Y गुणसूत्र ने बहुत छकाया, अब हाथ में आया

भी ऐसा माना जाता था कि Y गुणसूत्र का पूरा अनुक्रमण करना (यानी उसमें क्षारों का क्रम पता लगाना) मुश्किल ही नहीं, नाममुकिन है। कारण यह है कि इस गुणसूत्र के डीएनए में क्षारों की ऐसी लड़ियां भरी पड़ी हैं जो बार-बार दोहराई जाती हैं और पलटकर लगी होती हैं। ऐसा होने पर डीएनए के टुकड़ों में क्षार का क्रम पता होने पर भी उन्हें जोड़कर पूरा गुणसूत्र बनाना असंभव हो जाता है। लेकिन अब नेचर में प्रकाशित दो शोध पत्रों में इस समस्या को सुलझा लिया गया है। इन दोनों टीमों ने दुनिया भर के दर्जनों पुरुषों के Y गुणसूत्र का खुलासा कर दिया है।

एक शोध पत्र में यह बताया गया है कि दोहराए जाने वाले क्षेत्र किस तरह जमे होते हैं। इस शोध पत्र में कई नए जीन्स की भी पहचान की गई है। दूसरे शोध पत्र में बताया गया है कि उक्त जमावट तथा जीन्स की संख्या को लेकर व्यक्ति-व्यक्ति में भारी अंतर होते हैं।

वैज्ञानिक मानते आए हैं कि X और Y गुणसूत्र किसी समय एक समान थे। फिर समय के साथ Y गुणसूत्र का वह हिस्सा सिकुड़ गया जिसमें जीन्स पाए जाते हैं। यह सिकुड़कर X गुणसूत्र के जीन्स वाले हिस्से का छठा हिस्सा रह गया। आज Y गुणसूत्र में X के मुकाबले मात्र आधे जीन्स ही हैं। कई शोधकर्ताओं का तो मत है कि यह क्षय जारी रहेगा और हो सकता है कि अंतत: Y गुणसूत्र पूरी तरह नदारद हो जाए। कुछ जंतु वंशों में ऐसा हुआ भी है।

छोटे आकार के बावजूद Y गुणसूत्र का अनुक्रमण टेढ़ी खीर रहा है। यहां तक कि मानव जीनोम अनुक्रमण के शुरुआती प्रयासों में तो Y गुणसूत्र के अनुक्रमण की कोशिश भी नहीं की गई थी। कुछ हद तक इसका कारण यह भी था कि Y गुणसूत्र को जीन्स का कब्रिस्तान माना जाता है जहां के सारे जीन्स अंतत: गुम हो जाएंगे। इसके अलावा दोहराने वाले हिस्सों के चलते इसे शरारती गुणसूत्र भी माना जाता है।

अंतत: एक समूह ने Y गुणसूत्र के एक खंड का अनुक्रमण किया और पाया कि यह गुणसूत्र काफी गतिमान है, इसमें जीन्स इधर-उधर फुदकते रहते हैं और एक ही क्षार अनुक्रम के कई दर्पण प्रतिबिंब उपस्थित होते हैं। ऐसा करके यह गुणसूत्र अपने चंद बचे-खुचे जीन्स को अच्छी हालत में रखता है। मार्च में नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट और टीलोमेयर-टू-टीलोमेयर समूह ने पूरे मानव जीनोम का क्षार अनुक्रम प्रकाशित किया था (सिवाय Y गुणसूत्र के)। अब इसी समूह ने Y गुणसूत्र के 6.2 करोड़ क्षारों का पेचीदा क्रम प्रकाशित कर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोशिकाओं को बिजली से ऊर्जा देना

पारंपरिक बिजली संयंत्र जीवाश्म ईंधन से विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जीवाश्म ईंधन में यह ऊर्जा करोड़ों साल पहले प्रकाश ऊर्जा को जैविक ऊर्जा में तबदील करके भंडारित हुई थी। लेकिन एक हालिया शोध में रसायनज्ञों ने बिजली को जैविक ऊर्जा में परिवर्तित किया है।

एक सरल रासायनिक प्रक्रिया से शोधकर्ताओं ने विद्युत ऊर्जा को एडिनोसीन ट्राइफॉस्फेट (एटीपी) में परिवर्तित किया है। एटीपी कोशिकाओं को ऊर्जा देने वाला रासायनिक ईंधन है। इस प्रक्रिया से नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके जैव कारखानों को ऊर्जा मिल सकेगी और दवाओं से लेकर प्रोटीन पूरक वगैरह बनाए जा सकेंगे।

गौरतलब है कि पौधों की कोशिकाओं के भीतर छोटी-छोटी क्लोरोप्लास्ट नामक रचनाएं प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए एटीपी बनाती हैं। एटीपी आवश्यक चयापचय क्रियाओं के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। जब एटीपी अणु का उपयोग होता है तब यह एक फॉस्फेट को त्याग कर एडिनोसीन डायफॉस्फेट (एडीपी) बन जाता है। यह एडीपी ऊर्जा मिलने पर फिर से एटीपी में परिवर्तित हो जाता है। पौधों का उपभोग करने वाले जीव ग्लूकोज़ को ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं और उस ऊर्जा का उपयोग एटीपी-एडीपी-एटीपी चक्र चलाने के लिए करते हैं।

संशोधित सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके औद्योगिक स्तर पर विभिन्न उत्पाद तैयार किए जाते हैं। इसमें पौधे उगाकर शर्करा या अन्य खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं और खमीर (यीस्ट), बैक्टीरिया या अन्य औद्योगिक सूक्ष्मजीवों को खिलाए जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव इस भोजन से एटीपी उत्पन्न करते हैं, जो वांछित जैव रासायनिक क्रियाओं को ऊर्जा प्रदान करता है।

समस्या यह है कि पौधे सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा का केवल 1 प्रतिशत ही उपयोगी यौगिकों में परिवर्तित कर पाते हैं, इसलिए इस प्रक्रिया की दक्षता काफी कम रहती है। इसके विपरीत सौर-सेल 20 प्रतिशत से अधिक सौर ऊर्जा को बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं।

इसका फायदा उठाते हुए मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर टेरेस्ट्रियल माइक्रोबायोलॉजी के टोबियास एर्ब ने बिजली को सीधे एटीपी में परिवर्तित करने पर विचार किया।

वैसे वर्ष 2016 में किए गए एक पूर्व प्रयास में एक इलेक्ट्रोड के पास एटीपी सिंथेज़ नामक एंजाइम की प्रतिलिपियां एक झिल्ली में जमाई गई थीं। प्रयोगशाला में तो यह कारगर रहा लेकिन व्यवहारिक रूप से उपयोगी साबित नहीं हुआ।

