पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कुछ करता ही नहीं है, तो क्यों ना उसे समाप्त कर दिया जाए। मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल, न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता एवं अजीत कुमार की खंडपीठ कर रही है।
याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने न्यायालय को बताया कि कानपुर के चमड़ा उद्योग और गजरौला के शक्कर कारखाने की गंदगी शोधित हुए बिना गंगा नदी में गिर रही है; इस कारण सीसा, पोटेशियम व कई रेडियोसक्रिय पदार्थ गंगा नदी को प्रदूषित कर रहे हैं। गंगा के प्रदूषण को लेकर जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है वह आंखों में धूल झोंकने वाली है; जब जांच करानी होती है तब साफ पानी मिलाकर सैंपल भेज कर अच्छी रिपोर्ट तैयार करा ली जाती है जबकि गंदा पानी सीधे गंगा में गिरता रहता है।
सुनवाई के दौरान न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से पूछा कि आपकी भूमिका क्या है, कैसी निगरानी कर रहे हैं, आपके पास इस सम्बंध में कितनी शिकायतें पहुंची है और कितने पर कार्रवाई की गई है? बोर्ड के अधिवक्ता इस पर ठीक से जवाब नहीं दे पाए तो न्यायालय ने कहा कि जब आप ठीक से निगरानी नहीं कर रहे हो और कुछ कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों न बोर्ड को बंद कर दिया जाए?
प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए देश में कई नियम-कानून और विशिष्ट एजेंसियां कार्य कर रही हैं। प्रदूषण नियंत्रण की सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी एवं कर्मचारी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि कई बार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पूर्णकालिक अध्यक्ष के अभाव में प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों को उनके विभागीय दायित्व के अतिरिक्त प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष का कार्यभार सौंप दिया जाता हैं। ऐसी स्थिति में कई अधिकारी बोर्ड के लिए समय ही नहीं निकाल पाते हैं। कभी-कभी राज्य बोर्ड में संचालक मंडल के सदस्यों की नियुक्ति लंबे समय तक टलती रहती है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि दूसरे निगम-मंडलों की तुलना में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्रियाकलापों पर शासन और समाज स्तर पर ज़्यादा चर्चा नहीं हो पाती है।
पिछले दिनों एक सर्वेक्षण से पता चला था कि राज्य बोर्ड में कार्यरत अधिकांश कर्मचारियों को प्रदूषण नियंत्रण के ज़रूरी मानकों के इतिहास और उनके उद्देश्यों की जानकारी नहीं थी। संसदीय समिति की वर्ष 2008 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में विभिन्न राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में 77 प्रतिशत अध्यक्ष एवं 55 प्रतिशत सदस्य-सचिव अपने पदों पर कार्य करने की योग्यता नहीं रखते थे।
प्रदूषण पर रोक लगाने के उद्देश्य से बनाए गए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बढ़ते प्रदूषण को रोकने में असफल रहे हैं। बोर्डों के गठन के बाद से औद्योगिक और नगरीय प्रदूषण के साथ ही कस्बाई प्रदूषण के आंकड़ों का ग्राफ निरंतर बढ़ता जा रहा है। इधर बोर्ड के अधिकारियों का ज़्यादातर प्रयास यह रहता है कि कारखाने में कुछ हो ना हो, कागज़ों पर प्रदूषण नियंत्रण में रहे। बोर्ड के पास भारी-भरकम अमला है, जिसमें कानून के हथियारों से लैस उच्च अधिकारी हैं; क्षेत्रीय अधिकारियों की फौज के साथ ही बड़ी संख्या में वैज्ञानिक हैं। प्रदूषण नियंत्रण में इन सबका कितना उपयोग हो रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। इस बात पर भी विचार आवश्यक है कि बोर्ड को उद्योगपतियों के हितों की रक्षा करनी है या देश के जनसामान्य को प्रदूषण मुक्त वातावरण उपलब्ध करवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना है।
कहा जाता है कि कुछ बोर्ड में औद्योगिक प्रदूषण की नियमित जांच का हाल यह है कि उद्योग में अफसरों के पहुंचने के पूर्व उनका प्रवास कार्यक्रम पहुंच जाता है। प्राय: ऐसे अवसर पर उद्योग में सब कुछ ठीक-ठाक पाया जाता है। प्राय: बोर्ड के अधिकारी उद्योग के रेस्ट हाउस या किसी होटल या रिसोर्ट में बैठकर जांच रिपोर्ट पूर्ण कर लेते हैं।
लगभग साढ़े तीन दशक पहले मेरे गृह नगर के प्रमुख पेयजल स्रोत को प्रदूषित करने वाले एक रसायन उद्योग के विरुद्ध लंबे समय तक अभियान चलाने का मुझे अवसर मिला था। अनेक स्तरों पर प्रतिकार का कोई ठोस प्रतिसाद नहीं मिला तो हमें सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ा, जहां जनहित याचिका के माध्यम से जनता की व्यथा को अभिव्यक्ति दी और उसमें न्याय मिला। करीब पांच साल चले इस अभियान में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष और चंद अधिकारियों को छोड़ दें तो बोर्ड की तकनीकी राय हमेशा उद्योग के पक्ष में रहती थी।
अक्सर कहा जाता है कि जब देश में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं अन्य नियामक संस्थाएं नहीं थी, तब देश का पर्यावरण समृद्ध था, नदियां स्वच्छ थीं तथा वन और वन्य प्राणी भी सुरक्षित थे। आज प्रदूषण की ऐसी गंभीर स्थिति क्यों बनी? इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए किसी की तो ज़िम्मेदारी होगी। कई वर्षों के बाद यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिप्पणी देश के पर्यावरण के सुखद भविष्य की उम्मीद जगाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि बोर्ड की कार्यपद्धति और क्रियाकलापों में हर स्तर पर पारदर्शिता लाई जाए। इसके लिए सरकार, जन प्रतिनिधि, पर्यावरण संगठन और जनसामान्य को सक्रियता से ठोस पहल करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)
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मानव जनित जलवायु परिवर्तन ने ग्रीष्म लहर, दावानल और अचानक बाढ़ जैसी घटनाओं की संभावना को बढ़ाया है और इन्हें अधिक गंभीर बनाया है। इसका जन स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ा है लेकिन इसे कम करके आंका गया है। अधिकांश देश इन आपदाओं से निपटने के लिए अग्रिम योजना बनाने, अनुकूलन के उपाय करने और साक्ष्य-आधारित जानकारी का उपयोग करके अपने लोगों की हिफाज़त मुकम्मल करने में नाकाम रहे हैं।
इस वर्ष भारत, पाकिस्तान, यूएसए, चीन और युरोप ने घातक ग्रीष्म लहर का सामना किया जिसने न सिर्फ ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचाया बल्कि आपातकालीन सेवा को गंभीर रूप से प्रभावित किया। इस ग्रीष्म लहर से मरने वालों की संख्या पिछले वर्षों की तुलना में काफी अधिक रही। इसके अलावा कई लोगों को गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ा है।
अत्यधिक गर्मी से हीटस्ट्रोक यानी लू की संभावना तो जानी-मानी है। लेकिन वास्तव में गर्मी से होने वाली कई मौतें हृदय सम्बंधी दिक्कतों के कारण भी होती हैं।
होता यह है कि त्वचा को ठंडा रखने के लिए हृदय को ज़्यादा काम करना होता है ताकि त्वचा तक ज़्यादा खून पहुंचे और ठंडक पैदा हो। लेकिन साथ ही रक्तचाप को एक सीमा में रखना होता है। इसके लिए हृदय को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता है, चाहे शरीर का अंदरुनी तापमान बहुत अधिक न हो।
