बैक्टीरिया, जेनेटिक्स और मूल विज्ञान की समझ – अश्विन साई नारायण शेषशायी

दार्शनिक बातों से हटकर जीवन के दो सत्य हैं। सबसे पहला तो यह कि हम सूक्ष्मजीवों की दुनिया में रहते हैं। सूक्ष्मजीवों से हमारा मतलब उन जीवों से है जो आम तौर पर आंखों से दिखाई नहीं देते हैं। इनमें एक-कोशिकीय बैक्टीरिया आते हैं, जो खमीर जैसे अन्य एक कोशिकीय जीवों से भिन्न हैं और उन कोशिकाओं से भी भिन्न हैं जो खरबों की संख्या में मिलकर मनुष्य व अन्य जीवों का निर्माण करती हैं। सरल माने जाने वाले बैक्टीरिया, अब तक इस ग्रह पर ज्ञात मुक्त जीवन के सबसे प्रमुख रूप हैं। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर इनकी संख्या एक के बाद तीस शून्य लगाने पर मिलेगी; मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि इतनी बड़ी संख्या को क्या कहा जाना चाहिए।

मानव कल्पना में, कई बैक्टीरिया शरारती होते हैं और सबसे बदतरीन मामलों में इनसे बचकर रहना चाहिए। बैक्टीरिया कई संक्रामक रोग उत्पन्न करते हैं जो काफी लोगों को बीमार करते हैं और मृत्यु का भी कारण बनते हैं। दूसरी ओर, यह भी सच है कि इन जीवाणुओं के बिना हमारा अस्तित्व वैसा नहीं होता जैसा आज है। यह तो अब एक जानी-मानी बात है कि मानव शरीर में अपनी कोशिकाओं की तुलना में बैक्टीरिया की संख्या दस-गुना अधिक हैं, और जिन प्रायोगिक जीवों में ये बैक्टीरिया नहीं होते उन्हें सामान्य जीवन जीने में गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

उदाहरण के लिए, कोई एंटीबायोटिक्स लेने के बाद हम जिस अतिसार (दस्त) का शिकार हो जाते हैं वह आंत में बसने वाले इन उपयोगी बैक्टीरिया के खत्म हो जाने की वजह से होता है। इसीलिए एंटीबायोटिक की खुराक के साथ इन दोस्ताना बैक्टीरिया को बहाल करने के लिए प्रोबायोटिक औषधि दी जाती है जिसमें अनुकूल बैक्टीरिया होते हैं।

यह सच है कि अगर मैं बेतरतीब ढंग से 10 बैक्टीरिया ले लूं, तो संभवत: इनमें से कोई भी बैक्टीरिया, स्वस्थ मानव को बीमार करने का कारक नहीं होगा। जीवन के संकीर्ण मानव-केंद्रित दृष्टिकोण से हटकर देखें, तो बैक्टीरिया इस ग्रह पर कई जैव-रासायनिक अभिक्रियाओं को भी उत्प्रेरित करते हैं जिनकी विश्व निर्माण में प्रमुख भूमिका है। यहां हम जीवाणुओं के जीवन के तरीकों पर चर्चा करेंगे और देखेंगे कि वे हमारे परितंत्र की आधारशिला हैं, और उनके साथ अपने शत्रुवत व्यवहार के परिणामस्वरूप हमें कई संकटों का सामना भी करना पड़ता है।

जीवन का दूसरा सच जिसमें हमें काफी दिलचस्पी है उसका सम्बंध आनुवंशिकी से है। जैव विकास के सिद्धांत के अनुसार जीवन का सार फिटनेस है। फिटनेस एक तकनीकी शब्द है। इस फिटनेस को जिम में बिताए गए समय से नहीं बल्कि एक व्यक्ति की जीवनक्षम संतान पैदा करने की क्षमता से निर्धारित किया जाता है। समस्त जीव यह करते हैं लेकिन संतान पैदा करने की यह दर अलग-अलग प्रजातियों में अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए, ई. कोली नामक बैक्टीरिया की 100 कोशिकाएं सिर्फ 20 मिनट के समय में दुगनी हो सकती हैं। इस समय को एक पीढ़ी की अवधि कहा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर, मनुष्य का एक जोड़ा अपने पूरे जीवन काल, जो एक सदी के बड़े भाग के बराबर है, में एक या दो संतान पैदा कर सकता है। इतनी भिन्नता के बाद भी हम सभी एक साथ रहते हैं। इस तरह के विविध प्रकार के जीवों के सह अस्तित्व को समझना अपने आप में शोध का एक रोमांचक और चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है (लेकिन यहां इसे हम विस्तार में नहीं देखेंगे)। यह बात ध्यान देने वाली है कि एक-कोशिकीय जीवाणु और एक मनुष्य के बीच प्रजनन दर की यह तुलना पूरी तरह से उचित नहीं है, लेकिन ऐसा क्यों नहीं है इसकी बात किसी और दिन करेंगे। अभी के लिए यह कहना पर्याप्त है कि प्रजनन जीवन की निरंतरता के लिए महत्वपूर्ण है, अब चाहे वो प्रजाति हर 20 मिनट में द्विगुणित हो या फिर 20 साल में।

यह तो हम सभी जानते हैं कि हमारी आनुवंशिक सामग्री यानी हमारा जीनोम, हमारे अस्तित्व को निर्धारित करने का महत्वपूर्ण कारक है। न केवल यह हमारी कई विशेषताओं को निर्धारित करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि इसकी प्रतिलिपि पूरी ईमानदारी से बने और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रेषित हो। हालांकि जीवन की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है किंतु आनुवंशिक सामग्री की सही प्रतिलिपि बनाने में निष्ठा बहुत ज़्यादा भी नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो हम सब, बैक्टीरिया से लेकर मनुष्य तक, एक समान होते। यह तो हम जानते हैं कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक उत्परिवर्तन का एक निश्चित स्तर जीवन के लिए आवश्यक है। और अगर हमको विकसित होना है – और हम विकसित हो ही रहे हैं – तो कुछ उत्परिवर्तनों को स्वीकार करना ही होगा। बैक्टीरिया इस कला में माहिर हैं। वे सटीकता और लचीलेपन बीच संतुलन बनाकर रखते हैं जिससे वह विविधता बनी रहती है जिसने उन्हें लंबे समय तक धरती पर जीवित रखा है। पर्याप्त विविधता उत्पन्न करके वे धरती के हर कोने में जीवित रहने से लेकर एंटीबायोटिक्स को पराजित करने का रास्ता भी खोज पाए हैं।

जीवाणुओं के अध्ययन ने जीवन की निरंतरता को समझने के तरीके समझने में मदद की है; बैक्टीरिया की आनुवंशिकी को समझना चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है: कैसे थोड़े-से बैक्टीरिया बीमारी के कारक बन जाते हैं और किस तरह वे हमारे द्वारा बनाए गए बचाव के तरीकों (एंटीबायोटिक समेत) से बच निकलते हैं।

