क्या कोई जीव नींद के बिना जीवित रह सकता है?

म अगर एक रात भी ठीक से नींद न ले सकें तो अगले दिन काम करने में काफी संघर्ष करना पड़ता है। लंबे समय तक ठीक से नींद न आए तो ह्मदय रोग और स्ट्रोक से लेकर वज़न बढ़ने और मधुमेह जैसे नकारात्मक प्रभाव दिखने लगते हैं। जानवर भी ऊंघते हैं। इससे तो लगता है कि सभी जानवरों के लिए नींद का कुछ महत्व है।

सवाल यह है कि नींद की भूमिका क्या है? क्या नींद मस्तिष्क को क्षति की मरम्मत और सूचना को सहेजने का अवसर देती है? क्या यह शरीर में ऊर्जा विनियमन के लिए आवश्यक है? वैज्ञानिकों ने नींद की कई व्याख्याएं की हैं लेकिन एक सटीक उत्तर का इंतज़ार आज भी है।

1890 के दशक में रूस की एक चिकित्सक मैरी डी मेनासीना नींद की एक गुत्थी से परेशान थीं। उनका ख्याल था कि जब हम जीवन को भरपूर जीना चाहते हैं तो क्यों अपने जीवन का एक-तिहाई भाग सोकर गुज़ार देते हैं। इस रहस्य को जानने के लिए उन्होंने जानवरों में पहला निद्रा-वंचना प्रयोग किया। मेनासीना ने पिल्लों को लगातार जगाए रखा और यह पाया कि नींद की कमी के कारण कुछ दिनों में उन पिल्लों की मृत्यु हो गई। बाद के दशकों में, अन्य जीवों जैसे कृंतकों और तिलचट्टों पर यह प्रयोग किया गया और परिणाम ऐसे ही रहे। लेकिन इन प्रयोगों में मौत का कारण और नींद से इसका सम्बंध अभी भी अज्ञात है।

नींद का अभाव जानलेवा होता है लेकिन कुछ प्राणी बहुत कम नींद लेकर भी जीवित रह सकते हैं। साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में फल मक्खियों के सोने-जागने पर नज़र रखी गई थी। इम्पीरियल कॉलेज लंदन में सिस्टम्स जीव विज्ञानी जियोर्जियो गिलेस्ट्रो के अनुसार उनके इस प्रयोग में कुछ मक्खियां शायद ही कभी सोई होंगी।

गिलेस्ट्रो और उनके सहयोगियों ने पाया कि 6 प्रतिशत मादा मक्खियां दिन में 72 मिनट से कम समय तक सोती थीं, जबकि अन्य मादाओं की औसत नींद 300 मिनट थी। एक मादा तो एक दिन में औसतन मात्र 4 मिनट सोती थी। आगे शोधकर्ताओं ने मक्खियों के सोने का समय 96 प्रतिशत कम कर दिया। लेकिन ये मक्खियां, पिल्लों की तरह असमय मृत्यु का शिकार नहीं हुर्इं। वे अन्य मक्खियों के बराबर जीवित रहीं। गिलेस्ट्रो व कई अन्य वैज्ञानिक सोचने लगे हैं कि शायद नींद उतनी ज़रूरी नहीं है, जितना पहले सोचा जाता था।

2016 के एक अध्ययन में, रैटनबोर्ग और उनके सहयोगियों ने गैलापागोस द्वीप समूह में फ्रिगेट बर्ड्स (फ्रेगेटा माइनर) के मस्तिष्क में विद्युत गतिविधि के मापन के आधार पर दिखाया था कि समुद्र पर उड़ान भरते समय पक्षियों के मस्तिष्क का एक गोलार्ध सो जाता है। और कभी-कभी एक साथ दोनों गोलार्ध भी सो जाते हैं। अध्ययन में पाया गया कि उड़ान भरने के दौरान फ्रिगेट बर्ड्स औसतन प्रति दिन केवल 42 मिनट सोए, जबकि आम तौर पर ज़मीन पर वे 12 घंटे से अधिक सोते हैं। उड़ते समय नींद अन्य पक्षी प्रजातियों के बीच भी आम बात हो सकती है। हालांकि वैज्ञानिकों के पास इसके लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है लेकिन सामान्य स्विफ्ट (एपस एपस) बिना रुके 10 महीने तक उड़ सकती है।

कुल मिलाकर अभी तक तो यही लगता है कि बिलकुल भी न सोने वाला कोई जीव नहीं है। चाहे थोड़ी-सी ही सही, मगर जैव विकास के इतिहास में नींद का बने रहने दर्शाता है कि इसकी कुछ अहम भूमिका है और न्यूनतम नींद अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बेकार है छुट्टियों की लंबी नींद

फ्ते भर की व्यस्त दिनचर्या के कारण लोगों को पूरी नींद नहीं मिल पाती है। नींद की कमी से डायबिटीज़ और दिल की बीमारी जैसी कई स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। अक्सर लोग सप्ताह के अंत में देर तक सोकर हफ्ते भर की नींद की कसर पूरी करते हैं। लेकिन क्या सेहत पर पड़े असर की भरपाई एक-दो रोज़ की भरपूर नींद लेने से हो पाती है?

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक सिर्फ छुट्टियों में देर तक सोना या भरपूर नींद लेना, नींद की कमी के कारण सेहत पर पड़े नकारात्मक प्रभाव की भरपाई नहीं करते।

युनिवर्सिटी ऑफ कोलोरेडो बोल्डर के केनेथ राइट और उनके साथियों ने छुट्टियों में देर तक सोने वाले लोगों पर स्वास्थ्य सम्बंधी अध्ययन किया। उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि रोज़ाना की नींद की कमी के कारण सेहत पर पड़े नकारात्मक प्रभाव की भरपाई छुट्टियों में देर तक सोने से होती है या नहीं?

इस अध्ययन में उन्होंने युवाओं के तीन समूह बनाए। प्रत्येक समूह में 14 युवा प्रतिभागी थे। पहले समूह (समूह क) के प्रतिभागियों को हर दिन सिर्फ 5 घंटे की नींद लेनी थी। दूसरे समूह (समूह ख) में प्रतिभागियों को रोज़ तो सिर्फ 5 घंटे सोना था लेकिन उन्हें यह छूट थी कि वे छुट्टी के दिन भरपूर नींद ले सकते हैं। जबकि तीसरे समूह (समूह ग) को हर रोज़ भरपूर नींद (लगभग 9 घंटे) लेने को कहा गया। यह सिलसिला 9 दिन तक चला।

उन्होंने पाया की रोज़ाना नींद की कमी वाले समूह क के प्रतिभागियों ने भरपूर नींद वाले समूह ग की तुलना में ज़्यादा खाया, उनका वज़न भी बढ़ गया और वे इंसुलिन के प्रति कम संवेदनशील दिखे। इसके बाद समूह ख (जो रोज़ाना कम सोए थे मगर छुट्टी के दिन भरपूर सो सकते थे) के प्रतिभागियों के स्वास्थ्य की जांच की तो शोधकर्ताओं ने पाया इस समूह के स्वास्थ्य पर पड़े असर पहले समूह जैसे ही हैं। यानी सप्ताह की नींद की भरपाई सप्ताहांत में ज़्यादा सोकर नहीं हो पाई थी। सेहतमंद रहने के लिए रोज़ाना भरपूर नींद ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

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पुरातात्विक कब्र में मिले पैर बांधने के प्रमाण

वैसे तो चीन में लड़कियों-महिलाओं के पैर बांधकर रखने की प्रथा कम से कम 1000 साल पुरानी है और इसके विवरण ऐतिहासिक दस्तावेज़ों तथा कुछ जीवित भुक्तभोगी महिलाओं के बयानों में मिलते हैं। मगर अब शोधकर्ताओं ने एक प्राचीन कब्र के कंकालों में इस प्रथा के प्रमाण देखे हैं। इन कंकालों ने प्रथा पर नई रोशनी डाली है।

मिशिगन विश्वविद्यालय की एलिज़ाबेथ बर्जर और उनके साथियों को हाल ही में चीन के शांक्सी प्रांत में यांगुआनज़ाई स्थल की खुदाई के दौरान मिले एक कब्रिस्तान में मिले कंकालों के अध्ययन के आधार पर पैर बांधने की प्रथा को ज़्यादा गहराई में देखने का अवसर मिला है। यह कब्रिस्तान मिंग राजवंश के काल (1368-1644) का है। बर्जर का कहना है कि इन कंकालों का अवलोकन करते हुए उन्हें पैरों की विचित्र रचना का आभास हुआ। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ पैलियोपैथॉलॉजी में प्रकाशित शोध पत्र में बर्जर और उनके साथियों ने बताया है कि आठ में से चार अभिजात्य महिलाओं के कंकालों पर पैर बांधने के चिंह मिले।

