीसरा विचार था कि हो न हो, यह प्रकाश विद्युत प्रभाव के कारण काम कर रहा है लेकिन यह विचार भी निरस्त करना पड़ा क्योंकि बिजली तो अंधेरे में भी बहती रही। अंतत: लगता है कि शायद नमी ही बिजली का स्रोत है। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने कयास लगाया है कि संभवत: पानी के विघटन के कारण बिजली बन रही है।

अब शोधकर्ताओं ने जियोबैक्टर के स्थान पर आसानी से मिलने व वृद्धि करने वाले बैक्टीरिया ई. कोली की मदद से यह जुगाड़ जमाने में सफलता प्राप्त कर ली है। यह इतनी बिजली देता है कि मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का काम चल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Nanowires_power_plant_1280x720.jpg?itok=OqgKSCRd