जीवाणु जीव विज्ञान के बारे में हमारी वर्तमान समझ का अधिकांश विकास तत्काल उपयोगी अनुसंधान के कारण नहीं, बल्कि दशकों से चली आ रही मूल सवालों के जवाब खोजने की कोशिशों  से संभव हुआ है। इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए दुनिया भर के कई शोधकर्ताओं ने प्रयास किए हैं, इन प्रयासों के आधार पर एक के बाद एक शोध पत्र या थीसिस ने हमारे ज्ञान को बढ़ाया है। ‘नवाचार’ जैसा प्रचलित शब्द अचानक से प्रकट नहीं होता है, यह काफी हद तक मूलभूत विज्ञान द्वारा निर्धारित मजबूत नींव पर आधारित होता है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां समाज के लिए प्रासंगिक अध्ययनों ने ऐसे अमूर्त प्रश्नों को प्रभावित किया है जो जिज्ञासा से प्रेरित थे, जिज्ञासा जो एक अनिवार्य मानवीय गुण है। जहां लक्ष्य आधारित प्रायोगिक अनुसंधान का महत्व है, वहीं विज्ञान के मूलभूत पहलुओं की समझ के बिना इनका कोई अस्तित्व नहीं।

ये ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिनसे रोज़मर्रा के जीवन में हमारा सामना होता है। लेकिन मूलभूत विज्ञान के लिए धन उपलब्ध कराने को लेकर सार्वजनिक और राजनीतिक अविश्वास के सामने, समाज में मूल विज्ञान की भूमिका के बारे में सोचने के लिए यह सबसे उचित समय है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल की आवश्यकता – मनीष मनीष और स्मृति मिश्रा

ज विज्ञान इस स्तर तक पहुंच चुका है कि मलेरिया और टाइफाइड जैसी संक्रामक बीमारियों का इलाज मानक दवाइयों के नियमानुसार सेवन से किया जा सकता है। हालांकि भारत में अतिसंवेदनशील आबादी तक अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में अभी भी मलेरिया के कारण मौतें हो रही हैं। एक अप्रभावी उपचार क्रम एंटीबायोटिक-रोधी किस्मों को जन्म दे सकता है। यह आगे चलकर देश की जटिल स्वास्थ्य सम्बंधी चुनौतियों को और बढ़ा देगा।

भारत में रोग निरीक्षण सहित वर्तमान स्वास्थ्य सेवा प्रणाली अभी भी मध्य युग में हैं। भारत ने आर्थिक रूप से और अंतरिक्ष अन्वेषण जैसे कुछ अनुसंधान क्षेत्रों में बेहद उन्नत की है। किंतु विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मलेरिया रिपोर्ट 2017 के अनुसार, भारतीय मलेरिया रोग निरीक्षण प्रणाली केवल 8 प्रतिशत मामलों का पता लगा पाती है, जबकि नाइजीरिया की प्रणाली 16 प्रतिशत मामलों का पता लगा लेती है। इसलिए भारत सरकार बीमारी के वास्तविक बोझ का अनुमान लगाने और उसके आधार पर संसाधन आवंटन करने में असमर्थ है। जबकि किसी भी अन्य राष्ट्र की तरह, भारत को भी सतत विकास के लिए एक स्वस्थ आबादी की आवश्यकता है।

भारत टीकों का सबसे बड़ा निर्माता है। भारत सरकार का राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम, हाल ही में शुरू किए गए इंद्रधनुष कार्यक्रम सहित, एक मज़बूत प्रणाली है जिसने स्वच्छता एवं स्वास्थ्य सेवा के कमतर स्तर, उच्च तापमान, बड़ी विविधतापूर्ण आबादी और भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद सफलतापूर्वक पोलियो उन्मूलन का लक्ष्य हासिल किया है। इसके अलावा, भारत सरकार द्वारा टीकाकरण क्षेत्र को मज़बूत करने के लिए विभिन्न शोध कार्यक्रम शुरू किए जा रहे हैं, जैसे इम्यूनाइज़ेशन डैटा: इनोवेटिंग फॉर एक्शन (आईडीआईए)।

भारत में मूलभूत अनुसंधान उस स्थिति में पहुंच चुका है, जहां वह विकास की चुनौती के बावजूद सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार समाधान विकसित कर सकता है। अकादमिक शोध में कम से कम तीन संभावित मलेरिया वैक्सीन तैयार हुए हैं, जबकि एक भारतीय कंपनी (भारत बायोटेक) द्वारा हाल ही में डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन विकसित किया गया है। अलबत्ता, आश्चर्य की बात तो यह है कि इस डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का डैटा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल (CHIM) का उपयोग करके हासिल किया गया है। इसका कारण यह हो सकता है कि भारत में नैदानिक परीक्षण व्यवस्था कमज़ोर और जटिल है।

भारत की पारंपरिक नैदानिक परीक्षण व्यवस्था बहुत जटिल है। 2005 के बाद से चिकित्सा शोध पत्रिका संपादकों की अंतर्राष्ट्रीय समिति मांग करती है कि किसी भी क्लीनिकल परीक्षण का पूर्व-पंजीकरण (यानी प्रथम व्यक्ति को परीक्षण में शामिल करने से पहले पंजीकरण) किया जाए ताकि प्रकाशन में पक्षपात को रोका जा सके। हालांकि भारत की क्लीनिकल परीक्षण रजिस्ट्री अभी भी परीक्षण के बाद किए गए पंजीकरण को स्वीकार करती है। ह्रूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) वैक्सीन के क्लीनिकल परीक्षण पर काफी हल्ला-गुल्ला हुआ था जिसके चलते संसदीय स्थायी समिति और एक विशेषज्ञ समिति द्वारा जांच हुई, मीडिया में काफी चर्चा हुई और सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि सार्वजनिक विश्वास में गिरावट आई। भारत में एचपीवी परीक्षणों की जांच करने वाली विशेषज्ञ समिति ने पाया कि गंभीर घटनाओं का पता लगाने में हमारी क्लीनिकल अनुसंधान प्रणाली विफल है।

टीकों के उपयोग से रोग का प्रकोप कम हो जाता है जिसके चलते दवा का उपयोग कम करना पड़ता है। इस प्रकार टीकाकरण एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या को भी कम कर सकता है। भारत में बेहतर टीकाकरण कार्यक्रम, वैक्सीन उत्पादन सुविधाओं और बुनियादी वैक्सीन अनुसंधान को देखते हुए, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत में वैक्सीन विकास को किस तरह तेज़ किया जा सकता है? जब हमारे पास टीके की रोकथाम-क्षमता पर पर्याप्त डैटा न हो तो क्या हम एक बड़ी आबादी को एक संभावित टीका देने का खतरा मोल ले सकते हैं? या क्या यह बेहतर होगा कि पहले अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति में टीके की रोकथाम-क्षमता का मूल्यांकन किया जाए और फिर बड़ी जनसंख्या पर परीक्षण शुरू किए जाएं?