शोधकर्ताओं का विचार है कि पैर बांधने की प्रथा अपने शुरुआती रूप में दक्षिणी सोन्ग राजवंश (1127-1279) के समय शुरू हुई थी। शुरू-शुरू में इस प्रथा का उद्देश्य पैर को संकरा बनाना था। इसका हड्डियों पर कोई गंभीर असर नहीं होता था। पैर बांधने की ज़्यादा सख्त प्रथा मिंग राजवंश (1368-1644) के काल में शुरू हुई जिसमें पैर की मेहराब को छोटा-से-छोटा रखने का प्रयास होता था। पहले कुलीन वर्ग तक सीमित यह प्रथा धीरे-धीरे अन्य तबकों में प्रचलित हो गई।

पैरों को बांधना काफी कम उम्र में शुरू कर दिया जाता था। इसके तहत एक तंग पट्टी पैर पर बांधी जाती थी ताकि पैर एक विशेष आकार में मुड़े रहें। सत्रहवीं सदी में पैर बांधने की दो प्रथाएं प्रचलन में रहीं – दक्षिणी और उत्तरी। दक्षिणी शैली में उंगलियां सीधी रहती थीं किंतु उत्तरी शैली में अंगूठे को छोड़कर शेष सारी उंगलियों को तलवे के नीचे मोड़कर रखा जाता था। ऐसी पैर बंधी महिलाएं जीवन भर कई स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करती थीं। इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों ने क्विंग राजवंश के काल में कुलीन वर्ग की महिलाओं में इस प्रथा की उत्पत्ति और इसे प्रभावित करने वाले कारकों पर कई शोध पत्र लिखे हैं। मगर इस बाबत बहुत कम कहा गया है कि स्वयं महिलाएं इस बारे में क्या सोचती थीं। वह जानना तो अब संभव नहीं है किंतु बर्जर ने अपने शोध पत्र में कहा है कि पुरातत्ववेत्ता इतना तो स्पष्ट कर ही सकते हैं कि महिलाओं पर इसके शारीरिक असर क्या होते थे। (स्रोत फीचर्स)

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4000 वर्ष पूर्व भी बोर्ड गेम खेला जाता था

हाल ही में पुरातत्ववोत्ताओं को अज़रबैजान स्थित एक शैलाश्रय (रॉक शेल्टर) के फर्श पर छोटे-छोटे छेदों के पैटर्न दिखाई दिए। अनुमान है कि यह प्राचीन बोर्ड खेलों में सबसे पुराना खेल था जिसे आज से लगभग 4 हज़ार साल पहले खानाबदोश चरवाहे खेला करते थे।

अमेरिकन म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के शोधकर्ता वाल्टर क्राइस्ट ने एक प्राचीन खेल 58 होल्स की तलाश में अज़रबैजान स्थित नेशनल पार्क की प्राचीन गुफाओं का दौरा किया। यह खेल हाउंड्स और जैकाल के नाम से भी जाना जाता है।

ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता हॉवर्ड कार्टर ने भी ईसा पूर्व 18वीं सदी के मिस्र के फरोआ अमेनेमहाट के मकबरे में जानवरों आकृति के टुकड़ों के साथ एक गेम सेट पाया। लाइव साइंस की रिपोर्ट के अनुसार अज़रबैजान के शैलाश्रय में पाए गए गोलाकार गड्ढों का विशिष्ट पैटर्न भी इसी खेल से मिलता जुलता है। हालांकि अज़रबैजान में मिले पैटर्न फरोआ के मकबरे से भी पुराने हैं।  

आसपास चट्टानों पर बने चित्रों को देखते हुए अनुमान है कि यह शैलाश्रय 4000 वर्ष पुराना है जब अज़रबैजान के इस इलाके में खानाबदोश चरवाहे रहा करते थे। इसी समय यह खेल मध्य पूर्व के इलाकों के साथ-साथ मिस्र और मेसोपोटेमिया में भी काफी प्रचलित था।        

पुरातत्ववेत्ता को इन गड्ढों के बारे में जानकारी तो थी लेकिन वे यह नहीं जानते थे कि इसे बोर्ड गेम के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। क्राइस्ट के अनुसार प्रत्येक गड्ढे को एक विशिष्ट पैटर्न में काटा गया था जो उसके उपयोग को दर्शाता है। उनका ऐसा भी मानना है कि यह खेल लगभग 1500 वर्षों तक ठीक उसी अंदाज़ में खेला जाता रहा जैसा शुरुआत में खेला जाता था।

हालांकि 58 होल्स के नियम के बारे में जानकारी तो नहीं है लेकिन आधुनिक समय के बैकगैमन की तरह खेला जाता होगा जिसमे कुछ बीज या पत्थरों का उपयोग किया जाता है जो एक निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बोर्ड के चारों ओर चक्कर लगाते हैं।

इस खेल में बीच में दो पंक्तियां होती हैं और चारों ओर आर्क के आकार में गड्ढे बने रहते हैं। इसमें 5वें, 10वें, 15वें और 20वें गड्ढे को किसी तरह से चिन्हित किया होता है। आखिर में शीर्ष पर बना गड्ढा दूसरे गड्ढों की तुलना में थोड़ा बड़ा होता है जिसको आम तौर पर खेल का लक्ष्य या अंत समझा जाता है।

संभावना है कि बोर्ड में गोटियों की चाल को नियंत्रित करने के लिए पांसों का उपयोग किया जाता होगा, लेकिन पूरे सेट में किसी तरह का कोई पांसा नहीं मिला है।

इस खेल को आधुनिक बैकगैमन के समान बताने के विचार को क्राइस्ट ने खारिज करते हुए कहा कि बैकगैमन बाद के रोमन गेम टैबुला से लिया गया है। 58 होल्स का खेल काफी पुराना है, लेकिन इसको सबसे पुराना खेल कहना सही नहीं है।

क्राइस्ट के अनुसार इतने व्यापक स्तर पर इस खेल का खेला जाना सांस्कृतिक बाधाओं को पार करने की क्षमता दर्शाता है। यह परस्पर संवाद में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता होगा। इस खेल ने एक भाषा का भी काम किया होगा जिसमें खेल के ज़रिए आपस में संवाद होता होगा। (स्रोत फीचर्स)

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स्कूल में भूत का नज़ारा – संतोष शर्मा

स्कूल के शौचालय में जाने के बाद 10वीं कक्षा की छात्रा शम्पा कुंडू दौड़ती हुई क्लास रूम में लौटी और भूत-भूत कहती हुई बेहोश होकर फर्श पर गिर गई। शम्पा की ऐसी डरी हुई हरकत देख क्लास की अन्य छात्राएं भी डर गर्इं। यह बात तुरंत क्लास टीचर को बताई गई। टीचर क्लास रूम में पहुंचा। एक छात्रा ने शम्पा के चेहरे पर पानी के छींटे मारे और पंखे से हवा दी। कुछ देर बाद शम्पा होश में आई और खामोश बड़ी-बड़ी आंखें कर देखने लगी।

टीचर ने पूछा, “शम्पा तुम यूं भूत-भूत क्यों चीख रही थी?”

एक बोतल से दो घूंट पानी पीने के बाद डरी-सहमी सी शम्पा ने धीमी आवाज में कहा, “स्कूल के शौचालय में भूत है! एक लड़के का भूत है। मैंने अपनी आंखों से भूत देखा। वो मुझे घूर रहा था! ”

“देखो, भूत-प्रेत कुछ नहीं होता। तुम्हें वहम हुआ होगा। शायद तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। तुम अभी घर जाकर आराम करो।” टीचर ने शम्पा को घर भेज दिया।

शम्पा को स्कूल से जल्दी घर लौटते देख मां ने पूछा, “स्कूल की इतनी जल्दी छुट्टी हो गई?” जवाब दिए बिना ही शम्पा अपने कमरे में चली गई। काफी देर बाद भी वह कमरे से बाहर नही निकली तो मां उसके कमरे में गई। देखा शम्पा बिस्तर पर लेटी हुई थी।

बेटी के सिर पर प्यार भरे हाथ रखकर मां ने पूछा, “क्या हुआ, तू इतनी थकी हुई क्यों लग रही है? तेरी तबियत अचानक बिगड़ी हुई क्यों लग रही है? स्कूल में कुछ गड़बड़ी हुई है क्या?”