अब एर्ब की टीम ने एक सरल प्रक्रिया सुझाई है जिसे “एएए चक्र” का नाम दिया गया है। इस चक्र में चार एंजाइमों का उपयोग करके विद्युत ऊर्जा की मदद से एडीपी को एटीपी में परिवर्तित किया जाता है। इसमें एक टंगस्टन युक्त एल्डिहाइड फेरेडॉक्सिन ऑक्सीडोरिडक्टेस (एओआर) नामक एंजाइम की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह एंज़ाइम कुछ वर्ष पूर्व एक बैक्टीरिया से प्राप्त किया गया था।

एओआर एडीपी को सीधे एटीपी में परिवर्तित नहीं करता बल्कि एक ऊर्जा कनवर्टर के रूप में काम करता है। एओआर इलेक्ट्रोड से इलेक्ट्रॉन युग्म प्राप्त करके उनका उपयोग एक यौगिक को ऊर्जा प्रदान करने के लिए करता है। अन्य एंज़ाइम इस यौगिक क्रमश: इस तरह परिवर्तित करते हैं कि अंत में शुरुआती यौगिक वापिस बन जाता है और चक्र चलता रहता है। इस दौरान मुक्त ऊर्जा का उपयोग एडीपी में एक फॉस्फेट समूह जोड़कर एटीपी उत्पादन में हो जाता है।

विशेषज्ञ इस प्रक्रिया की सराहना करते हुए एओआर की सीमित स्थिरता को देखते हुए इस चक्र में सुधार करने पर भी ज़ोर दे रहे हैं। एर्ब की टीम सुधार के प्रयासों में जुट गई है। यदि सफलता मिली तो उत्पादन प्रक्रियाओं में एक बड़े परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है और जैव-इंजीनियरों को विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए ऊर्जा प्रदान करने का एक तरीका मिल जाएगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतरिक्ष में बड़ी उपलब्धि, पृथ्वी का बुरा हाल – चक्रेश जैन

गस्त का महीना विज्ञान जगत में अनेक अहम घटनाओं का गवाह रहा। चंद्रयान-3 के चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर सफलतापूर्वक पहुंचने की व्यापक चर्चा मीडिया में छाई रही। इस सफलता ने हमारे वैज्ञानिकों का उत्साह बढ़ाया। इस अहम उपलब्धि पर यह सुझाव सामने आया कि इस उत्साह का उपयोग वैज्ञानिक सोच बढ़ाने में होना चाहिए।

इसरो के अनुसार चंदा मामा की गोद में खेल रहे रोवर ‘प्रज्ञान’ ने दस दिनों तक चहलकदमी की और मिशन के लिए निर्धारित  सभी काम सम्पन्न कर लिए।

सरकार ने चंद्रयान-3 मिशन की सफलता पर हर साल 23 अगस्त ‘राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस’ मनाने की घोषणा की। वैसे हमेशा की तरह सवाल यह है कि एक दिन अंतरिक्ष विज्ञान दिवस मनाने से क्या हासिल होगा? दूसरा सवाल यह है कि हमारे यहां पहले से हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस और 11 मई को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस मनाया जाता है, तो अलग से एक और दिवस मनाने की क्या ज़रूरत है?

चंद्रयान-2 की विफलता पर आलोचकों और टिप्पणीकारों ने कहा था कि भारत को अंतरिक्ष विज्ञान पर पैसा बर्बाद नहीं करना चाहिए, और गरीबी, अशिक्षा और भुखमरी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस बार भी टिप्पणीकारों ने कहा कि हमारे वैज्ञानिक चंद्रमा के अगम्य छोर तक पहुंच सकते हैं तो हमारे यहां के पहाड़ी शहरों को तो यकीनन बचा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि चंद्रयान-3 की कामयाबी के ठीक दूसरे दिन ही हिमाचल के कुल्लु जि़ले में भूस्खलन से कई इमारतें ध्वस्त हो गई थीं।

राजनीति के गलियारों में विज्ञान की इस बड़ी कामयाबी के श्रेय को लेकर नया विवाद शुरू हो गया। सवाल उठा कि आखिर यह श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? विभिन्न राजनैतिक दलों ने पूर्व में रही सरकारों और उनके नेतृत्व को श्रेय देते हुए यह साबित करने का भरपूर प्रयास किया कि चंद्रमा पर पहुंचने का श्रेय और सराहना उन्हें मिलना चाहिए। सच तो यह है कि आज़ादी के बाद सत्तारूढ़ रही सभी सरकारों ने अंतरिक्ष विज्ञान को उच्च प्राथमिकता दी है और यह कामयाबी सम्मिलित प्रयासों का नतीजा है।

प्रधानमंत्री ने कहा है कि चंद्रयान-3 का विक्रम लैंडर जिस जगह पर उतरा है, उसका नाम ‘शिवशक्ति पॉइंट’ रखा जाएगा। इस घोषणा को लेकर भी राजनैतिक घमासान छिड़ गया।

रूस ने सोवियत संघ से अलग होने के बाद पहली बार 11 अगस्त को चंद्रयान लूना-25 सफलतापूर्वक भेजा जो चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर पहुंचने के पहले ही हादसे का शिकार हो गया। दरअसल उसने दस दिनों के भीतर चंद्रमा पर पहुंचने का सपना देखा था।

विज्ञान को अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखना समय की मांग है। दुनिया के कुछ देश पहले ही अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हो चुके हैं। चंद्रयान-3 की कामयाबी से शेयर बाज़ार में उत्साह का नज़ारा दिखा। अंतरिक्ष, वैमानिकी और रक्षा क्षेत्र से सम्बंधित कंपनियों के शेयरों में निवेशकों का अत्यधिक उत्साह दिखाई दिया।

ड्रीम 2047 बंद

इसी महीने लोकप्रिय विज्ञान की मासिक पत्रिका ‘ड्रीम 2047’ का प्रकाशन बंद हो गया। आज़ादी के अमृतकाल के आरंभिक दौर में ही एक पत्रिका के अवसान ने नए सवालों को उठाया है। इसका प्रकाशन अक्टूबर 1998 में शुरू हुआ था। इस साल यह पत्रिका 25 वर्षों का सफर पूरा करते हुए अपनी रजत जयंती मनाने की दहलीज़ पर थी। यह सरकारी पत्रिका थी, जिसकी प्रसार संख्या चालीस हज़ार का आंकड़ा पार कर गई थी। यह पत्रिका लगातार और नियमित रूप से दो भाषाओं में प्रकाशित की जाती थी। इसमें नवीनतम विषयों और वैचारिक मुद्दों पर विशेषज्ञों के आलेख प्रकाशित हो रहे थे।

राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान

संसद ने राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान विधेयक पारित कर दिया। इस विधेयक में गणित, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी,  पर्यावरण सहित भू-विज्ञान के क्षेत्र में शोध, नवाचार और उद्यमिता के लिए उच्च स्तरीय मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान (एनआरएफ) की स्थापना का प्रावधान किया गया है। इसके अंतर्गत आगामी पांच वर्षों में शोधकार्यों के लिए पचास हज़ार करोड़ रुपए का बजट रखा गया है। अंग्रेज़ी में प्रकाशित लोकप्रिय विज्ञान की एक राष्ट्रीय पत्रिका ने अपने सम्पादकीय में कहा है कि इससे देश में वैज्ञानिक उत्कृष्टता का सशक्तिकरण हो सकेगा। वैज्ञानिकों के बीच इस विधेयक को लेकर अलग-अलग विचार हैं।

जैव विविधता विधेयक

संसद ने जैव विविधता (संशोधन) विधेयक भी पारित कर दिया। यह विधेयक 2002 के जैविक विविधता अधिनियम को संशोधित करता है। इस विधेयक में किए गए महत्वपूर्ण परिवर्तन औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देते हैं और पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धति का समर्थन करते हैं।

परिंदों के हाल

हाल ही में ‘स्टेट ऑॅफ इंडियाज़ बर्ड्स’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में बताया गया है कि मांसाहारी पक्षियों की संख्या शाकाहारी पक्षियों की तुलना में तेज़ रफ्तार से कम हो रही है। इसी प्रकार प्रवासी पक्षियों का जीवन गैर-प्रवासी पक्षियों की तुलना में ज़्यादा खतरे में हैं। यह रिपोर्ट बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और ज़ुऑलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया सहित 13 संस्थानों के एक समूह ने प्रकाशित की है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में तीन दशकों के दौरान जिन 338 पक्षी प्रजातियों की संख्या में परिवर्तन पर अध्ययन किया गया, उनमें साठ प्रतिशत की कमी देखी गई। दरअसल इस रिपोर्ट में पर्यावरण को गहराई से समझने पर विशेष ज़ोर दिया गया है।

विविध घटनाक्रम

विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और उपलब्धियों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि पत्र-पत्रिकाओं में पहले से जारी अनुसंधान के नवीनतम परिणाम प्रकाशित हुए हैं। नेचर पत्रिका में छपी ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि अध्ययनकर्ताओं ने तथाकथित अतिचालक एलके-99 की पहेली सुलझा ली है और यह साबित कर दिया है कि यह अतिचालक नहीं है, बल्कि यह कॉपर, लेड, फॉस्फोरस तथा ऑक्सीजन का यौगिक है, जो एक विशिष्ट तापमान पर अतिचालकता का गुण प्रदर्शित करता है।

इसी पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भौतिक शास्त्रियों ने एक अनूठे समस्थानिक ऑक्सीजन-28 का पता लगाया है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि यह ऑक्सीजन का एक समस्थानिक है, जिसमें 20 न्यूट्रॉन और आठ प्रोटोन हैं। इस रिसर्च ने परमाणु नाभिक की संरचना के सिद्धांतों पर मंथन की ज़रूरत पैदा कर दी है, क्योंकि सैद्धांतिक दृष्टि से तो वैज्ञानिकों का मत था कि ऑक्सीजन का यह समस्थानिक टिकाऊ होना चाहिए लेकिन वास्तव में यह क्षणभंगुर निकला।

विज्ञान जगत की ही एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने नवीनतम अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में भ्रूण को नए सिरे से परिभाषित करने का विचार पेश किया है।

युरोप की महत्वाकांक्षी मानव मस्तिष्क परियोजना (एचबीपी) के दस साल पूरे हो रहे हैं। आरंभ में इस परियोजना की जमकर आलोचना हुई थी। इस परियोजना का कंप्यूटर में मानव मस्तिष्क सृजित करने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान है।

नेचर पत्रिका में छपी रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार एक प्रयोग में बूढ़े चूहों को पीएफ-4 प्रोटीन का डोज़ देने से उनका मस्तिष्क 30-40 साल के युवाओं के समान सोचने-समझने की क्षमता प्रदर्शित करने लगा। दरअसल, पीएफ-4 प्रोटीन कोशिकाएं प्लेटलेट्स से बनती हैं। वैज्ञानिकों का विचार है कि आगे चलकर यह अध्ययन बूढ़े व्यक्तियों के दिमाग की कोशिकाओं को सक्रिय बनाने में अहम भूमिका निभा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क तरंगों से निर्मित किया गया एक गीत

गे पढ़ने से पहले इनमें से किसी एक लिंक पर जाकर रिकॉर्डिंग सुनें:

इस रिकॉर्डिंग में गिटार के तारों की आवाज़ अजीब सी गूंजती सुनाई देती है, गायक की आवाज़ भी ठीक से नहीं आती, गाने के बोल बमुश्किल समझ में आते हैं। फिर भी, जो लोग इस गीत से वाकिफ हैं वे गीत को पहचान पाते हैं। यह रॉक बैंड पिंक फ्लॉयड के 1979 के सुपरहिट एल्बम ‘दी वॉल’ का गीत ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 1)’ है।

यह रिकॉर्डिंग किसी पुरानी कैसेट को दुरुस्त करके नहीं बनाई गई है। यह रिकॉर्डिंग तो उन लोगों की मस्तिष्क तरंगों के आधार पर बनाई गई है जिन्होंने इस गीत को सुना था। इस तरह पुनर्निर्मित इस धुन से यह पता चला है कि मस्तिष्क संगीत का प्रोसेसिंग कहां करता है।

वास्तव में, मस्तिष्क तरंगों की यह रिकॉर्डिंग काफी पुरानी है। दस से भी अधिक साल से पहले अल्बेनी मेडिकल सेंटर के तंत्रिका विज्ञानियों ने मिर्गी पीड़ितों के दौरों के दौरान मस्तिष्क गतिविधियों को देखने के लिए 29 मरीज़ों में से प्रत्येक के मस्तिष्क में 2668 इलेक्ट्रोड लगाए और उनकी मस्तिष्क गतिविधि रिकॉर्ड की। ऐसा करते समय उन्होंने इन मरीज़ों को गीत सुनाए थे।