सीएचआईएम (मलेरिया के लिए, नियंत्रित मानव मलेरिया संक्रमण, सीएचएमआई) एक संभावित वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का ठीक-ठाक मूल्यांकन करने के लिए एक मंच प्रदान करता है, जिसमें बड़े परीक्षण की ज़रूरत नहीं है। सीएचएमआई में ‘नियंत्रित’ शब्द अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति का द्योतक है। जैसे भलीभांति परिभाषित परजीवी स्ट्रेन, संक्रमण उन्मूलन के लिए प्रभावी दवा और कड़ी निगरानी के लिए अत्यधिक कुशल निदान प्रणाली। ‘संक्रमण’ शब्द से आशय है कि परीक्षण के दौरान संक्रमण शुरू किया जाएगा, बीमारी नहीं। शब्द ‘मानव’ का मतलब है कि प्रयोग इंसानों पर होंगे जैसा कि किसी भी क्लीनिकल टीका अनुसंधान में रोकथाम-क्षमता के आकलन में किया जाता है।

अमेरिका, ब्रिाटेन, जर्मनी, तंजानिया और केन्या जैसे कई देशों में सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में पिछले 25 वर्षों से सीएचएमआई परीक्षण में 1000 से अधिक वालंटियर्स ने भाग लिया है और कोई प्रतिकूल घटना सामने नहीं आई है। पहले संक्रामक बीमारी के लिए हम ज़्यादातर दवाइयां/टीके बाहर से मंगाते थे, लेकिन स्थिति तेज़ी से बदल रही है। उदाहरण के लिए भारत में रोटावायरस टीके का विकास हुआ है। 

यह सही है कि स्वदेशी समाधान विकसित करने की बजाय आयात करना हमेशा आसान होता है लेकिन यदि पोलियो टीका भारत में विकसित किया गया होता, तो हम एक पीढ़ी पहले पोलियो से मुक्त हो सकते थे। भारत में सीएचआईएम अध्ययन विकसित करने के लिए कड़ी मेहनत की आवश्यकता होगी। वर्तमान स्थिति में, यह मलेरिया और टाइफाइड जैसी बीमारियों के लिए किया जा सकता है लेकिन शायद ज़ीका, डेंगू और टीबी के लिए नहीं। अलबत्ता, यदि उच्चतम मानकों को पालन नहीं किया जा सकता है तो बेहतर होगा कि सीएचआईएम अध्ययन न किए जाएं।

सीएचआईएम में सबसे बड़ी बाधा लोगों की धारणा की है। इस धारणा को केवल तभी संबोधित किया जा सकता है जब हम सीएचआईएम अध्ययन के लिए वैज्ञानिक, नैतिक और नियामक ढांचा विकसित कर सकें जिसमें बुनियादी अनुसंधान, क्लीनिकल अनुसंधान, नैतिकता, विनियमन, कानून और सामाजिक विज्ञान में सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञता का समावेश हो। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह ढांचा सीएचआईएम के लिए उच्चतम मानकों को परिभाषित करे। मीडिया को उनकी मूल्यवान आलोचना और कार्यवाही के व्यापक पारदर्शी प्रसार की अनुमति दी जानी चाहिए।

इसकी शुरुआत किसी सरकारी संगठन द्वारा की जानी चाहिए ताकि जनता में यह संदेह पनपने से रोका जा सके कि यह दवा कंपनियों द्वारा वाणिज्यिक लाभ के लिए किया जा रहा है। एक या दो उत्कृष्ट अकादमिक संस्थानों को चुना जाना चाहिए और सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की जानी चाहिए। चूंकि संक्रामक बीमारियां निरंतर परिवर्तनशील हैं, भारत में सीएचआईएम अध्ययन पर चर्चा के लिए गहन प्रयासों की तत्काल आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्कूल स्वच्छता अभियान से शिक्षा व स्वास्थ्य में सुधार – भारत डोगरा

स्कूलों में स्वच्छता अभियान अपने आप में तो बहुत ज़रूरी है ही, साथ ही इससे शिक्षा व स्वास्थ्य में व्यापक स्तर पर सुधार की बहुत संभावनाएं हैं। अनेक किशोरियों के स्कूल छोड़ने व अध्यापिकाओं के ग्रामीण स्कूलों में न जाने का एक कारण शौचालयों का अभाव रहा है। अब शौचालय का निर्माण तो तेज़ी से हो रहा है, पर निर्माण में गुणवत्ता सुनिश्चित करना ज़रूरी है। चारदीवारी न होने से शौचालय के रख-रखाव में कठिनाई होती है। छात्राओं व अध्यापिकाओं के लिए अलग शौचालयों का निर्माण कई जगह नहीं हुआ है।

एक बहुत बड़ी कमी यह है कि हमारे मिडिल स्तर तक के अधिकांश स्कूलों में, विशेषकर दूर-दूर के गांवों में एक भी सफाईकर्मी की व्यवस्था नहीं है। इस वजह से सफाई का बहुत-सा भार छोटी उम्र के बच्चों पर आ जाता है। सफाई रखने की आदत डालना, स्वच्छता अभियान में कुछ हद तक भागीदारी करना तो बच्चों के लिए अच्छा है, पर सफाई का अधिकांश बोझ उन पर डालना उचित नहीं है। अत: शीघ्र से शीघ्र यह निर्देश निकलने चाहिए कि प्रत्येक स्कूल में कम से कम एक सफाईकर्मी अवश्य हो। जो स्कूल छोटे से हैं, वहां सफाईकर्मी को सुबह के 2 या 3 घंटे के लिए नियुक्त करने से भी काम चलेगा।

मध्यान्ह भोजन पकाने की रसोई को साफ व सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है। रसोई में स्वच्छता के उच्च मानदंड तय होने चाहिए व इसके लिए ज़रूरी व्यवस्थाएं होनी चाहिए। मध्यान्ह भोजन पकाने वाली महिलाओं का वेतन बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। इस समय तो उनका वेतन बहुत कम है जबकि ज़िम्मेदारी बहुत अधिक है।

मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम की वजह से स्कूल में स्वच्छ पानी की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। इस ओर समुचित ध्यान देना चाहिए। ठीक से हाथ धोने की आदत वैसे तो सदा ज़रूरी रही है, पर अब और ज़रूरी हो गई है। ऐसी व्यवस्था स्कूल में होनी चाहिए कि बच्चे आसानी से खाना खाने से पहले व बाद में तथा शौचालय उपयोग करने के बाद भलीभांति हाथ धो सकें।

इनमें से कई कमियों को दूर कर स्कूल में स्वच्छता का एक मॉडल मैयार करने का प्रयास आगा खां विकास नेटवर्क से जुड़े संस्थानों ने बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात के सैकड़ों स्कूलों में किया है। बिहार में ऐसे कुछ स्कूल देखने पर पता चला कि छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग अच्छी गुणवत्ता के शौचालय बनवाए गए हैं। उनमें भीतर पानी की व्यवस्था है व बाहर वाटर स्टेशन है। पानी के नलों व बेसिन की एक लाइन है जिससे विद्यार्थी बहुत सुविधा से हाथ धो सकते हैं। स्कूलों में साबुन उपलब्ध रहे इसके लिए सोप बैंक बनाया गया है। बच्चे अपने जन्मदिन पर इस सोप बैंक को एक साबुन का उपहार देते हैं।

किशोरियों को मीना मंच के माध्यम से माहवारी सम्बंधी स्वच्छता की जानकारी दी जाती है। स्कूल में एक ‘स्वच्छता कोना’ बनाकर वहां स्वच्छता सम्बंधी जानकारी या उपकरण रखवाए जाते हैं। बाल संसद व मीना मंच में स्वच्छता की चर्चा बराबर होती है। छात्र समय-समय पर गांव में स्वच्छता रैली निकालते हैं। स्वच्छता की रोचक शिक्षा के लिए विशेष पुस्तक व खेल तैयार किए गए हैं। सप्ताह में एक विशेष क्लास इस विषय पर होती है। स्वच्छता के खेल को सांप-सीढ़ी खेल के मॉडल पर तैयार कर रोचक बनाया गया है।

