रबर बैंड से बना फ्रिज

ह सुनने में तो थोड़ा अजीब लगता है लेकिन रबर बैंड से भी रेफ्रीजरेटर बनाया जा सकता है। इसका एक छोटा-सा अनुभव आप भी कर सकते हैं। रबर बैंड को खींचते हुए अपने होंठों के पास लाइए, आप थोड़ी थोड़ी गर्माहट महसूस करेंगे। वापस छोड़ने पर यह ठंडा भी हो जाता है। इसे इलास्टोकैलोरिक प्रभाव कहते हैं जो ठीक उसी तरह गर्मी को स्थानांतरित करता है जिस तरह रेफ्रीजरेटर या एयर कंडीशनर में तरल को दबाकर और फिर फैलाकर किया जाता है। वैज्ञानिकों ने इसका एक ऐसा संस्करण भी तैयार किया है जिसमें रबर बैंड को खींचने के अलावा मरोड़ा या ऐंठा भी जाता है।    

इस मरोड़ने की तकनीक पर आधारित फ्रिज पर अध्ययन करते हुए चीन स्थित नंकाई युनिवर्सिटी, तियांजिन के इंजीनियरिंग स्नातक रन वांग और उनके सहयोगियों ने रबर फाइबर, नायलॉन, पॉलीएथिलीन के तार और निकल-टाइटेनियम तारों की शीतलन शक्ति की तुलना की। प्रत्येक सामग्री के 3 सेंटीमीटर लचीले फाइबर को रोटरी उपकरण की मदद से मरोड़ा गया। ऐसा करने पर ऐंठन की वजह से कुंडलियां बनीं और कुंडलियों से सुपर-कुंडलियां बन गर्इं। ऐसा करने पर विभिन्न फाइबर 15 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हुए और ढीला छोड़ने पर उतने ही ठंडे भी हो गए।

मरोड़ने पर गर्म होने की प्रक्रिया को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रत्येक फाइबर की आणविक संरचना को देखने के लिए एक्स-रे का उपयोग किया। मरोड़ने के बल ने अणुओं को अधिक व्यवस्थित कर दिया। चूंकि कुल व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आता है, इसलिए आणविक कंपन में वृद्धि हुई और तापमान बढ़ा।  

इस प्रक्रिया की ठंडा करने की क्षमता देखने के लिए शोधकर्ताओं ने मरोड़ने और खोलने की प्रक्रिया को पानी में करके देखा। रबर फाइबर में उन्होंने लगभग 20 जूल प्रति ग्राम ऊष्मा विनिमय दर्ज किया। यह माप मरोड़ने वाले उपकरण द्वारा खर्च की गई ऊर्जा की तुलना में आठ गुना अधिक था। अन्य फाइबरों का प्रदर्शन भी ऐसा ही रहा। साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इनकी दक्षता का स्तर मानक शीतलकों से तुलनीय है और बिना मरोड़े केवल खींचने से दो गुना अधिक।    

यह डिज़ाइन उन शीतलन तरलों की ज़रूरत को कम कर सकती है जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देते हैं। हालांकि शीतलन उपकरणों में ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन को तो खत्म किया जा चुका है लेकिन उसकी जगह इस्तेमाल किए जाने वाले अन्य रसायन ग्रीनहाउस गैसों की श्रेणी में आते हैं जो कार्बन डाईऑक्साइड से अधिक घातक हैं।  

इस शोधपत्र के लेखक और युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास, डलास के भौतिक विज्ञानी रे बॉगमैन और उनकी टीम ने नमूने के तौर पर निकल टाइटेनियम तारों की मदद से बॉल पॉइंट पेन के आकार का एक छोटा फ्रिज तैयार किया है। इस ट्विस्टोकैलोरिक विधि की मदद से उन्होंने चंद सेकंड में पानी की थोड़ी-सी मात्रा को 8 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर दिया। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समस्याओं का समाधान विज्ञान के रास्ते – गंगानंद झा

सत्य को झूठ से अलग करने के लिए वैज्ञानिक मिज़ाज की ज़रूरत होती है। विज्ञान के सिद्धान्त चौकस दिमाग का निर्माण करते हैं और तथ्य को भ्रामक जानकारियों से अलग समझने में मदद करते हैं।” – नोबेल विजेता वैज्ञानिक सर्ज हैरोशे ff

दिम मनुष्य बादल, आसमान, सागर, तूफान नदी, पहाड़, तरह-तरह के पेड़ पौधों, जीव-जंतुओं के बीच अपने आपको असुरक्षित, असहाय और असमर्थ महसूस करता था। वह भय, कौतुहल और जिज्ञासा से व्याकुल हो जाता था।

उसका जीवित रह पाना उसके अपने परिवेश की जानकारी और अवलोकन पर निर्भर था, इसलिए अपने देखे-अनदेखे दृश्यों से उसने अनेकों पौराणिक कथाओं की रचना की। इन कथाओं के ज़रिए मनुष्य, विभिन्न जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति की कल्पना तथा व्याख्या की गई। इन कथाओं में जानवर और पौधे मनुष्य की भाषा समझते और बोलते थे। वे एक-दूसरे का रूप धारण किया करते थे। इन कथाओं में ईश्वररूपी सृष्टा की बात कही गई। मनुष्य की चेतना ने सृष्टि के संचालक, नियन्ता, करुणामय ईश्वर का आविष्कार किया। आत्मा तथा परमात्मा की अनुभूति की उसने। वह प्रकृति के साथ एकात्मकता महसूस करने लगा। उसे सुरक्षा का आश्वासन मिला।

समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में जानकारियां इकठ्ठी होती रहीं। समाज, संस्कृतियों का विकास होता गया। हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कनफ्यूशियसवाद, इस्लाम इत्यादि ज्ञान की परंपराएं विकसित और स्थापित हुर्इं। इन सभी परंपराओं की स्थापना है कि इस संसार में जो भी जानने लायक महत्वपूर्ण बातें हैं उन्हें जाना जा चुका है। ईश्वर ने ब्राहृांड की सृष्टि की, मनुष्य और अन्य जीवों का निर्माण किया। माना गया कि प्राचीन ऋषिगण, पैगंबर और धर्मप्रवर्तक व्यापक ज्ञान से युक्त थे और यह ज्ञान धर्मग्रंथों तथा मौखिक परंपराओं में हमें उपलब्ध है। हम इन ग्रंथों तथा परंपराओं के सम्यक अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मनीषियों के उपदेशों और वाणियों से हमें इस गूढ़ ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। इस स्थापना में यह अकल्पनीय है कि वेद, बाइबल या कुरान में ब्राहृांड के किसी महत्वपूर्ण रहस्य की जानकारी न हो जिसे कोई हाड़-मांस का जीव उद्घाटित कर सके।

सोलहवीं सदी से ज्ञान की एक अनोखी परंपरा का विकास हुआ। यह परंपरा विज्ञान की परंपरा है। इसकी बुनियाद में यह स्वीकृति है कि ब्राहृांड के सारे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब हमें नहीं मालूम, उनकी तलाश करनी है।

वह महान आविष्कार जिसने वैज्ञानिक क्रांति का आगाज़ किया, वह इसी बात का आविष्कार था कि मनुष्य अपने सबसे अधिक महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं जानता। वैसे तो हर काल में, सर्वाधिक धार्मिक और कट्टर समय में भी, ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कहा कि ऐसी कई महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी जानकारी पूरी परंपरा को नहीं है। ये लोग हाशिए पर कर दिए गए या सज़ा के भागी हुए अथवा ऐसा हुआ कि उन्होंने अपना नया मत प्रतिपादित किया और कालांतर में यह मत कहने लगा कि उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं।       