इस प्रक्रिया ने शोधकर्ताओं को यह भी जानने का मौका दे दिया कि मस्तिष्क संगीत पर कैसे प्रतिक्रिया देता है। अधिकांश लोगों में, बोली गई भाषा को समझने के लिए ज़िम्मेदार रचनाएं मस्तिष्क के बाएं गोलार्ध में होती हैं। लेकिन कई अध्ययनों से पता चला है कि संगीत को समझने या प्रोसेस करने में मस्तिष्क का एक जटिल नेटवर्क शामिल होता है जो संभवत: दोनों गोलार्ध में फैला होता है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी लुडोविक बेलियर बताते हैं कि मरीज़ों को पिंक फ्लॉयड बेहद पसंद था। वास्तव में मरीजों ने कई गाने सुने थे जिनमें बैंड का सबसे प्रसिद्ध और हिट गाना ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 2)’ भी था। लेकिन सबसे विस्तृत मस्तिष्क रिकॉर्डिंग उन लोगों से मिली जिन्होंने कम लोकप्रिय गाना (भाग 1) सुना था।

शोधकर्ताओं ने इन रिकॉर्डिंग्स का उपयोग एक कम्प्यूटेशनल मॉडल को यह सिखाने के लिए किया कि संगीत की किस विशेषता के लिए मस्तिष्क में क्या गतिविधि हुई। टीम को उम्मीद थी कि उनका मॉडल सीख जाएगा और अंतत: मूल गीत का ऐसा संस्करण बना देगा जिसे पहचाना जा सके।

शोधकर्ताओं ने मॉडल को मात्र 90 प्रतिशत गीत के लिए प्रशिक्षित किया। बाकी हिस्सा मॉडल को सीखकर तैयार करने दिया। मॉडल ने गीत का शेष 10 प्रतिशत हिस्सा (करीब 15 सेकंड लंबा हिस्सा) पुन: बना लिया।

फिर शोधकर्ताओं ने विभिन्न संगीत विशेषताओं से जुड़ी मस्तिष्क गतिविधि को पहचानने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने मॉडल में मस्तिष्क रिकॉर्डिंग्स डालीं जिसमें कुछ इलेक्ट्रोड का डैटा उन्होंने हटा दिया और फिर से बनाए गए गाने पर प्रभाव देखा। इस तरह एक नए पहचाने गए मस्तिष्क क्षेत्र का पता चला जो संगीत में लय – जैसे ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 1)’ में बजने वाले गिटार – को समझने में शामिल है। ये नतीजे प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन इस बात की पुष्टि भी करता है कि संगीत को समझने में भाषा प्रसंस्करण के विपरीत मस्तिष्क के दोनों गोलार्ध शामिल होते हैं।

बेलियर को उम्मीद है कि इस शोध से एक दिन उन मरीज़ों को मदद मिल सकेगी जिन्हें आघात, चोट या एमियोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस जैसी बीमारियों के कारण बोलने में मुश्किल होती है। हालांकि वर्तमान में ऐसे मस्तिष्क-मशीन इंटरफेस मौजूद हैं जिनकी मदद से ये मरीज़ संवाद कर पाते हैं। लेकिन भाषा को जिस लयबद्धता या आवाज़ में उतार-चढ़ाव के साथ बोला जाता है ये प्रौद्योगिकियां संवाद में वैसी लयबद्धता नहीं ला पातीं, इसलिए मरीज़ों की आवाज़ धीमी और रोबोटिक लगती है। इसलिए उम्मीद है कि कृत्रिम बुद्धि पर आधारित ब्रेन मशीन इंटरफेस संवाद में लयबद्धता ला सकते हैं, जिससे मरीज़ों का संवाद अधिक स्वाभाविक लगेगा।

हालांकि वर्तमान में इस तरह की तकनीक के लिए घुसपैठी सर्जरी लगेगी। लेकिन जैसे-जैसे तकनीकों में सुधार होगा, ऐसा हो सकता है किसी दिन खोपड़ी की सतह से जुड़े इलेक्ट्रोड से इस तरह की रिकॉर्डिंग संभव हो जाए।(स्रोत फीचर्स)

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प्रयोगशाला में मांस का निर्माण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले दिनों देश के अखबारों में प्रयोगशाला में मांस बनाने के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। यह रिपोर्ट पोल्ट्री फार्म में या विशेष रूप से निर्मित बूचड़खानों में जानवरों को मारने की बजाय प्रयोगशाला में मांस निर्मित करने के भारतीय प्रयासों के बारे में हैं।

वास्तव में, प्रयोगशाला में मांस तैयार करने का काम अमेरिका और युरोप दोनों जगहों पर जारी है। विचार है कि मांस के लिए जानवरों को न मारें बल्कि उन्हें बचाएं और प्रयोगशाला में मांस तैयार करें। दी स्टेट्समैन में प्रकाशित लेख में कहा गया है कि ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से प्रयोगशाला संवर्धित मांस एक बेहतर विकल्प है: इसमें कोई क्रूरता नहीं की जाती है; प्रयोगशाला मांस को बहुत कम वसा वाला, कोलेस्ट्रॉल-रहित और संतृप्त वसा-रहित बनाया जा सकता है, जो उपभोक्ताओं के लिए स्वास्थ्यवर्धक होगा; भविष्य में जब प्रयोगशाला मांस बाज़ार के लिए उपलब्ध होगा तो यह पारंपरिक मांस से सस्ता हो सकता है; और प्रयोगशाला में निर्मित मांस के पर्यावरणीय प्रभाव भी कम होंगे।

आखिरी बिंदु विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि अनुमान है कि विश्व स्तर पर मांस के लिए हर साल 50 अरब से अधिक मुर्गियां पाली जाती हैं। इसका मतलब है कि दुनिया भर में हर दिन लगभग साढ़े 13 करोड़ मुर्गियां मारी जाती हैं। मुर्गीपालन के मामले में अमेरिका तीसरे नंबर पर है। रूस्टर हॉउस रेस्क्यू वेबसाइट बताती है कि अकेले अमेरिका में हर दिन 2.33 करोड़ थलचर जानवर मार दिए जाते हैं। इतनी ही संख्या में पोर्क और बीफ के लिए भी जानवर मारे जाते हैं। यह सब ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगभग 15 प्रतिशत का योगदान देता है, जिससे पर्यावरण प्रभावित होता है।

इस लिहाज़ से प्रयोगशाला में मांस बनाना एक स्वच्छ और बेहतर विकल्प है। 2017 में एक डच वैज्ञानिक डॉ. मार्क पोस्ट ने अपनी प्रयोगशाला में बीफ बनाया था। तब से हमने प्रयोगशाला में मांस विकसित करने के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, जो पशु और पर्यावरण दोनों के अनुकूल है। यहां तक कि अमेरिकी कृषि विभाग ने प्रयोगशाला में पशु कोशिकाओं से मांस विकसित करने वाली कई निजी कंपनियों को मंज़ूरी दे दी है। अमेरिका में पेटा (पीपल फॉर दी एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स) नामक समूह ने प्रयोगशाला में मांस तैयार करने वाली दो फर्मों, अपसाइड फूड्स और गुड मीट, को इसके लिए वित्तीय सहायता दी है। भारत में, जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) ने पशु कोशिकाओं से प्रयोगशाला में मांस का विकसित करने के लिए हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी को अनुदान दिया है, और डॉ. ज्योत्सना धवन और मधुसूदन राव ने इसे सफलतापूर्वक तैयार किया है। वर्तमान में, भारत में कुछ निजी प्रयोगशालाएं हैं जो संवर्धित मांस तैयार करती हैं।