इन प्रयासों में छात्रों व अध्यापकों दोनों की बहुत अच्छी भागीदारी रही है, जिससे भविष्य के लिए उम्मीद मिलती है कि ऐसे प्रयास अधिक व्यापक स्तर पर भी सफल हो सकते हैं। अभिभावकों ने बताया कि जब स्कूल में बच्चे स्वच्छता के प्रति अधिक जागरूक होते हैं तो इसका असर घर-परिवार व पड़ौस तक भी ले आते हैं। जिन स्कूलों में सफल स्वच्छता अभियान चले हैं व स्वच्छता में सुधार हुआ है, वहां शिक्षा के बेहतर परिणाम प्राप्त करने में भी मदद मिली है तथा बच्चों में बीमार पड़ने की प्रवृत्ति कम हुई है।

अलबत्ता, एक बड़ी कमी यह रह गई है कि बहुत से स्कूलों के लिए बजट में सफाईकर्मी का प्रावधान ही नहीं है और किसी स्कूल में एक भी सफाईकर्मी न हो तो उस स्कूल की सफाई व्यवस्था पिछड़ जाती है। इस कमी को सरकार को शीघ्र दूर करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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जुड़वां बच्चों के संसार में एक विचित्रता – सुशील जोशी

म तौर पर माना जाता है कि जुड़वां बच्चे हूबहू एक समान होते हैं। जुड़वां बच्चों की थीम पर बनी हिंदी फिल्मों ने इस धारणा को काफी बल दिया है। लेकिन तथ्य यह है कि दुनिया भर में जितने जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं उनमें से मात्र लगभग 10 प्रतिशत ही ऐसे ‘फिल्मी’ जुड़वां होते हैं। आम तौर पर जुड़वां बच्चे दो प्रकार के होते हैं – समान और असमान। इन दोनों के निर्माण के तरीके में अंतर है। तकनीकी भाषा में इन्हें एकयुग्मज (समान) और द्वियुग्मज (असमान) जुड़वां कहते हैं। हाल ही में एक रिपोर्ट आई है कि ऐसे जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ है जो न तो पूरी तरह समान हैं न पूरी तरह असमान; ये आंशिक रूप से समान हैं। इस बात को समझने के लिए पहले जुड़वां बच्चों की बात को समझना आवश्यक है।

द्वियुग्मज जुड़वां बच्चे दो अलग-अलग अंडाणुओं के दो अलग-अलग शुक्राणुओं के साथ मेल के द्वारा विकसित होते हैं। स्त्री शरीर में सामान्य व्यवस्था यह है कि प्रति माह दो में से किसी एक अंडाशय में से अंडाणु मुक्त होता है। इस अंडाणु के किसी शुक्राणु से मिलन (निषेचन) के फलस्वरूप युग्मज यानी ज़ायगोट बनता है। यही ज़ायगोट विकसित होकर भ्रूण तथा शिशु का रूप लेता है। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि एक ही समय पर दोनों अंडाशयों में से एक-एक अंडाणु मुक्त हो जाता है। यदि इन दोनों का निषेचन हो जाए तो दो ज़ायगोट बन जाते हैं। दोनों ज़ायगोट बच्चादानी में जुड़ सकते हैं और आगे विकास जारी रख सकते हैं। चूंकि ये दोनों अलग-अलग अंडाणुओं और अलग-अलग शुक्राणुओं के निषेचन से बने हैं इसलिए इनमें उतनी ही समानता होती है जितनी किन्हीं भी दो भाई-बहनों के बीच होती है। अंतर सिर्फ यह होता है कि ये दोनों एक साथ एक ही समय पर गर्भाशय में पलते हैं। इनमें दोनों लड़के, दोनों लड़कियां या एक लड़का और एक लड़की भी हो सकते हैं।

दूसरी ओर, एकयुग्मज जुड़वां (यानी समान जुड़वां) एक ही अंडाणु के एक ही शुक्राणु द्वारा निषेचन से पैदा होते हैं। इनमें जो ज़ायगोट बनता है वह निषेचन के बाद दो भागों में बंट जाता है और दोनों से शिशुओं का विकास होता है। इनमें आनुवंशिक सामग्री एक ही होती है और इसलिए ये हूबहू एक जैसे होते हैं। एकयुग्मज जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़कियां।

जिन कोशिकाओं से शुक्राणु और अंडाणु बनते हैं उनमें प्रत्येक गुणसूत्र की दो-दो प्रतियां पाई जाती हैं। शुक्राणु/अंडाणु बनते समय इनमें से एक ही प्रति उनमें जाती है। इस प्रकार से शुक्राणु/अंडाणु में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति होती है। निषेचन के समय हरेक गुणसूत्र की एक प्रति शुक्राणु से और एक प्रति अंडाणु से आती है। इस प्रकार से बच्चे अपने माता या पिता से 50-50 प्रतिशत आनुवंशिक सामग्री प्राप्त करते हैं।

लेकिन यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि इनके अलावा एक तीसरे किस्म के जुड़वां बच्चे भी होते हैं जिन्हें अर्ध-समान जुड़वां या सेमी-आइडेंटिकल ट्विन्स कहते हैं। ये बहुत बिरले होते हैं और यह भी पता नहीं है कि दुनिया में ऐसे आंशिक-समान जुड़वां कितने हैं – रिकॉर्ड में तो मात्र 1 था। हाल ही में दी न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में ऐसे ही अर्ध-समान जुड़वां के जन्म की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इनका जन्म जनवरी 2014 में ऑस्ट्रेलिया में हुआ था। रिपोर्ट में बताया गया है कि इनमें मां से मिलने वाले तो सारे जीन्स एक जैसे हैं मगर पिता से आए तीन-चौथाई जीन्स ही एक-दूसरे से मेल खाते हैं।

उक्त शोधपत्र के प्रमुख लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड बायोमेडिकल इनोवेशन के माइकेल गैबेट ने बताया है कि ऐसे अर्ध-समान जुड़वां पहली बार 2007 में यूएस में जन्म के बाद पहचाने गए थे। इस बार जो जुड़वां पहचाने गए हैं उन्हें सबसे पहले गर्भ में ही सोनोग्राफी की मदद से पहचाना गया था। पहली सोनोग्राफी में पता चला था कि वे समान जुड़वां हैं। मगर कुछ समय बाद यह देखकर डॉक्टरों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि ये दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की थे। समान जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़की।

इसके बाद डॉक्टरों ने उनके गर्भजल की जांच की। दोनों बच्चे अलग-अलग गर्भजल थैलियों में बढ़ रहे थे। इस जांच में पता चला कि इन जुड़वां में मां के 100 प्रतिशत जीन्स एक समान थे किंतु पिता के मात्र 78 प्रतिशत जीन्स ही समान थे।

तो ये अर्ध-समान जुड़वां कैसे बने? गैबेट ने इसे समझाने के लिए एक परिकल्पना प्रस्तुत की है। उनके मुताबिक संभवत: हुआ यह है कि एक अंडाणु को दो शुक्राणुओं ने निषेचित किया। प्रत्येक शुक्राणु में गुणसूत्र का अपना-अपना सेट होता है। यानी अंडाणु के गुणसूत्र दो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों से मिल गए। एक बार निषेचन हो जाने के बाद अंडाणु अभेद्य हो जाता है – एक शुक्राणु के अंडाणु में प्रवेश के बाद दूसरे शुक्राणु अंदर नहीं पहुंच सकते। यानी संयोगवश ये दो शुक्राणु एक ही समय पर अंडाणु से टकराए होंगे और दोनों को प्रवेश मिल गया होगा। तो अंदर गुणसूत्रों के तीन सेट हो गए होंगे। ये तीन कोशिकाओं में बंटे होंगे – एक में अंडाणु और प्रथम शुक्राणु के गुणसूत्र, दूसरी में अंडाणु और दूसरे शुक्राणु के गुणसूत्र तथा तीसरी में दोनों शुक्राणुओं के गुणसूत्र। संतान के विकास के लिए माता-पिता दोनों के गुणसूत्र होना ज़रूरी है। लिहाज़ा तीसरी कोशिका की मृत्यु हो गई होगी। शेष दो कोशिकाएं आपस में मिल गई होंगी और फिर दो में विभाजित होकर दो शिशु विकसित हुए होंगे।