सन 1543 में निकोलस कॉपर्निकस की पुस्तक De revolutionibus orbium का प्रकाशन हुआ। यह मानव सभ्यता के विकास में एक क्रांति की सूचना थी। इस क्रांति का नाम वैज्ञानिक क्रांति है। इस पुस्तक ने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि आकाशीय पिंडों का केंद्र धरती नहीं, सूरज है। यह घोषणा उस समय के स्वीकृत ज्ञान को नकारती थी, जिसके अनुसार धरती ब्राहृांड का केंद्र है। यह बात आज साधारण लगती है, पर कॉपर्निकस के समय (1473 -1543) यह कहना धर्मविरोधी माना जाता था। उस समय चर्च समाजपति की भूमिका में था। चर्च की मान्यता थी कि धरती ईश्वर के आकाश का केंद्र है। कॉपर्निकस को विश्वास था कि धर्म-न्यायाधिकरण उसे और उसके सिद्धांत दोनों को ही नष्ट कर डालेगा। इसलिए उसने इसके प्रकाशन के लिए मृत्युशय्या पर जाने की प्रतीक्षा की। अपनी सुरक्षा के लिए कॉपर्निकस की चिंता पूरी तरह सही थी। सत्तावन साल बाद जियार्डेनो ब्रूनो ने खुले तौर पर कॉपर्निकस के सिद्धांत के पक्ष में वक्तव्य देने की ‘धृष्टता’ की तो उन्हें इस ‘कुकर्म’ के लिए ज़िंदा जला दिया गया था।

गैलीलियो(1564-1642) ने प्रतिपादित किया कि प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है। इस कथन ने प्राकृतिक दर्शन को मौखिक गुणात्मक विवरण से गणितीय विवरण में बदल दिया। इसमें प्राकृतिक तथ्यों की खोज के लिए प्रयोग आयोजित करना स्वीकृत एवं मान्य पद्धति हो गई। अंत में उनके टेलीस्कोप ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी प्रभाव डाला और कॉपर्निकस की सूर्य केंद्रित ब्राहृांड की अवधारणा के मान्य होने का रास्ता साफ किया। लेकिन  इस सिस्टम की वकालत करने के कारण उन्हें धर्म-न्यायाधिकरण का सामना करना पड़ा था।

एक सदी बाद, फ्रांसीसी गणितज्ञ और दार्शनिक रेने देकार्ते ने सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक सर्वथा नई पद्धति की वकालत की। आध्यात्मिक संसार के अदृश्य सत्य का इस पद्धति से विश्लेषण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्राकृतिक संसार के अध्ययन के लिए प्रवृत्त हुए। आध्यात्मिक सत्य का अध्ययन सम्मानित नहीं रहा। क्योंकि उसके सत्य की समीक्षा विज्ञान के विश्लेषणात्मक तरीकों से नहीं की जा सकती। जीवन और ब्राहृांड के महत्वपूर्ण तथ्य तर्क-संगत वैज्ञानिकों की गवेषणा के क्षेत्र हो गए। देकार्ते ने ईश्वर की जगह मनुष्य को सत्य का अंतिम दायित्व दिया, जबकि पारंपरिक अवधारणा में एक बाहरी शक्ति सत्य को परिभाषित करती है। देकार्ते के मुताबिक सत्य व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। विज्ञान मौलिकता को महान उपलब्धि का निशान मानता है। मौलिकता स्वाधीनता का परिणाम होती है, प्रदत्त ज्ञान से असहमति है।

सन 1859 में चार्ल्स डार्विन के जैव विकासवाद के सिद्धान्त के प्रकाशन के साथ विज्ञान और आत्मा के रिश्ते के तार-तार होने की बुनियाद एकदम पक्की हो गई।

आधुनिक विज्ञान इस मायने में अनोखा है कि यह खुले तौर पर सामूहिक अज्ञान की घोषणा करता है। डार्विन ने नहीं कहा कि उन्होंने जीवन की पहेली का अंतिम समाधान कर दिया है और इसके आगे कोई और बात नहीं हो सकती। सदियों के व्यापक वैज्ञानिक शोध के बाद भी जीव वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि वे नहीं जानते कि मस्तिष्क में चेतना कैसे उत्पन्न होती है। पदार्थ वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि बिग बैंग कैसे हुआ या सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए। 

वैज्ञानिक क्रांति के पहले अधिकतर संस्कृतियों में विकास और प्रगति की अवधारणा नहीं थी। समझ यह थी कि सृष्टि का स्वर्णिम काल अतीत में था। मानवीय बुद्धि से रोज़मर्रा ज़िंदगी के कुछ पहलुओं में यदा-कदा कुछ उन्नति हो सकती है लेकिन संसार का संचालन ईश्वरीय विधान करता है। प्राचीन काल की प्रज्ञा का अनुपालन करने से हम सृष्टि और समाज को संकटग्रस्त होने से रोक सकते हैं। लेकिन मानव समाज की मौलिक समस्याओं से उबरना नामुमकिन माना जाता था। जब सर्वज्ञाता ऋषि, ईसा, मोहम्मद और कन्फ्यूशियस अकाल, रोग, गरीबी, युद्ध का नाश नहीं कर पाए तो हम साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं?

वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप एक नई संस्कृति की शुरुआत हुई। उसके केंद्र में यह विचार है कि वैज्ञानिक आविष्कार हमें नई क्षमताओं से लैस कर सकते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान एक के बाद एक जटिल समस्याओं का समाधान देने लगा, लोगों को विश्वास होने लगा कि नई जानकारियां हासिल करके और इनका उपयोग कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दरिद्रता, रोग, युद्ध, अकाल, बुढ़ापा, मृत्यु विधि का विधान नहीं है। ये बस हमारे अज्ञान का नतीजा हैं।

विज्ञान का कोई पूर्व-निर्धारित मत/सिद्धांत नहीं है, अलबत्ता, इसकी गवेषणा की कुछ सामान्य विधियां हैं। सभी अवलोकनों पर आधारित हैं। हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए ये अवलोकन करते हैं और गणितीय औज़ारों की मदद से इनका विश्लेषण करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्थिर विद्युत का चौंकाने वाला रहस्य

चपन में आपने अपने सिर पर गुब्बारा रगड़कर बाल खड़े करने या उसे दीवार पर चिपकाने वाला खेल ज़रूर खेला या देखा होगा। ये करतब स्थिर विद्युत की वजह से होते हैं। हालांकि, स्थिर विद्युत से मनुष्य काफी प्राचीन समय से ही परिचित थे, फिर भी आज तक वैज्ञानिक यह नहीं समझ पाए थे कि कुछ सामग्रियों को रगड़ने से कैसे विद्युत आवेश उत्पन्न होता है।

किसी बिजली के तार में विद्युत धारा प्रवाहित होने के विपरीत, स्थिर विद्युत एक जगह पर स्थिर रहती है। इस प्रकार की बिजली को ट्राइबोइलेक्ट्रिसिटी कहा जाता है। यह आम तौर पर उन रबड़ या प्लास्टिक जैसी सामग्रियों में टिकी रह जाती है जो विद्युत के चालक नहीं हैं। ऐसे कुचालक पदार्थ आपस में रगड़े जाने पर स्थिर आवेश जमा कर लेते हैं। यह आवेश दो प्रकार का होता है। समान आवेश वाली वस्तुएं एक-दूसरे को परे धकेलती है जबकि असमान आवेश होने पर वस्तुएं एक-दूसरे को आकर्षित करती हैं।       

ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ता दरअसल एक अन्य विद्युत परिघटना फ्लेक्सोइलेक्ट्रिसिटी को समझने की कोशिश कर रहे थे। फ्लेक्सोइलेक्ट्रिसिटी एक ऐसी परिघटना है जिसमें किसी सामग्री को नैनोस्तर पर निरंतर लेकिन बेतरतीब ढंग मोड़ने या झुकाने पर विद्युत क्षेत्र उत्पन्न होता है। जैसे आप प्लास्टिक के कंघे के दांतों पर अपनी उंगली चलाएं। शोधकर्ताओं को लगा कि शायद इस आधार पर स्थिर विद्युत की व्याख्या हो सकती है।    

