इलेक्ट्रॉन अवलोकन का साधन: भौतिकी नोबेल पुरस्कार

र्ष 2023 का भौतिकी नोबेल पुरस्कार उन प्रायोगिक विधियों के लिए दिया गया है जिनकी मदद से प्रकाश की अत्यंत अल्प अवधि (एटोसेकंड) चमक पैदा करके पदार्थ में इलेक्ट्रॉन की गतियों का अध्ययन किया जा सकता है। पुरस्कार ओहायो विश्वविद्यालय के पियरे एगोस्टिनी, मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ क्वांटम ऑप्टिक्स के फेरेंक क्राउज़, तथा लुंड विश्वविद्यालय के एन एलहुइलियर को संयुक्त रूप से दिया गया है।

इन तीन भौतिक शास्त्रियों ने वैज्ञानिकों को ऐसे औज़ार उपलब्ध कराए हैं जिनकी मदद से परमाणुओं और अणुओं के अंदर इलेक्ट्रॉन्स का बेहतर अध्ययन संभव हो जाएगा। दरअसल, अणु-परमाणु में इलेक्ट्रॉन्स की गतियां बहुत तेज़ रफ्तार से होती हैं और उनकी गति या ऊर्जा में परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए वैसे ही त्वरित अवलोकन साधन की ज़रूरत होती है। आम तौर पर इतनी तेज़ रफ्तार घटनाएं एक-दूसरे पर इस कदर व्याप्त हो जाती हैं कि उन्हें अलग-अलग देखना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, जब हम कोई फिल्म देखते हैं तो उनकी अलग-अलग तस्वीरें ऐसे घुल-मिल जाती हैं कि हमें एक निरंतर चलती तस्वीर का आभास होता है। इलेक्ट्रॉन के स्तर पर तो सब कुछ इतनी तेज़ी से होता है कि प्रत्येक परिघटना 1 एटोसेकंड के दसवें भाग में सम्पन्न हो जाती है। कहते हैं कि एक एटोसेकंड इतना छोटा होता है कि एक सेकंड में उतने ही एटोसेकंड होते हैं जितने सेकंड ब्रह्मांड की उत्पत्ति से लेकर अब तक बीते हैं।

इस वर्ष के नोबेल विजेता प्रकाश का ऐसा पल्स पैदा करने में सफल रहे हैं जो एक एटोसेकंड को नाप सकता है। इसकी मदद से हम अणु-परमाणु के अंदर चल रही प्रक्रियाओं की तस्वीरें प्राप्त कर सकते हैं।

बहरहाल उनके इस काम को वैज्ञानिक स्तर पर समझना काफी मुश्किल होगा और हमें इन्तज़ार करना होगा कि कोई भौतिक शास्त्री उसे हमारे स्तर पर समझाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आदित्य मिशन: सूरज के अध्ययन में शामिल होगा भारत

चंद्रयान के सकुशल अवतरण के बाद इसरो की तैयारी सूरज को पढ़ने की है। इसरो का आदित्य-L1 मिशन 2 सितंबर को प्रक्षेपित होने जा रहा है। इसे सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्री हरिकोटा से PSLV-XL रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा। यह अंतरिक्ष यान पृथ्वी से करीब 15 लाख किलोमीटर दूर सूर्य-पृथ्वी के बीच लैग्रांजे बिंदु-1 (L-1) की कक्षा में स्थापित किया जाएगा, जहां से यह सौर गतिविधियों की निगरानी करेगा। यह सूर्य का अध्ययन करने वाला पहला भारतीय अंतरिक्ष अभियान होगा। गौरतलब है कि फिलहाल विभिन्न देशों के 20 से ज़्यादा सौर अध्ययन अंतरिक्ष मिशन अंतरिक्ष में मौजूद हैं।

बताते चलें कि लैग्रांजे बिंदु अंतरिक्ष में दो पिंडों के बीच वे स्थान होते हैं जहां यदि कोई छोटा पिंड या उपग्रह रख दिया जाए तो वह वहां टिका रहता है। पृथ्वी-सूर्य प्रणाली के बीच ऐसे पांच बिंदु हैं। L1 बिंदु की कक्षा में स्थापित करने का फायदा यह है कि आदित्य-L1 बिना किसी अड़चन, ग्रहण वगैरह के सूर्य की लगातार निगरानी कर सकता है।