एक परिकल्पना यह भी प्रस्तुत की गई है कि पहले कोई अनिषेचित अंडाणु दो में बंट जाता है और ये दोनों भाग आपस में जुड़े रह जाते हैं। इन दोनों का ही निषेचन हो सकता है। इन दोनों अंडाणुओं का निषेचन अलग-अलग शुक्राणुओं से हो जाता है और निषेचन के बाद ये आपस में मिल जाते हैं। कुछ समय विकास के बाद यह मिला-जुला अंडा फिर से दो में विभाजित होकर दो शिशुओं को जन्म देता है। इस तरह से इन दोनों में मां के तो सारे गुणसूत्र एक जैसे होंगे मगर पिता के दो शुक्राणुओं से प्राप्त मिले-जुले गुणसूत्र होंगे।

इन जुड़वां में कुछ और भी विचित्रताएं हैं। जैसे दोनों में नर व मादा दोनों लिगों के गुणसूत्र हैं। मनुष्य में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। इनमें से 22 जोड़ियों में तो दोनों गुणसूत्र एक-दूसरे के पूरक होते हैं मगर 23वीं जोड़ी के गुणसूत्र भिन्न-भिन्न होते हैं। इन्हें एक्स और वाय गुणसूत्र कहते हैं। 23वीं जोड़ी के दोनों गुणसूत्र एक्स हों तो लड़की बनती है और यदि 23वीं जोड़ी में एक एक्स तथा दूसरा वाय गुणसूत्र हो तो लड़का बनता है। ऑस्ट्रेलियाई जुड़वां में दोनों की कुछ कोशिकाओं में एक्स-एक्स जोड़ी है जबकि कुछ कोशिकाओं में एक्स-वाय जोड़ी है। विभिन्न कोशिकाओं में इस तरह से नर व मादा गुणसूत्र जोड़ियों का पाया जाना कई समस्याओं को जन्म देता है। जब डॉक्टरों ने जुड़वां में से लड़की के अंडाशय की जांच की तो पाया कि उसमें कुछ ऐसे परिवर्तन हुए हैं जो कैंसर को जन्म दे सकते हैं। ऐहतियात के तौर पर उसके अंडाशय हटा दिए हैं। अच्छी खबर यह है कि ये दो जुड़वां बच्चे अब साढ़े चार साल के हो चुके हैं और सामान्य ढंग से विकसित हो रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बीमारियों को सूंघने के लिए इलेक्ट्रॉनिक नाक

ह तो जानी-मानी बात है कि कुत्तों की सूंघने की क्षमता ज़बरदस्त होती है। मगर जिस इलेक्ट्रॉनिक नाक की बात हो रही है वह कुत्तों को सूंघने का काम करती है। यह इलेक्ट्रॉनिक नाक खास तौर से लेश्मानिएसिस नामक रोग से ग्रस्त कुत्तों को पहचानने के लिए विकसित की गई है। इस रोग को भारत में कालाज़ार या दमदम बुखार के नाम से भी जाना जाता है।

लेश्नानिएसिस एक रोग है जो कुत्तों और इंसानों में एक परजीवी लेश्मानिया की वजह से फैलता है और इस परजीवी की वाहक एक मक्खी (सैंड फ्लाई) है। मनुष्यों में इस रोग के लक्षणों में वज़न घटना, अंगों की सूजन, बुखार वगैरह होते हैं। कुत्तों में दस्त, वज़न घटना तथा त्वचा की तकलीफें दिखाई देती हैं। सैंड फ्लाई इस रोग के परजीवियों को कुत्तों से इंसानों में फैलाने का काम करती है। यह रोग ब्राज़ील में ज़्यादा पाया जाता है और इसका प्रकोप लगातार बढ़ रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक नाक दरअसल वाष्पशील रसायनों का विश्लेषण करने का उपकरण है। इसमें नमूने के वाष्पशील रसायनों के द्वारा उत्पन्न वर्णक्रम के आधार पर उनकी पहचान की जाती है। फिलहाल स्वास्थ्य विभाग के पास लेश्मानिएसिस की जांच के लिए जो तरीका है उसमें काफी समय लगता है। इलेक्ट्रॉनिक नाक इसमें मददगार हो सकती है।

पिछले दिनों शोधकर्ताओं ने 16 लेश्मानिया पीड़ित कुत्तों और 185 अन्य कुत्तों के बालों के नमूनों पर प्रयोग किया। इन बालों को एक पानी भरी थैली में रखकर गर्म किया गया ताकि इनमें उपस्थित वाष्पशील रसायन वाष्प बन जाएं। इसके बाद प्रत्येक नमूने का विश्लेषण इलेक्ट्रॉनिक नाक द्वारा किया गया। ई-नाक ने लेश्मानिएसिस पीड़ित कुत्तों की पहचान 95 प्रतिशत सही की। अब इसे और सटीक बनाने के प्रयास चल रहे हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि जल्दी ही इलेक्ट्रॉनिक नाक रोग निदान का एक उम्दा उपकरण साबित होगा। उम्मीद तो यह है कि इसका उपयोग मलेरिया, मधुमेह जैसे अन्य रोगों की पहचान में भी किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आंतों के बैक्टीरिया बताएंगे आपकी सच्ची उम्र

ह तो जानी-मानी बात है कि हमारी आंतों में अरबों बैक्टीरिया निवास करते हैं। दरअसल, अनुमान तो यही है कि किसी मनुष्य के शरीर में उसकी अपनी कोशिकाओं की तुलना में इन बैक्टीरिया की संख्या ज़्यादा होती है। और ये बैक्टीरिया आपकी पाचन शक्ति से लेकर आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली तक को प्रभावित करते हैं। हमारे इन सूक्ष्मजीव साथियों को हमारा सूक्ष्मजीव संसार कहते हैं। लेकिन जो बात पता नहीं है, वह है कि यह सूक्ष्मजीव संसार उम्र के साथ कैसे बदलता जाता है या एक सामान्य सूक्ष्मजीव संसार किसे कहें। हाल ही में इनसिलिको मेडिसिन नामक कंपनी के शोधकर्ता एलेक्स ज़वोरोनकोव और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की है।

शोधकर्ताओं ने इसके लिए दुनिया भर के 1165 स्वस्थ व्यक्तियों के आंतों के बैक्टीरिया के नमूने लिए। इनमें से लगभग एक-तिहाई की उम्र 20 से 39 वर्ष, एक-तिहाई की 40 से 59 वर्ष और शेष की 60 से 90 वर्ष थी। इन नमूनों के आंकड़ों का विश्लेषण कंप्यूटर से मशीन लर्निंग तकनीक से किया गया। इसके लिए उन्होंने जिस एल्गोरिदम का उपयोग किया वह ठीक उस तरह काम करता है जैसे मस्तिष्क की तंत्रिकाएं काम करती हैं। उन्होंने 90 प्रतिशत नमूनों का विश्लेषण उनमें पाए गए बैक्टीरिया की 95 प्रजातियों के आधार पर किया था। इसके आधार पर कंप्यूटर ने यह सीख लिया कि उम्र के साथ इन बैक्टीरिया के अनुपात में किस तरह के परिवर्तन आते हैं।