संवर्धित मांस कैसे बनाया जाता है? अमेरिका की गुड मीट फर्म जीवित जानवर की मांसपेशियों और अन्य अंगों से तैयार की गई स्टेम कोशिकाओं का उपयोग करती है। इन कोशिकाओं को अमीनो एसिड और कार्बोहाइड्रेट के पोषण से भरी पेट्री डिश में रखा जाता है ताकि ये कोशिकाएं फल-फूल सकें। कोशिकाओं की स्टील की टंकियों में वृद्धि की जाती है और मांस उत्पादित किया जाता है। फिर तैयार मांस को कटलेट और सॉसेज जैसा आकार दिया जाता है और बाज़ार में बेच दिया जाता है। भारत में संवर्धित मांस उत्पादन में लगी कंपनियां भी इसी तरीके से मांस तैयार करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए एजेंसी का प्रस्ताव

हाल ही में भारत सरकार ने राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) की स्थापना का प्रस्ताव दिया है। इसके तहत अगले 5 वर्षों में अनुसंधान के लिए 6 अरब डॉलर खर्च करने की योजना है। अनुसंधान में इतना बड़ा निवेश एक अच्छी पहल है लेकिन इस निर्णय को लेकर वैज्ञानिकों के बीच काफी मतभेद है। समर्थकों का दावा है कि इस निर्णय से बुनियादी और व्यावहारिक विज्ञान में निवेश को बढ़ावा मिलेगा। दूसरी ओर, अन्य ने इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप की आशंका ज़ाहिर की है। 70 प्रतिशत फंडिंग तो निजी उद्योग से आएगा, इसलिए फंडिंग में वैसा रुझान भी दिख सकता है।

फिलहाल भारत में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का काफी कम प्रतिशत अनुसंधान पर खर्च किया जाता है। शोध पत्रों और पेटेंट की गुणवत्ता में भी हम काफी पीछे हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए एक शक्तिशाली शोध एजेंसी की मांग की गई थी ताकि विज्ञान नीति के समन्वय और शोध फंडिंग बढ़ाने में मदद मिले। 2020 में पेश प्रारंभिक प्रस्ताव में एजेंसी का वार्षिक बजट जीडीपी का 0.1 प्रतिशत से अधिक रखने का विचार था। संस्था को राजनीतिक दबाव और नौकरशाही से बचाने के लिए प्रमुख वैज्ञानिकों के एक स्वतंत्र बोर्ड को नेतृत्व को चुनने और पूर्ण-स्वायत्तता की बात थी।

नया प्रस्ताव इस सोच से काफी अलग है। नए प्रस्ताव में प्रधानमंत्री को बोर्ड का अध्यक्ष तथा विज्ञान और शिक्षा मंत्रियों को दो अन्य शीर्ष पदों पर रखने की व्यवस्था है। साथ ही विज्ञान मंत्रालय और भारत के विज्ञान सलाहकार को व्यापक अधिकार दिए गए हैं। इस सम्बंध में वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों का मानना है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता अनुसंधान एवं विकास के प्रति गंभीरता दर्शाता है।

अलबत्ता, इस व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना लगती है। एक मत है कि वर्तमान सरकार ने पहले भी छद्म वैज्ञानिक विचारों को बढ़ावा दिया है। कई पूर्व अधिकारियों को आशंका है कि नौकरशाही भी नई एजेंसी के काम में बाधक बन सकती है।

नए प्रस्ताव में विज्ञान एवं इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (एसईआरबी) को एनआरएफ में शामिल करने की बात कही गई है। यानी फाउंडेशन को एसईआरबी की तुलना में अधिक धन प्राप्त होगा। लेकिन सरकार एनआरएफ की शुरुआती फंडिंग के लिए निजी क्षेत्र पर भरोसा कर रही है जो काफी मुश्किल है।

फिलहाल इस विधेयक को संसद में पारित होने के बाद ही सार्वजनिक किया जाएगा। तब तक इस प्रस्ताव का ठीक तरह से सार्वजनिक आकलन करना मुश्किल है। (स्रोत फीचर्स)

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कारखानों में मांस बनाने की कोशिशें

प्रयोगशाला में विकसित मांस एक बार फिर चर्चा में है। इस क्षेत्र में पहली सफलता 2013 में मिली थी, जब मास्ट्रिक्ट युनिवर्सिटी के बायोमेडिकल इंजीनियर मार्क पोस्ट ने पहला कल्चर्ड बीफ बर्गर तैयार किया था, जिसकी कीमत 3,25,000 अमेरिकी डॉलर (लगभग 2.5 करोड़ रुपए!) थी। वर्तमान में विश्व भर की लगभग 150 से अधिक कंपनियां कल्चर्ड मांस (बीफ, चिकन, पोर्क और मछली), दूध और चमड़े सहित कई अन्य उत्पादों के मैदान में उतर चुकी हैं।

अमेरिकी नियामक एजेंसियों ने फिलहाल सिर्फ बर्कले स्थित अपसाइड फूड्स और कैलिफोर्निया स्थित गुड मीट कंपनियों को प्रयोगशाला विकसित मुर्गे का मांस (चिकन) बाज़ार में बेचने की अनुमति दी है। उम्मीद है कि इस साल अमेरिकी रेस्टॉरेंट्स में कल्चर्ड मांस परोसा जाने लगेगा। एक ओर उत्पादन संयंत्रों का निर्माण और अरबों का निवेश किया जा रहा है, वहीं कोशिका संवर्धन तकनीकें भी काफी तेज़ी से विकसित हो रही हैं।

जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से कल्चर्ड मांस को एक विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि पशुपालन में बहुत भूमि लगती है, और यह वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में लगभग 15 प्रतिशत योगदान देता है। इसके अलावा लाल मांस के सेवन से हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर वगैरह का जोखिम रहता है। मुर्गी फार्म से एवियन इन्फ्लुएंज़ा का और एंटीबाोटिक प्रतिरोध बढ़ने का खतरा भी रहता है।