इतने सारे सवालों का उत्तर देने के बजाय शम्पा मां से लिपट कर रोने लगी। यह देख मां ने पूछा, “अरे क्या हुआ, तू रो क्यों रही है?” आंखों के आंसू पोछते हुए शम्पा ने कहा, “मैंने स्कूल के शौचालय में एक लड़के का भूत देखा। वो मुझे घूर रहा था और अपनी ओर बुला रहा था। मै डर गई, मुझे अब भी डर लग रहा है।”

यह सुनकर मां बहुत घबरा गई। मां ने कहा, “डरने की बात नहीं है बेटी। चल, तुझे ओझा के पास ले जाती हूं। वह झाड़-फूंक कर देगा।”

मां बेटी को इलाज के लिए अस्पताल या किसी डॉक्टर पास ले जाने की बजाय वासुदेवपुर गांव में रहने वाले ओझा दंपत्ति शीतल बाग और शिखा बाग के घर पर ले गई। ओझा दंपति ने शम्पा की कुछ देर तक झाड़-फूंक की। इसके बाद शीतल ओझा ने कहा, “मुझे पहले से ही जिस बात का डर था वही हुआ। तुम्हारी किस्मत अच्छी थी। नहीं तो वह आज तुम्हारी जान ज़रूर ले लेता।”

घबराई हुई शम्पा की मां ने पूछा, “कौन मेरी बेटी की जान ले लेता? आपको किस बात का डर था? ”

“संजय सांतरा की अतृप्त आत्मा स्कूल में भटक रही है”, ओझा ने कहा, “संजय एक होनहार छात्र था। न जाने क्यों उसने आत्महत्या कर ली। उसका स्कूल से बहुत लगाव था। मरने के बाद भी उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिली। नतीजा, संजय की अतृप्त आत्मा स्कूल में आज भी भटक रही है।”

शीतल ने आगे और कहा, “अरूप मंडल नामक एक अन्य युवक की हादसे में मौत हो गई थी। संजय और अरूप इन दोनों की अतृप्त आत्माएं स्कूल में अब भी भटक रही हैं। इन दोनों के अलावा भी और कई अतृप्त आत्माएं भूत के रूप में स्कूल के आसपास, शौचालय आदि में दिखती हैं। ये भटकती आत्माएं स्कूल की किसी न किसी छात्रा को अपने वश में लाने की पूरी कोशिश कर रही हैं। और यही हुआ है। एक अतृप्त आत्मा ने शम्पा को काबू कर लिया था। किन्तु किस्मत अच्छी थी कि वह तुम्हें क्षति नहीं पहुंचा पाया।”

ओझा ने कहा, “मैंने शम्पा पर सवार भूत को भगा दिया है लेकिन चिंता तो स्कूल के अन्य छात्रों को लेकर हो रही है क्योंकि ये अतृप्त आत्माएं आज नहीं तो कल किसी-न-किसी को अपना शिकार ज़रूर बनाएंगी।”

शम्पा की मां ने पूछा, “क्या इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है? ”

शिखा ओझा ने कहा, “ऐसी आत्माओं से मुक्त करने के लिए मैंने स्कूल में तंत्र-मंत्र व झाड़-फूंक करने की बात कही थी लेकिन किसी ने मेरी एक नहीं सुनी और आज इसका खमियाजा स्कूली छात्राओं को भुगतना पड़ रहा है।”

“मुझे डर है कि ये आत्माएं किसी की जान न ले लें!” यह कहते हुए ओझा ने माथे का पसीना पोंछा।

शम्पा की बार्इं बांह पर लाल धागे में पिरोकर एक तावीज बांधते हुए शिखा ओझा ने कहा, “यह तावीज अपने से दूर नहीं करना। भूत तुम्हारा अब कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा।”

शम्पा को कुछ जड़ी बूटियां दीं और ओझा दंपत्ति ने सुझाव दिया, “इसे गंगा जल के साथ पीसकर पी लेना। तू ठीक हो जाएगी।”

दूसरे दिन शम्पा स्कूल गई तो क्लास की सहपाठी पूछने लगी, “शम्पा, कल तुम्हें क्या हुआ था? तुम्हारी तबियत अभी ठीक है न?”

इस पर शम्पा ने बाग ओझा दंपत्ति के यहां जाने की बात बताई और कहा, “स्कूल के शौचालय में भूतों का डेरा बना हुआ है। स्कूल में एक नहीं, कई अतृप्त आत्माएं मंडरा रही हैं। ये भूत हमें शिकार बनाना चाहते हैं। एक भूत मुझ पर सवार हो गया था। ओझा ने झाड़-फूंक कर उसे भगा दिया।”

कुछ ही देर में यह बात पूरे स्कूल में लगभग सभी छात्र-छात्राओं के कानों में पहुंच गई कि स्कूल के शौचालय में भूत है!

इसके बाद तो स्कूल में शौचालय जाने वाली छात्राएं एक के बाद एक अजीबो-गरीब हरकत करने लगी, भूत-भूत कहकर छात्राएं बेहोश होने लगीं। देखते ही देखते लगभग दो दर्जन छात्राओं की तबियत काफी बिगड़ गई। स्कूल में अफरा-तफरी फैल गई। शौचालय में भूत होने की अफवाह स्कूल के आसपास के इलाकों में भी जंगल की आग की तरह फैल गई। छात्राओं के परिजन भागते हुए स्कूल पहुंचने लगे। इलाज के लिए कई छात्राओं को स्थानीय अस्पताल में भर्ती भी करवाना पड़ा।

यह भुतही घटना पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा ज़िले के कोतुलपुर थाना अंतर्गत मिर्ज़ापुर हाईस्कूल की है। स्कूल के कार्यवाहक प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने कहा, “शौचालय से लौटने के बाद कई छात्राओं की तबियत अचानक बिगड़ गई। दस-बारह छात्राएं बेहोश भी हो गर्इं। किसी के सीने में तो किसी के सिर में दर्द की भी शिकायत थी।”

घटना की सूचना मिलने पर कोतुलपुर ग्रामीण अस्पताल से एक मेडिकल टीम स्कूल पहुंची। कोतुलपुर ब्लॉक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सक पलाश दास और मनोरोग विशेषज्ञ पृथा मुखोपाध्याय भी स्कूल पर पहुंचे। भुतही अफवाह के चलते अस्वस्थ हुई छात्राओं का प्राथमिक उपचार किया गया जबकि चिंताजनक हालत में कई छात्राओं को इलाज के लिए कोतुलपुर ग्रामीण अस्पताल में भर्ती कराया गया।

मनोरोग विशेषज्ञ पृथा मुखोपाध्याय ने कहा, “ज़्यादातर छात्राएं खाली पेट या थोड़ा-सा कुछ खाकर स्कूल आती हैं। जिसके कारण वे शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं। ऐसी ही छात्राएं भूत की अफवाह के कारण मानसिक रूप से अस्वस्थ हुर्इं।”

इस स्कूल में छात्र-संख्या लगभग 800 है। अधिकांश छात्र-छात्राएं स्कूल के आसपास रायबागिनी, झोड़ा मुराहाट, हजारपुकुर, जलजला, हरिहरचाका, हेयाबनी गांवों के गरीब परिवारों से हैं। ज़्यादातर अपने घरों से सुबह चूड़ा व मूड़ी खाकर आते हैं और दोपहर को मध्यान्ह भोजन योजना में मिलने वाले भोजन से किसी तरह से पेट भरा करते हैं। स्कूल में ऐसी कई छात्राएं हैं जो शारीरिक रूप से अस्वस्थ भी हैं, जिनका विभिन्न अस्पतालों में नियमित रूप से इलाज भी चल रहा है।

मिर्ज़ापुर हाईस्कूल के शौचालय में भूत की अफवाह के चलते इलाके में भुतहा आतंक सामूहिक हिस्टीरिया की तरह फैल गया। अभिभावकों ने अपने बच्चों को स्कूल जाने से रोक दिया। स्कूल में पढ़ाई-लिखाई खटाई में पड़ गई। शाम ढलने के बाद स्कूल से अजीबो-गरीब डरावनी आवाज़ आने की भी बात सुनाई पड़ने लगी।

आसपास गांव में रहने वाले लोग कहने लगे, “जब ओझा ने पहले ही कहा था कि स्कूल में भूत है, अतृप्त आत्माएं भटक रही हैं, तब स्कूल में तंत्र-मंत्र या झाड़-फूंक करने में क्या दिक्कत है। अगर वक्त रहते अतृप्त आत्माओं को स्कूल से मुक्त नहीं किया गया तो बड़ी आफत आने का डर है।”