पृथ्वी से सूर्य की निगरानी और अवलोकन तो हम करते रहे हैं। लेकिन अंतरिक्ष से सूर्य के अवलोकन का कारण है कि पृथ्वी का वायुमंडल कई तंरगदैर्घ्यों और कणों को प्रवेश नहीं करने देता। इसलिए ऐसे विकिरण की मदद से होने वाले अवलोकन पृथ्वी से कर पाना संभव नहीं है। चूंकि अंतरिक्ष में ऐसी कोई बाधा नहीं है इसलिए अंतरिक्ष से इनका अवलोकन संभव है।  

आदित्य-L1 में सूर्य की गतिविधियां, सौर वायुमंडल (मुख्यत: क्रोमोस्फीयर और कोरोना) और अंतरिक्ष के मौसम का निरीक्षण करने के लिए सात यंत्र लगे हैं। इनमें से चार यंत्र बिंदु L1 पर बिना किसी बाधा के सीधे सूर्य का अवलोकन करेंगे, और शेष तीन यंत्र लैग्रांजे बिंदु L1 की स्थिति और कणों का जायज़ा लेंगे। आदित्य-L1 पर लगे विज़िबल एमिशन लाइन कोरोनाग्राफ (VELC) का काम होगा सूर्य के कोरोना और कोरोना से निकलने वाले पदार्थों का अध्ययन करना। कोरोना सूर्य की सबसे बाहरी सतह है जो सूर्य के तेज़ प्रकाश में ओझल रहती है। इसे विशेष उपकरणों से ही देखा जा सकता है। वैसे कोरोना को पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान देखा जा सकता है। सोलर अल्ट्रावॉयलेट इमेजिंग टेलीस्कोप (SUIT) पराबैंगनी प्रकाश में सूर्य के फोटोस्फीयर और क्रोमोस्फीयर की तस्वीरें लेगा और अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश के नज़दीक सौर विकिरण विचलन मापेगा। फोटोस्फीयर या प्रकाशमंडल वह सतह है जहां से प्रकाश फैलता है। सोलर लो एनर्जी एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (SoLEXS) और हाई एनर्जी L1 ऑर्बाइटिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (HEL1OS) सूर्य की एक्स-रे प्रदीप्ति का अध्ययन करेगा। आदित्य सोलर विंड पार्टीकल एक्सपेरिमेंट (ASPEX) और प्लाज़्मा एनालाइज़र पैकेज फॉर आदित्य (PAPA) सौर पवन, उसके आयन और ऊर्जा वितरण का अध्ययन करेगा। इसका एडवांस्ड ट्राय-एक्सिस हाई रिज़ॉल्यूशन डिजिटल मैग्नेटोमीटर L1 बिंदु पर मौजूद चुम्बकीय क्षेत्र का मापन करेगा।

प्रक्षेपण के करीब 100 दिन बाद आदित्य अपनी मंज़िल (L1) पर पहुंचेगा। (स्रोत फीचर्स)

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शुक्र पर जीवन की तलाश – प्रदीप

पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर जीवन की संभावना का विचार हमेशा से सभी को आकर्षित करता रहा है। जीवन की संभावना वाले ग्रहों की सूची में मंगल के अलावा शुक्र भी शामिल हो चुका है। इसका कारण पिछले डेढ़-दो दशक में शुक्र के वातावरण में घटित हो रही रासायनिक प्रक्रियाओं को लेकर हमारी समझ में हुई वृद्धि है। हाल ही में कार्डिफ युनिवर्सिटी के जेन ग्रीव्स की टीम ने खगोल विज्ञान की एक राष्ट्रीय गोष्ठी में शुक्र पर जीवन योग्य परिस्थितियों की मौजूदगी को लेकर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया है। इस शोध पत्र का निष्कर्ष है कि शुक्र के तपते और विषैले वायुमंडल में फॉस्फीन नामक एक गैस है जो वहां जीवन की उपस्थिति का संकेत हो सकती है।

पूर्व में कार्डिफ युनिवर्सिटी के ही शोधकर्ताओं ने शुक्र के वातावरण में फॉस्फीन के स्रोतों का पता लगाकर हलचल मचा दी थी। हालांकि तब कई प्रतिष्ठित विशेषज्ञों ने शुक्र के घने कार्बन डाईऑक्साइड युक्त वातावरण, सतह के अत्यधिक तापमान व दाब और सल्फ्यूरिक अम्ल के बादलों जैसी बिलकुल प्रतिकूल परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस शोध को खारिज कर दिया था। लेकिन अब हवाई स्थित जेम्स क्लार्क मैक्सवेल टेलीस्कोप (जेसीएमटी) और चिली स्थित एटाकामा लार्ज मिलीमीटर ऐरे रेडियो टेलीस्कोप की सहायता से ग्रीव्‍स को शुक्र के वायुमंडल के निचले क्षेत्र में फॉस्फीन की मौजूदगी के सशक्त प्रमाण मिले हैं। इससे शुक्र के अम्लीय बादलों में सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी की उम्मीदें पुनर्जीवित हो गई हैं।