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि बढ़ती वैश्विक आबादी के कारण 2031 तक मांस की वैश्विक मांग 15 प्रतिशत तक बढ़ने की संभावना है। ज़ाहिर है इससे वैश्विक जलवायु भी प्रभावित होगी। इससे निपटने के लिए विभिन्न स्तर पर वैकल्पिक प्रोटीन स्रोतों को विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं जिसमें मांस को प्राथमिकता दी गई है।

अलबत्ता, कल्चर्ड मांस उत्पादन की अपनी चुनौतियां हैं। कल्चर्ड मांस के उत्पादन की सबसे बड़ी चुनौती ऊर्जा उपयोग, टेक्नॉलॉजी के विकास और पारंपरिक मांस की तुलना में इसका सैकड़ों गुना महंगा होना है। एक अनुमान के अनुसार 30 करोड़ टन की वार्षिक मांग के 10 प्रतिशत को भी कल्चर्ड मांस से पूरा करने के लिए हज़ारों संयंत्र लगाने होंगे। कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक कल्चर्ड मांस स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण के लिए हानिकारक होगा।

कल्चर्ड मांस बनाने के लिए जानवर के ऊतकों को लिया जाता है। इसके बाद कोशिकाओं को पोषक माध्यम में रखा जाता है जिससे कोशिकाएं में संख्या-वृद्धि करती हैं। फिर इनमें से मांसपेशीय कोशिकाओं को अलग किया जाता है और इन्हें तंतुओं का रूप दिया जाता है। कुछ उत्पादों में प्राणि कोशिकाओं के साथ पादप कोशिकाओं का भी उपयोग किया जाता है जबकि कुछ कंपनियां मांस की जटिल संरचनाएं बनाने का प्रयास कर रही हैं। इन पेचीदगियों से यह तो ज़ाहिर है अंतिम उत्पाद काफी महंगा होगा।

अनुमान है कि आदर्श परिस्थितियों में उत्पादन लागत लगभग 6 डॉलर (480 रुपए) प्रति किलोग्राम हो सकती है। पारंपरिक मांस के लिए लागत 2 डॉलर (160 रुपए) प्रति किलोग्राम होती है। पूर्व में हुए अध्ययन कल्चर्ड मांस की लागत 37 डॉलर (लगभग 3000 रुपए) प्रति किलोग्राम आंकते हैं।   

इससे निपटने के लिए मांस निर्माण प्रक्रिया में काफी बदलाव किए जा रहे हैं। इसमें मुख्यत: विभिन्न प्रकार की प्रारंभिक कोशिकाओं का उपयोग किया जा रहा है जो अलग-अलग गति या घनत्व से बढ़ सकती हैं और विभिन्न बनावट या पोषण प्रोफाइल का उत्पादन करने में सक्षम हैं। उदाहरण के लिए नीदरलैंड की एक कंपनी गाय से लिए गए ऊतकों का उपयोग कर रही है जिसकी कोशिकाएं मात्र 30 से 50 बार विभाजित हो सकती हैं। सिद्धांतत: तो एक बायोप्सी से सैकड़ों-हज़ारों किलोग्राम मांस का निर्माण किया जा सकता है लेकिन निरंतर नई कोशिकाओं की आपूर्ति ज़रूरी होगी। यह भी देखा जा रहा है कि किस तरह छोटे अणुओं का मिश्रण मांसपेशी स्टेम कोशिकाओं को बढ़ने और साथ ही साथ विभिन्न परिपक्व मांसपेशी बनने में मदद कर सकता है।

एक अन्य विकल्प ‘अमर’ कोशिका वंश का उपयोग है जिसमें सैद्धांतिक रूप से एक ही बायोप्सी से सभी के लिए भोजन बनाया जा सकता है। इन्हें या तो आनुवंशिक संशोधन के माध्यम से तैयार किया जा सकता है या संयोगवश हुए उत्परिवर्तन के कारण बनी ‘अमर’ कोशिका हाथ लग जाए। एक अध्ययन के अनुसार ऐसी मांसपेशीय कोशिकाएं तेज़ी से और काफी आसानी से बढ़ती हैं और इन्हें वसा जैसी कोशिकाओं में परिवर्तित भी किया जा सकता है। उत्पादन लागत भी कम हो सकती है।

हालांकि, ऐसी उत्परिवर्तित ‘अमर’ कोशिकाओं में ट्यूमर की संभावना ज़्यादा होती है जिसके चलते इनकी सुरक्षा पर सवाल उठे हैं। अलबत्ता, खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार ऐसी कोशिकाओं के पैकेजिंग, पकाने और पाचन प्रक्रिया में जीवित रहने और नुकसान पहुंचाने की संभावना नगण्य है।

इन सबमें सबसे महंगी प्रक्रिया कोशिकाओं के लिए आवश्यक ‘भोजन’ तैयार करना है। यह अमीनो एसिड, प्रोटीन, शर्करा, लवण और विटामिन का एक शोरबा होता है। प्रयोगशाला में कोशिका वंशों के लिए सबसे बेहतरीन भोजन मवेशियों का फीटल बोवाइन सीरम है लेकिन पशु-कल्याण और अन्य मुद्दों के कारण इसका उपयोग संभव नहीं है। इसको कृत्रिम रूप से तैयार करने की लागत लाखों-करोड़ों रुपए है। शोधकर्ता इसके सस्ते वनस्पति-आधारित विकल्प तलाशने के प्रयास कर रहे हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि लाल मांस से होने वाली कई हानिकारक स्वास्थ्य समस्याएं कल्चर्ड मांस में भी बनी रहेंगी। एफएओ को अन्य खाद्य पदार्थों के समान कल्चर्ड मांस के लिए भी हानिकारक बैक्टीरिया, एलर्जी, एंटीबायोटिक अवशेष, वृद्धि हार्मोन और अन्य कारकों की सीमा निर्धारित करना होगी।

पर्यावरण की दृष्टि से, प्रयोगशाला में मांस तैयार करने में पानी और भूमि का उपयोग कम होगा। लेकिन ऊर्जा की खपत एक गंभीर मुद्दा है। 2030 तक कल्चर्ड मांस के निर्माण में प्रति किलोग्राम लगभग 60 प्रतिशत अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होगी। यदि यह ऊर्जा नवीकरणीय स्रोतों से आती है तो कल्चर्ड मांस का कार्बन पदचिन्ह पारंपरिक मांस की तुलना में कम हो सकता है।

एक सवाल कल्चर्ड मांस की स्वीकृति का है। सर्वेक्षणों में कल्चर्ड मांस खाने की इच्छा में भिन्नता नज़र आती है। चीन में मांस की बढ़ती मांग के चलते इसे अपनाए जाने की संभावना ज़्यादा है। दूसरी ओर, पश्चिमी देशों में कल्चर्ड मांस की अधिक मांग शाकाहारियों के बीच होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हृदय रुक जाने के बाद भी मस्तिष्क में गतिविधियां