इसके बाद ज़वोरोनकोव की टीम ने कंप्यूटर को बाकी 10 प्रतिशत लोगों के बारे में उनकी उम्र का अंदाज़ लगाने को कहा। देखा गया कि उनका एल्गोरिद्म व्यक्ति की उम्र का अंदाज़ 4 वर्ष की सीमा के अंदर सही लगा लेता है। यानी कंप्यूटर सूक्ष्मजीव संसार के आधार पर व्यक्ति की जो उम्र बताता है उसमें 2 वर्ष की कमी-बेशी हो सकती है। यह भी पता चला कि उम्र का अंदाज़ लगाने में बैक्टीरिया की 95 प्रजातियों में से 39 प्रजातियां सबसे महत्वपूर्ण हैं।

ज़वोरोनकोव की टीम को पता चला कि उम्र के साथ कुछ बैक्टीरिया का अनुपात बढ़ता है (जैसे यूबैक्टीरियम हैली, जो आंतों में चयापचय में महत्वपूर्ण माना जाता है)। दूसरी ओर कुछ बैक्टीरिया की संख्या घटती है (जैसे बैक्टीरॉइड्स वल्गेरिस, जो आंतों की एक किस्म की सूजन के लिए जवाबदेह माना जाता है)। यह भी लगता है कि भोजन, नींद की आदतें, शारीरिक व्यायाम वगैरह बैक्टीरिया की प्रजातियों की प्रचुरता में बदलाव लाते हैं।

यदि टीम के उपरोक्त निष्कर्ष की पुष्टि होती है, तो यह अन्य जैविक चिंहों के समान व्यक्ति की उम्र का एक और चिंह साबित होगा। इसके अलावा यह कई बीमारियों को समझने में भी मददगार होगा। (स्रोत फीचर्स)

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जीवन की बारहखड़ी में चार नए अक्षर

कुछ वर्ष पहले यह खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक पदार्थ डीएनए में 2 नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है। अब फ्लोरिडा स्थित फाउंडेशन फॉर एप्लाइड मॉलीक्यूलर इवॉल्यूशन के स्टीवन बेनर की टीम ने साइन्स में रिपोर्ट किया है कि उन्होंने आनुवंशिक अणु में चार नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है और यह नया डीएनए अणु कुदरती अणु के समान कई कार्य करने में सक्षम है और काफी स्थिर है।

दरअसल, किसी भी जीव की शारीरिक क्रियाएं प्रोटीन्स के दम पर चलती हैं। इन प्रोटीन्स के निर्माण का सूत्र डीएनए में होता है। डीएनए की रचना मूलत: चार क्षारों एडीनीन, ग्वानीन, सायटोसीन और थायमीन से बनी होती है। इन क्षारों की विशेषता है कि डीएनए में सदा एडीनीन के सामने थायमीन तथा सायटोसीन के सामने ग्वानीन होता है। इस प्रकार से यदि डीएनए की एक शृंखला मौजूद हो तो उसके अनुरूप दूसरी शृंखला बनाई जा सकती है। यही आनुवंशिक गुणों के हस्तांतरण की बुनियाद है। तीन-तीन क्षारों की तिकड़ियां एक-एक अमीनो अम्ल की द्योतक होती है। इस प्रकार से डीएनए अमीनो अम्लों की एक विशिष्ट शृंखला का निर्देश दे सकता है और अमीनो अम्लों के जुड़ने से प्रोटीन बनते हैं। कुदरत का काम चार क्षार-अक्षरों से चल जाता है।

बेनर की टीम ने सामान्य क्षारों की संरचना में फेरबदल करके चार नए क्षार बनाए और इन्हें डीएनए के अणु में जोड़ दिया। इस आठ अक्षर वाले डीएनए को उन्होंने हचिमोजी नाम दिया है – जापानी भाषा में हचि मतलब आठ और मोजी मतलब अक्षर। प्रत्येक कृत्रिम क्षार किसी एक कुदरती क्षार के समान रचना वाला है। सबसे पहले उन्होंने यह दर्शाया कि नए क्षार कुदरती क्षारों के साथ जोड़ियां बना लेते हैं। डीएनए के हज़ारों अणु बनाकर वे यह दर्शा पाए कि प्रत्येक क्षार एक ही जोड़ीदार से जुड़ता है। प्रयोगों के दौरान उन्होंने यह भी देखा कि इस संश्लेषित डीएनए की रचना काफी स्थिर है।

इसके बाद बेनर की टीम ने यह भी करके दिखाया कि उनके संश्लेषित डीएनए से एक अन्य अणु आरएनए भी बनाया जा सकता है। दरअसल, डीएनए में उपस्थित सूचना का उपयोग आरएनए के माध्यम से होता है। यानी उनके संश्लेषित डीएनए में न सिर्फ सूचना (प्रोटीन निर्माण के निर्देश) संग्रहित रहती है बल्कि उसे प्रोटीन के रूप में अनूदित भी किया जा सकता है।

इस शोध के द्वारा बेनर ने एक तो यह दर्शा दिया है कि जीवन का आधार डीएनए अन्य क्षारों से भी काम चला सकता है। इसके अलावा, यह भी दर्शाया जा चुका है ऐसा संश्लेषित डीएनए कैंसर कोशिकाओं से निपटने में भूमिका निभा सकता है। और इस नए डीएनए की मदद से सर्वथा नए प्रोटीन भी बनाए जा सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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एक दुर्लभ ब्लड ग्रुप की जांच संभव हुई – एस. अनंतनारायण

दुर्घटनावश अधिक खून बह जाने पर, सर्जरी के वक्त, किसी बीमारी या अन्य कारणों में मरीज़ को अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने की ज़रूरत पड़ती है। सन 1901 में पता लगा था कि मरीज़ को चढ़ाया जाने वाला खून सही रक्त समूह (मरीज के रक्त समूह) का होना चाहिए। इस खोज के पहले, मरीज़ को अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने पर कभी-कभी तो मरीज़ ठीक हो जाते थे लेकिन अक्सर मरीज़ की मृत्यु हो जाती थी क्योंकि उसका शरीर बाहर से चढ़ाए गए खून को अस्वीकार कर देता था। 1901 में पता यह चला था कि रक्त के चार समूह होते हैं और हर व्यक्ति इनमें से किसी एक रक्त समूह का होता है। इसके बाद मरीज़ों को सही रक्त समूह का खून चढ़ाया जाने लगा और मरीज़ बच सके।

वैसे इन चार रक्त समूहों के अलावा कई अन्य गुणधर्मों का भी मिलान करना पड़ता है मगर ये दुर्लभ रक्त समूह के व्यक्तियों के मामले में ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। ऐसे मामलों में सिर्फ इतने से बात नहीं बनती कि मरीज़ और रक्तदाता का रक्त समूह मेल खाए। और भी कई कारकों का मिलना आवश्यक होता है। अन्यथा मरीज़ को खुद अपना रक्त सर्जरी या आपात स्थिति के लिए भंडार करके रखना पड़ता है।