भूत की अफवाह से उत्पन्न हालात से स्कूल प्रशासन चिंता में पड़ गया। इस समस्या से शीघ्र स्कूल को मुक्त करने के लिए स्कूल के कार्यवाहक प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू और स्थानीय प्रशासन ने शिक्षकों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ आपात बैठक की। बैठक में काफी विचार-विमर्श के बाद फैसला लिया गया कि स्कूल में पैदा हुई भुतही समस्या के समाधान के लिए भारतीय विज्ञान व युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं को स्कूल में बुलाया जाए। तब स्कूल की ओर से युक्तिवादी समिति के अध्यक्ष प्रबीर घोष से संपर्क किया गया। एक पत्रकार के रूप में मैंने प्रबीर जी से संपर्क किया और उन्हें स्कूल में फैली भुतही अफवाह के समाधान को लेकर विस्तार से बात की। प्रबीर जी ने कहा, “युक्तिवादी समिति की बांकुड़ा जिला शाखा के रामकृष्ण चंद्र समेत कई कार्यकर्ताओं को मिर्ज़ापुर हाईस्कूल का दौरा करने का निर्देश दिया गया है।”

बांकुड़ा से युक्तिवादी समिति की ओर से एक टीम हाईस्कूल पहुंची। टीम में शामिल कार्यकर्ताओं ने स्कूल के शौचालय समेत पूरे स्कूल का निरीक्षण किया। साथ ही भूत देखने वाली छात्राओं, उनके अभिभावकों, स्कूल के शिक्षकों और आसपास गांव के लोगों से बातें की। इसके बाद समिति की ओर से स्कूल परिसर में एक मंच बनाकर अंधविश्वास विरोधी “अलौकिक नहीं, लौकिक” कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम में स्कूल के शिक्षक, कोतुलपुर थाना प्रभारी, कोतुलपुर के बीडीओ गौतम बाग, मिर्ज़ापुर ग्राम पंचायत की प्रधान नमिता पाल और सर्व शिक्षा मिशन के अधिकारी, स्कूली छात्र-छात्राएं और आसपास के गांवों के अनेक लोग भी उपस्थित हुए।

कार्यक्रम मंच पर एक टेबल पर दूध से भरा हुआ कांच का एक गिलास और एक इंसानी खोपड़ी रखते हुए एक तर्कवादी कार्यकर्ता ने कहा, “हमें सुनने को मिला है कि यह स्कूल भूतों का डेरा बन गया है। यदि यहां वाकई में भूत है तो हम किसी एक भूत को इस मंच पर बुला कर उसे दूध पिलाएंगे।” अपने बाएं हाथ में इंसानी खोपड़ी को लेकर कुछ देर तक तंत्र-मंत्र नुमा कोई मंत्र पढ़ा। इसके बाद दूध से भरा हुआ गिलास खोपड़ी के सामने लाया गया। आश्चर्य! गिलास का दूध धीरे-धीरे कम होता गया। देखने से ऐसा लगा कि खोपड़ी में घुसे भूत ने दूध पी लिया हो!

इसके बाद एक कार्यकर्ता ने कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा टेबल पर रखा। उसे माचिस की एक तीली से जला दिया। फिर जलते हुए टुकड़े को अपनी हथेली पर रख लिया। इसके बाद उसे अपनी जीभ पर रखा और आग को खा गया। एक कार्यकर्ता ने मुंह से एक घड़ा उठा कर दिखाया। इसी क्रम में बिना माचिस के ही एक यज्ञ कुंड में आग लगा कर दिखाई गई।

एक के बाद एक ‘चमत्कारी’ कारनामे देख उपस्थित छात्र-छात्राएं और लोग तालियां बजाने लगे। दर्शकों से पूछा गया, “आप में से कोई यह बता सकता है कि गिलास का दूध कौन पी गया?” भीड़ में बैठे एक छात्र ने कहा, “शौचालय में छिपा हुआ भूत आकर दूध पी गया! ”

एक छात्रा ने कहा, “शायद आप लोग कोई जादूगर हो। आप लोगों के पास तंत्र-मंत्र या भूत-प्रेत की शक्ति है।”

इस पर चंद्र ने कहा, “हम तर्कवादी हैं। हम तो चमत्कारी शक्ति का दावा करने वालों की पोल खोला करते हैं। हमने ये कारनामे सिर्फ जादुई तरकीब से दिखाए हैं। हमारे पास कोई तंत्र-मंत्र या भूत-प्रेत की शक्ति नही हैं। भूत-प्रेत सिर्फ, और सिर्फ, कल्पना और अंधविश्वास हैं।”

कार्यक्रम देख रही एक छात्रा ने कहा, “स्कूल के शौचालय में भूत है। शौचालय में उस भूत को देखकर सबसे पहले शम्पा और फिर कई छात्राएं अस्वस्थ हो गई थीं। गांव के ओझा दंपत्ति ने भी स्कूल में भूत होने की बात कही है।”

इस पर स्कूल के शौचालय में भूत देखने वाली छात्रा शम्पा को कार्यक्रम मंच पर बुलाकर तर्कवादियों ने पूछा, “आपने अपनी आंखों से भूत देखा था? क्या आपको लगता है कि वाकई में भूत-प्रेत होते हैं? ”

छात्रा ने कहा, “हां, मैंने अपनी आंखों से भूत को देखा था।”

“तब तो उस भूत की स्मार्ट फोन से फोटो खींची जा सकती है?”

यह सुन वह इधर-उधर देखने लगी और अन्य छात्राएं मुस्कराने लगीं। तर्कवादी ने समझाया, “धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आत्मा का अर्थ चिन्ता, चेतना, चैतन्य या मन है। आज आधुनिक विज्ञान ने साबित किया है कि मस्तिष्क की स्नायु कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया का फल ही मन या चिंता है। मस्तिष्क की कोशिकाओं के बिना चिंता, मन या आत्मा का अस्तित्व असंभव है।”

“शरीर की मौत के साथ ही मस्तिष्क की कोशिकाओं का भी अंत हो जाता है। ऐसे में इन कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया भी बंद हो जाती है। यानी मन रूपी आत्मा की भी मृत्यु हो जाती है। कुल मिलाकर शरीर की तरह आत्मा नष्ट हो जाती है। इसलिए अतृप्त आत्माओं या भूतप्रेत का वजूद ही नहीं होता है।”

एक छात्रा ने पूछा, “यदि भूत-प्रेत नहीं है तो शम्पा या अन्य छात्राओं को भूत क्यों दिखाई दिया?”

जवाब में तर्कवादी ने कहा, “हमारी दादी-नानी हमें बचपन में भूत-प्रेत की कहानियां सुनाया करती हैं। ये कहानियां हमारे बचपन के कच्चे मन-मस्तिष्क में इस कदर बैठ जाती हैं कि जब हम पढ़-लिख कर बड़े हो जाते हैं तो भी बचपन में सुनी हुर्इं भूत-प्रेत की काल्पनिक कहानियां सच लगने लगती हैं। इसके अलावा, आजकल विभिन्न टीवी चैनलों पर भूत-प्रेत पर आधारित धारावाहिकों का प्रसारण किया जाता है। इन धारावाहिकों का बच्चों के मन-मस्तिष्क पर अंधविश्वासपूर्ण प्रभाव पड़ता है।”

चंद्र ने कहा, “भूत-प्रेत पर विश्वास करने के कारण शम्पा जब शौचालय में गई तो उसे भूत जैसी किसी चीज का भ्रम हुआ। भ्रम के कारण उसे भूत जैसा कुछ दिखाई दिया होगा लेकिन जब उसे ओझा के पास ले जाया गया तो ओझा ने भूत होने का दावा किया और इलाज के नाम पर झाड़-फूंक की। ओझा के कहने पर शम्पा ने जब स्कूल के शौचालय में भूत होने की बात कही तो वह अफवाह की तरह अन्य छात्राओं में फैल गई। इसके बाद से जब भी कोई छात्रा शौचालय से लौटती है तो वह भूत-भूत कहकर बेहोश हो जाती है। नतीजा, स्कूल में भूत होने की अफवाह सामूहिक हिस्टीरिया की तरह फैल गयी। हिस्टीरिया का काउंसलिंग द्वारा इलाज संभव है। भूत-प्रेत देखना सिर्फ व्यक्तिगत अनुभव या इंद्रिय जनित भ्रम के अलावा कुछ नहीं है। जब हमारी इंद्रियां भ्रम की अवस्था में होती है तब ऐसी घटनाएं व्यक्ति महसूस करता है। भूत शौचालय में नहीं बल्कि मन में अंधविशावास के रूप में बसा हुआ है।”