मौत के करीब से गुज़रे कई लोग बताते हैं कि उनकी नज़रों के सामने से उनका जीवन गुज़रने लगता है। जीवन के यादगार क्षण दोहराने लगते हैं और यह सब कुछ वे शरीर के बाहर से अनुभव करते हैं जैसे खुद को कहीं बाहर से देख रहे हों। हाल ही में चार मरणासन्न लोगों पर किए गए एक अध्ययन से लगता है कि इसकी व्याख्या की जा सकती है। पता चला है कि मृत्यु के दौरान दिल की धड़कन बंद होने के बाद भी दिमाग में हलचल जारी रहती है।

चिकित्सकीय रूप से मृत्यु उस स्थिति को कहा जाता है जब हृदय हमेशा के लिए धड़कना बंद कर देता है। लेकिन हालिया अध्ययनों से पता चला है कि हृदय गति रुकने के बाद भी कुछ सेकंड से लेकर घंटों तक मस्तिष्क में हलचल जारी रह सकती है। वर्ष 2013 में चूहों पर हुए एक अध्ययन में चूहों के मस्तिष्क में मरने के 30 सेकंड बाद तक चेतना के लक्षण देखे गए थे।

अब एक नए अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की न्यूरोलॉजिस्ट जिमो बोर्जिगिन की टीम ने कोमा या लाइफ सपोर्ट वाले चार ऐसे रोगियों के सिर पर ईईजी टोपियां लगाईं जिनके जीने की संभावनाएं काफी कम थीं।  

ये टोपियां मस्तिष्क की सतह के विद्युत संकेतों की निगरानी के लिए लगाई गई थीं। चिकित्सकों द्वारा वेंटीलेटर हटाए जाने पर दो रोगियों के दिल की धड़कन बंद होने के बाद दिमाग में गामा तरंग नामक उच्च-आवृत्ति वाले तंत्रिका पैटर्न देखे गए। एक स्वस्थ व्यक्ति में ऐसे पैटर्न तब बनते हैं जब वह कुछ सीख रहा हो, या कोई स्मृति या सपना याद कर रहा हो। कई तंत्रिका वैज्ञानिक इसे चेतना से जोड़ते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार गामा तरंगें इस बात का संकेत देती हैं कि मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्र एक साथ काम कर रहे थे, जैसे – हम किसी वस्तु को समझने के लिए दृष्टि, गंध और ध्वनि को एक साथ महसूस करते हैं। हालांकि यह अभी भी एक रहस्य है कि मस्तिष्क यह सब कैसे करता है लेकिन मरने वाले लोगों में गामा तरंगें देखकर ऐसा लगता है कि वे अपने अंतिम क्षणों में यादगार घटनाएं याद कर रहे थे।

टीम ने मस्तिष्क के उस क्षेत्र की विद्युत गतिविधियों में वृद्धि देखी, जिसकी चेतना में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है और यह क्षेत्र सपनों, दिमागी दौरे और मतिभ्रम के दौरान सक्रिय होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार मस्तिष्क की गतिविधि में अचानक वृद्धि होना उसके जीवित रहने की कोशिश का हिस्सा है – ऑक्सीजन से वंचित होने पर मस्तिष्क इस मोड में चला जाता है। मस्तिष्क-मृत्यु से गुज़रते जीवों के अध्ययन में पाया गया है कि उनका मस्तिष्क कई संकेतक अणु छोड़ने लगता है और खुद को पुनर्जीवित करने की कोशिश करने के लिए असामान्य ब्रेनवेव पैटर्न बनाता है। ऐसा करते हुए वह चेतना के बाहरी संकेतों को बंद कर देता है।

बोर्जिगिन मरणासन्न मरीज़ों में मस्तिष्क गतिविधि का अध्ययन करने के लिए अन्य चिकित्सा केंद्रों के साथ सहयोग की उम्मीद करती हैं ताकि निष्कर्षों की पुष्टि हो सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भालुओं में शीतनिद्रा में भी रक्त के थक्के क्यों नहीं जमते

लंबे समय की निष्क्रियता पैर की शिराओं और फेफड़ों में रक्त के थक्के जमा सकती है। लेकिन यह परेशानी महीनों लंबी शीतनिद्रा में सोए भालुओं में पेश नहीं आती। साइंस पत्रिका में बताया गया है कि इसका कारण है कि शीतनिद्रा में सोए भालू एक प्रोटीन (HSP47) कम बनाते हैं जो रक्त का थक्का जमाने में भूमिका निभाता है।

रक्त के थक्के मनुष्यों के लिए काफी घातक हो सकते हैं। अमूमन ये थक्के पैर की शिराओं में बनते हैं। स्थिति तब घातक हो जाती है जब ये रक्त प्रवाह के साथ फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं और वहां रक्त संचार को अवरुद्ध कर देते हैं। इसका वर्तमान उपचार है रक्त को पतला करना, लेकिन वह ज़्यादा प्रभावी नहीं है और इसके कारण अनियंत्रित रक्तस्राव हो सकता है।

यह समझने के लिए कि शीतनिद्रा के दौरान भालुओं में रक्त के थक्के क्यों नहीं बनते, लुडविग मैक्सिमिलियन विश्वविद्यालय के एक दल ने शीतनिद्रामग्न भूरे भालुओं पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने जाड़ों में शीतनिद्रामग्नेे (13) भूरे भालुओं को खोजा और उनके रक्त के नमूने लिए। इसके बाद उन्होंने गर्मी के मौसम में भी इन्हीं भालुओं के रक्त के नमूने लिए। शोधकर्ताओं ने पाया कि गर्मियों में भालुओं के रक्त में HSP47 नामक प्रोटीन प्रचुर मात्रा में था, जबकि जाड़ों में यह लगभग नदारद था।

चूहों पर हुए पूर्व अध्ययनों में यह देखा गया था कि अन्य कार्यों के अलावा HSP47 प्रोटीन की भूमिका रक्त के थक्के बनाने में भी है। HSP47 प्रोटीन रक्त प्लेटलेट्स की सतह पर बैठ जाता है और संक्रमण से लड़ने वाली सफेद रक्त कोशिकाओं (न्यूट्रोफिल) को आकर्षित करता है और प्लेटलेट्स से जोड़ता जाता है। इससे बने ‘जाल’ में प्रोटीन, रोगजनक और कोशिकाएं वगैरह फंस जाते हैं। नतीजतन, रक्त का थक्का बनता है। देखा गया है कि जिन चूहों में इस प्रोटीन की कमी थी उनकी प्लेटलेट्स ने न्यूट्रोफिल को कम आकर्षित किया और रक्त का थक्का बनने की संभावना कम रही। अब चूंकि शीतनिद्रा में भालुओं में HSP47 कम बनता है, इसलिए उक्त प्रक्रिया द्वारा थक्का निर्माण की संभावना भी कम होती है।