वैज्ञानिकों के मुताबिक शुक्र के वातावरण में 96 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड है, लेकिन फॉस्फीन का मिलना अपने आप में बेहद असाधारण बात है क्योंकि यह एक सशक्त बायो सिग्नेचर (जैव-चिन्ह) है। फॉस्फीन को एक बायो सिग्नेचर मानने का एक बड़ा कारण है पृथ्वी पर फॉस्फीन का सम्बंध जीवन से है। फॉस्फीन गैस के एक अणु में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे फॉस्फोरस परमाणु होते हैं, जैसे अमोनिया में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे नाइट्रोजन परमाणु होते हैं। पृथ्वी पर यह गैस औद्योगिक प्रक्रियाओं से बनती है। यह कुछ अनॉक्सी जीवाणुओं द्वारा भी निर्मित होती है जो ऑक्सीजन-विरल वातावरण में रहते हैं, जैसे सीवर, भराव क्षेत्र या दलदल में। सूक्ष्मजीव यह गैस ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में उत्सर्जित करते हैं। 

शुक्र पर फॉस्फीन की खोज के दो मायने हैं। एक, शुक्र पर जीवित सूक्ष्मजीव हो सकते हैं – शुक्र की सतह पर नहीं बल्कि उसके बादलों में, क्योंकि शुक्र की सतह किसी भी प्रकार के जीवन के अनुकूल नहीं है। उल्लेखनीय है कि फॉस्फीन या उसके स्रोत जिन बादलों में मिले हैं वहां तापमान 30 डिग्री सेल्सियस था। दूसरा, यह उन भूगर्भीय या रासायनिक प्रक्रियाओं से निर्मित हो सकती है, जो हमें पृथ्वी पर नहीं दिखती। ऐसे में इस खोज से यह दावा नहीं किया जा सकता कि हमने वहां जीवन खोज लिया है। लेकिन यह भी नहीं कह सकते कि वहां जीवन नहीं है। यह खोज अंतरिक्ष-अन्वेषण के लिए नए द्वार खोलती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीन का दोबारा उपयोगी अंतरिक्ष यान पृथ्वी पर उतरा

हाल ही में चीन का एक अंतरिक्ष यान पृथ्वी की कक्षा में नौ महीने बिताने के बाद धरती पर लौट आया है। इसके साथ ही चीन उन चुनिंदा राष्ट्रों की श्रेणी में भी शामिल हो गया है जिसने अंतरिक्ष यान का पुन: उपयोग करने में सफलता हासिल की है। हालांकि चीन ने अंतरिक्ष यान के डिज़ाइन और संचालन के बारे में ज़्यादा जानकारी तो नहीं दी है लेकिन उपलब्ध जानकारी के आधार पर अनुमान है कि इसका उपयोग अनुसंधान और सैन्य कार्यों के लिए किया जा रहा था।

इस मिशन से यह स्पष्ट है कि चीन ने अंतरिक्ष यान को पुन: उपयोग करने के लिए हीट शील्ड और लैंडिंग उपकरण जैसी तकनीकें विकसित कर ली हैं। इससे पहले अमेरिकी कंपनी बोइंग, स्पेसएक्स और नासा ने अंतरिक्ष यानों को धरती पर उतार लिया था। गौरतलब है कि अंतरिक्ष यान का एक बार उपयोग करने की अपेक्षा बार-बार उपयोग करने से पूंजीगत लागत काफी कम हो जाती है। इससे पहले, सितंबर 2020 में चीन का इसी तरह का एक प्रायोगिक अंतरिक्ष यान कक्षा में दो दिन बिताने के बाद पृथ्वी पर लौट आया था।

कई वैज्ञानिकों का विचार है कि चीनी यान संभवत: अमेरिकी अंतरिक्ष यान बोइंग एक्स-37बी के समान है। वैसे एक्स-37बी को बनाने का उद्देश्य तो अज्ञात है लेकिन 2010 में इसका खुलासा होने के बाद से ही चीनी सरकार इस यान की सैन्य क्षमताओं को लेकर चिंतित थी। ऐसी संभावना है कि इस यान को एक्स-37बी के जवाब में तैयार किया गया है।