ऐसे ही एक दुर्लभ रक्त समूह (Vel नेगेटिव) के बारे में 1952 में पता चला था। यह रक्त समूह रक्त-परीक्षण द्वारा पहचान में नहीं आता है और मरीज़ को खुद पता नहीं होता कि उसे इस दुर्लभ रक्त समूह की ज़रूरत है। इसी वजह से इस रक्त समूह के रक्तदाता पहचाने नहीं जाते और ब्लड बैंक में इसका भंडारण नहीं हो पाता। वरमॉन्ट विश्वविद्यालय के ब्राायन बैलिफ और फ्रेंच नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्लड ट्रांसफ्यूज़न के लियोनेल अरनॉड और उनके साथियों ने ईएमबीओ मॉलीक्यूलर मेडिसिन पत्रिका में बताया है कि उन्होंने इस दुर्लभ रक्त समूह की पहचान करने का तरीका खोज लिया है। अब इसकी मदद से लोगों में दुर्लभ रक्त समूहों को पहचाना जा सकेगा।

रक्त समूह

रक्त समूह लाल रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट या उन पर उपस्थित एंटीजन से तय होता है। शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली बाहरी तत्वों के खिलाफ एंटीबॉडी बनाकर उन्हें मारती है। एंटीबॉडी का निर्माण एंटीजन को पहचानकर होता है। किंतु प्रतिरक्षा प्रणाली अपनी रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट को पहचानती है और उन्हें नहीं मारती। रक्त कोशिकाओं की इन्हीं बनावट के आधार पर रक्त को चार रक्त समूह (A, B, AB  और O) में बांटा गया है। रक्त समूह A और B की बनावट एकदम भिन्न होती हैं। AB रक्त समूह में A और B दोनों रक्त समूह की बनावट होती है जबकि O रक्त समूह की कोशिकाओं पर कोई एंटीजन नहीं होते। A, B और O रक्त समूह के लोग सिर्फ अपने रक्त समूह का रक्त ले सकते हैं। जबकि AB रक्त समूह के व्यक्ति किसी भी रक्त समूह (A, B और O) का रक्त ले सकते हैं। चूंकि रक्त समूह O की सतह पर कोई एंटीजन नहीं होते इसीलिए किसी भी रक्त समूह के व्यक्ति को O समूह का रक्त चढ़ाया जा सकता है।

रक्त समूह के अलावा एक और फैक्टर होता है – Rh फैक्टर। Rh फैक्टर नेगेटिव या पॉज़ीटिव हो सकता है। जिन लोगों का रक्त समूह Rh पॉज़ीटिव  होता है उन्हें Rh नेगेटिव रक्त चढ़ा सकते हैं लेकिन इसके विपरीत, Rh नेगेटिव वाले व्यक्ति को Rh पॉज़ीटिव  रक्त नहीं चढ़ा सकते। यानी  A नेगेटिव, B नेगेटिव या O नेगेटिव रक्त समूह के व्यक्ति को सिर्फ उन्हीं के समूह का रक्त चढ़ाया जा सकता है। AB पॉज़ीटिव रक्त समूह के व्यक्ति को किसी भी रक्त समूह का खून चढ़ाया जा सकता है। जबकि O नेगेटिव किसी भी रक्त समूह के व्यक्ति को चढ़ाया जा सकता है।

इनके अलावा लगभग 32 अन्य फैक्टर हैं जिन्हें रक्तदान के समय मिलाने की ज़रूरत होती है। हालांकि यह बहुत ही दुर्लभ मामलों में ज़रूरी होता है। यह देखा गया है कि इनमें से कुछ फैक्टर कुछ खास समुदाय के लोगों में ही होते हैं। जैसे U नेगेटिव रक्त समूह सिर्फ अफ्रीकी मूल के लोगों का होता है। जबकि Vel नेगेटिव और Lan नेगेटिव समूह सिर्फ हल्के रंग की त्वचा के लोगों का होता है। तो यदि रक्तदाता के समुदाय के बारे में पता हो तो इन दुर्लभ रक्त समूहों को इमरजेंसी के वक्त ढूंढ़ने में आसानी होगी।

Vel नेगेटिव रक्त समूह

Vel नेगेटिव ऐसा ही एक दुर्लभ रक्त समूह है। इस रक्त समूह का नाम एक 66 वर्षीय मरीज़ के नाम पर रखा गया है जो आंत के कैंसर से पीड़ित थी। 1962 में इस मामले की जानकारी चिकित्सा शोध पत्रिका रेव्यू डी’हिमेटोलॉजी में प्रकाशित हुई थी। पूर्व में कभी खून चढ़ाने के दौरान वेल के शरीर ने एक अज्ञात यौगिक के खिलाफ एक बहुत ही शक्तिशाली एंटीबॉडी बना ली थी। यह यौगिक सामान्यत: लोगों की लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाता है लेकिन वेल की रक्त कोशिकाओं से नदारद था। इसके बाद इस अज्ञात यौगिक की खोज शुरु हुई और एक नए रक्त समूह Vel नेगेटिव के बारे में पता चला। इसके बाद इससे मिलते-जुलते कई मामले सामने आए। युरोप और उत्तरी अमेरिका के लगभग 2500 लोगों में से एक व्यक्ति का रक्त समूह Vel नेगेटिव  है।

पिछले 60 सालों में यह पता नहीं चल पाया था कि Vel नेगेटिव रक्त समूह के लिए कौन-सा रासायनिक अणु ज़िम्मेदार है। इस वजह से इस रक्त समूह के लोगों की पहचान का भी कोई तरीका नहीं था। इस रक्त समूह के बारे में तभी पता चलता है जब किसी व्यक्ति का शरीर बार-बार बाहरी रक्त को अस्वीकार कर रहा हो। एक तो Vel नेगेटिव रक्त समूह बिरले ही किसी का होता है, ऊपर से इसकी पहचान करना भी मुश्किल है। इस कारण इमर्जेंसी में अघिकांश मरीज़ सही रक्त ना मिल पाने की वजह से मर जाते हैं। यदि रक्त समूह पता हो तो भी इस समूह का रक्तदाता मिलना मुश्किल होता है।

Vel नेगेटिव रक्त समूह की पहचान की मुश्किल हल करने में बैलिफ, अरनॉड और उनके साथियों का योगदान महत्वपूर्ण है। सबसे पहले अरनॉड और उनके साथियों ने Vel नेगेटिव रक्त समूह की एंटीबॉडी काफी मात्रा में इकठ्ठा की। उसके बाद जैव-रासायनिक विधि से लाल रक्त कोशिकाओं की सतह से रहस्यमय प्रोटीन (एंटीबॉडी) को अलग किया। इसके बाद वरमॉन्ट विश्वविद्यालय में बैलिफ के नेतृत्व में कार्य आगे बढ़ा। बैलिफ ने उच्च आवर्धक क्षमता वाले उपकरणों, जो आवेशित आणविक हिस्सों को भी अलग-अलग कर देते हैं, की मदद से छिपकर बैठे प्रोटीन की पहचान की। बैलिफ ने बताया,  “हमें हज़ारों प्रोटीन में से एक को पहचानना था। जो प्रोटीन हमें मिला, वह प्रोटीन के मान से बहुत छोटा था, जिसे SIMM 1 नाम दिया गया।” इसके बाद अरनॉड की टीम ने 70 ऐसे लोगों का परीक्षण किया जिनका रक्त समूह Vel नेगेटिव था। उन्होंने पाया कि हरेक व्यक्ति के जीन में डीएनए का एक हिस्सा गायब था, जो कोशिका को SIMM 1  बनाने का निर्देश देता है। यह इस बात का प्रमाण था कि किसी व्यक्ति की लाल रक्त कोशिका में SIMM 1 प्रोटीन की अनुपस्थिति या कमी की वजह से ही Vel नेगेटिव रक्त समूह बनता है।