शोधकर्ताओं ने उन लोगों में HSP47 का स्तर देखा जो रीढ़ की हड्डी में चोट की वजह से चल-फिर नहीं पा रहे थे लेकिन उनमें रक्त के थक्के नहीं बन रहे थे। पाया गया कि इन लोगों में HSP47 का स्तर अपेक्षाकृत कम था। इससे लग रहा था कि चलना-फिरना बंद हो जाने पर शरीर HSP47 प्रोटीन कम बनाने लगता है। जांच के लिए शोधकर्ताओं ने 10 स्वस्थ व्यक्तियों को 27 दिन तक बेडरेस्ट कराया। जैसी कि उम्मीद थी धीरे-धीरे उनमें HSP47 का स्तर कम होने लगा था।

लगता है कि जिन लोगों ने अचानक बिस्तर पकड़ लिया है उनमें स्वाभाविक रूप से HSP47 का स्तर घटना शुरू होने से पहले HSP47 का स्तर घटा कर थक्का बनने के जोखिम को कम किया जा सकता है। लेकिन अभी और अध्ययन की ज़रूरत है।

बहरहाल, भालुओं और मनुष्यों दोनों में HSP47 की एक जैसी भूमिका से लगता है कि स्तनधारियों में थक्का बनने का तंत्र काफी पुराना है। (स्रोत फीचर्स)

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हम सूंघते कैसे हैं

गंध एक महत्वपूर्ण संवेदना है। मनुष्यों में यह शायद उतनी महत्वपूर्ण न हो, लेकिन कई अन्य जंतुओं में यह सबसे महत्वपूर्ण संवेदना होती है। जहां अन्य संवेदनाओं को लेकर हमारी समझ काफी विस्तृत है, वहीं गंध को लेकर कई अस्पष्टताएं हैं। अब हम इस दिशा में एक कदम और आगे बढ़े हैं।

गंध संवेदना दरअसल एक रसायन-आधारित संवेदना है। कुछ रसायन हमारी गंध संवेदी तंत्रिकाओं के ग्राहियों को उत्तेजित करते हैं और मस्तिष्क इसे गंध के रूप में पहचानता है। अब पहली बार एक मानव गंध-ग्राही की सटीक त्रि-आयामी संरचना का खुलासा किया गया है। नेचर में प्रकाशित इस अध्ययन में OR51E2 नामक एक गंध-ग्राही की संरचना का विवरण देते हुए बताया गया है कि यह आणविक क्रियाओं के माध्यम से कैसे चीज़ (cheese) की गंध को ताड़ता है।

गौरतलब है कि मानव जीनोम में 400 जीन्स होते हैं जो गंध-ग्राहियों के कोड हैं और ये ग्राही कई गंधों को पहचान सकते हैं। स्तनधारियों में गंध ग्राही के जीन्स सबसे पहले चूहों में 1990 के दशक में पहचाने गए थे। इससे पहले 1920 के दशक में यह अनुमान लगाया गया था कि मनुष्य की नाक तकरीबन 1000 गंधों को ताड़ सकती है। लेकिन 2014 में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि हम 1 खरब से ज़्यादा गंधों को अलग-अलग पहचान सकते हैं।

हर गंध-ग्राही गंधदार अणुओं (ओडोरेंट) के सिर्फ एक समूह से अंतर्क्रिया कर सकता है जबकि एक ही ओडोरेंट कई ग्राहियों को सक्रिय कर सकता है। होता यह है कि इन ग्राहियों की एक मिश्रित सक्रियता विशिष्ट गंध का एहसास कराती है।

लेकिन इन गंध-ग्राहियों की क्रिया को समझना एक चुनौती रही है। एक दिक्कत यह रही है कि ये ग्राही सिर्फ गंध तंत्रिकाओं में ही ठीक-ठाक काम करते हैं, बाकी किसी भी कोशिका में ये ठप हो जाते हैं। इसका मतलब यह होता है कि इन्हें किसी भी अन्य प्रकार की कोशिका में जोड़कर अध्ययन नहीं किया जा सकता।

इस समस्या से निपटने के लिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सैन फ्रांसिस्को) के आशीष मांगलिक और उनके साथियों ने OR51E2 नामक ग्राही पर ध्यान केंद्रित किया। इस ग्राही की विशेषता है कि यह ओडोरेंट की पहचान के अलावा कुछ अन्य कार्य भी करता है और यह गुर्दों तथा प्रोस्टेट की कोशिकाओं में भी पाया जाता है।

यह ग्राही (OR51E2) दो ओडोरेंट अणुओं के साथ अंतर्क्रिया करता है – एसिटेट (जिसकी गंध सिरके जैसी होती है) और प्रोपिओनेट (जिसकी गंध चीज़नुमा होती है)। शोधकर्ताओं ने इस ग्राही को शुद्ध रूप में प्राप्त किया और फिर प्रोपिओनेट से सम्बद्ध तथा असम्बद्ध OR51E2 की संरचना का विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी और एटॉमिक रिज़ॉल्यूशन इमेजिंग तकनीकों का इस्तेमाल किया। इसके अलावा उन्होंने कंप्यूटर सिमुलेशन की भी मदद ली ताकि पता चल सके कि यह ग्राही प्रोटीन ओडोरेंट अणुओं के साथ कैसे अंतर्क्रिया करता है।

विश्लेषण से पता चला कि यह प्रोटीन (OR51E2) आयनिक व हाइड्रोजन बंधनों के ज़रिए प्रोपिओनेट अणु के कार्बोक्सिलिक समूह को एक अमीनो अम्ल (आर्जीनीन) से जोड़ लेता है। जैसे ही प्रोपिओनेट जुड़ता है, OR51E2 की आकृति बदल जाती है और यही ग्राही को चालू कर देता है। शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि इस ग्राही के जीन में आर्जीनीन को प्रभावित करने वाले उत्परिवर्तन उसे प्रोपिओनेट द्वारा सक्रिय नहीं होने देते।

वैज्ञानिकों की इच्छा रही है कि वे गंध ग्राहियों की रासायनिक संरचनाओं का एक कैटालॉग तैयार कर सकें और उसके आधार पर यह बता सकें कि इनमें से कौन-से ग्राही मिलकर किस गंध विशेष का एहसास कराते हैं। मांगलिक की टीम द्वारा यह खुलासा मात्र पहला कदम है। (स्रोत फीचर्स)

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