तर्कवादी ने आगे कहा, “स्कूल में भूत की अफवाह के कारण अस्वस्थ हुई अधिकांश छात्राएं ग्रामीण इलाकों की हैं। ये छात्राएं ज़्यादातर गरीब, किसान परिवार से हैं। कुछ लड़कियां शारीरिक कमज़ोरी, कुपोषण की शिकार भी होती हैं। उनमें स्वास्थ्य आदि की जागरूकता की भी कमी होती है। ये लोग भूत-प्रेत, झाड़-फूंक, ओझा आदि पर विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में जब कोई लड़की ऐसी कोई हरकत करती है जिसका वैज्ञानिक कारण पता नहीं होने के कारण उनके माता-पिता उन्हें इलाज के लिए ओझा के पास ले जाते हैं। मानसिक तनाव, दिमागी दबाव आदि कारणों से लोग अक्सर मानसिक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं जिन्हें वे भूत-प्रेत अथवा जादू-टोने का असर समझ बैठते हैं। मनोरोग को भूत-प्रेत का साया मानकर झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ जाते हैं। मनोरोग भी अन्य बीमारियों की तरह ही होता है, जिसका उचित काउंसलिंग और दवा के ज़रिए आसानी से इलाज किया जा सकता है।”

युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने कहा, “अब यदि कोई दावा करता है कि स्कूल में भूत है तो भूत दिखाने वालों को 50 लाख रुपए की चुनौती देता हूं।”

अंधविश्वास से मुक्त होने के लिए वैज्ञानिक सोच को अपनाने की सलाह देते हुए तर्कवादी कार्यकताओं ने कहा, “किसी भी बीमारी का इलाज सरकारी अस्पताल में, डॉक्टर के हाथों करवाना चाहिए। यदि किसी पर भूत बाधा होने जैसी समस्या हो तो ओझा के हाथों झाड़-फूंक करवाने की बजाय उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाएं। मनोचिकित्सा से आप पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाएंगे।” आगे यह भी बताया गया, “भारतीय कानून में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तावीज, कवच, ग्रह रत्न, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक, चमत्कार, दैवी औषधि आदि द्वारा किसी भी समस्या या बीमारी से छुटकारा दिलवाने का दावा तक करना जुर्म है। तंत्र-मंत्र, चमत्कार के नाम पर आम जनता को लूटने वाले ओझा, तांत्रिक जैसे पाखंडियों को कानून की मदद से जेल की हवा तक खिलाई जा सकती है। ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट, 1940 के तहत किसी भी बीमारी से छुटकारा दिलवाने के नाम पर दिए जाने वाले तावीज, कवच, झाड़-फूंक, मंत्र युक्त जल, तंत्र-मंत्र आदि को औषधि के रूप में स्वीकार होगा। बिना लाइसेंस के तावीज, कवच इत्यादि द्वारा बीमारी से छुटकारा नहीं मिलने पर या मरीज़ की मृत्यु होने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 320 के तहत दोषी को सज़ा होगी। इस कानून का उल्लंघन करने वाले को 10 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा, ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आबजक्शनेबल एडवर्टाइज़मेंट) एक्ट, 1954 के तहत तंत्र-मंत्र, गंडे, तावीज आदि तरीकों से चमत्कारिक रूप से बीमारियों के उपचार या निदान आदि दण्डनीय अपराध हैं।”

अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम देखने के बाद छात्राओं ने कहा, “ओझा दंपति के कहने पर हमारे में मन में भूत-प्रेत को लेकर जो डर पैदा हुआ था वह दूर हो गया है। अब आगे यदि ऐसी भुतही घटना होती है तो हम उस पर ध्यान ही नहीं देंगे। यदि कोई छात्र या छात्रा भूत के नाम पर अस्वस्थ हो जाता है तो उसे इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जाएंगे। भूत-प्रेत के नाम पर किसी भी अफवाह पर अब ध्यान नहीं देंगे।”

बीडीओ गौतम बाग ने कहा, “विज्ञान के इस युग में आज जहां लड़कियां भी चांद पर पहुंच रही हैं, शर्म की बात यह है कि ऐसी स्थिति में एक स्कूल में भुतही अफवाह को दूर करने के लिए अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम भी करना पड़ रहा है। आप सभी को भूत-प्रेत जैसी किसी भी अफवाह पर कान नहीं देना चाहिए। यदि ऐसी अफवाह फैलती है तो उसके पीछे तर्कपूर्ण कारण का पता लगाना होगा आप लोगों को। तभी जाकर समस्या का समाधान करना संभव होगा।”

प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने कहा, “युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने स्कूल में कार्यक्रम कर छात्राओं के मन से भूत का डर दूर किया है, इसके लिए उन्हें धन्यवाद देना चाहूंगा।”

बता दें, तर्कवादी कार्यकर्ताओं ने स्कूल पहुंचने से पहले जब ओझा बाग दंपत्ति से मुलाकात की थी तो ओझा ने बल देते हुए कहा था कि उसने ही छात्रा पर से भूत भगाने के लिए झाड़-फूंक की। स्कूल में भुतही अफवाह फैलाने के पीछे ओझा का धंधा जुड़ा हुआ था। ओझा चाहता था कि स्कूल में यदि भूत की अफवाह के कारण छात्र अस्वस्थ हो जाते हैं, तो उन्हें इलाज के लिए उसके पास ले जाया जाएगा। उन्हें झाड़-फूंक करने और तावीज़-कवच देने के बदले में उनके परिजनों से पैसा भी लूटा जाएगा। लेकिन युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने स्कूल परिसर में अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम कर ओझा दंपत्ति की सारी पोल खोल कर रख दी।

युक्तिवादी समिति की ओर से प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू को सुझाव दिया गया, “ऐसी डरावनी अफवाह फैलाने वाले ओझा और अन्य लोगों के खिलाफ थाने में शिकायत दर्ज करें।”

तर्कवादियों के सुझाव के बाद स्कूल प्रबंधन ने जिला प्रशासन को ओझा द्वारा फैलाई गई भूत की अफवाह के बारे में अवगत कराया गया और कोतुलपुर थाने में ओझा शिखा बाग और शीतल बाग के खिलाफ लिखित शिकायत दर्ज की गई। पुलिस ने आरोपी ओझा दंपति को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया। उन्हें विष्णुपुर महकमा अदालत में पेश किया गया। न्यायाधीश ने उन्हें हिरासत में भेजने का निर्देश दे दिया। अभियुक्त ओझा दंपत्ति के खिलाफ धारा 420 के तहत धोखाधड़ी और ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आबजेक्शनेबल एडवर्टाइज़मेंट) एक्ट, 1954 की धारा 7 के तहत मामला दायर किया गया। पुलिस को जांच में पता चला कि स्कूल में भूत होने की अफवाह फैलाने के पीछे ओझा बाग दंपति ही मुख्य आरोप है।

प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने बताया, “स्कूल के शौचालय में भूत की अफवाह फैलाने वाले ओझा दंपति की गिरफ्तारी के बाद स्कूल में शिक्षण कार्य सामान्य हो गया है। भूत के डर से मुक्त होकर छात्र-छात्राओं का स्कूल में आना भी शुरू हो गया है।”(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मनुष्य का शिशु असहाय क्यों? – गंगानंद झा

कुछ ऐसे सवाल हमारे अवचेतन में बने रहते हैं, जिनके जवाब हमें नहीं मालूम। फिर भी हम परेशान नहीं रहते। कोई किताब पढ़ते वक्त या लोगों की बात सुनते वक्त जब इन सवालों के जवाब उभर आते हैं तो हम चमत्कृत हो उठते हैं।

करीब 30 साल पहले छात्रों के साथ विकासवाद और प्राकृतिक वरण की चर्चा के दौरान एक सवाल उठा। सारे स्तनधारियों के शिशु मां का दूध पीना छोड़ने के बाद जल्दी ही अपने भोजन के लिए खुदमुख्तार हो जाते हैं, लेकिन मनुष्य के शिशु मां का दूध छोड़ने के बाद भी कई सालों तक भोजन तथा सुरक्षा के लिए मां-बाप पर निर्भर बने रहते हैं। इस अवधि में उनकी परवरिश न हो तो उनके जीवित रहने की संभावना बहुत ही कम रहती है। मानव शिशु अपने हाथ पांव पर नियंत्रण हासिल करने में ही साल भर से अधिक वक्त लगाता है। उसके बाद भी उसे देखभाल, प्रशिक्षण, शिक्षा और परवरिश के लिए दो दशकों से अधिक की अवधि की दरकार होती है। देखा जाए, तो मानव शिशु असहाय होता है।