इस यान की उड़ान और लॉप नूर सैन्य अड्डे पर उतरने के पैटर्न को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक विमान है। जबकि स्पेसएक्स ड्रैगन कैप्सूल जैसे अन्य पुन: उपयोग किए जाने वाले अंतरिक्ष यान लॉन्च रॉकेट से जुड़े मॉड्यूल हैं जो ज़मीन पर उतरने के लिए पैराशूट का उपयोग करते हैं।

एक्स-37बी की तरह चीनी यान भी आकार में काफी छोटा है। लॉन्च वाहन की 8.4 टन की पेलोड क्षमता से स्पष्ट है कि इसका वज़न 5 से 8 टन के बीच रहा होगा। यह नासा के सेवानिवृत्त अंतरिक्ष शटल कोलंबिया और चैलेंजर से बहुत छोटा है जिनको चालक दल सहित कई मिशनों के लिए उपयोग किया गया था। वर्तमान चीनी यान चालक दल को ले जाने के लिए बहुत छोटा है लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिकों के अनुसार भविष्य में इसे चालक दल ले जाने वाला बड़ा अंतरिक्ष यान भी बनाया जा सकता है।

निकट भविष्य में चीन अन्य तकनीकों का परीक्षण कर सकता है। कक्षीय पथ में परिवर्तन या सौर पैनल का खुलना ऐसी दो तकनीकें हैं जो भविष्य में काफी उपयोगी होंगी। इसके अलावा कक्षा में रहते हुए उपग्रहों को छोड़ने और उठाने का भी परीक्षण किया गया होगा। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष अक्टूबर में अंतरिक्ष यान द्वारा एक वस्तु को कक्षा में छोड़ने का पता चला था। यह वस्तु जनवरी में कक्षा से गायब हो गई थी और मार्च में फिर से प्रकट हुई थी। संभवत: अंतरिक्ष यान ने वस्तु को पकड़ा और दोबारा कक्षा में छोड़ दिया। यानी अंतरिक्ष यान का उपयोग उपकरणों और उपग्रहों को ले जाने के लिए भी किया गया होगा। (स्रोत फीचर्स)

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चंद्रमा पर उतरने का निजी प्रयास विफल

टोक्यो की एक निजी कंपनी आईस्पेस द्वारा हुकाटो-आर मिशन (एम-1) नामक पहला व्यावसायिक ल्यूनर मिशन 11 दिसंबर 2022 को फ्लोरिडा के केप कैनावेरल से स्पेसएक्स फाल्कन 9 रॉकेट द्वारा लॉन्च किया गया था। 21 मार्च को इसने चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया। 25 अप्रैल को इसके लैंडर को चंद्रमा की सतह पर उतरना था, लेकिन कुछ तकनीकी समस्या के कारण यह मिशन विफल हो गया। चंद्रमा की सतह से लगभग 90 मीटर ऊपर लैंडर से पृथ्वी का संपर्क टूट गया और नियोजित लैंडिंग के बाद दोबारा संचार स्थापित नहीं हो पाया। संभावना है कि एम-1 लैंडर उतरते वक्त क्रैश हो गया। फिलहाल पूरे घटनाक्रम की जांच जारी है।

गौरतलब है कि 2.3 मीटर लंबा लैंडर सतह पर उतरने के अंतिम चरण में खड़ी स्थिति में था लेकिन इसमें ईंधन काफी कम बचा था। लैंडर से प्राप्त आखरी सूचना से पता चलता है कि चंद्रमा की सतह की ओर बढ़ते हुए यान की रफ्तार बढ़ गई थी। किसी भी लैंडर के लिए यह एक सामान्य प्रक्रिया है जिसमें लंबवत रूप से उतरते समय इंजन चालू रखे जाते हैं ताकि वह गुरुत्वाकर्षण के कारण सतह से तेज़ रफ्तार से न टकराए।            