बहुत सूक्ष्म स्तर पर देखें, तो चिकनी नज़र आने वाली वस्तुएं भी खुरदरी होती हैं। फिजिकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने पाया कि दो वस्तुओं को आपस में रगड़ने से उनकी सतह पर उपस्थित छोटे-छोटे उभार मुड़ते या झुकते हैं। तब फ्लेक्सोइलेक्ट्रिक प्रभाव के कारण स्थिर विद्युत जमा होने लगती है। इस व्याख्या से यह भी मालूम चला कि एक ही पदार्थ से बनी दो कुचालक को आपस में रगड़ने से भी वोल्टेज क्यों उत्पन्न होता है। इससे पहले वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि स्थिर विद्युत जमा होने के लिए दोनों पदार्थों में कुछ कुदरती अंतर होना चाहिए। इसलिए एक ही पदार्थ की वस्तुओं को आपस में रगड़ने पर स्थित विद्युत पैदा होने की बात चक्कर में डालने वाली लगती थी।    

इससे यह भी मालूम चला कि प्लास्टिक स्थिर विद्युत उत्पन्न करने में विशेष रूप से अच्छा काम करते हैं। इस व्याख्या से इंजीनियरों को ऐसी सामग्री तैयार करने में मदद मिल सकती है जिससे स्थिर विद्युत का अधिक उत्पादन करके उन उपकरणों में उपयोग किया जा सकेगा जिन्हें पहना जाता है। रिफाइनरी जैसी जगहों में भी सुरक्षा में सुधार करने में भी यह मददगार सिद्ध हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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दा विंची की पेंटिंग के पीछे छिपी तस्वीर

लंदन के नेशनल आर्ट म्यूज़ियम में रखी लियोनार्डो दा विंची की बेजोड़ पेंटिंग – दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स – के पीछे एक और तस्वीर छिपी है। हाल ही में उस ओझल तस्वीर के बारे में नई जानकारी सामने आई है। इस पेंटिंग में वर्जिन मैरी, शिशु जीसस और शिशु सेंट जॉन और एक फरिश्ता हैं।

दरअसल 2005 में नेशनल आर्ट गैलरी ने दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स पेंटिंग की इंफ्रारेड रिफ्लेक्टोग्राफी की मदद से इमेंज़िंग की थी जिसमें उन्हें पता चला था कि एक अन्य चित्र इस पेंटिंग के पीछे छिपा हुआ है जिसमें मैरी की आंखे बिलकुल अलग जगह पर बनी हुई थीं जिसे बाद में बनाए गए चित्र के रंगों से पूरा ढंक दिया गया था।

और अब पेंटिंग के पीछे ढंके चित्र के बारे में तफसील से जानने के लिए नेशनल आर्ट गैलरी ने तीन तकनीकों – इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी, एक्स-रे फ्लोरोसेंस स्केनिंग और हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग – की मदद ली है।

इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी में डाले गए इंफ्रारेड प्रकाश में ऊपरी रंगों के पीछे छिपे वे सभी ब्रश स्ट्रोक भी दिखाई देते हैं जो सामान्य प्रकाश में दिखाई नहीं देते। इनसे पता चलता है कि इस पेंटिंग में कलाकार ने पहले मैरी को बार्इं ओर बनाया था जो शिशु जीसस की ओर देख रही थी, और फरिश्ता दार्इं ओर था। चित्रों से लगता है कि दा विंची ने अंतत: जो पेंटिंग बनाई उसकी दिशा शुरुआती पेंटिंग से एकदम विपरीत है।

इसके अलावा एक्स-रे फ्लोरोसेंस करने पर पता चला कि पीछे छिपे चित्र के रंगो में ज़िंक था। दरअसल ज़िंक के कण एक्स-रे प्रकाश डालने पर चमकने लगते हैं। हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग में किसी चीज़ से आने वाली विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा का पता लगता है।

हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि दा विंची ने नीचे वाले चित्र को नई पेंटिंग से क्यों ढंका? वैसे यह पेंटिंग मूल पेंटिंग का दूसरा संस्करण है। उन्होंने अपनी मूल पेंटिंग चर्च के लिए बनाई थी जो किसी विवाद के बाद उन्होंने पेरिस में रहने वाले एक ग्राहक को बेच दी थी। उन्होंने दूसरी पेंटिंग हू-ब-हू पहली पेंटिंग की तरह बनाने की बजाय उसमें थोड़े बदलाव किए थे। जैसे दूसरी पेंटिंग में रंगों से उन्होंने अलग प्रकाश प्रभाव दिया है। चित्र में मौजूद लोगों की मुद्राएं भी थोड़ी अलग हैं। इमेंज़िंग से प्राप्त चित्रों का प्रदर्शन नवंबर से जनवरी के बीच किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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5जी शुरु होने से मौसम पूर्वानुमान पर असर

मरीका में जल्द ही शुरू होने वाली 5जी सेवाओं पर मौसम विज्ञानियों की चिंता है कि यदि आवंटित स्पेक्ट्रम पर 5जी सेवाएं शुरू हुर्इं तो मौसम सम्बंधी भविष्यवाणी का काम प्रभावित होगा।

मार्च 2019 में फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) द्वारा 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन किया गया था, जिसके बाद वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्ट्ज़ पर 5जी सेवाएं देना शुरु कर सकती हैं। 5जी शुरू होने के बाद सेवा की रफ्तार 100 गुना तक बढ़ जाएगी।

वहीं नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) के प्रमुख नील जैकब्स की आशंका है कि 5जी का उपयोग मौसम पूर्वानुमान की सटीकता को 30 प्रतिशत तक कम कर सकता है। तब मौसम भविष्यवाणी की स्थिति वैसी हो जाएगी जैसे 1980 के दशक में हुआ करती थी। जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को 2-3 दिन देर से चेतावनी मिल पाएगी। विसकॉन्सिन मेडिसन युनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी जॉर्डन गर्थ का कहना है कि दरअसल वायुमंडल में जलवाष्प मौजूदगी बताने वाले संकेत 23.6 गीगा हर्ट्ज़ से 24 गीगा हर्टज़ के बीच काम करते हैं और 5जी नेटवर्क 24 गीगा हर्ट्ज़ पर शुरू होगा। तो 5जी से होने वाला प्रसारण इन सेंसरों को आसानी से प्रभावित कर सकता है जैसे कोई शोरगुल करने वाला पड़ोसी हो।

लेकिन सेल्युलर टेलीकम्युनिकेशन इंडस्ट्री संघ (CTIA) के उपाध्यक्ष ब्राड गिलेन का कहना है कि मौसम पूर्वानुमान पर 5जी के प्रभाव पर जो गंभीर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं वे गलत हैं। जो लोग 5जी के उपयोग पर रोक लगाना चाहते हैं वे यह सोच रहे हैं कि यह मौसम के बारे में अनुमान देने वाले सेंसर, कोनिकल माइक्रोवेव इमेजर साउंडर (CMIS) को प्रभावित करेगा। लेकिन तथ्य यह है कि इन्हें (CMIS) को 2006 में ही खारिज कर दिया गया था ये कभी इस्तेमाल ही नहीं किए गए हैं।

इस पर गर्थ का कहना है कि CMIS के उन्नत तकनीक के सेंसर (एडवांस्ड टेक्नॉलॉजी माइक्रोवेव साउंडर, ATMS) मौसम पूर्वानुमान में उपयोग किए जाते हैं जो 23.8 गीगा हर्ट्ज़ पर काम करते हैं जो 5जी की सीमा के नज़दीक ही है। इस पर CTIA के निक ल्युडलम का कहना है कि CMIS की तुलना में ATMS सेंसर काफी छोटे हैं और उनकी रेंज सीमित है जिससे यह आसपास की स्पेक्ट्रम के प्रति कम संवेदी है।  

5जी के उपयोग के मसले पर मोबाइल कंपनियों और अमरीकी सरकार के बीच असहमति और बहस तो कई महीनों से चल रही है लेकिन यह उजागर कुछ समय पहले हुई है। लोग चाहते हैं कि 28 अक्टूबर को मिरुा में होने वाली वर्ल्ड कम्युनिकेशन कॉन्फ्रेंस के पहले इस मुद्दे पर चल रही बहस को सुलझा लिया जाए। 