इस खोज के बाद किसी व्यक्ति का डीएनए परीक्षण करके इस रक्त समूह की पहचान की जा सकती है। Vel नेगेटिव जैसे दुर्लभ रक्त समूह की पहचान और उसकी आसान उपलब्धता सबके लिए चिकित्साके लक्ष्य की ओर एक कदम है। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर के उपचार के दावे पर शंकाएं

स्राइल की एक कंपनी एक्सलरेटेड इवॉल्यूशन बायोटेक्नॉलॉजीस लिमिटेड (एईबीआई) के वैज्ञानिकों ने हाल ही में दावा किया है कि वे एक साल के अंदर हर किस्म के कैंसर का एक इलाज पेश करेंगे। खास बात यह है कि उन्होंने चूहों पर किए गए जिन प्रयोगों के आधार पर यह दावा किया है, उनके परिणाम कहीं प्रकाशित नहीं किए गए हैं। उनका यह दावा अखबार के एक लेख में घोषित किया गया है। वैज्ञानिक समुदाय के बीच इस दावे के लेकर शंका का माहौल बन गया है।

एईबीआई के वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने एक नए तरीके का इस्तेमाल किया है जो रामबाण साबित होगा। इस नए तरीके को बहुलक्षित विष (मल्टी-टारगेटेड टॉक्सिन यानी मूटोटो) नाम दिया गया है। यह एक ऐसा पेप्टाइड अणु है जो कैंसर कोशिका की सतह पर मौजूद कई सारे अणुओं से एक साथ जुड़ जाता है। इस वजह से कैंसर कोशिका में परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती और फिर एक विषैला अणु उस कोशिका को मार डालता है।

शोधकर्ताओं का मत है कि उन्होंने एक इकलौते अध्ययन में चूहों पर इस तरीके को आज़माया जिसमें अप्रत्याशित सफलता मिली है और वे जल्दी ही इसे इंसानों पर भी आज़माने जा रहे हैं।

इस विषय पर काम कर रहे अन्य वैज्ञानिकों को लगता है कि चूंकि उक्त प्रयोग के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए हैं, इसलिए दावे की जांच करना असंभव है। वैसे भी चूहों पर प्रयोग के आधार पर इंसानों के बारे में दावा करना तर्कसंगत नहीं है क्योंकि अनुभव बताता है कि ज़रूरी नहीं है कि चूहों पर मिले परिणाम इंसानों में मिलें। कुछ वैज्ञानिक तो एईबीआई के दावे को विज्ञान की परंपराओं के विपरीत व गैर-ज़िम्मेदाराना मान रहे हैं। अलबत्ता, इन सारी आशंकाओं के बारे में एईबीआई ने कहा है कि एक साल के अंदर वे पहले इंसान के कैंसर का इलाज करके दिखा देंगे। उनके मुताबिक कैंसर का यह नया उपचार सस्ता होगा और इसके कोई साइड प्रभाव भी नहीं होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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आंत के सूक्ष्मजीव मनोदशा को प्रभावित करते हैं

व्यक्ति की आंत व अन्य ऊतकों में बैक्टीरिया का संसार स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है। लेकिन मस्तिष्क पर इसके प्रभाव सबसे अधिक हो सकते हैं। युरोप के दो बड़े जनसमूहों के एक अध्ययन में पाया गया है कि अवसादग्रस्त लोगों की आंत में बैक्टीरिया की कई प्रजातियां मौजूद नहीं होती हैं। बैक्टीरिया की अनुपस्थिति किसी बीमारी की वजह से हो या यह अनुपस्थिति किसी बीमारी को जन्म देती हो लेकिन तथ्य यह है कि आंत के कई बैक्टीरिया द्वारा बनाए गए पदार्थ तंत्रिकाओं के कार्य और मिज़ाज को प्रभावित करते हैं। 

पूर्व में किए गए कुछ छोटे-छोटे अध्ययनों में पाया गया था कि अवसाद की दशा में आंत के बैक्टीरिया की स्थिति में बदलाव आता है। इस अध्ययन को बड़े समूह पर करने के लिए कैथोलिक विश्वविद्यालय, बेल्जियम के सूक्ष्मजीव विज्ञानी जीरोन रेस और उनके सहयोगियों ने सामान्य सूक्ष्मजीव संसार के आकलन के लिए 1054 बेल्जियम नागरिकों को चुना। इनमें 173 लोग अवसाद से ग्रसित रहे थे या जीवन की गुणवत्ता के सर्वेक्षण में उनकी हालत घटिया पाई गई थी। इसके बाद टीम ने अन्य प्रतिभागियों से इनके सूक्ष्मजीव संसार की तुलना की। इस अध्ययन में स्वस्थ लोगों की तुलना में अवसाद ग्रस्त लोगों के सूक्ष्मजीव संसार में दो प्रकार के बैक्टीरिया (कोप्रोकॉकस और डायलिस्टर) नहीं पाए गए। शोधकर्ताओं ने अवसादग्रस्त लोगों में क्रोह्न रोग के लिए ज़िम्मेदार माने जाने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि भी देखी।

अक्सर एक आबादी में सूक्ष्मजीव संसार सम्बंधी परिणाम अन्य समूहों से मेल नहीं खाते हैं। इसके लिए टीम ने 1064 डच लोगों के सूक्ष्मजीव संसार के आंकड़ों पर भी गौर किया। वहां भी अवसादग्रस्त लोगों में वही दो बैक्टीरिया प्रजातियां नदारद थीं।

बैक्टीरिया को मनोदशा से जोड़ने की कड़ी को समझने के लिए रेस और उनके सहयोगियों ने तंत्रिका तंत्र कार्य के लिए महत्वपूर्ण 56 पदार्थों की एक सूची तैयार की, जिनका उत्पादन या विघटन आंत के बैक्टीरिया करते हैं। उन्होंने पाया कि कोप्रोकोकस डोपामाइन नामक रसायन जैसा मार्ग अपनाते हैं जो अवसाद का एक प्रमुख मस्तिष्क संकेत है। यह वही बैक्टीरिया है जो ब्यूटिरेट नामक एक सूजन उत्तेजक पदार्थ भी बनाता है, और सूजन का सम्बंध अवसाद से देखा गया है।

बैक्टीरिया की अनुपस्थिति और अवसाद का सम्बंध तो समझ में आता है लेकिन आंत में सूक्ष्मजीवों द्वारा बनाए गए यौगिक कैसे असर डालते हैं यह समझना मुश्किल है। इसका एक संभव रास्ता वेगस तंत्रिका है, जो आंत और मस्तिष्क को जोड़ती है।

कुछ चिकित्सक और कंपनियां पहले से ही अवसाद के लिए विशिष्ट प्रोबायोटिक्स की खोज कर कर रहे हैं लेकिन वे आम तौर से इस नए अध्ययन में पहचाने गए बैक्टीरिया समूह को शामिल नहीं करते हैं। बेसल विश्वविद्यालय, स्विट्जरलैंड में मल-प्रत्यारोपण के एक परीक्षण की योजना बनाई जा रही है, जो अवसादग्रस्त लोगों में आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को ठीक कर सकता है। कई लोग और अध्ययन करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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