आईस्पेस टीम के प्रमुख टेक्नॉलॉजी अधिकारी रयो उजी बताते हैं कि सतह पर उतरने के अंतिम चरण में ऊंचाईमापी उपकरण ने शून्य ऊंचाई का संकेत दिया था यानी उसके हिसाब से लैंडर चांद की धरती पर पहुंच चुका था। जबकि यान सतह से काफी ऊपर था। ऐसी भी संभावना है कि लैंडर के नीचे उतरते हुए यान का ईंधन खत्म हो गया और गति में वृद्धि होती गई। टीम अभी भी यह जानने का प्रयास कर रही है कि अनुमानित और वास्तविक ऊंचाई के बीच अंतर के क्या कारण हो सकते हैं। इस तरह के यानों में विशेष सेंसर लगाए जाते हैं जो लैंडर और सतह के बीच की दूरी को मापते हैं और उसी हिसाब से लैंडर नीचे उतरता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इन सेंसरों में कोई गड़बड़ी हुई या सॉफ्टवेयर में कोई समस्या थी।

लैंडर के क्रैश होने के कारण उस पर भेजे गए कई उपकरण भी नष्ट हो गए हैं। जैसे संयुक्त अरब अमीरात का 50 सेंटीमीटर लंबा राशिद रोवर जिसका उद्देश्य चंद्रमा की मिट्टी के कणों का अध्ययन और सतह के भूगर्भीय गुणों की जांच करना था; जापानी अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा विकसित एक दो-पहिया रोबोट; और कनाडा की कनाडेन्सिस एयरोस्पेस द्वारा निर्मित एक मल्टी-कैमरा सिस्टम।

मिशन की विफलता के जो भी कारण रहे हों लेकिन यह साफ है कि चंद्रमा पर सफलतापूर्वक लैंडिंग काफी चुनौतीपूर्ण है। फिर भी इस लैंडिंग प्रक्रिया के दौरान प्राप्त डैटा से उम्मीद है कि आईस्पेस के भावी चंद्रमा मिशन के लिए टीम को  बेहतर तैयारी का मौका मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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बृहस्पति के चंद्रमा पर पहला मिशन

त 14 अप्रैल को युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) द्वारा बृहस्पति के विशाल चंद्रमा का अध्ययन करने के लिए जुपिटर आइसी मून एक्स्प्लोरर (जूस) प्रक्षेपित किया गया। उम्मीद की जा रही है कि यह अंतरिक्ष यान गैलीलियो द्वारा 1610 में खोजे गए बृहस्पति के चार में से तीन बड़े चंद्रमाओं के नज़दीक से गुज़रते हुए अंत में ग्रह के सबसे विशाल चंद्रमा गैनीमेड की परिक्रमा करेगा। इस मिशन का उद्देश्य गैनीमेड की बर्फीली सतह के नीचे छिपे महासागर में जीवन के साक्ष्यों की खोज करना है। ऐसा पहली बार होगा जब कोई अंतरिक्ष यान हमारे अपने चंद्रमा के अलावा किसी अन्य प्राकृतिक उपग्रह की परिक्रमा करेगा।

यदि सब कुछ योजना अनुसार होता है तो 6 टन वज़नी अंतरिक्ष यान लगभग एक वर्ष के भीतर पृथ्वी और चंद्रमा के करीब से गुज़रेगा जिससे यान को बाहरी सौर मंडल की ओर बढ़ने में मदद मिलेगी। इसके लिए बहुत ही सटीक गुरुत्वाकर्षण-आधारित संचालन की आवश्यकता होगी। बाह्य सौर मंडल के अन्य मिशनों की तरह इस मिशन में भी जूस प्रक्षेपवक्र सीधा तो कदापि नहीं होगा। यह 2025 में वीनस के नज़दीक से गुज़रेगा और 2026 व 2029 में दो बार फिर से पृथ्वी के नज़दीक से गुज़रते हुए 2031 में बृहस्पति के करीब पहुंचेगा।

इस बिंदु पर यान के मुख्य इंजन को धीमा किया जाएगा ताकि वह बृहस्पति की परिक्रमा करने लगे। बृहस्पति की कक्षा में आने के बाद यह ग्रह के दूसरे सबसे बड़े चंद्रमा कैलिस्टो के काफी नज़दीक से 21 बार गुज़रेगा जबकि सबसे छोटे चंद्रमा युरोपा को बस दो बार पार करेगा।