वैसे यदि 5जी किसी अन्य स्पेक्ट्रम पर शुरू होता है तो वह भी नई बहस शुरू कर सकता है। गर्थ का कहना है कि 5जी के उपयोग पर विवाद तो 36-37 गीगा हर्ट्ज पर भी हो सकता है जिसका उपयोग बारिश और बर्फ गिरने के अनुमान के लिए किया जाता है या 50 गीगाहर्ट्ज़ पर भी हो सकता है जिस पर वायुमंडलीय तापमान का पता किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)
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क्या बिजली-वाहन प्रदूषण कम करने में कारगर होंगे? – कुमार सिद्धार्थ

देश के महानगरों और शहरों में जिस तेज़ी से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, उसमें सबसे ज्यादा योगदान वाहनों से होने वाले प्रदूषण का है। इस मुद्दे पर वर्षों से चिंता जताई जा रही है, लेकिन ठोस परिणाम देखने में नहीं आ रहे हैं। वहीं देश में दो-पहिया और चार-पहिया वाहनों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है और रोज़ाना लाखों नए वाहन पंजीकृत हो रहे हैं। आज देश में पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले करोड़ों वाहन हैं, और इनसे निकलने वाला काला धुआं कार्बन उत्सर्जन का बड़ा कारण है।

पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते भारत सरकार ने सन 2030 तक बिजली से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा देने के लिए एक वृहद योजना तैयार की है। उम्मीद की जा रही है कि पूरे देश में विद्युत वाहनों का उपयोग बढ़ने से बिजली क्षेत्र में बड़ा बदलाव आएगा और उत्सर्जन में 40 से 50 प्रतिशत की कमी आएगी। इससे देश में कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी।

इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नीति आयोग की अगुवाई में विद्युत गतिशीलता के मिशन को मंज़ूरी दी है। ध्यान रहे कि विद्युत गतिशीलता को सार्वजनिक परिवहन से जोड़ने के लिए केंद्र सरकार ने 2015 में हाइब्रिाड (बिजली और र्इंधन दोनों से चलने वाले) और इलेक्ट्रिक वाहनों को तेज़ी से अपनाने और उनके निर्माण की नीति शुरू की थी – फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हायब्रिाड एंड इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एफएएमई)। इसका पुनरीक्षण किया जा रहा है। इसके तहत नीति आयोग ने बिजली से चलने वाले वाहनों की ज़रूरत, उनके निर्माण और इससे सम्बंधित ज़रूरी नीतियां बनाने की शुरुआत की है।

दरअसल, भारत विद्युत वाहनों के लिए दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार है। भारत में इस वक्त लगभग 4 लाख इलेक्ट्रिक दो-पहिया वाहन और 1 लाख ई-रिक्शा हैं, कारें तो हज़ारों की संख्या में ही हैं। सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एसएमईवी) के अनुसार, भारत में 2017 में बेचे गए आंतरिक दहन इंजन वाहनों में से एक लाख से भी कम बिजली से चलने वाले वाहन थे। इनमें से 93 प्रतिशत से अधिक इलेक्ट्रिक तीन-पहिया वाहन और 6 प्रतिशत दो-पहिया वाहन थे।

भारत भले ही इलेक्ट्रिक कारों में दूसरे देशों से पीछे हो, लेकिन बैटरी से चलने वाले ई-रिक्शा की बदौलत भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। रिपोर्ट्स के मुताबिक मौजूदा समय में भारत में करीब 15 लाख ई-रिक्शा चल रहे हैं। कंसÏल्टग फर्म ए.टी. कर्नी की एक की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर महीने भारत में करीब 11,000 नए ई-रिक्शा सड़कों पर उतारे जा रहे हैं। भारत में अभी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को चार्ज करने के लिए कुल 425 पॉइंट बनाए गए हैं। सरकार 2022 तक इन प्वाइंट्स को 2800 करने वाली है।

गौरतलब है कि देश में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग भी बढ़ रही है। उद्योग मंडल एसोचैम और अन्स्र्ट एंड यंग एलएलपी के संयुक्त अध्ययन में कहा गया है कि सन 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग 69.6 अरब युनिट तक पहुंचने का अनुमान है।

आलोचकों का तर्क यह भी है कि भारत में 90 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयले से होता है। ऐसे में इलेक्ट्रिक कारों से प्रदूषण कम करने की बात बेमानी लगती है। नॉर्वे के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की ओर से कराए गए एक शोध के मुताबिक बिजली से चलने वाले वाहन पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले वाहनों से कहीं ज्यादा प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि यदि बिजली उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल होता है तो इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसें डीज़ल और पेट्रोल वाहनों की तुलना में कहीं ज़्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। यही नहीं, जिन फैक्ट्रियों में बिजली से चलने वाली कारें बनती हैं वहां भी तुलनात्मक रूप में ज़्यादा विषैली गैसें निकलती हैं। हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि इन खामियों के बावजूद कई मायनों में ये कारें फिर भी बेहतर हैं। लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि ये कारें उन देशों के लिए फायदेमंद हैं जहां बिजली का उत्पादन अन्य स्रोतों से होता है।

अपने देश में इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के लिए पर्याप्त बिजली मिल सके, अभी इस पर काम किया जाना है। उसके लिए बुनियादी सुविधाओं, संसाधनों और बजट का प्रावधान किया जाना है। वाहन निर्माता कंपनियों का कहना है कि अगर सरकार बैटरी निर्माण और चार्जिंग स्टेशनों की समस्या का समाधान कर दे तो बिजली चालित वाहन बड़ी तादाद में उतारे जा सकते हैं। ज़ाहिर है, बुनियादी सुविधाओं का बंदोबस्त सरकार को करना है और इसके लिए ठोस दीर्घावधि नीति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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वैमानिक शास्त्र और पहली उड़ान का मिथकीकरण – ज़ुबैर सिद्दिकी

पिछली एक शताब्दी से अधिक समय से हर वर्ष भारतीय विज्ञान कांग्रेस का आयोजन किया जा रहा है जिसका मुख्य उद्देश्य भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान और वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहन देना है। आम तौर पर ऐसे आयोजनों के बारे में चर्चा कम ही होती है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वेद-पुराणों से विज्ञान को जोड़कर देखने वाले दावों के कारण यह सुर्खियों में है। ऐसा नहीं है कि अवैज्ञानिक और अतार्किक दावे पहले नहीं किए जाते थे लेकिन पिछले कुछ वर्षों से अधिक देखने को मिल रहे हैं।

वर्ष 2015 में इसी आयोजन में आनंद बोड़स और उनके साथी अमेय जाधव ने वैदिक युग में विमानन पर एक ‘शोध पत्र’ प्रस्तुत किया था। उनका दावा था कि केवल एक दिशा में उड़ने वाले आज के आधुनिक विमानों की तुलना में प्राचीन भारत के विमान अधिक उन्नत थे और हर दिशा में उड़ने में सक्षम थे। ये विमान काफी विशाल थे और अन्य ग्रहों पर भी उड़ान भर सकते थे। यह दावा करने वाले बोड़स स्वयं पायलट प्रशिक्षण स्कूल, कोलकाता के प्रधानाचार्य रहे हैं और फिलहाल एक स्कूल में शिक्षक हैं। उन्होंने अपने शोध पत्र में  प्रमाण के रूप में वैमानिकी प्रकरण (वैमानिक शास्त्र) नामक ग्रंथ का हवाला दिया था।

जब भी हवाई जहाज़ के अविष्कार की बात होती है तो इसका श्रेय राइट बंधुओं को दिया जाता है। लेकिन भारतीय विज्ञान कांग्रेस के इस पर्चे और फिर कुछ न्यूज़ चैनलों और एक फिल्म (हवाईज़ादा) में बताया गया कि यह आविष्कार एक भारतीय ने किया था। टी.वी. न्यूज़ चैनलों में बताया गया कि राइट बंधुओं ने हवाई जहाज़ का आविष्कार 17 दिसंबर 1903 को किया था जबकि उससे लगभग आठ साल पहले शिवकर बापूजी तलपदे नाम के एक मराठा ने 1895 में हवाई जहाज़ तैयार कर लिया था। बताया गया कि यह हवाई जहाज़ 1500 फीट ऊपर उड़ा और फिर वापस नीचे गिर गया। इसका परीक्षण मुंबई के एक समुद्र तट पर किया गया था।