क्या यह अटपटा नहीं लगता? इसको कैसे समझा जा सकता है? अपने विद्यार्थियों, साथियों और सहकर्मियों से पूछा पर कोई सुराग नहीं मिला। अनेक सवालों की तरह यह भी खो गया।

मानव जीवन का एक और प्रमुख लक्षण है: लगभग सभी जीवों की आयु उनकी प्रजनन-आयु के समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो जाती है, किंतु मनुष्य इसके बाद भी काफी समय तक जीवित रहता है।

अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का स्थानांतरण किसी भी जीव की अभिप्रेरणा होती है। अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का संचरण प्रजनन सफलता कहलाती है। माता-पिता द्वारा संतान की सघन परवरिश अगली पीढ़ी में उन संतानों के जीन्स के स्थानांतरण और सुरक्षा को सुनिश्चित करती है। ऐसी परवरिश अतिरिक्त उत्तरजीविता संभव बनाती है। मनुष्य ने यह गुण प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में पाया है।

कई साल बीत गए। मैं सेवानिवृत्त हो गया। फिर एक किताब पढ़ने को मिली – जेरेड डायमंड लिखित दी थर्ड चिम्पैंज़ी (The Third Chimpanzee)। इस किताब में और मुद्दों के साथ-साथ इस सवाल पर भी चर्चा की गई है। इसमें एक सुझाव दिया गया है कि मानव शिशु की असहायता ने मानव परिवार और समाज की उत्पति एवं विकास की बुनियाद रखी।

शिशु के जीवित रहने में परवरिश की भूमिका निर्णायक होती है। लंबी अवधि तक चौबीस घंटे निगरानी की ज़रूरत के कारण मां-बाप के बीच सहयोग अनिवार्य हो जाता है। परवरिश में मां के साथ भागीदारी के ज़रिए संतान का पिता अपने जीन्स का अगली पीढ़ी में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है। मां तो जानती है कि वह अपनी ही संतान की परवरिश कर रही है, लेकिन पिता को अपनी मादा के साथ घनिष्ठ भागीदारी के ज़रिए ही यह आश्वस्ति मिल सकती है। अन्यथा वह किसी अन्य पुरुष के जीन्स की पहरेदारी करता रह जाएगा। इस ज़रूरत ने परिवार नामक संस्था की नींव रखी। संतान की परवरिश में लंबे समय तक पुरुष-स्त्री के बीच भागीदारी ने इनके बीच श्रम विभाजन को ज़रूरी बनाया। परिवार के बाद कबीला, कबीले के बाद समाज के विकास के साथ तब्दीलियों का सिलसिला चलता जा रहा है।

लेकिन अभी भी एक गुत्थी बनी हुई थी। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में ऐसा क्यों हुआ? मानव शिशु असहाय क्यों होता है? जवाब नहीं मिल रहा था।

कई सालों के बाद एक किताब देखी – युवाल नोआ हरारी लिखित सैपिएंस  (Sapiens) जिसमें जवाब मिला।

प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में चौपाया प्राइमेट पूर्वज से दो पांवों पर चलने वाले मनुष्य का विकास हुआ। इन चौपाया पूर्वजों के सिर तुलनात्मक रूप से छोटे हुआ करते थे। इनके लिए दो पांवों पर सीधे खड़ी स्थिति में अनुकूलित होना काफी कठिन चुनौती थी, खासकर तब जबकि धड़ पर अपेक्षाकृत काफी बड़ा सिर ढोना हो।

दो पांवों पर खड़े होने से मनुष्य को अधिक दूर तक देखने और अपने लिए भोजन जुगाड़ करने की सुविधा हासिल हुई लेकिन विकास के इस कदम की कीमत मनुष्य को चुकानी पड़ी है। अकड़ी हुई गर्दन और पीठ में दर्द की संभावना के साथ रहने को बाध्य हुआ है वह।

औरतों को और भी अधिक झेलना पड़ा है। सीधी खड़ी मुद्रा के कारण उनके नितम्ब संकरे हुए। इसके नतीजे में प्रसव मार्ग संकरा हुआ। दूसरी ओर, शिशु के सिर के आकार बढ़ते जा रहे थे। फलस्वरूप प्रसव के दौरान मौत का जोखिम औरतों की नियति हो गई। यदि प्रसव समय से थोड़ा पहले होता,जब बच्चे का सिर छोटा और लचीला रहता है, तो प्रसव के दौरान मृत्यु का खतरा तुलनात्मक रूप से कम होता था। जिसे हम आजकल निर्धारित समय पर प्रसव कहते हैं वह वास्तव में जीव वैज्ञानिक दृष्टि से समय-पूर्व ही है। बच जाने वाली औरतें और बच्चे प्रसव कर पातीं। फलस्वरूप प्राकृतिक वरण में समय पूर्व प्रसव को प्राथमिकता मिली। हकीकत है कि दूसरे जानवरों की तुलना में मनुष्य का जन्म उसके शरीर की अनेक महत्वपूर्ण प्रणालियों के पूर्ण विकसित होने के पहले ही होता है। बछड़ा जन्म के तुरंत बाद उछल-कूद कर सकता है, बिल्ली का बच्चा कुछ ही सप्ताह में मां को छोड़कर अपने भोजन का इंतज़ाम करने निकल पड़ता है। लेकिन मनुष्य का बच्चा भोजन, देखभाल, हिफाज़त और प्रशिक्षण के लिए अपने से बड़ों पर सालों तक निर्भर रहता है। गर्भ से बाहर आने के बाद भी उसे सुरक्षा की ज़रूरत रहती है।

एक शिशु को मनुष्य बनाने में पूरे समाज का सहयोग रहता है। चूंकि मनुष्य जन्म से अविकसित होता है, उसे शिक्षित करना, दूसरे जानवरों की तुलना में अधिक सहज है। उसे सिखाया जा सकता है कि अन्य जीवों के साथ कैसे सम्पर्क बनाया जाए।

यह तथ्य मनुष्य की असामान्य सामाजिक और सांस्कृतिक क्षमता की बुनियाद में है। उसकी अनोखी समस्याओं के लिए भी यही तथ्य ज़िम्मेदार है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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यौन हिंसा के खिलाफ आवाज़ों को मिला सम्मान – जाहिद खान

नोबेल समिति ने इस साल के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए इराक की यजीदी मूल की नौजवान लड़की नादिया मुराद और कांगो के डॉ. डेनिस मुकवेगे को चुना है। इन दोनों बेमिसाल शख्सियतों को यौन हिंसा के खिलाफ प्रभावी मुहिम चलाने और महिला अधिकारों के लिए उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यह प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया जा रहा है। दोनों ने अपने-अपने कामों से दुनिया में अमन और लैंगिक समानता बढ़ाने की बेजोड़ कोशिश की और यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ बुलंद की है।

नोबेल समिति की अध्यक्ष बेरिट रेइस एंडरसन ने पत्रकार वार्ता में इन नामों का ऐलान करते हुए कहा कि दोनों ही विजेताओं ने युद्ध क्षेत्र में यौन हिंसा को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की मानसिकता के खिलाफ सराहनीय काम किया है। दोनों इस वैश्विक अभिशाप के खिलाफ संघर्ष की एक मिसाल हैं। एक शांतिपूर्ण दुनिया केवल तभी हासिल की जा सकती है, जब महिलाओं और उनके मौलिक अधिकारों एवं सुरक्षा को युद्ध में पहचाना और संरक्षित किया जाए। मुकवेगे और मुराद दोनों एक वैश्विक संकट के खिलाफ संघर्ष की नुमाइंदगी करते आए हैं, जो कि किसी भी संघर्ष से परे है, जिसे बढ़ते हुए ‘मी टू’ आंदोलन ने भी दिखाया है। उन्होंने कहा कि यौन हिंसा के खिलाफ इनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए इन्हें नोबेल शांति सम्मान दिया जा रहा है।

पाकिस्तान की मलाला युसुफजई के बाद नादिया मुराद दूसरी ऐसी महिला हैं, जिन्हें इतनी कम उम्र में शांति का नोबेल पुरस्कार मिला है। एक ऐसे वक्त में जब दुनिया में महिलाओं के साथ कई तरह की यौन हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हों, तमाम काशिशों के बाद भी उनका यौन उत्पीड़न रुका नहीं हो, पुरुष आज भी उन्हें अपनी यौन दासी के अलावा कुछ न समझते हों, नादिया मुराद और डॉ. डेनिस मुकवेगे का सम्मानित होना यह आश्वस्ति प्रदान करता है कि यौन हिंसा पीड़िताओं की सिसकियां अनसुनी नहीं है। कोई न सिर्फ उनकी आवाज़ सुन रहा है, बल्कि उसे सारी दुनिया के सामने भी ला रहा है। उनके ज़ख्मों पर अपने कामों से मरहम लगा रहा है। आईएस के आतंक से ग्रस्त इराक में नादिया मुराद और गृहयुद्ध में घिरे कांगो में डेनिस मुकवेगे ने यौन हिंसा की पीड़िताओं के मानवाधिकार की रक्षा के लिए अपनी जान तक दांव पर लगा दी है। नोबेल शांति पुरस्कार इन दोनों के साहस को मान्यता प्रदान करना है।