इसके अलावा तापमान के बढ़ने से सांस एवं गुर्दे की बीमारी, दुश्चिंता और हिंसक व्यवहार में वृद्धि होती है और साथ ही मृत शिशु जन्म, समयपूर्व प्रसव और जन्म के समय कम वज़न जैसी समस्याओं का जोखिम भी बढ़ता है। दावानल पर किए गए शोध अध्ययनों ने तो अत्यधिक गर्मी का सम्बंध बाल मृत्यु दर, श्वसन रोग और कैंसर जैसी समस्याओं में वृद्धि से दर्शाया है। इन हालिया अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि अभी तक गर्मी के करण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को काफी कम करके आंका गया है।
निम्न और मध्यम आय वाले कई देश अपर्याप्त वैश्विक सहयोग और वित्तीय क्षमता के चलते इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाए हैं। लेकिन कई अन्य देश पर्याप्त एवं स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद वैश्विक कार्यक्रमों को समर्थन देने या अनुकूलन के उपाय अपनाने में विफल रहे हैं। सरकारों द्वारा जलवायु परिवर्तन के तथ्य से इन्कार या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने और अपर्याप्त राजनैतिक इच्छाशक्ति ने जनता को वैज्ञानिक जानकारियों से मिल सकने वाले लाभों से वंचित रखा है। राजनेताओं ने भी स्वास्थ्य जोखिमों को कम करके बताया है। इसके अलावा कई नामचीन संगठनों और मीडिया घरानों ने भी गुणवत्तापूर्ण जानकारी देने की बजाय अवैज्ञानिक तथ्यों को प्रसारित किया। यह जानकारी लोगों को गर्मी से जूझने में मदद कर सकती थी।
वर्ष 2021 में दी लैंसेट में ऊष्मा-अनुकूलन से सम्बंधित लेखों की एक शृंखला प्रकाशित की गई थी। इन लेखों में गर्मी से होने वाली तकलीफ और हृदय पर पड़ने दबाव को कम करने के कई साक्ष्य-आधारित उपायों पर चर्चा की गई है। इसके लिए पानी में डुबकी लगाना, कपड़ों को भिगोना या पैरों को पानी में डालकर रखना और पंखों के उपयोग को शीतलन की प्रमुख रणनीतियों में शामिल किया गया था। वैसे ठंडा पानी पीकर भी हीटस्ट्रोक के जोखिम को कम किया जा सकता है लेकिन इससे शरीर के तापमान पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। ज़रूरत इस बात की है कि स्वास्थ्य कार्यकर्ता एवं संस्थाएं लोगों को ग्रीष्म लहर के खतरों और इससे बचाव के बारे में शिक्षित करें।
कई अध्ययनों ने अश्वेत और गरीब लोगों पर ग्रीष्म लहरों के असामान्य रूप से अधिक प्रभाव को दर्शाया है। हालात ऐसे हैं कि अत्यधिक गर्मी से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोगों के पास खुद को बचाने के साधन भी नहीं हैं। विशेष रूप से, खुले आसमान के नीचे काम करने वाले श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है। उन पर उच्च तापमान और खुले में काम करने का जोखिम निरंतर बढ़ता जा रहा है। इन श्रमिकों के लिए शीतलन व्यवस्थाओं तक पहुंच भी काफी दुर्गम है। इन परिस्थितियों में श्रमिकों की आजीविका को सुरक्षित करते हुए वैधानिक परिवर्तन करने की तत्काल आवश्यकता है।
कई वैश्विक फंडर्स जलवायु से सम्बंधित शोध अध्ययनों को प्राथमिकता दे रहे हैं। लेकिन इन अध्ययनों के आधार पर नीतिगत एवं सार्थक परिवर्तन के लिए आवश्यक राजनैतिक संवाद का अभाव स्पष्ट है।
वर्ष 2022 में ग्रीष्म लहर और दावानल के पूर्वानुमानों के बाद भी पर्याप्त योजनाएं तैयार नहीं की गईं। 28 जुलाई के दिन एक संकल्प पारित करके संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाऊ पर्यावरण तक पहुंच को सार्वभौमिक मानव अधिकार घोषित किया है। इस निर्णय के बाद जनता को नीति निर्माताओं से समुचित कार्रवाई की मांग करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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यह तो सर्वविदित है कि कोयला या पेट्रोल के दहन से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जो धरती का तापमान बढ़ाती हैं। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि प्रदूषण के कण सूर्य के प्रकाश को परावर्तित कर कुछ हद तक पृथ्वी को ठंडा रखने में योगदान देते हैं। प्रदूषण-नियंत्रण प्रौद्योगिकियों में प्रगति से इस प्रदूषण से निर्मित विषैले बादल और उनसे संयोगवश मिलने वाला यह लाभ कम होने लगा है।
उपग्रहों से प्राप्त जानकारी के अनुसार वैश्विक वायु प्रदूषण का पर्यावरणीय असर वर्ष 2000 की तुलना में 30 प्रतिशत तक कम हो गया है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह एक अच्छी खबर है क्योंकि वायुवाहित सूक्ष्मकण या एयरोसोल से प्रति वर्ष कई लाख लोग मारे जाते हैं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के लिहाज़ से देखा जाए तो यह एक बुरी खबर है। लीपज़िग युनिवर्सिटी के जलवायु वैज्ञानिक जोहानेस क्वास के अनुसार स्वच्छ हवा ने उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड से होने वाली कुल वार्मिंग को 15 से 50 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है। यानी वायु प्रदूषण कम होने से तापमान में और अधिक वृद्धि हो रही है।
ब्लैक कार्बन या कालिख जैसे एयरोसोल गर्मी को अवशोषित करते हैं। दूसरी ओर, परावर्तक सल्फेट और नाइट्रेट कण ठंडक पैदा करते हैं। ये गाड़ियों के एक्ज़ॉस्ट, जहाज़ों के धुएं और ऊर्जा संयंत्रों की चिमनियों से निकलने वाली प्रदूषक गैसों में पाए जाते हैं। इन प्रदूषकों को कम या खत्म करने के लिए उत्तरी अमेरिका और युरोप से लेकर विकासशील देशों में प्रौद्योगिकियां विकसित हुई हैं। इसके नतीजे में पहली बार वर्ष 2010 में चीन में वायु प्रदूषण में गिरावट शुरू हुई। इसके अलावा, हाल के वर्षों में सल्फर उत्सर्जित करने वाले जहाज़ों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध भी लगा है।
एटमॉस्फेरिक केमिस्ट्री एंड फिज़िक्स प्रीप्रिंट में प्रकाशित पर्चे में उत्तरी अमेरिका और युरोप में एयरोसोल में गिरावट के संकेत दिए गए हैं लेकिन वैश्विक स्थिति नहीं उभरी है। क्वास और सहयोगियों का विचार था कि इस काम में नासा के उपग्रह टेरा और एक्वा सहायक सिद्ध हो सकते हैं। ये दोनों उपग्रह पृथ्वी पर आने वाले और बाहर जाने वाले विकिरण का हिसाब रखते हैं। इसकी सहायता से कई शोध समूहों को ग्रीनहाउस गैसों द्वारा अवरक्त ऊष्मा को कैद करने में वृद्धि की जानकारी प्राप्त हुई है। लेकिन एक्वा और टेरा पर लगे एक उपकरण ने परावर्तित प्रकाश में गिरावट दर्शाई। कुछ विशेषज्ञ परावर्तन में इस कमी के लिए कुछ हद तक एयरोसोल में कमी को ज़िम्मेदार मानते हैं।
क्वास और उनके सहयोगियों ने इस अध्ययन में टेरा और एक्वा पर लगे उपकरणों का उपयोग करते हुए एक और अध्ययन किया। उन्होंने आकाश में कुहरीलेपन को रिकॉर्ड किया जो एयरोसोल की मात्रा को दर्शाता है। क्वास के अनुसार वर्ष 2000 से लेकर 2019 तक उत्तरी अमेरिका, युरोप और पूर्वी एशिया पर कुहरीलेपन में काफी कमी आई जबकि कोयले पर निर्भर भारत में यह बढ़ता रहा। गौरतलब है कि एयरोसोल न केवल स्वयं प्रकाश को परावर्तित करते हैं बल्कि बादलों में भी परिवर्तन कर सकते हैं। ये कण नाभिक के रूप में कार्य करते हैं जिस पर जलवाष्प संघनित होती है। प्रदूषण के कण बादल की बूंदों के आकार को छोटा करते हैं और उनकी संख्या में वृद्धि करते हैं जिससे बादल अधिक परावर्तक बन जाते हैं। ऐसे में यदि प्रदूषण को कम किया जाता है तो यह प्रभाव उलट जाता है। टीम ने पाया कि बादल की बूंदों की सांद्रता में कमी उन्हीं क्षेत्रों में आई है जहां एयरोसोल की मात्रा में गिरावट हुई है।
कुछ अन्य अध्ययनकर्ताओं के अनुसार अभी सटीकता से नहीं बताया जा सकता कि एयरोसोल में कमी से ग्लोबल वार्मिंग में कितनी वृद्धि हुई है क्योंकि दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में विविधता इतनी अधिक है।