तो सच्चाई क्या है? यहां दो सवाल हैं – पहला कि क्या तलपदे ने ऐसा कोई आविष्कार किया था और दूसरा कि क्या उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा या जानकारी किसी प्राचीन (वैदिक) ग्रंथ से मिली थी। इसी से जुड़ा तीसरा सवाल यह भी है कि क्या ऐसा कोई वैदिक ग्रंथ अस्तित्व में भी है।

उड़ान के विवरण

शिवकर बापूजी तलपदे के जीवन और उनके आविष्कार का विवरण काफी उलझा हुआ है। कुछ विवरणों के अनुसार, उन्होंने वैदिक ग्रंथ वैमानिकी प्रकरण में उल्लेखित विमानन के विचारों को अपनाकर एक विमान बनाया था और बड़ौदा के तत्कालीन महाराज और कई अन्य लोगों की उपस्थिति में 1895 में उड़ाया था। कुछ विवरण बताते हैं कि यह प्रयोग उन्होंने मुंबई के नज़दीक मड टापू पर किया था जबकि अन्य विवरण गिरगांव चौपाटी को मौका-ए-वारदात बताते हैं। कुछ ने दावा किया है कि तलपदे ने र्इंधन के रूप में पारे का इस्तेमाल किया था, जबकि अन्य का कहना है कि इसमें किसी प्रकार के मूत्र का उपयोग किया गया था।

तलपदे के जीवन पर सबसे विस्तृत विवेचन वास्तुविद इतिहासकार प्रताप वेलकर ने लगभग 20 साल पहले लिखी अपनी किताब महाराष्ट्रचा उज्जवल इतिहास में किया है। वेलकर ने बड़ौदा के महाराज के उपस्थित होने की बातों को खारिज करते हुए कहा है कि यह एक खेल आयोजन की तरह था जिसमें तलपदे के कुछ साथी मौजूद थे।

वेलकर के अनुसार, तलपदे का विमान ‘मारुतसखा’ (कहीं-कहीं इसे ‘मारुतशक्ति’ भी कहा गया है) बांस से बनी एक बेलनाकार संरचना थी। यह पंखों वाला ग्लाइडर नहीं था जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है। ईंधन के रूप में तरल पारा इस्तेमाल किया गया था। वेलकर के मुताबिक पारा सूर्य के प्रकाश के साथ अभिक्रिया करता है तो उससे हाइड्रोजन उत्पन्न होती है। चूंकि हाइड्रोजन हवा की तुलना में हल्की है, यह विमान को उड़ने में मदद करती है। वैसे बाद में किसी ने यह भी कहा है कि दरअसल पारे का उपयोग पारे के आयनों की मदद से विमान को उड़ाने का था। वेलकर कहते हैं कि विमान न तो बहुत ऊंचा उड़ा और ना ही हवा में बहुत लंबे समय तक रहा। यह सिर्फ थोड़ी ऊंचाई तक गया और कुछ ही मिनटों में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस कथा के कई अलग-अलग विवरण उपलब्ध हैं।

हवाईज़ादा

वर्ष 2016 में इस विषय पर हवाईज़ादा नाम से एक बॉलीवुड फिल्म रिलीज़ हुई थी। कहानी को रोचक बनाने के लिए कुछ और बाहरी विचारों को भी शामिल किया गया। फिल्म के मुताबिक यह उड़ान सफल रही थी, और इसके आविष्कारक ने खुद इसे उड़ाया था। दूसरी ओर, इस घटना के विवरणों में यह भी कहा गया है कि कोशिश तो मानव रहित विमान बनाने की थी।

हवाईज़ादा के निर्देशक विभु पुरी का दावा है कि उन्होंने करीब चार साल तक शोध किया है। उनके अनुसार कुछ चीज़ें विरोधाभासी लगीं, इसलिए उन्होंने एक काल्पनिक संस्करण बनाया। उनका कहना है कि उनकी फिल्म एक बायोपिक तो नहीं है लेकिन सच्ची घटनाओं पर आधारित है। फिल्म में बापू तलपदे का किरदार निभाने वाले आयुष्मान खुराना का कहना है कि हवाईज़ादा कोई डाक्यूमेंट्री नहीं है बल्कि मनोरंजन के लिए बनाई गई फिल्म है।

वैमानिक शास्त्र

कथित रूप से जिस वैमानिकी प्रकरण को पढ़कर व जिसके आधार पर तलपदे ने मारुतसखा बनाया था उसके बारे में कहा जाता है कि हज़ारों साल पहले भारद्वाज नाम के एक ऋषि ने उसकी रचना की थी। इसमें आठ अध्यायों में लगभग 3000 श्लोक हैं और दावा है कि वैदिक महाकाव्यों में वर्णित ‘विमान’ उन्नत स्तर की उड़ने वाली मशीनें थीं।

इस विषय पर एक मराठी पुस्तक के लेखक आर्य समाज, पुणे के सचिव माधव देशपांडे का दावा है कि उन्हें तलपदे द्वारा हस्तलिखित कुछ नोट्स मिले हैं। देशपांडे का कहना है कि वायु वेदनाओं का सिद्धांत हमारे वेदों में मौजूद था और बापू तलपदे ने उसी सिद्धांत को साकार रूप प्रदान किया था।

दूसरी ओर, 1974 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलुरु के वैज्ञानिकों ने ग्रंथ में वर्णित सिद्धांतों की जांच करने के बाद एक अध्ययन प्रकाशित किया, और निष्कर्ष निकाला कि यह रचना प्राचीन तो कदापि नहीं है। उनके अनुसार यह ग्रंथ 1904 से पहले का कदापि नहीं है।

ग्रंथ के अध्ययन से यह भी साफ हो जाता है कि इसमें प्रस्तुत अधिकांश सिद्धांत कामकाजी स्तर पर असंभव हैं। तलपदे द्वारा बनाए गए मॉडलों में कोई भी उड़ने में सफल नहीं हुआ। शोधकर्ताओं के अनुसार ग्रंथ में वर्णित विमानों में कोई वास्तविकता नहीं है बल्कि सब कुछ मनगढ़ंत है। आगे उनका कहना है कि ग्रंथ में वर्णित किसी भी विमान में उड़ान भरने के गुण या क्षमताएं नहीं हैं। उड़ान के दृष्टिकोण से इनकी संरचना अकल्पनीय रूप से भयावह है और प्रणोदन के जो सिद्धांत इसमें प्रस्तुत किए गए हैं, वे उड़ान में मदद करने के बजाय इसका प्रतिरोध करते हैं।

इसमें ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक अध्याय में तो यह भी कहा गया है कि इस ज्ञान का उपयोग बुरे उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाने लगे इसलिए इसके निर्माण और अन्य विशेषताओं का विस्तृत वर्णन नहीं दिया जा सकता है। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष था कि “इतिहास में हमें दुर्भाग्यपूर्ण बात यह लगती है कि अतीत में कुछ भी मिल जाए, तो कुछ लोग बगैर किसी प्रमाण के उसका महिमामंडन और गुणगान करने लगते हैं। हमें लगता है कि प्रकाशन से जुड़े लोग ही पांडुलिपियों के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने या छिपाने के लिए पूर्णत: दोषी हैं।”

वेलकर बताते हैं कि चौपाटी पर शो की विफलता के बाद, तलपदे ने एक और विमान बनाने के लिए धन जुटाने की कोशिश की। उन्होंने बड़ौदा के तत्कालीन महाराजा और अहमदाबाद में व्यवसायियों के एक समूह से अपील भी की थी जिसका रिकॉर्ड भी मौजूद है। कुछ संस्करणों में बताया गया है कि चौपाटी शो में इस्तेमाल किया गया क्षतिग्रस्त विमान मुंबई के मलाड इलाके में एक गोदाम में रखा गया था। बाद में विमान को टाटा कंपनी के रैलिस ब्रादर्स को बेच दिया गया था, जबकि कुछ अन्य लोगों के अनुसार इसे बैंगलुरु में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को दे दिया गया था। जब वेलकर ने इसकी और जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की तो पता चला कि इससे जुड़े कागज़ात केंद्रीय रक्षा मंत्रालय में हैं। जिस अंतिम व्यक्ति ने इनका विस्तार से अध्ययन किया था उन्होंने बताया कि तलपदे असफल रहे थे।