2035 में जूस को गैनीमेड की कक्षा में भेजने के लिए इसके मुख्य इंजन को पुन: चालू किया जाएगा ताकि यह गैनीमीड की कक्षा में प्रवेश कर जाए। यह लगभग 9 महीने के लिए गैनीमेड के चारों ओर 500 किलोमीटर की ऊंचाई पर चक्कर लगाएगा। गैनीमीड की कक्षा में प्रवेश की प्रक्रिया भी काफी नाज़ुक होगी – गैनीमेड के चारों ओर धीमी गति से प्रवेश करना होगा और जूस की रफ्तार को गैनीमीड की कक्षीय गति से मेल खाना होगा। यदि इसमें थोड़ी भी चूक होती है तो बृहस्पति का गुरुत्वाकर्षण इसे गैनीमेड से और दूर ले जाएगा।

वैज्ञानिकों का मानना है कि बृहस्पति के कुछ चंद्रमाओं की बर्फीली सतह के नीचे तरल पानी उपस्थित है जो जीवन के विकास के लिए उचित वातावरण प्रदान कर सकता है। 1990 के दशक के मध्य में नासा के गैलीलियो प्रोब ने गैनीमेड और युरोपा पर महासागरों के साक्ष्य प्रदान किए थे। इसके बाद 2015 में हबल टेलिस्कोप की मदद से गैनीमेड पर ध्रुवीय ज्योति के संकेत भी मिले जो इस बात का प्रमाण है कि यहां चुंबकीय क्षेत्र मौजूद है।   

महासागरों की उपस्थिति के अधिक संकेत जूस द्वारा लेज़र-अल्टीमीटर द्वारा तैयार किए गए स्थलाकृति मानचित्रों से प्राप्त होंगे। अपनी साप्ताहिक परिक्रमा के दौरान गैनीमेड कुछ समय ग्रह के नज़दीक और कुछ समय दूर रहता है, इसके साथ ही अन्य चंद्रमाओं के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव से उत्पन्न ज्वारीय बलों के कारण यह फैलता और सिकुड़ता है। एक बर्फीली सतह वाली दुनिया के लिए इस प्रकार की विकृतियां सतह को 10 मीटर तक ऊपर या नीचे ला सकती हैं।  

अपनी यात्रा के दौरान जूस 85 वर्ग मीटर के सौर पैनल का उपयोग करेगा जो ग्रह के चारों ओर संचालन के लिए आवश्यक है। इसके अलावा यह विभिन्न देशों द्वारा तैयार किए गए ढेर सारे उपकरण और एंटेना भी तैनात करेगा। बर्फीले चंद्रमाओं की सतहों की मैपिंग के साथ-साथ ये उपकरण उपग्रहों के वायुमंडल, बृहस्पति के मज़बूत चुंबकीय क्षेत्र और विकिरण बेल्ट आदि का भी अध्ययन करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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चंद्रमा पर मोतियों में कैद पानी

पृथ्वी के बाहर जीवन की संभावना पानी की उपस्थिति पर टिकी है। अब चंद्रमा पर पानी का नया स्रोत मिला है: चंद्रमा की सतह पर बिखरे कांच के महीन मोती। अनुमान है कि पूरे चंद्रमा पर इन मोतियों में अरबों टन पानी कैद है। वैज्ञानिकों को आशा है कि आने वाले समय में चंद्रमा पर पहुंचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिए इस पानी का उपयोग किया जा सकेगा। चंद्रमा पर पानी मिलना वहां हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के भी सुलभ स्रोत होने की संभावना भी खोलता है।

दरअसल दिसंबर 2020 में चीनी यान चांग’ई-5 जब पृथ्वी पर लौटा तो अपने साथ चंद्रमा की मिट्टी के नमूने भी लाया था। इन नमूनों में वैज्ञानिकों को कांच के छोटे-छोटे (एक मिलीमीटर से भी छोटे) मनके मिले थे। ये मनके चंद्रमा से उल्कापिंड की टक्कर के समय बने थे। टक्कर के परिणामस्वरूप पिघली बूंदें चंद्रमा पर से उछलीं और फिर ठंडी होकर मोतियों में बदलकर वहां की धूल के साथ मिल गईं।

ओपेन युनिवर्सिटी (यू.के.) के खगोल विज्ञानी महेश आनंद और चीन के वैज्ञानिकों के दल ने इन्हीं कांच के मोतियों का परीक्षण कर पता लगाया है कि इनमें पानी कैद है। उनके मुताबिक चंद्रमा पर बिखरे सभी मोतियों को मिला लें तो चंद्रमा की सतह पर 30 करोड़ टन से लेकर 270 अरब टन तक पानी हो सकता है।