ज़ाहिर है कि समस्या का हल यह नहीं है कि वायु प्रदूषण को बढ़ावा दिया जाए। वायु प्रदूषण से हर वर्ष कई लोगों की जान जाती है। बल्कि आवश्यकता इस बात है कि वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के प्रयासों को गति दी जाए।
पूर्व-औद्योगिक समय की तुलना में पृथ्वी वर्तमान में 1.2 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो चुकी है और 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिए उत्सर्जन में तेज़ी से कटौती की उम्मीद काफी कम है। इसलिए समाधान के रूप में कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि सोलर जियोइंजीनियरिंग के माध्यम से सल्फेट कणों को समताप मंडल में फैलाया जाए ताकि एक वैश्विक परावर्तक कुहरीलापन निर्मित हो जाए। इस विचार को लेकर काफी विवाद है लेकिन कुछ लोगों को लगता है कि इसे एक अंतरिम उपाय के रूप में देखा जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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जिस तेज़ी से औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से भूमि को बेकार बनाया जा रहा है वह चिंता का विषय है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व में भूमि एक सीमित संसाधन है यानी भूमि बढ़ाई नहीं जा सकती। सीमित होते हुए भी भूमि को वेस्टलैंड बनने देना या बेकार पड़े रहने देना गंभीर लापरवाही है।
वर्ष 2004 में आधिकारिक तौर पर हमारे देश के कुल क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत से अधिक (करीब 6.3 करोड़ हैक्टर) क्षेत्र वेस्टलैंड के रूप चिंहित किया गया था। संभव है अब यह आंकड़ा बढ़ गया हो। वेस्टलैंड पर न तो खेती हो सकती है और न ही प्राकृतिक रूप से जंगल और वन्य जीव पनप पाते हैं। और न ही कोई अन्य उपयोगी कार्य हो पाता।
वेस्टलैंड अनेक कारणों से अस्तित्व में आती है। जिसमें प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों कारण शामिल हैं। उदाहरण के लिए बंजर भूमि, खनन उद्योग के कारण जंगलों का विनाश एवं परित्यक्त उबड़-खाबड़ खदानें, अकुशल या अनुचित ढंग से सिंचाई, अत्यधिक कृषि, जलभराव, खारा जल, मरुस्थल और रेत के टीलों का स्थान परिवर्तन, पर्वतीय ढलान, घाटियां, चारागाह का अत्यधिक उपयोग एवं विनाश, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, औद्योगिक कचरे एवं मल निकासी का जमाव, मिट्टी का क्षरण, जंगलों का विनाश वगैरह।
तो सवाल है कि क्या वेस्टलैंड को उपजाऊ बनाया जा सकता है? इसका जवाब मध्य अमेरिका में कैरेबियाई क्षेत्र के एक देश कोस्टा रिका में हुए एक बहुत ही आसान किंतु अनोखे ‘प्रयोग’ के नतीजे में देखा जा सकता है। वास्तव में यह बीच में छोड़ दिया गया एक अधूरा प्रयोग था। इसके बावजूद लगभग दो दशकों बाद प्रयोग स्थल का दृश्य पूर्णतः बदल चुका था।
दरअसल वर्ष 1997 में दो शोधकर्ताओं के मन में एक विचार उपजा और उन्होंने एक जूस कंपनी से संपर्क कर उसके सामने एक प्रायोगिक परियोजना का प्रस्ताव रखा। इसके तहत एक नेशनल पार्क से सटे क्षेत्र की बेकार पड़ी भूमि पर कंपनी को संतरे के अनुपयोगी छिलके फेंकने थे और वह भी बिना किसी लागत के। कंपनी इस बंजर भूमि पर 12,000 टन बेकार छिलके डालने के लिए सहर्ष तैयार हो गई। उसने वहां 1000 ट्रक संतरे के छिलके डाल भी दिए। जल्द ही इसके नतीजे दिखाई देने लगे। संतरे के छिलके छः माह में काली मिट्टी में बदलने लगे। बंजर भूमि उपजाऊ बनने लगी। वहां जीवन पनपने लगा।
इस बीच एक प्रतियोगी जूस कंपनी ने आपत्ति उठाते हुए अदालत में मुकदमा दायर कर दिया – कहना था कि छिलके डालकर वह कंपनी पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही है। अदालत ने इस तर्क को स्वीकर करके जो फैसला सुनाया उसके कारण यह प्रायोगिक परियोजना बीच में ही रोकनी पड़ी। इसके बाद वहां और छिलके नहीं डाले जा सके। अगले 15 साल डाले जा चुके छिलके और यह स्थान एक भूले-बिसरे स्थान के रूप में पड़ा रहा।
फिर 2013 में जब एक अन्य शोधकर्ता अपने किसी अन्य शोध के सिलसिले में कोस्टा रिका गए तब उन्होंने इस स्थल के मूल्यांकन का भी निर्णय लिया। घोर आश्चर्य! वे दो बार वहां गए लेकिन बहुत खोजने पर भी उन्हें वहां वेस्टलैंड जैसी कोई चीज़ नहीं मिली। कभी बंजर रहा वह भू-क्षेत्र घने जंगल में तबदील हो चुका था और उसे पहचान पाना असंभव था।
इसके बाद, आसपास के क्षेत्र और उस नव-विकसित वन क्षेत्र का तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चला कि उस नव-विकसित वन क्षेत्र की मिट्टी कहीं अधिक समृद्ध थी और वृक्षों का बायोमास भी अधिक था। इतना ही नहीं, वहां वृक्षों की प्रजातियां भी अधिक थी। गुणवत्ता का यह अंतर एक ही उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि वहां अंजीर के एक पेड़ का घेरा इतना बड़ा था कि तीन व्यक्ति मिलकर हाथ से उसे बमुश्किल घेर पाते थे। और इतना सब कुछ जैविक कचरे की बदौलत सिर्फ 15-20 सालों में अपने आप हुआ था!
सोचने वाली बात है कि जब यह अधूरा प्रयास ही इतना कुछ कर गया तो यदि नियोजित ढंग से किया जाए तो अगले 25 सालों में कितनी वेस्टलैंड को सुधार कर प्रकृति, पारिस्थितिकी, पर्यावरण आदि को सेहतमंद बनाए रखने की दिशा में कार्य किया जा सकता है। जैविक कचरा (जिसे गीला कचरा कहते हैं) एक बेकार चीज़ न रहकर उपयोगी संसाधन हो जाएगा, विशाल मात्रा में उसका सतत निपटान संभव हो जाएगा, मिट्टी उपजाऊ होगी और वेस्टलैंड का सतत सुधार होता जाएगा। प्राकृतिक रूप से बेहतर गुणवत्तापूर्ण, जैव-विविधता समृद्ध घने जंगल पनपने लगेंगे। वन्य जीव भी ऐसी जगह पनप ही जाएंगे। वायु की गुणवत्ता सुधरना और वातावरण का तापमान घटना लाज़मी है। घने जंगल वर्षा को आकर्षित करेंगे। भू-जल भंडार और भूमि की सतह पर जल स्रोत समृद्ध होंगे। कुल मिलाकर पर्यावरण समृद्ध होगा।
चूंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहां बड़े पैमाने पर अनाजों, दालों, सब्ज़ियों और फलों की पैदावार और खपत होती है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए घरों, खेतों, उद्योगों आदि से गीला कचरा प्रतिदिन भारी मात्रा में निकलता है जिसका इस्तेमाल वेस्टलैंड पुनरुत्थान में किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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क्या यह संभव है मिट्टी में कुछ किस्म के कवक यानी फफूंद रोपकर पेड़ों को तेज़ी से वृद्धि करने में मदद दी जाए और फिर ये तेज़ी से वृद्धि करते पेड़ वातावरण से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखकर जलवायु परिवर्तन को धीमा करें? नवगठित सोसाइटी फॉर दी प्रोटेक्शन ऑफ अंडरग्राउंड नेटवर्क्स (SPUN) के शोधकर्ता इस सवाल का जवाब पाने की कोशिश कर रहे हैं।
दरअसल SPUN के सह-संस्थापक व कवक विज्ञानी कॉलिन एवेरिल का यह प्रयास पूर्व में हुए एक अध्ययन से प्रेरित है। उस अध्यनन से पता चला था कि उचित कवक वनस्पतियों की वृद्धि को बढ़ा सकते हैं। जनवरी में इंटरनेशनल सोसायटी फॉर माइक्रोबियल इकॉलॉजी (ISME) के जर्नल में प्रकाशित एक पेपर में एवरिल और उनके साथियों ने बताया था कि युरोप के विभिन्न जंगलों में वृक्षों की वृद्धि दर में तीन गुना तक अंतर हो सकता है और यह अंतर उनके साथ उगने वाली फफूंद पर निर्भर करता है।
लेकिन सवाल यह है कि कितनी मात्रा में कवक पौधों को सुपरचार्ज कर सकते हैं? कंपनियां लंबे समय से जड़-फफूंद (माइकोराइज़ा) बेचती रही हैं जिसे बागवान जड़ों पर लगा सकते हैं। लेकिन इस तरह के व्यावसायिक मिश्रण विशिष्ट पेड़ प्रजातियों या स्थानों के लिए नहीं बनाए जाते, और इस बात के प्रमाण बहुत कम उपलब्ध हैं कि वे सचमुच वृद्धि में मदद करते हैं। वृद्धि के लिए ज़रूरी है कि उचित स्थान पर उचित जीव जोड़े जाएं।