उड़ने की कल्पना तो बहुत लोगों ने की है। शिवकर बापूजी तलपदे का काम भले ही कामयाब न रहा हो लेकिन वास्तव में विमान तैयार करना कोई मामूली बात नहीं। हो सकता है उनका विमान कथित वैमानिक शास्त्र में हवाई जहाज़ के कथित वर्णन से प्रेरित था, मगर मुख्य बात यह है कि उन्होंने इस पर काम किया था, इसे साकार रूप देने की कोशिश की थी। वेलकर के अनुसार विमान तैयार करने के लिए बापूजी तलपदे ने काफी कोशिश की होगी।

उनकी इस कहानी को स्कूल सिलेबस में शामिल करवाने के लिए एक ऑनलाइन हस्ताक्षर अभियान चलाया गया था। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि अंग्रेज़ नहीं चाहते थे कि कोई भारतीय पहले हवाई जहाज़ का निर्माण करे, इसलिए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि तलपदे का काम असफल रहे और वे इस विषय में शोध जारी ना रख सकें।

यह बात तो सही है कि ऐसे योगदान पर चर्चा ज़रूर होनी चाहिए और इसे किताबों के माध्यम से छात्रों को बताने में भी कोई हर्ज नहीं है। लेकिन मुख्य बात तो यह है कि छात्रों को इस बारे में क्या पढ़ाया जाए। ठोस सबूतों के अभाव में, हम यह नहीं कह सकते कि यह प्रयास सफल रहा था। लेकिन यह सिखाना भी गलत न होगा कि तलपदे ने कोशिश की थी, जो अधिक महत्वपूर्ण है।

जब कभी भी ‘प्राचीन प्रौद्योगिकी’ के शिक्षण की बात हो तो लगन और उद्यमिता की भावना को विकसित करना चाहिए। आज के हज़ारों-लाखों शिवकर बापूजी तलपदे को कोशिश करने और असफल होने के लिए तैयार होना चाहिए क्योंकि कई असफलताएं ही सफलता के एक दुर्लभ क्षण को संभव बनाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अभाज्य संख्याओं का महत्व – प्रतिका गुप्ता

भी कुछ महीनों पहले खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने अब तक की सबसे बड़ी अभाज्य (प्राइम) संख्या ढूंढ ली है। यह संख्या है 28,25,89,933-1। इस संख्या में 2 करोड़ 48 लाख 62 हज़ार 48 अंक हैं। यदि इस संख्या को साधारण कॉपी पर लिखें तो तकरीबन 40 पन्ने भर जाएंगे। ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिकों ने पहली बार बहुत बड़ी प्राइम संख्या पता की हो। इसके पहले उन्होंने जो संख्या पता की थी वह 27,72,32,917-1 थी। लेकिन क्यों वे बड़ी-से-बड़ी अभाज्य संख्याएं पता करना चाहते हैं।

इसे जानने से पहले हम थोड़ा अभाज्य संख्या के बारे में समझ लेते हैं। अभाज्य संख्या वह प्राकृत संख्या है जो सिर्फ 1 और स्वयं उसी संख्या द्वारा विभाजित होती है, इन संख्याओं में अन्य किसी संख्या से पूरा-पूरा भाग नहीं जाता। जैसे – 2, 3, 5, 7, 11, 17…। अभाज्य संख्याएं अनंत हैं। इन संख्याओं की कुछ खूबियां भी हैं। जिनके कारण इनकी उपयोगिता है।

वैसे जब हमें स्वास्थ्य, चिकित्सा, नई तकनीक आदि से जुड़ी खोज या आविष्कार की खबरें मिलती हैं तो हमारे मन में कभी यह सवाल नहीं उठता कि इनकी खोज की क्या ज़रूरत है। लेकिन जब यह सुनने में आता है कि वैज्ञानिकों ने अब और भी बड़ी अभाज्य संख्या पता की है तो मन में सवाल उठता है कि इतनी बड़ी संख्या पता करने की क्या ज़रूरत है जबकि हम अपनी आम ज़िंदगी में इतनी बड़ी संख्याओं के साथ काम भी नहीं करते और वे भी अभाज्य संख्या।

सच्चाई इसके विपरीत है। सीधे तौर पर ना सही, लेकिन वर्तमान में इन संख्याओं का हम अपनी ज़िंदगी में भरपूर उपयोग करते हैं। आज अधिकतर लोग टेलीफोन, इंटरनेट सेवाओं, स्टोरेज डिवाइस, क्रेडिट कार्ड, एटीम, स्मार्ट फोन, ऐप्स, गेम्स, व्हाट्सऐप जैसे मेसेंजर ऐप्स वगैरह कई तकनीकों का उपयोग करते हैं और इनका उपयोग दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। यदि हम इन तकनीकों का निश्चितता से और सुरक्षित ढंग से उपयोग कर पाते हैं, तो इसका श्रेय काफी हद तक अभाज्य संख्याओं को जाता है।

जितनी तेज़ी से इंटरनेट सुविधाओं, कंप्यूटर जैसी तकनीकों का उपयोग बढ़ रहा है, उतना अधिक हमारा महत्वपूर्ण डैटा डिजिटल रूप में स्टोर और ट्रांसफर हो रहा है। सूचना या डैटा महत्वपूर्ण है तो उसे सुरक्षित रखने की भी ज़रूरत है। इसलिए डैटा को सुरक्षित रखने के लिए विभिन्न कूटलेखन सूत्रविधियों (एल्गोरिदम) का सहारा लिया जाता है। (कूटलेखन किसी संदेश को कूट संदेश यानी सीक्रेट मैसेज में बदलने का तरीका है ताकि वांछित व्यक्ति ही उसे पढ़ सके।) और इन कूटलेखन सूत्रविधियों में अभाज्य संख्याओं की अहम भूमिका है।

सुरक्षित तरीके से संदेश भेजने में अक्सर आरएसए एल्गोरिद्म का उपयोग किया जाता है। आरएसए एल्गोरिदम का आविष्कार मूलत: तीन गणितज्ञों ने संयुक्त रूप से किया था: रॉन रिवेस्ट, अदी शमीर और लियोनार्ड एडलमैन। तब से इसमें कई सुधार हो चुके हैं।

इस एल्गोरिद्म में दो कुंजियों (key) का इस्तेमाल किया जाता है: सार्वजनिक या पब्लिक कुंजी और निजी या प्रायवेट कुंजी। जैसा कि नाम से ज़ाहिर है सार्वजनिक कुंजी सभी को उजागर होती है जबकि निजी कुंजी गुप्त रखी जाती है। जिसे संदेश भेजा जाना है उसकी सार्वजनिक कुंजी से संदेश को कूटबद्ध किया जाता है। और संदेश पाने वाला उसे अपनी निजी कुंजी की मदद से पढ़ लेता है। ये दोनों कुंजियां संदेश प्राप्त करने वाले द्वारा बनाई जाती हैं। वह सार्वजनिक कुंजी तो जगज़ाहिर कर देता है लेकिन निजी कुंजी गुप्त रखता है।

कुंजियां

सार्वजनिक कुंजी वास्तव में दो संख्याएं होती है। इसमें पहली संख्या किन्हीं भी दो प्राइम संख्याओं का गुणनफल होती है, और दूसरी संख्या इन दोनों प्राइम संख्याओं के आधार पर तय की जाती है। इसी तरह निजी कुंजी भी दो संख्याएं होती हैं।

यहां एक उदाहरण की मदद से इन कुंजियों के निर्माण की प्रक्रिया को समझने की कोशिश करते हैं। यहां हम सार्वजनिक कुंजी को N व e से और निजी कुंजी को d से प्रदर्शित करेंगे।

N का चुनाव

1. पहले कोई भी दो प्राइम संख्याएं चुनी जाती हैं। माना कि हमने यहां 11 और 17 चुनी।