नादिया मुराद बसी ताहा का जन्म इराक के कोजो शहर में साल 1993 में हुआ था। वे इराक की यजीदी मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। मुराद ‘नादिया अभियान’ की संस्थापक हैं। यह संस्था नरसंहार, सामूहिक अत्याचार और मानव तस्करी के पीड़ित महिलाओं और बच्चों की मदद करती है। संस्था उन्हें अपनी ज़िंदगी दोबारा जीने और उन बुरी यादों से उबरने में मदद करती है।

नादिया यौन पीड़िताओं की मददगार और दुनिया भर में उनकी आवाज़ क्यों बनी? इसकी कहानी भी बड़ी हैरतअंगेज़ है। नादिया उन 3,000 यजीदी लड़कियों और महिलाओं में से एक है, जिन्हें साल 2014 में इस्लामिक स्टेट (आईएस) के आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था और उनके साथ लगातार बलात्कार और दुर्व्यवहार किया था। वे करीब तीन महीने तक आईएस के आतंकियों के कब्जे में रहीं, जहां उनके साथ दिन-रात बलात्कार किया गया। वह कई बार खरीदी और बेची गई। किसी तरह से वहां से वह अपनी जान बचाकर निकली। उनके चंगुल से छूटने के बाद, उन्होंने यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए काम करना शुरू कर दिया। इस वक्त वे पूरी दुनिया में महिलाओं को यौन हिंसा के खिलाफ जागरूक करने का काम कर रही हैं। नादिया मानव तस्करी के पीड़ितों के लिए संयुक्त राष्ट्र की गुडविल एंबेसडर भी हैं। नादिया मुराद ने अपने अनुभवों पर एक किताब भी लिखी है, जिसका नाम ‘दी लॉस्ट गर्ल : माई स्टोरी ऑफ कैप्टिविटी एंड माई फाइट अगेंस्ट द इस्लामिक स्टेट’ है। इस किताब में  आईएस आतंकियों की हैवानियत के किस्से भरे पड़े हैं।

नादिया मुराद की तरह डॉ. डेनिस मुकवेगे भी यौन हिंसा के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। वे पेशे से स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए लंबे समय से काम कर रहे हैं। ‘दी ग्लोब एंड मॉल’ के मुताबिक डॉ. मुकवेगे, बलात्कार की चोटों को ठीक करने के मामले में दुनिया के अग्रणी विशेषज्ञ हैं। डॉ. मुकवेगे को उनके द्वारा युद्धग्रस्त पूर्वी डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में महिलाओं को हिंसा, बलात्कार और यौन हिंसा के सदमे से बाहर निकालने में दो दशकों तक किए गए काम के लिए मान्यता मिली है। मुकवेगे कांगो में डॉक्टर चमत्कार के रूप में जाने जाते हैं। कांगो ही नहीं, अन्य अफ्रीकी देशों की महिलाएं भी उन्हें एक रहनुमा की तरह देखती हैं। मुकवेगे ने अपने द्वारा 1999 में स्थापित पांजी अस्पताल में बलात्कार के हज़ारों पीड़ितों का इलाज किया है। साल 2015 में उनके जीवन पर आधारित फिल्म ‘दी मैन हू मेंड्स विमन’ आई थी। मुकवेगे ने फ्रांसीसी में अपनी आत्मकथा ‘प्ली फॉर लाइफ’ भी लिखी है जिसमें उन्होंने ऐसे तमाम हादसों का ज़िक्र किया है, जिन्होंने उन्हें कांगो में पांजी अस्पताल खोलने को मजबूर किया। अस्पताल में वे संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों की हिफाज़त का काम करते हैं। डॉ. मुकवेगे युद्ध के दौरान महिलाओं के दुरुपयोग के एक मुखर आलोचक हैं। उन्होंने अपने भाषणों में कई बार बलात्कार को सामूहिक विनाश का हथियार बताया है। मुकवेगे ने अपना नोबेल शांति पुरस्कार दुष्कर्म और यौन हिंसा से प्रभावित सभी महिलाओं को समर्पित किया है।

शांति का नोबेल पुरस्कार किसी ऐसे शख्स या संस्था को दिया जाता है, जो दो देशों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देते हैं या फिर समाज के लिए अच्छा काम करते हैं, जिससे लोगों को नई जिंदगी-नई राह मिलती है। नादिया मुराद और डॉ. डेनिस मुकवेगे के नाम सुनकर पहली बार ज़रूर सबको हैरानी हुई, लेकिन बाद में जब इनके काम सामने आए, तो सभी ने इनकी जी भरकर तारीफ की। पूरी दुनिया में घरों से लेकर कार्यस्थलों तक और जंग के मैदान एवं गृहयुद्ध की मार झेल रहे देशों में यौन उत्पीड़न को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे न सिर्फ महिलाएं प्रभावित हैं, बल्कि मासूम बच्चियों को भी यौन हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। यहां तक कि कई युद्धग्रस्त देशों में काम कर रहे संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों पर भी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगे हैं।

एक तरफ हम महिलाओं के लिए लैंगिक समानता और बराबरी की बात करते हैं, तो दूसरी ओर लगातर उनका यौन उत्पीड़न और उनके साथ यौन हिंसा हो रही है। तमाम बड़े-बड़े दावों और कानूनों के बाद भी उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न, यौन हिंसा में कोई कमी नहीं आई है। विकसित देश हों या विकासशील देश, दुनिया के सभी देशों में महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक जैसी है। उन्हें अपनी ज़िंदगी में कभी न कभी यौन उत्पीड़न या यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह वाकई चिंता का विषय है कि दुनिया की आधी आबादी के प्रति हमारा नज़रिया आज भी नहीं बदला है। हम आज भी उन्हें यौन गुड़िया से ज़्यादा नहीं समझते। यह सोचे बिना उनके साथ शारीरिक या मानसिक यौन हिंसा करते हैं कि इससे उनकी भावी ज़िंदगी पर क्या असर पड़ेगा। कहीं इससे उनकी कार्यक्षमता पर तो गलत प्रभाव नहीं पड़ेगा? महिलाओं को यौन उत्पीडन से मुक्ति दिलाकर ही एक समृद्ध एवं सुन्दर दुनिया बनाई जा सकती है। दोनों पुरस्कार विजेता इसी दिशा में काम कर रहे हैं और हमें उनका खुलकर और सक्रिय समर्थन करना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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क्या हमारे प्राइमेट रिश्तेदार भी वाचाल हैं? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

मनुष्य की तुलना में अधिकांश प्राइमेट्स तरहतरह की आवाज़ें नही निकाल सकते। प्राइमेट परिवार में एक ओर तो पेड़ों पर निवास करने वाले पश्चिमी अफ्रीका के वर्षा वनों में पाए जाने वाले कैलेबार आंगवानटिबो हैं जो केवल दो प्रकार की ही आवाज़ें निकलते हैं। दूसरे छोर पर मध्य अफ्रीका के कांगो बेसिन में पाए जाने वाले बौने चिम्पैंज़ी, बोनोबो हैं जो बेहद बातूनी हैं। ये कम से कम 38 प्रकार की आवाज़ें निकालने के लिए जाने जाते हैं।

फ्रंटियर इन न्यूरोसाइन्स में प्रकाशित एक नए अध्ययन में बताया गया है कि विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकालने के लिए केवल ध्वनि यंत्र (साउंड बाक्स) ही उत्तरदायी नहीं होता। पूर्व में वैज्ञानिक विभिन्न प्रकार की आवाज़ निकालने के लिए साउंड बाक्स को ही ज़िम्मेदार मानते थे और भाषा के विकास में इसे महत्वपूर्ण समझते थे। हाल ही में प्रकाशित शोध के अनुसार गैर मानव प्राइमेट में भी आवाज़ उत्पन्न करने वाली संरचना होमिनिड के सहोदरोंके समान ही है। एंजलिया रस्किन विश्वविद्यालय के प्राणि विद जैकब डुन के अनुसार यदि शरीर की आवाज़ निकालने वाली संरचना एक जैसी है तो मुख्य मुद्दा मस्तिष्क की क्षमता का हो जाता है।