युनाइटेड किंगडम में वेल्स में जारी वृक्षारोपण प्रयोग इसी परिकल्पना का परीक्षण कर रहा है। 2021 के वसंत में दक्षिण-पश्चिमी वेल्स के एक विरान चारागाह में एवेरिल ने एक वानिकी कंपनी की मदद से 11 हैक्टर के क्षेत्र में 25,000 पेड़ लगाए। इसमें उन्होंने यू.के. की इमारती लकड़ी के वृक्ष सिटका स्प्रूस और कुछ स्थानीय पतझड़ी वृक्ष रोपे। इसके बाद आधे नवांकुरों की जड़ों में जड़-फफूंद जोड़ी जो इसी तरह के पुराने जंगल से प्राप्त की गई थी, यह कवक पौधों की जड़ों से जुड़कर पौधों को पोषक तत्व प्राप्त करने में मदद करती है। शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि क्या कवक-युक्त पेड़ कवक-रहित पेड़ों की तुलना में तेज़ी से बढ़ते हैं और अधिक कार्बन अवशोषित करते हैं। इसी तरह का एक परीक्षण मेक्सिको के युकाटन में चल रहा है, और आयरलैंड में भी इसी तरह के परीक्षण की तैयारी है।
अप्रैल में पेड़ों को मापने पर पता चला कि कवक-युक्त पौधे कवक-रहित पौधों की तुलना में तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हालांकि अभी यह अध्ययन जारी है और एक और वर्ष के अवलोकन के बाद आंकड़े प्रकाशित करने की योजना है। आगे ऐसे ही परीक्षण अन्य वृक्षों पर भी किए जाएंगे। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://assets.weforum.org/editor/3vVYAQ2lKu-RvcnMr8XZdzQIwa-rEo-rCDG1PMHy0MM.PNG
FILE – A woman carries a bucket on her head as she wades through floodwaters in the village of Wang Chot, Old Fangak county, Jonglei state, South Sudan on Nov. 26, 2020. A petition to stop the revival of the 118-year-old Jonglei Canal project in South Sudan, started by one of the country’s top academics, is gaining traction in the country, with the waterway touted as a catastrophic environmental and social disaster for the country’s Sudd wetlands. (AP Photo/Maura Ajak, File)
धरती को गर्म करने के मामले में मीथेन भी कार्बन डाईऑक्साइड से कुछ कम नहीं है। मीथेन पृथ्वी के बढ़ते तापमान में एक तिहाई वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार है। वर्ष 2006 लेकर अब तक मीथेन उत्सर्जन में 7 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यह काफी हैरानी की बात है कि महामारी के दौरान तेल और गैस उत्पादन में कमी के बावजूद पिछले दो वर्षों में यह वृद्धि सबसे अधिक देखने को मिली है। तो यह मीथेन कहां से आई?
शोधकर्ताओं का ख्याल है कि इसका स्रोत उष्णकटिबंधीय वेटलैंड्स (नमभूमि) के सूक्ष्मजीव हैं। और बुरी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में वृद्धि इसे बढ़ा रही है।
अधिकांश जलवायु वैज्ञानिक सहमत हैं कि 2006 के बाद मीथेन के स्तर में वृद्धि के लिए जीवाश्म ईंधन ज़िम्मेदार नहीं हैं। कारण? यह देखा गया है कि वायुमंडलीय मीथेन में कार्बन के हल्के आइसोटोप यानी कार्बन-12 की मात्रा काफी अधिक हो गई है। इसीलिए सूक्ष्मजीवों को इस मीथेन के स्रोत के रूप में देखा जा रहा है। ये सूक्ष्मजीव उन रासायनिक क्रियाओं को तरजीह देते हैं जिनमें कार्बन के हल्के समस्थानिक (कार्बन-12) का इस्तेमाल होता है और इस प्रकार से इनके द्वारा उत्पन्न मीथेन पहचानी जा सकती है।
हालांकि कार्बन के इस समस्थानिक के आधार पर यह नहीं बताया जा सकता कि ये सूक्ष्मजीव नमभूमि के हैं, भराव स्थलों के हैं या मवेशियों की आंत के। लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में तेज़ जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए कई शोधकर्ताओं का मानना है कि इन क्षेत्रों में पशुपालन और भराव स्थल का मिला-जुला असर 2006 के बाद मीथेन में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार है।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मीथेन की मात्रा में तीव्र वृद्धि को देखते हुए शोधकर्ताओं को किसी अन्य स्रोत की भी आशंका थी। शोधकर्ताओं ने दक्षिण सूडान स्थित सड के दलदली क्षेत्र का का अध्ययन जापान के ग्रीनहाउस गैसेस ऑब्ज़रवेशन सेटेलाइट की मदद से किया जो मीथेन द्वारा अवशोषित अवरक्त प्रकाश की मात्रा का मापन करता है।
इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि सड क्षेत्र 2019 के बाद से मीथेन उत्सर्जन का हॉटस्पॉट बन गया है जो प्रति वर्ष 1.3 करोड़ टन अतिरिक्त मीथेन वातावरण में उड़ेल रहा है। यह मात्रा कुल वैश्विक मीथेन उत्सर्जन के 2 प्रतिशत से भी अधिक है।
इसके अलावा हारवर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन में भी इसी प्रकार के नतीजे सामने आए हैं। यदि इन परिणामों को अमेज़ॉन और उत्तर में स्थित जंगलों से होने वाले उत्सर्जन के साथ जोड़ा जाए तो मीथेन की मात्रा में अधिकांश अतिरिक्त वृद्धि की व्याख्या हो जाती है।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन मीथेन उत्सर्जन की गति को निर्धारित कर सकता है। पूर्व में शोधकर्ताओं ने 2010 से 2019 तक पूर्वी अफ्रीका के मीथेन उत्सर्जन को हिंद महासागर के तापमान पैटर्न से जोड़कर देखा था। ऐसा अनुमान है कि लगातार बढ़ते तापमान के चलते अधिक लंबी अवधियों तक, और अधिक वर्षा होगी। यदि ऐसा हुआ तो सड के क्षेत्र से अधिक मीथेन उत्सर्जन होगा जो वातावरण को अधिक गर्म करेगा और वर्षा में भी वृद्धि होगी। यह एक पॉज़िटिव फीडबैक लूप की तरह चलता रहेगा। एक बड़ी चुनौती इस फीडबैक लूप को नियंत्रित करना है।
शोधकर्ताओं ने पिछले दो वर्षों में मीथेन उत्सर्जन में उछाल की अन्य संभावित व्याख्याएं प्रस्तुत करने के प्रयास किए हैं। एक कारण यह लगता है कि वाहनों के कम चलने के कारण मीथेन का विनाश कम हुआ है। कार्बन डाईऑक्साइड कई सदियों तक वातावरण में बनी रहती है। इसके विपरीत मीथेन 12-13 वर्ष ही टिकती है जिस दौरान वातावरण में मौजूद हाइड्रॉक्सिल (OH) मूलक उसे हवा से हटा देते हैं। ये OH रेडिकल जीवाश्म ईंधन से पैदा होने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स से उत्पन्न होते हैं। महामारी के दौरान यातायात और उद्योगों में जीवाश्म ईंधन के कम उपयोग से नाइट्रोजन ऑक्साइड्स की मात्रा कम हुई, नतीजतन OH की कमी हुई और मीथेन को टिकने का मौका मिला। अलबत्ता, हारवर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के मॉडल के अनुसार महामारी के दौरान OH में कमी का मीथेन पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ा है।
गौरतलब है कि 2021 में 100 से अधिक देशों ने ग्लोबल मीथेन संकल्प पर हस्ताक्षर किए थे जिसका उद्देश्य 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत तक कम करना था। कई वैज्ञानिकों ने तो हवा से मीथेन को हटाने का प्रस्ताव भी रखा है। लेकिन ये प्रयास वेटलैंड से निकलने वाले उत्सर्जन को नियंत्रित नहीं कर सकते। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.add9316/full/_20220715_nid_sudd.jpg
जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना अनिवार्य है। लेकिन कोयले से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है। इसका एक कारण वैश्विक रणनीतियों का राष्ट्रीय वास्तविकताओं के अनुकूल न होना है।
कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों से प्राकृतिक गैस की तुलना में प्रति युनिट दुगना कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन होता है। वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार विश्व में बिजली उत्पादन में कोयला एक-तिहाई और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 26 प्रतिशत योगदान देता है। अधिकांश विश्लेषणों के अनुसार 2015 के पेरिस संधि के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए 2030 तक कोयले का उपयोग 30-70 प्रतिशत तक कम करना होगा।
कोयले के उपयोग में कटौती को कई औद्योगिक देशों ने अपने राजनीतिक अजेंडा में शामिल किया है, जबकि अधिकांश कम और मध्यम आय वाले देश अभी भी इसे आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान ऊर्जा मांग में कमी के चलते 2019 से 2020 के बीच कोयले से बिजली उत्पादन में 4 प्रतिशत की कमी आई थी जो 2021 में 9 प्रतिशत बढ़ गई। कुछ अन्य घटनाओं ने भी बिजली उत्पादन में कोयले के उपयोग को बढ़ाया है। हालिया रूस-यूक्रेन युद्ध ने प्राकृतिक-गैस की आपूर्ति को खतरे में डाल दिया है। जर्मनी सहित कई देशों ने कोयले के उपयोग को एक अंतरिम उपाय माना है। गैस की बढ़ती कीमतें एशिया में कोयले के उपयोग को बढ़ा सकती हैं।
फिलहाल दुनिया में 2429 कोयला आधारित बिजली संयंत्र (क्षमता>2000 गीगावाट) सक्रिय हैं। वर्ष 2017 से 2022 तक कोयला-आधारित बिजली उत्पादन में 110 गीगावाट की वृद्धि हुई है। यदि मौजूदा और निर्माणाधीन संयंत्रों का संचालन आगामी 40 वर्षों तक जारी रहा तो तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री की सीमा में रखने के लिए उत्सर्जन को पटरी पर रखने के बजट का 60-70 प्रतिशत खर्च हो जाएगा। इस मुद्दे पर त्वरित कार्यवाही आवश्यक है। कोयले के उपयोग को तब तक कम नहीं किया जा सकता जब तक विश्व समुदाय अपने लक्ष्य राजनैतिक वास्तविकताओं के अनुरूप निर्धारित नहीं करता।
इस संदर्भ में शोधकर्ताओं ने 2018 से 2020 तक 15 प्रमुख देशों की केस स्टडी की जहां विश्व के 84 प्रतिशत कोयला संयंत्र और 83 प्रतिशत नए कोयला संयंत्र मौजूद हैं। प्रत्येक केस स्टडी के लिए शोधकर्ताओं ने नीति निर्माताओं, विश्लेषकों, शिक्षाविदों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ कई साक्षात्कार किए। इस आधार पर उन्होंने कोयला-आधारित संयंत्रों का संचालन करने या भविष्य में ऐसा करने वाली सभी अर्थव्यवस्थाओं का 4 श्रेणियों में वर्गीकरण किया:
1. फेज़-आउट देश जो चरणबद्ध तरीके से कोयले पर निर्भरता को कम करने का प्रयास कर रहे हैं।
2. स्थापित कोयला उपयोगकर्ता
3. फेज़-इन देश जो वर्तमान में तो कोयले पर निर्भर नहीं है लेकिन काफी तेज़ी से नए कोयला संयंत्रों का निर्माण कर रहे हैं।
4. निर्यातोन्मुख देश
प्रत्येक श्रेणि की अपनी-अपनी राजनीतिक चुनौतियां हैं।
कोयले से निपटने के लिए कभी-कभी ऐसा माना जाता है कि उच्च कार्बन मूल्य या कोयले पर सब्सिडी हटाना प्रभावी हो सकता है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। मज़बूत कानूनी ढांचे और पूंजी की सुलभता वाली अर्थव्यवस्थाओं में तो इन परिस्थितियों में अक्षय ऊर्जा कोयले से टक्कर ले सकती है। लेकिन कई अन्य क्षेत्रों में ऊर्जा की नई प्रणालियों को अपनाने के लिए वित्तीय और बौद्धिक पूंजी की कमी है। कई अन्य ऐसे मुद्दे भी हैं जो सब्सिडी में सुधार या उत्सर्जन शुल्क लागू करने के प्रयासों को कमज़ोर करते हैं।
जैसा कि पहले बताया गया है, चारों श्रेणियों की अपनी-अपनी चुनौतियां है और सभी में प्रभावी परिवर्तन के लिए कुछ विशिष्ट नीतिगत प्राथमिकताओं की ज़रूरत है। हर जगह एक-सी नीतियां काम नहीं करेंगी।
हालांकि चीन इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वहां दुनिया की आधी मौजूदा अथवा प्रस्तावित कोयला क्षमता है लेकिन यदि कई अन्य फेज़-इन देश कोयले को अपनाते रहे तो जल्दी ही वे उत्सर्जन के मामले में चीन और भारत को पीछे छोड़ देंगे।
फेज़-आउट अर्थव्यवस्थाएं
कोयले को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चिली, जर्मनी, यू.के. और यू.एस.ए. शामिल हैं। फेज़-आउट श्रेणि में अधिकांश देश उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाएं हैं। इनके पास अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में तथा ऊर्जा दक्षता बढ़ाने पर निवेश करने के लिए भरपूर वित्तीय, तकनीकी और संस्थागत क्षमताएं हैं। फिलहाल इन देशों में कोयला आधारित संयंत्रों की कुल क्षमता 360 गीगावाट है जो 2030 तक एक चौथाई हो जाना चाहिए।
लेकिन सवाल यह है कि ये देश इस स्तर पर कैसे पहुंच पाए हैं? यू.के. में युरोपियन युनियन एमिशन ट्रेडिंग स्कीम में प्रचलित कार्बन मूल्य के अलावा बिजली और उद्योग क्षेत्रों में काफी प्रभावी ढंग से कार्बन लेवी को लागू किया गया। जर्मनी में एक उच्च स्तरीय आयोग ने कोयले के उपयोग को खत्म करने के लिए कोयला और बिजली कंपनियों को 42 अरब अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया ताकि वे 2038 तक चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को पूरी तरह खत्म कर सकें। इसके अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका में ड्रिल टेक्नॉलॉजी के चलते प्राकृतिक गैस की कीमतों में कमी के अलावा पवन और सौर उर्जा की लागत में भी तेज़ी से गिरावट हुई। इसका नतीजा यह रहा कि कोयला उद्योग को राजनीतिक समर्थन मिलने के बाद भी कोयले का उपयोग काफी तेज़ी से कम हुआ। वर्ष 2007 में सर्वाधिक उपयोग की तुलना में वर्तमान में कोयले का उपयोग लगभग आधा है। इसी तरह 2040 तक कोयला उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए चिली ने उच्च सौर क्षमता का फायदा उठाते हुए गैस और कोयले के अस्थिर आयात से स्वयं को सुरक्षित रखा।
यदि इन फेज़-आउट देशों में यह गिरावट जारी रही, तो भी 2030 तक 90 गीगावाट बिजली का उत्पादन कोयले से ही होगा। इससे होने वाला उत्सर्जन 7.5 करोड़ कारों के उत्सर्जन के बराबर होगा। इन परिवर्तनों में तेज़ी लाने से उत्सर्जन में कटौती होगी और नवाचार को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए अनुसंधान और स्वच्छ उर्जा के प्रसार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की आवश्यकता होगी। इसके अलावा कोयले पर निर्भर देशों को आय के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध कराने होंगे। कोयले पर दी जा रही सब्सिडी को खत्म करके उसे स्वच्छ ऊर्जा उत्पादकों की ओर मोड़ना होगा।
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को खत्म किया जा सकता है। जैसे, युरोपीय संघ में कार्बन-उत्सर्जन की बढ़ती कीमतों के चलते कोयले के उपयोग को खत्म करने की संभावना बुल्गारिया जैसे अन्य देशों में भी है जहां इसे लेकर कोई विशिष्ट योजना नहीं है। देशों की दृढ़ अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं सरकारों की जवाबदेही को बढ़ा सकती हैं।
स्थापित उपयोगकर्ता
चीन, भारत और तुर्की जैसे स्थापित कोयला उपयोगकर्ता मध्यम आय वाले देश हैं जहां काफी विकास हुआ है और गरीबी में कमी आई है। इन देशों में ऊर्जा की मांग में वृद्धि को पूरा करने के लिए कोयला आधारित संयंत्र लगाए गए जिनमें कम पूंजी की आवश्यकता होती है।
गौरतलब है कि इन देशों में सरकार ऊर्जा व बिजली बाज़ार पर नियंत्रण रखती हैं। ऐसे में यहां अक्षय उर्जा की घटती लागत का ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। कोयले की पूरी शृंखला – खनन, परिवहन, बिजली उत्पादन और वित्त – पर अधिकांशत: राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों का वर्चस्व है। कुछ निहित स्वार्थ भी कोयले आधारित संयंत्रों को बढ़ावा देते हैं।