2. फिर N की गणना के लिए इन दोनों प्राइम संख्याओं का आपस में गुणा किया जाता है (11 × 17)। और प्राप्त गुणनफल N होता है। यानि N = 187।

e का चुनाव

1. सबसे पहले चुनी गई दोनों प्राइम संख्याओं (11 और 17) में से एक-एक घटाते हैं।

2. इस तरह प्राप्त संख्याओं (10 और 16) का आपस में गुणा करते हैं (प्राप्त गुणनफल को हम Q कहेंगे)।

3. e के लिए एक ऐसी संख्या चुनी जाती है जो Q से छोटी हो और उसका Q में पूरा-पूरा भाग ना जाता हो। यहां Q = 160। तो e के लिए 160 से छोटी कोई भी संख्या चुनी जा सकती है जिसका 160 में पूरा-पूरा भाग ना जाता हो। चलिए e के लिए 7 चुन लेते हैं। तो सार्वजनिक कुंजी हुई (N =187, e = 7)

d का चुनाव

1. सबसे पहले Q में 1 जोड़ा जाता है, 160 अ 1 = 161।

2. अब इस प्राप्त संख्या में e से भाग दिया जाता है। प्राप्त भागफल d होता है। यहां, 161 में 7 का भाग देने पर प्राप्त भागफल 23 है। तो निजी कुंजी यानी d है 23।

कूटलेखन

संदेश भेजने की प्रक्रिया में सबसे पहले जो भी संदेश भेजा जाना है उसे किसी एल्गोरिद्म की मदद से संख्या में बदला जाता है। फिर सार्वजनिक कुंजी की सहायता से संदेश कूट किया जाता है। माना कि भेजा जाने वाला संदेश है 3। सार्वजनिक कुंजी 187 व 7 है।

1. संदेश कूट करने के लिए पहले (संदेश संख्या)e की गणना की जाती है। यहां e = 7 है। इस प्रकार 37 (3×3×3×3×3×3×3) हल करने पर मिला 2187।

2. अब प्राप्त संख्या में N से भाग दिया जाता है। फिर जो शेषफल बचता है वही संदेश के रूप में भेजा जाता है। यहां 2187 में 187 का भाग देने पर शेषफल बचा 130। तो भेजा जाने वाला कूट संदेश है 130।

3. निजी कुंजी (d) की मदद से संदेश पढ़ा जाता है। यहां हमारी निजी कुंजी है 23। तो संदेश पढ़ने के लिए सबसे पहले (प्राप्त संदेश)d हल किया जाता है, यहां (130)23। इसका मतलब है कि 130 में 130 का गुणा 23 बार किया जाएगा।

4. हल करने पर प्राप्त संख्या में N से भाग दिया जाता है। भाग देने पर जो शेषफल मिलता है वही संदेश होता है। यहां हल करने पर मिला 41753905 × 1041। इसे 187 से भाग देने पर जो शेषफल मिला वह 3 होगा। और यही हमारा वास्तविक संदेश था।

गौर करने वाली बात है कि हमने उदाहरण के लिए छोटी अभाज्य संख्याओं का चुनाव किया, वास्तव में ये संख्याएं काफी बड़ी होती हैं।

लेकिन बड़ी प्राइम संख्याएं ही क्यों? दरअसल एक से बड़ी किसी भी संख्या के गुणनखंड अभाज्य संख्याओं के रूप में प्राप्त किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए 70 को 2×5×7 के रूप में लिखा जा सकता है। इन्हें अभाज्य गुणनखंड कहते हैं। गणितज्ञों के अनुसार किन्हीं भी दो बड़ी अभाज्य संख्याओं का गुणनफल पता करना तो आसान है लेकिन अभाज्य गुणनखंड पता करना काफी मुश्किल है, यहां तक कि सुपर कंप्यूटर के लिए भी। ऐसा नहीं है कि बहुत बड़ी संख्याओं के अभाज्य गुणनखंड पता नहीं किए जा सकते। पता तो किए जा सकते हैं लेकिन बहुत अधिक समय लगता है, शायद कई वर्ष। इसलिए अभाज्य संख्याएं जितनी बड़ी होंगी डैटा उतना अधिक सुरक्षित रहेगा।

कूटलेखन का उपयोग इंटरनेट के ज़रिए पैसों के लेन-देन की सुरक्षा में, नियत समय में संदेश पहुंचाने में, सूचना भेजे जाने वाले व्यक्ति के प्रमाणीकरण या सत्यापन (डिजिटल सिग्नेचर) में, क्रेडिट कार्ड, एटीएम, ई-मेल, स्टोरेज डिवाइस की सुरक्षा वगैरह में होता है। इन सभी जगह प्राइम संख्या का उपयोग होता है।

इसके अलावा प्राइम संख्याएं रैंडम नंबर पैदा करने वाली एल्गोरिद्म में उपयोग होती हैं। यानी जहां भी संख्याओं में बेतरतीबी की ज़रूरत होती है वहां ये एल्गोरिद्म काम करती हैं। जैसे सुरक्षित लेन-देन के लिए ओटीपी नंबर (वन टाइम पासवर्ड) में, ऑनलाइन कैसिनो में पत्ते निकालने या पांसे पर आने वाली संख्या तय करने में। इंटरनेट पर बने किसी भी एकाउंट में लॉग-इन करते वक्त पासवर्ड का मिलान किया जाता है, चूंकि इस मिलान को कम-से-कम समय में अंजाम देना होता है इसलिए यहां हैश-टेबल की मदद ली जाती है। और हैश-टेबल में भी प्राइम संख्या का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा हैश टेबल सर्फिंग या सर्चिंग जैसे किसी शॉपिंग साइट में चीज़ों को जल्दी ढूंढ निकालने में भी मददगार होती है।

कई खेलों को बनाने में भी अभाज्य संख्याओं का उपयोग किया जाता है। जैसे कैंडी क्रश खेल में कई गणितीय अवधारणाओं का उपयोग किया गया है और इनमें अभाज्य संख्याओं का उपयोग किया गया है। तो जब भी हम इनमें से किन्हीं भी सुविधाओं का उपयोग कर रहे होते हैं तब अनजाने में अभाज्य संख्या का भी उपयोग करते हैं।

वैसे प्रकृति में भी अभाज्य संख्याएं दिखाई देती हैं। जैसे सिकाडा कीट लंबे समय तक ज़मीन के अंदर रहते हैं और 13 या 17 साल बाद ज़मीन से बाहर निकलते हैं और प्रजनन करते हैं ताकि वे अपने शिकारियों से सुरक्षित रहें। आप स्वयं सोचिए कि इससे सुरक्षा कैसे मिलती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीनी अंतरिक्ष स्टेशन लौटते वक्त ध्वस्त

एजेंसी फ्रांस प्रेस के अनुसार 19 जुलाई को चीनी अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2 अपनी कक्षा छोड़ धरती पर गिर गया। लेकिन पिछली बार के विपरीत, इस दौरान पूरे समय इस पर चीन के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का नियंत्रण रहा।

चीनी राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन (CNSA) पहले ही यह बता चुका था कि चीन का दूसरा प्रायोगिक अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2 अपनी कक्षा छोड़ने वाला है और पृथ्वी के वायुमंडल में पुन: प्रवेश करने वाला है। प्रशासन के अनुसार पुन: प्रवेश के दौरान तियांगोंग-2 वायुमंडल में पूरी तरह जल जाएगा और यदि कुछ बचा तो वह प्रशांत महासागर के पाइंट नेमो नामक इलाके में गिरेगा। लेकिन यह स्थिति चीन के पहले अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-1 से भिन्न है। उसने भी अप्रैल 2018 में अपनी कक्षा छोड़ दी थी और पृथ्वी पर अनियंत्रित तरीके से आ गिरा था। लेकिन तियांगोंग-1 पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया था। हालांकि संयोग से तियांगोंग-1 भी प्रशांत महासागर के इसी इलाके में गिरा था।