प्राइमेट्स में ध्वनि उत्पन्न करने का ढांचा काफी विकसित है लेकिन अधिकांश प्रजातियों में जटिल ध्वनियां बनाने के लिए उत्तरदायी संरचनाएं तंत्रिका तंत्र के नियंत्रण में नहीं है। शोधकर्ता के एक और साथी, स्टोनीब्रुक विश्वविद्यालय के नोरोन स्माअर्स ने 34 प्राइमेट्स की बोलने की क्षमता के आधार पर एक सूची बनाई। फिर दोनों वैज्ञानिकों ने प्रत्येक प्राइमेट प्रजाति की बोलने की क्षमता तथा मस्तिष्क के विकास के सम्बंध की जांच की।

जो ऐप्स (वनमानुष) विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकाल सकते थे उनमें विकसित तथा बड़े कॉर्टिकल और ब्रोन स्टेम पाए गए। ये मस्तिष्क के वे भाग हैं जो वाणि संवेदनाओं की प्रतिक्रिया तथा जीभ की मांसपेशियों का समन्वय करते हैं। परिणाम मस्तिष्क के कॉर्टेक्स से जुड़े भाग के आकार और विभिन्न प्रकार की आवाज़ निकालने की क्षमता के बीच सहसम्बंंध दर्शाते हैं। अर्थात बोलने की क्षमता स्वर निकालने की शारीरिक संरचनाओं की बजाय तंत्रिका नेटवर्क के कारण आती है। जिन प्राइमेट्स में मस्तिष्क के ध्वनि नियंत्रण क्षेत्र बड़े हैं वे अन्य के मुकाबले विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकाल सकते हैं।

उपरोक्त अध्ययन से पता चलता है कि बोलने की क्षमता का विकास मस्तिष्क के विकास के साथसाथ ही हुआ है। मानव की विकास यात्रा में बोलचाल को ज़्यादा महत्व मिला और मस्तिष्क में उससे सम्बंधित भाग विकसित होते गए। दूसरी ओर एप्स में अन्य क्षमताएं विकसित हुर्इं और ध्वनि सम्बंधी संरचनाएं बनी तो रहीं किंतु बोलने के लिए आवश्यक तंत्रिका समन्वय नहीं हो पाया।

बोनोबो शोधकर्ताओं ने पाया है कि बोनोबो खाना खिलाने तथा यात्रा करने जैसी बिल्कुल भिन्नभिन्न घटनाओं के लिए एकसी आवाज़ निकालते हैं। यानी एकसी आवाज़ से अलगअलग संदेश देते हैं। यह समझ में नहीं आया है कि कैसे एकसी आवाज से अलगअलग संदेश दिए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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आप कितने चेहरे याद रख सकते हैं?

अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, सहपाठियों, सहकर्मियो की शक्लें हमें याद रहती हैं। इसके अलावा कुछ प्रसिद्ध हस्तियों, अजनबियों (जो रोज़ाना या कभीकभी दिखते हैं) की भी शक्ल हमें याद रहती हैं। पर यदि आपको इनकी सूची बनाने को कहा जाए तो आप कितनी लंबी फेहरिस्त बना पाएंगे? एक अध्ययन के मुताबिक एक सामान्य व्यक्ति लगभग 5000 चेहरे याद रख सकता है।

शोधकर्ता जानना चाहते थे कि एक सामान्य व्यक्ति कितने चेहरे याद रख सकता है। इसके लिए उन्होंने 25 प्रतिभागियों को उन लोगों की सूची बनाने को कहा जिनके चेहरे उन्हें याद है। प्रतिभागियों को पहले एक घंटे में अपने व्यक्तिगत जीवन से जुड़े चेहरों की सूची बनानी थी और अन्य एक घंटे में प्रसिद्ध हस्तियों जैसे नेता, अभिनेता, गायक, संगीतकार वगैरह की।

अध्ययन में प्रतिभागियों को यह भी छूट थी कि यदि उन्हें किसी व्यक्ति का नाम याद नहीं है लेकिन उसका चेहरा याद है या वे उसके चेहरे की कल्पना कर सकते हैं, तो वे उसका विवरण लिखें, जैसे हाईस्कूल का चौकीदार या फलां फिल्म की अभिनेत्री वगैरह।

अध्ययन में देखा गया कि प्रतिभागियों को शुरुआती एक मिनट में कई लोगों के चेहरे याद आए लेकिन एक घंटे का वक्त बीतने के साथसाथ यह संख्या कम होती गई।

अगले अध्ययन में शोधकर्ताओं ने देखा कि ऐसे कितने चेहरे हैं जो उक्त सूची में नहीं हैं लेकिन याद दिलाने पर याद आ जाते हैं। इसके लिए शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों को बराक ओबामा और टॉम क्रूज़ सहित 3441 प्रसिद्ध हस्तियों की तस्वीरें दिखाई। प्रतिभागी किसी व्यक्ति को पहचानते हैं यह तभी माना गया जब वे एक ही व्यक्ति की दो अलगअलग तस्वीरों को पहचान पाए।

इन दोनों अध्ययन के आंकड़ों के विश्लेषण से शोधकर्ताओं ने पाया कि एक सामान्य या औसत व्यक्ति 5000 चेहरे याद रख सकता है। विभिन्न प्रतिभागियों को 1000 से लेकर 10000 की संख्या में चेहरे याद थे। यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अध्ययन में याद से जुड़ी कई बातें मानी गई थीं और प्रतिभागियों द्वारा दी गई जानकारी पर विश्वास किया गया था, लेकिन उम्मीद है कि यह अध्ययन चेहरों की पहचान से जुड़े और अन्य अध्ययनों में मदद करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या आप ठीक से कंघी कर पाते हैं? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

बचपन में मुझे कंघा नहीं करने पर रोज़ डांट पड़ती थी। क्या करता, कितनी भी कंघी करूं जमते ही नहीं थे। फुटबाल के प्रसिद्ध खिलाड़ी मेराडोना की तरह मेरे दोस्त के बाल भी घुंघराले थे। खेलनेकूदने में बिखरते ही नहीं थे। मैं उसे मेराडोना ही कहता था। सत्यसांई और अलबर्ट आइंस्टाइन के चेहरे तो उनके बाल के कारण ही याद रह जाते हैं। इनकी माओं को जूं निकालने में बड़ा सिरदर्द होता होगा। एक पिता ने तो अपने 18 महीने के बच्चे टेलर मेकग्वान का फेसबुक अकाउंट बेबी आइंस्टाइन-2 नाम से खोला है।

कुछ बच्चों के बाल कंघे से जमाए ही नहीं जा सकते क्योंकि उन्हें अनकॉम्बेबल हेयर सिंड्रोम (UHS) है। आज तक विज्ञान साहित्य में 100 ऐसे लोगों का उल्लेख हुआ है। मगर वास्तव में ऐसे लोगों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है।

अनकॉम्बेबल हेयर सिंड्रोम एक अत्यंत बिरली आनुवंशिक विसंगति है। ऐसे बालों को स्पन ग्लास हेयर सिंड्रोम भी कहते है। इन लोगों के बाल ऊन के रेशे जैसे चमकदार, सूखे और बेतरतीब रूप से विभिन्न दिशाओं में खड़े रहते हैं। बालों का रंग चांदी जैसा सफेद या भूसे के रंग का पीलाभूरापन लिए होता है। ये खोपड़ी से ऐसे चिपके रहते हैं कि इन्हें कंघी करना मुश्किल हो जाता है। यह समस्या बच्चों में स्पष्ट दिखती है किंतु बढ़ती उम्र के साथ सुधरती जाती है। अधिकतर मामलों में देखा गया है कि मातापिता दोनों में यह दिक्कत हो तो ही वह बच्चे में दिखती है।

ऐसा अनुमान है कि यह समस्या तीन जीन्स में म्यूटेशन यानी उत्परिर्वन के कारण पैदा होती है। ये तीनों जीन बालों के उस हिस्से को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं जो त्वचा के ऊपर निकला होता है। इसे शैफ्ट कहते हैं। इनमें से किसी भी एक जीन में उत्परिवर्तन होने से बालों की संरचना में परिवर्तन हो जाता है। इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी से सामान्य बालों के शैफ्ट की आड़ी काट गोल दिखती है परंतु विकृति के कारण इसकी आड़ी काट गोल के बजाय तिकोनी दिखती है। 

यह भी देखा गया है कि त्वचा के सामान्य केरेटिनोसाइट कोशिकाओं में कोशिका द्रव एकरस दिखता है परंतु UHS कोशिकाओं के कोशिका द्रव में प्रोटीन के लौंदे होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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