यानी चंद्रमा की सतह उतनी भी बंजर-सूखी नहीं है जितनी पहले सोची गई थी। वैसे इसके पहले भी चंद्रमा पर पानी मिल चुका है। 1990 के दशक में, नासा के क्लेमेंटाइन ऑर्बाइटर ने चंद्रमा के ध्रुवों के पास एकदम खड़ी खाई में बर्फ के साक्ष्य पाए थे। 2009 में, चंद्रयान-1 ने चंद्रमा की सतह की धूल में पानी की परत जैसा कुछ देखा था।

अब, नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित यह शोध संकेत देता है कि चंद्रमा की सतह पर पानी की यह परत कांच के मनकों में है। कहा जा रहा है कि खाई में जमे पानी का दोहन करने से आसान मोतियों से पानी निकालना होगा।

लगभग आधी सदी बाद अंतरिक्ष एजेंसियों ने चांद पर दोबारा कदम रखने का मन बनाया है। नासा अपने आर्टेमिस मिशन के साथ पहली महिला और पहले अश्वेत व्यक्ति को चांद पर पहुंचाने का श्रेय लेना चाहता है। वहीं युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी वहां गांव बसाना चाहती है। वहां की ज़रूरियात पूरी करने के लिए दोनों ही एंजेसियां चंद्रमा पर मौजूद संसाधनों का उपयोग करना चाहती हैं। इस लिहाज़ से चंद्रमा पर पानी का सुलभ स्रोत मिलना खुशखबरी है।

लेकिन ये इतना भी आसान नहीं है कि मोतियों को कसकर निचोड़ा और उनमें से पानी निकल आया। हालांकि इस बात के सबूत मिले हैं कि इन्हें 100 डिग्री सेल्सियस से अधिक तपाने पर इनसे पानी बाहर आ सकता है। बहरहाल ये मोती चंद्रमा के ध्रुवों से दूर स्थित जगहों पर पानी के सुविधाजनक स्रोत लगते हैं। इनसे प्रति घनमीटर मिट्टी में से 130 मिलीलीटर पानी मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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किसी अन्य तारे से आया पहला मेहमान

पको याद होगा 2017 में आकाश में एक रहस्यमय वस्तु गुज़री थी। इसके आकार वगैरह को देखकर बताना मुश्किल था कि यह एक क्षुद्रग्रह है या धूमकेतु है (कुछ ने तो इसे एलियन्स द्वारा भेजा गया यान भी कहा था)। इस अत्यंत तेज़ रफ्तार पिंड को ओमुआमुआ नाम दिया गया था।

हाल ही में बर्कले स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रसायनज्ञ जेनिफर बर्गनर और उनकी टीम ने विश्लेषण के आधार पर इसे धूमकेतु घोषित किया है। गौरतलब है कि ओमुआमुआ को सबसे पहले सूर्य के नज़दीक से 87 किलोमीटर प्रति सेकंड की अधिकतम गति से गुज़रते देखा गया था जो सौर मंडल में बनने वाली किसी वस्तु के लिए बहुत अधिक है। अवलोकनों के अनुसार यह 100 से 400 मीटर लंबा और सिगार के आकार का था। सौर मंडल से निकलने के बाद इसकी रफ्तार थोड़ी बढ़ गई थी। हालांकि अन्य धूमकेतुओं के समान ओमुआमुआ के पीछे कोई पूंछ नहीं दिखाई दी थी और न ही उसके आसपास धूल या गैस का कोई गोला था।

शोधकर्ताओं के अनुसार ओमुआमुआ के जीवन की शुरुआत किसी तारे से निकले जल-समृद्ध धूमकेतु के रूप में हुई। इसके बाद ब्रह्मांड में सुपरनोवा और अन्य ऊर्जावान घटनाओं द्वारा उत्सर्जित उच्च ऊर्जा किरणों ने इसकी लगभग 30 प्रतिशत बर्फ को हाइड्रोजन में परिवर्तित किया और यात्रा के दौरान यह ओमुआमुआ की बर्फ में फंसी रही। सूर्य के निकट पहुंचने पर बर्फ के पिघलने से फंसी हुई हाइड्रोजन निकलने से इसकी गति में वृद्धि हुई। चूंकि आणविक हाइड्रोजन सामान्य धूमकेतुओं से उत्सर्जित कार्बन मोनोऑक्साइड या कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में कम भारी होती है इसलिए वह अपने साथ अंतरिक्ष में उपस्थित धूल के कणों को इतना अधिक नहीं खींच पाई। इसी वजह से पूंछ नहीं बन पाई होगी।       