तियांगोंग-2 उत्तरी बॉटलनोज़ व्हेल से थोड़ा बड़ा, 10 मीटर लंबा और 8600 किलोग्राम वज़नी था। इस अंतरिक्ष स्टेशन में 18 मीटर लंबे सौलर पैनल थे जिससे यह अजीब-सी व्हेल मछली की तरह दिखता था।

अंतरिक्ष प्रशासन के अधिकारियों का कहना है कि तियांगोंग-2 ने अपने सारे प्रयोग पूरे कर लिए थे। और इसने अपनी 2 साल की तयशुदा उम्र से एक साल अधिक कार्य किया। स्पेस डॉटकॉम के मुताबिक इस दौरान तियांगोंग-2 ने एक बार (अक्टूबर-नवंबर 2016 में) दो अंतरिक्ष यात्रियों और कई रोबोटिक मिशन की मेज़बानी की थी। (स्रोत फीचर्स)

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चांद पर उतरने का फुटेज झूठा नहीं हो सकता

पोलो 11 यान के चांद पर उतरने की आधी शताब्दी के बाद भी कई लोग इस घटना को झूठा मानते हैं। आम तौर पर कहा जाता रहा है कि फिल्म निर्देशक स्टेनली कुब्रिक ने चांद पर उतरने के छह ऐतिहासिक झूठे फुटेज तैयार करने में नासा की मदद की।

लेकिन क्या वास्तव में उस समय की उपलब्ध तकनीक से ऐसा कर पाना संभव था? एमए-फिल्म और टेलीविज़न प्रोडक्शन के प्रमुख हॉवर्ड बैरी का कहना है कि एक फिल्म निर्माता के रूप में वह यह तो नहीं बता सकते कि नासा का यान 1969 में चांद पर कैसे पहुंचा था लेकिन दावे के साथ कह सकते हैं कि इन ऐतिहासिक फुटेज का झूठा होना असंभव है। उन्होंने इस सम्बंध में कुछ आम मान्यताओं और सवालों का जवाब दिया है।

आम तौर इस घटना को एक स्टूडियो में फिल्माए जाने की बातें कही गई हैं। गौरतलब है कि चलती छवियों को कैमरे में कैद करने के दो तरीके होते हैं। एक तो फोटोग्राफिक सामग्री का उपयोग करके और दूसरा चुम्बकीय टेप का उपयोग करके इलेक्ट्रॉनिक तरीके से। एक मानक मोशन पिक्चर फिल्म 24 फ्रेम प्रति सेकंड से छवियों को रिकॉर्ड करती है, जबकि प्रसारण टेलीविज़न आम तौर पर 25 से 30 फ्रेम प्रति सेकंड का होता है। यदि हम यह मान भी लें कि चंद्रमा पर उतरना टीवी स्टूडियो में फिल्माया गया था तो वीडियो उस समय के मानक 30 फ्रेम प्रति सेकंड का होना चाहिए था। हम जानते हैं कि चंद्रमा पर प्रथम अवतरण को स्लो स्कैन टेलीविज़न (एसएसटीवी) के विशेष कैमरे से 10 फ्रेम प्रति सेकंड पर रिकॉर्ड किया गया था।

एक बात यह भी कही जाती है कि वीडियो फुटेज को किसी स्टूडियो में विशेष अपोलो कैमरा पर रिकॉर्ड करके स्लो मोशन में प्रस्तुत किया गया ताकि यह भ्रम पैदा किया जा सके कि पूरी घटना कम गुरुत्वाकर्षण के परिवेश में फिल्माई गई है। गौरतलब है कि फिल्म को धीमा करने के लिए ऐसे कैमरे की ज़रूरत होती है जो प्रति सेकंड सामान्य से अधिक फ्रेम रिकॉर्ड करने में सक्षम हो। इसे ओवरक्रैंकिंग कहा जाता है। जब ऐसी फिल्म को सामान्य फ्रेम दर पर चलाया जाता है तो यह लंबे समय तक चलती है। यदि आप अपने कैमरे को ओवरक्रैंक नहीं कर सकते हैं तो सामान्य फ्रेम दर पर रिकॉर्ड करके कृत्रिम रूप से फुटेज को धीमा कर सकते हैं। लेकिन उसके लिए आपको अतिरिक्त फ्रेम उत्पन्न करने की तकनीक की आवश्यकता होगी अन्यथा बीच-बीच में खाली जगह छूटेगी।

अपोलो अवतरण के ज़माने में स्लो मोशन को रिकॉर्ड करने में सक्षम चुंबकीय रिकॉर्डर कुल 30 सेकंड का ही फुटेज रिकॉर्ड कर सकते थे। इसे 90 सेकंड के स्लो मोशन वीडियो के रूप में चलाया जा सकता था। लेकिन यदि आपको 143 मिनट का स्लो मोशन फुटेज चाहिए तो वास्तविक घटना का 47 मिनट का रिकॉर्डिंग करना होता। यह उस समय असंभव था।

यह भी शंका व्यक्त की गई है कि नासा के पास उन्नत स्टोरेज रिकॉर्डर था। लोग मानते हैं कि नासा के पास अत्यधिक उन्नत टेक्नॉलॉजी सबसे पहले आ जाती है। बैरी कहते हैं कि हो सकता है कि नासा के पास उस समय कोई गुप्त एडवांस स्टोरेज रिकॉर्डर रहा हो लेकिन वह सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रिकॉर्डर से 3000 गुना अधिक उन्नत रहा होगा, जो संभव नहीं है। 

कुछ लोग यह भी कहते हैं कि नासा ने पहले साधारण फोटोग्राफिक फिल्म पर रिकॉर्डिंग किया और फिर उसे धीमा करके चलाया और टीवी पर प्रदर्शन के लिए परिवर्तित कर लिया। फिल्म तो जितनी चाहे उपलब्ध हो सकती थी!

थोड़ी गणना करते हैं। 24 फ्रेम प्रति सेकंड पर चलने वाली 35 मि.मी. फिल्म की एक रील 11 मिनट तक चलती है और उसकी लम्बाई लगभग 1,000 फुट होती है। अगर हम इसे 12 फ्रेम प्रति सेकंड की फिल्म पर लागू करें तो अपोलो-11 के 143 मिनट के फुटेज के लिए कुल साढ़े छह रीलों की आवश्यकता होगी।

फिर शूटिंग के बाद इन्हें एक साथ जोड़ना पड़ता। जोड़ने के निशान, नेगेटिव्स के स्थानांतरण और प्रिंट निकालने के अलावा संभावित धूल, कचरा या खरोंचों के निशान सारा सच बयान कर देते। लेकिन अपोलो-11 अवतरण की फिल्म में ऐसा कुछ नज़र नहीं आता। मतलब साफ है कि इसे फोटोग्राफिक फिल्म पर शूट नहीं किया गया था।

यह भी कहा गया है कि चांद पर तो हवा है नहीं, फिर अमेरिका का झंडा हवा से फहरा क्यों रहा है? ज़रूर यह स्टूडियो में लगे पंखे का कमाल है। सच्चाई यह है कि एक बार लगाए जाने के बाद पूरे फुटेज में कहीं भी झंडा हिलता हुआ नज़र नहीं आ रहा है, फहराने की तो बात ही जाने दें।

कुछ लोगों को लगता है कि फुटेज में स्पष्ट रूप से स्पॉटलाइट का प्रकाश नज़र आ रहा है। इस पर बैरी कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि सही है। वह प्रकाश 15 करोड़ किलोमीटर दूर स्थित एक स्पॉटलाइट से आ रहा है, जिसे हम सूरज कहते हैं। उनका कहना है कि यदि स्पॉटलाइट नज़दीक होता तो छाया एक केन्द्रीय बिंदु से उत्पन्न होती, लेकिन रुाोत इतनी दूर है कि परछाइयां अधिकांशत: समानांतर हैं।

अंत में बैरी का कहना है कि जो लोग मानते हैं कि इसे स्टेनली कुब्रिक ने फिल्माया था तो उन्हें यह बता दें कुब्रिक इतने परफेक्शनिस्ट (सटीकतावादी) थे कि वे इस फिल्म को लोकेशन यानी चांद पर ही शूट करने पर ज़ोर देते। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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