इनमें से कई देशों में कोयला अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है। भारत में 1.5 करोड़ नौकरियां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोयले से जुड़ी हैं। इन देशों की नीतियों में कुछ ऐसे सुधारों की आवश्यकता है जो निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचार पर नज़र रखें, ऊर्जा क्षेत्र पर राज्य के नियंत्रण को कम करें और वैकल्पिक उर्जा प्रणालियों के उपयोग को बढ़ावा दें। इन देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर और श्रम बल को विकसित करने में निवेश करने की आवश्यकता है ताकि विनिर्माण और आईटी सेवाओं को सहारा मिले।
इसके अलावा लौह, इस्पात और सीमेंट उत्पादन सहित ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण के समझौतों के चलते उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को औद्योगिक देशों के बाज़ारों तक पहुंच बनाने में मदद मिलेगी जो हरित सामग्री खरीदने का दबाव बनाते हैं।
फेज़-इन देश
पाकिस्तान और वियतनाम जैसे देश कोयला आधारित बिजली उत्पादन में काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। इन देशों में प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत कम है जबकि ऊर्जा की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है। जैसे, वियतनाम में प्रति वर्ष ऊर्जा मांग में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है और भविष्य में 56 नए संयंत्र स्थापित करने की योजना है।
बिजली के किफायती दाम, सुरक्षा और विश्वसनीयता राजनीतिक अजेंडा में हमेशा से महत्वपूर्ण रहे हैं। राज्य द्वारा नियंत्रित ऊर्जा की कीमतें बिजली कंपनियों को कर्ज़ में डुबा सकती हैं जिससे उनके पास कोयले के विकल्प आज़माने का मौका ही नहीं रहेगा। हालांकि फेज़-इन देशों में आम तौर पर कोयले से जुड़े निहित स्वार्थों की कमी होती है लेकिन फिर भी उन्हें अनुचित लाभ मिल सकता है।
वैसे, फेज़-इन राष्ट्रों के लिए अक्षय ऊर्जा संयंत्रों के लिए उच्च पूंजीगत लागत और निवेश करना काफी जोखिम भरा हो सकता है। अपर्याप्त विकसित बिजली ग्रिड में घटती-बढ़ती नवीकरणीय उर्जा को समायोजित करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ सकता है। इसलिए ऊर्जा प्रबंधक अक्षय ऊर्जा को लेकर शंकित रहते हैं। जैसे वियतनाम के पास अनिरंतर सौर व पवन आधारित ऊर्जा प्रणालियों के प्रबंधन क्षमता नहीं है। फिर भी वियतनाम 2019 में दक्षिण पूर्वी एशिया में सौर उर्जा का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस तरह के उदाहरणों से अन्य देश भी प्रेरित होते हैं। अलबत्ता, वियतनाम में वेन थी कान जैसे पर्यावरण कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी इन कदमों के प्रतिरोध की ताकत दर्शाती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय वित्त और आज़माइशी प्रोजेक्ट इन बाधाओं को कम कर सकते हैं। पिछले वर्ष नवंबर में एशियन डेवलपमेंट बैंक ने एशिया में कोयला संयंत्रों और खानों को खरीदने की योजना तैयार की थी। इस योजना को फिलिपींस में पायलट परियोजना की तरह शुरू किया गया था ताकि इन संयंत्रों और खानों को उनके अनुमानित अंत से पहले बंद किया जा सके। इस प्रकार की खरीदारी से ग्रिड क्षमता और भंडारण सहित अन्य विकल्पों में निवेश के लिए पूंजी हासिल होती है। यह ऊर्जा स्थानांतरण के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं।
कोयला निर्यातक
ऑस्ट्रेलिया, कोलंबिया, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका सहित निर्यातकों की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताएं काफी विविध हैं। इनमें से ऑस्ट्रेलिया की प्रति व्यक्ति आय काफी अधिक है जबकि इंडोनेशिया की काफी कम है। दक्षिण अफ्रीका अपने द्वारा खनन किए गए कोयले के एक बड़े हिस्से की स्वयं खपत करता है जबकि कोलंबिया अधिकांश उत्पादित कोयले का निर्यात करता है।
इन सब देशों में एक समानता यह है कि ये सभी बड़े पैमाने पर कोयले का उत्पादन करते हैं। इन देशों को कोयले से मिलने वाला राजस्व कुल जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा है। उदाहरण के लिए कोयला निर्यात इंडोनेशिया के सार्वजनिक बजट का लगभग 5 प्रतिशत है। ऐसा देखा गया है कि कोयला रॉयल्टी पर अत्यधिक निर्भरता के चलते कोयला खनन के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने में काफी समय लगता है।
कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए यहां कुछ विशिष्ट तरीके अपनाना होगा। कोयला आधारित रोज़गार से जुड़े लोगों को किसी अन्य आर्थिक गतिविधि में लगाना होगा। इस विषय में ऑस्ट्रेलिया में सौर ऊर्जा चालित हाइड्रोजन निर्यात अर्थव्यवस्था काफी भरोसेमंद लगती है। इंडोनेशिया जैसे अन्य देशों में विकल्पों की संभावना कम है लेकिन इसमें कपड़ा और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की फिटिंग जैसे श्रम-बहुल उद्योगों को शामिल किया जा सकता है।
इनमें से कई देशों के लिए कोयले पर आर्थिक निर्भरता का मतलब है कि यहां कार्बन के मूल्य निर्धारण और इसी तरह के उपायों की क्षमता सीमित है। उदाहरण के लिए इंडोनेशिया ने हाल ही में बहुत कम कार्बन मूल्य का निर्धारण किया लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण कोयले को इससे छूट दी गई। जुलाई में शुरू होने वाली उत्सर्जन-ट्रेडिंग योजना में कोयले को भी शामिल करना प्रस्तावित है लेकिन इस योजना में काफी खामियां हैं। पूर्व में जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी में सुधार के प्रयासों ने कभी-कभी हिंसक विरोध का रूप भी लिया है।
इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय प्रयास आवश्यक हैं। पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यू.के, यू.एस.ए, युरोपीय संघ, फ्रांस और जर्मनी ने दक्षिण अफ्रीका में डीकार्बनीकरण और स्वच्छ-उर्जा के लिए 8.5 अरब डॉलर उपलब्ध कराने की पेशकश की थी। देखना यह है कि क्या यह पेशकश साकार रूप लेती है।
आगे का रास्ता
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हर श्रेणि के लिए महत्वपूर्ण है। कई देशों के लिए इसे अकेले कर पाना संभव नहीं है। जो अर्थव्यवस्थाएं पहले से ही कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का प्रयास कर रही हैं वे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों से अपने संकल्पों को और मज़बूत कर सकती हैं और अन्य देशों को प्रौद्योगिकी, वित्त और क्षमता निर्माण के रूप में सहायता कर सकती हैं। फेज़-इन देशों को नवीकरणीय ऊर्जा, ग्रिड क्षमता और भंडारण सुविधाओं के लिए वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। स्थापित कोयला उपयोगकर्ता स्टील और कांक्रीट जैसे ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण वाले समझौतों से सबसे बड़ा लाभ प्राप्त कर सकते हैं और स्वच्छ ऊर्जा उत्पादों के लिए बाज़ार तैयार कर सकते हैं। निर्यात पर निर्भर देशों को गैर-खनन गतिविधियों में स्थानांतरण के लिए सहायता प्रदान की जानी चाहिए।
देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए सभी आवश्यक तत्व पहले से उपस्थित हैं। जी-7 और जी-20 जैसे महत्वपूर्ण कार्बन उत्सर्जक देश युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के साथ वार्ता में तेज़ी लाने में सहयोग कर सकते हैं। पूर्व में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो 100 अरब डॉलर के संकल्प लिए गए थे, उन्हें फेज़-आउट रणनीतियों पर लक्षित किया जाना चाहिए। वास्तव में कोयला छोड़कर स्वच्छ विकल्पों की ओर जाना संभव है लेकिन इसके लिए वैश्विक समुदाय को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार नीतियों को परिभाषित करना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-022-01828-3/d41586-022-01828-3_23214676.jpg
देश-दुनिया में वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर के मद्देनज़र यह माना जाता रहा है कि इलेक्ट्रिक वाहन वायु प्रदूषण में न के बराबर योगदान देते हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि एक अध्ययन में पता चला है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को दौड़ाकर भी हम अपने देश में सिर्फ 20 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कम कर पाएंगे, क्योंकि देश में 70 फीसदी बिजली कोयले से बनाई जा रही है। शोध बताता है कि इलेक्ट्रिक कारों को हम जितना ईको-फ्रेंडली समझते हैं, दरअसल ये उतनी हैं नहीं।
सोसायटी ऑफ रेयर अर्थ के मुताबिक एक इलेक्ट्रिक कार बैटरी बनाने में इस्तेमाल होने वाले 57 कि.ग्रा. कच्चे माल (8 कि.ग्रा. लीथियम, 35 कि.ग्रा. निकल, 14 कि.ग्रा. कोबाल्ट) को ज़मीन से निकालने में 4275 कि.ग्रा. एसिड कचरा व 57 कि.ग्रा. रेडियोसक्रिय अवशेष पैदा होता है। इसके अलावा, ऑस्ट्रेलिया में हुआ शोध कहता है कि 3300 टन लीथियम कचरे में से 2 फीसदी ही रिसायकिल हो पाता है, 98 फीसदी प्रदूषण फैलाता है। शोध में यह भी पाया गया कि लीथियम को ज़मीन से निकालने से पर्यावरण तीन गुना ज़्यादा ज़हरीला हो जाता है।
लीथियम दुनिया की सबसे हल्की धातु है। यह बहुत आसानी से इलेक्ट्रॉन छोड़ती है। इसी कारण इलेक्ट्रिक वाहन की बैटरी में इसका सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है। हरित ईंधन कहकर लीथियम का महिमामंडन हो रहा है, पर इसे ज़मीन से निकालने से पर्यावरण तीन गुना ज़्यादा ज़हरीला होता है। लीथियम की 98.3 फीसदी बैटरियां इस्तेमाल के बाद गड्ढों में गाड़ दी जाती हैं। पानी के संपर्क में आने से इसका रिएक्शन होता है और आग लग जाती है। बता दें कि अमेरिका के पैसिफिक नॉर्थवेस्ट के एक गड्ढे में जून 2017 से दिसंबर 2020 तक इन बैटरियों से आग लगने की 124 घटनाएं हुईं, जो वाकई चिंताजनक है। ऐसे में यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को जितना इको-फ्रेंडली समझते आ रहे हैं, उतने हैं नहीं।
इसके अलावा, विद्युत वाहन बनाने में 9 टन कार्बन निकलता है, जबकि पेट्रोल में यह 5.6 टन है। विद्युत वाहन में 13,500 लीटर पानी लगता है, जबकि पेट्रोल कार में यह करीब 4 हज़ार लीटर है। यदि विद्युत वाहन को कोयले से बनी बिजली से चार्ज करें, तो डेढ़ लाख कि.मी. चलने पर पेट्रोल कार के मुकाबले 20 फीसदी ही कम कार्बन निकलेगा।
आज दुनिया का हर देश कोयले से बिजली उत्पादन कर इलेक्ट्रिक वाहन चलाकर कार्बन उत्सर्जन कम करने का ख्वाब देख रहा है तो स्वाभाविक तौर पर यह ख्वाब अधूरा रहने वाला है। इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग उसी देश में बेहतर है जहां बिजली का उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों से ज़्यादा किया जाता हो।
भारत में 70 फीसदी बिजली कोयले से ही बन रही है। ऐसे में भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग फायदेमंद नहीं है। उल्लेखनीय है कि पेट्रोल कार प्रति कि.मी. 125 ग्राम और कोयले से तैयार बिजली से चार्ज होने वाली इलेक्ट्रिक कार प्रति कि.मी. 91 ग्राम कार्बन पैदा करती है। इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन के मुताबिक युरोप में विद्युत वाहन 69 फीसदी कम कार्बन उत्सर्जन करते हैं क्योंकि यहां लगभग 60 फीसदी बिजली नवीकरणीय स्रोतों से बनती है।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि दुनिया भर की सभी दो सौ करोड़ कारें विद्युत में बदल दें तो बेहिसाब एसिड कचरा निकलेगा, जिसे निपटाने के साधन ही नहीं हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या सभी पेट्रोल-डीज़ल कारों को विद्युत कारों में बदलने से प्रदूषण समस्या का हल हो जाएगा?
एमआईटी एनर्जी इनिशिएटिव के शोधकर्ताओं के मुताबिक दुनिया में करीब दो सौ करोड़ वाहन हैं। इनमें से एक करोड़ ही इलेक्ट्रिक वाहन हैं। अगर सभी को विद्युत वाहनों में बदला जाए, तो उन्हें बनाने में जो एसिड कचरा निकलेगा, उसके निस्तारण के पर्याप्त साधन ही नहीं हैं। ऐसे में पब्लिक ट्रांसपोर्ट बढ़ाकर और निजी कारें घटाकर ही ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।
भारत में रजिस्टर्ड इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या 10 लाख 76 हज़ार 420 है। और वर्ष 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों की यह इंडस्ट्री 150 अरब डॉलर यानी साढ़े ग्यारह लाख करोड़ रुपए की हो जाएगी। यानी आज की तुलना में यह इंडस्ट्री 90 गुना बड़ी हो जाएगी। आज इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल के पीछे कई सारे फायदे प्रत्यक्ष रूप से दिख रहे हैं। इसके साथ-साथ हमें अप्रत्यक्ष नुकसान के प्रति चेतने की आवश्यकता है। प्रदूषण से आज़ादी दिलाने में इन ई-वाहनों के योगदान को नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन इनके निर्माण के दौरान निकलने वाला ज़हरीला कचरा बड़ी चुनौती है। इसके साथ-साथ बड़ी चुनौती हमारे देश के सामने नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर है। गौरतलब है कि भारत सरकार ने भी नवीकरणीय ऊर्जा और विद्युत वाहनों को लेकर लक्ष्य तय किए हैं। केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक 70 फीसदी व्यावसायिक कारें, 30 फीसदी निजी कारें, 40 फीसदी दो-पहिया और 80 फीसदी तिपहिया वाहनों को इलेक्ट्रिक में तबदील करना है। वहीं, 2030 तक 44.7 फीसदी बिजली नवीकरणीय स्रोतों से बनाएंगे, जो अभी 21.26 फीसदी है। फिलहाल देश में बिजली की आपूर्ति में कोयले का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में हमारे देश में नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से पर्याप्त बिजली बनाई जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://mediacloud.theweek.com/image/upload/v1644342520/electric%20pollution.jpg
जलवायु परिवर्तन के लिए प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन की बात आते ही बड़े-बड़े उद्योगों का ख्याल आता है। लेकिन हाल ही में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि खाद्य प्रणाली में 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन खाद्य सामग्री और खाद्य उत्पादों के परिवहन से होता है।
कृषि एवं पशुपालन के लिए ज़मीन साफ करने और खाद्य सामग्री को दुकानों तक पहुंचाने के दौरान बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। राष्ट्र संघ के अनुसार लगभग एक तिहाई वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए खाद्य उत्पादन, प्रसंस्करण और पैकेजिंग ज़िम्मेदार है। इतने व्यापक स्तर पर उत्सर्जन ने कई शोधकर्ताओं का ध्यान खाद्य प्रणालियों से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की ओर आकर्षित किया है।