पूर्व में शोधकर्ताओं का मानना था कि ओमुआमुआ धूल और गैस के ठंडे अंतरतारकीय बादल से बनने वाला एक क्षुद्रग्रह या जमी हुई हाइड्रोजन का टुकड़ा हो सकता है। बहरहाल हालिया विश्लेषण के बाद सभी सहमत हैं कि यह एक धूमकेतु ही था।

अब ओमुआमुआ नेप्च्यून की कक्षा से आगे निकल चुका है और सौर मंडल से बाहर भी निकल जाएगा। हम इसे फिर कभी नहीं देखेंगे। लेकिन संभावना है कि इस तरह के और पिंड भविष्य में हमारे सौर मंडल में प्रवेश करेंगे। इसलिए कॉमेट इंटरसेप्टर नामक एक युरोपीय मिशन तैयार किया जा रहा है जो इस तरह के पिंडों का अध्ययन करने के लिए चंद्रमा से आगे की एक कक्षा में स्थापित किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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जियोइंजीनियरिंग अनुसंधान में नई पहल

हाल ही में 60 से अधिक प्रमुख जलवायु वैज्ञानिकों ने सौर भू-इंजीनियरिंग के क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने का आह्वान किया है। आम तौर पर पृथ्वी को अधिक परावर्तक बनाकर कृत्रिम रूप से ठंडा करने के प्रस्ताव को लेकर काफी अगर-मगर रहे हैं। कई जलवायु कार्यकर्ता और वैज्ञानिक जियोइंजीनियरिंग का अध्ययन करने का विरोध इसलिए भी करते हैं कि यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती की आवश्यकता से ध्यान भटकाता है। लेकिन जलवायु वैज्ञानिकों के खुले पत्र में कहा गया है कि आने वाले दशकों में जियोइंजीनियरिंग योजनाओं को लागू करने के फैसले लिए जाने की संभावना है। लिहाज़ा, योजनाओं की प्रभावशीलता और जोखिमों को समझने के लिए सिमुलेशन और फील्ड प्रयोगों की ज़रूरत स्पष्ट है। इस पत्र के हस्ताक्षरकर्ताओं में सेवानिवृत्त नासा वैज्ञानिक और ग्लोबल वार्मिंग के खतरों की चेतावनी देने वाले जेम्स हैनसेन और हारवर्ड विश्वविद्यालय के जलवायु वैज्ञानिक डेविड कीथ भी हैं, जिन्होंने वर्षों से छोटे पैमाने पर जियोइंजीनियरिंग प्रयोग करने की अनुमति प्राप्त करने के प्रयास किए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बोरॉन ईंधन संलयन के आशाजनक परिणाम

हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक वैकल्पिक ईंधन मिश्रण का रिएक्टर में संलयन किया है। इस तकनीक से संलयन आधारित बिजली संयंत्रों को, पारंपरिक ईंधन इस्तेमाल करने वाले संलयन संयंत्रों की तुलना में अधिक सुरक्षित और संचालन में आसान बनाया सकता है।

गौरतलब है कि अधिकांश प्रायोगिक संलयन रिएक्टर हाइड्रोजन के समस्थानिकों (ड्यूटेरियम और ट्रिटियम) का उपयोग करते हैं। लेकिन ट्रिटियम दुर्लभ है, और इस ईंधन सम्मिश्र का उपयोग करने से उच्च-ऊर्जायुक्त न्यूट्रॉन उत्पन्न होते हैं जो मनुष्यों के लिए खतरनाक हैं और रिएक्टर की दीवारों और अवयवों को नुकसान पहुंचाते हैं।

इसकी बजाय प्रोटॉन और बोरॉन से बना वैकल्पिक ईंधन मिश्रण कोई न्यूट्रॉन उत्पन्न नहीं करता है और केवल हानिरहित हीलियम पैदा करता है। लेकिन इसको जलने के लिए 3 अरब डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है जो सूर्य के केंद्रीय भाग के ताप से 200 गुना अधिक है।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, हाल ही में जापान में एक पारंपरिक संलयन रिएक्टर में अपेक्षाकृत कम तापमान पर संलयन की प्रक्रिया को अंजाम दिया गया है। इस प्रक्रिया में कणों के एक शक्तिशाली पुंज की मदद से प्रोटॉन्स को गति देकर अभिक्रिया शुरू करवाई गई। वैसे अभी यह व्यावहारिक होने से कोसों दूर है। (स्रोत फीचर्स)

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