अलबत्ता, खाद्य प्रणाली की जटिलताओं के कारण इसका सम्बंध वातावरण में उपस्थित कार्बन डाईऑक्साइड से पता करना थोड़ा पेचीदा मामला है। पूर्व में किए गए अध्ययन सिर्फ किसी एक उत्पाद, जैसे चॉकलेट, के दुकान तक पहुंचने और वहां से बाहर निकलने के दौरान होने वाले उत्सर्जन के आकलन तक ही सीमित थे। इसके अलावा इन आकलनों में किसी खाद्य उत्पाद में लगने वाले कच्चे माल के परिवहन से होने वाले उत्सर्जन को शामिल नहीं किया जाता था।
इन कमियों को दूर करने के लिए ऑस्ट्रेलिया स्थित युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी की सस्टेनेबिलिटी शोधकर्ता मेंगयू ली और उनके सहयोगियों ने 74 देशों और क्षेत्रों का डैटा एकत्रित किया और यह पता लगाया कि कोई खाद्य सामग्री कहां से प्राप्त होती है और एक स्थान से दूसरे स्थान तक कैसे पहुंचती है। इस आधार पर उन्होंने नेचर फूड पत्रिका में बताया है कि वर्ष 2017 में खाद्य उत्पादों के परिवहन के दौरान वातावरण में लगभग 3 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ था। यह पूर्व अनुमानों से 7.5 गुना अधिक है। अध्ययन के अनुसार उच्च आय वाले देश लगभग 50 प्रतिशत खाद्य-परिवहन उत्सर्जन करते हैं जबकि वैश्विक आबादी में उनका हिस्सा मात्र 12 प्रतिशत है। दूसरी ओर, कम आय वाले देश (विश्व आबादी में 50 प्रतिशत के हिस्सेदार) केवल 20 प्रतिशत खाद्य-परिवहन उत्सर्जन करते हैं। इतने बड़े अंतर का कारण शायद यह है कि उच्च आय वाले देश विश्व भर से खाद्य सामग्री आयात करते हैं और ताज़े फल और सब्ज़ियों के परिवहन के लिए रेफ्रिजरेटर के उपयोग से अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन होता है। फलों और सब्ज़ियों को उगाने की तुलना में उनके परिवहन में दुगना कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन होता है।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वनस्पति-आधारित आहार को सीमित किया जाए। दरअसल, कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि रेड मीट की तुलना में वनस्पति-आधारित आहार पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर है। रेड मीट के लिए अधिक भूमि लगती है और ग्रीनहाउस गैसों का भी अधिक उत्सर्जन होता है। तो रेड मीट की खपत कम करने और स्थानीय रूप से उत्पादित आहार लेने से जलवायु पर प्रभावों को कम करने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/008147dd2702a785ddbd0aae962548295c3e7dc1/0_0_1500_900/master/1500.jpg?width=1300&quality=85&fit=max&s=359e5ad140bf7491204e13a820497499
जुगनू अपनी टिमटिमाती रोशनी के लिए जाने जाते हैं। लेकिन लगता है कि हमारी भावी पीढ़ियां जुगनू देखने से वंचित रह जाएंगी। हाल में किए गए एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि भारत में कृत्रिम रोशनी जुगनुओं के प्रजनन पर असर डाल रही है। इस वजह से ये कीट प्रजनन नहीं कर पा रहे हैं। इससे इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है।
यह अध्ययन दुनिया भर में प्रकाश प्रदूषण के कारण बढ़ते पर्यावरणीय खतरों के प्रति सचेत करता है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले 30 वर्षों में जुगनुओं की संख्या में भारी गिरावट देखी गई है। नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च के शोधकर्ताओं ने आंध्र प्रदेश में एब्सकॉन्डिटा चाइनेंसिस प्रजाति के जुगनुओं की आबादी को रिकॉर्ड करने का प्रयास किया है। उनके शोध के मुताबिक, 2019 में बरनकुला गांव में 10 वर्ग मीटर क्षेत्र में जुगनुओं की संख्या औसतन 10 से 20 पाई गई जबकि 1996 में यह संख्या 500 से ज़्यादा थी।
ऐसे में कृत्रिम रोशनी के चलते लगातार जुगनुओं की घटती आबादी चिंता का विषय है। गौरतलब है कि देश में जुगनुओं पर अब तक बेहद कम अध्ययन किए गए हैं। ऐसे में इनकी लगातार घटती आबादी पर अंकुश लगाने को लेकर विशेष ध्यान नहीं दिया जा सका।
दरअसल, रात के समय में पड़ने वाली कृत्रिम रोशनी ने जीव-जंतुओं के जीवन को खासा प्रभावित किया है। पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाए रखने में छोटे-छोटे कीटों का अहम योगदान रहता है। इनका विनाश पारिस्थितिकी असंतुलन को बढ़ाने वाला है। आधुनिक ब्रॉड-स्पेक्ट्रम प्रकाश व्यवस्था इंसानों को रात में अधिक आसानी से रंगों को देखने में सक्षम बनाती है। लेकिन ये आधुनिक प्रकाश स्रोत अन्य जीव-जंतुओं की दृष्टि पर बहुत ज़्यादा नकारात्मक प्रभाव डालते है। इसके पीछे की वजह यह है कि मानव दृष्टि के लिए डिज़ाइन की गई कृत्रिम रोशनी में नीली और पराबैंगनी श्रेणियों का अभाव होता है, जो इन कीटों की रंगों को देखने की दृष्टि क्षमता के निर्धारण में अहम है। यह स्थिति कई परिस्थितियों में किसी भी रंग को देखने की कीटों की क्षमता को अवरुद्ध कर देती है।
बता दें कि जुगनू प्रकाश संकेतों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। उनकी प्रजनन गतिविधियां एक विशेष समय के लिए सीमित होती है। कृत्रिम प्रकाश की वजह से वे भटक जाते हैं। इससे उनके अंधे होने का भी डर बना रहता है। दुनिया भर में कृत्रिम प्रकाश बढ़ा है, जिस वजह से इनकी संख्या घट रही है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जुगनू आबादी को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारक कीटनाशकों का उपयोग और बढ़ता प्रकाश प्रदूषण है। यदि इन कारकों को नियंत्रित नहीं किया गया, तो अंततः जुगनू विलुप्त हो जाएंगे।
2018 के एक अध्ययन के मुताबिक, चीन और ताइवान के कुछ हिस्सों में पाए जाने वाली एक्वाटिका फिक्टा प्रजाति के जुगनुओं में रोशनी के पैटर्न अलग-अलग देखे गए हैं। इसकी वजह कृत्रिम प्रकाश है। इस वजह से साथी को खोजने की उनकी संभावना कम हुई है। प्रजनन के मौसम में जुगनू अपने प्रकाश के विशेष पैटर्न से एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। लेकिन कृत्रिम प्रकाश की वजह से जुगनुओं को अपने साथी को आकर्षित करने के लिए ज़्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है।
चिंताजनक बात यह भी है कि तेज़ी से शहरीकरण के कारण दलदली भूमि के सिकुड़ने से जुगनुओं का आवास समाप्त हो गया है। जुगनू का जीवनकाल कुछ ही हफ्तों का होता है। वे गर्म, आर्द्र क्षेत्रों से प्यार करते हैं और नदियों और तालाबों के पास दलदलों, जंगलों और खेतों में पनपते हैं। स्वच्छ वातावरण की तलाश में और मच्छरों द्वारा फैलने वाली बीमारियों से निपटने के लिए, लोगों ने दलदलों को नष्ट कर दिया है और फलस्वरूप जुगनू के लिए अनुकूल माहौल नष्ट हो गया है।
पिछले कुछ वर्षों में कृत्रिम रोशनी के हस्तक्षेप के चलते न केवल जुगनुओं बल्कि सभी प्रकार के जीव-जंतुओं पर प्रभाव पड़ा है। यह देखा गया है कि पूरी दुनिया में रात के समय में प्रकाश व्यवस्था का स्वरूप पिछले करीब 20 वर्षों में नाटकीय रूप से बदला है। एलईडी जैसे विविध प्रकार के आधुनिक रोशनी उपकरणों का चलन बढ़ा है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि कृत्रिम प्रकाश से होने वाला प्रदूषण समस्त वातावरण को प्रदूषित करता है। प्रकाश प्रदूषण अमूमन पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करता है। कृत्रिम प्रकाश की तीव्रता बेचैनी को बढ़ा देती है और मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था को दुरुस्त करके न केवल हम कीटों पर पड़ने वाले विनाशी प्रभाव को कम कर सकते हैं, बल्कि हमारे अपने स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों से भी बच सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://scroll.in/article/1026776/artificial-lights-are-shrinking-firefly-habitats-in-india-and-beyond